हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 90 ☆ सॉनेट – मातृभाषा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट – मातृभाषा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 90 ☆ 

☆ सॉनेट – मातृभाषा 


माँ की भाषा केवल ममता।

वात्सल्य व्याकरण अनोखा।

हर अक्षर है प्यारा चोखा।।

खूब लुटाती नेह न कमता।।

बारहखड़ी दूध की धारा।

शब्द-शब्द का अर्थ त्याग है।

वाक्य-छंद में भरा राग है।।

कथ्य गीत का तन-मन वारा।।

अलंकार लोरी में अनगिन।

रस सागर की लहरें मत गिन।

शिशु बन हो आनंदित पल-छिन।।

पल में तोला, पल में माशा।

श्वास-श्वास दे जन्म तराशा।

माँ की भाषा दूध-बताशा।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२२-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #120 ☆ आरती – श्री बंगाली बाबा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 120 ☆

☆ ‌आरती – श्री बंगाली बाबा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

जय जय हे बंगाली बाबा,

जय जय हे बंगाली बाबा।

तुम दीनों के मात पिता हो,

तुम रक्षक तुम दाता ।।जय जय हे।।१।।

 

तुम हो बाबा बड़े दयालू,

शिव स्वरूप हो बड़े कृपालू।

तुम सा नहीं है कोई ज्ञानी,

कोई नहीं है तुम सा दानी ।

कीर्ति जगत विख्याता ,

जय जय हे बंगाली बाबा!।।२।।

 

तुम हरते अज्ञान तिमिर को,

जलते ज्योति पुंज बन हिय में।

तुम हो प्राणाधार जगत के ,

जीव जगत जन जन के तन के।

तुम रक्षक तुम दाता,

जय जय हे बंगाली बाबा।।३।।

 

डूब रही है जीवन नैया ,

जो मिल जाए तुम सा खिवैया।

हमें उबारो बीच भंवर से,

बनकर भाग्य विधाता।

तुम रक्षक तुम दाता ,

जय जय हे बंगाली बाबा।।४।।

 

जो कोई तेरे दर आये,

चरण धूलि उसको मिल जाए।

तन मन की सुख शांति वैभव,

बिनु मांगे सब पाता।

तुम रक्षक तुम दाता,

जय जय हे बंगाली बाबा।।५।।

 

जलते हो बन दीपशिखा,

नर रूपी नारायण तन मे

सदगुरु बन के तुम्हीं बिराजे,

भक्तजनों की श्रद्धा मन में।

कीर्ति जगत विख्याता,

जय जय हे बंगाली बाबा।।६।।

 

तुम ही सबके जीवन धन हो,

तुम ही मेरे प्रेम रतन हो।

आत्मानंद मगन मन भजता,

कृपा तुम्हारी पाता।

तुम रक्षक तुम दाता,

जय जय हे बंगाली बाबा।।७।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (76 – 80) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

महाराज सब यत्न कर भी हमारे वलय आपका तो नहीं हाथ आया।             

लगता है कि लोभवश कुमुदनागेश ने नदी जल से उसे है चुराया।।76।।

 

तब बली कुश ने पहुंच सरयू तट पै, कुमुद नाग को मारने शर उठाया।

प्रत्यंचा चढ़ाई, गरुड़ देव के अस्त्र का करने संधान मस्तक झुकाया।।77।।

 

संघान करते ही जलहृद विकल हो, लगा तरंगों से वो तट को डुबाने।

औं गर्त में गिरे वन गज सरीखा लगा मचलने शोर भारी मचाने।।78।।

 

सागर के मन्थन पै ज्यों कल्प तरु साथ लक्ष्मी को ले के उपस्थित हुआ था।

वैसे ही उस क्षुब्ध जलहृद से नागेश, ले कुमुद कन्या वहाँ आ खड़ा था।।79।।

 

लख नाग को सहित भूषण उपस्थित, नटराज कुश ने उतारी प्रत्यंचा।

सज्जन कभी भी विनत शरण आये हुओं के भला कब हुए प्राण हंता।।80।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #140 – ग़ज़ल-26 – “अभी ज़िंदगी में तूफ़ान और भी हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “अभी ज़िंदगी में तूफ़ान और भी हैं…”)

? ग़ज़ल # 26 – “अभी ज़िंदगी में तूफ़ान और भी हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

माशूक के सिवा शैतान और भी हैं,

अभी ज़िंदगी में तूफ़ान और भी हैं।

 

हमसफ़र बन कर वो संग-संग चलें,

दिलों  में  हसरतें अभी और भी हैं।

 

हमने ज़हर भरे प्याले खूब भर पिए,

इश्किया पैमाने इधर उधर और भी हैं।

 

सैयाद  की  तैयारी में कसर नहीं,

उन की नज़रे इनायत और भी हैं।

 

मुहब्बत में उम्मीद नज़र नहीं आती,

आतिश कब्र में ठिकाने  और भी हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#78 ☆ गजल – ’’खुद से भी शायद ज्यादा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “खुद से भी शायद ज्यादा…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 78 ☆ गजल – खुद से भी शायद ज्यादा…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मेरे साथ तुम जो होते, न मैं बेकरार होता,

खुद से भी शायद ज्यादा, मुझे तुमसे प्यार होता।

तुम बिन उदास मेरी मायूस जिन्दगी है,

होते जो पास तुम तो क्यों इन्तजार होता ?

 

मजबूरियाँ  तुम्हारी तुम्हें दूर ले गईं हैं,

वरना खुशी का हर दिन एक तैवहार होता।

मुह मांगी चाह सबको मिलती कहाँ यहाँ है ?

मिलती जो, कोई सपना क्यों तार-तार होता ?

 

हँसने के वास्ते कुछ रोना है लाजिमी सा,

होता न चलन ये तो दिल पै न भार होता।

मुझको जो मिले होते मुस्कान लिये तुम तो,

इस जिन्दगी में जाने कितना खुमार होता।

 

आ जाते जिन्दगी में मेरे राजदार बन जो,

सपनों की झाँकियों का बढ़िया सिंगार होता।

हर रात रातरानी खुशबू बिखेर जाती,

हर दिन आलाप भरता सरगम-सितार होता।

 

तकदीर है कि ’यादों’ में आते तो तुम चुप हो,

पर काश कि किस्मत में कोई सुधार होता।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अविनाशी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – अविनाशी ??

कभी पहाड़ से कूदता है,

कभी आग में लोटता है,

कभी पानी में उतरता है

कभी चाकू से गोदता है,

चीखता है, चिल्लाता है,

रोता है, गिड़गिड़ाता है,

चोला बदलने के लिए

कई पापड़ बेलता है,

सहानुभूति का पात्र है

जर्मन लोक-कथाओं में

अमरता का वरदान पाया

वह अभिशप्त राक्षस..,

 

अमर्त्य होने की इच्छा पर

अंकुश कब लगाओगे मनुज,

अपनी अविनाशी नश्वरता का

उत्सव कब मनाओगे मनुज.?

© संजय भारद्वाज

रात्रि 1:53 बजे, 14.4.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (71-75)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (71 – 75) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

 

निज रानियों संग नहाते हुए कुश, सरयू के जल में लगे यों सुहाने।

जैसे कि आकाश गंगा में हो इंद्र, सुर अप्सराओं के संग में नहाने।।71।।

 

श्रीराम ने वन में कुम्भज ऋषि से विजयशील दिव्या भरण जो था पाया।

दिया उनने था कुश को, पर कुश ने उसको नहाते अलक्षित था जल में गिराया।।72।।

 

कर स्नान जल क्रीड़ा संग रमणियों के, जब कुश निकल जल के तट पर थे आ।

तो उस वलय रहित लख निज भुजा कों, विस्मित हुये चैन मन में ने पाये।।73।।

 

श्री के वशीकरण का था वलय वह, जो था मिला उन्हें अपने पिता से।

अतः धीर कुश हानि से थे दुखी लोभ नहिं, उन्हें सम फूल औं’ संपदा थे।।74।।

 

आदेश देकर कुशल धीवरों को वलय खोजने के लिये तब लगाया।

यत्नों से भी जब वह न उनको मिला उनने कर बद्ध हो आके कुश को बताया।।75।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कविता – राग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता राग।)

☆ कविता – राग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

आजन्म रक्तरंजित रहते आए होंगे

भीम के घुटने

पांडवों के संग वन-वन भटकते

जब भी द्रौपदी को प्यास लगी

भीम ने घुटनों से

फोड़ डाली कोई चट्टान

भीम में बुद्धि ज़रा कम थी

इसलिए राग ज़रा ज़्यादा

युधिष्ठिर में राग ज़रा कम था

बुद्धि बहुत ज़्यादा

स्वर्गारोहण के समय

द्रौपदी जब हिम में धँसी

तो हाथ बढ़ाकर भीम ने

थाम लेना चाहा उसे

पर युधिष्ठिर ने कहा-

‘बस यहीं तक था

हमारा और उसका साथ’

लाचार भीम चलता गया

अपने भाइयों के साथ

रह-रहकर उसकी आँखें

कातर द्रौपदी को देखतीं

और आँखों से टपक जाता

कोई तप्त आँसू

पिघल जाती पैरों तले की हिम

आख़िर ओझल हो गई द्रौपदी

आख़िर सूख गये भीम के आँसू

आख़िर हिम में धँस

स्वयं हिम हो गया भीम

सुनते हैं

हिम हुए भीम की आँखें

आज भी वहाँ देखती हैं

जहाँ हिम में धँसी थी द्रौपदी।

 

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सार्वकालीन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – सार्वकालीन ??

मेरा समय

क्षुब्ध है मुझसे,

निरर्थक बिता देने से

क्रुद्ध है मुझ पर,

पर यह केवल

मेरा सत्य नहीं है,

स्वयं को कर्ता समझ कर

जब कभी इस कविता को बाँचोगे,

इसमें प्रयुक्त ‘मेरा’ को

सदा सार्वजनीन पाओगे,

अपने समय का

और हर समय का

सार्वभौम यथार्थ कहती है,

कविता समकालीन होती है,

कविता सार्वकालीन रहती है!

© संजय भारद्वाज

(रात्रि 12:10 बजे, 28.4.2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #129 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 129 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

लगी द्वार पर टकटकी, देख रही है राह।

जिज्ञासा मन में जगी, बेटे की है चाह।।

 

दया, मोह, ममता नहीं, नहीं किसी से नेह।

जीवन के अब अंत में, छूट गया है गेह।।

 

आज नहीं तुम्हें समझ, कल का कैसा हाल।

सोच रहे है हम वही, नहीं लौटता साल।।

 

टूट गए रिश्ते सभी, तुझे नहीं पहचान।

वक्त तुझे सिखला रहा, बन जाओ इंसान।।

 

माँ का अक्सर उठ रहा, दुआ के लिए हाथ।

अंतर्मन कहता यही, रहते मिलजुल साथ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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