हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ पुराने ज़माने के लोग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा – पुराने ज़माने के लोग )

☆ लघुकथा ☆ पुराने ज़माने के लोग ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

जिन दिनों बसों की अनिश्चितकालीन हड़ताल चल रही थी, उन्हीं दिनों में एक दिन अविनाश ने पिता से कहा, “पापा, गाँव से तीन‌‌-चार बार दादी का फ़ोन आ चुका है कि आकर मिल जाओ। कल चलें हम? परसों संडे को वापस आ जाएँगे।”

“क्यों नहीं? कौन-कौन जाएगा?”

“आप, मम्मी, मैं और सुनीता चारों चलेंगे।”

“क्यों न जनक को भी साथ ले लें, उसे भी गाँव जाना है, बसों की हड़ताल की वजह से नहीं जा पा रहा है। गाड़ी में सीट तो है ही।” जनक उनका बचपन का दोस्त था, उन्हीं के गाँव का और अब इसी शहर में रह रहा था। वे दोनों अक्सर एक साथ ही गाँव जाया करते थे।

“नहीं पापा, गाड़ी में चार आदमी ही आसानी से बैठ सकते हैं। और फिर प्राइवेसी भी तो कुछ होती है। कोई पराया साथ हो तो इन्जाॅय कैसे कर सकते हैं। मैं तो अकेला भी होऊँ तो किसी बाहर वाले को बैठाना पसंद नहीं करता।”

“यह तुम्हारी सोच है बेटा! मैं तो सोचता हूँ कि ख़ुद थोड़ी तकलीफ़ भी सहनी पड़े तो भी दूसरे को सुख देने की कोशिश की जानी चाहिए और हमें तो कोई तकलीफ़ सहनी ही नहीं है। गाड़ी में सीट है, सिर्फ़ पौन घंटे का रास्ता है।” नंदकिशोर को ‘पराया’ शब्द हथौड़े की तरह लगा था।

“पुराने ज़माने के लोग! हमेशा औरों के लिए सोचते रहे, तभी तो कभी ज़िंदगी को इन्जाॅय नहीं कर पाए। कभी अपने लिए जी कर देखिये पापा!”

नंदकिशोर कहना चाहते थे – किसी और के लिए जी कर देखो बेटा, असली आनंद उसी में है। यह आनंद का अभाव ही तुम में इन्जाॅय की तृष्णा पैदा करता है। तृष्णा कभी मरती नहीं है, इसीलिये लगातार इन्जाॅय करते हुए भी तुम कभी संतोष का अनुभव नहीं करते- पर प्रकटत: उन्होंने पूछा, “कल पक्का वापस आना है?”

“आना तो होगा ही, परसों ऑफ़िस भी तो जाना है।”

“तो फिर तुम हो आओ बेटा! मैं तो तीन-चार दिन रुकूँगा। एक दिन में मेरा मन नहीं भरता।”

अविनाश अपनी माँ और पत्नी के साथ गाँव के लिए रवाना हो गया। उसके जाने के पंद्रह-बीस मिनट के बाद नंदकिशोर ने स्कूटी उठाई और जनक को साथ लेकर गाँव की ओर चल दिए।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #193 – 79 – “दरिया ए इश्क़ में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दरिया ए इश्क़ में…”)

? ग़ज़ल # 79 – “दरिया ए इश्क़ में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

चार दिन की ज़िंदगी में दो दिन प्यार के,

मुसलसल इम्तहान चल रहे जीत हार के।

नाव मेरी है भंवर में  ना कोई नाख़ुदा,

है भरोसा पार होगी ये बिन पतवार के।

एक झलक पर मर मिटा दिवाना आशिक़,

हैं कई परवाने उस महताब ए रूखसार के।

कड़कड़ाती ठंड में उनकी मुहब्बत का असर,

कंबल सी मुलायम गर्मी देते पहलू यार के।

दरिया ए इश्क़ में हम गहरे उतरते चले गए,

अब भँवर में है सफ़ीना जज़्बाती अदाकार के।

इक दिया देहरी पे अब भी जल रहा उम्मीद का,

दिन ज़रूर बदलेंगे बारिश में खस ओ खार के।

आतिश अब तुम पर ख़ुदा तक का साया नहीं,

ज़िंदगी जी नहीं जाती बिना किसी दिलदार के।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रासंगिकता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – प्रासंगिकता ??

(कविता संग्रह, ‘मैं नहीं लिखता कविता।’)

आजकल कविताएँ

लिखने-पढ़ने का दौर

ख़त्म हो गया क्या..?

नहीं तो,

पर तुम्हें ऐसा क्यों लगा..?

फिर रोज़ाना

ये वीभत्स, विकृत,

नृशंस कांड

कैसे हो रहे हैं..?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ “क्या फर्क पड़ता है…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ “क्या फर्क पड़ता है…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

हर रोज़

एक नयी महाभारत !

 

कृष्ण और अर्जुन दिखाई नहीं देते !

अखबारों के लखटकिया विज्ञापनों में

विद्यादान का लोहा मनवाने को

आतुर “सारे द्रोण”

भीष्म अगर है कोई

तो पड़ा है मरणासन्न मौन !

देख रहा है

टुकुर टुकुर

 

चौड़ी हो रही हैं

दुर्योधनों दुःशासनों की मुस्कुराहटें !

 

“पैदल सैनिक”

कौरवों के हों या पांडवों के

क्या फर्क पड़ता है !

वे स्वयं एक शस्त्र हैं

जिनके हाथों में थमा दिया गया है

धातु का धारदार नुकीला टुकड़ा

मारने और मरने के लिए !

जो शापित हैं इतिहास में

आँकड़ों में

बदलने के लिए!

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 66 ⇒ मेरी आवाज सुनो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी आवाज सुनो।)  

? अभी अभी # 66 ⇒ मेरी आवाज सुनो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

कुछ आवाज़ें हम कई वर्षों से सुनते चले आ रहे हैं, वे आवाज़ें रेकॉर्ड की हुई हैं, वे लोग आज मौजूद नहीं हैं, सिर्फ उनकी आवाज आज मौजूद हैं। कभी उन्हें His Master’s Voice नाम दिया गया था और आज भी उन आवाजों को हम, नियमित रेडियो पर और अन्य अवसरों पर, विभिन्न माध्यमों द्वारा सुना करते हैं।

मेरी आवाज ही पहचान है ! जी हां, आज आप किसी भी आवाज को रेकाॅर्ड कर सकते हो, बार बार, हजार बार सुन सकते हो। जब कोई हमें आग्रह करता है, कुछ गा ना ! और जब हम कुछ गाते हैं, तो वह गाना कहलाता है। जो गाना हमें भाता है, उसे हम बार बार सुनते हैं, बार बार गाते हैं।।

बोलती फिल्मों के साथ ही, फिल्मों में गीत और संगीत का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा। पहले अभिनय के साथ अभिनेता को गाना भी पड़ता था, इसलिए कुंदनलाल सहगल और मुकेश अभिनेता बनते बनते गायक भी बन बैठे। बाद में अभिनेता आवाज उधार लेने लगे। और नूरजहां, सुरैया, खुर्शीद, शमशाद बेगम, लता, आशा, तलत, रफी, मुकेश और किशोर कुमार जैसी कई आवाजों ने अपनी पहचान बनाई।

क्या कोई गायक किसी की पहचान बन सकता है। मुकेश, आवारा हूं, गाकर राजकपूर की पहचान बन गए तो किशोर कुमार रूप तेरा मस्ताना गाकर, राजेश खन्ना की पहचान बन गए।

बड़ा विचित्र है, यह आवाज का सफर। पहले गीत जन्म लेता है, फिर संगीतकार पहले उसकी धुन बनाता है और बाद में एक गायक उसको अपना स्वर देता है। जब वह गीत किसी फिल्म का हिस्सा बन जाता है, तो नायक सिर्फ होंठ हिलाने का अभिनय करता है, और वह गीत एक फिल्म का हिस्सा भी बन जाता है। फिल्म में अभिनय किसी और का, और आवाज किसी और की। एक श्रोता के पास सिर्फ गायक की आवाज पहुंचती है। जब कि, एक दर्शक गायक को नहीं देख पाता, उस तक , पर्दे पर होंठ हिलाते , हाथों में हाथ डाले, राजेश खन्ना और फरीदा जलाल, बागों में बहार है , कलियों पे निखार है, गीत गाते , नजर आते हैं।।

सहगल के बाद ही गायकों का सिलसिला शुरू हुआ।

पहले तलत और लता अधिकांश नायक नायिकाओं की आवाज बने, लेकिन बाद में मोहम्मद रफी और मुकेश के साथ साथ किशोर कुमार, मन्ना डे, महेंद्र कपूर, ही मुख्य गायक रहे। मुकेश सन् १९७६ में हम तो जाते अपने गाम कहकर चले गए तो १९८० में रफी साहब भी , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों , कहकर गंधर्व लोक पहुंच गए। एकमात्र लता और आशा का साम्राज्य आदि से अंत तक आवाज की दुनिया में कायम रहा। जब तक सुर है साज है, गीत है आवाज है। सुमन कल्याणपुर, हेमलता, से होती हुई आज श्रेया घोषाल तक कई नारी कंठ की आवाजें और शैलेंद्र सिंह, येसुदास, सुरेश वाडकर तथा उदित नारायण तक कई पुरुष स्वर श्रोताओं पर अपना प्रभाव छोड़ चुके हैं, लेकिन किसी की आवाज बनना इतना आसान नहीं होता।

राजकपूर के अलावा देवानंद के लिए पहले तलत और बाद में किशोर और रफी दोनों ने अपनी आवाजें दीं। गाता रहे मेरा दिल किशोर गा रहे हैं लेकिन प्रशंसकों के बीच देव साहब छा रहे हैं। दिन ढल जाए में श्रोता एक ओर रफी साहब की आवाज में डूब रहा है और दूसरी ओर तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं, में दर्शक देव साहब की अदा पर फिदा हो रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि जब रफी साहब शम्मी कपूर के लिए गाते थे, तो उनकी काया में प्रवेश कर जाते थे और जब दिलीप साहब के लिए गाते थे, तो दोनों की रुह एक हो जाती थी।

एक दिलचस्प उदाहरण देखिए जहां अभिनेता और पार्श्व गायक एक साथ पर्दे पर मौजूद हैं। जी हां, मेरे सामने वाली खिड़की में, सुनील दत्त बैठे हैं, और उनके पीछे किशोर कुमार छुपकर एक चतुर नार से मुकाबला कर रहे हैं। कौन अच्छा अभिनेता, सुनील दत्त अथवा गायक किशोर कुमार, हम चुप रहेंगे।

आप सिर्फ इनकी आवाज सुनो और फैसला दो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 71 ☆ ।। सब कुछ धरा का, धरा पर, धरा ही रह जायेगा ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ मुक्तक  ☆ ।। सब कुछ धरा का, धरा पर, धरा ही रह जायेगा ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

जीत का भी हार का भी  मज़ा कीजिए।

खिलकर बन संवर  कर सजा कीजिए।।

तनाव अवसाद ले जाते हैं  जीवन पीछे।

जो दिया खुशी से प्रभु ने  रजा कीजिए।।

[2]

बात बनती बात बिगड़ती जीवन धरम है।

वक्त पर भाग्य साथ दे यहअच्छे करम हैं।।

धूप छांव खुशी गम सब काआनंद लीजिए।

तभी कहते जीवन के रास्ते नरम गरम हैं।।

[3]

चिकनीचुपड़ी सूखी रोटी सबआनंद लीजिए।

जितना हो सके आप जरा परमार्थ कीजिए।।

धरा का सब  धरा पर   धरा ही रह जायेगा।

सुख दुःख जीवन में हर   रस पान पीजिए।।

[4]

यह जीवन बहुत अनमोल हर रंग स्वाद है।

वो जीता सुखशांति से जब ढंग निस्वार्थ है।।

जियो और जीने दो  का  मंत्र ही है सफल।

वो जीवन तो निष्कृष्ट जिसे लगी जंग स्वार्थ है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “नागफनी के फूल…” ☆ श्री संजय सरोज ☆

श्री संजय सरोज 

(सुप्रसिद्ध लेखक श्री संजय सरोज जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आप वर्तमान में असिस्टेंट कमिश्नर, (स्टेट-जी एस टी ) के पद पर कार्यरत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  भावप्रवण कविता  – “नागफनी के फूल…)

☆ कविता ☆ ? “नागफनी के फूल…” ??

रेगिस्तानी बंजर भूमि पर बिखरी चांदनी ,

हरे नागफनियो के झुरमुटों को सहलाती चांदनी,

जो कल फिर झेलेंगे उस दहकते ताप को,

जो निगल गया है ब्लैक होल की तरह सब कुछ,

 

जो चाहता है इनको भी निगलना,

पर जिस पर खिलेंगे,

कल छोटे-छोटे फूल कई,

कुछ जामुनी,कुछ चंपई,

और कुछ सुर्ख रंगों में ……

©  श्री संजय सरोज 

नोयडा

मो 72350 01753

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 135 ☆ बाल गीतिका से – “आजाद देश की पहचान…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “आजाद देश की पहचान…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “आजाद देश की पहचान…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आजाद देश की कई होती अलग पहचान

जैसे कि राष्ट्र चिह्न राष्ट्र ध्वज व राष्ट्रगान ॥

 

हर एक को हो इनका ज्ञान और सदा ध्यान

हर नागरिक को चाहिये दे इनको वे सन्मान ॥

 

इनका स्वरूप कैसे बना, क्या है इनका अर्थ

यह समझना जरूरी है जिससे न हो अनर्थ ॥

 

भारत के ये प्रतीक क्या हैं इनको जानिये

तीनों का अर्थ समझिये मन से ये मानिये ॥

 

सम्पन्नता, बलिदान, त्याग, गति, विकास की ।

देती है इनसे निकलती किरणें प्रकाश की ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कविते !… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कविते !… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

(वृत्त :आनंदकंद – (गागाल गालगागा गागाल गालगागा))

कविते ! तुझीच बाधा, आजन्म भोवणार

वणव्यात चांदण्याची, मी गोष्ट सांगणार —

 

ना बाण कागदी हे, रक्ताक्षरे उरीची

गंगौघ आसवांचा, गंगेत नाहणार —

 

आयुष्य श्रावणी हे, उन पावसात चिंब

सतरंग जीवनाचे, रसिकांस दावणार —

 

कबरीत काळजाच्या, दफने किती करावी

दूभंग या  धरेला, आकाश सांधणार —

 

गंधाळतील दुःखे, झंकारतील सूर

टाहोत मैफिलीच्या, संगीत छेडणार —

 

नगरी अमानुषांची, होणार छिन्नभिन्न

योद्धेच शब्द आता, रणशिंग फुंकणार —

 

कोणी नसेल संगे, माझ्यात मी असेन

तूझ्याच विश्वरूपा, माझ्यात पाहणार —

 

माझाच ध्रूव जेव्हा, अढळातुनी ढळेल

खेचून मी स्वतःला,चौकात आणणार !!!!

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 156 – माझे अण्णा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 156 – माझे अण्णा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

वालुबाई पोटी।

जन्माले सुपुत्र।

भाऊराव छत्र।

तुकोबांचे।।१।।

 

वाटेगावाचे हो

भाग्य किती थोर।

उजळली भोर।

तुकोबाने।।२।।

 

कथा कादंबरी।

साहित्यिक तुका।

पोवाड्यांचा ठेका।

अभिजात।।३।।

 

गण गवळण।

वग, बतावणी।

समाज बांधणी।

अविरत।।४।।

 

वर्ग विग्रहाचे।

ज्ञान रुजविले।

किती घडविले।

क्रांतीसूर्य।।५।।

 

लाल बावट्याचे।

कार्य ते महान।

समाज उत्थान।

कार्यसिद्धी।।६।।

 

अविरत काम।

कधी ना आराम।

प्रसिद्धीस नाम।

अण्णा होय।।७।।

 

दीन दलितांचा।

आण्णा भाष्यकार।

टीपे कथाकार।

दुःखे त्यांची।।८।।

 

कथा कादंबऱ्या।

संग्रहांची माला।

कम्युनिस्ट चेला।

वैचारिक।।९।।

 

कलावंत थोर।

जगात संचार।

इप्टा कारभार।

स्विकारला।।१०।।

 

भुका देश माझा।

भाकरी होईन।

जीवन देईन।

शब्दातून।।१०।।

 

अनेक भाषात।

भाषांतर झाले।

जगात गाजले।

साहित्यिक ।।११।।

 

त्रिवार असू दे

मानाचा मुजरा ।

साहित्यिक खरा।

स्वयंसिद्ध।।१२।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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