हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-15 – थियेटर की दुनिया के खुबसूरत मोड़ ! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-15 – थियेटर की दुनिया के खुबसूरत मोड़ ! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

हाँ, तो मैं कल बात कर रहा था, जालंधर के थियेटर, रंगकर्म और‌ रंगकर्मियों के बारे में ! गुरुशरण भाजी के साथ लम्बा साथ रहा और‌ बहुत सी बातें हैं, यादें हैं! वे वामपंथियों को झिंझोड़ते कहते थे कि एक कामरेड हर बात पे कहता है कि आपको पता नहीं कि हम लोगों के बीच में से आये हैं ! इस पर भाजी का जवाब बड़ा मज़ेदार और चुटीला था- कामरेड! यही तो दुख है कि आप लोगों में से निकल आये हो और अब आप इनकी नब्ज़ नहीं समझ पा रहे  ! फिर‌ वे युवाओं को कहते कि गाने के बोल हैं कि

पिच्छे पिच्छे आईं

मेरी तोर बेहदां आईं

इत्थे नीं मेरा लौंग गवाचा!

बताओ भई ! युवा पीढ़ी का यही काम रह गया कि मुटियारों की नाक का कोका ही खोजते ज़िंदगी बिता दें? हमारे संपादक श्री विजय सहगल को भी गुरुशरण पाजी से दोस्ती का पता था। एक बार वे दिल्ली से अकादमी पुरस्कार लेकर देर शाम लौटे उस दिन मेरी नाइट ड्यूटी थी! अचानक रात के ग्यारह बजे सहगल जी का फोन आया कि आपकी दोस्ती आज आजमानी है कि इसी समय उनका फोन पर इंटरव्यू लो! उसी समय फोन लगाया और उनकी पत्नी ने उठाया और बोलीं कि वे तो थक कर सो गये हैं, मैंने कहा कि किसी भी तरह उनको जगा दीजिए ! भाजी आंखें मलते उठे होंगे पर मुझे अपने पुरस्कार पर इंटरव्यू दे दिया ! ज़रा बुरा नही माना ! वे ‘ समता प्रकाशन” भी चलाते थे और  हर नाटक के बाद वे अपने प्रकाशन की पुस्तकें लहरा कर कहते कि ये पुस्तकें लीजिए ! बहुत कम कीमत और‌ बहुत ही गहरी किताबें ! यह बात मैंने भाजी से सीखी कि किताब आम आदमी तक कैसे बिना किसी संकोच के लागत मूल्य पर पहुँचाई जा सकती है और मैं अपनी किताबें आज भी सीधे मित्रों तक पहुंचा कर लागत मूल्य मांगने से कोई संकोच महसूस नहीं करता ! इसके गवाह मेरे अनेक मित्र हैं !

खैर! भाजी के किस्से अनंत और‌ उनकी गाथा अनंत! अफसोस! एक बार जब वे अपनी टीम के साथ कहीं से नाटक मंचन कर देर रात लौट रहे थे, तब उनकी बैन किसी जगह उल्ट गयी और‌ वे घायल हो गये । हालांकि पाजी ने हिम्मत न हारी, फिर भी वे फिर‌ लम्बे समय तक नहीं रहे हमारे बीच ! इस तरह हमारे पास उनकी यादें ही यादें रह गयीं पर उनका थियेटर के लिए जुनून एक मिसाल है आज तक !

अमृतसर से ही थियेटर करने मेंं नाम कमाने वाले दो और रंगकर्मी हैं,  जिनसे मेरी थोड़ी थोड़ी मुलकातेंं हैं । ‌पहले केवल धालीवाल, जिनसे मेरी एक ही मुलाकात है और वह है प्रसिद्ध लेखक स्वदेश दीपक के घर‌ अम्बाला छावनी में ! तब मैं स्वदेश दीपक का इंटरव्यू लेने गया था और‌ केवल धालीवाल ‘कोर्ट मार्शल’ को पंजाबी में मंचित करने की अनुमति लेने पहुंचे हुए थे ! पाजी के बाद केवल धालीवाल ने भी खूब काम किया और नाटक को ऊंची पायदान पर पहुंचाने में योगदान दिया ! अमृतसर से ही नीलम मान सिंह भी आईं थियेटर में ! वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के थियेटर विभाग की अध्यक्ष भी रहीं और‌ ‘कंपनी’ नाम से अपना थियेटर ग्रुप भी बनाया, उन्होंने विदेशों तक पंजाबी थियेटर को पहुंचाया ! उन्होंने राॅक गार्डन में भी धियेटर किया !

बरसों बाद अचानक एक अस्पताल से बाहर आते मैंने इन्हें इनकी चमकतीं आंखों के चलते पहचाना ! मेरा छोटा भाई तरसेम वहां एक्सीडेंट के बाद दाखिल‌ था और‌ मैं उसकी कुशल मंगल पूछने आया था ! अचानक वे दिखीं और‌ मैं इनकी कार तक गया और मेरे मुंह से नीलम मान सिंह की बजाय सोनल मान सिंह निकल गया और वे नाराज़ होकर बोलीं-नो और कार स्टार्ट की लेकिन शायद उन्हें भी कुछ याद आई और वे कार से उतर कर आईं और‌ बोलीं – आई एम नीलम मान सिंह! पर आपने क्यों पूछा? मैंने “क़पनी’ का जिक्र करते बताया कि मैं उन दिनों आपके परिचय में आया था जिन दिनों आप राॅक गार्डन में थियेटर का एक्सपेरिमेंट कर रही थीं ! उन्हें भी मेरी हल्की सी याद आई और पूछा कि आज यहा कैसे? मैंने कहा कि आप यह बात छोड़िये ! आजकल मैं हिसार‌ रहता हूँ और वहाँ एक सांध्य दैनिक में कलाकारों के इ़टरव्यू छापता हूँ। ‌आप अपना नम्बर दे दीजिए, किसी दिन फोन पर ही इंटरव्यू कर लूंगा ! आखिर एक दिन उनकी इ़टरव्यू हुई और‌ उन्होंने अपना थियेटर का सफर बताया ! उनकी हीरोइन जो मोहाली रहती थी, रमनदीप की याद दिलाई और बताया कि आजकल वह कोलकाता में रहती है और उसका इंटरव्यू भी कर चुका हूँ । यहीं मैंने एक बार पंजाब के प्रसिद्ध नाटक ‘ लोहा कुट्ट ‘ के रचनाकार बलवंत गार्गी से नवांशहर की कलाकार बीबा कुलवंत के साथ उनके सेक्टर 28 स्थित आवास पर मिला था! बीबा कुलवंत ने ही इस नाटक की हीरोइन का रोल‌ निभाया था, जिसे खटकड़ कलां में ही नहीं पंजाब भर में जसवंत खटकड़ ने पहुंचाया! मैंने बलवंत गार्गी से मज़ाक में कहा कि आप पंजाब में बस लोहा ही कूटते रहे और कूटते कूटते इसे स्टील बना दिया। वे बहुत हंसे और कहि कि एक पैग इसी बात पर‌!

इस तरह मैं चंडीगढ़ में भी थियेटर के लोगों से मिलता रहा ! यहीं थियेटर विभाग में छात्र थे राजीव भाटिया और हिमाचल के धर्मशाला की वंदना, जो बाद में आपस में जीवन साथी बने और स़ंयोग देखिये कि जब हिसार ट्रांसफर हुई तब मैंने जो घर किराये पर  लिया वह राजीव भाटिया की गली में मिला ! इस तरह बरसों बाद देखा कि राजीव भाटिया हरियाणवी फिल्मों में योगदान दे रहे हैं और इसकी फिल्म – पगड़ी द ऑनर’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला ! हालांकि राजीव भाटिया और‌ वंदना मुम्बई रहते हैं लेकिन जब जब हिसार आते हैं, तब तब खूब महफिल जमती है हमारी ! खैर! मित्रो! मैं कहां से कहां पहुंच गया । खाली और रिटायर आदमी के पास समय बिताने के लिए, सिवाय किस्सों के कुछ नहीं होता !

आज का किस्सा इतना ही, कल मिलते हैं! यह कहते हुए कि – 

जो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन

उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर‌ भूलना अच्छा!

आज की जय जय!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #234 – 121 – “मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ।)

? ग़ज़ल # 119 – “मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

क़िस्मत  अमीर की है  सिकंदर साहिब,

नहीं  होता ग़रीब का  मुक़द्दर साहिब। 

*

मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा,

उस तक  चपाती आई  छनकर साहिब।

*

जन्नत की  सैर को मैं भी निकल लेता,

ग़र नसीब में  बदा होता कलंदर साहिब।

*

छलनी में  हाक़िम  दूध छानता रहता है,

रखे  इल्ज़ाम  आख़िर  किस पर साहिब।

*

तुम दिखते एक रंग में रंगने को आमादा,

अध्याय चार लिख गए हैं दिनकर साहिब।

*

हरेक   तकलीफ़  को  आँसू  नहीं मिलते,

ग़मों  का  भी  होता  है  समंदर साहिब।

*

उन्होंने  तो  ख़ाली  नज़र  बिछा राह तकी,

ख़ुद  बना  आतिश कालीन बिछकर साहिब।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उस भील स्त्री की तरह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – उस भील स्त्री की तरह ? ?

पटरियों पर रेल सरपट दौड़ती

अनगिनत निगाहें

झोपड़ी के आगे ठहरती,

तीखे नयन नक्शवाली

गहरी साँवली निर्धन भीलनी,

वक्ष खुले रखती पर

पीयूष पान करते शिशु को ढकती,

निर्वसन आँखें अपलक निहारती

खुले यौवन को कामांध तकती,

पत्थर के सीने पर पटरियाँ

वात्सल्य से लिपट जाती

नवांकुर सींचने के आनंद में

आँखें मींचे मंद-मंद वह मुस्कराती,

रथ पर चढ़ने से रेल में चलने तक

प्रस्तरयुग के डॉटकॉम इरा में ढलने तक

वीभत्स हुई भावना, विकृत हुई वासना

पवित्र रही कामना, विस्तृत हुई उपासना,

माटी से माटी बतियाती रही

रेल आती रही, रेल जाती रही,

नयी संतानें जन्म पाती रही,

आज की माँ कल की लोरी सुनाती रही,

दौर बदला पर नहीं बदला

हथेलियों से भविष्य को थपथपान,ा

अपना जीवनसत्व उसे पिलाना,

आते कल को रास्ता दिखाना

भविष्य के लिये आस्था जगाना,

सच देखता, सच सुनता हूँ

इसलिए कहता हूँ

काल-पात्र-परिस्थिति के परे

मेरी कविता है उस भील स्त्री की तरह।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 112 ☆ गीत – ।। मैं तो भारत भाग्य  विधाता हूँ, मैं इक कर्तव्यनिष्ठ मतदाता हूँ ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 112 ☆

☆ गीत – ।।मैं तो भारत भाग्य  विधाता हूँ, मैं इक कर्तव्यनिष्ठ मतदाता हूँ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

तू भारत भाग्य विधाता रखता मताधिकार है।

तेरे वोट से ही तो चुनी जातीअच्छी सरकार है।।

मतदान के दिन परम कर्तव्य है यह तुम्हारा।

वोट देकर दिखाना तुझे   अपना सरोकार है।।

[2]

मैं भारत भाग्य विधाता हूँ,मैं इक  मतदाता हूँ।

वोट से अपने देश की   पहचान मैं बनाता हूँ।।

उँगली का काला निशान भाग्य रेखा  देश की।

देकर वोट अपना मैं     पहला फ़र्ज़ निभाता हूँ।।

[3]

राष्ट्र के उत्थान का मुख्य आधार ही मतदान है।

इसी में निहित तेरा मेरा और सबका सम्मान है।।

वोट की शक्ति जानो  और उसका प्रयोग  करो।

नहीं वोट देने का अर्थ कि देश प्रेम सुनसान है।।

[4]

वोट  उसको  दें   जो कि स्वप्न साकार   करे।

जो हमारे  सुख   दुःख कोअपना स्वीकार करे।।

लोकतंत्र यज्ञ चुनाव पर्व मेंआहुति परमावश्यक।

दें वोट उसको ही   जो जनहित में उद्धार  करे।।

[5]

अब हमें शत  प्रतिशत ही  मतदान  चाहिए।

अपने राष्ट्र की विश्व में ऊंची आनबान चाहिए।।

अपने से देश   हमको रखना     सबसे ऊपर।

बस एकता के रंग   में रंगा हिंदुस्तान चाहिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साजिदा ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, एक कविता संग्रह (स्वर्ण मुक्तावली), पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता साजिदा। )  

☆ कविता ☆ साजिदा ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

साधारण-सी साजिदा

मन करता है सजदा

हँसी माशाअल्लाह

नैन नक्श क्या कहें

अल्लाह ने बनाया इत्मीनान से

मोती झरते बातों से

लाजवाब आकिल खूबसूरत हो

खूबसूरत नहीं नापते कभी

इन्सान के बाहरी दिखावे पर

बुर्के में भी बेहद खूबसूरत हो

पाक हो विचारों से…

बरकरार रखना यह सोच

जिंदगी के अंतिम क्षण तक

लोगों का मन रखने की

यह अदा निराली

इंशा अल्लाह आयन में

मिले कामियाबी हर कदम पर

दुआ है परवरदीगार से यही,

खुर्शीद सा हो तुम्हारा जीवन

कभी भी न कतरा आब-ए-चश्म होना

अमलन बेदर्द आलम में

न मोल तुम्हारे आँसूओं का

अल्लाह से आरज़ू है,

मुस्कुराते रहो, खुश रहो सदा ।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 351 ⇒ नकल का अधिकार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नकल का अधिकार।)

?अभी अभी # 351 ⇒ नकल का अधिकार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नकल का अधिकार © copyright

नकल कभी असल नहीं होती। असल में नकल हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। बिना नकल किए आप कुछ सीख नहीं सकते। हमें बचपन में जो पट्टी पढ़ाई गई, वही तो हम सीख पाए। जो ब्लैकबोर्ड पर लिखाया गया, हमने उसकी नकल की। जब पट्टी से पीछा छूटा, तो कॉपी में लिखना पड़ा। नाम भले ही कॉपी हो, लेकिन लिखना तो हमने ही सीखा। पहले रफ कॉपी में जो बोला, वह लिखा, और बाद में उसकी फेयर कॉपी में नकल की।

सीखना नकल नहीं होता। किसी का अनुसरण करना क्या बुरा है। नकल तो बंदर करता है। हम भी तो वानर से ही नर बने हैं। वनमानुष से ही मानुस बने हैं। कितने मानुस बन पाए, यह अलग बात है। आदि मानव से सभ्य मानव की यात्रा है यह। आज भी वानर श्रेष्ठ महावीर बजरंगी हनुमान हमारे आराध्य हैं, संकटमोचक हैं। ।

सिर्फ परीक्षा में हमें नकल का अधिकार नहीं था। नकल को ही तो कॉपी करना कहते हैं। पीठ पीछे हमने अपने गुरुजनों की बहुत नकल की है। बाद में कागज की नकल करना बड़ा आसान हो गया। दो कागज़ के बीच एक कार्बन पेपर रख दो, उसकी कॉपी हो जाती थी। जब भी कोई रसीद काटी जाती थी, असली सामने वाले को दे दी जाती थी, और कॉपी सुरक्षित रख ली जाती थी।

बाद में पहले टाइपराइटर आए, कार्बन लगाकर तीन चार कॉपी आराम से निकल जाती थी। फिर gestetner (गेस्टेटनर) कंपनी एक डुप्लिकेटिंग मशीन लाई, जिसे सायक्लोस्टाइलिंग मशीन भी कहते थे। प्रिंटिंग की तरह जितनी चाहो कॉपियां निकाल लो। आज तो आपके पास कैमरा और स्मार्ट फोन ऑल इन वन है। कॉपी इज योर राईट, नो कॉपीराइट।।

लेकिन हर जगह हमारा कॉपी करने का अधिकार काम नहीं आता। सरकार ने कॉपीराइट एक्ट जो बना रखा है। कॉपीराइट का तात्पर्य बौद्धिक संपदा के मालिक के कानूनी अधिकार से है। सरल शब्दों में कहें तो कॉपीराइट कॉपी करने का अधिकार है। इसका मतलब यह है कि उत्पादों के मूल निर्माता और वे जिस किसी को भी प्राधिकरण देते हैं, उनके पास ही काम को पुन: पेश करने का विशेष अधिकार है।

फिल्म, किताब, गीत, रेकार्ड, किसका कॉपीराइट नहीं होता। और तो और उत्पादों के टाइटल पर भी कॉपीराइट का शिकंजा कसा रहता है। अलग अलग समयावधि तक यह बाध्य होता है। लेकिन चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से ना जाए। आपको तो अमूल घी भी नकली मिल सकता है। ।

नकल में भी अगर नकल लगाई जाए तो नकल बुरी नहीं और उस पर कोई कॉपीराइट भी नहीं। शास्त्रीय संगीत का एक ही राग सभी संगीतज्ञ अलापते रहते हैं, फिर भी उनकी प्रस्तुति मौलिक कहलाती है और वे तालियां बटोरते हैं।

नाटक में अभिनय क्या है, जो आप नहीं हो, वह बनकर अभिनय कर रहे हो। नकली बाल, दाढ़ी मूंछ, नाम भी हर बार बदला हुआ, फिर भी कोई नाट्य सम्राट तो कोई अभिनय सम्राट। नायक नहीं खलनायक हूं मैं। आप जानते नहीं, सबसे बड़ा महानायक हूं मैं। आजकल मिमिक्री आर्टिस्ट की राजनीति में बहुत डिमांड हैं।।

कृत्रिम और दिखावटी जीवन जीते हुए, वैचारिक और पर्यावरण के प्रदूषण में सुख की सांस लेते हुए, जहरीली दवाइयां और रासायनिक खाद से पैदा हुई खाद्य सामग्री के सेवन से संतुष्ट होते हुए, अपनी बौद्धिक सम्पदा पर गर्व करने से हमें कौन रोक सकता है। साहिर को तो मानो कॉपीराइट हासिल है अपनी कलम के जरिए, आज के इंसान को आइना दिखाने में; क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे।

नकली चेहरा सामने आए

असली सूरत छुपी रहे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 174 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सोचो, समझो औ’ मन को टटोलो तुम्हें किस राह जीवन में जाना?

राहें कई हैं जो मन को लुभाती औरों के कहे में तुम न आना ॥1

पहले तौलो तुम्हें क्या है भाता काम क्या लगता तुमको सुहाना।

बनना क्या लगता तुमको है अच्छा रुचि है क्या? माँगता क्या जमाना? ॥2॥

इच्छा घर में सबो की भी क्या है? चाहते वे तुम्हें क्या बनाना?

राय लेके कई अनुभवी की राह में खुद कदम तब बढ़ाना ॥3॥

जिन्दगी एक है बहती सरिता समय के संग जिसे बढ़ते जाना।

जो कि बढ़ जाती जब जितना आगे कठिन होता है फिर लौट पाना ॥4॥

ध्यान रख नर्मदा की विमलता खुद को निर्मल जल जैसा बनना

बनो जिस क्षेत्र में कार्यकर्त्ता गुण बढ़ा नाम अपना कमाना ॥ 5 ॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ माध्यम संस्था द्वारा डॉ कुंदन सिंह परिहार जी का 85वां जन्मदिवस आयोजित  ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

 

☆ माध्यम संस्था द्वारा डॉ कुंदन सिंह परिहार जी का 85वां जन्मदिवस आयोजित  ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

माध्यम साहित्यिक संस्थान’ के सौजन्य से श्री जय प्रकाश पाण्डेय के जय नगर आवास पर आयोजित कार्यक्रम में डॉ कुंदन सिंह परिहार पर केंद्रित ई-अभिव्यक्ति पत्रिका का विमोचन हुआ, साथ ही फ्लिप बुक भी रिलीज की गई।  कार्यक्रम के प्रारंभ में संस्थान के संयोजक श्री जय प्रकाश पाण्डेय ने माध्यम संस्थान का परिचय देते हुए इसके उद्देश्य बताए।

डॉ कुंदन सिंह परिहार की 85 वीं वर्षगांठ पर उनका सम्मान किया गया, मिस्टर शरफ ने प्रभावी अंदाज में परिहार जी द्वारा लिखित आलेख का वाचन किया, व्यंग्यकार प्रतुल श्रीवास्तव ने परिहार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख पढ़ा, आलोचक कवि अनुवादक राजीव कुमार शुक्ल जी ने परिहार पर लिखे अपने संस्मरणात्मक लेख पर लम्बी चर्चा की। इसके बाद व्यंग्य पाठ के सत्र में राजीव कुमार शुक्ल, अभिमन्यु जैन, सुरेश मिश्र विचित्र, यशोवर्धन पाठक, ओ पी सैनी, गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त, डॉ विजय तिवारी किसलय, रमाकांत ताम्रकार, श्री के पी पाण्डे, डॉ कुंदन सिंह परिहार आदि ने अपने अपने ताजे व्यंग्य लेख का वाचन किया। डॉ शिव कुमार सिंह ने आभार व्यक्त किया, व्यंग्यकार रमाकांत ताम्रकार का सहयोग उल्लेखनीय रहा।

प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “अडाणी —” ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “अडाणी —” ☆  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

स्वामी तुमची मी

एक अडाणी भक्त

काहीतरी सारखे मागणे

हेच माहिती फक्त ।।

फुले आणुनी तुम्हा सजवते

निगुतीने अन दीप लावते

सोपस्कारही सारे करते

मन दंग परी इतरत्र

मी एक अडाणी भक्त ।।

सवयीनेच  मी पूजा करते

काम समजुनी कधी उरकते 

वळतच नाही जरी मज कळते

संसारी मन आसक्त

मी खरीच का हो भक्त ?

भक्ती कशी ती जरी न कळते

तरीही का त्या पूजा म्हणते

भक्त स्वतःला म्हणत रहाते

परंपराच ही का फक्त

नावापुरती का मी भक्त ?

हे रोज रोज खटकते

परि काय करू ना कळते

ऐहिकाची बेडी खुपते

जी सतत ठेवी व्यस्त

मी एक संभ्रमित भक्त ।।

पूजेत कमी जे पडते

ते मन मी शोधत जाते

अन् आता एक जाणवते

हवे तेच तर फक्त

मी खरंच अडाणी भक्त ।।

परि आता तुम्हा विनवते

हे मन चरणी वाहते

स्वामी एकच अन् मागते

चरणी जागा द्या मज फक्त

मी तुमची अडाणी भक्त ..

मी तुमची अडाणी भक्त।।

©  सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ हनुमंत आमुची कुळवल्ली ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’ ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

🔅 विविधा 🔅

हनुमंत आमुची कुळवल्ली ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ☆

रामायणात हनुमंताची भूमिका फार मोलाची राहिली आहे. रामाच्या कार्यात अग्रभागी आणि अतितत्पर कोण असेल तर तो एकमेव  हनुमंत किंवा हनुमान. हनुमंताच्या अंगी अनेक गुण होते आणि त्याचा उपयोग त्याने कधीही स्वतःसाठी केला नाही तर तो केला फक्त एका रामासाठी. हनुमंताच्या रामभक्तीच्या अनेक कथा प्रसिध्द आहेत. बुद्धीवंतामध्ये वरिष्ठ, अतिचपल, कार्यतत्पर, कुशल नेतृत्व, संघटन कौशल्य, संभाषण चतुर, उत्तम सेवक, सर्व शक्तिमान, (बुद्धी आणि शक्ती एकत्र असणं अतिदुर्मिळ! ) असे हनुमंताचे अनेक गुण सांगितले जातात. रामायणात वर्णन केल्याप्रमाणे हनुमंताची आणि रामाची भेट तशी उशिरा म्हणजे सिताहरण झाल्या नंतरची आहे. पण पहिल्या भेटीतच हनुमंताचे वाक्चातुर्य पाहून प्रभू श्रीराम प्रसन्न झाले तसेच प्रथमच रामाचे दर्शन होऊन हनुमंत रामाचा कायमचा दास झाला. जिवाशिवाचे मिलन झाल्याचा तो अमृतक्षण होता. पण एकदा रामाची भेट झाल्यावर मात्र हनुमंतानी कधीच रामास अंतर दिले नाही. तो रामाचा एकनिष्ठ सेवक बनला. आपल्या असामान्य आणि अतुलनीय भक्तीने हनुमंताने नुसते देवत्व ( रामतत्व) प्राप्त केले नाही तर जिथे जिथे रामाची पूजा केली जाते तिथे हनुमंताची पूजा व्हायला लागली. रामाचे अनंत भक्त आहेत पण राम पंचायतनात मात्र फक्त हनुमंताचा समावेश आहे. आज सुद्धा जिथे जिथे रामकथा ऐकली जाते, सांगितली जाते तिथे तिथे हनुमंतासाठी मानाचे आसन ठेवलेले असते.

पूर्वी आपल्याकडे अध्ययन आणि अध्यापन हे मौखिक पद्धतीने म्हणजे पाठांतर रूपानेही केले जात असे. लिखीत स्वरूपात अध्ययनाची पद्धती त्यामानाने अलीकडील आहे. याचा एक दुष्परिणाम असा झाला की बराचसा इतिहास आपल्याकडे लिहिला गेला नाही आणि जो लिहिला गेला तो परकीय प्रवाशांनी किंवा आक्रमकांनी. स्वाभाविकपणे तो त्यांच्या दृष्टिकोनातून लिहिला. त्यांच्या हिताच्या गोष्टी त्यांनी लिहिल्या. यातून एक गैरसमज पसरविला गेला की रामायणात जे वानर होते ते (व्वा!) नर  नसून ती फक्त ‘माकडं’ होती. ही आपल्या पराक्रमी आणि विजयी इतिहासाची जगाने केलेली क्रूर चेष्टा आहे, असेच म्हणावे लागेल. रामायणात असे वर्णन आहे की किष्किंधा राज्य हे सुग्रीवाच्या अधिपत्याखाली होते. त्या राज्याचा सेनापती होता केसरी. आणि ह्या केसरीचा पुत्र हनुमंत. सध्याची दक्षिणेकडील चार राज्यं म्हणजे त्याकाळातील किष्किंधानगरी. सात मजली सोन्याचे महाल असल्याचे वर्णन रामायणात आहे. आजच्या काळात एखाद्या राज्याच्या मंत्र्याची संपत्ती किती असते आपल्याला कल्पना आहे, मग या चार एकत्रित राज्याचा सेनापती किती श्रीमंत असेल. असा हा भावी सेनापती हनुमंत रामाचा दास होतो, नुसता कागदोपत्री दास न होता तो कायमचा रामदास होतो यातच त्याच्या भक्तीचे ‘मर्म’ सामावले आहे.

महारुद्र जे मारुती रामदास।

कलीमाजि जे जाहले रामदास।।

असे ज्याचे वर्णन करण्यात येते ते समर्थ रामदास यांना सुरुवातीपासूनच हनुमंताबद्दल तीव्र ओढ, श्रद्धा, भक्ती होती. प्रभुश्रीरामानी दृष्टांत दिल्यापासून समर्थानी ‘समर्थ’ होईपर्यंत आणि पुढे कार्यसमाप्तीपर्यंत हनुमंताची अखंडित साधना केली. त्याचे यथायोग्य परिणाम आपण शीवकाळात अनुभवले.

शक्तीने मिळती राज्ये | युक्तीने येत्न होतसे | शक्ती युक्ती जये ठाई | तेथे श्रीमंत धावती ||”

समर्थ रामदास

यासमर्थ वचनाची पार्श्वभूमी आपण लक्षात घेतली पाहिजे. तो काळ मोगलांच्या आक्रमणाचा होता. टोळधाड यायची, घरावर नांगर फिरवला जायचा, आपलीच माणसे क्षुल्लक ‘वतनां’साठी, जहागीरीसाठी आपल्याच माणसांना मारायची. स्वाभिमान नष्ट झाला होता, समाजाला एक  प्रकारचे सामूहिक नपुंसकत्व प्राप्त झाले होते. समाज आपले शौर्य, वीर्य, धेर्य विसरला होता. कोणीतरी ह्या सर्वावर बसलेली काजळी झटकण्याची गरज होती. अशा अस्वस्थ मनाचा अभ्यास करून समर्थानी हनुमंताची मंदिरे स्थापन करून बलोपासनेस सुरुवात केली. तरुण बलवान  व्हायला लागले आणि विविध मठांतून शक्ती आणि बुद्धियुक्त असे नवीन तरुण घडू लागले आणि त्याचा उपयोग छत्रपतींना स्वराज्य स्थापनेसाठी झाला.

रामदास स्वामीनी पूर्ण विचार करून आपल्या आराध्य देवतेची निवड केली. आपल्याकडे गुरुशिष्य परंपरा खुपच पुरातन आहे. शिष्य साधनेतून इतका ‘तयार’ होतो की शिष्याचे नुसते विचार बदलत नाहीत तर त्याची कुडी सुद्धा गुरुसारखी किंवा उपास्यदेवतेसारखी होते. आपला समाज हनुमंतासारखा बलवान, बुद्धिमान, सर्वगुंणसंपन्न व्हावा म्हणून हनुमंताची मंदिरे आणि मठ स्थापन करण्यात आले. उपास्य देवतेची निवड करतानाही समर्थांनी कोंदंडधारी रामाची निवड केलेली आहे. आपल्या पत्नीला रावणाने पळवून नेल्यावर रामाने आयोध्येला निरोप पाठवून सैन्य मागविले नाही, तर स्वतः उपलब्ध असलेल्या साधन सामग्रीच्या आधारे, तेथील सामान्य मनुष्यांच्या (वानराच्या) साह्याने लंकेवर स्वारी करून आपल्या पत्नीला सोडवून आणले. ह्यासर्व कार्यात हनुमंत एकनिष्ठेने रामकार्यात कटिबद्ध होता. हनुमंताने जेंव्हा सिताशोधनासाठी लंकेत गेला, सितामाईला भेटला आणि म्हणाला की तुम्ही माझ्या सोबत चला, मी आपल्या मुलासमान आहे, आपण माझ्या माताच आहात. पण ती पतिव्रता म्हणाली की स्वतः प्रभू राम इथे येतील, ज्याने मला पळवून आणले त्याचा नाश करतील तेंव्हाच मी त्यांच्या सोबत येईन. ह्याला म्हणतात निष्ठा!.

अशा या हनुमंताची समर्थांनी उपासना केली आणि समाजाकडून कडून करवून घेतली. त्याकाळात रूढ झालेल्या क्षुद्र देवतांची पूजा, उपासना समर्थांनी बंद पाडली आणि तीही हनुमंताची उपासना सुरु करून. योग्य असा पर्याय उपलब्ध करून समर्थानी समाजाच्यातील भक्तीला आणि शक्तीला जागृत केले. ‘आधी केलं आणि मग सांगितले’ या उक्तीस जागून स्वतः समर्थ रोज एक हजार सूर्य नमस्कार घालायचे. त्या काळात आणि आज सुद्धा स्वतः व्यायाम करणारा संत पाहायला मिळणं हे दुर्मिळच!. समाजाची दुखरी नस काय आहे हे जाणून त्यानुसार उपचार करण्याचं काम समर्थानी केलं. एखाद्या मनुष्याला साधना करून मुक्ती मिळण्यापेक्षा संपूर्ण समाज एक पायरी उन्नत झाला तर ती प्रगती जास्त चांगली, हे सूत्र उरात ठेऊन समाजाच्या सर्वांगीण उन्नतीसाठी समर्थानी अवघे जीवन खर्च केले. स्वतः लौकिक अर्थाने कधीही प्रपंच न करणारा हा रामदासी संतपुरुष लोकांनी ‘प्रपंच नेटका करावा’ असे सांगत होता. प्रपंच नेटका करण्यासाठी काय करावे लागेल हे सुद्धा त्यांनी सूत्रबद्ध रीतीने दासबोधात लिहून ठेवलेआहे.

सर्वसामान्य मनुष्य (समाजपुरुष ) हा लहान मुलाप्रमाणे वागतो. तो आदर्श जीवन जगायचं प्रयत्न करेलच असे नाही पण तो लहान मूलाप्रमाणे अनुकरणशील मात्र नक्कीच असतो. एखादया लहान मुलांचे वडील सैनिक असतील तर त्या लहान मुलास आपण सैनिक व्हावेसे वाटते, एखाद्याचे वडील डॉक्टर  असतील तर त्याला आपण डॉक्टर व्हावेसे वाटते. हे अगदी स्वाभाविक आहे. त्या मूलासमोर जो आदर्श प्रस्तुत केला जातो , तसे होण्याचा ते मूल प्रयत्न करतं, म्हणून समर्थांनी समाजापुढे हनुमंत हा आदर्शांचे मूर्तिमंत प्रतीक म्हणून प्रस्तुत केला. हनुमंताचा आणिक एक विशेष गुण आहे. हा हनुमंत उपजत देव म्हणून जन्माला आलेला नाही, तर आपल्या भक्तीने, नराचा नारायण व्हावा त्याप्रमाणे भगवंताची (रामाची ) नित्य सेवा करून देवत्वास पोचलेला आहे. हनुमंत कर्तव्यतत्पर, प्रयत्नवादी आहे. व.पु. काळे म्हणतात त्याप्रमाणे मोटर सायकल वरून प्रभात फेरफटका (morning walk) करणाऱ्यांना हनुमंत कधीच उमगणार नाही. सर्व सैन्याला खांद्यावर बसवून लंकेत नेणं हनुमंताला अवघड नव्हतं, पण सामान्य मनुष्यात स्वाभिमान जागृत होण्यासाठी त्याला लढायला लावणं जास्त गरजेचं होतं आणि म्हणून सर्व वानरांच्या साह्याने रामसेतू बांधून लंकेत जाऊन युद्धात रावणांचा पराभव करून, त्याला मारून रामानी सितामाईला परत आणली.

आपल्या कुळातील पूर्वजांची माहिती कोणी आपल्याला विचारली तर आपण फारतर तीन किंवा चार पिढ्यांची नावे सांगू, पण त्या आधीच्या पिढ्यांची नावे सांगता येतीलच असे नाही, पण आपण हनुमंताच्या कुळातले आहोत, रामकृष्णाच्या वंशातले आहोत, छत्रपतींच्या वंशातले आहोत, असं नुसतं म्हटलं तरी आपले रक्त तापते, छाती गर्वाने फुगते आणि आपल्या अंगात आपसूक वीरश्री संचारते. ज्यांना आपला इतिहास वैभवशाली होता हे माहित असतं त्यांचा भविष्यकाळ सुद्धा उज्ज्वल असतो अशा प्रकारचे एक  वचन आहे. आपल्या बाबतीत ते नितांत खरे आहे. जिजाबाईंनी शिवबाला रामायणातील, महाभारतातील विजयाचा इतिहास शिकविला, अन्याय सहन करायचा नसतो, तर त्याविरुद्ध लढून न्याय मिळवायचा असतो हे शिकविले आणि मग चार इस्लामी पातशाह्यांच्या छाताडावर उभे राहून छत्रपतींनी हिंदवी स्वराज्य स्थापन केले.

आज आपण आपल्या मुलांना हिंदुस्थानच्या पराजयाच्या आणि युरोपीय देशांच्या विजयाचा इतिहास शिकवीत आहोत, त्यामुळे आपली तरुण पिढी परकीय देशांच्या विकासासाठी परदेशी जात आहे, आपण सर्वच बाबतीत त्याचे अंधानुकरण करीत आहोत. आपण जन्माने हिंदू आणि आचरणाने ख्रिश्चन/मुस्लिम बनत आहोत. ह्याला एकाच कारण आहे ते म्हणजे आपण आपलो ‘कुळवल्ली’ विसरलो आहोत किंवा जाणीवपुर्वक विसरले जावी म्हणून समाजात विविध दुष्ट शक्ती कार्यरत आहेत. आपण वेळीच सावधान होण्याची गरज आहे. लौकिक अर्थाने परंपरा न पाळता जरा जागरूक राहून , ‘धर्म’ सजगतेने समजावून घेऊन आचरणात आणण्याची गरज आहे. छत्रपती जन्माला येतीलही पण त्याआधी मावळे मात्र आपल्याला आपल्या घरातच घडवावे लागतील. असे आपण करू शकलो किंवा प्रयत्न चालू केला  तर हनुमंत आमुची कुळवल्ली असे म्हणून घेण्यास आपण पात्र होऊ.

 जय जय रघुवीर समर्थ।

।श्रीराम।

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले

थळ, अलिबाग. मो. – ८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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