श्री विवेक चतुर्वेदी 

नर्मदा – विवेक की कविता 

(प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की एक भावप्रवण कविता  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)

नर्मदा पर प्रपात..
गरजता हुआ जल..
मैंने तखत पर लेटे
बाबा को याद किया
उद्दाम हंसी से हिलती
उनकी सफेद दाढ़ी
जैसे प्रपात का जल फेनिल
आगे शांत होती नर्मदा
जान पड़ी.. दादी…
आधी धूप-छांव के आंगन में
पालथी लगा बैठी
पहने कत्थई किनारी की
सफेद धोती
दुलारती मचलते नवजातों को
गली से निकलते नागरों को बुलाती
कहती.. बेटा राम-राम
फिर नदी पर विशाल
तटबंध से पिता
सुबह से रात सहेजते कितना कुछ
थामते अपने बाजुओं में जीवन जल
उतारते गहराई में
हम को पकड़ कर हाथ
कृशकाय होती गई नर्मदा में
मां को देखा
अपना रक्त मज्जा सुखा
घर पोसती
सब की भूख जोहती
रांधती सबकी  चाह का अन्न
देर रात रखती अपनी थाली में
एक आखिरी रोटी
बटुलिया लुढ़का निकालती
कटोरी में पनछिटी दाल
कटी गर्भनाल से संतानों में रिस गया
मां का पूरा जीवन
मैंने सूखती उपनदियों के
निशान परखे
बहनें हैं ये
जो अब नर्मदा से
मिलने नहीं आ पातीं
हुईं ससुराल में दमित
या सूख गईं रास्ते में
कारखाने की ओर
मोड़ दी गई
नहर के साथ चला..
ये भैया थे… जो कब का
छोड़ चुके गांव
बसे शहर की किसी तंग गली में
पत्थरों की खोह में ठहर चुका जल दिखा
ये भाभी थीं… जो हुईं विक्षिप्त..
और…  छोड़ गए भैया..सदा के लिए
मैं नर्मदा और इस के सुख दुख की बात कहता हूं
ये नदी मेरे घर में है
ये वो नर्मदा नहीं.. जिसकी बात अखबार में है

© विवेक चतुर्वेदी

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