ई-अभिव्यक्ति: संवाद-16 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–16    

मैं अक्सर आपसे अपनी एक प्रिय नज्म की पंक्तियाँ टुकड़ों में साझा करता रहता हूँ।

यदि आप गौर करेंगे तो पाएंगे यह मेरी ही नहीं तकरीबन मेरे हर एक समवयस्क मित्रों की भी अभिव्यक्ति है।

आज मैं अपनी वही नज़्म आपसे संवाद स्वरूप साझा करना चाहता हूँ।

एहसास 
जब कभी  गुजरता हूँ  तेरी  गली  से  तो क्यूँ ये एहसास होता है 
जरूर   तुम्हारी निगाहें भी कहीं न कहीं खोजती होंगी मुझको।
बाग के दरख्त जो कभी गवाह रहे हैं हमारे उन हसीन लम्हों के  
जरूर उस वक्त वो भी जवां रहे होंगे इसका एहसास है मुझको। 
बाग के फूल पौधों से छुपकर लरज़ती उंगलियों पर पहला बोसा 
उस पर वो  झुकी निगाहें सुर्ख गाल लरज़ते लब याद हैं मुझको।  
कितना  डर  था हमें उस जमाने में सारी दुनिया की नज़रों का 
अब बदली फिजा में बस अपनी नज़रें घुमाना पड़ता है मुझको। 
वो  छुप छुप कर मिलना वो चोरी  छुपे  भाग कर फिल्में देखना 
जरूर समाज के बंधनों को तोड़ने का जज्बा याद होगा तुमको।  
सुरीली धुन और खूबसूरत नगमों  के हर लफ्ज के मायने होते थे
आज क्यूँ नई धुन में नगमों के लफ्ज  तक  छू  नहीं पाते मुझको।   
  
वो शानोशौकत की निशानी साइकिल के पुर्जे भी जाने कहाँ होंगे 
यादों की मानिंद कहीं दफन हो गए हैं इसका एहसास है मुझको।  
इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी 
खो गये कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा  न  मिले मुझको। 
दुनिया के शहरों से रूबरू हुआ जिन्हें पढ़ा था  कभी किताबों में 
उनकी खूबसूरती के पीछे छिपी तारीख ने दहला दिया मुझको।  
अब ना किताबघर  रहे  ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई
सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट  रहे हैं मुझको।  
अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद 
आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें  है  न  मुझको।  
आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

1 अप्रैल 2019




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – सवाल एक – जबाब अनेक – 2 – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“सवाल एक –  जबाब अनेक (2 एवं  3)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी का  एक प्रश्न के विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  दूसरा उत्तर लखनऊ से विख्यात व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक श्री अलंकार रस्तोगी जी की ओर से   –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

लखनऊ से श्री अलंकार रस्तोगी जी  ___2 

(श्री अलंकार रस्तोगी जी लखनऊ से प्रसिद्ध कवि, व्यंग्यकार एवं प्राध्यापक हैं।) 

इस सवाल पर मेरी यह नितांत व्यक्तिगत राय है और इससे सहमत होना कतई आवश्यक नही है। भाई मुझे तो ऐसा लगता है कि लेखक एक समाज के लिए लगाम की तरह नही बल्कि उस कसी हुई लगाम की तरह होता है जैसी लगाम राणा प्रताप के घोड़े के लगी हुई थी। बस पुतली फिरी नही कि  चेतक मुड़ जाता था। विशेषकर एक व्यंग्यकार के पास तो समाज मे विसंगतियां देखकर उसे सही दिशा देने की लगाम तो होती ही है। अगर वह लगाम बनता है तो उसे आंखे बनने की ज़रूरत ही नही है क्योंकि आँखे भले ही गलत देखें लेकिन कसी हुई लगाम उसे अपने मार्ग से विचलित नही होने देती है। एक लेखक के पास वह शक्ति और ज़िम्मेदारी होती है कि वह अपने हर शब्द से समाज के अंदर वह वांछित परिवर्तन ला सके जिससे समाज अपने अपने कुत्सित स्वरूप से अवगत भी हो और उसमें सुधार भी ला सके।

  • अलंकार रस्तोगी, व्यंग्यकार लखनऊ


सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

सवाल एक, जबाब अनेक : ब्रजेश कानूनगो __ 3 

(श्री ब्रजेश कानूनगो जी  25 सितंबर 1957 को  देवास  जन्मे सेवानिवृत्त बैंकर हैं। आपका साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। आपकी प्रसिद्ध पुस्तकों में  व्यंग्य संग्रह – पुनः पधारें, सूत्रों के हवाले से, मेथी की भाजी और लोकतंत्र। कविता संग्रह- धूल और धुंएँ के पर्दे में,इस गणराज्य में,चिड़िया का सितार, कोहरे में सुबह।  कहानी संग्रह – ‘रिंगटोन’। बाल कथाएं- ‘फूल शुभकामनाओं के।’ बाल गीत- ‘ चांद की सेहत’। उपन्यास- ‘डेबिट क्रेडिट’ एवं  आलोचना (साहित्यिक नोट्स) – ‘अनुगमन’ हैं ।

संप्रति: इंदौर से सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी। साहित्यिक,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में संलग्न। तंगबस्ती के बच्चों के व्यक्तित्व विकास शिविरों में सक्रिय सहयोग।)

प्रश्न – आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

उत्तर – –

जहां तक इस सवाल की बनावट की बात है वह कुछ इस तरह होना चाहिए कि ‘ क्या लेखक वर्तमान दौर में समाज की आंख है या लगाम?

मेरा मानना है कि समाज लोगों, प्रकृति,पर्यावरण,जीव जंतु,पशु पक्षी सबको शामिल करके बनता है। यदि इसमें मनुष्य शामिल है तो वहां केवल आंख और लगाम का जिक्र करके मुद्दे को सीमित नहीं किया जा सकता। पूरे समाज को हम मात्र एक घोड़ा नहीं मान सकते। समाज का एक व्यापक स्वरूप, रीति नीति और मस्तिष्क के विवेकपूर्ण इस्तेमाल करने की क्षमता का होना भी स्वीकार करना होगा।

घोड़े की आंखों के आसपास यदि तांगा मालिक पट्टियां लगाकर केवल एक दिशा में देखने को बाध्य कर देता है तो ऐसा किसी सच्चे लेखक के साथ करना लगभग असंभव होगा। इसी तरह केवल लेखक के हाथ में ही समाज की लगाम नहीं होती।अनेक बल और घटक होते हैं जिससे समाज की रीति नीति तय होती है। सरकारों और सत्ताधारियों की लोक कल्याणकारी नीतियों और विचारधारा की भूमिका भी बहुत कुछ भविष्य की दिशा तय करती है। एक समय राष्ट्रीयकरण को विकास और समाज के लिए कल्याणकारी माना जाता है तो आगे ‘निजीकरण’ में विकास के रास्ते खोजे जाने लगते हैं।यह एक महज उदाहरण है। ऐसी अनेक बाते होती हैं जो समाज को दिशा देती हैं।

जहां तक इस काम में एक सजग लेखक की भूमिका का सवाल है उसका काम लोगों के  हित में समाज में मौजूद विषमताओं, असमानताओं, साधन,सुविधाओं के समान वितरण की विसंगतियों की ओर इशारा करना होता है ताकि उन पर नीति निर्माताओं और कार्यान्वयन के जिम्मेदारों का ध्यान आकर्षित हो। मेरा यह भी मानना है कि लेखक की भूमिका सदैव सत्ता और सरकार के विपक्ष की तरह होना चाहिए चाहे सत्ता में उसके प्रिय और उसकी अपनी विचारधारा के लोग ही क्यों न बैठे हों।उसकी जिम्मेदारी सत्ता से ज्यादा जनता के दुख दर्दों के साथ होना चाहिए।

गंदे पानी में दो बूंद फिटकरी पानी को शुद्ध करने का काम करने का प्रयास करती है, समाज में सच्चे और ईमानदार लेखक की भी लगभग यही भूमिका होती है। वर्तमान समय में लेखक को तांगे में जुटे घोड़े में बदलने के प्रयास दिखाई देते हैं उससे सचेत रहने की जरूरत है। किसी भी गणराज्य में समाज की लगाम तो अंततः संविधान और जनता के हाथों में होती है। इसमें विचलन तो कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता।

  • श्री ब्रजेश कानूनगो

(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)

 




मराठी साहित्य – मराठी कथा – *अपुरे घरटे* – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

*अपुरे घरटे*

(इस अत्यंत शिक्षाप्रद एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा के लिए  श्रीमति रंजना जी की लेखनी को सादर नमन)

सकाळची वेळ होती कोवळे ऊन पडलेले होते. सर्वत्र उत्साहाचे वातावरण होतं.

आज मंगळवार  बाजारचा दिवस असल्यामुळे मजूर लोकांना कामाला सुट्टी होती. ओळखीचे  एकजण सुट्टीच्या दिवाशी “काही काम आहे का ताई” विचारायला आले . काय काम सांगावे हा विचार करत असतानाच, घराच्या दोन्ही बाजूला बाभळीच्या फांद्या मधे डोकावणाऱ्या फांद्या दिसल्या.  येताजाता त्यांचे काटे अंगाला टोचत असत. ” मामा याच्या मधे आलेल्या फांद्या कट कराल का?”  “हो करतो की ताई” असे म्हणून ते कुऱ्हाड आणायला निघून गेले आणि मी शाळेला गेले.

चार वाजता येऊन पाहिले आणि  त्याला फांद्या तोडायला सांगून अक्षम्य अपराध केल्यासारखे वाटायला लागले .

कारण डेरेदार वाढलेल्या बाबळीच्या प्रत्येक फांदीवर सुगरणींचे अनेक घरटे जवळजवळ शेवटच्या टप्प्यावर आलेले होते जवळपास एक महिन्याच्या अथक प्रयत्नांची पराकाष्ठा करून ते बिचारे जीव घरटे तयार करत होते.

मुख्य म्हाणजे पोर्च मधे बसून त्यांची कारागीरी पाहणे हा माझ्यासाठी आवडता छंदच बणलेला होता. काडी काडी जमवून घरटे तयार करणारे सुगरण पक्षी पाहून एक नवीन चैतन्य मनात संचारत असे, परंतु मात्र मन पुरतं कोलमडून गेलं होतं. या नराधमाने त्या बाभळीच्या  सर्वच्या सर्व  फांद्या तोडून त्यावरील घरटे मुलांना खेळायला देऊन टाकले होते. या माणसाचं काय करावं तेच कळत नव्हतं

जातायेता टोचणाऱ्या  काट्यां पेक्षा शेजारच्या झाडावरून पाहणाऱ्या दहाबारा सुगरणींच्या नजरा आज मला जास्तच टोचत होत्या.

आपण याला फांद्या तोडायला सांगून फार मोठा गुन्हा केला आहे असं सतत जाणवत होतं.  पुढचे दोन दिवस पक्षांची हालत पाहावी वाटतच नव्हती. परंतु नंतर मात्र ते सारे नवीन घरट्याच्या तयारीला लागले. परंतु आजही झाडाकडे पाहिले की ते अपुरे घरटे चटका लावून जाते.

तात्पर्य :- काम करणाऱ्याची वैचारिक कुवत लक्षात न घेता इतरांना गृहीत धरून काम सांगितले की असे अनर्थ ओढावतात, मग पश्चात्ताप करूनही काहीच उपयोग नसतो. त्यामुळे संभाव्य धोके लक्षात  घेऊन स्पष्ट सुचना देणे फार महत्वाचे असते.

 

© श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Vipassana Meditation: All You Wanted to Know – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Vipassana Meditation: All You Wanted to Know About the 10-Day Retreat

Vipassana is an ancient technique of meditation discovered by the Buddha more than two thousand and five hundred years ago. It is non-sectarian and open to people of all colour and creed.

The 10-day retreat of silence and meditation is a unique experience which everyone should have at least once in lifetime. It’s a boot camp for the mind and gives you a first-hand feel of virtue, mindfulness and wisdom.

During the tenure of the course, you observe five precepts: abstaining from killing, stealing, sexual misconduct, lies and intoxicants.

You wake up at 4 am and meditation begins at 4.30 am. All through the day, you meditate, meditate and meditate! Of course, you have breaks for breakfast, lunch and evening meals. You are in your bed by 9.30 pm.

The accommodation is simple and hygienic, with basic amenities. No television. No internet. You live like a monk/nun for ten days of your life.

The food is simple and nutritious. Some people have an impression that they might starve there. That’s not correct.

On the zero day, you have to report at the centre by afternoon. You are required to deposit your mobile phone, cash and valuables in a locker allotted to you.

Please carry simple and comfortable clothing with you for the course. Don’t carry too many of those. Laundry service is usually available at the centre.

What you learn in the ten days is truly valuable and often life transforming. For the first three days, you learn to concentrate by focussing on your breath, next six days are for gaining insight into your body and mind, and on the last day you enjoy the bliss of loving kindness meditation.

The course also guides you subtly to a routine of moral discipline, purity of mind and loving kindness for all beings.

You learn the basic technique there and then go back home to continue meditating and progressing in the path of spirituality.

The course gets over on the eleventh day at 7 am.

It’s an experience you will cherish, adore and would like to repeat frequently!

You may register for a 10-day course at the global website for Vipassana Meditation.

May your life be filled with happiness, love, peace and tranquillity!

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore



आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।27।।

 

जो भी लेता जन्म है ध्रुव उसका अवसान

इससे जो निश्चित नियम उसमें क्या दुख भान।।27।।

 

भावार्थ :   क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।।27।।

 

For, certain is death for the born and certain is birth for the dead; therefore, over the inevitable thou shouldst not grieve. ।।27।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




ई-अभिव्यक्ति: संवाद-15 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–15   

मैं ईश्वर का अत्यंत आभारी हूँ जिन्होने मुझे e-abhivyakti के माध्यम कई वरिष्ठ, समवयस्क एवं नवोदित साहित्यकार मित्रों से जोड़ दिया है। कई मित्रों से व्यक्तिगत तौर से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अधिकतर  मित्रों से फोन पर बात हुई और कई मित्रों से ईमेल पर।

जीवन भी अजीब पहेली है, अजीब खेल खेलता है। वह हमें जीवन में कई मित्रों से मिलाता है। कई मित्र जिनके नाम से हम परिचित होते हैं किन्तु कभी मिल नहीं पाते। कई मित्र जीवन के किसी भी मोड पर मिल जाते हैं। कई तो अंजाने ही मिल जाते हैं जिसकी हमने कभी कल्पना ही नहीं की थी।  कई मित्र तो हमारे जीवन से इतने जुड़ जाते हैं कि हम यह जान ही नहीं पाते कि वे कब मित्र से परिवार के सदस्य बन गए। कई मित्र तो किसी गलतफहमी का शिकार होकर रूठ भी जाते हैं। कई बहकावे में भी आ जाते हैं। फिर शक का तो कोई इलाज ही नहीं होता।कुछ मित्र चालाकी से अपना काम निकाल कर अपनी राह चल देते हैं। कई मित्र तो ऐसे भी होते हैं जिनसे हम जीवन में कभी भी नहीं मिले किन्तु, वे मित्र धर्म निभाना नहीं भूलते। कई मित्रों की संवेदना देखते ही बनती है। फिर संवेदनशील मित्र ही मित्र की भावना को परख लेता है। अधिकतर साहित्यकार मित्र संवेदनशील हैं अन्यथा वे अपनी कविता, कहानी, आलेखों में अनदेखे स्वप्नों को साहित्यिक स्वरूप नहीं दे पाते।

आज कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की मराठी कविता *उन्हाळी सुट्टी* ने तो अनायास ही बचपन के कई मित्रों की याद दिला दी जिनके साथ गर्मियों छुट्टियों बिताया करते थे।

उनकी निम्न पंक्तियाँ अनायास ही हमारा गुजरा बचपन याद दिला देता है ।

आला उन्हाळा, घरी बसा रे , दटावती सारे
बैठे खेळ ते बुद्धीबळाचे ,देऊ गेमला सुट्टी.
अशी ऊन्हाळी सुट्टी आमच्या होती बालपणात
सोडून गेले  शाळू सोबती, आता नाही बट्टी. . . !

इस संदर्भ में मुझे अपनी कविता की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी

खो गए कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा ना मिले मुझको। 

आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

31 मार्च 2019




मराठी साहित्य – मराठी कविता – *उन्हाळी सुट्टी* – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

*उन्हाळी सुट्टी*

(प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  द्वारा  रचित e-abhivyakti में प्रथम बाल गीत *उन्हाळी सुट्टी* प्रस्तुत है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी अपनी गर्मियों की छुट्टी याद आ ही जाएगी। इस बालगीत के लिए हम कविराज विजय यशवंत सातपुते जी के हृदय से आभारी हैं।) 

झाली परीक्षा आता आहे अभ्यासाशी कट्टी .
हवे तसे रे वागू आता सुरू  उन्हाळी सुट्टी.
गावी जाऊ मामाच्या नी खेळू मजेचे खेळ
आट्यापाट्या, सूरपारंब्या ,जमेल अमुची गट्टी.
उशीरा  उठणे, आणि पोहणे,पाणी कापत जाणे .
दंगा मस्ती, हाणामारी,  अन् क्षणाक्षणाला कट्टी .
आमराईचा आंबा म्हणजे राजेशाही खाणे
कच्ची कैरी भेळेमधली, पावभाजीला सुट्टी.
पन्हे कैरीचे, कोकम सरबत, कधी ताक नी लस्सी
कोकणचा तो रसाळ मेवा,  कोल्ड्रिंकशी कट्टी.
आला उन्हाळा, घरी बसा रे , दटावती सारे
बैठे खेळ ते बुद्धीबळाचे ,देऊ गेमला सुट्टी.
अशी ऊन्हाळी सुट्टी आमच्या होती बालपणात
सोडून गेले  शाळू सोबती, आता नाही बट्टी. . . !

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798




हिन्दी साहित्य – कविता – “निश्चित हो मतदान” – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

निश्चित हो मतदान

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा  रचित  “लोकतन्त्र के पर्व – मतदान दिवस” पर रचित  प्रत्येक नागरिक को जागरूक करती कविता  ‘निश्चित हो मतदान’।)

 

जो कुछ जनहित कर सके, उसकी कर पहचान

मतदाता को चाहिये, निश्चित हो मतदान ।

 

अगर है देश प्यारा तो, सुनो मत डालने वालों

सही प्रतिनिधि को चुनने के लिये ही अपना मत डालो।

 

सही व्यक्ति के गुण समझ, कर पूरी पहचान

मतदाताओ तुम करो, सार्थक निज मतदान।

 

सोच समझ कर, सही का करके इत्मिनान

भले आदमी के लिये, करो सदा मतदान।

 

जो अपने कर्तव्य  का, रखता पूरा ध्यान

मतदाता को चाहिये, करे उसे मतदान।

 

लोकतंत्र की व्यवस्था में, है मतदान प्रधान

चुनें उसे जो योग्य हो, समझदार इंसान।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

 

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।।26।।

फिर फिर इसको जन्मता ओै मरता भी जान

तुम्हीं कहो हे वीर है दुख का कोई ध्यान।।26।।

      

भावार्थ :   किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा सदा मरने वाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है ।।26।।

 

But, even  if  thou  thinkest  of  It  as  being  constantly  born  and  dying,  even  then,  O mighty-armed, thou shouldst not grieve! ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल –Anapana Meditation: Mindfulness of Breathing – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Anapana Meditation: Mindfulness of Breathing

Anapana meditation is simple, pure, and pristine.

“Prana” means breath. “Ana(prana)” is the breath that comes in and “apana(prana)” is the breath that goes out. Both put together and shortened for convenient usage make “anapana”. Anapanasati is concentration on breath coming in and going out.

It is believed that mindfulness of breathing, cultivated and regularly practiced, is of great fruit and great benefit. Two thousand and five hundred years ago, Buddha outlined the method in Anapanasati Sutta – the discourse on mindfulness of breathing.

He begins elucidating the method, “A monk, gone to the forest or to the root of a tree or to an empty place, sits down, having folded his legs crosswise, set his body erect, established mindfulness in front of him, ever mindful he breathes in, mindful he breathes out.”

The focus is on breath alone. The meditator observes his breath dispassionately. There is no attempt to modulate breathing. Just observation.

While breathing in a long breath, he knows, “I breathe in a long breath”; breathing out a long breath, he knows, “I breathe out a long breath.” Breathing in a short breath, he knows, “I breathe in a short breath”; while breathing out a short breath, he knows, “I breathe out a short breath.” Experiencing the body, he breathes in and out. Calming the bodily function of breathing, he breathes in and out.

The meditation takes him on an inner journey encompassing contemplations of the body, feelings, the mind, and mind-objects. During each step, he continues to observe his breath.

Experiencing rapture, or happiness, or the mental functions; he breathes in and out. Calming the mental functions, he breathes in and out. Experiencing, or gladdening, or concentrating, or liberating the mind; he breathes in and out. Contemplating impermanence, or dispassion, or cessation, or relinquishment; he breathes in and out.

The Blessed One recommends, “This concentration through mindfulness of breathing, when developed and practiced much, is both peaceful and sublime, it is an unadulterated blissful abiding, and it banishes at once and stills evil unprofitable thoughts as soon as they arise.”

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore