हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 16 ☆ लघुकथा – एहसास ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “एहसास। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा  यह एहसास दिलाने में सक्षम है कि स्त्री ही स्त्री का दर्द समझ सकती है और यह एहसास कुछ अनुभव और समय के पश्चात ही हो पाता है। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 16 ☆

☆ लघुकथा – एहसास ☆

बहू वो स्टूल ले लो और यहीं पास में बैठ जाओ. हमाई चप्पल और छत्ता सोई कल ले आने  आभा ने सासु माँ को ममत्व से भरी नजरों से देख उनके  सिर पर हाथ रख हाँ में सिर हिलाया. वह किसी तरह अपने आँसू रोकने का प्रयत्न कर रही थी. सिर घुमाकर वह सिस्टर को देखने लगी. थोड़ी दूर मामा जी खड़े सास-बहू की बातें  करते देख फफक-फफक कर रो पड़े थे.  बहन  से बोले …दीदी तुम चिन्ता मत करो जल्दी ठीक हो जाओगी फिर हम बैठकर खूब बातें करेंगे.

फिर डा. पाठक आ गये और आज ही इनका आपरेशन होना है आप इन्हें आपरेशन के लिये तैयार करवाने दें. उसी रात सासू माँ ने कहा था. आभा मैं तुम्हें बहुत दिनो बाद और देर से समझ पाई, हमें माफ करना बेटी तुम न होती तो कभी यह एहसास न होता कि औरत ही औरत का दुख समझ सकती है. तुमने मेरी और ससुर की खूब सेवा करी तुम्हें भगवान खूब खुशी दे चारो तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ हो.

अचानक बेटी के स्पर्श ने आभा को जगाया माँ क्या हुआ दादी को याद कर रहीं थी. आज चलिये दादी की याद में विकलांग बच्चों के साथ कुछ समय बिताकर  आते हैं और अनजाने बहते आँसुओं को पोंछ कर आभा उसके साथ  जाने को तैयार हो गई

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #8 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #8 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

वाणी तो वश में भली, वश में भला शरीर । 

पर जो मन वश में करे, वही शूर वह वीर ।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

 

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (40) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ।।40।।

 

मेरी दिव्य विभूति का कहीं न कोई अंत

यह विस्तार किया कि कुछ जिससे समझे सन्त।।40।।

 

भावार्थ :  हे परंतप! मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है, मैंने अपनी विभूतियों का यह विस्तार तो तेरे लिए एकदेश से अर्थात्‌संक्षेप से कहा है।।40।।

 

There is no end to My divine glories, O Arjuna, but this is a brief statement by Me of the particulars of My divine glories!।।40।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 29 ☆ क्यूँ? ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “क्यूँ ?”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 29☆

☆ क्यूँ ?

गाँठ जब भी लगती है

बता कैसे निकलती है?

 

रिश्तों की सुबह भला

शाम में क्यूँ ढलती है?

 

क्या कोई मस्त कश्ती

साहिल से मिलती है?

 

जिंदगी जब है कोहरा

धूप क्यूँ निकलती है?

 

राख ही होना है जब

शमा क्यूँ जलती है?

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हरि की माँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – हरि की माँ

हरि को गोद में आए केवल दस महीने हुए थे जब हरि का बाप उसे हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। हरि की माँ ने हिम्मत नहीं हारी। हरि की माँ हरि के लिए डटकर खड़ी रही। हरि की माँ को कई बार मरने के हालात से गुज़रना पड़ा पर हरि की माँ नहीं मरी।

हरि की माँ बीते बाईस बरस मर-मरकर ज़िंदा रही। हरि की माँ मर सकती ही नहीं थी, उसे हरि को बड़ा जो करना था।

हरि बड़ा हो गया। हरि ने शादी कर ली। हरि की घरवाली पैसेवाली थी। हरि उसके साथ, अपने ससुराल में रहने लगा। हरि की माँ फिर अकेली हो गई।

हरि की माँ की साँसें उस रोज़ अकस्मात ऊपर-नीचे होने लगीं। हरि की माँ की पड़ोसन अपनी बेटी की मदद से किसी तरह उसे सरकारी अस्पताल ले आई। हरि की माँ को जाँचकर डॉक्टर ने बताया, ज़िंदा है, साँस चल रही है।

हरि की माँ नीमबेहोशी में बुदबुदाई, ‘साँस चलना याने ज़िंदा रहना होता है क्या?’

 

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 5.05, 24.2.20)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ कैसे कह दूँ…?/How can I say ? ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  द्वारा सुप्रसिद्ध  अर्थशास्त्री एवं  साहित्यकार श्रीमती मंजुला अरगरे शिंदे  जी की कालजयी कविता “कैसे कह दूँ…?”  का अंग्रेजी भावानुवाद  “How can I say ?” ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का अवसर एक संयोग है। 

भावनुवादों में ऐसे  प्रयोगों के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं। 

आइए…हम लोग भी इस कविता के मूल हिंदी  रचना के साथ-साथ अंग्रेजी में भी आत्मसात करें और अपनी प्रतिक्रियाओं से कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  को परिचित कराएँ।

श्रीमती मंजुला अरगरे शिंदे जी न सिर्फ एक अर्थशास्त्र की ज्ञाता हैं, अपितु साहित्य  के क्षेत्र में भी एक उच्च कोटि की रचनाकार हैं।  पठन-पाठन में आरम्भ से ही उनकी रुचि रही है । एक कवियत्री के रूप में उनकी रचनायें कल्पना की उड़ान भरते हुए मानवीय संवेदनाओं के चरम को छूते हुए पाठक को भीतर तक झकझोर कर रख देती हैं। वे चार वर्षों तक  विश्व गाथा नामक पत्रिका से जुड़ी रहीं। अपने विचारों को  काव्य  स्वरुप में परिवर्तित करने की अपार क्षमता की स्वामिनी, मंजुला जी के शब्द हृदय को छू जाते हैं। प्रस्तुत है उनकी एक भावपूर्ण रचना… *कैसे कह दूँ…*

☆ श्रीमती मंजुला अरगरे शिंदे जीकी मूल कालजयी  रचना – कैसे कह दूँ… ☆

 

कैसे कह दूं. स्वप्न विपुल हैं

पर कोई संसार नहीं है ।

प्रेम पूर्ण इस जीव जगत से.

कैसे कह दूं प्यार नहीं है ।

 

मन चंचल और विमल अभीप्सा,

अंतःकरण सदा अनुरागी ।

महके उपवन. औे’ नंदनवन,

खिलें प्रीति के सुमन  गुलाबी ।

 

यूं समझूं अब अर्थ प्रेम का

है संकोच कहां स्वीकारूं ।

वनमाली की इस बगिया को.

पुलकित हो कर  नित्य निहारूं ।

☆  English Version  of  Classical Poem of  Shrimati Manjula  Argare Shinde ☆ 

☆  “How can I say ? – by Captain Pravin  Raghuwanshi 

How can I say that

 dreams’re in abundance

  But there is no physical

    existence of them…

 

How can I ever say

 that there is no

  endearment of this

   love-filled world…

 

Flickering mind and

 translucent longings

  Conscience, always

    admiringly devoted…

 

Fragrant gardens, and the

 Astral garden  ‘Nandanvan’,

   Blossom with myriad

     hued roses of love…

 

Now, I understand the

 true meaning of love,

  But, still hesitant

   where to accept it…

 

Keep beholding the divine

 garden constantly,

  Being  enamoured with

   the  ethereal gardener…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 9 ☆ इंसानियत ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक प्रिय कविता कविता “ इंसानियत ”।)

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #

☆ इंसानियत  ☆

 

बचपन में सुना करते थे

पिताजी से

पंचतंत्र की कहानियाँ और

आज़ादी के शहीदों की

शहादत के किस्से।

आखिर,

हमें ही तो रखना है रोशन

उस शहादत की विरासत को?

 

क्या जरूरत है

कई रंग-बिरंगे झंडों की

वतन की फिजा में?

आखिर,

किसी को क्यूँ

इन झंडों का रंग

अपने तिरंगे में नज़र नहीं आता?

 

रंगों की बात चली है

तो यह पूछना भी है वाजिब

कि क्या काले रंग और काली स्याही

के मायने भी बदल गए हैं?

 

स्याही किसी भी रंग की क्यों न हो

कलम का तो काम ही है

हर हाल में चलते रहना।

आखिर क्यूँ और कैसे

कोई रोक पायेगा

किसी को आईना दिखाने से?

 

ज़िंदगी की राह में पड़ने वाले

हर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च

और पीर पैगंबर की मजार पर भी

बचपन से माथा टिकाया था।

एक दिन

पिताजी ने बताया था कि

उसी राह पर पड़ती है

अमर शहीदों की समाधि !

 

काश!

कोई एक ऐसा भी प्रार्थनास्थल होता

भारत का भारत में

इंसानियत का

जो गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल होता।

जो सारी दुनिया के लिए मिसाल होता।

 

हम अपने-अपने घरों में

भले ही किसी भी मजहब को मानते

किन्तु,

इस प्रार्थनास्थल में आकर

साथ उठते, साथ बैठते

साथ-साथ याद करते

साथ-साथ नमन करते

वतन पर मर मिटने वालों को।

 

प्रार्थना करते इंसानियत की

और

प्रार्थनास्थल की छत के नीचे

सिर्फ एक ही मजहब को मानते

इंसानियत, इंसानियत और इंसानियत!

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 28 ☆ व्यंग्य संग्रह – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे – श्री अजीत श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री श्रवण कुमार उर्मलिया के  व्यंग्य  संग्रह  “निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 28☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह  –  निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे

पुस्तक –  (व्यंग्य  संग्रह )निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे

लेखक – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया

प्रकाशक –भारतीश्री प्रकाशन , दिल्ली ३२

मूल्य – २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड

 ☆ व्यंग्य संग्रह   – निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे – श्री श्रवण कुमार उर्मलिया–  चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव

इस सप्ताह मुझे इंजीनियर श्रवण कुमार उर्मलिया जी की बढ़िया व्यंग्य कृति ‘निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पढ़ने का सुअवसर सुलभ हुआ.

बहुत परिपक्व, अनुभव पूर्ण रचनायें इस संग्रह का हिस्सा हैं. व्यंग्य के कटाक्षो से लबरेज कथानको का सहज प्रवाहमान व्यंग्य शैली में वर्णन करना लेखक की विशेषता है.पाठक इन लेखो को पढ़ते हुये  घटना क्रम का साक्षी बनता चलता  है. अपनी रचना प्रक्रिया की विशद व्याख्या स्वयं व्यंग्यकार ने प्रारंभिक पृष्ठो में की है. वे अपने लेखन को आत्मा की व्यापकता का विस्तार बतलाते हैं. वे व्यंग्य के कटाक्ष से विसंगतियो को बदलना चाहते हैं और इसके लिये संभावित खतरे उठाने को तत्पर हैं.

पुस्तक में ५२ व्यंग्य और २ व्यंग्य नाटक हैं. ५२ के ५२ व्यंग्य, ताश के पत्ते हैं, कभी ट्रेल में, तो कभी कलर में, लेखों में कभी पपलू की मार है, तो कभी जोकर की. अनुभव की पंजीरी से लेकर निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पीटने के लिये ईमानदारी की बेईमानी, भ्रष्टाचार का शिष्टाचार व्यंग्यकार के शोध प्रबंध में सब जायज है. हर व्यंग्य पर अलग समीक्षात्मक आलेख लिखा जा सकता है, अतः बेहतर है कि पुस्तक चर्चा में मैं आपकी उत्सुकता जगा कर छोड़ दूं कि पुस्तक पठनीय, बारम्बार पठनीय है.

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव,

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #39 – वेदवाणी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “वेदवाणी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 39☆

☆ वेदवाणी ☆

 

वेद आता वाचण्याचे वेड नाही

चार वेदांना जगी या तोड नाही

 

संपवाया वेद सारे जे निघाले

येत त्यांची का तुम्हाला चीड नाही ?

 

वेद सांगे सूक्ष्म गणना या जगाला

संकृतीची त्या तरीही चाड नाही

 

वेद म्हणजे बहरलेला वृक्ष वेड्या

ते झुडुप वा बाभळीचे झाड नाही

 

वेदवाणी जीवनाचा ज्ञान सागर

कोणतेही ज्ञान इतके गोड नाही

 

वाचलेला वेद नाही तो बरळतो

माणसाची चांगली ही खोड नाही

 

जीवनाच्या सागराचा मार्ग खडतर

आणि माझ्या गलबताला शीड नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 38 – लघुकथा – भुतहा पीपल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अनुकरणीय एवं प्रेरक लघुकथा  “भुतहा पीपल ” जो हमें अपरोक्ष रूप से  पर्यावरण संरक्षण का सन्देश भी देती है।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  की यह लघुकथा  हमें कई शिक्षाएं देती है जैसे  अंधविश्वास  के विरोध के अतिरिक्त ईमानदारी, परोपकार, पर्यावरण संरक्षण  आदि का पाठ सिखाती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 38☆

☆ लघुकथा –  भुतहा पीपल 

गाँव के बाहर बहुत बड़ा पीपल का वृक्ष। चारों तरफ से हरी घनी छाया। संभवत सभी गाँव वालों का कहना कि यह भगवान या किसी भूत प्रेत का भूतहा पीपल है। शाम ढले वहां से कोई निकलना नहीं चाहता था। सभी अपना अपना काम करके जल्द से जल्द गाँव के अंदर आ जाते या फिर जो बाहर होते वह दिन होने का इंतजार कर दूसरे दिन आते थे।

एक प्रकार से दहशत का माहौल बन गया था। दिन गुजरते गए। गांव में अचानक एक गुब्बारे वाला आया। बहुत अधिक बारिश होने के कारण वापस जा रहा था पर नहीं जा सका। उसी पीपल के वृक्ष के नीचे खड़ा होकर बारिश के रुकने का इंतजार करने लगा।

कहते हैं कि भाग्य पलटते देर नहीं लगती। अचानक वहां पर कुछ लुटेरे आकर खड़े हो गए। जिनके पास शायद बहुत सारा रुपया पैसा, सोना चांदी था। उन्होंने देखा कि कपड़ों से फटा बेहाल मनुष्य खड़ा है। उसमें से एक ने कहा… इसे यहीं टपका  दे, परंतु बाकी लोग कहने लगे… नहीं हमेशा पाप की कमाई से जीते आए हैं। आज इसे कुछ नहीं करते। इसको मालामाल कर देते हैं।

उस गुब्बारे वाले को पास बुलाकर लुटेरे ने कहा… तुम अच्छी जिंदगी जी सकते हो बड़े आदमी बन सकते हो, परंतु हमारी शर्त है… हमारी बात जिंदगी भर राज ही रहने देना। हम तुम्हें धन दौलत दिए जा रहे हैं। तुम इसका चाहे जैसा इस्तेमाल करो। गुब्बारे वाला तुरंत मान गया। गरीब बेचारा सोचता रहा। लुटेरों ने अपना सामान उठाया और  चले गए।

उसी समय जोरदार बिजली कौधी  और जैसे गुब्बारे वाले को ज्ञान प्राप्त हो गया। उसने सुबह होते ही पीपल के चारों तरफ साफ सफाई करके सब कचरा एकत्रित कर जला दिया और लूट का सामान जो दे गए उसे पोटली बना अपने पास रख लिया।

सुबह होते ही गाँव के लोगों का आना जाना शुरू किए। एक से दो और दो से चार बाते होते देर नहीं लगी। पूरा गाँव इकट्ठा हो गया गुब्बारे वालों ने बताया कि…. रात बारिश की वजह से मैं यहीं पर रुक गया था। रात में पीपल देव दर्शन देकर गांव की उन्नति और इसे अच्छे कामों में लगाने के लिए यह सारा सोना चांदी और रुपया पैसा दिए हैं। गांव वालों के मन से उस भुतहा पीपल का डर निकल गया। गुब्बारे वाले से रुपए लेकर गांव के पंच ने वहां पर सुंदर बाग बगीचा मंदिर बनाने का निर्णय लिया और गुब्बारे वाले को भी परिवार सहित गांव में रहने के लिए मकान दिया गया।

इस प्रकार उन लुटेरों के धन से ईमानदार गुब्बारे वाले ने सदा के लिए उस गाँव का डर मिटा दिया और अब पीपल देव के नाम से पूजा होने लगी। सभी गाँव वाले प्रसन्न और उत्साहित थे। सभी ने ईश्वर का धन्यवाद किया और अपनी गलती की क्षमा प्रार्थना की। गाँव  में पर्यावरण को बढ़ावा दिया गया। गुब्बारे वाले ने सभी से कहा… कि गांव के बाहर खेतों पर एक एक पेड़ जरूर लगाएं। और वह गांव भूतहा पीपल वाला गांव की जगह पीपल देव  गांव कहलाने लगा। चारों तरफ हरियाली फैल गई। सरकार ने भी उस गांव की हरियाली देख गांव को पुरस्कृत करने का  फैसला किया।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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