हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 39☆ व्यंग्य – बड़ी लकीर : छोटी लकीर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज का व्यंग्य  ‘बड़ी लकीर : छोटी लकीर’ एक बेहतरीन व्यंग्य है। हमारे जीवन में इन लकीरों का बड़ा महत्व है। हाथ की लकीरों से माथे की लकीरों तक। डॉ परिहार जी ने इन्हीं लकीरों में से छोटी बड़ी लकीरें लेकर मानवीय सोच का रेखाचित्र बना दिया है। ऐसे  बेहतरीन व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 39 ☆

☆ व्यंग्य – बड़ी लकीर : छोटी लकीर ☆

एक नीति-कथा पढ़ी थी। यदि किसी लकीर को छोटा करना हो तो उसे मिटाने की ज़रूरत नहीं। उसकी बगल में एक बड़ी लकीर खींच दो। पहली लकीर अपने आप छोटी हो जाएगी। यह बात आज की ज़िन्दगी में खूब लागू हो रही है। बहुत सी बड़ी लकीरें खिंच रही हैं और उनकी तुलना में बहुत सी लकीरें छोटी पड़ती जा रही हैं। इन छोटी लकीरों की हालत खस्ता हो रही है।

मेरे एक मित्र ने बड़ी हसरत से एक पॉश कॉलोनी में मकान बनवाया। उस वक्त उस कॉलोनी में बहुत कम मकान बने थे इसलिए बहुत खुला खुला था। उन्होंने बड़े प्यार से मकान का नाम ‘हवा महल’ रखा।

धीरे धीरे कॉलोनी भरने लगी। नये मकान बने और एक दिन उनकी बगल में एक रिटायर्ड ओवरसियर साहब ने भव्य दुमंज़िला भवन  तान दिया। ओवरसियर साहब के पुत्र विदेशों में धन बटोर रहे हैं। अब ओवरसियर साहब इस बाजू वाले मकान पर हिकारत की नज़र डालते, अपनी दूसरी मंज़िल की छत पर घूमते हैं। मेरे मित्र मन मसोस कर कहते हैं, ‘हमारा मकान तो अब सरवेंट्स क्वार्टर हो गया। ‘ मकान तो वही है लेकिन बड़ी लकीर ने छोटी लकीर की धजा बिगाड़ दी।

परसाई जी की एक कथा याद आती है। एक साहब के ट्रांसफर पर हुई विदाई-पार्टी में उनका एक सहयोगी फूट-फूट कर रो रहा था। जब उस दुखिया से उसके भारी दुख का कारण पूछा गया तो उसका जवाब था, ‘साला प्रमोशन पर जा रहा है।’

दरअसल अब सुख-दुख निरपेक्ष नहीं रहे,वे सापेक्षिक हो गये हैं। हमें मिले यह तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन असली सुख तभी मिलेगा जब पड़ोसी को हमसे कम मिले। ‘प्रभु! आपने हमको हज़ार दिये इसके लिए हम आपके अनुगृहीत हैं, लेकिन पड़ोसी को सवा हज़ार देकर सब गड़बड़ कर दिया। उसे पौन हज़ार पर ही लटका देते तो हम आपके पक्के भक्त हो जाते।’

हम घर में स्कूटर लाकर खुश हो रहे होते हैं कि हमारा पुत्र खबर देता है, ‘पापाजी, सक्सेना साहब के घर में नयी कार आ गयी है।’ तुरन्त हमें अपना नया-नवेला स्कूटर कबाड़ सा अनाकर्षक लगने लगता है।

हम दार्शनिक की मुद्रा अख्तियार करते हैं और खाँस-खूँस कर कहते हैं, ‘देखो बेटे, इन चीज़ों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। आवश्यकताओं का कोई अन्त नहीं है। कार हो या स्कूटर, कोई फर्क नहीं पड़ता।’

पुत्र ठेठ व्यवहारिक टोन में कहता है, ‘फर्क तो पड़ता है, पापा। कार और स्कूटर का क्या मुकाबला।’

पापा के पास सिवा चुप्पी साध लेने के और कुछ नहीं रह जाता और वह हज़ार साधों से खरीदा हुआ स्कूटर कोने में तिरस्कृत खड़ा रहता है।

आज दो नंबर की कमाई का ज़माना है। दो नंबर की कमाई में बड़ी बरकत होती है। दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती है। इसलिए इस तरह की कमाई वाली लकीरें बड़ी तेज़ी से बढ़ रही हैं। जो लकीरें अपने संस्कारों के कारण या मौका न मिलने के कारण दो नंबर की कमाई नहीं कर सकतीं वे इन बढ़ती लकीरों को देखकर छटपटा रही हैं। आज ईमानदार अफसर ईमानदार तो रहता है, लेकिन बेईमानों को फलते-फूलते देखकर हाय-हाय करता रहता है। अन्त में वह ईमानदारी के दो चार तमगे लटकाये, बुढ़ापे की चिन्ता से ग्रस्त, रिटायर हो जाता है। और जो जीवन भर समर्पित भाव से बेईमानी करते हैं, वे जेब में इस्तीफा डाले घूमते हैं। वे कल की जगह आज ही रिटायर होने को तैयार बैठे रहते हैं। ज़्यादा दिन नौकरी करने में फँसने का खतरा भी रहता है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #37 ☆ शाश्वत तो मिट्टी ही है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 37 ☆

☆ शाश्वत तो मिट्टी ही है ☆

हम पति-पत्नी यात्रा पर हैं। दाम्पत्य की साझा यात्रा में अधिकांश भौगोलिक यात्राएँ भी साझा ही होती हैं। बस का स्लीपर कोच.., कोच के हर कम्पार्टमेंट में एसी का असर बनाए रखने के लिए स्लाइडिंग विंडो है। निजता की रक्षा और  धूप से बचाव के लिए पर्दे लगे हैं। मानसपटल पर छुटपन में खेला ‘घर-घर’ उभर रहा है। इस डिब्बेनुमा ही होता था वह घर। दो चारपाइयाँ साथ-खड़ी कर उनके बीच के स्थान को किसी चादर से ढककर बन जाता था घर। साथ की लड़कियाँ भोजन का जिम्मा उठाती और हम लड़के फौजी शैली में ड्यूटी पर जाते। सारा कुछ नकली पर आनंद शत-प्रतिशत असली। कालांतर में हरेक का अपना असली घर बसा और तब  समझ में आया कि ‘दुनिया  जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है। मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ यों भी बचपन में निदा फाज़ली कहाँ समझ आते हैं!

जीवन को समझने- समझाने की एक छोटी-सी घटना भी अभी घटी। रात्रि भोजन के पश्चात बस में चढ़ रहा एक यात्री जैसे ही एक कम्पार्टमेंट खोलने लगा, पीछे से आ रहे यात्री ने टोका, ‘ये हमारा है।’ पहला यात्री माफी मांगकर अगले कम्पार्टमेंट में चला गया। अठारह-बीस घंटों के लिए बुक किये गए लगभग  6 x 3 के इस कक्ष से सुबह तक हर यात्री को उतरना है। बीती यात्रा में यह किसी और का था, आगामी यात्रा में किसी और का होगा। व्यवहारिकता का पक्ष छोड़ दें तो अचरज की बात है कि नश्वरता में भी ‘मैं, मेरा’ का भाव अपनी जगह बना लेता है। जगह ही नहीं बनाता अपितु इस भाव को ही स्थायी समझने लगता है।

निदा के शब्दों ने चिंतन को चेतना के मार्ग पर अग्रसर किया। सच देखें तो नश्वर जगत में शाश्वत तो मिट्टी ही है। देह को बनाती मिट्टी, देह को मिट्टी में मिलाती मिट्टी। मिट्टी धरातल है। वह व्यक्ति को बौराने नहीं देती पर सोना, कनक है।  ‘कनक, कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।’

बिहारी द्वारा वर्णित कनक की उपरोक्त सर्वव्यापी मादकता के बीच धरती पकड़े रखना कठिन हो सकता है, असंभव नहीं। मिट्टी होने का नित्य भाव मनुष्य जीवन का आरंभ बिंदु है और उत्कर्ष बिंदु भी।

इति।

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 9: 49 बजे, रविवार 25.2.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता/Nation is not a map on the paper ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  द्वारा सुप्रसिद्ध कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की कालजयी कविता “देश  कागज पर बना नक्शा नहीं होता ”  का अंग्रेजी भावानुवाद  “Nation is not a map on the paper” ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का अवसर एक संयोग है।

भावनुवादों में ऐसे  प्रयोगों के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी हैं। 

आइए…हम लोग भी इस कविता के मूल हिंदी  रचना के साथ-साथ अंग्रेजी में भी आत्मसात करें और अपनी प्रतिक्रियाओं से कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी  को परिचित कराएँ.। 

☆ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की मूल कालजयी  रचना – देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता ☆

 

यदि तुम्हारे घर के

एक कमरे में आग लगी हो

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में सो सकते हो?

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में

लाशें सड़ रहीं हों

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

यदि हाँ

तो मुझे तुम से

कुछ नहीं कहना है।

 

देश कागज पर बना

नक्शा नहीं होता

कि एक हिस्से के फट जाने पर

बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें

और नदियां, पर्वत, शहर, गांव

वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें

अनमने रहें।

यदि तुम यह नहीं मानते

तो मुझे तुम्हारे साथ

नहीं रहना है।

 

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा

कुछ भी नहीं है

न ईश्वर

न ज्ञान

न चुनाव

कागज पर लिखी कोई भी इबारत

फाड़ी जा सकती है

और जमीन की सात परतों के भीतर

गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक

खड़ा हो लाशों को टेक

वह अंधा है

जो शासन

चल रहा हो बंदूक की नली से

हत्यारों का धंधा है

यदि तुम यह नहीं मानते

तो मुझे

अब एक क्षण भी

तुम्हें नहीं सहना है।

 

याद रखो

एक बच्चे की हत्या

एक औरत की मौत

एक आदमी का

गोलियों से चिथड़ा तन

किसी शासन का ही नहीं

सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

ऐसा खून बहकर

धरती में जज्ब नहीं होता

आकाश में फहराते झंडों को

काला करता है।

जिस धरती पर

फौजी बूटों के निशान हों

और उन पर

लाशें गिर रही हों

वह धरती

यदि तुम्हारे खून में

आग बन कर नहीं दौड़ती

तो समझ लो

तुम बंजर हो गये हो-

तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार

तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

 

आखिरी बात

बिल्कुल साफ

किसी हत्यारे को

कभी मत करो माफ

चाहे हो वह तुम्हारा यार

धर्म का ठेकेदार,

चाहे लोकतंत्र का

स्वनामधन्य पहरेदार

 

☆  English Version  of  Classical Poem of  Sarveshwar Dayal Saxena ☆ 

☆  Nation is not a map  made on paper” – by Captain Pravin  Raghuwanshi

 

If a room in your

house is on fire

Then, can you sleep

in another room?

If, a room of your house

is rotting with corpses,

Then, can you pray

in another room?

If yes, then,

I’ve got nothing

more to say to you…

 

Nation is not a map

made on paper of which,

when a part is torn

Then, the rest of it

will remain intact;

And rivers, mountains,

town, villages

will appear in their

own places,

and remain unaffected…

If you don’t believe it

Then, I do not have

to stay with you…

 

There’s nothing

greater than  the

man’s own life

in this world

Neither the God

Nor the knowledge

Nor the election

Anything written

on the paper

Can be torn and

buried deep in the

layers of the ground…

 

If the conscience

is supported

by the corpses,

Then, it sure is blind

If the rule of the land

is running through

the barrel of  gun

Then, it is nothing but a

‘Business of killers’

If you don’t believe it

Then, I don’t have to

tolerate you even

for a moment…

 

Always remember-

Killing a child

Murdering a woman

Bullet ridden body

of a man

Is not the fall

of a government

but the decay

of the entire nation…

Such a blood is not

accepted by the earth,

it only does blacken

the flags

fluttering high in the sky…

 

The land, which is

trampled by its

dictatorial boots, and

Corpses keep falling on it

If, that land, doesn’t run

in your blood like a fire

Then you must understand

That you have become

starkly barren-

You do not even have

the right to breathe here

This world is no longer for you…!

 

Last thing

Very straightforward-

Never forgive

An assassin

-Whether it’s your friend

or reverend preacher

of your religion,

-Whether he is the

Self-appointed sentinel

of the democracy…!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 24 – प्रेमालाप ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘प्रेमालाप । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 24  – विशाखा की नज़र से

☆ प्रेमालाप  ☆

 

प्रेम तू मुझे दोपहर की तपिश देना

भोर का चला जब तू अपने चरम पर होगा

पलटकर नई यात्रा पर आतुर होगा

इनके मध्य का तू क्षण देना

प्रेम तू मुझे अपनी दोपहर देना

 

प्रेम तू खिलना पुष्प की तरह मेरे भीतर

बीज, पौध, कली के सफ़र से

जब तू प्रफुल्ल हो पुष्प बनेगा

तब खिलकर बिखरने के मध्य का क्षण देना

प्रेम तू  अपना सम्पूर्ण देना

 

प्रेम तू तरंगित होना सस्वर मुझमें

सप्तसुरों से कई राग छेड़ना

बस सा से सा के बीच आलाप  में

तू पंचम  का स्वर बने रहना

प्रेम तू पावस  – पूरित – पुकार  देना

 

प्रेम, अबकी जब पूस की रात में

हल्कू संग जबरा ठंड में कातर

घुटना छाती से चिपकाये डटे होंगे

तब मैं दोपहर की तपिश बन

पंचम स्वर से जाडा साधुगी

खड़ी फसल का गीत गाऊँगी

समर्पित हो जाऊँगी

प्रेम, तब भी तू होना मेरे संग

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 13 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 13 – सीढियाँ ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- किस प्रकार पगली का बचपना बीता, ससुराल आई, सुहाग रात के दिन का उसका अनुभव बहुत अच्छा  नहीं रहा। उसकी सुहागरात उसके जीवन की अनकही कहानी बन कर रह गई। देर से ही सही उसकी गोद भरी, पति जहरीली शराब पीकर मरा, पुत्र आतंकी हिंसा में मरा। उसके जीवन की कहानी दर्द और पीड़ा की जीवंत मिसाल बन कर रह गई।  वह लगातार जीवन में घटने वाले दुख के पलों वाले घटनाक्रम को झेल नही पाई और पिता द्वारा बचपन में अनजाने में दिया संबोधन सच साबित हो गया।  वह सच में ही पागल बन गई।  इसी बीच घटी एक घटना नें पगली के हृदय को  ऐसी चोट पहुंचाई कि वह दर्द सह नहीं पाई।  वह अब दिन रात रोती रहती है। तभी इस घटना क्रम में एक नया मोड़ आया और  गोविन्द के रूप में एक नये कथा नायक का जन्म हुआ और वह पगली के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन कर उभरा। अब आगे पढ़े——-)

उस दिन पहली बार गोविन्द घर छोड़ कर बाहर निकला था मजबूर होकर। उसे बाहर का कोई ज्ञान न के बराबर था।  वह दो दिन से बिना कुछ खाये पिये सड़कों पर भटक रहा था। कही शरण नहीं  मिली उसे,
आखिर वह थक हार कर भूख से बिलबिलाता  हुआ शहर के मुख्य मस्जिद की सीढ़ियों पर पडा़ रोये जा
रहा था।  लोग आते नमाज पढ़ते, सिजदा करते चले जाते। किसी की निगहबानी में वह यतीम नही आया था।

वह खुदा के दर पर पड़ा। बस रोये जा रहा था, सहसा मस्जिद से निकलने वाले आखिरी शख्स बादशाह खान की निगाहें  उस यतीम पर पडीं, जिसने बादशाह खान के आगे बढते कदमों को थाम लिया था।  उसके बढ़ते कदम तब ठिठक गये थे, जब उसने रोते हुए अपरिचित बच्चे को देखा। तो चल पडे़ उसके कदम उस यतीम की ओर उसके आंसू पोंछने।  कहा भी गया है कि जमाने में जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है और यह बात उस समय अक्षरशः सत्य साबित हुई थी।  तो फिर खुदा के दर पर  पडे़ गोविन्द का भला कैसे नही होता।
गोविन्द ने अपनी सारी आप बीती रोते रोते ही सुनाई थी, जिसे सुनकर बादशाह खान की आंखें भर आईं थी।
उसनें उसे उसी क्षण खुदा की अमानत समझ अपने साथ रखने का संकल्प ले लिया। झिलमिल करते आंसुओं की कसक को उस रहमदिल इंसान ने उस दिन बडी़ शिद्दत से महसूस किया था। बादशाह खान बेऔलाद था।  उसने गोविन्द को खुदा की नजरें इनायत समझ अपनी औलाद की  तरह पाला था। बादशाह खान और उसकी  पत्नी राबिया नें उसे सगी औलाद से भी ज्यादा प्यार दिया था, वो दोनों ही उस पर। अपनी जान छिड़कते थे।  अपना सारा प्यार उसपर उड़ेल दिया था। अब बादशाह खान उसे अच्छे स्कूल में पढाने के साथ उसकी दीनी तालीम के लिए अपने एक ब्राह्मण मित्र को बतौर शिक्षक रख धार्मिक शिक्षा दिलाने का प्रबंध कर दिया था।  बादशाह खान एक नेक  रहमदिल खुदा का बंदा था।

धार्मिक कट्टरता का उससे दूर दूर तक कोई वास्ता नही था। वह सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था। वह केवल इंसानियत का हामी था।  वह बेहद निडर तथा साहसी प्रकृति का इंसान था। उसका सिर केवल खुदा के दर पे झुकता था। उसमें इंसानियत का जज्बा कूट कूट कर भरा था। उसकी नेक परवरिश ने गोविन्द को भी इंसानियत का खिदमतगार बना दिया था। अब गोविन्द बड़ा हो चला था। पढा़ई के लिए कालेज भी जाने लगा था और  कालेज में एन सी सी में भर्ती हो गया था।

– अगले अंक में7पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग – 14 – मिलन

© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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मराठी साहित्य ☆ कविता ☆ याल का राजे*? ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ  रचनाये सदैव सामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  उनकी ऐसी ही एक भावप्रवण कविता  याल का राजे? )

 ☆  याल का राजे? ☆

हाल माझ्या या  देशाचे लोकशाहीचे पाहाल का राजे

पुन्हा एकदा राज्य कराया परत  याल का राजे!!धृ!!

 

माय जिजाऊ , कुठे दिसेना, रक्त सांडले ताजे

जीथे झुंजली मावळमाती तिथे दीनता साजे

स्वराज्य व्हावे श्री इच्छेचे स्वप्नी मनीषा गाजे

स्वप्नाला साकार कराया परत याल का राजे ? !!

 

स्वैर माजली भाऊबंदकी, पैशाचा व्यापार नवा

माता,भगिनी,पिडीत महिला अत्याचारा मिळे हवा

नितीमत्ता भ्रष्ट जाहली, नारी दिसता शेज सजे

नारीजातीला सबल कराया परत याल का राजे ? !!

 

माय जिजाऊ कुठे दिसेना पिसाट वृत्ती माजे

संस्कारांचे फिरले वारे कुणी कुणा ना लाजे

शरमेचे अवशेष पायदळी त्यावर पाऊल वाजे

मर्द मराठा रूप दावण्या परत याल का राजे ?

 

मावळ्यांचे वंशज तेही नशाधुंद जाहले

परकीयांचे नको आक्रमण स्वकीयांना लुटले

खान दान ते विकले गेले उरले पडके वाडे

त्या वाड्याचा आब राखण्या परत याल का राजे ?

 

कसली प्रगती, विनाश काले विपरीत बुद्धी

पैशासाठी हपापलेली मुजोर यांची सद्दी

पुन्हा एकदा गनिमी कावा शौर्य पाहू द्या ताजे

स्वराज्य तोरण मनी बांधण्या परत याल का राजे ?

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #5 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #5 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

अपना भी होवे भला, भला जगत का होय ।

जिससे सबका हो भला, शुद्ध धरम है सोय ।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (37) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ।।37।।

 

वृष्णियों में वासुदेव ,पांडवों में हूँ पार्थ!

कवियों में उशना कवि,मुनियों में हूँ व्यास।।37।।

भावार्थ :  वृष्णिवंशियों में (यादवों के अंतर्गत एक वृष्णि वंश भी था) वासुदेव अर्थात्‌मैं स्वयं तेरा सखा, पाण्डवों में धनञ्जय अर्थात्‌ तू, मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूँ।।37।।

 

Among Vrishnis I am Vasudeva; among the Pandavas I am Arjuna; among sages I am Vyasa; among poets I am Usana, the poet.।।37।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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