(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~ Ode of the Yore… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वसंत के बहाने…“।)
अभी अभी # 284 ⇒ वसंत के बहाने… श्री प्रदीप शर्मा
सबसे पहले बचपन की एक कविता, जो आज भी हम सबकी जबान पर सरस्वती की तरह मौजूद है ;
आया वसंत, आया वसंत।
खिल गए फूल, लद गई डाल।
भौंरों ने गुनगुनाना शुरू किया
पत्ते दे रहे ताल।।
तब हम कहां जानते थे, कौन निराला है, कौन पंत है और कौन प्रसाद है।
कितनी सरल भाषा है, फिर भी लदने और ताल देने की अभिव्यक्ति कितनी सहज और सुंदर है।
हम तो अपनी उम्र को भी वसंत से ही गिनते हैं, कितने वसंत पूरे हुए।
जिस भी कन्या अथवा बालक का जन्म वसंत पंचमी को हुआ, उसका नामकरण तत्काल बसंत अथवा बसंती हो जाता था। वसंत में जब थोड़ा रंग मिल जाता है, तो वह रंग बसंती हो जाता है। रंग बसंती आ गया, मस्ताना मौसम छा गया।।
अंगड़ाई शब्द में ही मस्ती है। यही वह समय है, जब मौसम भी अंगड़ाई लेने लगता है। अंगड़ाई का कोई मुहूर्त भले ही ना होता हो, लेकिन समय जरूर होता है। सबसे पहले इसका असर सूर्य नारायण पर पड़ता है। ठंड में ठिठुरते हुए, सात बजे के बाद खिड़की खोलने वाले आदित्य नारायण इस मौसम में जल्द ही आंगन में पसर जाते हैं। ओस से ढंकी पत्तों और फूलों की बूंदें, गायब होनी नजर आने लगती है। सूरज की अंगड़ाई के बहुत पहले ही पक्षी अपना बसेरा छोड़ चुके होते हैं। वे शायद दोपहर की थकान के बाद अगड़ाई लेते हों क्योंकि सुबह तो उन्हें सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती।
मकर सक्रांति से यह मौसम की क्रांति शुरू होती है। पहले तिल गुड़ खाकर हमने ठंड भगाई और अब केसरिया चावल खा रहे हैं। हो सकता है, आगे गुड़ी पाड़वा तक हम पूरण पोळी से भी आगे निकल ठंडे श्रीखंड पर अटक जाएं। मस्ती में सराबोर यह अंगड़ाई जब होली के रंग में भीगेगी, तब केवल बनारस वाले पान से कहां काम चलने वाला है।।
वसंत की इस मस्ती में सरस्वती की साधना का समय भी बड़ा अनुकूल है। आज के इस शुभ मुहूर्त पर क्यों न देवी सरस्वती से ही वर मांगा जाए ;
(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन)हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं। इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका रेडियो दिवस पर एक आलेख ‘रेडियो की शताब्दी, दुनिया को ग्लोबल गांव बना दिया…’।)
☆ आलेख – रेडियो की शताब्दी, दुनिया ग्लोबल गांव बना… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆
16 फ़रवरी, हिसार। दुनिया में रेडियो स्टेशन बनने की शुरुआत 1920 के दशक में हुई थी और पिछले सौ साल में रेडियो ने बिखरी दुनिया को इस तरह जोड़ा कि लोग कहने लगे कि आज दुनिया ग्लोबल विलेज यानि एक वैश्विक गांव जैसी बन गई है।
13 फरवरी, विश्व रेडियो दिवस पर आकाशवाणी हिसार के स्टूडियो में आयोजित एक श्रोता गोष्ठी में यह बात आकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों पर संवाददाता, संपादक व निदेशक के रूप में काम कर चुके दूरदर्शन के पूर्व समाचार निदेशक अजीत सिंह ने कही। इस बार के रेडियो दिवस का ध्येय वाक्य है: सूचना, शिक्षा एवम मनोरंजन की रेडियो की एक शताब्दी।
संचार और संवाद से दूरियां कम होती हैं, समझ बढ़ती है, एकता बनती है , विश्व शांति पनपती है और मानव समुदायों की तरक्की होती है। रेडियो तरंगें राष्ट्रीय सरहदों को नहीं मानती। अधिनायकवादी देशों में आज़ादी और मानवाधिकारों के संदेश ले जाती हैं और सोवियत संघ जैसे देश टूट जाते हैं, अरब राष्ट्रों में कई बादशाहों के सिंहासन डोलते हैं।
जन संचार के माध्यम के रूप में रेडियो ने विभिन्न देशों और क्षेत्रों में ऐसा ही बहुत कुछ पिछले 100 साल में करके दिखाया है।
नई तकनीक के साथ रेडियो का स्वरूप भी बदला है। अब यह सर्वव्यापी, सशक्त पर ऐसा सस्ता माध्यम है जो उस जगह भी काम आता है जहां टेलीविजन और सोशल मीडिया भी काम नहीं कर पाते।
जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के दौरान अपने अनुभव सांझा करते हुए अजीत सिंह ने बताया कि बिजली सप्लाई जैसी व्यवस्था बिगड़ जाने पर आम लोगों के पास जानकारी का एकमात्र साधन रेडियो ही रहता था जिसकी विश्वसनीयता पर उन्हें यकीन था। बाढ़ और युद्ध के समय भी रेडियो ही काम आता है जो अब स्मार्टफोन में भी चलता है।
खेलों का आंखों देखा हाल रेडियो से ही शुरू हुआ। कृषि क्रांति को बढ़ावा रेडियो ने दिया जब किसान हाइब्रिड बीजों को रेडियो बीज कह कर ही पुकारते थे।
विश्व रेडियो दिवस पर स्मृति चिन्ह ।
ड्राइवर हरकिशन केंद्र निदेशक पवनकुमार को स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए।
गोष्ठी में भाग लेने वाले चयनित श्रोता आकाशवाणी हिसार में।
श्रोता गोष्ठी में कुछ ऐसे लोगों को आमंत्रित किया गया था जो लंबे समय से रेडियो सुनते आ रहे हैं। इनमें से कुछ तो रेडियो के इतने दीवाने हैं कि रेडियो के बिना रह नहीं सकते। मुंबई और श्रीनगर तक 40 साल तक ट्रक चलाते रहे 66 वर्षीय हरिकिशन ने कहा कि ड्राइवरों के लंबे एकांत में दिन रात के सफ़र का सहारा तो रेडियो ही होता है। आभार स्वरूप उन्होंने मुंबई, दिल्ली और हिसार के आकाशवाणी केंद्रों पर जाकर अपने हाथों से तैयार मोमेंटो उपहार भेंट किए।
लेखिका उर्मिला श्योकंद ने कहा कि आकाशवाणी रोहतक के कार्यक्रम सुनकर वे इतनी प्रभावित थी कि वे रेडियो एनाउंसर बनना चाहती थी। शादी के बाद हिसार आने के कारण उनकी यह इच्छा अधूरी रही क्योंकि उस समय हिसार में आकाशवाणी का केंद्र नहीं था। पर बाद में यह इच्छा कुछ यूं पूरी हुई कि उनकी बेटी जनसंचार की डिग्री लेकर हिसार में कैजुअल एनाउंसर बन गई। उन्होंने रेडियो दिवस पर एक कविता भी सुनाई।
रेडियो के ही कर्मचारी राजीव शर्मा ने कहा कि रेडियो ने संगीत का अपार प्रसार कर इसे अमर कर दिया है । उन्होंने एक गीत भी पेश किया।
एक और श्रोता रमेश वर्मा ने कहा कि जो काम रेडियो के माध्यम से फिल्म संगीत के प्रसार का रेडियो सीलोन पर कभी अमीन सयानी करते थे, वही काम आज विविध भारती चैनल पर युनुस खान कर रहे हैं।
श्रोता सोनू का कहना था कि रेडियो किसानों के लिए स्थानीय भाषा में गागर में सागर भर कर जानकारी देता है।
उन्होंने कहा कि इंटरनेट के ज़रिए अब दुनिया के किसी भी रेडियो स्टेशन को कहीं भी सुना जा सकता है।
निहाल सिंह सैनी ने कहा कि रेडियो तो मन का रंगमंच, थिएटर ऑफ माइंड है, यह श्रोता की कल्पना शक्ति को उड़ान देता है।
उन्होंने कहा कि रेडियो का महत्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि सैनिक या अन्य क्रांति के समय सत्ता हथियाने वाले सबसे पहले रेडियो स्टेशन पर कब्ज़ा करते हैं।
प्रगतिशील किसान दलबीर सिंह आर्य का कहना था कि हरित क्रांति का प्रसार रेडियो के माध्यम से हुआ और यह प्रक्रिया आज भी जारी है।
आकाशवाणी हिसार के केंद्र निदेशक पवनकुमार ने कहा यह धारणा गलत है कि रेडियो के श्रोता कम हो रहे हैं। आकाशवाणी हिसार के फोन-इन जैसे कार्यक्रमों में श्रोताओं को नंबर ही नहीं मिल पाता। कुछ तो पक्षपात का आरोप लगाते हुए केंद्र तक पहुंच जाते हैं और हम उन्हे संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने बताया कि हिसार केंद्र को ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य देशों से श्रोताओं के लगातार फोन आते हैं। श्रोता इतने दीवाने हैं कि उन्होंने रेडियो श्रोता क्लब बनाए हुए हैं। वे अपनी पत्रिकाएं निकालते हैं और वार्षिक सम्मेलन करते हैं।
व्हाट्सएप और ईमेल की सुविधा के कारण संपर्क आसान हो गया है। कुछ श्रोता इतने सजग हैं कि किसी कार्यक्रम में छोटी सी भी गलती पकड़ लेते हैं और उसकी शिकायत करते हैं। हम स्वीकार करते हुए उनका धन्यवाद करते हैं।
सभी ने रेडियो की पिछली शताब्दी पर बधाई दी और आगामी शताब्दी के लिए शुभ कामनाएं अर्पित की।
रेडियो की वरिष्ठ एनाउंसर ऋतु कौशिक ने श्रोता गोष्ठी का संचालन किया।
गोष्ठी में भाग लेने वाले सभी श्रोताओं को केंद्र निदेशक पवन कुमार ने स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “बच्चे..” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बच्चे…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆ बाळा मला समजून घेशील ना ? ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆
(नुकतेच अमळनेर येथे अखिल भारतीय साहित्य संमेलन पार पडले. ते कितपत यशस्वी झाले याबद्दल वेगवेगळी मते/वाद ऐकायला मिळतात. त्या पार्श्वभूमीवर माझा पूर्वी लिहिलेला हा लेख)
रात्रीची शांत वेळ. शहरातली वर्दळ आता कमी झाली होती. रस्ते मोकळा श्वास घेऊ लागले होते. कधी कधी रात्रीची शांत वेळ मला फिरण्यासाठी योग्य वाटते. बऱ्याच वेळा मी या गोदावरीच्या काठी येऊन बसतो. गोदामैया शांतपणे वाहत असते. तिच्या पात्रामध्ये दिव्यांचे छान प्रतिबिंब पडलेले असते. आजबाजूला असणाऱ्या अंधाराच्या पार्श्वभूमीवर गॊदामैयाचे हे रूप मला भावते. दिवसभर तिच्या काठाशीही वर्दळ असते. भाविक येतात, व्यापारी येतात,श्रीमंत, गरीब, लहान थोर सारे सारे गोदामाईचा आश्रय घेतात. पण रात्री आपापल्या मुक्कामी निघून जातात. गोदामाई काही म्हणत नाही. पण रात्रीच्या शांत वेळी तिच्या तीरावर जाऊन बसावं. ती यावेळी निवांत असते. दिवसा तिला काही बोलावसं वाटत नसलं तरी यावेळी ती आपलं मन मोकळं करते.
असाच मी तिच्या कुशीत जाऊन बसलो. अंमळ थंडीच होती. पण तिच्याजवळ बसलं की सगळं काही विसरायला होतं. माई म्हणाली, ‘ आलास. ये. बैस जरा. तुला खूप काही सांगायचं आहे. पण त्या आधी तिकडे पलीकडे माझी सखी उभी आहे. आम्ही दिसायला वेगवेगळ्या असलो तरी माझा आणि तिचा आत्मा एकच आहे. तू माझ्याकडे जसा हक्काने येतोस, तसाच तिच्याकडेही जा. तिची थोडी विचारपूस कर. मग पुन्हा तुझ्याशी बोलायला मी आहेच. ‘ मी म्हटलं, ‘ माई, तू काळजी नको करुस. मी जातो लगेच तिच्याकडे आणि तिला काय हवं नको ते पाहतो. ‘
मी गेलो. खरंच भरजरी वस्त्र लेऊन एक कुलीन, घरंदाज स्त्री उभी होती. कपाळावर कुंकवाचा टिळा होता. मुद्रेवर न लपणारं विलक्षण तेज होतं. मी तिला प्रणिपात केला. म्हटलं, ‘ मला गोदामैयाने पाठवलं तुमच्याकडे. कोण आपण .? मी आपल्याला काही मदत करू शकतो का ?
क्षणभर ती माऊली स्तब्ध होती. मग म्हणाली, ‘ असं परक्यासारखं नको बोलूस रे. मी तुझी आईच आहे. एका आईनं तुला जन्म दिला. मी तुला शब्द दिले, भाषा दिली. शेतामध्ये धान्य पेरतो. नंतर ते अनेक पटींनी परत मिळतं. तशी लहानपणापासून तुझ्या अंतरात मी शब्दांची पेरणी केली. ती भाषेच्या रूपाने तुझ्या लेखणीतून, वाणीतून प्रकट झाली. आता तरी लक्षात आलं ना की मी कोण आहे ते !
‘ होय माते, तू तर माझी माय. माय मराठी. मला लक्षातच आलं नाही आधी. मला क्षमा कर. ‘
‘ असू दे लेकरा. चालायचंच. तुझा काही दोष नाही त्यात. ‘
पण माते मला सांग, तू आता इथे कशी काय ?
अरे तुझ्या लक्षात नाही आलं का ? दोन तीन दिवस इथे साहित्य संमेलन होतं ना…! म्हणून आले होते खूप आशेने !
‘ पण माते मला सांग तुझी ही अशी अवस्था कशानं झालं ? तुझ्या अंगावरचा हा भरजरी शालू कशानं फाटला ? माये, तू तर श्रीमंत, धनवान. तुला कशाचीच कमी नव्हती. माझ्या ज्ञानोबा माउलींना तर तुझा केवढा अभिमान ! संस्कृतमधील गीता त्यांनी तुझ्यारूपाने सर्वसामान्यांपर्यंत पोहोचवली. ज्ञानोबा माऊली म्हणाली, ‘ माझा मऱ्हाटीचा बोलू कौतुके, परी अमृतातेही पैजा जिंके. ‘ खरंच माऊलींच्या शब्दाशब्दातून अमृताचे थेंब ठिबकत होते. म्हणूनच माऊलींनी तो वर्णन करण्यासाठी ज्ञानेश्वरी नंतर ‘ अमृतानुभव ‘ लिहिला. माऊलींनी सांगितलेल्या गीतेवरील टीका ‘ ज्ञानेश्वरी ‘ ऐकताना श्रोत्यांनी जे श्रवणसुख अनुभवलं त्याला तोड नाही. उपमा नाही. सर्वांगाचे जणू कान झाले. पुढे तुकोबांनी अभंग लिहिले. त्याची गाथा झाली. तुकोबांच्या मनाला भिडणाऱ्या तरल अभंगांनी इंद्रायणीसारखंच मराठी मनाला भिजवून चिंब केलं. समर्थ रामदासांनी दासबोध सांगितला. मनाचे श्लोक सांगून मनाला बोध केला. शिवरायांना ‘ जाणता राजा, श्रीमंत योगी, सामर्थ्यवंत, वरदवंत, कीर्तिवंत….’ अशी विविध सार्थ विशेषणे लावून तुझ्या श्रीमंतीचा प्रत्यय आणून दिला.
संत नामदेव, चोखामेळा, जनाबाई, मुक्ताबाई अशा कितीतरी संतांनी तुझं वैभव वाढवलं. आमची निरक्षर असलेली बहिणाबाई इतकं सुंदर काव्य बोलली की भल्याभल्यांनी तोंडात बोटं घातली. स्वातंत्र्यवीर सावरकरांचं योगदान तर काय सांगावं…! त्यांच्या शब्दात सांगायचं तर तू म्हणजे स्वातंत्र्यदेवतेसारखीच आहेस.
गालावरच्या कुसुमी किंवा कुसुमांच्या गाली
स्वतंत्रते भगवती तूच जी विलसतसे लाली
तू सूर्याचे तेज उदधिचे गांभीर्यही तूचि…
या ओळी तुला सुद्धा लागू होतात.
ग दि माडगूळकर, मंगेश पाडगावकर, भा रा तांबे, बा भ बोरकर यासारखे कवी, लोकमान्य टिळक, लोकहितवादी, विष्णुशास्त्री चिपळूणकर, आचार्य अत्रे, वसंत कानेटकर, पु ल देशपांडे, राम गणेश गडकरी यांच्यासारख्या अनेक लेखकांनी तुझ्या अंगावर विविध रूपांचा साज चढवला. कविवर्य कुसुमाग्रज, वि स खांडेकर, विंदा करंदीकर यांनी तर मराठी साहित्यात जी भाषेची समृद्धी, श्रीमंती आणली, त्यामुळे साहित्य अकादमीला तुझी दखल घ्यावीच लागली. कुसुमाग्रज तर मराठी मातीबद्दल बोलताना म्हणाले…
माझ्या मराठी मातीचा, लावा ललाटास टिळा
हिच्या संगाने जागल्या, दर्याखोर्यांतील शिळा
काय बोलू, किती बोलू आणि कसं सांगू असं होतंय मला. आणि माते, तरीही तुझी आज अशी अवस्था ? ‘
‘बाळा, तू म्हणतोस ते सगळं बरोबर आहे. पण या सगळ्या पूर्वसुरींच्या गाथा आपण किती दिवस गाणार ? आता आपण काय करतो ते अधिक महत्वाचं नाही का ? आणखी काही दिवस जर माझ्याकडे लक्ष नाही दिलं तर माझी अवस्था तू कल्पनाही करू शकणार नाहीस अशी होईल. अर्थात सुदैवाने मला माझ्या सुपुत्रांकडून आशा आहे. चांगले दिवस बघायला मिळतील याची खात्री आहे. पण त्यासाठी तुम्हाला हातपाय हलवावे लागतील रे….’
‘तू बघतोस ना की शाळांमधून दिवसेंदिवस मराठी भाषा हद्दपार होताना दिसते आहे. आवश्यक भाषा म्हणून काही शाळा नाईलाजाने शिकवतात ती ! मराठी माध्यमातून शिकणाऱ्यांची संख्या दिवसेंदिवस रोडावत चालली आहे. हिंदी, इंग्रजी या भाषांबद्दल माझ्या मनात आकस नाही रे. पण लहानपणी मुलांना वाढीसाठी आईचंच दूध चांगलं असतं नाही का ? लहानपणी मुलाला आईचं दूध मिळालं तर त्याचा शारीरिक, बौद्धिक विकास निकोप होतो….’
‘साहित्य संमेलनात माझ्या वाढीसाठी खूप काही प्रयत्न होतील अशी मनात आशा ठेवून मी आले होते. तशी माझी अगदीच निराशा झाली नाही. पण कसं होतं ना, घरात मुलाचं लग्न झालं, सून आली की आईची तशी उपेक्षाच होते. तिला आई आई म्हणून म्हटलं जातं . पण घरात होणाऱ्या निर्णयात तिचा फारसा विचार घेतला जात नाही. तसंच काहीसं झालं आहे… ‘
‘माझी एक खंत आहे, सांगू का ? ‘
‘हो, सांग ना…! मलाही जाणून घ्यायचं आहे. ‘
ही दरवर्षी जी साहित्य संमेलनं घेतली जातात ना, ती चांगलीच गोष्ट आहे. पण माझा जो वाचक आहे, साहित्याचा आस्वाद घेणारा रसिक आहे त्याचा विचार कोणी करतं का ? मंडळाचे पदाधिकारी आणि राजकीय नेते जसं ठरवतील तसंच संमेलनाचं स्वरूप असतं. सामान्य माणसांचा विचार कुठे असतो त्यात ? मला राजकीय नेत्यांचं वावडं नाही. त्यांनी साहित्य संमेलनात जरूर यावं. पण केवळ एक रसिक म्हणून. व्यासपीठावर सारस्वतांचीच मांदियाळी असावी. संमेलनाची दशा, दिशा त्यांनीच ठरवावी. तुम्ही सगळ्या रसिक वाचकांनी ठरवलंत तर राजकीय नेत्यांची आर्थिक मदत घेण्याची गरज पडणार नाही. मला ते आवडतही नाही. कारण मग मूळ मुद्दे बाजूला राहतात. किरकोळ कारणांवरून हेवेदावे, धुसफूस होते. आरोप होतात. संमेलनाला गालबोट लागते. तुला म्हणून सांगते. जेव्हा व्यासपीठावर कार्यक्रम सुरु होते ना, तेव्हा मी व्यासपीठावर नव्हतेच ! तुमच्यामध्ये पण बसलेले नव्हते. मी उभी होते एका कोपऱ्यात. आणि कोपऱ्यात उभ्या असलेल्या व्यक्तीकडे कोणाचं लक्ष जातं ? उत्सव माझा, माझ्या नावानं सगळं पण उपेक्षित मीच ! तू जे मघाशी विचारलंस ना की हा भरजरी शालू कशानं फाटला, त्याचं कारण आता तुझ्या लक्षात आलं असेल. नाही म्हणायला मला एका गोष्टीचा आनंद झाला. मराठी वाचकांचा टक्का वाढल्यासारखा मला दिसतो. कारण ग्रंथविक्री विक्रमी झाली…’
‘अनेक नवोदित कवी, लेखक नवनवीन साहित्य लिहून मोलाची भर घालताहेत. तरीही मला वाटतं की अजून उत्तमोत्तम, कसदार साहित्य निर्माण व्हावं. त्या साहित्याच्या वाचनाने नवीन पिढ्या समृद्ध व्हाव्यात. हे साहित्य संस्कार देणारं असावं, जगणं शिकवणारं असावं. सामान्य माणसांच्या आयुष्याशी निगडित गोष्टींची चर्चा साहित्यात व्हावी. त्याला त्यापासून मार्गदर्शन मिळावं. सामान्य रसिक वाचक केंद्रस्थानी ठेवून लेखक, कवींनी लिहितं व्हावं. मराठी मातीत जन्मलेले अनेक सुपुत्र अनेक उच्च पदांवर काम करत आहेत. कोणी शास्त्रज्ञ, कोणी प्राध्यापक इ. पण यातली बरीचशी मंडळी इंग्रजीत लेखन करण्यात धन्यता मानतात. त्यांनी आपले विचार सर्वसामान्यांसाठी मराठीत मांडावे… ‘
‘शासनाकडून मला फार अपेक्षा नाहीत. माझ्या अपेक्षा तुमच्यासारख्या माझ्या सुपुत्रांकडून आहेत. वाचक, लेखक, कवी यांनी मला समृद्ध करावे ही माझी अपेक्षा. साहित्य संमेलने व्हावीत ती तुम्हा सगळ्या रसिक वाचक, लेखकांच्या बळावर असे मला वाटते. त्यात उत्स्फूर्तता हवी, बळजबरीचा रामराम नको… ! बाळा, माझ्या मनातलं सांगितलं तुला. खूप काही बोलण्यासारखं आहे. पण सगळं सांगण्यातही अर्थ नसतो. समोरच्या व्यक्तीनं सुद्धा समजून घेतलं पाहिजे तरच सांगण्याला, बोलण्याला काही अर्थ उरतो. बाळा, घेशील ना मला समजून…? ‘
तिचे डोळे पाणावले होते. उरात हुंदका दाटून आला होता. मी तिच्या चरणांना वाकून स्पर्श केला. माझ्याजवळही आता शब्द नव्हते. मी फक्त एवढंच म्हटलं, ‘ आई, पाठीवर हात ठेवून फक्त लढ म्हण…’ तिचा मोरपिशी हात पाठीवरून फिरला. काय नव्हतं त्या स्पर्शात ! ज्ञानोबा, तुकोबा, सावरकर, कुसुमाग्रज आदी सर्व मराठी सारस्वतांचे आशीर्वाद त्यात सामावले होते. मी भारावून वर पाहिलं, तर माऊली अदृश्य झाली होती. गोदामाई शांततेत वाहत होती. माईला मनोमन नमस्कार केला. तिची मूक संमती घेऊन मार्गस्थ झालो. दिव्यांनी रस्ते उजळले होते आणि तारकांनी आकाश… !
☆ माने काकांचे निवृत्तीनंतरचे प्लॅन… ☆ श्री मकरंद पिंपुटकर ☆
माने काका खुशीत होते. आठवड्याभरातच ते कंपनीतून निवृत्त होणार होते. आयुष्यभर अकाऊंटस् विभागात आकडेमोड केली, आता कोणतेही हिशेब न ठेवता ‘मित्रमंडळींकडे जायचं, मनसोक्त गप्पा मारायच्या, पत्त्यांचे डाव रंगवायचे, घरी गरमागरम कांदा भजी खायची, महिन्याभरात एखादा चित्रपट पाहायचा – नाटक पहायचं’ अशा अगदी साध्यासुध्या अपेक्षा उरी बाळगून ते येत्या जीवन प्रवासाची स्वप्नं रंगवत होते.
आणि अगदी त्याप्रमाणेच, प्रत्यक्ष निवृत्तीच्या दिवशी पत्नीने औक्षण केलं, मुलाने – सुनेने छान भेटवस्तू दिल्या, मित्रमंडळींबरोबर हॉटेलात मस्त पार्टी झाली, आणि मुख्य म्हणजे दुसऱ्या दिवशी उठून कामावर जायची कसलीही घाईगडबड नव्हती.
सुरुवातीचे दोन चार दिवस मस्त मजेत गेले. मित्र, नातेवाईकांना काकांनी फोन केले, मनमुराद गप्पा मारल्या, मिश्राकडे गरमागरम कांदाभजी खाल्ली, सगळं कसं छान चाललं होतं.
पण आठवड्याभराने या सुखी संसाराच्या स्वप्नाला पहिला तडा गेला. कुठेतरी जाण्याचा कार्यक्रम ठरवायला, मित्राला फोन केला, तर त्याने “अरे, तू निवृत्त झाला आहेस पण आम्हाला अजून कामधंदे आहेत” असं म्हटलं आणि पहिला विसंवादी सूर लागला.
कांदाभजी खाल्ल्यावर पोट बिघडलं, ते निस्तरण्यात दोन चार दिवस गेले. आताशा नातेवाईकही फोनवर टाळत आहेत असं वाटू लागलं. वर्षानुवर्षे धावपळ करणाऱ्या माने काकांना वेळ कसा घालवायचा हा यक्षप्रश्न पडू लागला.
माने काका कोमेजू लागले. घरात आवराआवरी कर, जुनी गाणी ऐक, वगैरे करून ते तात्पुरता टाईमपास करत पण रिकामा वेळ आता त्यांना खायला उठू लागला.
बायको, मुलगा, सून यांना काकांची होणारे कुचंबणा दिसत होती, पण उत्तर सुचत नव्हते.
आज घरी माने काकांच्या नातवंडांना शाळेतील गणिताच्या गृहपाठ करताना काहीतरी अडचण येत होती. सुनेला जमत नव्हते, मुलगा ऑफिसमधून यायला खूप अवकाश होता.
“बघू रे, काय प्रॉब्लेम आहे ते ?” म्हणत काकांनी पुस्तक हातात घेतले आणि बघता बघता त्या प्रश्नाचं उत्तर कसं काढायचं ते त्यांना मोठ्या खुबीने शिकवले.
नातवंडं खुश झाली. आणि मग तो प्रघातच झाला. अडचण असो वा नसो, मुलं आता आजोबांकडे येऊन अभ्यास करू लागली. तर्खडकरांचे इंग्रजी व्याकरणाचे पुस्तक काका कोळून प्यायलेले आणि गणितं करण्यात आयुष्य गेलेलं, त्यामुळे इंग्रजी आणि गणितावर काकांचं प्रभूत्व. आणि मुलांना याच विषयांची सगळ्यात जास्त भीती.
काका खेळीमेळीच्या वातावरणात, रोजच्या जीवनातील – अगदी चित्रपट, मालिका यांची उदाहरणे देत देत नातवंडांना हे विषय समजावून सांगत. मुलांना या विषयांची वाटणारी भीती दूर झाली, ते आवडीने अभ्यास करू लागले आणि पहिल्या घटक चाचणीत त्यांना सुंदर गुण मिळाले. माने काकांची कॉलर टाईट !
एके दिवशी गंमत झाली, नातवाच्या आणि नातीच्या वर्गातली दोन तीन मुलं, “आजोबा, आमचाही अभ्यास घ्या ना, आम्हालाही शिकवा ना,” म्हणत शिकायला आली. मग नातवापेक्षा दोन वर्षे मोठा असलेला एक मुलगा आला आणि हा सिलसिला चालूच राहिला.
माने काका आता नाममात्र शुल्क घेऊन शिकवण्या घेऊ लागले होते. ते आता छान busy राहू लागले होते, नोकरीत होते त्यापेक्षाही जास्त.
सगळं कसं छान चाललं आहे, सुख म्हणजे याहून आणखी जास्त काय असतं?असा तृप्त प्रश्न काका स्वतःलाच विचारणार होते, तेवढ्यात या दुधात आणखी साखर पडली.
दोन दिवस काकांच्या लक्षात येत होतं, काका मुलांना शिकवताना, घरातली धुणी भांडी करणारी रखमा दाराआड उभी राहून घुटमळत होती. आज न राहवून, त्यांनी तिला हाक मारून बोलावून घेतलं. “काय झालं रखमा ? काही काम आहे का माझ्याशी ?”
“काका, येक विचारू का ? माज्या पोरांचा थोडा अब्यास घ्याल का तुमी ? दर म्हयन्याला म्या फी द्येईन तुमास्नी,” चाचरत चाचरत रखमाने विचारलं, आणि काकांच्या ज्ञानयज्ञाला नवी दिशा मिळाली.
आता काकांच्या शिकवण्या दोन सत्रांत सुरू झाल्या. रखमाच्या मुलांबरोबर सोसायटीत धुणीभांडी करणाऱ्या अन्य बायका, सिक्युरिटीवाले यांची मुलंही शिकायला येऊ लागली. काका प्रत्येक मुलाचे दर महिन्याला वट्ट ११ रुपये फी म्हणून घ्यायचे.
त्यांच्या लक्षात आलं की या मुलांना इंग्रजीबद्दल भयंकर न्यूनगंड आहे, मग काकांनी शालेय अभ्यासक्रमाव्यतिरिक्त त्यांना दैनंदिन वापरातील इंग्रजीचे धडे द्यायला सुरुवात केली. काकांनी या मुलांची आणि नातवंडांच्या शाळेतल्या इंग्रजी माध्यमातील मुलांच्या सायन्स सेंटर, संग्रहालय, प्राणी संग्रहालय, वाचनालय अशा ठिकाणी एकत्र सहल न्यायला सुरुवात केली.
ज्यांचे आईवडील सोसायटीत घरकाम करायचे, अशा बऱ्याच मुलांकडे smartphone होते, काकांनी त्यांना ऑनलाईन transactions कशी करायची, त्यातले धोके कुठले असू शकतात या गोष्टी समजावून सांगायला सुरुवात केली.
त्यांनी या मुलांना सांगितलं की “तुम्ही रोज १३ सूर्यनमस्कार घातलेत, तुमच्या आई वडिलांना मोबाईल – गरजेपुरते लिहायला वाचायला, आकडेमोड करायला शिकवलंत, तर मी स्वतः तुम्हाला बक्षीस देईन – शिष्यवृत्ती म्हणा ना !”
मुलांना आणखी मजा येऊ लागली. त्यांच्या आई वडिलांनाही आता हळू हळू शिक्षणाची गोडी लागू लागली होती.
काका आता सगळ्याच मुलांना स्पर्धात्मक परीक्षा, वैदिक गणित, प्रयोगातून विज्ञान, भारतीय स्वातंत्र्य सैनिक, ऋषी, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, आदिंची माहिती द्यायला सुरुवात केली. त्या मुलांच्या मनात देशप्रेमाची ज्योत जागवयाला सुरुवात केली. त्यांना सभाधीटपणा यावा म्हणून त्यांची वक्तृत्व स्पर्धांची तयारी करून घ्यायला लागले.
काकांना आता बिलकूल फुरसत नव्हती. शतकपूर्तीनंतर फलंदाजाने पुन्हा नव्याने गार्ड घ्यावा, आणि जणू नव्या दमाने, नव्या उमेदीने परत पहिल्यापासून खेळायला सुरुवात करावी, तद्वत, माने काकांची निवृत्तीनंतरची दुसरी इनिंग बहारदारपणे सुरू झाली होती.
काकांच्या मित्रांची मात्र आता एक तक्रार होती, त्यांनी कधी कुठे जायचा कार्यक्रम ठरवायचं म्हटलं, की आताशा माने काकांना वेळ नसायचा, ते त्यांच्या मुलांच्या गराड्यात मग्न असायचे.