हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 262 ☆ आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 262 ☆

? आलेख – नई पीढ़ी को राष्ट्र नायकों से परिचय कराते रहने की आवश्यकता ?

निर्विवाद है। समय के साथ यदि बड़ी से बड़ी घटना का दोहराव बदलती पीढ़ी के सम्मुख न हो तो वर्तमान की आपाधापी में गौरवशाली इतिहास की कुर्बानियां विस्मृत हो जाती हैं। हमारी संस्कृति में दादी नानी की कहानियों का महत्व यही सुस्मरण है।

भारतीय संदर्भो में राष्ट्रीय एकता का विशेष महत्व है। भारत पाकिस्तान का बंटवारा कर अंग्रेजो ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण किया था। शेष भारत विभिन्नता में एकता के स्वरूप में मुखरित हुआ है। देश में अनेको भाषायें, ढ़ेरों बोलियां, कई संस्कृतियां, विभिन्न धर्मावलम्बी, क्षेत्रीय राजनैतिक दल हैं। यही नही नैसर्गिक दृष्टि से भी हमारा देश रेगिस्तान, समुद्र, बर्फीली वादियों और मैदानी क्षेत्रो से भरा हुआ है, हम विविधता में देश के रूप में एकता के जीवंत उदाहरण के लिए सारी दुनियां के लिये पहेली हैं। जाति, वर्ग, धर्म आदि अनेक व्यैक्तिक मान्यताओं में भेद होने के बावजूद एकता और परस्पर शांति, प्रेम सद्भाव के अस्तित्व पर हमारी शासन व्यवस्था और समाज का ताना बाना केंद्रित है। विविधता में यह एकता राष्ट्र की शक्ति है। विशिष्ट रीति-रिवाजों के साथ लोग हमारे देश में शांत तरीके से अपना जीवनयापन करते हैं, यहाँ मुसलमान, सिख, हिंदू, यहूदी, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी सहअस्तित्व के संग जोश और उत्साह के साथ अपने धार्मिक त्यौहार मनाते हैं।

जब इस तरह का परस्पर सद्भाव होता है तो विचारों में अधिक ताकत, बेहतर संचार और बेहतर समझ होती है। अंग्रेजों के भारत पर शासन के पहले दिन से लेकर भारत की आज़ादी के दिन तक भारतीयों की आजादी का संघर्ष सभी समुदायों की धार्मिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अलग होने के बावजूद जनता के संयुक्त प्रयास किए बिना आजादी संभव नहीं थी। जनता सिर्फ एक लक्ष्य से प्रेरित थी और यह भारत की आजादी प्राप्त करने का उद्देश्य था। यही कारण है कि भारत की स्वतंत्रता संग्राम विविधता में एकता का एक अप्रतिम उदाहरण है।

आजादी के लिये गांधी जी की अहिंसा वाली धारणा के समानांतर आत्म बलिदानी क्रांतिकारियों, सेनानियों का योगदान निर्विवाद है। आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा हंसते हुये फांसी के फंदे पर भारत माता की जय का जयकारा लगाते हुये झूल जाने वाले बलिदानी शहीद, काला पानी की प्रताड़ना सहने वाले वीर और सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सेनानियों सहित गुमनाम रहकर वैचारिक क्रांति के आंदोलन रचने वाले प्रत्येक क्रांतिवीर का योगदान अप्रतिम है जिसका ज्ञान नई पीढ़ी को होना ही चाहिये। फिल्में, किताबें, शैक्षिक पाठ्यक्रम और साहित्य इस प्रयोजन में बड़ी भूमिका निभाता है।

क्रांतिकारी भगतसिंह युवाओ के लिये पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेरणा स्त्रोत हैं। उनका दार्शनिक अंदाज, क्रांतिकारी स्वभाव, उनका संतुलित युवा आक्रोश, उनके देश प्रेम का जज्बा जिल्द बंद किताबों में सजाने के लिये भर नहीं है। उनको किताबों से बाहर लाना समय की आवश्यकता है। भगत सिंह की विचारधारा और उनके सपनों पर बात कर उनको बहस के केन्द्र में लाना युवा पीढ़ी को दिशा दर्शन के लिये वांछनीय है। बदलती राजनीति शहीदो के सपने साकार करने की राह से भटके हुये लगते हैं। समय की मांग है कि देश भक्त शहीदो के योगदान से नई पीढ़ी को अवगत करवाने के निरंतर पुरजोर प्रयास होते रहने चाहिये। भगतसिंह ने कहा था कि देश में सामाजिक क्रांति के लिये किसान, मजदूर और नौजवानो में एकता होनी चाहिए। साम्राज्यवाद, धार्मिक-अंधविश्वास व साम्प्रदायिकता, जातीय उत्पीड़न, आतंकवाद, भारतीय शासक वर्ग के चरित्र, जनता की मुक्ति के लिए क्रान्ति की जरूरत, क्रान्तिकारी संघर्ष के तौर-तरीके और क्रान्तिकारी वर्गों की भूमिका के बारे में उन्होने न केवल मौलिक विचार दिये थे बल्कि अपने आचरण से उदाहरण रखा था। उनके चरित्र, त्याग की भावना के अनुशीलन और विचारों को आत्मसात कर आज के प्रबल स्वार्थ भाव समाज को सही दिशा दी जा सकती है। उनके विचार शाश्वत हैं, आज भी प्रासंगिक हैं।

क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के विचारो की प्रासंगिकता का एक उदाहरण वर्तमान साम्प्रदायिकता की समस्या के हल के संदर्भ में देखा जा सकता है। आजादी के बरसो बाद आज भी साम्प्रदायिकता देश की बड़ी समस्या बनी हुई है। जब तब देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठते हैं। युवा भगत सिंह ने 1924 में बहुत ही अमानवीय ढंग से हिन्दू-मुस्लिम दंगे देखे थे। भगतसिंह विस्मित थे कि दंगो में दो अलग अलग धर्मावलंबी परस्पर लोगो की हत्या किसी गलती पर नही वरन अकारण केवल इसलिये कर रहे थे, क्योकि वे परस्पर अलग धर्मो के थे। उनका युवा मन आक्रोशित हो उठा। स्वाभाविक रूप से दोनो ही धर्मो के आदर्श सिद्धांतो में हत्या को कुत्सित और धर्म विरुद्ध बताया गया है। धर्म के इस स्वरूप से क्षुब्ध होकर व्यक्तिगत रूप से स्वयं भगत सिंह तो नास्तिकता की ओर बढ़ गये। उन्होने अवधारणा व्यक्त की, कि धर्म व्यैक्तिक विषय होना चाहिये, सामूहिक नही। आज भी यह सिद्धांत समाज के लिये सर्वथा उपयुक्त है। राष्ट्रीय राजनीतिक चेतना में साम्प्रदायिक दंगों पर लम्बी बहस चली। साम्रदायिक वैमनस्य को समाप्त करने की जरूरत सबने महसूस की। साम्प्रदायिकता की इस समस्या के निश्चित हल के लिए भगत सिंह के क्रान्तिकारी आन्दोलन ने अपने विचार प्रस्तुत किये। जून 1928 के पंजाबी मासिक ‘कीर्ती’ में उनके द्वारा धार्मिक उन्माद विषय के कारण तथा समाधान पर लेख छापा गया। भगत सिंह के अनुसार ” साम्प्रदायिक दंगों का मूल कारण आर्थिक असंपन्नता ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर समाज में अविश्वास-सा हो गया। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। तोंद जहाँ पूंजीपतियों की प्रतीक है, वहीं निराला की रचना में पीठ से चिपकता पेट गरीबी प्रदर्शित करता है। भगतसिंह मानते थे कि दंगों का स्थाई समाधान भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता। कलकत्ते के दंगों में एक अच्छी बात भी देखने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें अपने कार्य वर्ग की चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे। इस तरह उन्होंने पाया कि कार्य वर्ग चेतना का यही रास्ता साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है। इसी से भगत सिंह ने मजदूरो, किसानो को एकजुट होने और आर्थिक आत्मनिर्भरता व विकास के लिये काम करने और साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़े करने के प्रयत्न किये।

आज हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी जाति से ऊपर विकास का रास्ता ही साम्प्रदायिकता का हल बता रहे हैं। आज राष्ट्रीय प्रगति पथ पर सबके साथ चलते हुये धार्मिक मसलों को न्यायपालिका के निर्देशानुसार हल किया जा रहा है। इसी से भगत सिंह की दूरगामी सोच और गहरे चिंतन की स्पष्ट झलक मिलती है। देश में आम नागरिको की आर्थिक संपन्नता के लिये आज सतत विकास और जनसंख्या नियंत्रण ही एक मार्ग है।

जो कुछ दिखता रहता है लोग उसे ही तो स्मरण करते हैं, मंदिरो में भगवान रहता हो या नही किंतु शायद मंदिरो की इस सार्थकता से मना नहीं किया जा सकता कि सड़क किनारे के मंदिर भी हमें उस परम सत्ता का निरंतर स्मरण करवाते रहते हैं। भगत सिंह को नई पीढ़ी भूल चली है, उन्हें जीवंत बनाये रखकर सामाजिक समस्याओ पर उनके वैचारिक चिंतन के अमृत तथ्यो का अनुसरण आवश्यक है। देश हित में भगत सिंह के निस्वार्थ बलिदान को प्रेरणा दीप बनाकर पाठक तक उनके समर्पण का प्रकाश पहुंचे। फिर फिर पहुंचे।

देश के तमाम शहीदो को जिन्होने किसी प्रतिसाद की अपेक्षा के बिना अपने सुखो का और परिवार का परित्याग करके देश व समाज के लिये अपना जीवन दांव पर लगा दिया उन्हें और आज भी देश की सीमाओ पर नित शहीद होते उन वीर जवानो को, जो केवल आजीविका से परे, देश की रक्षा के लिये लड़ते हुये शहीद हो जाते हैं, उन सब को समर्पित करते हुये यह कृति प्रस्तुत है। इसके लिये इंटरनेट पर ढ़ेरो माध्यमो से सहज उपलब्ध कराई गई शहीद भगत सिंह की ही सामग्रियो तथा पूर्व प्रकाशित कुछ किताबो के अध्ययन से संदर्भ उपयोग किये है। मुक्त ज्ञान की इस रचनात्मक दुनियां का आभार।

शहीद भगतसिंह की प्रमुख कार्यस्थली रहा लाहौर शहर अब पाकिस्तान में है। लाहौर तब भी था और आज भी है। लाहौर प्रतीक है भविष्य की संभावना का, जो शहीदे आजम की कुर्बानी के नाम पर ही सही पाकिस्तान को साम्प्रदायिक, संकुचित, कट्टरपंथी आतंकी विचार धारा से मुक्त कर भारत के नक्शे कदम पर चलने की प्रेरणा दे यही कामना है। शहीद भगत सिंह के पुनर्स्मरण के इस प्रयास को पाठकीय आशीर्वाद की अपेक्षा के साथ… 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #36 ☆ कविता – “जाते हो तो…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 36 ☆

☆ कविता ☆ “जाते हो तो…☆ श्री आशिष मुळे ☆

जाते हो तो हँसते जाना

अगर हम है बस कांटे

मगर फिक्र न करना जानां

हम फूलों का दिल नहीं दुखाते

 

कांटे है कांटे ही रहेंगे

होंगे नहीं गमगीन

कहीं ख़ुद फूल ना बन जाएं

आपका ग़म जो है इतना हसीन

 

जायज़ है आप बने है उनके लिए

खिलना आपका हक है

बने है हम बस अपने लिए

सख्ती हमारा नक्श है

 

यह धूप है बड़ी मस्त मस्त

कांटो को सख़्त दिल बनाए

जाते जाते आंसू मत गिराना

कहीं कांटे फिर से ना खिल जाए

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #161 – लघुकथा- प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “प्रायश्चित)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 161 ☆

☆ लघुकथा- प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

ए को जैसे ही पता चला बी बहुत बीमार है वह तुरंत उससे मिलने के लिए आई, “तू अपनी बहू को अमेरिका से यहां क्यों नहीं बुला लेती। वह तेरी इतनी सेवा तो कर ही सकती है।”

“वह गर्भ से है,” बड़ी मुश्किल से बी बिस्तर पर सीधे बैठते हुए बोली, ” उसने मुझे ही अमेरिका बुलाया था। ताकि मैं जच्चे-बच्चे की देखभाल कर सकूं।”

“ओह! मतलब वह नहीं आ पाएगी।”

“हां, उसकी मजबूरी है,” बी ने इशारा किया तो काम वाली लड़की चाय रख कर चली गई। तब तक ए अपने घर परिवार के दुख-सुख की बातें करती रही। तभी अचानक बी की दुखती रग पर हाथ चला गया, “काश! तूने मेरी बात मानी होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता,” ए ने कहा।

“हां यार, वह मेरी जीवन की सबसे बड़ी गलती थी,” बी ने कहा, “काश! मैंने उस समय भ्रूण हत्या न की होती तो आज मेरी बेटी भी तेरी तरह मेरी सेवा कर रही होती,” कहते हुए उसने अपने बड़े से घर को निहारा तथा काम वाली लड़की की ओर देखकर बोली, “क्या तुम मेरी बेटी बनेगी?”

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 195 ☆ बाल कविता – जलवायु परिवर्तन के रूप ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 195 ☆

☆ बाल कविता – जलवायु परिवर्तन के रूप ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पश्चिम में सूरज जी पहुँचे

स्वर्णिम हो गई धूप।

नारंगी से गोल – गोल हैं

लगता रूप अनूप।।

 

प्राची में चंदा जी झूलें

धवल दूधिया रूप।

खुला गगन वासंती ऋतु है

ईश्वर दिखें स्वरूप।।

 

जलवायु परिवर्तन होता

रोज बदलता मौसम।

मानव जैसे बीज बो रहा

नहीं कर्तव्य धरम।।

 

बढ़ा प्रदूषण जल,थल , नभ में

सहज नहीं अब जीवन।

सोचो अच्छा , कर लो अच्छा

सुमन बने तब मन।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माय मराठी… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

अल्प परिचय

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी, ज्येष्ठ साहित्यिक

जन्म – 25 डिसेंबर 59

शिक्षण – विद्या वाचस्पती

छंद – बासरी आणि संवादिनी वादन, हरिभजन

साहित्य सेवा – ललित लेख , स्फुट लेख ,कथा लेखन, बऱ्याच दीपावली अंकात, आणि वृत्त पत्रात पण प्रसिध्द

रेशीमकोष काव्य संग्रह, रुद्रमंथन काव्य संग्रह, राज्यस्तरीय पुरस्कारीत

हास्य रंजन – नुकताच ग्रामीण विनोदी कथा संग्रह प्रकाशित

साहित्य संमेलन – सांगली बडोदा

? कवितेचा उत्सव ?

☆ माय मराठी.. ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

फुला माजी मोगरीचे

परिमळे कस्तुरीचे

केकावली मयुरा ची

 तैसी गा मायबोली

 

दुधा मध्ये नवनीत

 फुलाते मकरंद

फळांमध्ये आम्रफल

 तैसी माझी मराठी

 

एकेक अक्षर असे

मोतीयांची रास

हिऱ्यामध्ये पैलु खास

सारस्वतांची तैसी आस

 

धर्मात धर्म मानवधर्म

तेच सारस्वत मर्म

तेची लेखणीचे कर्म

  माय मराठी

 

सह्याद्रीच्या ठाय

 सरस्वती ती माय

  कामधेनू गाय

 साहित्य सरिता

 

जशी स्वरांची श्रुती

गायकाची स्मृती

तैशी गा सरस्वती

 शारदा माझी

 

नादात नाद अनाहत

तैशी बोली आहत

भाग्य आमचे थोर

आम्ही गातो मराठी

 

 संत पंत तंत

 ज्ञानेश्वर तुका एकनाथ

 शाहीरांची साथ

 दासोपंतांची पासोडी

 

 विष्णुदास भावे थोर

  दीनानाथ मंगेशकर

  देवल ते किर्लोस्कर

  कुसुमाग्रज कानिटकर

 

 मराठी नाट्य संगीत

 हातामध्ये घालून हात

 चळवळ विराजीत

 गुढी सजली मायबोलीची

 

   भाषा हीच गुरू

 सर्व जनाशी अधारू

 भावनाचे कल्पतरू

   साहित्य सरिता

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

नसलापुर  बेळगाव

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ गोडी मातृभाषेची… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

गोडी मातृभाषेची… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

गोडी मातृभाषेची

अमृतापरी साची

तिच्यात ओतप्रोत

माया साय-साखरेची

*

कीर्तनात विठू दंग

भजनात भक्ती रंग

ज्ञानोबा तुकोबांचे

अक्षर-धन अभंग

*

पोवाड्यात वीररस

लावण्य हे लावणीत

ओव्या भारुड जागर

भक्तीपूर्ण गोंधळगीत

*

काव्य कथा साहित्याने

परिपूर्ण  ही ज्ञानगंगा

नवरसयुक्त नवरत्नांचे

साज लखलखती अंगांगा

*

मराठीच्या संवर्धनाचा

ध्यास असो मनामनात

वाचू शिकूया मराठी

प्रसार करु जनाजनांत

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “अधिक” देखणे ☆ श्री श्रीनिवास गोडसे ☆

श्री श्रीनिवास गोडसे

? विविधा ?

☆ “अधिक” देखणे ☆ श्री श्रीनिवास गोडसे ☆

(२९ फेब्रुवारी विशेष)

1974-75 चा काळ असावा… मी सात वर्षांचा होतो. संक्रांतीचा दिवस… सगळ्या गल्लीतली मुलं मिळून तिळगुळ वाटायला बाहेर पडली होती… प्रत्येकाच्या घरात तिळगुळ द्यायचा… राम मंदिर, महादेव मंदिर, विठोबा मंदिर, अंबाबाई चे मंदिर… सगळी देवळं… सगळीकडे तिळगुळ वाटला.. ठेवला.. आता शेवट ‘ऐतवडे डॉक्टर!’…  मग झेंडा चौकाकडे मोर्चा वळला… चौकात एका गल्लीत डॉक्टरांचा दवाखाना…

दवाखाना माडीवर…

एका लायनीत उभं राहून डॉक्टरांना तिळगूळ दिला… डॉक्टरांनी पण आम्हाला तिळगूळ दिला अन वर एक चॉकलेट…

कित्ती मज्जाss!…

रावळगाव चॉकलेट…

त्यानंतर मात्र दरवर्षी संक्रांतीला ऐतवडे डॉक्टरांचा दवाखाना ठरलेला… डॉक्टरही नेमाने प्रत्येक वर्षी मुलांना चॉकलेट वाटत राहिले… आणि प्रत्येक मुलांच्या लक्षात राहिले… कायमचे…

आजही कधी कधी झेंडा चौकातल्या त्यांच्या गल्ली जवळून गेलो तरी डॉक्टरांची आठवण नक्की होते… खरंतर ते काही आमचे फॅमिली डॉक्टर न्हवते… मी कधीच त्यांच्याकडे कुठल्याही उपचाराला गेलो नाही… तरीही ऐतवडे डॉक्टर हा शब्द जरी ऐकला तरी तीळगूळ आणि त्यांचे ते चॉकलेट यांची आठवण नक्कीच होते…

डिसेंबर चे दिवस..

लुधियाना ला गेलो होतो… अमृतसर कडे निघालो तेव्हा लुधियाना मध्ये पहाटे एका गुरुद्वारात गेलो होतो… रात्रभर गुरुवाणी चा कार्यक्रम चालू होता… पहाटेची वेळ… डिसेंबरची थंडी… भव्य गुरुद्वारा सजला होता … रोषणाई केली होती… त्या दिवशी काहीतरी विशेष कार्यक्रम असावा… भजन ऐकत भक्तगण बसलेले… चकचकीत वातावरण… ग्रंथसाहेब…

पंजाबी भजनातील बरेच शब्द ओळखीचे… खिशातील मोबाईल काढून समोर ठेवून एका कडेला बसलो… दहा मिनिटे होती पुढे जाण्यासाठी… एक वयस्क पंजाबी स्त्री , पांढरी सलवार-कमीज पंजाबी परिधान,.  चेहऱ्यावरती हास्य… झाडू काढत होती… झाडू काढताना लोक उठत आणि दुसरीकडे बसत… तीही आनंदाने सेवेत मग्न होती… तिची स्वच्छता आमच्यापर्यंत आली आणि मी उठलो… गुरु ग्रंथ साहेबांना प्रणाम करून आमच्या गाडीकडे निघालो… गुरुद्वाराच्या दारात येताच

 ” भैय्या ss!”

अशी हाक ऐकू आली, पाहिले तर ती मगासची स्त्री.. हसत सामोरे आली ,

हातात मोबाईल..!  मला देऊन म्हणाली

“आपका मोबाईल..! भूल गये थे !”

माझ्या आता लक्षात आले मी माझा मोबाइल बसल्या जागीच विसरलो होतो..

 मी वाकून नमस्कार केला… त्या हसल्या… स्वेटरच्या खिशात हात घालून त्यांनी काहीतरी काढले … माझ्या हातात ठेवले…

मी पाहिलं तर दोन चॉकलेट !..

मी पण हसलो…

पुन्हा पुन्हा धन्यवाद मानत बाहेर पडलो…

कोण कुठची ती स्त्री, पण आठवणीत कायमची जागा करून गेली…!  पुढचा सर्व दिवस असाच मजेत गेला … अमृतसरला पोहोचलो.. सर्व अमृतसर फिरलो … सायंकाळी वाघा बॉर्डर पण पाहिली… सांगण्यासारख आणि लिहिण्यासारखे भरपूर घडले त्या दिवशी … पण सकाळी झालेला तो प्रसंग.. झालेली ती छोटी घटना मात्र आज तेजस्वी झाली आहे…

मागच्या महिन्यातली गोष्ट आम्ही दोघ गाडीवरून मुलीच्या पालक मिटींगच्या निमित्ताने कोल्हापूरला गेलो होतो… सगळा कार्यक्रम आणि कोल्हापुरातले काम व्हायला दुपारी दोन वाजून गेले होते…वाटेत काही तरी खाऊ आणि मग पुढे घरी पोहोचू असा विचार करून निघालो… शिरोली ओलांडले अन एका राजस्थानी ढाब्यावर गाडी थांबवली …

 छान स्वच्छ परिसर …

आम्ही बसताच वेटरने पंखा चालू केला.. पाणी आणून दिले… स्वतः मालक उठून आला… आमच्यासमोर मेनू कार्ड ठेवले…  त्याला थाळीची ऑर्डर दिली… छान हसून तो आमची खातरदारी करत राहिला… गरमागरम जेवण वाढत राहिला… चेहऱ्यावरचे हास्य कायम ठेवून… व्यापारी हिशोब, रितरीवाज बाजूला ठेवून… जेवण झाले, पैसे दिले..

“वापस आना जी ss ! “

म्हणून त्याने हसूनच निरोप दिला

ह्या घटना लक्षात राहिल्यात,  त्याचे आश्चर्य वाटते.

थोडा शोध घेतला तेव्हा या तिन्ही घटनांमधील प्रत्येकाने काही जी कृती केली होती त्याचा बोध लक्षात आला… या घटनांमध्ये प्रत्येकाने स्वतःहून आनंदाने काहीतरी जास्तीचे दिले होते… जगनियम हा असा आहे

“जेवढ्यास तेवढे”

पण इथे मात्र सर्वजण स्वतःहून जास्तीचे जगाला देत होते.. अपेक्षे पेक्षा थोड जास्तच.. या गोष्टी करता त्यांनी जास्त मेहनत सुद्धा घेतली नाही…

कुठे चॉकलेट मिळाली…

कुठे आपुलकीचे दोन शब्द…

कुठं चेहऱ्यावरचे निर्मळ हास्य.. आणि सर्वात महत्वाचे म्हणजे ते त्यांनी सुखासमाधानाने दिले होते.. अपेक्षा नसताना मिळाले होते..

माझी मुंबईची आत्या… अशीच प्रेमळ… मुंबईत एका चाळीत तीच घर… तीनच खोल्या … घरची आठ-दहा माणसे…आणि आला-गेला असायचा. सगळ्यांचे करत राहायची. माणूस निघताना घरातील जे काही असेल ते देत राहायची.  तिला सगळे माई म्हणायचे …किती गोड बोलणे !… तिने गोड बोलणं कधीच सोडलं नाही …

आज ती नाही.. पण तिचा सुहास्य चेहरा जसाच्या तसा फोटो काढल्या सारखा मनासमोर दिसत राहतो …एक प्रसन्न शांतता… एक प्रसन्न सोज्वळपणा याशिवाय काहीही आठवत नाही…

प्रत्येक वाक्यानंतर बऱ्याच वेळा ती होss लावायची

जेव होss!

जाऊन ये होss!

पुन्हा ये हो ss!

असे होss! बोलणे पण मी आजकाल कुठेही बघितले नाही.

प्रत्येकजण अशा गोड शब्दांना भूकावला आहे…

शरीरासाठी आपण बरेच काही करतो… पण मनासाठी काय ? गोड शब्द ही मनाची गरज आहे…

सकारात्मक शब्दांना लोक आसुसले आहेत.

ते मिळाले तर.?..

कुसुमाग्रजांची जन्मतिथी आपण नुकतीच साजरी केली… गेल्या पावसाळ्यात आपण सर्वांनीच महापुराचा कहर अनुभवलाय… लोकांना पैशाची , वस्तूची मदत तर सर्वांनी दिली असेल पण उभारी चे दोन शब्द… ते कुठे मिळतात ?

कुसुमाग्रजांकडे असाच एक जण जातो. आपली कहाणी सांगतो. त्यानंतर जे काही घडले ते त्यांच्या कवितेतच वाचा…!

कणा –

‘ओळखलत का सर मला?’ – पावसात आला कोणी,

कपडे होते कर्दमलेले, केसांवरती पाणी.

क्षणभर बसला नंतर हसला बोलला वरती पाहून :

‘गंगामाई पाहुणी आली, गेली घरट्यात राहुन’.

माहेरवाशीण पोरीसारखी चार भिंतीत नाचली,

मोकळ्या हाती जाईल कशी, बायको मात्र वाचली.

भिंत खचली, चूल विझली, होते नव्हते नेले,

प्रसाद म्हणून पापण्यांवरती पाणी थोडे ठेवले.

कारभारणीला घेउन संगे सर आता लढतो आहे

पडकी भिंत बांधतो आहे, चिखलगाळ काढतो आहे,

खिशाकडे हात जाताच हसत हसत उठला

‘पैसे नकोत सर, जरा एकटेपणा वाटला.

मोडून पडला संसार तरी मोडला नाही कणा

पाठीवरती हात ठेउन, फक्‍त लढ म्हणा’!

माणूस आपुलकी पासून पारखा झाला आहे, शब्दांना महाग आहे…

सर्व जगच “Extra” चे वेडे आहे. डिस्काउंट, सेल, अमुक % एक्स्ट्रा, असं म्हटलं की डोळे Extra मोठे होतात. दिल्यापेक्षा आले जास्त तर सगळ्यांनाच पाहिजे असते. आपण जर असे Extra दिले तर सगळे तुमचे नक्की ‘फॅन’ होतील.

मदत असे म्हटले…

दान असे म्हटले की आपल्याला फक्त पैसा आठवतो.. . आपण याच्या पुढचा विचारच करत नाही.

 तेजगुरु सरश्रींच्या पुस्तकात वाचले त्याप्रमाणे आपणाकडे देण्यासारखे बरेच काही आहे. ते आपण देत नाही…

बाकी सगळे जाऊदे पण आपल्या आसपासचे लोकच असे आहेत…

कदाचित तुम्ही स्वतः आहात… ज्याला सकारात्मक शब्द हवे आहेत…

ज्याला कोणाचा तरी प्रेमाचा स्पर्श पाहिजे आहे…

त्याला कोणीतरी फक्त जवळ बसायला पाहिजे आहे…

ज्याला कुणाला तरी आपल्या मनातील सगळं सांगायचं आहे… त्याला श्रमाची मदत पाहिजे आहे… हात पाहिजे आहेत…

पाठीवर थाप पाहिजे आहे…

आपण शोध घेऊया..

मला स्वतः ला कशाची गरज आहे ?

आणि माझ्या आसपासच्या लोकांनाही कशाची गरज आहे?

कुणाला कान पाहिजे आहेत तर कानदान करा

कुणाला पाठीवरती थाप पाहिजे आहे त्यांना शब्ददान करा

कुणाला थोडी श्रमदानाची गरज आहे त्यांना थोडी श्रमाची मदत करा… कुणाला तुमचा वेळ पाहिजे आहे त्यांना तुमच्यातील थोडासा वेळ द्या

कुणाला फक्त तुमचे जवळ असणे पाहिजे आहे फक्त त्यांच्याजवळ फक्त बसून राहा

आपल्याकडे या सर्वात काय जास्त शिल्लक आहे ?

हे थोडेसे “एक्स्ट्रा” आपण देऊ शकतो का?

यशस्वी होण्याचा मंत्र सांगताना असे म्हणतात कि यशाकडे जाण्यासाठी पहिला तर तुमचे नियोजन करा या नियोजनाचे व्यवस्थित तुकडे करा. आपल्याला रोज थोडे थोडे काम करायचे आहे असे ठरवा. काय करायला पाहिजे आहे त्याप्रमाणे करत जा.

जमलं तर ठरवल्या्पेक्षा थोडं जास्तच करा…

‘थेंबे थेंबे तळे साचे’ ही अशीच सकारात्मक म्हण … मोठे काम करायचे असेल तर या म्हणीचा वापर करणे हाच खरा गुरुमंत्र…

आपल्या प्रतिस्पर्ध्यापेक्षा फक्त एक पाऊल जास्त पुढे असणे महत्त्वाचे …

रोज आपण आपल्याशी स्पर्धा केली तर?

आपणच आपले प्रतिस्पर्धी झालो तर?…

भगवान गौतम बुद्धांनी त्यांच्या साधनेच्या काळात अनेक गुरूंचा शोध घेतला. त्यांनी सत्याचा शोध घेण्याच्या मार्गात जे जे काही सांगितले त्याप्रमाणे केलेच, पण त्याच्यापेक्षाही थोडं जास्तच केले… थोडी जास्तच साधना केली … तरीही मनाची तळमळ शांत झाली नाही अखेर स्वतः मार्ग चालू लागले आणि एक दिवस अंतिम लक्ष्या पर्यंत पोहोचले…

थोडा विचार केला अन् प्रामाणिकपणाने स्वतःकडे पाहिले तर हे सर्व जण मान्य करतील की ईश्वराने आपल्याला आपल्या लायकी पेक्षाही अनेक पटीने जास्त आपणास दिले आहे… शिवाय तो देत आहे… त्याला आपण एक बीज दिले तर तो अनेकपटीने वाढवून परत देतो… भरपूर देतो… एक्स्ट्रा देतो…

तो फळ देणारा आहे …

बहुफल देणारा आहे.

माणसाने हाव सोडली तर सर्वच भरपूर आहे प्रेम ,पैसा,आनंद…

अनंत हस्ते कमलाकराने, देता किती घेशील दो कराने?

जेव्हा तो नेईल दो कराने सांभाळीशी किती मग दो कराने?

 

गदिमांच्या शब्दात आपण मिसळून जाऊया अन् देवाला मागूया… आपल्या मागण्यापेक्षा

अधिकच मिळेल!

देखणे मिळेल!

याची खात्री ठेवूनच मागूया …

 

पोटापुरता पसा पाहिजे नको पिकाया पोळी

देणार्‍याचे हात हजारो दुबळी माझी झोळी !

 

हवाच तितुका पाडी पाऊस देवा वेळोवेळी

चोचीपुरता देवो दाणा मायमाउली काळी

एक वितीच्या भुकेस पुरते तळहाताची थाळी !

 

महालमाड्या नकोत नाथा माथ्यावर दे छाया

गरजेपुरती देई वसने जतन कराया काया

गोठविणारा नको कडाका नको उन्हाची होळी !

 

सोसे तितके देई याहुन हट्ट नसे गा माझा

सौख्य देई वा दुःख ईश्वरा रंक करी वा राजा

अपुरेपणही नलगे, नलगे पस्तावाची पाळी !

 

29 फेब्रुवारी हा असाच “एक्स्ट्रा” दिवस…

आता हा दिवस चार वर्षातून एकदा येतो, सूर्याच्या भोवती पृथ्वीची सूर्याभोवती एक प्रदक्षिणा पूर्ण होण्यासाठी 365.25 (365•242181) दिवस लागतात तर आपले वर्षाचे 365 दिवस असतात राहिलेला पाव दिवस म्हणजे सहा तास

हे चार वर्षे ×प्रत्येकी सहा तास याप्रमाणे आपण एका दिवसाने वर्ष वाढवतो… त्रुटी पूर्ण करतो या सर्वच गोष्टी आपणास माहिती आहेत पण या 29 फेब्रुवारी च्या निमित्ताने मनन झाले म्हणूनच हा लेखन प्रपंच …

हे मनन आपणास आवडले असेल तर ‘पुढाळायला’ हरकत नाही आणि आपला “एक्स्ट्रा” वेळ खर्च करून प्रतिक्रिया कळवायलाही हरकत नाही… आपल्या प्रतिक्रिया ही ‘लेखकाची’ प्रेरणा आहे.

©  श्री श्रीनिवास गोडसे

इचलकरंजी, मो – 9850434741

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सांगून ठेवते… भाग-१ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? जीवनरंग ❤️

☆ सांगून ठेवते… भाग-१ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

गेला संपूर्ण आठवडा मी दादीला जे सांगायचा प्रयत्न करत आहे ते नीटसं जमत नाही मला. जे काही सांगायचे ते माझ्या एकट्यासाठीच नसून ते आमच्या कुटुंबाच्या वतीने तिला सांगायचं आहे. हे सारे दिवस मी माझ्या मनाशी वाक्यं जुळवत आहे, शब्द शोधत आहे. कुटुंबातली जबाबदार व्यक्ती म्हणून ही कामगिरी नकळतच माझ्यावर येऊन ठेपली आहे. पण आता समजतं आहे की हे काम सोपं नाही. मी जे तिला सांगणार आहे ते ऐकल्यानंतर दादीची नेमकी प्रतिक्रिया काय होईल याचा अंदाज  मला नीटसा घेता येत नाही. कधी वाटतं तिला दुःख होईल, तिला आमच्या विषयी काय वाटेल? ती तळमळेल, कदाचित भांडेल, त्रागा करेल पण तरीही वाटतं तशी दादी समंजस आहे. मी जे तिला सांगेन ते ती शांतपणे नक्की स्वीकारेल.

एक दिवस दादी मला म्हणाली,” का रे बाबा! तुझा चेहरा का असा उतरलेला? कसली काळजी करतो आहेस? माझ्या आजारपणाची ?अरे मी औषधे वेळेवर घेते आहे ना? आणि हे बघ मला इतक्यात तर काहीच होणार नाही. मी खूप जगणार आहे. मला खूप जग  बघायचं आहे. तुम्हा सगळ्यांचं सगळं मी माझ्या हातानं माझ्या मनासारखं करणार आहे. सांगून ठेवते..”

मग मी काय बोलणार? काय सांगणार तिला ?

दादीचा गोरापान, तांबूस  कांतीचा चेहरा,ठसठशीत बांधा, देखणे अवयव, त्यावरचे खुलून दिसणारे गोठ, पाटल्या, एकदाणी आणि चापून चोपून नेसलेले स्वच्छ काठ पदरी लुगडे, आणि साऱ्या घरभर तिचे ते अविरत तुरुतुरु चालणे.

आमच्या कुटुंबावरच दादीचा केवढा मोठा प्रभाव आहे! खरं म्हणजे ती आहे म्हणूनच हे कुटुंब टिकले. आम्ही सारे भाऊ, आमच्या बायका, त्यांच्या विविध आवडीनिवडी, वेगवेगळे स्वभाव, इच्छा आकांक्षा, लग्न होऊन दूर गेलेल्या बहिणींचे माहेरी येणे जाणे, त्यांची मुलं आमची मुलं या सर्वांचा एक सुसूत्र समेट दादीमुळेच जुळून आलाय. तिच्या व्यक्तिमत्त्वातच असा काही चमत्कार आहे की सहसा तिच्यापुढे कुणीच जात नाही. या कुटुंबाची वीण तिने जुळवली आहे. त्यात तिच्या प्रेमाचे धागे अडकले आहेत.ती कुणाला बोलली, तिने कुणाला दुखावलं तर तेही हृदयात प्रेमाचा डोह साठवून.  आमच्या कुटुंबाचा दादी म्हणजे  एक मजबूत कणाच आहे. घरात भांडणं झाली, मतभेद झाले तर दादी गुपचूप ओट्यावर येऊन बसते नाहीतर गंगीच्या गोठ्यात जाऊन गंगीच्या पाठीवर हात फिरवत बसते. जणू तिला सांगते,” उगीच भांडतायेत हे. काही कळत नाही बरं त्यांना. तुला सांगून ठेवते.”

हं! फारच झालं तर निंबोणीच्या पारावर जाऊन वाती वळत बसते. पण कुणाचेही भांडण मिटवायचा प्रयत्न ती करत नाही. काही वेळ जातो, काही दिवस जातात पुन्हा कुटुंबाचा सुसूत्रपणा टिकून राहतो. दादी उगीच कुठेही ढवळाढवळ करत बसत नाही. कुणाची बाजू घेत नाही आणि कुणाला खडसावतही नाही. मात्र कधीतरी माझ्या बायकोला किंवा धाकट्या भावाच्या बायकोला म्हणेल,

“ का ग! आज गंगाफळाची भाजी केली आहेस ना मग बाबू काय जेवेल? त्याला आवडत नाही ती भाजी. त्याच्यासाठी वेगळं काहीतरी कर हो .आण तो लसूण मी सोलून देते. लसुण, कांदा घालून केलेला लाल मिरचीचा ठेचा त्याच्यासाठी करून ठेव. सांगून ठेवते ..”

धाकट्या भावाच्या बायकोच्या पाठीवर हात फिरवून म्हणेल,” अगं !आपल्या नवऱ्याची काळजी आपणच घ्यावी. त्याला काय आवडतं काय नाही हे आपणच लक्षात ठेवावं. कंटाळा करू नये ग! असेल हो तुमची स्त्री मुक्ती नाहीतर नारी स्वातंत्र्य आणि ते काय समान हक्क. आता तुम्ही शिकल्या सवरल्या, पैसे मिळवता म्हणून तुम्हाला हे कळतं. तसच  वाटतं. पण खरं सांगू गंगा यमुना आटतील पण स्त्रीचे मन नाही बदलणार. ते असंच पिंगा घालेल बरं तिच्या घराभोवती तुला सांगून ठेवते.”

हे खरं की खोटं, योग्य की अयोग्य, जुनं की नवं हा संघर्ष नंतरचा. पण दादी जे बोलते ते तिला तसंच वाटतं म्हणून ती बोलते. तुम्हाला ते पटवून घेतलं पाहिजे असं नाही. तिची गुंतवणूक आणि तिचा अलिप्तपणा याचा संगम इतका सुरेख आहे की म्हणूनच आमच्या कुटुंबावर तिचा जबरदस्त पगडा आहे. एका अनामिक शक्तीने तिने हा डोलारा  सांभाळला . पाठीच्या कण्यासारखा .कदाचित ती आमच्यातून गेली.. ती नसली तर …. 

आणि मग जेव्हा जेव्हा माझ्या मनात आज तिला हे सांगायचं ,आता लवकरच हा निर्णय घ्यावाच लागेल असा विचार आला की वाटतं पण दादीला हे असं व्हावं का? दादी इतकी निर्मळ, निष्पाप, सेवाभावी, इतकी स्वच्छ टापटीपीची. ती आजारी झाली, तिचं दुखलं खुपलं  म्हणून ती कधीही निजून राहायची नाही. तिच्या कुठल्या कामात कसूर नाही. मग बाळाची आंघोळ असू दे, नातीची रिक्षा आली नाही तर घेईल दप्तर धरेल तिचं बोट आणि चालेल तुरुतुरु “चल ग बाई! घरात मीच रिकामी आहे, तुझी शाळा नको बुडायला. येताना रामाच्या मंदिरातही जाऊन येईन. नातही खुशच असते आजी बरोबर शाळेत जायला.

आणि वयाच्या या उतरणीवर अण्णांचं काही कमी करावे लागतं का तिला? त्यांचं गरम पाणी, दूध, नाश्ता अजून ती त्यांच्या बाबतीत सुनांना सांगत नाही. मोलकरणीच्या हातून धुतलेले धोतर त्यांना आवडत नाही म्हणून दादी त्यांचं धोतर स्वतःच्या हाताने धुते. किनारी सारख्या करून, काठाला काठ जुळवून अगदी परीटघडी सारखं त्यांच्या हातात ठेवते.

गेल्या वर्षीच अण्णांना एक सौम्यसा हृदयाचा झटका येऊन गेला. अण्णांना तिनं एखाद्या फुलासारखं जपलं. तिचा तो मूकपणा! कामाची लय! सेवेची तन्मयता अजोड होती. किती उपास धरले, किती नवस केले, किती पोथ्यांची पारायणं केली. दिवस-रात्र अण्णाजवळ बसून राहायची. औषधांच्या वेळा सांभाळायची. ते झोपले तर ती झोपायची. ते जेवले तर ती जेवायची. कधी अण्णांनी रडावं, धीर सोडावा, निर्वाणीची भाषा बोलावी मग कठोरपणे तिनेच त्यांना दटवावं.

“ अहो आम्ही तुमची इतकी सेवा करतोय तर तो ईश्वर काही डोळे झाकून ठेवेल का?”

त्या दिवसात मी तिला म्हणायचोही “अग! दादी जरा स्वतःकडेही बघ. कशी दशा झाली आहे तुझी आणि घरात करणारे आहोत ना आम्ही?  उद्या तुलाच काही झालं तर?”

मग दादी चष्मा काढायची, पदराच्या टोकांनी  शिणलेले डोळे पुसायची आणि माझ्याकडे नुसती बघायची. तिच्या नजरेतील भाषाच जगातल्या सर्व भाव-भावांना छेदून जाते असंच मला वाटायचं .

अण्णा बरे झाले, हिंडू फिरू लागले मग दादीचं मन  निवारलं. ती हसू लागली, बोलू लागली, सुनांना हाका मारू लागली. 

आज मला वाटतं— जग कितीही पुढे जाऊ दे, कुठलंही युग येऊ दे, सुधारणांचं, नवमतवादाचं पण व्यक्ती व्यक्तीच्या मनात जे पाप-पुण्याचे संकेत टिकून आहेत ते तसेच अचल राहणार. जेव्हा डॉक्टरने म्हणाले,” दादीला हे असं व्हावं याचं मलाही आश्चर्य वाटतं. पण त्याला आता इलाज नाही. शिवाय आता वैद्यकीय शास्त्र पुढे गेलय्. औषधही खूप आहेत आणि लेप्रसी  हा रोग तसा असाध्य नाही. तो संपूर्ण बरा होऊ शकतो. फक्त अवधी फार लागतो. कदाचित तीन—चार— पाच वर्षेही लागू शकतात. घरातील लहान मुले आणि इतरांचा विचार करता दादीला तुम्ही…”

– क्रमश: भाग पहिला 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ फलटणमधील ‘सीतामातेचा डोंगर’… ☆ सुश्री सुनीला वैशंपायन ☆

सुश्री सुनीला वैशंपायन 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ फलटणमधील ‘सीतामातेचा डोंगर’… ☆ सुश्री सुनीला वैशंपायन 

– श्री क्षेत्र सोमनथळी 

फलटणमधील ‘सीतामातेचा डोंगर’

चला आपल्या फलटणबद्दल थोडेसे जाणून घेऊयात

राम रावणाच्या युद्धानंतर जेव्हा राम अयोध्येला परत आले तेव्हा लोकांनी सीतेबद्दल शंका घेण्यास सुरुवात केली. त्यामुळे नाईलाजाने रामाला सीतेचा त्याग करावा लागला. त्याने लक्ष्मणाला आज्ञा केली की सीतेला दूर कुठेतरी नेउन सोड. लक्ष्मण सीतेला घेऊन अयोध्येपासून खूप दूर आला. त्याने सीतेला एका ठिकाणी सोडलं आणि तो अयोध्येला निघून गेला…

लक्ष्मणाने सीतेला ज्या ठिकाणी सोडलं होतं ते ठिकाण आपल्या फलटणच्या शेजारी आजही ‘ सीतामातेचा डोंगर ‘ या नावाने प्रसिद्ध आहे. आजही हजारो स्त्रिया संक्रांतीच्या दिवशी या ठिकाणी सीतामातेला वाणवसा घ्यायला जातात…

याच आपल्या पावन भूमीत लव-कुश यांचा जन्म झाला. रामाने ज्यावेळी अश्वमेध यज्ञ केला त्यावेळी या यज्ञाप्रसंगी जो घोडा सोडलेला होता तो लव-कुशने पकडला… त्यानंतर लव-कुश यांच्याबरोबर लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भारत, सुग्रीव यांनी युद्ध केलं.. मारुतीही या युद्धाच्यावेळी उपस्थित होते. मात्र त्यांना समजलं की ही दोन्ही मुले रामाचीच आहेत. त्यामुळे त्यांनी युद्धात सहभाग घेतला नाही. लव-कुशने हनुमंताला एका अस्त्राने एका लिंबाच्या झाडाला बांधून टाकलं …

हे युद्ध ज्या ठिकाणी झालं त्या ठिकाणाचा उल्लेख रामायणमध्ये ” फलपठठनपूर ” असा केलेला आहे. ज्याचा अपभ्रंश होऊन आज ते ठिकाण फलटण या नावाने ओळखल जातं … 

रामायणामध्ये असा उल्लेख आहे कि लव-कुशने हनुमंताला ‘सम्स्थलि’ बांधलेले…

‘सम्स्थळ’ म्हणजे समान जागा, जिथे चढ-उतार जास्त नाहीत अशी…

त्या ‘समस्थळचा’ अपभ्रंश होऊन आज ते ठिकाण ‘सोमन्थलि’ या नावाने प्रसिद्ध आहे.

खूप वर्षांपूर्वी या ठिकाणी एका स्त्रीला एका लिंबाच्या झाडाखाली पडलेल्या गाईच्या गोवरीमध्ये हनुमानाचे दर्शन झाले… ती बेशुद्ध होऊन पडली… काही लोक तिला पाहायला गेले तर त्यांनाही हनुमंताचे दर्शन मिळाले. ही वार्ता गावामध्ये वाऱ्यासारखी पसरली… त्या काळच्या एका प्रसिद्ध ब्राह्मणाकडून याबद्दलची माहिती काढण्यात आली. त्यावेळी हे तेच ठिकाण निघालं जेथे हनुमानाला बांधलेलं होत…मग लोकांनी भक्तिभावाने या ठिकाणी हनुमानाचे मंदिर बांधले. या मंदिराच्या पाठीमागे एक लिंबाचे झाड आहे. असे म्हणतात की हे लिंबाचे झाड मोठे होऊन जेव्हा मरून जातं तेव्हा त्याच ठिकाणी नवीन झाड उगवते. मारुतीचे दर्शन घेऊन मंदिराला प्रदक्षिणा घालताना पाठीमागच्या या झाडाला मिठी मारून दर्शन घेण्याची पद्धत आहे. नवसाला पावणारा हा मारुती दक्षिणमुखी आहे….चैत्र शुद्ध पौर्णिमेला सोमंथळी मध्ये मोठी यात्रा भरते… मित्रानो समर्थ रामदासांनी ११ मारुतींची स्थापना केली हे सर्वाना माहित आहे… मात्र हा मारुती स्वयंभू आहे. याची स्थापना केली गेली नाही… सोमंथळी मध्ये तो स्वतः: प्रगट झाला आहे…

” श्री स्वयंभू दक्षिणमुखी मारुती मंदिर, श्री क्षेत्र सोमंथळी ” या नावाने हे मंदिर प्रसिद्ध आहे. गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, तामिळनाडू याचबरोबर इतरही अनेक राज्यातून लोक येथे दर्शनाला येतात…

मात्र याच मातीतल्या बऱ्याच लोकांना या ठिकाणाची माहिती नाही… कारण आपण रामायणाची पारायणे करतो .. मात्र मनापासून कधी वाचत नाही.

एव्हढा पौराणिक आणि सांस्कृतिक वारसा असणाऱ्या ठिकाणी आपण वावरतोय याचा थोडा तरी अभिमान असू द्या…

|| जय श्री राम ||

|| जय हनुमान ||

माहिती प्रस्तुती : सुश्री सुनीला वैशंपायन 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ मराठी भाषादिनाच्या शुभेच्छा… – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

श्री अमोल अनंत केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ मराठी भाषादिनाच्या शुभेच्छा… – लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अमोल अनंत केळकर ☆

स्वतःची सहीसुद्धा मराठीत नसणाऱ्या, पण मराठीची उगीच तळमळ बाळगणाऱ्या तमाम मराठी बांधवांस थोर थोर शुभेच्छा..

A B C D सहज म्हणू शकणाऱ्या, पण मराठी शाळेत शिकूनसुद्धा अजूनही क ख ग घ पूर्ण म्हणता न येणाऱ्या मायमराठीच्या अडाणी लेकरांना कोपरापासून शुभेच्छा..

मॉलमध्ये गेल्यावर ‘ये कितने का है ?’ किंवा ‘हाऊ मच इट कॉस्टस ?’ असं विचारणा-या तमाम मराठी माणसांना मराठी भाषा दिनाच्या बळेच शुभेच्छा ..

आपली मुले इंग्रजी शाळांत घालून इतरांच्या मुलांना मराठीतून शिकण्याचा आग्रह धरण-या गुणीजनांनाही कोरडया शुभेच्छा..

व्हाट्सऍप वर लिहिताना केवळ ‘कंटाळा येतो म्हणून’ विचित्र मिंग्लिश भाषा वापरणाऱ्या नेटकऱ्यांना धन्य धन्य शुभेच्छा..

फेसबुकवर वाढदिवसाच्या दिवशी एचबीडी लिहिणाऱ्या किंवा टीसी (‘काळजी घे’ चे सूक्ष्म रूप), जीएन, जीएम, जीई, जीए, हाय, हॅलो, बडी, ब्रो, ड्यूड, सिस, हे मॅन, अंकल, आंट, पापा, ममी, मॉम्झ, डॅड असलं अरबट चरबट लिहिणा-या लोकांनाही ओढून ताणून शुभेच्छा…

टॅक्सी, रिक्षा, बस, रेल्वे, विमान, जहाज यातून प्रवास करताना किंवा अगदी पायी चालतानाही आपण मराठीत बोललो तर आपल्या अंगावर झुरळ पालींचा वर्षाव होईल असं समजणा-या भोळ्या भाबड्या मराठीप्रेमींनी काय घोडे मारलेय?.. त्यांनाही आज शुभेच्छा..

सरकारी कार्यालयात, कार्यप्रणालीत, कचे-यांत, बँकेत किंवा इतर स्थळी गेल्यावर समोरील माणूस ज्या भाषेत बोलतो त्याच भाषेत बोलताना, ‘मराठीचा किमान एका संधीसाठीही’ वापर न करणा-या मराठी माणसासही आभाळभर शुभेच्छा…

वर्षभरात एकही मराठी पुस्तक विकत न घेणा-या, कधीही मराठी नाटक – चित्रपट न पाहणा-या, जाणीवपूर्वक मराठी वाहिन्या न पाहता इतर वाहिन्या पाहणा-या, कधीही मराठी गाणं न गुणगुणणा-या, मराठी नियतकालिकाशी संबंध नसणाऱ्या, तमाम मराठी माणसांना मराठी दिनाच्या मनःपूर्वक शुभेच्छा..

मराठी मुळाक्षरे, बाराखडी, व्याकरण, गद्य, पद्य याबाबत मनात कमालीची रुक्षता असणा-या, पण इंग्रजी स्पेलिंग तोंडपाठ करणाऱ्या बाळबोध जनतेस मराठी दिनाच्या शुष्क शुभेच्छा..

फक्त मराठी दिनापुरते मराठीचे तुणतुणे वाजवणा-या मराठी माणसास मराठी भाषा दिनाच्या जरतारी शुभेच्छा…

मराठी दिनाचे ढोंग न करता आयुष्यभर मराठीवर प्रेम करणा-या खऱ्याखुऱ्या मराठी माणसास मात्र मराठी दिनाच्या मराठमोळ्या शुभेच्छा… 

जीवावर येऊन मराठीत वाचत, बोलत, लिहित नसाल, तरच हा संदेश पुढे पाठवा अन्यथा वाचून सोडून द्या ;पण केवळ औपचारिकता म्हणून किंवा लेखन आवडले म्हणून किंवा आपणही मराठीवर प्रेम करतो हे दाखवून देण्यासाठी, हा शुभेच्छा संदेश पुढे पाठवू नका.

कवी – अज्ञात

संग्राहक : अमोल केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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