हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 105 ☆ प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय व्यंग्य  – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग।  इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 104☆

? व्यंग्य – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग ?

जमाना दो मिनट में मैगी  तैयार, वाला है. बच्चे को भूख लगने पर दो मिनट में मैगी बनाकर माँ फटाफट खिला देती हैं. घर पर मैगी न हो तो मोबाईल पर जोमैटो, स्विगी या डोमिनोज का एप तो है न, इधर आर्डर प्लेस हुआ और टाईम लिमिट में डिलीवरी पक्की है.

दादी का जमाना था जब चूल्हे की आग कभी बुझाई ही नहीं जाती थी, राख में अंगारे छोड़ दिये जाते थे.  जाने कब वक्त बेवक्त कोई पाहुना आ जाये. मुडेंर पर कौये की कांव कांव होती ही रहती थी, जब तब अतिथि पधारते ही रहते थे. नाश्ते के समय कोई खास आ जाये तो तुरत फुरत गरम भजिये तले जाते थे, और यदि भोजन के समय मेहमान आ जायें तो गरमागरम पूड़ियां और आलू की सब्जी, पापड़ का मीनू लगफभग तय होता था. रेडी मेड मेहमान नवाजी के लिये दादी के कनस्तर में पपड़ियां, खुरमें, शक्कर पाग, नमकीन वगैरह  भरे ही रहा करते थे. मतलब वह युग पूर्व तैयारी का था. दादा जी की समय पूर्व तैयारी का आलम यह था कि ट्रेन आने के आधा घण्टे पहले से प्लेटफार्म पर पहुंच कर इंतजार किया जाता था. किसी आयोजन में पहुंचना हो तो निर्धारित समय से बहुत पहले से आयोजन स्थल पर पहुंच मुख्य अतिथि की प्रतीक्षा किये जाने की परम्परा थी.

पर अब सब बदल चुका है. अब  कुएं का महत्व संस्कृति की रक्षा में विवाह एवं जन्म संस्कार के समय पूजन तक सिमट कर रह गया है. धार्मिक अनुष्ठान के समय कुंआ ढ़ूंढ़ने की नौबत आने लगी है, क्योंकि अब पेय जल नल से सीधे किचन में चला आता है. कुंये के अभाव में महिलाएं, नल का पूजन कर सांकेतिक रूप से संस्कारो को  बचाये हुये हैं. सर पर मटकी पर मटकी चढ़ायें पनहारिनें खोजे नही मिलती, इससे रचनाकारों को साहित्य हेतु नये विषय ढ़ूंढ़ने पड़ रहे हैं. सच पूछा जाये तो मुहावरों की भाषा में अब हमने प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग निर्मित कर लिया है. प्यास लगते ही बाटल बंद कुंआ खरीद कर शुद्ध मिनरल वाटर पी लिया जाता है. प्यास के लिये पानी की सुराही लिये चलने का युग आउट आफ डेट हो चुका अब तो वाटर बाटल लटकाये घूमना भी बोझ प्रतीत होता है.

इन परिस्थितियों में बच्चे के जन्मोत्सव पर प्रकृति प्रदत्त आक्सीजन का कर्ज चुकाने के लिये वृक्षारोपण मेरे जैसे दकियानूसी कथित आदर्शवादी बुद्धिजीवीयों का शगल मात्र बन कर रह गया है, जो ये सोचते हैं कि जब हम बाप दादा के लगाये वृक्षो के फल खाते हैं तो आने वाली पढ़ीयों के लिये फलदार वृक्ष लगाना हमारा कर्तव्य है. इस चट मंगनी पट ब्याह और फट बच्चा और झट तलाक वाली पीढ़ी को कर्तव्यो पर नही अधिकारो पर भरोसा है. कोरोना सांसो से सांसो तक पहुंचता है, सबको पता है, पर कुंभ की ठसाठस भीड़ पर सवाल उठाओ तो मौलाना साहब की मैयत की भीड़ दिखा दी जाती है. चुनाव की रैली पर रोक लगाना चाहो तो पहले खेलों का खेला रोकने को कहा जाता है. खेल रोकना चाहो तो राजनीती रोकने नहीं देती. राजनीति विज्ञापन पर भरोसा करती है. राजनीति को मालूम है कि दुनियां ग्लोबल है,  जरूरत पड़ेगी तो आक्सीजन, वैक्सीन, दवायें सब आ ही जायेंगी, खरीद कर, सहानुभूति में या मजबूरी में ही सही. और तब तक लाख दो लाख काल कवलित हो भी गये तो क्या हुआ संवेदना व्यक्त करने के काम आयेंगे. चिताओ की आग दुनियां के दूसरे छोर के अखबारों की हेड लाइन्स बनेंगी तो क्या हुआ विपक्षियो पर लांछन लगाने के लिये इतना तो जरूरी है. राजकोष का अकूत धन आखिर होता किसलिये है. राजा की तरह दोनो हाथों से बेतरतीब लुटाकर जहां जिसको जैसा मन में आया, संवेदनाओ के सौदे कर लिये जायेंगे.

आपदा की पूर्व नियोजित तैयारी का युग आउट डेटेड है, भला कोई कैसे अनुमान लगा सकता है कि कब, कहाँ, कितना, कैसा संकट आयेगा, इसलिये जिसे जो करना है करने दो, हम प्रजातंत्र हैं. हमें पूर्ण स्वतंत्रता होनी ही चाहिये.  खुद जो मन आये करो, नेतृत्व को बोल्ड होना ही चाहिये.  जब प्यास लगेगी, कुंआ खोद ही लेंगें. बहुत ताकतवर, संसाधन संपन्न, ग्लोबल हो चुके हैं हम.  कुंआ खोदने में जो समय लगेगा उसके लिये न्यायालय की चेतावनी चलेगी, हम लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, और न्यायालयों का बड़ा सम्मान होता है जनतंत्र में. इसलिये अस्पतालों की अव्यवस्था, आक्सीजन की कमी, दवाओ की अफरा तफरी, कोरोना की दहशत पर  क्षोभ उचित नही है. आपदा में अवसर तलाशने वाले कालाबाजारियों, जमाखोरों, नक्कालो से पूरी हमदर्दी रखिये जिन्होंने अनाप शनाप कीमत पर ही सही जिंदगियों को चंद सांसे तो दीं ही हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 87 – लघुकथा – अनमोल पल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “लघुकथा – अनमोल  पल। हम सब बच्चों को पढ़ाते लिखाते हैं और हमारा स्वप्न होता है कि वे दुनिया की सारी खुशियां पाएं । उनकी स्मृतियाँ तो स्वाभाविक हैं । अनमोल पल में अनमोल भेंट सारे परिवार के लिए सुखद है। एक संवेदनशील रचना बन पड़ी है। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 87 ☆

? लघुकथा – अनमोल पल ?

सुधीर विदेश में अच्छी कंपनी पर कार्यरत था। अपने परिवार पत्नी और दो बच्चों के साथ सम्पूर्ण सुख सुविधा के साधन बना लिए थे।

माँ  पिताजी एक शहर में अपने छोटे से घर पर रहते थे। बहुत सीधे- साधे और समय के अनुसार उनका समय जैसे – तैसे पंख लगा कर निकल रहा था। पिताजी की तबियत भी खराब होने लगी। माँ चिंता से व्याकुल और परेशान हो बेटे की राह देखने लगी, परंतु बेटा भी क्या करता अपनी जिम्मेदारी के कारण जल्दी से आ ना सका।

फिर ऐसा वक्त आया कि सदा सदा के लिए पिताजी शांत हो गए।  विदेश जाने के बाद सुधीर ने कभी घर आने की कोशिश नहीं की थी।

मोहल्ले पड़ोस वाले लोगों के साथ लोग मिलकर सभी कार्यक्रम को शांति पूर्वक किया गया । बेचारी बूढ़ी माँ बस देखती रही। बेटा भी बहुत विचलित था आखिर वह अपने पापा की इकलौती संतान और अंत समय तक नहीं पहुँच सका । उसे कुछ इसकी भी और चिंता खाए जा रही थी।

कुछ समय बाद बेटा- बहू अपने बच्चों के साथ आए तब तक सब कुछ बिखर गया था। माँ को तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वर्षों के बाद आए बेटा बहू का मुँह देखें कि अपने पति के बारे में सोचें। बेटे से लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी। पोता- पोती सब कुछ सामान्य भाव से देख रहे थे। समझ रहे था कि पापा के नहीं आने से चिंता के कारण दादा जी की मृत्यु समय से पहले हो गई और दादी उसी के कारण परेशान है।

शाम के समय सभी बैठे थे। दादी ने एक छोटा सा कॉटन वाला तकिया लाकर दिया अपने बेटे को। बेटे ने कहा… यह क्या है मम्मी ने बताया… बेटा तुम्हारे जाने के बाद पापा तुम्हारी तस्वीर के सामने  बैठकर घंटो  इस तकिए से बातें करते थे और अपना समय गुजारते थे।

उन्होंने कहा… था अनमोल पल है क्या हुआ जो बेटा हम से बाहर गया है उसकी यादें संजोए मैं इस पर टिका हुआ हूं। बेटे ने अचानक देखा अभी कुछ सिलाई कच्ची दिखाई दे रही थी।

उसने तुरंत सिलाई खोलना शुरू किया। कुछ पुराने कागजात और बैंक अकाउंट था। सारी जमा राशि और एक अच्छी लंबे चौड़ी लिखी हुई चिट्ठी थी।

बेटे ने उठाकर पत्र पढ़ा। उस पर लिखा था मेरे प्रिय बेटे मैं जानता हूँ तुम मेरे मरने के बाद आओगे तुम्हें हम दोनों से लगाव भी बहुत है परंतु मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद तुम्हारी मां को तुम किसी वृद्धाश्रम में डालकर मकान बेच कर यहाँ से सदा – सदा के लिए चले जाओ।

इसलिए मैंने जितना तुम्हारे हिस्से की साझेदारी है। सब इस पर है और हाँ मैं जो सुंदर पल तुम्हारे लिए इस तकिए के साथ बिताया हूँ वह तुम्हारा है। बाकी सभी तुम्हारी मम्मी का है।

उसे किसी प्रकार से कोई कष्ट न हो इसलिए मुझे ये करना पड़ा।

चिट्ठी को पोता भी साथ साथ पढ रहा था।  अपने पापा से बोला क्या??? सभी पापा को ऐसा करना पड़ता है।

भय और भविष्य की घटना को सोच सुधीर ने झटके से अपने बेटे को गले से लगा लिया

लैपटाप खोल  कुछ टाईप करने बैठ गया माँ ने पूछा कुछ लिख रहा है??? सुधीर ने  कहा हाँ बताता हूँ। उसने अपने ऑफिस पर एक पत्र टाईप कर अपने कार्यभार से  इस्तीफा लिखा और माँ से कहा… मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा सब यहीं पर आपके पास रहेंगे।

तुम्हारा पोता भी यहाँ रह कर पढ़ाई करेगा। मान जो अब तक जोरो से रही थी हंसते हुए बोली… मैं नाहक कि उनसे लड़ती थी इस तकिए के लिए। तकिए ने कमाल कर दिया मुझे मेरा बेटा सूद समेत लौटा दिया।

उनका अनमोल पल मुझे अब समझ आया। वे कहा… करते थे देखना यह अनमोल पल बहुत सुखद होगा। हँसते हुए माँ ने.. अपने पोते और बहू को गले से लगा लिया। बेटे के आंखों से अश्रुधार बह निकली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 95 ☆ भाग्यरेषा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 95 ☆

☆ भाग्यरेषा ☆

हिरवगर्द पान

त्यावर पडलेला सूर्यप्रकाश

सूर्यप्रकाशातून दिसणाऱ्या

त्याच्या भाग्यरेषा पाहून

मीही माझ्या हातावरील भाग्यरेषा

निरखून पाहिल्या

दोन्हीत बरंचसं साम्य असलं तरी

माझ्या भाग्यरेषांमध्ये

एक स्वार्थी रेषा

ठळकपणे दिसत होती

पण ती रेषा त्या पानावर

कुठेच दिसत नव्हती

मुलाला वाढवताना

त्याच्याकडून माझ्याही काही अपेक्षा होत्या

झाडाचं मात्र तसं नव्हतं

ते देत राहलं फळं, सावली आणि

प्राणवायू देखील निस्वार्थपणे

म्हणूनच गळून पडलेल्या पानांना

पुस्तकात जपून ठेवावंस वाटतं

ती वर्षानुवर्षे राहतात पुस्तकात

सुकतात, जाळीदार होतात

पण दुर्गंध सोडत नाहीत

माणूस मात्र चोवीसतासातच….?

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#48 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #48 –  दोहे  ✍

 

नील वसन तन आवरित,सितवर्णी छविधाम।

कहां प्राण घन राधिके, अश्रु अश्रु घनश्याम।।

 

मौसम की गाली सुने ,मन का मौन मजूर ।

और आप ऐसे हुए ,जैसे पेड़ खजूर।।

 

जंगल जंगल घूम कर ,मचा रहे हो धूम ।

पंछी को पिंजरा नहीं, ऐसे निकले सूम।।

 

क्या मेरा संबल मिला, बस तेरा अनुराग ।

मन मगहर को कर दिया, तूने पुण्य प्रयाग।

 

सांस सदा सुमिरन करें, आंखें रही अगोर।

 अहो प्रतीक्षा हो गई, दौपदि वस्त्र अछोर।।

 

 बरस बीत कर यो गया , मेघ गया हो रीत।

कालिदास के अधर पर, यक्ष प्रिया का गीत।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 47 – वह विदुषी वीर  कुड़ी  … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “वह विदुषी वीर  कुड़ी  …  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 47 ।। अभिनव गीत ।।

☆ वह विदुषी वीर  कुड़ी   …  ☆

जाने किस उधेड़बुन में

वह बैठी मुड़ी- तुड़ी |

ठीक उस जगह जिससे यों

चिड़िया तक नहीं उडी  ||

 

था गन्तव्य विरानेपन का

देहरी पर बैठा

जो सारे सिद्धांत धरम में

है सबसे जेठा 

 

जिसके क्षमतावान पक्ष का

मर्म समझने को 

कलिंगपोंग से जा पहुंँचा

सुख जैसे सिलीगुड़ी  ||

 

कैसा अन्तर्बोध, समय के परे विराट  लगा

जिसके सपनों का सूनापन

कैसे लगे सगा 

 

बाहर भीतर के प्रमाण

ले आये दुविधा में

जिनके सतत  प्रयास आँकते

प्रतिभा तक निचुड़ी  ||

 

घर की सीमाओं में फैली

एक विकट कटुता

जिसके बाह्य  कलेवर  में

जीवित अफ़सोस पुता

 

उसे दर्द में डूबी प्रतिमा

विवश कहें बेशक,

किन्तु युद्ध पर विजय प्राप्त

वह विदुषी वीर  कुड़ी  ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-03-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण#94 ☆ कला-संस्कृति के लिए जागा जुनून ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।)

☆ कला-संस्कृति के लिए जागा जुनून” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए हम श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के विशेष स्वर्णिम अनुभवों को साझा करने जा रहे हैं जो उन्होने एसबीआई ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आरसेटी) उमरिया के कार्यकाल में प्राप्त किए थे। आपने आरसेटी में तीन वर्ष डायरेक्टर के रूप में कार्य किया। आपके कार्यकाल के दौरान उमरिया जिले के दूरदराज के जंगलों के बीच से आये गरीबी रेखा परिवार के करीब तीन हजार युवक/युवतियों का साफ्ट स्किल डेवलपमेंट और हार्ड स्किल डेवलपमेंट किया गया और उनकी पसंद के अनुसार रोजगार से लगाया गया। इस उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत सरकार द्वारा दिल्ली में आपको बेस्ट डायरेक्टर के सम्मान से सम्मानित किया गया था। मेरे अनुरोध को स्वीकार कर अनुभव साझा करने के लिए ह्रदय से आभार – हेमन्त बावनकर)  

आज ऐसे एक इवेंट को आप सब देख पायेंगे, जो एक प्रयोग के तौर पर किया गया था। दूर दराज के जंगलों के बीच से प्रशिक्षण के लिए आये गरीब आदिवासी बच्चों द्वारा।

यूं तो आरसेटी में लगातार अलग-अलग तरह के ट्रेड की ट्रेनिंग चलतीं रहतीं थीं, पर बीच-बीच में किसी त्यौहार या अन्य कारणों से एक दिन का जब अवकाश घोषित होता था, तो बच्चों में सकारात्मक सोच जगाने और उनके अंदर कला, संस्कृति की अलख जगाने जैसे इवेंट संस्थान में आयोजित किए जाते थे।

उमरिया जिले के दूरदराज से आये 25 आदिवासी बच्चों के दिलों में हमने और ख्यातिलब्ध चित्रकार आशीष स्वामी जी ने झांक कर देखा, और उन्हें उस छुट्टी में  कुछ नया करने उकसाया, उत्साहित किया, फिर उन बच्चों ने ऐसा कुछ कर दिखाया जो दुनिया में कहीं नहीं हुआ था, दुनिया भर के लोग यूट्यूब में वीडियो देखकर दंग रह गए। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा आए वाली कहावत के तहत एक पैसा खर्च नहीं हुआ और बड़ा काम हुआ।

आप जानते हैं कि खेतों में पक्षी और जानवर खेती को बड़ा नुक़सान पहुंचाते हैं, देखभाल करने वाला कोई होता नहीं, किसान परेशान रहता है।इस समस्या से निजात पाने के लिए सब बच्चों ने तय किया कि आज छुट्टी के दिन अलग अलग तरह के कागभगोड़ा बनाएंगे। उमरिया से थोड़ी दूर कटनी रोड पर चित्रकार आशीष स्वामी का जनगण खाना कला-संस्कृति आश्रम में तरह-तरह के बिझूका बनाने का वर्कशॉप लगाना तय हुआ, सब चल पड़े। आसपास के जंगल से घांस-फूस बटोरी गयी, बांस के टुकड़े बटोरे गये, रद्दी अखबार ढूंढे गये, फिर हर बच्चे को कागभगोड़ा बनाने के आइडिया दिए गए। जुनून जगा, सब काम में लग गए, अपने आप टीम बन गई और टीमवर्क चालू…..। शाम तक ऐतिहासिक काम हो गया था, मीडिया वालों को खबर लगी तो दौड़े दौड़े आये, कवरेज किया, दूसरे दिन बच्चों के इस कार्य को अखबारों में खूब सराहना मिली। अब आप देखकर बताईए, आपको कैसा लगा।

यूट्यूब लिंक >> SBI RSETI Umaria –Bichka Scarecrow) Workshop at Jangan Tasveer Khana Lorha (M.P.)

स्व आशीष स्वामी

इस अप्रतिम अनुभव को साझा करते हुए मुझे गर्व है कि मुझे आशीष स्वामी जी जैसे महान कलाकार का सानिध्य प्राप्त हुआ। अभी हाल ही में प्राप्त सूचना से ज्ञात हुआ कि उपरोक्त कार्यशाला के सूत्रधार श्रीआशीष स्वामी का कोरोना से निधन हो गया।

उमरिया जैसी छोटी जगह से उठकर शान्ति निकेतन, जामिया मिलिया, दिल्ली, फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में अपना डंका बजाने वाले, ख्यातिलब्ध चित्रकार, चिंतक, आशीष स्वामी जी ये दुनिया छोड़कर चले गए, कोरोना उन्हें लील गया। महान कलाकार को विनम्र श्रद्धांजलि!!

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #38 ☆ # खुशी जीवन में लाईये # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महामारी कोरोना से ग्रसित होने के पश्चात मनोभावों पर आधारित एक अविस्मरणीय भावप्रवण कविता “# खुशी जीवन में लाईये #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 38 ☆

☆ # खुशी जीवन में लाईये # ☆ 

रंज-ओ-गम छोड़कर

खुशी जीवन में लाईये

जो बित गया उसे भूलकर

जरा मुस्कुराइए

 

कौन साथ देता है

मंजिल के आखिरी छोर तक

जो दो कदम भी साथ चला

उसे अपना बनाईये

 

जीवन की गलियों में

स्याह अंधेरा बहुत है

दीये की लौ बनकर

खूब जगमगाईये

 

इस लहर में जो छूट गए

मुँह मोड़कर जो रूठ गए

अब वो नहीं आयेंगे

चाहे आप कितना भी बुलाइए

 

अच्छा हो या बुरा

कल हो या आज

समय है बलवान

आप मान भी जाइए

 

आंखों में आंखें डालकर

कहाँ डूबे हुए हो “श्याम”

सागर है बहुत गहरा

कहीं डूब ना जाइए

 

© श्याम खापर्डे 

27/5/2021

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ अप्रूप पाखरे – ३ – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? वाचताना वेचलेले ?

☆ अप्रूप पाखरे – ३ – रवींद्रनाथ टैगोर ☆ प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

[9]

डोळे मिचकावत

काजवा

अगदी शिष्ट  आवाजात

तार्‍यांना म्हणाला

विद्वानांच्या मते

उध्वस्त  होणार आहात

तुम्ही सारेच्या सारे

आज ना उद्या’

तारे?

काहीच बोलले नाहीत.

 

[10]

तुझ्या प्रार्थांनागीतांमध्ये

पुन:पुन्हा व्यत्यय आणत

शंख करणार्‍या

या माझ्या मूर्ख इच्छा

आसक्त…. अनावर

मला फक्त ऐकू दे

हे प्रभो…

 

[11]

पाखराला व्हायचं होतं

ढग

आणि ढगाला

पाखरू

 

[12]

पार सुकून गेलं

हे नदीचं पात्र…

भूतकाळासाठी आभाराचे शब्द

सापडत नाहीत त्याला

 

≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡

मूळ रचना – स्व. रविंद्रनाथ टैगोर 

मराठी अनुवाद – रेणू देशपांडे (माधुरी द्रवीड)

प्रस्तुति – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 97 ☆ व्यंग्य – अपनी किताब पढ़वाने का हुनर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘अपनी किताब पढ़वाने का हुनर‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 97 ☆

☆ व्यंग्य – अपनी किताब पढ़वाने का हुनर

सुबह आठ बजे दरवाज़े की घंटी बजी। आश्चर्य हुआ सुबह सुबह कौन आ गया। दरवाज़ा खोला तो सामने बल्लू था। चेहरे से खुशी फूटी पड़ रही थी। सारे दाँत बाहर थे। हाथ पीछे किये था, जैसे कुछ छिपा रहा हो।

दरवाज़ा खुलते ही बोला, ‘बूझो तो, मैं क्या लाया हूँ?’

मैने कहा, ‘मिठाई का डिब्बा लाया है क्या? प्रोमोशन हुआ है?’

वह मुँह बनाकर बोला, ‘तू सब दिन भोजन-भट्ट ही बना रहेगा। खाने-पीने के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ है।’

मैं झेंपा। वह हाथ सामने लाकर बोला, ‘यह देखो।’

मैंने देखा उसके हाथ में किताब थी। कवर पर बड़े अक्षरों में छपा था ‘बेवफा सनम’, और उसके नीचे लेखक का नाम ‘बलराम वर्मा’।

मैंने झूठी खुशी ज़ाहिर की। कहा, ‘अरे वाह, तेरी किताब है?ग़ज़ब है। तू तो अब बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल हो गया।’

वह गर्व से बोला, ‘उपन्यास है। यह तुम्हारी कापी है। पढ़ कर बताना है। ढाई सौ पेज का है। रोज पचास पेज पढ़ोगे तो आराम से चार- छः दिन में खतम हो जाएगा। वैसे हो सकता है कि तुम्हें इतना पसन्द आये कि एक रात में ही खतम हो जाए।’

मैंने झूठा उत्साह दिखाते हुए कहा, ‘ज़रूर ज़रूर, तेरी किताब नहीं पढ़ूँगा तो किसकी पढ़ूँगा?दोस्ती किस दिन के लिए है?’

वह किताब पकड़ाकर चला गया। अगले दिन रात को नौ बजे उसका फोन आ गया। बोला, ‘वह जो उपन्यास की भूमिका में ‘घायल’ जी ने मेरी किताब को सदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक बताया है,वह तूने पढ़ा है?’

मैंने घबराकर झूठ बोला, ‘बस पढ़ ही रहा हूँ, गुरू। तकिये की बगल में रखी है।’

वह व्यंग्य से बोला, ‘मुझे पता था तूने अभी किताब खोली भी नहीं होगी।’

मैंने कहा, ‘बस शुरू कर रहा हूँ तो खतम करके ही छोड़ूँगा।’

किताब की भूमिका पढ़ी। उसमें ‘घायल’ जी ने बल्लू को चने के झाड़ पर चढ़ा दिया था। फिर पहला चैप्टर पढ़ा। उसमें घटनाओं और भाषा का उलझाव ऐसा था कि पढ़ते पढ़ते दिमाग सुन्न हो गया। पता नहीं कब नींद आ गयी।

दो दिन बाद फिर उसका फोन आया। बोला, ‘वह जो लवली अपने लवर को थप्पड़ मारती है वह तुझे ठीक लगा या नहीं?’

मैंने घबराकर पूछा, ‘यह कौन से चैप्टर में है गुरू?’

वह व्यंग्य से हँसकर बोला, ‘तीसरे चैप्टर में। मुझे मालूम था तू अभी पहले चैप्टर में ही अटका होगा। मेरी किताब को छोड़कर तुझे बाकी बहुत सारे काम हैं।’

मैंने शर्मिन्दा होकर कहा, ‘बस स्पीड बढ़ा रहा हूँ, गुरू। जल्दी पढ़ डालूँगा।’

दो दिन बाद फिर उसका फोन। बोला, ‘वह जो लवली अपने लवर से झगड़ा करके सहेली के घर चली जाती है,वह तुझे ठीक लगा या नहीं?’

मैं फिर घबराया, पूछा, ‘यह कौन सा चैप्टर है गुरू?’

वह फिर व्यंग्य से हँसा,बोला, ‘छठवाँ। मुझे पता था कि तू कछुए की रफ्तार से चल रहा है। बेकार ही तुझे किताब दी।’

मैंने फिर उसे भरोसा दिलाया, कहा, ‘बस दौड़ लगा रहा हूँ,भैया। दो तीन दिन में पार हो जाऊँगा।’

अगले दिन फिर उसका फोन— ‘वो जो लवली अपने पुराने प्रेमी के पास पहुँच जाती है वह सही लगा?’

मैंने कातर स्वर में पूछा, ‘यह कौन से चैप्टर की बात कर रहा है?

वह बोला, ‘नवाँ। उसके बाद तीन चैप्टर और बाकी हैं। तू इसी तरह घसिटता रहेगा तो महीने भर में भी पूरा नहीं होगा।’

दो दिन बाद फिर उसका फोन आ गया। उसके कुछ बोलने से पहले ही मैंने कहा, ‘मैंने तुम्हारी किताब पूरी पढ़ ली है, भैया, लेकिन अभी तीन चार दिन उसकी बात मत करना। अभी तबियत ठीक नहीं है। दिमाग काम नहीं कर रहा है। तबियत ठीक होने पर मैं खुद बात करूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 95 ☆ सोंध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 95 ☆ सोंध ☆

असमय बरसात हुई है। कुछ बच्चे घर से मनाही के बाद भी भीगने के आनंद से स्वयं को वंचित होने से रोक नहीं पा रहे हैं। महामारी  के समय में परिजनों की अपनी चिंताएँ हैं। अलग-अलग घर से अपने-अपने बच्चे का नाम लेकर पुकार लग रही है। ऐसे में अपना आनंद अधूरा छोड़कर घर लौटे लड़के को डाँटती उसकी माँ का स्वर कानों में पड़ा, “आई टोल्ड यू मैनी टाइम्स बट यू डोंट लिसन। मिट्टी इज़ डर्टी थिंग.., मिट्टी को हाथ भी नहीं लगाना। यू अंडरस्टैंड?”…इस आभिजात्य(!)  माँ की चिंता कानों में पिघले सीसे की तरह उतरी।

मिट्ट इज़ डर्टी थिंग..!!  सृष्टि के 84 लाख जीवों में से एक मनुष्य को छोड़कर शेष सबका प्रकृति के साथ तादात्म्य है। बुद्धि का वरदान प्राप्त विकास की राह पर चलते मनुष्य से यह तादात्म्य अधिक अपेक्षित है। तथापि अनेक प्राकृतिक आपदाएँ झेलते मनुष्य की भस्मासुरी प्रवृत्ति आश्चर्यचकित करती है। अपनी लघुकथा ‘सोंध’ स्मरण हो आई। कथा कुछ इस प्रकार है-…..

‘इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें।

हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।

अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।

तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।

दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं।  माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।…..

इस लघुकथा का संदर्भ इसलिए कि अपनी क्षणभंगुर कृत्रिमता को अविनाशी प्रकृति के सामने खड़ा करता मनुष्य दयनीय लगने लगा है। मिट्टी से बना आदमी अपनी मिट्टी खुद पलीद कर रहा है।

मिट्टी में मिलने के सत्य को जानते हुए भी मिट्टी से एलर्जी रखने वाली मनुष्य की यह मानसिकता सचमुच भय उत्पन्न करती है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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