English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 51 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 51 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 51) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 51 ☆

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इस सफ़र में नींद

ऐसी खो गई…

हम तो न सोये,

रात थक कर सो गई..!

 

During this journey, the sleep

was  lost in  such  a way

That I could  not  sleep,

but the tired night slept off!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

ले चल ऐ ज़िंदगी फिर से

बचपन की उन गलियों में

जहाँ ना कोई ज़रूरी था

ना ही कोई जरूरत थी….

 

O’life! Take me once again

In those streets of childhood

Where no one was needed

And, there used to be no need!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मैं इतनी छोटी

कहानी भी न था,

तुम्हें ही जल्दी थी

किताब बदलने की…

 

I  was  not  even

such a short story,

You were only in hurry

to change the book…!

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कभी रंगों से इक नज़्म लिखो

कभी अल्फाज़ों से तस्वीर गढ़ो

कभी खामोशी की आवाज़ सुनो

कभी चुप्पी की इबारत भी पढ़ो

 

Sometime write a

poem with colours

Try ever making a 

picture with the words

Sometime listen to

the voice of reticence

Once in a while read

the narrative of silence..!

 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 52 ☆ बुंदेली ग़ज़ल – बात नें करियो ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित बुंदेली ग़ज़ल    ‘बखत बदल गओ। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 52 ☆ 

☆ बुंदेली ग़ज़ल – बखत बदल गओ ☆ 

बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।

सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।

 

लतियाउत तें कल लों जिनखों

बे नेतन सें हात जुरा रए।।

 

पाँव  कबर मां लटकाए हैं

कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।

 

पान तमाखू गुटका खा खें

भरी जवानी गाल झुरा रए।।

 

झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें

सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 39 ☆ क्रॉति की अमर कहानी ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  क्रॉति की अमर कहानी।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 39 ☆ क्रॉति की अमर कहानी

(स्वयंप्रभा से साभार)

तुम्हें हम आज भारत की अमर गाथा सुनाते हैं।

वे सन ब्यालीस की बरसात के दिन याद आते हैं।

 महात्मा गाँधी का तो नाम तुमने भी सुना होगा।

किसी से पूंछकर उनके विषय में कुछ गुना होगा।

वे भारत के बड़े नेता थे उनका वह जमाना था।

 उनके गुण से उनको सबने दिल से नेता माना था।

वे अपने घुटने तक ऊँची सी बस धोती पहनते थे।

थी सीधी सच्ची आदत, गाँव में कुटिया में रहते थे।

लाठी ले के चलते थे वे बूढ़े दुबले पतले थे।

मगर अंग्रेजों से लड़ने विचारों में वे तगड़े थे।

हमारे देश में वर्षों से अंग्रेजों का शासन था।

दुखी था देश, जनता त्रस्त थी क्योंकि कुशासन था।

सभी ये चाहते थे देश में अपना ही शासन हो।

 सभी हिलमिल रहें खुश, नये विचारों का प्रकाशन हो ॥

 

इसी से देश में काँग्रेस ने झंडा उठाया था।

सभायें करके, भाषण दे के, लोगों को जगाया था।

 बड़ी ताकत है जनता में कि जब वह जाग जाती है।

तो उसके सामने सेना भी डरती, भाग जाती है।

यही नेताओं का सबका और गाँधी का इरादा था।

अहिंसक क्रांति से भारत की आजादी का वादा था।

सन ब्यालीस, महीना अगस्त था तारीख नौंवी थी। 

तभी बंबई से गाँधी ने दी एक आवाज कौमी थी।

 

 ‘करो या मरो’ नारा था यहाँ भारत की जनता को।

और अंग्रेजों को था अंग्रेजों भारत छोड़ो” और भागो ॥

बस इतनी बात ने सब में जगाई क्राँति की ज्वाला।

 कि जिसने सबको शहरों गाँवों में पागल बना डाला।।

किये गये बंद जेलों में थे गाँधी जी और सब नेता।

 नहीं था कोई भी बाहर जो जनता की खबर लेता।

की अंग्रेजों ने मनमानी सभी को डरवा धमकाकर।

उमड़ता जा रहा था देश में जन – क्रोध का सागर।।

किया लोगों ने जब प्रतिकार तो कई एक गये मारे।

 निठुर अंग्रेजों की गोली से हजारों गये थे संहारे।

 मगर फिर भी निहत्थे न डरे न मौत से हारे।

बहादुर थे वे लाने निकले थे आकाश के तारे।।

 

थे उनमें साथ सब हिन्दू मुसलमाँ, सिख, ईसाई।

ये आजादी हमारे प्रिय शहीदों की है कमाई 

उन्हीं का खून हमको इसकी रक्षा को बुलाता है।

जो भी भारत के वासी हैं, निकट का उनसे नाता है।

बिना नेताओं के भी लोगों ने जो कुछ किया खुद ही।

उसी ने सारे अंग्रेजों की हिम्मत तोड़कर रख दी।

इसी से डर के भारत छोड़कर वे लोग जब भागे।

तो भारत को मिली आजादी सेंतालीस में आगे ॥

 

यही जनक्रांति ब्यालिस की अमर जनक्रांति कहलाती।

हमारे एकता – बल – प्रेम की जो है बड़ी थाती।

हमारे राष्ट्र भारत प्रेम की अनुपम कहानी है।

 जो हमको आने वाली पीढ़ियों को भी सुनानी है।

 है हम सब एक भारत के, ये भारत प्रिय हमारा है।

 हो सारे विश्व में सुख शांति मैत्री अपना नारा है।

हमें इसको बचाना है हमें इसको बढ़ाना है।

ये पूंजी है कि जिसके बल हमें भारत को सजाना है।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #51 – दोषारोपण ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #51 ? दोषारोपण ?  श्री आशीष कुमार☆

एक आदमी रेगिस्तान से गुजरते वक़्त बुदबुदा रहा था,“कितनी बेकार जगह है ये,बिलकुल भी हरियाली नहीं है और हो भी कैसे सकती है यहाँ तो पानी का नामो-निशान भी नहीं है।

तपती रेत में वो जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था उसका गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था. अंत में वो आसमान की तरफ देख झल्लाते हुए बोला- क्यों भगवान आप यहाँ पानी क्यों नहीं देते? अगर यहाँ पानी होता तो कोई भी यहाँ पेड़-पौधे उगा सकता था और तब ये जगह भी कितनी खूबसूरत बन जाती!

ऐसा बोल कर वह आसमान की तरफ ही देखता रहा मानो वो भगवान के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो!तभी एक चमत्कार होता है, नज़र झुकाते ही उसे सामने एक कुँआ नज़र आता है!

वह उस इलाके में बरसों से आ-जा रहा था पर आज तक उसे वहां कोई कुँआ नहीं दिखा था… वह आश्चर्य में पड़ गया और दौड़ कर कुँए  के पास गया। कुँआ लाबालब पानी से भरा था। 

उसने एक बार फिर आसमान की तरफ देखा और पानी के लिए धन्यवाद करने की बजाये बोला – “पानी तो ठीक है लेकिन इसे निकालने के लिए कोई उपाय भी तो होना चाहिए !!”

उसका ऐसा कहना था कि उसे कुँवें के बगल में पड़ी रस्सी और बाल्टी दिख गयी।एक बार फिर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ! वह कुछ घबराहट के साथ आसमान की ओर देख कर बोला, “लेकिन मैं ये पानी ढोउंगा कैसे?”

तभी उसे महसूस होता है कि कोई उसे पीछे से छू रहा है,पलट कर देखा तो एक ऊंट उसके पीछे खड़ा था!अब वह आदमी अब एकदम घबड़ा जाता है, उसे लगता है कि कहीं वो रेगिस्तान में हरियाली लाने के काम में ना फंस जाए और इस बार वो आसमान की तरफ देखे बिना तेज क़दमों से आगे बढ़ने लगता है।

अभी उसने दो-चार कदम ही बढ़ाया था कि उड़ता हुआ पेपर का एक टुकड़ा उससे आकर चिपक जाता है।उस टुकड़े पर लिखा होता है –

मैंने तुम्हे पानी दिया,बाल्टी और रस्सी दी।पानी ढोने  का साधन भी दिया,अब तुम्हारे पास वो हर एक चीज है जो तुम्हे रेगिस्तान को हरा-भरा बनाने के लिए चाहिए। अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है ! आदमी एक क्षण के लिए ठहरा !! पर अगले ही पल वह आगे बढ़ गया और रेगिस्तान कभी भी हरा-भरा नहीं बन पाया।

मित्रों !! कई बार हम चीजों के अपने मन मुताबिक न होने पर दूसरों को दोष देते हैं। कभी हम परिस्थितियों को दोषी ठहराते हैं,कभी अपने बुजुर्गों को,कभी संगठन को तो कभी भगवान को।पर इस दोषारोपण के चक्कर में हम इस आवश्यक चीज को अनदेखा कर देते हैं कि – एक इंसान होने के नाते हममें वो शक्ति है कि हम अपने सभी सपनो को खुद साकार कर सकते हैं।

शुरुआत में भले लगे कि ऐसा कैसे संभव है पर जिस तरह इस कहानी में उस इंसान को रेगिस्तान हरा-भरा बनाने के सारे साधन मिल जाते हैं उसी तरह हमें भी प्रयत्न करने पर अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज़रूरी सारे उपाय मिल सकते हैं.

? दोस्तॊ !! समस्या ये है कि ज्यादातर लोग इन उपायों के होने पर भी उस आदमी की तरह बस शिकायतें करना जानते है। अपनी मेहनत से अपनी दुनिया बदलना नहीं! तो चलिए,आज इस कहानी से सीख लेते हुए हम शिकायत करना छोडें और जिम्मेदारी लेकर अपनी दुनिया बदलना शुरू करें क्योंकि सचमुच सब कुछ तुम्हारे हाथ में है !!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग -16 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 16 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी  ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆ 

(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)

(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका  हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )  

मेरी माता-पिताजी की कृपा मुझ पर कितनी है, यह आप सब जानते ही हैं। उनके मेरे पर उपकार कितने हैं उसे शब्द मैं नहीं बता सकती । मैं भी खुद को भाग्यशाली समझती हूँ, मुझे ऐसे माता-पिता मिले है।

मेरा जन्म होने के बाद दो ही महीने में मेरे मुंह पर मुस्कान की प्रतिक्रिया न आने के कारण मां के मन में चिंता की लकीर उठ गई।  उनको शक भी होने लगा और उन्हें कुछ अलग सा लग रहा था। उस वक्त दादी ने अच्छी तरह से जान लिया कि मुझमे आंखों की कुछ तकलीफ है। उनकी समझ में सब आ गया। दादी के कहने के बाद डॉक्टर की सलाह से मुझ पर इलाज शुरू हो गया। घर में मेरी बहुत देखभाल करने लगे।

मैं जैसे-जैसे बड़ी होने लगी, तब से माता-पिता जी को मालूम पड़ गया कि मैं कभी भी देख नहीं पाऊंगी, यही सच है। ऐसा नहीं सोच कर वह बताते थे मैं दृष्टिहीन हूँ, इसका अर्थ यह तो नहीं है की मैं कुछ भी नहीं कर पाऊंगी। भगवान ने उनको इतनी अच्छी बुद्धि दी थी। मुझ पर विश्वास कर तुम्हारी लड़की बुद्धि और शरीर के हर एक भाग का इस्तेमाल कर जग को जीत सकती है। मेरे माता-पिताजी ही मेरे ईश्वर है जिन्होंने कुछ कर दिखाने की हिम्मत दी और मुझे स्वावलंबन सिखाया। इसी के ही कारण में साधारण लड़की जैसी घूमने लगी। उसके साथ बुद्धि, मन, शरीर से भी तंदुरुस्त बनकर कुछ अच्छा सा करके दुनिया को दिखा दूंगी। माता-पिता जी ने मुझ में उम्मीद भर दी।

‘नृत्यांगना’ नाम से मेरी पहचान होने के बाद सभी जगह से मुझे कार्यक्रम का बुलावा आता था। ड्रेस अप करना, हेयर स्टाईल करना, अच्छा सा मेकअप करना, अच्छे से अलंकार पहनना, इतना ही नहीं मेरी मम्मी ब्यूटीशियन से भी अच्छा मेकअप करने लगी। बाहर से ब्यूटीशियन लाने की जरूरत नहीं पड़ी। आज तक हमारी यही रूटीन चल रही है।

जैसे मम्मी ने साथ दिया, वैसे ही पाठशाला की पढ़ाई में, नृत्य कला में मेरे पिताजी ने मुझे पूरा सहयोग दिया। मेरी पढ़ाई पर आंखों में तेल डाले जैसा ध्यान रखा। मुझे एक बात की याद अभी भी आती है। पिताजी की पाठशाला दोपहर १२ बजे से ५.३० तक थी। मेहनत से काम करना पड़ता था। पाठशाला में इंस्पेक्शन चालू था। मेरा नृत्य का क्लास ५ से ६ इस वक्त था। बीच का समय लेकर पापा मुझे क्लास छोड़ने आ गए। उस वक्त ही साहब को फाइल हाजिर करने का वक्त था, बहुत चिंता का काम था।

इसी तरह समाज के अन्य दिव्यांग लड़कों के माता-पिता जी के सामने मेरी मम्मी-पापाजी ने अच्छा आदर्श बना दिया। यही असलियत है। मुझ में चेतना भर दी। इसमें प्रशंसा की बात नहीं है फिर भी नामुमकिन नहीं है।

 

प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे 

मो ७०२८०२००३१

संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी,  दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 92 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 92 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं। 

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 44 ☆ मध्य प्रदेश गौंडवाना की वीरांगना दुर्गावती ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत ज्ञानवर्धक एवं ऐतिहासिक आलेख  “मध्य प्रदेश गौंडवाना की वीरांगना दुर्गावती”.)

☆ किसलय की कलम से # 44 ☆

☆ मध्य प्रदेश गौंडवाना की वीरांगना दुर्गावती ☆

मध्य प्रदेश गौंडवाना ( जबलपुर, मंडला, नरसिंहपुर, दमोह) की महारानी जिसने देशभक्ति के लिए अपने प्राणोत्सर्ग किए, उनकी वीरता के किस्से आज भी लोग दोहराते मिल जायेंगे।

गोंडवाना साम्राज्य के गढ़ा-मंडला सहित ५२ गढ़ों की शासक वीरांगना रानी दुर्गावती कालिंजर के चंदेल राजा कीर्तिसिंह की इकलौती संतान थी। महोबा के राठ गाँव में सन् १५२४ की नवरात्रि दुर्गा अष्टमी के दिन जन्म होने के कारण इनका नाम दुर्गावती से अच्छा और क्या हो सकता था। रूपवती, चंचल, निर्भय वीरांगना दुर्गा बचपन से ही अपने पिता जी के साथ शिकार खेलने जाया करती थी। ये बाद में तीरंदाजी और तलवार चलाने में निपुण हो गईं। गोंडवाना शासक संग्राम सिंह के पुत्र दलपत शाह की सुन्दरता, वीरता और साहस की चर्चा धीरे धीरे दुर्गावती तक पहुँची परन्तु जाति भेद आड़े आ गया। इसके बाद भी दुर्गावती और दलपत शाह दोनों के परस्पर आकर्षण ने अंततः उन्हें परिणय सूत्र में बाँध ही दिया। विवाहोपरांत दलपतशाह को जब अपनी पैतृक राजधानी गढ़ा रुचिकर नहीं लगी तो उन्होंने सिंगौरगढ़ को राजधानी बनाया और वहाँ प्रासाद, जलाशय आदि विकसित कराये। रानी दुर्गावती से विवाह होने के ४ वर्ष उपरांत ही दलपतशाह की मृत्यु हो गई और उनके ३ वर्षीय पुत्र वीरनारायण को उत्तराधिकारी घोषित किया गया। रानी ने साहस और पराक्रम के साथ १५४९ से १५६५ अर्थात १६ वर्षों तक गोंडवाना साम्राज्य का कुशल संचालन किया। प्रजा हितार्थ कार्यों के लिए रानी की सदैव प्रशंसा की जाती रही। उन्होंने अपने शासन काल में जबलपुर में दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल, मंत्री के नाम पर अधारताल आदि जलाशय बनवाये। गोंडवाना के उत्तर में गंगा के तट पर कड़ा मानिकपुर सूबा था। वहाँ का सूबेदार आसफ खां मुग़ल शासक अकबर का रिश्तेदार था। वहीं लालची और लुटेरे के रूप में कुख्यात भी था। अकबर के कहने पर उसने रानी दुर्गावती के गढ़ पर हमला बोला परन्तु हार कर वह वापस चला गया, लेकिन उसने दुबारा पूरी तैयारी से हमला किया जिससे रानी की सेना के असंख्य सैनिक शहीद हो गए। उनके पास मात्र ३०० सैनिक बचे। जबलपुर के निकट नर्रई नाला के पास भीषण युद्ध के दौरान जब झाड़ी के पीछे से एक सनसनाता तीर रानी की दाँयी कनपटी पर लगा तो रानी विचलित हो गयीं। तभी दूसरा तीर उनकी गर्दन पर आ लगा तो रानी ने अर्धचेतना अवस्था में मंत्री अधारसिंह से अपने ही भाले के द्वारा उन्हें समाप्त करने का आग्रह किया। इस असंभव कार्य के लिए आधार सिंह द्वारा असमर्थता जताने पर उन्होंने स्वयं अपनी तलवार से अपना सिर विच्छिन्न कर वीरगति पाई। वे किसी भी कीमत पर जिन्दा रहते हुए दुश्मन के आगे समर्पण नहीं करना चाहती थीं और मरते दम तक शेरनी की तरह मैदान में डटी रहीं। उनके शासन काल में प्रजा सुखी और संपन्न थी। राज्य का कोष समृद्ध था, जिसे आसफ खां लेकर वापस लौट गया। आज भी राज्य की सम्पन्नता के बारे में चर्चाएँ होती हैं।

गढ़ा-मंडला में आज भी एक दोहा प्रचलित है :-

“मदन महल की छाँव में, दो टोंगों के बीच।

जमा गड़ी नौं लाख की, दो सोने की ईंट।।

उक्त आलेख के साथ संदर्भित एक स्वरचित “दुर्गा का बलिदान” प्रस्तुत है:-

 

रानी दुर्गा सी दुनिया में,

पैदा होतीं यदा-कदा।

मातृभूमि पर बलि हो जाना,

याद रहेगा हमें सदा।।

वीर सिंहनी ने रण में जो,

शौर्य, वीरता दिखलाई।

चल कर अपने आदर्शों पर,

एक नई पहचान बनाई।।

दुर्गा के बलिदान दिवस पर,

दृढ़निश्चय करना होगा।

उनकी सारी स्मृतियों को,

संरक्षित करना होगा।।

उठो देशवासी सब जागो,

स्वाभिमान का स्वाद चखो।

जीवन भर कर्त्तव्यनिष्ठ बन,

धरती माँ का मान रखो।।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 91 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 91 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बात बात पर ही किया,

जब उसने प्रतिवाद।

चौके में बर्तन बजे,

     बजते जैसे नाद।।

 

कोरोना के काल से,

   मिले मुक्ति भगवान।

  बीमारी कुछ भी नहीं,   

 डरा हुआ इंसान।।

 

गली गली में शोर है,

   कैसी ये दुत्कार।

राजनीति का चक्र है,

   उनका ही व्यवहार।।

 

कवियों के दरबार में,

    नहीं बचा है आज।

भाव नहीं नेपथ्य में,

    बजे नही है साज।।

 

अदरक काली मिर्च का,

    पीते काढ़ा रोज।

 जल्दी ही लगवा रहे,

 वही वैक्सिन डोज।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 81 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 81 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

नियति चक्र रुकता नहीं, होता वह गतिमान

इसीलिए सब कहत हैं, करें समय का मान

 

करें सदा ही समय पर, अपने सारे काम

साथ समय के जो चले, उसका होता नाम

 

समय चक्र चलता रहे, बदले कभी न चाल

करता नृप को रंक वह, निर्धन मालामाल

 

सूरज निकले समय पर, नियमित उसका चक्र

देख नियति के खेल को, सबको होता फक्र

 

बापिस कभी न आ सका, गुजर गया जो काल

जीवन में “संतोष” गर, तब सुधरेंगे हाल

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 65 ☆ रानी चेन्नम्मा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्वतंत्रता संग्राम की एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित प्रेरक लघुकथा रानी चेन्नम्मा। यह लघुकथा हमें हमारे इतिहास के एक भूले बिसरे स्त्री चरित्र की याद दिलाती है।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस प्रेरणास्पद लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 65 ☆

☆ रानी चेन्नम्मा ☆

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानियाँ तो हम सबने सुनी हैं। ‘कर्नाटक की लक्ष्मीबाई’ के नाम से प्रसिद्ध है कित्तूर की रानी चेन्नम्मा। ऐसी साहसी रानी जिसने सबसे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह किया था। चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसरजा  के साथ हुआ था। कित्तूर उस समय बहुत छोटा लेकिन खूब संपन्न राज्य था। बताया जाता है कि वहाँ हीरे – जवाहरात के बाजार लगा करते थे। चेन्नम्मा अंग्रेजों के साथ – साथ अपनी किस्मत से भी दोहरी लडाई लड रही थी। बेटे की मृत्यु के दुख से वह उबर भी ना पाई थी कि पति का देहांत हो गया। अंग्रेजों की नजर बहुत समय से कित्तूर की धन संपदा पर थी । रानी चेन्नम्मा ने  शिवलिंग को गोद लेकर उसे अपने राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया। अंग्रेजों ने कित्तूर को हडपने के लिए चाल चली, उन्होंने  शिवलिंग को   वारिस मानने से इंकार कर दिया। चेन्नम्मा ने अंग्रेजों की बात नहीं मानी उसने साफ कहा कि यह हमारा निजी मामला है।

इसी बात को लेकर ब्रिटिश सेना और कित्तूर के बीच घमासान लड़ाई हुई जिसमें ब्रिटिश सेना को मुँह की खानी पडी। रानी चेन्नम्मा की सेना ने दो ब्रिटिश अधिकारियों को बंदी बना लिया। जब अंग्रेजों ने वादा किया कि अब कित्तूर के राज काज में किसी प्रकार की दखलंदाजी नहीं करेंगे तो रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया। ब्रिटिश अपनी जबान के पक्के तो थे नहीं, उन्होंने कुछ समय बाद ही पहले से भी बडी सेना के साथ कित्तूर पर धावा बोल दिया। रानी चेन्नम्मा कुशल योद्धा थी, अपनी सेना के साथ वह बडी बहादुरी से लड़ीं, लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले सेना कमजोर पड जाने के कारण वह हार गईं। उसे बंदी बना लिया गया। अंग्रेजों से लोहा लेकर उसने भारतवासियों के मन में स्वाधीनता की लौ जला दी। वह हारकर भी जीत गई।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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