श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “लघुकथा – अनमोल  पल। हम सब बच्चों को पढ़ाते लिखाते हैं और हमारा स्वप्न होता है कि वे दुनिया की सारी खुशियां पाएं । उनकी स्मृतियाँ तो स्वाभाविक हैं । अनमोल पल में अनमोल भेंट सारे परिवार के लिए सुखद है। एक संवेदनशील रचना बन पड़ी है। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 87 ☆

? लघुकथा – अनमोल पल ?

सुधीर विदेश में अच्छी कंपनी पर कार्यरत था। अपने परिवार पत्नी और दो बच्चों के साथ सम्पूर्ण सुख सुविधा के साधन बना लिए थे।

माँ  पिताजी एक शहर में अपने छोटे से घर पर रहते थे। बहुत सीधे- साधे और समय के अनुसार उनका समय जैसे – तैसे पंख लगा कर निकल रहा था। पिताजी की तबियत भी खराब होने लगी। माँ चिंता से व्याकुल और परेशान हो बेटे की राह देखने लगी, परंतु बेटा भी क्या करता अपनी जिम्मेदारी के कारण जल्दी से आ ना सका।

फिर ऐसा वक्त आया कि सदा सदा के लिए पिताजी शांत हो गए।  विदेश जाने के बाद सुधीर ने कभी घर आने की कोशिश नहीं की थी।

मोहल्ले पड़ोस वाले लोगों के साथ लोग मिलकर सभी कार्यक्रम को शांति पूर्वक किया गया । बेचारी बूढ़ी माँ बस देखती रही। बेटा भी बहुत विचलित था आखिर वह अपने पापा की इकलौती संतान और अंत समय तक नहीं पहुँच सका । उसे कुछ इसकी भी और चिंता खाए जा रही थी।

कुछ समय बाद बेटा- बहू अपने बच्चों के साथ आए तब तक सब कुछ बिखर गया था। माँ को तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वर्षों के बाद आए बेटा बहू का मुँह देखें कि अपने पति के बारे में सोचें। बेटे से लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी। पोता- पोती सब कुछ सामान्य भाव से देख रहे थे। समझ रहे था कि पापा के नहीं आने से चिंता के कारण दादा जी की मृत्यु समय से पहले हो गई और दादी उसी के कारण परेशान है।

शाम के समय सभी बैठे थे। दादी ने एक छोटा सा कॉटन वाला तकिया लाकर दिया अपने बेटे को। बेटे ने कहा… यह क्या है मम्मी ने बताया… बेटा तुम्हारे जाने के बाद पापा तुम्हारी तस्वीर के सामने  बैठकर घंटो  इस तकिए से बातें करते थे और अपना समय गुजारते थे।

उन्होंने कहा… था अनमोल पल है क्या हुआ जो बेटा हम से बाहर गया है उसकी यादें संजोए मैं इस पर टिका हुआ हूं। बेटे ने अचानक देखा अभी कुछ सिलाई कच्ची दिखाई दे रही थी।

उसने तुरंत सिलाई खोलना शुरू किया। कुछ पुराने कागजात और बैंक अकाउंट था। सारी जमा राशि और एक अच्छी लंबे चौड़ी लिखी हुई चिट्ठी थी।

बेटे ने उठाकर पत्र पढ़ा। उस पर लिखा था मेरे प्रिय बेटे मैं जानता हूँ तुम मेरे मरने के बाद आओगे तुम्हें हम दोनों से लगाव भी बहुत है परंतु मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद तुम्हारी मां को तुम किसी वृद्धाश्रम में डालकर मकान बेच कर यहाँ से सदा – सदा के लिए चले जाओ।

इसलिए मैंने जितना तुम्हारे हिस्से की साझेदारी है। सब इस पर है और हाँ मैं जो सुंदर पल तुम्हारे लिए इस तकिए के साथ बिताया हूँ वह तुम्हारा है। बाकी सभी तुम्हारी मम्मी का है।

उसे किसी प्रकार से कोई कष्ट न हो इसलिए मुझे ये करना पड़ा।

चिट्ठी को पोता भी साथ साथ पढ रहा था।  अपने पापा से बोला क्या??? सभी पापा को ऐसा करना पड़ता है।

भय और भविष्य की घटना को सोच सुधीर ने झटके से अपने बेटे को गले से लगा लिया

लैपटाप खोल  कुछ टाईप करने बैठ गया माँ ने पूछा कुछ लिख रहा है??? सुधीर ने  कहा हाँ बताता हूँ। उसने अपने ऑफिस पर एक पत्र टाईप कर अपने कार्यभार से  इस्तीफा लिखा और माँ से कहा… मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा सब यहीं पर आपके पास रहेंगे।

तुम्हारा पोता भी यहाँ रह कर पढ़ाई करेगा। मान जो अब तक जोरो से रही थी हंसते हुए बोली… मैं नाहक कि उनसे लड़ती थी इस तकिए के लिए। तकिए ने कमाल कर दिया मुझे मेरा बेटा सूद समेत लौटा दिया।

उनका अनमोल पल मुझे अब समझ आया। वे कहा… करते थे देखना यह अनमोल पल बहुत सुखद होगा। हँसते हुए माँ ने.. अपने पोते और बहू को गले से लगा लिया। बेटे के आंखों से अश्रुधार बह निकली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments