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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #186 ☆ मौन : सबसे कारग़र दवा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन : सबसे कारग़र दवा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)  ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 186 ☆ ☆ मौन : सबसे कारग़र दवा ☆ 'चुप थे तो चल रही थी ज़िंदगी लाजवाब/ ख़ामोशियाँ बोलने लगीं तो मच गया बवाल'– यह है आज के जीवन का कटु यथार्थ। मौन सबसे बड़ी संजीवनी है, सौग़ात है। इसमें नव-निधियां संचित हैं, जिससे मानव को यह संदेश प्राप्त होता है कि उसे तभी बोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन...
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #185 ☆ अपनी यही कहानी… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल (डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण कविता  “अपनी यही कहानी…”।)  ☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 185 – साहित्य निकुंज ☆ ☆ कविता - अपनी यही कहानी… ☆ ☆ तेरी मैं दिवानी अपनी यही कहानी।   मिला तेरा प्यार बीती है जवानी   साथ तेरा प्यारा प्यारी है निशानी   जिंदगी सही है जीवन है रवानी   बातें तेरी मीठी सबको है सुनानी   कहते सबको सुनते अपनी ही कहानी ☆ © डॉ भावना शुक्ल सहसंपादक… प्राची प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307 मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected] ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈...
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #171 ☆ “एक बुंदेली पूर्णिका – बड़ो  कठिन है  जो समईया…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष” (आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है - “एक बुंदेली पूर्णिका - बड़ो  कठिन है  जो समईया…”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।) ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 171 ☆  ☆ “एक बुंदेली पूर्णिका - बड़ो  कठिन है  जो समईया…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆ ☆ भैया सोच समझ  खें  बोलो तुरत न मन की  बातें खोलो ☆ बड़ो  कठिन है  जो समईया तन्नक  मिसरी  मुंह में  घोलो ☆ सबकी  करो   खूब  चिन्हारी अपनों  खों  कबहुँ  ने  तोलो ☆ जो  हांकत   थे   ढींगे   भारी वो भी  भीतर  निकरो  पोलो ☆ अबे   बखत  है   जागो  भैया नाहिन  लुटिया   खुदै  डुबोलो ☆ पीर   ...
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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #178 ☆ वटपौर्णिमेचा सण… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते कवितेचा उत्सव # 178 – विजय साहित्य ☆ वटपौर्णिमेचा सण… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆ ☆ वटपौर्णिमेचा सण दृढ करतो विश्वास सहजीवनात दोघे एक सूत्र ,एक ध्यास. . . . . ! १   वटवृक्षाच्या पारंब्या संसाराची वंशवेल. वटपौर्णिमेचा सण सुखी संसाराचा मेळ.. . . . ! २   पौर्णिमेला चंद्रकांती पूर्ण होई विकसित वटपौर्णिमेचा सण होई कांता प्रफुल्लित. . . . ! ३   कांत आणि कांता यांचे नाते नाही लवचिक वटपौर्णिमेचा सण एक धागा प्रासंगिक. . . . ! ४   भावजीवनाचे नाते वटवृक्षाचा रे घेर वटपौर्णिमेचा सण घाली अंतराला फेर. . . . . ! ५   सालंकृत होऊनीया वटवृक्ष पूजा करू सणवार परंपरा मतीतार्थ ध्यानी धरू.....! ६   पती आहे प्राणनाथ यम आहे प्राणहारी वटपौर्णिमेचा सण सौभाग्याची आहे वारी. . . . ! ७ © कविराज विजय यशवंत सातपुते सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009. मोबाईल  8530234892/ 9371319798. ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈ ...
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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २५ : ऋचा १५ ते २१  — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री   इंद्रधनुष्य  ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २५ : ऋचा १५ ते २१ — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆ ☆ ऋग्वेद - मण्डल १ - सूक्त २५ (वरुणसूक्त) – ऋचा १५ ते २१ ऋषी - शुनःशेप आजीगर्ति : देवता - वरुण  ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील पंचविसाव्या  सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ती  या ऋषींनी वरुण देवतेला आवाहन केलेले  असल्याने हे वरुणसूक्त म्हणून ज्ञात आहे. आज मी आपल्यासाठी वरुण देवतेला उद्देशून रचलेल्या पंधरा ते एकवीस या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे. मराठी भावानुवाद :: ☆ उ॒त यो मानु॑षे॒ष्वा यश॑श्च॒क्रे असा॒म्या । अ॒स्माक॑मु॒दरे॒ष्वा ॥ १५ ॥ समस्त मनुजांनी पाहिली यशोपताका यांची यशोदुन्दुभी दिगंत झाली दाही दिशांना यांची अपुल्या उदरामध्ये यांनी कीर्तीपद रचियले  त्यायोगे ते विश्वामध्ये कीर्तिमंत जाहले ||१५|| ☆ परा॑ मे यन्ति धी॒तयो॒ गावो॒ न गव्यू॑ती॒रनु॑ । इ॒च्छन्ती॑रुरु॒चक्ष॑सम् ॥ १६ ॥ किती प्रार्थना रचुन गाईल्या भक्तीप्रेमाने  त्यांच्याचिकडे  वळूनी येती किती आर्ततेने बुभुक्षीत झालेल्या धेनु घराकडे वळती अमुची अर्चना अर्पित होते यांच्या चरणांप्रती ||१६||  ☆ सं नु वो॑चावहै॒ पुन॒र्यतो॑ मे॒ मध्वाभृ॑तम् । होते॑व॒ क्षद॑से प्रि॒यम् ॥ १७ ॥ देवांनो या वेदीवरती करण्या संभाषण  तुम्ही येता करीन हवीला भक्तीने अर्पण स्वीकारुनी घेण्याला आहे हवी सिद्ध...
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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ महाविष्णूंना प्रिय आठ पुष्पे ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆

 वाचताना वेचलेले  ☆ महाविष्णूंना प्रिय आठ पुष्पे ☆ प्रस्तुती – सौ. स्मिता पंडित ☆ सुधा मूर्ती यांना त्यांच्या आजोबांनी एक श्लोक शिकवला होता. त्यात, भगवान महाविष्णूंना प्रिय असलेली आठ पुष्पे कोणती याची माहिती दिली होती. आजोबांनी अर्थासकट सांगितलेला श्लोक सुधा मूर्ती यांच्या बालमनावर ठसला. ती शिकवण आयुष्यभर आपल्या आचरणात आणून सुधा मूर्तींनी विष्णूभक्तीत कायमस्वरूपी आठ पुष्पे अर्पण केली. ती आठ पुष्पे कोणती, ते आपणही जाणून घेऊ या. अहिंसा प्रथमं पुष्पम् पुष्पम् इन्द्रिय निग्रहम् । सर्व भूतदया पुष्पम्  क्षमा पुष्पम् विशेषत:। ध्यान पुष्पम् दान पुष्पम्  योगपुष्पम् तथैवच। सत्यम् अष्टविधम् पुष्पम् विष्णु प्रसिदम् करेत ।। अर्थ : - १. जाणते-अजाणतेपणी हिंसा न करणे, अर्थात अहिंसा, हे पहिले पुष्प, २. मनावर नियंत्रण ठेवणे हे दुसरे पुष्प, ३. सर्वांवर प्रेम करणे हे तिसरे पुष्प, ४. सर्वांना क्षमा करणे हे चौथे पुष्प, ५. दान करणे हे पाचवे पुष्प,  ६. ध्यान करणे हे सहावे पुष्प,  ७. योग करणे हे सातवे पुष्प, ८. नेहमी खरे बोलणे, सत्याची कास धरणे हे आठवे पुष्प आहे. जो भक्त भगवान महाविष्णूंना ही आठ पुष्पे अर्पण करतो, तो त्यांच्या कृपेस पात्र होतो.  ही सर्व पुष्पे कुठे सापडतील? तर आपल्या देहरूपी वाटिकेत ! या सर्व...
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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ प्रतिमेच्या पलिकडले : काय भुललासी वरलिया रंगा.… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर    प्रतिमेच्या पलिकडले  ☆ प्रतिमेच्या पलिकडले : काय भुललासी वरलिया रंगा... ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆ "साहेब रागावणार नसाल तर एक सांगु का तुमास्नी ! ह्यो तुमच्या पायातल्या बुटाची जोडी बघा अस्सल चामड्याची हायं बघा... त्येला नुसतं साधं पालीस करत जा..ते जेव्हढं नरम राहिलं तेवढा बुट चांगला टिकंल नि चालताना पायाला बी लै आराम वाटंल... ते चमकणारं पालीस याला बिलकुल वापरू नगा... ते काय वरच्या वर चमकत राहतयं त्येचं काय खरं नस्तया...म्या बी साधंच पालीस करून देतू.. चालंल नव्हं तुमास्नी?.. " .. " मालक , पण तो बुट आधीच तसला, त्यातं तुम्ही त्याला साधं पालीस करायला सांगताय... मग तो चमकदार दिसणार कधी? चारचौघात माझी इमेज उठून कशी दिसेल? मालक तुमचा तो पूर्वीचा जमाना गेला, आता सारं काही दिसण्यावर जगरहाटी चाललेय !.. फॅशनबाज कपडा, चेहऱ्याला रंगरंगोटीचा मुलामा, डोक्यावरचे केसांचं कलप केलेलं टोपलं, डोळ्यावर काळा निळा चष्माची झापडं नि पायात भारी किंमतीचे ब्रॅंडेड बुट असा जामानिमा असल्याशिवाय माणूस जगात आपली छाप उमटवू शकत नाही... असा जो नाही तो आजच्या जमान्यात पुवर चॅप, मागासलेला ठरतो.....
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 152 ☆ संघे शक्ति कलौयुगे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ (ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “संघे शक्ति कलौयुगे...”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।) ☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 152 ☆ ☆ संघे शक्ति कलौयुगे... ☆ देश में जब कोई न सुने तो विदेश चले जाना चाहिए। ऐसी मानसिकता कभी सफल नहीं होती क्योंकि  जिसके पास अपनों का साथ नहीं होता उसका पराए भी साथ नहीं देते हैं। हमारे यहाँ ऐसा कहा जाता है कि जब भी घर से निकलो खाकर निकलो नहीं तो उस दिन बाहर भी खाना नहीं मिलता। ऐसा अब देखने में आ रहा...
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 217 ☆ आलेख – समकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ (प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख -समकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता...।)  ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 217 ☆   आलेख - समकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता... प्रतिबद्धता को साहित्यिक आलोचना के संदर्भ में  इस तरह समझा जाता है कि रचना के केंद्र में सर्वहारा वर्ग की उपस्थिति है या नहीं ?  अर्थात  व्यंग्यकार से यह अपेक्षा कि वह दलित, पीड़ित,  दबे, कुचले व्यक्ति या समाज के भले के लिये ही लिखे. जब ऐसा लेखन होगा तो वह सामान्यतः शासन के, सरकारों के, अफसरों और नेताओ के, पूंजीपतियों...
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #1 ☆ कविता – “सोचता हूं ये अक्सर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे ☆ कविता ☆ “सोचता हूं ये अक्सर...” ☆ श्री आशिष मुळे ☆ गुलशन इक बसता है इस नाचीज के भीतर पंछी इक उड़ता है यु आंखो से होकर   सोचता हूं ये अक्सर....   बरस जा ए फ़िरदौस तूं मेरी जन्नत बनकर कहीं बह ना जाऊं यूहीं तुम्हें खोकर   सोचता हूं ये अक्सर....   यहां ना है बादल है सूरज खिला हसकर ना है कोई दौड़ ना है शर्यत आंसू पीछे आओ छोड़कर   सोचता हूं ये अक्सर....   मन की मेरी वादिया कितनी है खुबसुरत रहो ना पल दो पल तूं मेरी होकर...   सोचता हूं ये अक्सर.... © श्री आशिष मुळे ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈...
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