हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 48 – Representing People – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की प्रथम कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 48  – Representing People – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

मेरे स्कूल युग से लेकर आज़तक के मिश्रित अनुभवों और धारणाओं के आधार पर लिखने का प्रयास रहेगा.रिकार्डेड कुछ भी नहीं, सब इंस्टेंट ही रहेगा.स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूं कि ये श्रंखला विवादों को जन्म देने या फिर किसी शख्सियत को टॉरगेट करने के लिये नहीं लिखी जायेगी. अगर आप लोग भी अपने अनुभव और विचार रखेंगे तो काफी कुछ रोचकता बनी रहेगी. विचारों में तथ्यों और सद्भाव, सहभागिता को रोचक बना सकते हैं पर अगर विवादित बनने की दिशा में बढी तो स्थगित करना विवशता होगी पर इस कारण हम सभी एक स्वस्थ्य और गंभीर विचार विमर्श से वंचित हो सकते हैं. जो अपने अतीत की भडा़स निकालने की मंशा से इस विचार श्रंखला का दुरुपयोग करना चाहेंगे, उनसे क्षमा चाहता हूँ.ये ग्रुप को घिसे पिटे रास्ते की जगह अनुभवों की सहभागिता का प्रयास है. कितना सफल होगा, याद किया जायेगा यह भविष्य ही बतलायेगा. यह चुनौतीपूर्ण तो है पर अपना पक्ष या विचार रखने का अवसर भी है. कभी कभी भीड़ के आगे चलने वालों को गलत भी समझ लिया जाता है और संवादहीनता की स्थिति, धुंध को हटा नहीं पाती.इससे पहले कि पूर्वाग्रह, भ्रमित करें, पहला भाग प्रस्तुत है.

जब मासूम बचपन घर और परिवार से बाहर निकलकर स्कूल की कक्षाओं की सीढ़ियां चढ़ता है तो उसका सामना एक अलग तरह के छात्र से होता है जिसे मॉनीटर (पहले की शब्दावली) कहते हैं. ये टीचर और छात्रों के बीच की कड़ी होता है पर टीचर की अनुपस्थिति में क्लास का अनुशासन बनाए रखने की अपेक्षा, इनसे ही की जाती है. प्रारंभिक शिक्षणकाल में ये चुने नहीं जाते बल्कि टीचर द्वारा ही नामांकित किये जाते हैं जिसका आधार टीचर की दृष्टि में होशियार होना ही होता है. इसी तरह विद्यालय की विभिन्न टीम के भी कैप्टन होते हैं जो उस खेल में प्रवीणता, प्रभावशाली छवि और टीम प्लेयर्स को टीम स्प्रिट से ऊर्जावान बनाते हुये विजय के लक्ष्य को प्राप्त करने की जीतोड़ कोशिश करते हैं. स्कूल से लेकर राष्ट्र को रिप्रेजेंट करने वाली हर टीम में एक उप कप्तान या वाईस़ कैप्टन भी होता है. उप कप्तान न केवल कप्तान को फैसलों में मदद करता है बल्कि वह टीम का भावी कप्तान भी हो सकता है. क्लास मॉनीटर से अपेक्षा तो हो सकती हैं पर इनका कोई लक्ष्य नहीं होता. स्कूलों से निकलकर जब ये पीढ़ी कॉलेज केम्पस और विश्वविद्यालय पहुंती है तो छात्र संघ नामक संस्था से संपर्क होता है. “ये वो जगह है दोस्तो” जो भविष्य की वो शख्सियत का पोषण करता है जो आगे चलकर नगर, प्रदेश और देश तथा विभिन्न सामाजिक और औद्योगिक संस्थाओं के लिये वास्तविक अर्थों में “Representing the People” का रोल निभाते हैं. जबलपुर के शरद यादव और सागर विश्वविद्यालय के रघु ठाकुर के सफर से हममें से अधिकांश परिचित होंगे.

कुछ लोग जन्मजात ही लीड करते हैं, कुछ को कुर्सियाँ लीड करने का मौका देती हैं तो कुछ पर ये लीडरशिप थोप दी जाती है. हमारे माननीय मनमोहन सिंह जी इस तीसरी श्रेणी के ज्वलंत उदाहरण हैं. भगवान कृष्ण बजपन से ही गोप गोपियों के नेता थे और महाभारत युद्ध के भी असली नायक तो वही थे. याने representing the people since childhood.अब जो कुर्सियों के कारण लोगों को रिप्रसेंट करते हैं, उनमें बहुत सारे उदाहरण मिल जायेंगे और इन लोगों को कुर्सी से हटने के बाद ही पता चलता है कि जनभावनाओं को, जन जन की शक्ति से वे आवाज़ दे नहीं पाये क्योंकि आवाज़ में समूह की शक्ति का प्रभाव नज़र ही नहीं आया. जब एक प्रभावशाली नक्षत्र स्थान से हटकर शून्य या अंधेरा उत्पन्न कर दे तो, जरूरत रिप्रसेंट करने के लिये उस शख्स की होती है जो उस खाली जगह को निर्विवादित रूप से भर दे. स्वतंत्रता संग्राम किसी एक व्यक्ति या एक विचारधारा का युद्ध नहीं था पर गांधी उस जनभावना को रिप्रसेंट कर रहे थे जो भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखना चाहती थी. उस लक्ष्य की प्राप्ति में अनेकानेक जीवन आहूतियां दी गई और उन सब की आकांक्षा भी, आने वाली पीढ़ियों को आज़ाद हिंदुस्तान की हवा में सांस लेने का मौका देना ही था.

Representing the people का अर्थ ही जन असंतोष और जन समस्याओं की नब्ज़ पहचानना, और उन्हें न्यायिक और तर्कसंगत बनाकर वहां तक ले जाना होता है जहां से इनका निदान संभव है, यही लक्ष्य है और इसे पाने के लिये बेझिझक, बिना अपने हित की चिंता किये पहला कदम बढ़ाना ही रिप्रेसेन्टिंग द पीपल की परिभाषा है. सफलता या असफलता नेतृत्व की चुनौतियां हो सकते हैं, मापदंड नहीं।अन्ना हजारे पागल नहीं थे, असफल हो गये पर भ्रष्टाचार से उपजे जनअसंतोष को उन्होंने आंदोलन की दिशा दी. जयप्रकाश नारायण ने निरंकुशता को चुनौती दी और जन असंतोष और प्रबल जन भावना के तूफानी वेग से सरकार पलट दी. “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” ये जेपी की क्षीणकाय काया की अपने युग की सबसे बुलंद आवाज़ बनी.

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 149 ☆ कैफियत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 149 ?

☆ कैफियत ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

कधी वाटते करावीच का वणवण नुसती

अखेरीस जर होतो आपण अडचण नुसती

 

तरूण असते तेव्हा असते सोशिक,साधी

पण पैशाची भासे तेव्हा चणचण नुसती

 

खस्ता खाते,पोरासाठी,घर सांभाळी

जळत रहाते ,असते ती ही सरपण नुसती

 

सुखात आहे म्हणायची ती ज्याला त्याला

अनवाणी ती,पायाखाली रणरण नुसती

 

उडून गेले पिल्लू आता घरट्या मधले

वाट पाहते डोळ्यामधली झणझण नुसती

 

खात्या मध्ये पैसाअडका पडून आहे

परी एकाकी मरते आहे कणकण  नुसती

 

 म्हातारीला काय पाहिजे कळले नाही

रात्रंदिन ती करत राहिली फणफण नुसती

© प्रभा सोनवणे

७ सप्टेंबर  २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 50 – मनोज के दोहे…. ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है   “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 50 – मनोज के दोहे …. 

1 अंतर्मन

अंतर्मन में नेह का, बिखरे प्रेम प्रकाश।

मानव जीवन सुखद हो, हर मानव की आश।।

2 ऊर्जा

शांति प्रेम सौहार्द को, सच्चे मन से खोज।

भारत की ऊर्जा यही, मन में रहता ओज।।

3 वातायन (खिड़की)

उर-वातायन खुली रख, ताने नया वितान।

जीवन सुखमय तब बने, होगा सुखद विहान।।

4 वितान (टेंट )

अंतर्मन की यह व्यथा, किससे करें बखान।

फुटपाथों पर सो रहे, सिर पर नहीं वितान।।

5 विहान(सुबह)

खड़ा है सीना तानकर, भारत देश महान।

सदी बीसवीं कह रही, होगा नवल विहान।।

6 विवान (सूरज की किरणें)

अंधकार को चीर कर,निकले सुबह विवान

जग को किया प्रकाशमय, फिर भी नहीं गुमान।। 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 121 – “व्यंग्य यात्रा” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 121 ☆

☆ “व्यंग्य यात्रा  त्रैमासिकी” – संपादक… प्रेम जनमेजय ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रेम जनमेजय जी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका  “व्यंग्य यात्रा ” पर चर्चा ।

☆ चर्चा पत्रिका की – “व्यंग्य यात्रा ”  संपादक – श्री प्रेम जनमेजय – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

व्यंग्य यात्रा  त्रैमासिकी

वर्ष १८ अंक ७१..७२ अप्रैल सितम्बर २०२२

संपादक… प्रेम जनमेजय

मूल्य मात्र २० रु

ई मेल.. [email protected]

२० रु में १५० पृष्ठो की स्थाई महत्व की विषय विशेष पर सार गर्भित सामग्री,  शार्ट में पत्रिका के रूप में किताब ही है व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी. यदि पत्रिका में प्रकाशित महत्वपूर्ण सामग्री में से  प्रेम जनमेजय जी के बरसों के संबंध, उनकी निरंतर व्यंग्य साधना हटा ली जाये तो किसी खास मुद्दे पर समर्थ रचनाकारो की इतनी सशक्त रचनायें तक, पत्रिका के अंतराल के तीन महीनों के सीमित टाइम फ्रेम में एकत्रित नहीं की  जा सकतीं. व्यंग्ययात्रा तो इस सीमित समय में छप भी जाती है और सुधी पाठको तक पहुंच भी जाती है. इसलिये १८ बरसों से निरंतरता बनाये हुये ऐसी गुरुतर पत्रिका की चर्चा करना आवश्यक है. मुझे तो लगता है कि व्यंग्य यात्रा त्रैमासिकी के हर अंक का समारोह पूर्वक विमोचन होना चाहिये, पर नहीं जो शांत काम करते हैं वे ढ़ोल तमाशे से दूर दूर ही रहते हैं.

यह अंक व्यंग्य उपन्यासों पर विशिष्ट सामग्री संजोये हुये है, तय है कि जब कोई शोधार्थी भविष्य में व्यंग्य उपन्यासो पर कोई गम्भीर काम करेगा तो इस अंक का उल्लेख किये बिना उसका लक्ष्य पूरा नही हो सकेगा.

इस अंक में मारीशस में हिन्दी व्यंग्य पर सामग्री है, पाथेय के अंतर्गत पुनर्पठनीय रांगेय राघव, बेढ़ब बनारसी, मनोहर श्याम जोशी, नरेंद्र कोहली, रवीन्द्र नाथ त्यागी, नागार्जुन, परसाई, श्रीलाल शुक्ल उपस्थित हैं. त्रिकोणीय में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर अरविंद तिवारी के उपन्यास ‘लिफाफे में कविता’ पर गोपाल चतुर्वेदी, प्रेन जनमेजय, अनूप शुक्ल, एवं नीरज दइया को पढ़ा जा सकता है. समकालीन व्यंग्यकारों की गद्य और पद्य व्यंग्य की रचनायें पठनीय हैं. प्रकाशन हेतु पारखी चयन दृष्टि के चलते ही व्यंग्य यात्रा में छपना प्रत्येक व्यंग्यकार के लिये प्रतिष्ठा कारक होता है. अनंत श्रीमाली जो हमें अनायास छोड़ गये हैं उन्हें श्रद्धा सुमन स्वरूप उनकी रचना ‘लीकेज की अलौकिक लीला’, बीना शर्मा,  प्रियदर्शी खैरा, राजशेखर चौबे, मुकेश राठौर, प्रभात गोस्वामी सहित निरंतर व्यंग्य सृजन में लगे अनेक नामचीन लेखको को इस अंक में पढ़ सकते हैं. पद्य व्यंग्य में दीपक गोस्वामी, डा संजीव कुमार, वरुण प्रभात, सुमित दहिया, नरेंद्र दीपक शामिल नामों में हैं. जिन व्यंग्य उपन्यासों में चर्चा लेख प्रकाशित हैं उनमें नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘अल्फा बीटा गामा’ पर प्रेम जनमेजय, यशवंत व्तयास के ‘चिंताघर’, ‘आदमी स्वर्ग में..’ विषणु नागर, ‘उच्च शिक्षा का अंडरवर्ल्ड,’ ‘इंफो काप का करिश्मा’, हरीश नवल के बहुचर्चित उपन्यास ‘बोगी नंबर २००३’, सुभाष चंदर के ‘अक्कड़ बक्कड़’, गंगा राम राजी के ‘गुरु घंटाल’, अर्चना चतुर्वेदी के ‘गली तमाशे वाली’, मीना अरोड़ा के ‘पुत्तल का पुष्प वटुक’, अजय अनुरागी के ‘जयपुर तमाशा’ पर गंभीर आलेख पठनीय तथा संदर्भ लेने योग्य हैं. इन नये उपन्यासों के टाइटिल देखें तो हम व्यंग्य के बदलते लक्ष्य, नये युग के सायबर कारपोरेट जगत के प्रभाव की प्रतिछाया देख सकते हैं. संपादकीय में प्रेम जी ने अंक के कलेवर की  व्याख्या और विवेचना गंभीरता से की है. बिना पूरा पढ़े अभी बस इतना ही. 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 137 – लघुकथा ☆ घड़ी भर की जिंदगी… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी  बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “घड़ी भर की जिंदगी …”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 137 ☆

☆ लघुकथा  🌿 🕛घड़ी भर की जिंदगी 🕛 

यूं तो मुहावरे बनते और बोले जाते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशेष भाषा शैली होती है और वक्त के अनुसार अलग-अलग अर्थ भी होते हैं।

किन्तु, यदि किसी की जिंदगी ही घड़ी बनकर रह जाए और अंत समय में कहा जाए… ‘घड़ी भर की जिंदगी’ तो अनायास ही आँखें भर उठती है।

अशोक बाबू का जीवन भी बिल्कुल घड़ी की तरह ही बीता। बचपन से भागते-चलते अभाव और तनाव भरी जिंदगी में एक-एक पल घड़ी के सेकंड के कांटे की तरह बीता।

सदैव चलते जाना उनके जीवन का अंग बन चुका था। अध्यापक की नौकरी मिली, गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर उन्हें जरा सा सुकून मिला। घर में किलकारियाँ गूंजी, फिर जरूरतों का सिलसिला बढ़ चला। सब की जरूरतें पूरी करते-करते आगे बढ़ते गए।

बेटा बड़ा हुआ, विदेश पढ़ाई के लिए जाना पड़ा और उसकी जरूरतों को पूरा करते गये। वह विदेश गया तो फिर लौट कर नहीं आया।

बस फिर क्या था, वही दीवाल में लगी घड़ी की टिक-टिक की आवाज उनकी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। धर्मपत्नी ने भी असमय साथ छोड़ दिया।

स्कूल में भी घड़ी देख-देख कर काम करने की आदत हो चुकी थी। पास पड़ोसी आकर बैठते पर अशोक बाबू की आंखें दिन-रात घड़ी, समय पर आती जाती रहती, शायद वह वक्त बता दे कि बेटा वापस घर आ रहा हैं।

रिटायरमेंट के बाद घर में अकेलापन और घड़ी की टिक-टिक। एक नौकर जो सेवा करता रहता था, वह भी अपने काम से काम रखता था।

आज पलंग पर लेटे-लेटे घड़ी देख रहे थे। नौकर ने कहा… बाबूजी खाना लगा दिया हूँ। कोई जवाब नहीं आया। पड़ोसियों को बुलाया गया। आंखें घड़ी पर टिकी हुई थी और घड़ी की कांच दो टुकड़ों में चटक कर गिर चुकी थी। प्राण पखेरू उड़ चले थे। आए हुए बुजुर्गों में से किसी ने कहा…. “घड़ी भर की जिंदगी, घड़ी में समाप्त हो गई”। घड़ी भी अशोक बाबू के साँसों सी  चलने लगी थीं, घड़ी चल रही थी, साँसें रुक गई थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆

शिकागो शहर को अमेरिका के नक्शे में देखा तो उसकी स्थिति वहां के मध्य भाग में मिली, जैसे हमारे देश में नागपुर शहर की हैं।

शहर के बारे में जब जानकारी मिली की यहां तो पांच बड़ी झीलें हैं। सबसे बड़ी मिशिगन झील है, जिसका क्षेत्रफल ही बाईस हज़ार वर्ग मील से भी अधिक हैं। उसकी अपनी चौपाटी (Beach) भी है। उसमें बड़े बड़े जहाज भी चलते हैं। हमारे देश में उदयपुर को झीलों की नगरी कहा जाता है। लेकिन वहां की झीलें इतनी विशाल नहीं है, जितनी शिकागो शहर की हैं। हमारे भोपाल शहर के तालाब भी कम नहीं है, और उसकी स्थिति भी देश के मध्य भाग में हैं, तो क्यों ना इस शहर को “अमेरिका का भोपाल” शीर्षक से नवाज दिया जाय।                          

शहर में प्रवेश के समय से ही शीतल हवा के झोंके महसूस हो रहें थे। जैसे हमारे देश में सावन माह की पूर्वैयां हवाएं चलती हैं। मेज़बान ने इसकी पुष्टि करते हुए बताया की शिकागो शहर को windy city का खिताब भी मिला हुआ हैं। जहां बड़ी बड़ी झीलें होंगी वहां ठंडी हवाऐं तो चलेंगी और मौसम को भी सुहाना बनाएं रखेंगीं।

शहर में सब तरफ हरियाली ही हरियाली हैं। आधा वर्ष तो भीषण शीत लहर/ बर्फबारी में निकल जाता हैं। जून माह से सितंबर तक गर्मी या यों कह ले सुहाना मौसम रहता है।

हमारे जैसे राजस्थान के भीषण गर्म प्रदेश के निवासियों को तो गर्मी के मौसम में भी ठंड जैसा महसुस हो रहा है। पता नही ठंड में क्या हाल होता होगा।

इस शहर की एक कमी है, कि चाय बहुत ही कम स्थानों पर मिलती हैं, हमारे जैसे चाय प्रेमियों को जब घूमने जाते हैं, तो चाय की बहुत तलब लगती है, तो कॉफी से ही काम चलाना पड़ता हैं। अगला भाग एक कप चाय के बाद ही पेश कर पाऊंगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #155 ☆ लोणच्याची बरणी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 155 ?

☆ लोणच्याची बरणी…

मांडणीवर ठेवलेली

लोणच्याची बरणी

टकमक पहात होती

त्या लिंबाकडं

लिंबाचंही लक्ष

होतंच तिच्याकडं

झाली दोघांची नजरानजर

हृदयाच्या घड्याळात

वाजला होता गजर

आले दोघे

लगेच भानावर

गेलं नाही ना प्रकरण

हे कुणाच्या कानावर

बरणीत उतरायची

इच्छा अनावर

मनातल्या भावनांनी पुरवला पिच्छा

सुरीनं पुरी केली त्याची इच्छा

जखमा झाल्या अंगभर

मीठ चोळलं जखमेवर

तिखट, हळद इतरांची

झाली होती युती

गरजेचीच होती

त्यांची ही कृती

धीर द्यायला आला

नंतर थोडा गूळही

आतड्याला पडलेला

होता थोडा पीळही

बरणी सोबत रहायचं

होतं काही दिवस

काही दिवसांनी करावंच

लागेल तिला मिस

हळूहळू कमी होत

चाललाय आता थर

एक दिवस सोडावच

लागणार आहे घर…

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग 7 ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆

सौ. अमृता देशपांडे

? विविधा ?

☆ डोळ्यांतले पाणी…भाग – 7 ☆ सौ. अमृता देशपांडे  

प्रत्येक विवाहित स्त्रीच्या आयुष्यातला ह्रद्य प्रसंग म्हणजे तिची लग्नाच्या दिवशी सासरी पाठवणी…ही वेळ तिच्या साठी तर कठीण असतेच, पण आईवडील,  बहीण भाऊ,  मित्रमैत्रिणी यांच्यासाठी सुद्धा कठीण असते. लेकीचं लग्न ठरलेल्या दिवसापासून तयारीत गुंतले  असताना हे सगळेजण काळजात एक हुरहुर घेऊन वावरत असतात. प्रत्येक जण प्रेम, आपुलकी,  जबाबदारी यांची वसने स्वखुशीने अंगी लेवून कार्यतयारीत  मग्न असतो. धुमधडाक्याने लग्न करायचे, कुठेच काही कमी होऊ नये,  हा एकच ध्यास असतो. त्यातून वधूबद्दलचे प्रेमच ओसंडत असते. एकदा का अक्षता पडल्या, आणि जेवणे पार पडली की इतके दिवस आवरून धरलेलं अवसान  पूर्णपणे गळून पडते आणि डोळ्यांच्या पाण्याच्या रूपाने घळाघळा वाहू लागते.  आईला लग्न ठरल्य्पासून पोटात आतडे तुटल्यासारखे वाटतेच. वडिलांनी कन्यादानात लाडक्या लेकीचा हात जावयाच्या हातात देताना थरथरत्या स्पर्शातून खूप काही सांगितले असते.मुलीकडच्या सर्वांना तिचे जन्मापासूनच आतापर्यंतचे सहवासाचे क्षण आठवत असतात.  आता इथून पुढे ती आपल्या बरोबर नसणार याचे वाईट वाटते. पण ती सासरी आनंदात रहावी ही भावनाही असते. अशी डोळ्यातल्या पाण्याची शिदोरी घेऊन सासरी गेलेली लेक तिथे फुलते, फळ ते, बहरते,  आनंदी होते.त्यातच आईवडिलांना समाधान असते. तिने सासरी समरस होऊन सासर आपलेसे करणे,  हेच आणि हेच अपेक्षित असतं त्यांना… पाठवणीच्या वेळी आलेलं डोळ्यातलं पाणी दोन्ही परिवारांच्या ह्रदयातला सेतू असतो. म्हणून लग्नात अश्रूंनी ओलीचिंब झालेली पाठवणी ही प्रत्येक धर्मात एक संस्कारच आहे. इथे अश्रू अक्षतांप्रमाणेच पवित्र आणि मंगलरूप धारण करतात.  म्हणूनच त्यांना गंगाजमुना म्हणतात.गंगाजमुना या पवित्र नद्या.  जल जेव्हां प्रवाहीत असते, तेव्हा सगळा कचरा वाहून जाऊन स्वच्छ पाणी वहात असते. वाहून न गेलेले पाणी साचलेले डबके होते. पाण्याने प्रवाहीत असणे, हाच त्याचा धर्म.  डोळ्यातून पाझरणा-या गंगाजमुना नी हा क्षण पवित्र आणि अविस्मरणीय होतो.

मराठी चित्रपट सृष्टीत या प्रसंगावरून ‘ लेक चालली सासरला, ‘ ‘ माहेरची साडी’ असे कित्येक चित्रपट वर्षोंवर्ष गर्दी खेचत होते. गीतकार पी. सावळाराम यांचं ” गंगाजमुना डोळ्यात उभ्या का, जा मुली जा दिल्या घरी तू सुखी रहा’ हे गाणं त्रिकालाबाधित आहे.  कानावर पडताच काळीज गलबलतं…स्त्रीवर्गच नाही तर प्रत्येक पुरूष ही कासावीस होतो. ” सासुरास चालली लाडकी शकुंतला, चालतो तिच्यासवे तिच्यात जीव गुंतला” हे हुंदके एका ऋषींचे…..

” बाबुलकी दुवाएँ लेती जा

जा तुझको सुखी संसार मिले

मैकेकी कभी ना याद आए

ससुरालमें इतना प्यार मिले”

हे नीलकमल या सिनेमातलं गाणं, 

हम आपके है कौन?  यातलं

” बाबुल जो तूने सिखाया,  जो तुमसे पाया,  सजन घर ले चली ” हे  गाणं किंवा हल्लीच्या “राजी”  मधलं “उंगली पकडके तुमने चलना सिखाया था ना दहलीज ऊंची है पार करा दे”

नीलकमल 1960-70 या दशकातला, हम आपके है कौन? हा सिनेमा 1990 च्या दशकातील,  तर राजी 2020 चा. साठ वर्षांच्या काळात किती तरी मोठे बदल झाले, शतक ओलांडलं,  पण या प्रसंगाची भावना तीच, आणि डोळ्यातलं पाणी ही तेच!

(क्रमशः… प्रत्येक मंगळवारी)

© सौ. अमृता देशपांडे 

पर्वरी – गोवा

9822176170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 105 – गीत – यदि मैं करता कुछ शब्दों का… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके गीत – यदि मैं करता कुछ शब्दों का…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 105 – गीत – यदि मैं करता कुछ शब्दों का✍

यदि मैं करता हूं शब्दों का उच्चारण।

सपनों का संबंध सत्य से हो जाता

यदि मैं करता कुछ शब्दों का उच्चारण।

 

अधर अधीन हुए थे लेकिन लक्ष्मण रेखा बन गया अहम

संदेहों के  लाक्षागृह      में साध लिया साधुओं ने संयम।

 

मैं समझा तुम खोज रहे हो संकोच शिफ्ट प्रश्नों का हल

किंतु दहकती रही कामना लुप्त रहा उत्तर का मृग जल।

 

तृष्णा का संबंध तृप्ति से हो जाता

यदि मैं करता संकेतों  का निर्धारण

यदि मैं करता कुछ शब्दों का उच्चारण।

 

आकांक्षा की आंख खोलकर आकर्षण ने आँजा काजल।

लेकिन विकल वयस्क दृष्टि को ज्ञात नहीं था यह सारा छल।

 

 साँस हुई  मीरा सी तन्मय ध्यान तुम्हारा आठ  प्रहर

मुग्धा थी,  बावरी हो  गई तन्मयता ने पिया  जहर।।

 

आँखों का अनुबंध रुप से हो जाता

तुम विशेष से हो जाते तब साधारण ।।

यदि मैं करता कुछ शब्दों का उच्चारण।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 107 – “कई कठिनाइयों ने…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कई कठिनाइयों ने…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 107  ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “कई कठिनाइयों ने”|| ☆

कुछ परेशानियाँ लेकर

उधार आया हूँ

साथ में मोल, दिक्कतें

दो चार  लाया हूँ

 

मुश्किलों का मुझे

बाजार में मिला ठेका

कई कठिनाइयों ने

वादा किया आने का

 

कुछेक काँटों के गुजरा

हूँ मोड़ से बेशक

कई छालों का गुमशुदा

विचार लाया हूँ

 

यहा सहूलियत से

मिलती हैं समस्यायें

आपको चाहिये तो

कृपा कर यहाँ आयें

 

लिखा था झूठ फर्म

के नियोन बोर्डों पर

उन्हीं से माँग कर

घटिया प्रचार लाया हूँ

 

रहे परिवार यहाँ कई

हजार रोगों के

कोई कहता ये तजुर्वे

है कई लोगों के

 

वो कि जिनको उदास

रहने की ही आदत है

उन्हें मायूसियाँ ही

खुशगवार लाया हूँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18-08-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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