हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 190 – शिकन – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “शिकन”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 190 ☆

🌻 लघुकथा 〰️ शिकन 〰️

माथे या ललाट पर पड़ने वाली मोटी पतली आडी़ रेखाओं को शिकन कहते हैं। आज से थोड़े पहले पुराने वर्षों में देखा जाए और सोचा जाए तो बुजुर्ग लोग बताया करते थे…. कि देखो वह साधु बाबा ज्ञानी ध्यानी आए हैं। उनके ललाट पर कई रेखाएं(शिकन) हैं। बहुत ही विद्वान और शास्त्र जानते हैं। कोई भी प्रश्न जिज्ञासा हो सभी का समाधान करते हैं।

सभी के बताए अनुसार अजय भी इस बात को बहुत ही ध्यान से सुनता था। दादी – दादा की बातों को बड़े गौर से मन में रख नौ वर्ष का बालक अपने ज्ञान बुद्धि विवेक से जान सकता था कि क्या अभी करना और क्या नहीं करना है।

परंतु बच्चों के मन में कई सवाल उठता है। पहले वह देखा करता था कि दादाजी बड़े ही खुश होकर उठते बगीचे की सैर करते और दिनचर्या निपटाकर अपने-अपने कामों में लगे सभी के साथ बातचीत करते अपना समय व्यतीत करते थे।

परंतु वह देख रहा था कि कुछ दिनों से दादा जी के माथे पर एक दो लकीरें  बनी हुई दिखाई दे रही हैं।

बच्चे ने  गौर से देखा और चुपचाप रहा परंतु देखते-देखते उनके माथे पर कई रेखाएँ/ शिकन बढ़ने लगी थी।

आज खाने की टेबल पर सभी भोजन कर रहे थे। दादाजी के माथे की ओर देख अजय दादी से कहने लगा… दादी – दादी देखो दादाजी अब ज्ञानी ध्यानी बनने लगे हैं। उनको भी बहुत सारी बातों का ज्ञान हो गया है। साधु संत बन जाएंगे।

दादी – दादा के चेहरे का रंग उड़ने लगा। अपने पोते की बातों का… कैसा अर्थ निकाल रहा है?

तभी दादाजी बोल उठे…. हाँ हांँ बेटा हम और तुम्हारी दादी अब साधु बनेंगे और यहाँ से दूर शहर के बाहर जो बगीचा वाला आश्रम है। वहाँ जाकर रहेंगे और वहाँ प्रभु भजन करेंगे।

बेटे बहु समझ नहीं पा रहे थे कि हमारी गुप्त योजना को मम्मी- पापा कैसे समझ गए और नन्हें अजय ने उसे जाने अनजाने ही कैसे पूरी शिद्दत  से बाहर कर दिया।

तभी अजय भौंहे चढ़ा कर बोल उठा… दादाजी मेरी भी एक लकीर बन रही है। अब मैं भी आपके साथ चलूँगा क्योंकि पता नहीं कब यह बहुत सारी बन जाए आपके माथे जैसी तो आप मुझे आगे – आगे बताते जाना मैं आपसे रोज कहानी सुना करूंगा।

मैं भी एक दिन विद्वान बन जाऊंगा। दादा ने गले लगाते हुए कहा – – – नहीं नहीं बेटे अभी तुम्हारी उम्र नहीं है। शिकन – – बुड्डे होने पर बनती है। इसके लिए बुड्ढा होना पड़ता है।

अजय जिद्दमें अड़ा रहा आपको देख – देख कर मेरे माथे में भी शिकन बन जाएगी। मैं तो आपके साथ ही चलूंगा।

दादा- दादी पोते को लेकर सीने से लगाए हंसते हुए रोने लगे। शायद बेटा बहू समझ चुके थे कि अब उनके माथे में लकीरें बनना आरंभ हो जाएगी। माथे को पोंछते वह जाकर मम्मी- पापा के चरणों पर झुक गया।

ना जाने क्या सोच वह गले से लग रो पड़ा। अजय ने कहा… देखो मैं भी साधु बन गया है ना दादाजी, बता दिया तो पापा रोने लगे।

दादा दादी की आँखों से अश्रु धार बहने लगी। माथे की शिकन मिटाते वे अपने बेटे बहु को गले से लगा लिये।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 81 – देश-परदेश – कुछ दिन तो गुजारो… ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 81 ☆ देश-परदेश – कुछ दिन तो गुजारो…  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दो सदियों पूर्व ये बात सदी के महनायक अभिताभ बच्चन ने लाखों बार टीवी पर आकर दोराही हैं। एक हम है, उनकी बताई गई कोई भी बात मानते ही नहीं हैं, जैसे की कल्याण ज्वेलर से सस्ता सोना खरीदने की हो या मुथूट फाइनेंस से उसी सोने को गिरवी रख कर धन जुटाने की हो। खाने में भी उनकी बताई भुजिया हो या विमल गुटका हम सेवन नहीं करते है चाहे मुफ्त में ही क्यों ना उपलब्ध हो।

विगत कुछ वर्षों से अभिताभ बच्चन गुजरात की खुशबू की बात भी नहीं कर रहे हैं। गुजरात की राजधानी अहमदाबाद की ट्रेन टिकट भी एक माह बाद की आसानी से मिल रही थी, इसका मतलब अभिताभ जी की बात का असर खत्म हो रहा हैं। लेकिन इस चक्कर में हमसे गलती से अहमदाबाद की टिकट बुक हो गई हैं।

मौसम आम चुनाव का हमेशा ही रहता है। कभी किसी राज्य, नगर निगम इत्यादि में चुनाव नहीं तो उपचुनाव हो जाते हैं। आम का मौसम भी है, जब अहमदाबाद पहुंचे तो ” केसर” आम की खुशबू से कैसे बच सकते हैं। हमारे हिसाब से तो आम के शौकीन लोगों के मद्देनजर गुजरात राज्य का नाम बदल कर ” आम प्रदेश” या फिर अहमदाबाद का नाम ” आमबाद” कर देने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

एक मित्र से जब बात हुई तो उसने बताया जबलपुर से भी अहमदाबाद की रेल टिकट आसानी से मिल है। फिर क्या वो भी पहुंच गए, अहमदाबाद!

दूर कहीं गीत बज रहा था, “जहां चार यार मिल जाएं” वहां आम का मौसम में भी खास हो ही जाता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ आभाळमाया… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– आभाळमाया – ? ☆श्री आशिष  बिवलकर ☆

रखरखते ऊन,

पिलांवर आईची सावली |

स्वतः झळा सोसून,

पिलांचे रक्षण करते माऊली |

*

आई ती आईच असते,

अगणित सोसते कळा |

तक्रार तिच्या अंगी नसते,

मातृत्वाचा जपते लळा |

*

दाही दिशा करते,

चारापाण्यासाठी वणवण |

चोचित साठवते दाणा,

उदरी करत नाही भक्षण |

*

उंच उंच झेप घेते,

जिद्द करते आकाशाशी |

कुठेही असली जगी,

चित्त तिचे पिलांपाशी |

*

स्वर्ग ही ठेंगणा वाटावा,

इतकी आईची आभाळमाया |

जीवात जीव असेपर्यंत,

पिलांसाठी झिजवते काया |

*

आईची थोरवी सांगताना,

शब्दच  पडतात अपुरे |

वासल्य सिंधू, प्रेम स्वरूप,

आईविना जीवन अधुरे |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 187 – सुनो माधवी… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – सुनो माधवी।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 187 – सुनो माधवी✍

नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य)

आह! माधवी

तुम्हारी कथा

व्यथा

वेधती है

हृदय।

अवसाद से भर उठते हैं

प्राण

मन।

तिलमिलाती है

चेतना।

होता हूँ

लज्जावनत

और दुःखी।

घेर लेता है

एक नपुंसक आवेश!

तपःपूत ऋषियों

और दानवीर, योद्धा

नरेशों के नाम,

मुँह में घोलते हैं

कड़वाहट

और सबसे अधिक

पीड़ित करता है

तुम्हारा

अनुर्वर मौन।

प्रश्न है

तुम

नारी, नदी या पाषाणी हो

माधवी ?

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 188 – “अपने जीवित होने की…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  “अपने जीवित होने की...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 188 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “अपने जीवित होने की...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

छोटी मलकिन के विवाह की

वही दहेज रही

जो घर के कोने में बैठी

टुटही मेज रही

 

घरकी अम्माने उस पर थे

पापड़ बेले भी

रखती आयी थी गृह स्वामिन

गरम तबेले भी

 

अपने जीवित होने की

ध्वनि करती बरसों से

जो अब उम्रदराज बनी

संदेशा भेज रही

 

बेशक शिशु किशोर सब

इस पर अबतक सोये हैं

अपने चिन्तन बीज जिहोने

प्रमुदित बोये हैं

 

गोया यह  पूरे घर की

सन्तानों की सुखकर

हिलती डुलती चींची

करती मधुरिम सेज रही

 

मेहमानों का प्रीति भोज

इसपर होता आया

तृप्ति और संतोष सहजता

की स्वर्णिम माया

 

इस घर के इति वृत्त कथन का

सुभग समन्वय है

दम्भऔर मिथ्यादर्शों का

जो  परहेज रही

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

25-04-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 226 ☆ “आकार रोटी का” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता  – “आकार रोटी का”)

☆ कविताआकार रोटी का☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

फ़सल कट चुकी थी,

रात भर गेहूं की बालें

भूसा बनके उड़तीं रहीं

 थ्रेसर मशीन के पेट से,

रोटी के आकार का चांद

हंसता रहा भूख के भूगोल पर

 

हंसिया चला था

जब गेहूं के गले पर

उसी वक्त से गेहूं

व्याकुल हो उठा था

अपनी मिट्टी से मिलने,

 

रंगा बिल्ला बेदर्दी से

घुसेड़ते रहे गुच्छे गेहूं के

मशीन के भूखे पेट में

 

रोटी जैसे चांद को देखकर

ऊंघता रहा अघोरीलाल

बार बार भूसे के ढेर पर,

अघोरीलाल का घुसा पेट

भूख से कुलबुला रहा था

चमकते चांद को देखकर

 

मशीन खाए जा रही थी

गेहूं के अनगिनत बोझे

मशीन से भूसा उड़ उडकर

लिपट रहा है उसी मिट्टी में

जिस जमीन पर अंकुरित

हुईं थीं ये गेहूं की बालें

 

पास ही भैंस उत्सुकता से

भूसे के ढेर को देखकर

खुशी के आंसू टपका रही थी 

और थ्रेसर मशीन को देखकर

पेट भर दुआ दे रही थी

 

चरवाहा निश्चिंत होकर

पेड़ के तने से टिक कर

आंखें मूंदे गाए जा रहा था

मशीन से गिरते गेहूं देखकर

हंस देता था रोटी के आकार पर

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 175 ☆ # “आओ हम मतदान करें ” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “आओ हम मतदान करें ”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 175 ☆

☆ # “आओ हम मतदान करें ” # ☆ 

मताधिकार पर हमें गर्व है

चुनाव लोकशाही का पर्व है

मतदान चुनाव प्रक्रिया की नर्व है

हम सब इसका गुनगान करें

आओ हम  मतदान करें

 

अपने अधिकारों को जानें

अपने कर्तव्यों को पहचानें

अपने हक को लेकर मानें

चुनाव प्रक्रिया का सम्मान करें

आओ हम मतदान करें

 

जो प्रलोभन दे, दिखायें नोट

समझ लो उसके दिल में है खोट

कभी ना देना उसको वोट

सही गलत की पहचान करें

आओ हम मतदान करें

 

भावूक होती है महिलाएं

धार्मिक मुद्दे इनको भाऐ

चतुर बाज़ भ्रम फैलायें

महिलाओं को सावधान करें

आओ हम मतदान करें

 

करो मनकी , सबकी सुनो

झूठे को ठुकराओ, सच को चुनो

लोकतंत्र के मजबूत धागे बुनो

तुम्हारी रक्षा संविधान करें

आओ हम मतदान करें

 

मतदाताओं से मेरी बिनती है

वोट अंकों की सिर्फ नहीं गिनती है

एक वोट से ही सत्ता बनती या छिनती है

वोट देकर नव निर्माण करें

आओ हम मतदान करें /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – जिंदगी का सफर…. ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘जिंदगी का सफर….’।)

☆ कविता – जिंदगी का सफर…  ☆

सफर जिंदगी का, वहां से यहां तक,

कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

सांसों की धड़कन, धड़कन से सांसें,

डगर पूछती है, ये सांसें कहां तक,

रिश्ते थे हल्के ,  जब लेकर चले थे,

वजन में थे हल्के, पर गहरे बहुत थे,

लेकर चलेंगे, चलेंगे जहां तक,

कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

नजर देखती है, सब अपनी नजर में,

मगर मन अकेला, वहां से वहां तक,

कदम पूछते हैं , यहां से कहां तक,

ऊपर बैठा, वो बाज़ीगर,

डोर हाथ में सबकी लेकर,

कहां नचाए, कहां घुमाए,

कोई न जाने, कब तक कहां तक,

कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

सफ़र जिंदगी का, वहां से यहां तक,

कदम पूछते हैं, यहां से कहां तक,

यहां से कहां तक,,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 171 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 171 ? 

☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

कृष्णाचिया गावा, मोक्ष आहे खरा

नका वाहू भारा, अन्य भक्ती.!!

*

अनन्य भक्तीचे, वळण असावे

स्व-हित कळावे, ज्याचे त्याला.!!

*

श्रद्धा समर्पावी, फुलवावा मळा

आनंदी सोहळा, प्राप्त करा.!!

*

कवी राज म्हणे, कृष्णानंद हेतू

किंतु नि परंतू, सोडूनि दया.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 239 ☆ व्यंग्य – ‘भविष्य का भूत’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – भविष्य का भूत। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 239 ☆

☆ व्यंग्य – भविष्य का भूत

उसे दिन नन्दलाल की दूकान में घुसा तो देखा एक युवक नन्दलाल की हथेली अपने हाथों में लिये उसे गौर से देख रहा है। युवक दुबला पतला था, महीने दो-महीने की दाढ़ी बढ़ाये।

मुझे देखकर नन्दलाल बोला, ‘ये राम अरदास शास्त्री हैं। हस्तरेखा के अच्छे जानकार हैं।’

मैं आदतन मज़ाक के मूड में आ गया। प्रभावित होने का भाव दिखाकर मैंने ‘अच्छा’ कहा।

वह माथे पर बल डाले नन्दलाल को बता रहा था, ‘आपको कहीं से संपत्ति मिलने का योग है। चालीस साल की आयु के बाद से आपकी स्थिति में निश्चित सुधार है। कुछ परेशानियाँ भी हैं, लेकिन हल हो जाएँगीं।’

मैं बैठा बैठा मज़ा ले रहा था। जैसे ही उसने नन्दलाल का हाथ छोड़ा, मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया। कहा, ‘कुछ अपना भी देखो,शास्त्री जी।’

वह देर तक मेरी हथेली को उलटता पलटता रहा, फिर बोला, ‘अभी तक तो आपका समय अच्छा कटा, लेकिन अगला साल कुछ गड़बड़ है। आप अँगूठी में पुखराज धारण करें।’

मैंने झूठी गंभीरता से पूछा, ‘पुखराज कितने में आएगा शास्त्री जी?’

वह बोला, ‘करीब तीन चार हजार का।’

अब मैं अपनी असलियत पर आ गया। मैंने हँसकर कहा, ‘शास्त्री जी, तीन चार हजार का पुखराज पहनने के बजाय अगर यही रकम अपने साहब की मस्केबाज़ी में खर्च करूँ तो आगे आने वाले कई साल शुभ हो जाएँगे।’

वह स्पष्टतः नाराज़ हो गया। उसका चेहरा लाल हो गया। गुस्से में बोला, ‘तो साफ साफ सुनना चाहते हैं?’

मैंने कहा, ‘सुनाइए।’

वह आवेश में बोला, ‘तो सुनिए। अगले साल के सितंबर माह तक आपके गोलोक वासी होने का योग बनता है। इसे बिल्कुल निश्चित समझिए। अपनी वसीयत वगैरह कर डालिए और तैयार हो जाइए।’

मैंने कहा, ‘और अगर मैं इस धरती पर टिका रहा तो?’

वह हाथ पटक कर बोला, ‘मैं पाँच सौ रुपये की शर्त लगाने को तैयार हूँ।’

शर्त लग गयी। नन्दलाल हम दोनों के लिए जिम्मेदार बन गया। जो हारेगा उसकी तरफ से नन्दलाल पाँच सौ रुपये जीतने वाले को देगा।

मैंने बात को गंभीरता से नहीं लिया, बल्कि उसे भूल भी गया। अगला साल भी शुरू हो गया और महीने खिसकने लगे।

जुलाई में एक दिन नन्दलाल मुझसे बोला, ‘यार, यह शास्त्री तो आजकल बहुत परेशान कर रहा है।’

मैंने पूछा, ‘क्या हुआ?’

वह बोला, ‘वह अंतरे दिन तुम्हारे स्वास्थ्य की रिपोर्ट लेने आ जाता है। पूछता है तबियत कैसी चल रही है? स्वास्थ्य पहले जैसा ही है या कुछ गड़बड़ है? तुम्हारी तबियत पर गिद्ध जैसी नज़र जमाये है।’

उसी माह में मुझे सर्दी खाँसी हो गयी। आठ दस दिन तक नन्दलाल की दूकान पर नहीं जा पाया। एक दिन सड़क की तरफ वाले कमरे में लेटा था कि एकाएक देखा कि शास्त्री खिड़की में से झाँक रहा है। मैं बाहर आया तो वह दूर जल्दी-जल्दी जाता दिखा।

एकाध बार देखा वह मुहल्ले के बच्चों से मेरे मकान की तरफ उँगली उठाकर कुछ पूछ रहा है। मुहल्ले के लोगों ने बताया कि वह अक्सर मुहल्ले में मंडराता रहता है और मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछता रहता है। ज्यों ज्यों समय बीतता जा रहा था, उसकी परेशानी बढ़ती जा रही थी।

अगस्त माह के अन्त में मेरे साले साहब की शादी पड़ गयी। बहुत दिनों से ससुराल नहीं गया था। एक महीने की छुट्टी लेकर चल दिया।

जिस दिन मुझे रवाना होना था उसके पहले दिन शाम को शास्त्री नन्दलाल की दूकान में मुझे मिला। पूछने लगा, ‘सुना है आप बाहर जा रहे हैं?’

मैंने ‘हाँ’ कहा तो वह थोड़ा रुक कर बोला, ‘ध्यान रखिएगा, यह अगस्त का महीना है। मेरे लिए पाँच सौ रुपये और प्रतिष्ठा का सवाल है। दो-तीन दिन में नन्दलाल जी के पते से पत्र देते रहिएगा। मेरा जी आपका स्वास्थ्य में लगा रहेगा।’

मैंने हँसकर कहा, ‘ज़रूर।’

ससुराल पहुँचने पर हर तीसरे दिन उसका कार्ड पहुँचने लगा— ‘प्रिय भाई, अपने स्वास्थ्य की सूचना दें। मैं बहुत उत्सुक हूँ।’

एक दिन पत्नी ने इन कार्डों का रहस्य पूछा तो मैंने उन्हें पूरा किस्सा बताया। सुनकर वे चिन्तित और कुपित हो गयीं। बोलीं, ‘तुम हमेशा उल्टे सीधे मज़ाक करते रहते हो। मुझे यह पसन्द नहीं। किसी तरह इससे पिंड छुड़ाओ।’

मैंने कहा, ‘इससे तो मर कर ही पिंड छूट सकता है।’

मैंने समझ लिया कि शास्त्री मेरे ससुराल के सारे आनन्द को किरकिरा कर देगा। उसके हर कार्ड के साथ पत्नी की नाराज़गी बढ़ती जा रही थी। हारकर मैंने विचार किया और मुक्ति पाने के लिए उसे इस प्रकार का पत्र लिखा—

‘परम शुभचिन्तक शास्त्री जी,

आपको जानकर दुख/ सुख होगा कि मैं दिनांक 6 सितंबर को शुभ मुहूर्त में इंतकाल फरमा गया। चूँकि मैं शर्त हार गया हूँ, अतः आप पाँच सौ रुपये की रकम नन्दलाल से प्राप्त कर लें। मैं उन्हें पत्र लिख रहा हूँ। किन्तु अपने इन्तकाल की बात को मैं कुछ विशेष कारणों से फिलहाल गोपनीय रखना चाहता हूँ,अतः इसे अपने तक ही सीमित रखें। शर्त जीतने के लिए बधाई।’

इसके साथ ही मैंने सारी स्थिति को समझाते हुए नन्दलाल को भी पत्र लिखा और उसे पाँच सौ रुपये शास्त्री को देने के लिए कहा।

छठवें दिन शास्त्री का जवाब आ गया। लिखा था—

‘परम प्रिय भाई जी,

आपका कृपा पत्र प्राप्त हुआ। आपके गोलोक वासी होने की बात पढ़ कर कुछ दुख हुआ लेकिन अपनी भविष्यवाणी सच होने और पाँच सौ रुपये की रक्षा हो जाने के कारण कुछ संतोष भी हुआ। आप जानते ही हैं कि यह मेरी प्रतिष्ठा का सवाल था। आप जहाँ भी रहें सुख से रहें। आप विश्वास रखें यह बात पूर्णतया गोपनीय रखी जाएगी।

आपका शुभचिन्तक

राम अरदास शास्त्री’

उसके बाद मैं ससुराल में बाकी दिन चैन से रहा। बाद में अपने शहर पहुँचने पर मेरे भूत को देखकर शास्त्री किस तरह चौंका, यह किस्सा अलग है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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