हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 16 ☆ व्यंग्य ☆ अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 16 ☆

☆ व्यंग्य – अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म ☆

एस्केप बटन दबा दिया उसने, ज़िंदगी का.

जब की-बोर्ड की सभी ‘फंक्शन कीज’ काम करना बंद कर दे, या करे तो माल-फंक्शनिंग करे, तो रास्ता सिर्फ एस्केप बटन दबाने का ही बचता है. वही चुना हैदराबाद की ऐश्वर्या ने. ऑनलाईन पढ़ाई करने के लिये उसके पास लैपटॉप था नहीं, गुरबत में गुजर कर रहे माँ-बाप खरीद कर दे पाने की स्थिति में नहीं थे.  कई बार एफ-वन दबाया मगर हेल्प न ऑनलाईन मिली न ऑफलाईन. एजुकेशन  का सिस्टम हैंग हो गया तो उसने खुद को ही हैंग कर लिया. उसके पास न रि-स्टार्ट का ऑप्शन था न रि-बूट का. स्क्रीन ब्लैंक था, क्या करती सिवाय एस्केप के.

दिल्ली के उस कॉलेज में एडमिशन हुआ था उसका जहां कट-ऑफ निनानवे प्रतिशत से नीचे नहीं जा पाता. ‘एस्केप-की’ दबाने से पहले उसने एफ-थ्री बटन दबाया ही होगा, सर्च फंक्शन, कि मिल जाये किसी तरह रास्ता एक अदद लैपटॉप पाने का. न फॉरवर्ड सर्च काम कर सका न शिफ्ट+एफ-थ्री के साथ बैकवर्ड से खोज पूरी हो सकी. ‘नॉट-फाउंड’ ने मनोबल तोड़ कर रख दिया. जो गुरबत में जीते हैं उनकी ‘एफ़-फ़ाईव-की’ काम नहीं करती, वे न चैप्टर रि-लोड कर पाते हैं न लेसन्स रिफ्रेश. ‘इन्सपायर स्कॉलरशिप’ उसके ‘कशे’ में ‘स्टोर्ड’ थी, ‘रिट्रीव’ हो नहीं सकी. मोटीवेशन का डिवाईस ड्राईवर करप्ट हो गया था. वंचितों की लाईफ में न ऑटो-सेव न ऑटो-रिकवरी की संभावनाएँ. स्टूडेंट्स से ऑनलाइन जुड़ने को कहा जा रहा है, घरों में खाने के लाले पड़े हैं – कमाल का सिस्टम है.

शिक्षा अब एक प्रॉडक्ट है श्रीमान. ‘एड-टेक’ – एजुकेशन में नया फंडा. माँ सरस्वती ने भी इसके बारे में शायद ही सुना हो. बायजूस, वेदान्तु, मेरिटनेशन – शाहरूख जैसा ब्रांड अम्बेसेडर अफोर्ड कर पाना ऐरों-गैरों-नत्थूखैरों के बस का नहीं है. एजुकेशन की लक्झरी ओनली ऑनलाइन अवेलेबल. एजुकेशन के मॉल में फटेहालों का घुसना मना है. इंटरेंस ही लाखों में, मुफ़लिसों के ‘पासवर्ड’ इनवेलिड. दो जून की रोटी का जुगाड़ डिजिटल एजुकेशन पर भारी. न एंड्रायड न डाटा, न कनेक्टिविटी न गैजेट. जिनके लिये एजुकेशन का सिस्टम बूट ही नहीं हो पा रहा वे एफ-एलेवन से फुल-स्क्रीन तो क्या कर पायेंगे. जिंदगी का मदरबोर्ड ही जब बेमकसद हो गया हो तब शिक्षा बाय डिफ़ाल्ट बेमकसद साबित हो ही जाती है. लालच के वाइरस ने एजुकेशन का ऑपरेटिंग सिस्टम करप्ट कर दिया है. जो एंटी-वाइरस लेकर उतरेंगे सड़कों पर उनकी निष्ठा पर सवाल उठाये जाएँगे – वामपंथी, देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े और क्या क्या. पॉवर्टी में लर्निंग से लर्निंग-पॉवर्टी तक का सफर है श्रीमान. आवारा बाज़ार में पूअर ‘ई-वेस्ट’ हैं, जंक अपने ही देश में. दीवारों पर मुँह चिढ़ाता ‘सर्व शिक्षा अभियान’ का विज्ञापन. कभी कृष्ण और सुदामा एक ही क्लास में पढ़ा करते थे, अब अभिजात्य को आम से ऊपर रखने का तिलिस्म है.

लॉक-डाउन ने पढ़ाई का ‘की-पैड’ गरीबों की जिंदगी में डिसेबल कर दिया है. प्राईमरी स्कूल से कॉलेज-यूनिवर्सिटी तक बायो-मेट्रिक्स डिवाईसेस लगीं हैं खाये-पिये अघाये यूजर्स की उँगलियों की छाप का मिलान हो जाये तो लॉगिन कर सकेंगे आप. शेष के लिये है ना आंगनवाड़ी, खैराती स्कूल, सरकारी कॉलेज या फिर वोई एस्केप बटन. ये सेवेन्थ जनरेशन के प्रशासन के की-बोर्ड हैं इन पर से शर्म और गैरत के बटन्स गायब कर दिये गये हैं.

बहरहाल, अब तो ‘रि-सायकल बिन’ से भी डिलीट कर दी गई है ऐश्वर्या की स्टोरी. कौन बताये कि वो परिवार पर बोझ बनाना नहीं चाहती थी इसीलिये शिफ्ट+एफ-एट प्रेस करके सेफ मोड में जाने की बजाये उसने आल्ट+एफ-फोर से सारे एप्लिकेशन क्लोज़ किये और एस्केप कर गई. जब जिंदगी का एफ-टेन ही नॉन-फंक्शनल हो तो मेनुबार का कोई ऑप्शन कैसे एक्टिवेट कर पाती. उसने दुपट्टे का एक सिरा गले के इर्द-गिर्द कसते हुवे दूसरा पंखे से बांधा और लाईफ से एस्केप का बटन दबा दिया. अफसोस कि उसका यह एक्शन ‘अन-डू’ किया भी नहीं जा सकेगा.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 75 ☆ व्यंग्य – पागुर करती गाय का चिंतन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य  “पागुर करती गाय का चिंतन“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 75

☆ व्यंग्य – पागुर करती गाय का चिंतन ☆

जाड़े का मौसम है। दांत किटकिटा रहे हैं। गंगू के घर वाले चिंतित हैं। गंगू अपने हक के लिए बीस दिन से दिल्ली के बार्डर की सड़क में कांप रहा है। दो डिग्री वाली कंपकंपाती लहर से हाथ पैर सुन्न हो गए हैं। सत्ता के लोग कह रहे हैं कि हम किसान के लिए लड़ रहे हैं पर विपक्ष इनको बरगला रहा है। सत्ता के लोग कह रहे हैं कि किसान गरीब है खेती करने के काबिल नहीं है, इसीलिए अब इनकी जमीनों में हमारे लोग खेती करेंगे। सरकार कह रही है, हम गंगू की आमदनी दोगुनी कर देंगे,पर गंगू जैसे करोड़ों किसानों को विश्वास नहीं हो रहा है क्योंकि वे कई सालों से हाथ मटका कर झूठ को सच की तरह से बोलने वाले और झटका मारकर वोट ठगने वालों से परेशान है।घर में पागुर करती गाय चिंतित हैं कि उसका मालिक अपने हक की मांग के लिए दर दर ठोकरें खा रहा है, वह घर से बीस दिन पहले गया था और अभी तक नहीं लौटा। कूं कूं करता मोती गंगू की याद में रात को रोने लगता है, गांव में कुत्ते के रोने को अपकुशन मानते हैं। बेचारी गाय अपने बछड़े को दूध नहीं पिला पा रही है, मालिक की याद में आंसू बहा रही है। इतने दिन में गाय अच्छी तरह समझ गयी है कि गाय और किसान राजनीति के लिए बनाए गए हैं। पिछली बार मंदसौर में गंगू का भाई गोली खाकर मरा था तब भी गाय रोयी थी, इस बात पर भी रोयी थी कि कुर्सी पकड़ नेता ने मरने वाले को एक करोड़ देने का फरमान मीडिया में सुनाया था,पर कलेक्टर ने कहा था कि किस मद से पैसा देंगे, घोषणा करना तो इनका जन्मजात अधिकार है।  गाय सोच रही है कि लोग भाषण में देश को कृषि प्रधान देश कहते हैं पर विपक्ष कुर्सी प्रधान देश कहता है, आखिर लफड़ा क्या है ? ये किसान फंदे पर क्यों लटकते हैं। पटवारी,आर आई, तहसीलदार का पेट किसानों से पलता है, नये नये कानून से इनके खर्चा पानी के भाव बढ़ते हैं।

जो नए कानून आए हैं, पागुर करती गाय सोच रही है ये किसानों के हक में नहीं है। नया कानून यह  भी कहता है कि यदि कोई कारपोरेट किसी किसान को धोखा देता है या उसे नुकसान पहुंचाता है तो वह किसान उस कारपोरेट के खिलाफ किसी कोर्ट में कोई केस नहीं कर सकता। यदि किसी देश के लोगों से कोर्ट में जाने का अधिकार ही छीन लिया जाए तो इसका मतलब है आपने पूरी कानून व्यवस्था और न्याय पाने का जो संवैधानिक अधिकार है उसे कुचल दिया है । इस नए कानून में लिखा है कि किसान कारपोरेट की शिकायत लेकर एसडीएम के पास जाएगा। एसडीएम साहब उस विशालकाय कारपोरेट चाहे वह कोई भी हो उसके खिलाफ मुकदमा सुनेंगे और फैसला देंगे।

गाय हंस रही है बेचारे एसडीएम पर। एक एसडीएम ऐसे कारपोरेट जिनके कहने से भारत सरकार नीतियां बनाती हो, कानून बदलती हो, वह उनके खिलाफ फैसला दे पाएगा? एसडीएम छोटा अफसर होता है, उसके आसपास के नेता उससे वसूली करते हैं,उसकी बीबी उससे हीरे-जवाहरात जड़े हार की मांग करती है,वह कारपोरेट से थर-थर कांपता रहता है क्योंकि कारपोरेट वाले को उसकी भी चिंता है। किसान का क्या है 14 करोड़ से ज्यादा किसान हैं इस देश में। सब ऐन वक्त पर नेतागिरी पर उतारू हो जाते हैं। आन्दोलन करने की इनकी आदत बन गई है……

अचानक इस खबर को सुनकर गाय की पागुर रुक गई, खबर आयी है कि उसका मालिक गंगू ठंड खाकर मर गया है………

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
(टीप- रचना में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।)
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 78 ☆ व्यंग्य – समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना’।  बचपन से पढ़ा था कि- जहाँ न पहुंचे ‘रवि’, वहां पहुँचे ‘कवि’। अब तक किसी ने लिखा नहीं, इसलिए लिख रहा हूँ कि – जहाँ न पहुँचे ‘सरकार’,वहाँ पहुँचे ‘व्यंग्यकार’। आशा है इस शीर्षक से कोई न  कोई, कुछ तो लिखेगा। अब इसके आगे लिखने नहीं डॉ  परिहार जी  के व्यंग्य को पढ़ने की जरुरत है। इस सार्थक व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 78 ☆

☆ व्यंग्य – समाज-सुधार की क्रान्तिकारी योजना

अभी हाल में राजधानी में एक बड़ी हृदयविदारक घटना घट गयी। तीन चार पिता अपने होनहार पुत्रों को नौकरी में लगवाने के इरादे से संबंधित डिपार्टमेंट में चालू रिश्वत के रेट का पता लगाने गये और रेट की घोषणा होने पर उनमें से दो ‘कोमा’ में चले गये और बाद में उनमें से एक की ज़िन्दगी मेंं ‘फुल स्टॉप’ लग गया।

इस दुर्घटना पर भारी हंगामा मच गया और विरोधी पार्टियों ने बात संसद में उठा दी कि सरकार रिश्वत के धक्के से मरने वालों की समस्या की तरफ पूरी तरह उदासीन है। इस तोहमत को धोने के लिए सरकार ने फटाफट एक कमेटी बना दी कि समस्या का गहराई से अध्ययन करे और तीन महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे।

कमेटी ने तीन महीने के बजाय छः महीने में अपनी 848 पेज की रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें समस्या के हर पहलू का बारीकी से अध्ययन किया गया। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत के संविधान में नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिये गये हैं उनमें नौकरी में बराबरी का अधिकार और जिन्दा रहने का अधिकार शामिल हैं, लेकिन रिश्वतखोरी इन दोनों को चाँप कर बैठ गयी है। कमेटी ने माना कि हमारे महान मुल्क में रिश्वतखोरी एक संस्था का रूप ले चुकी है और हमारे राष्ट्रीय वजूद में कुछ ऐसे पैवस्त हो गयी है जैसे मजनूँ के वजूद में लैला पैवस्त हो गयी थी। हालत ये है कि अगर इस ज़हरीले काँटे को निकालने की कोशिश की गयी तो काँटे के साथ मरीज़ की जान निकलने का ख़तरा पैदा हो सकता है।

कमेटी ने बड़ी चिन्ता के साथ लिखा कि रिश्वतखोरी ने हमारे मुल्क में बड़े पैमाने पर गैरबराबरी और अन्याय पैदा कर दिया है। जिनके पास रिश्वत देने के लिए पैसा है वे अच्छी अच्छी नौकरियाँ हथया लेते हैं और इस मुल्क के जो सपूत प्रतिभाशाली लेकिन गरीब हैं वे नौकरी के कारवाँ को गुज़रते हुए देखते रह जाते हैं। नौकरियों के सिकुड़ने के साथ उन्हें हासिल करने के रेट इतने ऊँचे हो गये हैं कि काला पैसा कमाने वाले पुरुषार्थी ही उन्हें क्रय कर पाते हैं।

कमेटी ने लिखा कि समस्या का दूसरा पहलू यह है कि जिनके पास रिश्वत का पैसा पहुँचता है वे अपनी औलादों के लिए अच्छी नौकरियाँ खरीद लेते हैं और इस तरह उनकी आगे आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुनहरा और सुरक्षित हो जाता है। जिन बापों के पास नौकरियाँ खरीदने के लिए पैसा नहीं होता या जिन्होंने अपनी नौकरी में मौकों का फायदा नहीं उठाया, उनकीऔलादें कुछ दिनों के लिहाज के बाद उन्हें खुल्लमखुल्ला नाकारा और नालायक कहने लगती हैं, जिससे परिवार और समाज में अशान्ति का वातावरण पैदा होता है।

समस्या पर पूरा विचार करने के बाद कमेटी इस नतीजे पर पहुँची कि आम आदमी को रिश्वतखोरी से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए कुछ ऐसे कदम उठाये जाएं कि साँप भी मर जाए और लाठी भी सलामत रहे, यानी रिश्वतखोरी की संस्था भी बची रहे और आम आदमी में उसके धक्के को झेलने की ताकत पैदा हो सके। इस लिहाज से कमेटी ने कई बहुमूल्य सुझाव दिये, जिनमें से ख़ास ख़ास नीचे दिये गये हैं—–

रिश्वत-ऋण की व्यवस्था करना:-

कमेटी ने यह क्रांतिकारी सुझाव दिया कि जिस तरह मँहगी शिक्षा को झेलने के लिए छात्रों को शिक्षा-ऋण की व्यवस्था की गयी है, उसी तरह रिश्वत देने के लिए ऋण की व्यवस्था की जाए ताकि कोई नागरिक ज़िन्दगी के अच्छे मौकों से महरूम न रहे। शिक्षा-ऋण की व्यवस्था इसलिए की गयी है कि ऊँची फीस की वसूली मेंं बाधा न पड़े और छात्रों का दिमाग विरोध की दिशा में न भटके। इसी तरह रिश्वत-ऋण की व्यवस्था सब राष्ट्रीयकृत बैंकों में हो।

इसके लिए प्रक्रिया ऐसी होगी कि व्यक्ति ऋण-आवेदन मेंं रिश्वत देने के उद्देश्य, रिश्वत लेने वाले कर्मचारी/अधिकारी का नाम और विभाग, तथा माँगी गयी रकम का ब्यौरा देगा। साथ ही फार्म पर रिश्वतखोर कर्मचारी/अधिकारी इस बात की तस्दीक करेगा कि उल्लिखित रकम सही है। वह यह वचन भी देगा कि जिस काम के लिए रिश्वत ली जा रही है वह एक समय-सीमा के भीतर पूरा होगा। यह इसलिए ज़रूरी है कि रिश्वत की रकम ज़ाया न हो। यदि रिश्वतखोर अफसर समय-सीमा में काम नहीं करता तो फिर उस पर आई.पी.सी. के तहत रिश्वतखोरी और चारसौबीसी की कार्यवाही की जा सकेगी। वादा पूरा करने पर उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होगी।

कुछ वर्गों के लिए ऋण मेंं सब्सिडी:-

कमेटी ने यह सुझाव दिया कि कुछ वर्गों को रिश्वत-ऋणों मेंं सब्सिडी की सुविधा दी जाए। ये वर्ग विद्यार्थी, महिलाएं, वरिष्ठ नागरिक, और गरीबी-रेखा से नीचे वाले हो सकते हैं। इनके द्वारा लिये जाने वाले रिश्वत-ऋणों का पचास प्रतिशत भार सरकार के द्वारा वहन किया जाए।

अन्य क्षेत्रों में विस्तार:-

कमेटी ने यह सुझाव दिया कि कालान्तर मेंं इस ऋण सुविधा का विस्तार दहेज आदि के क्षेत्रों में भी किया जाए, अर्थात दहेज देने के लिए भी बैंक ऋण प्राप्त हो।
वजह यह है कि सारी वीर-घोषणाओं और कानूनों के बावजूद हमारे धर्म-प्रधान देश में दहेज-प्रथा दिन-दूनी रात-चौगुनी फल-फूल रही है और दहेज की रकम हजारों से बढ़कर करोड़ों में पहुँच गयी है। बैंकों से दहेज-ऋण प्राप्त होने लगे तो जो लोग अपनी कन्या की ‘स्तरीय’ शादी करना चाहते हैं उनकी मुराद पूरी होगी और शादी के बाद लड़कियों को होने वाले कष्ट कम होंगे। तब शादी के दरमियान कन्या के पिता को अपनी पगड़ी वर के पिता के चरणों में रखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, और इस तरह के दृश्य भारतीय फिल्मों से गायब हो जाएंगे।

सावधानियाँ:-

कमेटी ने यह भी टिप्पणी की कि रिश्वत-ऋणों के क्रियान्वयन में पर्याप्त सावधानियाँ बरती जाएं। ऐसा न हो कि रिश्वत देने वाले और लेने वाले आपस में गुप्त समझौता करके बैंकों और सरकार का मुंडन करने लग जाएं। इस लिए हर बैंक में छानबीन समिति बनायी जाए जो रिश्वत-ऋणों पर कड़ी नज़र रखे और उनका सही उपयोग सुनिश्चित करे।

कमेटी ने अन्त में लिखा कि उसे पूरा भरोसा है कि इन क्रान्तिकारी कदमों से भारतीय समाज की बहुत सी बुराइयों का अन्त हो सकेगा और आम आदमी सुकून की ज़िन्दगी जी सकेगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #86 ☆ व्यंग्य – अतिथि देवो भव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक  व्यंग्य  ‘अतिथि देवो भव . इस सार्थक एवं अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 86 ☆

☆ व्यंग्य – अतिथि देवो भव ☆

मुझे बचपन से मेहमानों की बड़ी प्रतीक्षा रहती थी कारण यह था कि जब मेहमान आते हैं  तो कुछ ना कुछ गिफ्ट, फल,  मिठाई  लेकर आते हैं और मेहमानों के जाते वक्त भी मुझे उनसे    कुछ नगद रुपये भी मिलते थे। मिडिल स्कूल में संस्कृत पढ़ने का अवसर मिला।  संस्कृत में मेहमानों को अतिथि देवो भव के रूप में वर्णित किया गया है।

सारी टूरिज्म इंडस्ट्री, होटल इंडस्ट्री, और हवाई यात्रा इंडस्ट्री मेहमान नवाजी के आधारभूत सिद्धांत पर टिकी हुई है।  बड़े-बड़े विज्ञापन देकर मेहमान बुलाए जाते हैं उनकी खूब खातिरदारी की जाती है, और उनसे भरपूर वसूली की जाती है। मजे की बात है कि इस अपनेपन से मेहमान खुशी खुशी लुट कर भी और खुश होता है। ठीक वैसे ही जैसे साधु संतों के आश्रम में या मंदिर में दान कर के भी भक्त खुश होते हैं।

बड़े राजनीतिक स्तर पर मेहमान नवाजी को डिनर पॉलिटिक्स कहा जाता है। डिनर की भव्य टेबल पर पहुंचने तक रेड कार्पेट से होकर मेहमान को गुजारा जाता है। उसके स्वागत में कसीदे पढ़े जाते हैं। डिनर के साथ संगीत और संस्कृति का प्रदर्शन होता है।मेहमान भले ही दो निवाले ही खाता है किंतु उस भोज की व्यवस्था में बड़े-बड़े अधिकारी जी जान से लगे होते हैं। क्योंकि मेहमान की खुशमिजाजी पर ही उससे मिलने वाली गिफ्ट निर्भर होती है। कई बार तो सीधे तौर पर भले ही कोई लेन-देन ना हो किंतु कितना बड़ा मेहमान किसके साथ बैठकर कितनी आत्मीयता से बातें करता है,  यही बात राष्ट्रीय सम्मान की या  व्यक्ति के सम्मान की  द्योतक बन जाती  है। मेहमान के कद से रुतबा बढ़ता है।

बारात खूब मेहमान नवाजी करती है और लौटते हुए दुल्हन साथ ले आती है। गावों में या मोहल्ले में किसके घर किसकी उठक बैठक है, इससे उस व्यक्ति की हैसियत का अंदाजा लगाया जाता है, शादी ब्याह तय करने में, खेत खलिहान की खरीदी बिक्री में यह रूतबा बडा महत्वपूर्ण होता है।शायद  इसलिए ही मेहमान को देवता तुल्य कहा गया होगा।

मेहमान भी भांति भांति के होते हैं कुछ लोग बड़े ठसियल किस्म के मेहमान होते हैं जो तू मान ना मान मैं तेरा मेहमान वाले सिद्धांत पर ही निर्वाह करते हैं। मेरे एक मित्र तो अपने परिचय का दायरा ही इसिलिये इतना बड़ा रखते हैं कि जब भी वह किसी दूसरे शहर में जाएं तो उन्हें होटल में रुकने की आवश्यकता ना पड़े। कोई न कोई मित्र उनके मोबाईल में ढूंढ़ कर वे निकाल ही लेते हैं, जो उन्हें स्टेशन से ले लेता है और मजे से दो एक दिनों की मेहमानी करवा कर स्टेशन तक वापस छोड़ भी देता है।

तो परिचय का प्रेम व्यवहार का दायरा बढ़ाते रहिये, मेहमान नवाजी कीजिये, करवाइये।

अतिथि देवो भव।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 46 ☆ जुगाड़ की जननी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जुगाड़ की जननी”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 46 – जुगाड़ की जननी ☆

इसी जद्दोजहद में जीवन बीता जा रहा है कि सम्मान कैसे मिले। सड़क पर लगे हुए बैनर मुँह चिढ़ाते हैं। कि देखो जिनके साथ तुम उठना – बैठना पसंद नहीं करते थे वो कैसे यहाँ बैठकर  तुम्हें घूर रहे हैं। शहर के सारे नेता अपना कार्य छोड़ कर इस बैनर में बैठकर आने – जाने वालों की निगरानी कर रहे हैं।

विज्ञापनों की भरमार के बहुत से होर्डिंग चौराहों की शोभा बढ़ाते हैं। हीरो – हीरोइन वाले पोस्टर अब कोई नहीं देखता।

कुछ पोस्टर, बैनर, प्रेरणादायक होते हैं, जिन्हें देखकर कार्य करने की इच्छा जाग्रत होती है। जब आपकी फ़ोटो और नाम उसमें अंकित हो तो आपमें अहंकार का भाव अनायस ही उत्पन्न हो जाता है। परंतु यदि आप बैनर से नदारत हैं तब तो मानो ऐसा लगता है कि किसी ने सोए हुए शेर को जगा दिया हो। आप दहाड़ते हुए अपनी माँद से निकल कर पूरे परिवेश को अशांत कर देते हैं।

आखिर नए छोकरों की इतनी हिम्मत कि मुझे नजरअंदाज करे, तभी छठी इन्द्रिय कह उठती है, जरूर ये साजिश किसी ऊँचे स्तर पर हुई है। आखिर मेरे व्यक्तित्व की चकाचौंध को कौन नहीं जानता। मेरे प्रभाव को कम करने की हिम्मत करने वाले को राह से बेराह करना ही होगा। कैसे प्रभाव बढ़ाया जाए ये चिंतन ही नए कार्यों की रूप रेखा तैयार कर देता है। आवश्यकता ही अविष्कार जी जननी है, लगता है ये कथन ऐसे ही मौकों के लिए बनाया गया है। बस अब शुरुआत होती है अपनी अवश्यकता को सोचने और समझने की। यदि व्यक्ति बुद्धिमान है तो जोड़- तोड़ के सैकड़ों उपाय ढूढ़ते हुई आखिर में, सम्मान पाने का अविष्कार कर ही लेता है।

मन ही मुस्कुराते हुए वो भगवान धन्यवाद कहता है। और सोचता है अच्छा ही हुआ जो पोस्टर के कोने तक में जगह नहीं मिली। अब मैं अपना व्यक्तिगत पोस्टर बनवाउंगा और इन सारे लोगों से प्रचार – प्रसार करवाऊंगा, बड़े आए मुझे रास्ते से हटाने वाले।

अब तो जुगाड़ूराम का डंका चहुँओर बजने लगा, हर बार कोई नई स्कीम लॉंच करते और पोस्टर पर चिपके हुए मुस्कान बिखरते।  उन्हें वही फीलिंग होती मानो वे सरकार बदलने का माद्दा रखते हों, जैसे छोटे क्षेत्रीय दल या निर्दलीय विधायक ही, गठबंधन सरकार को अपने काबू में रखते हैं। सरकार बदलने की शुरुआत छोटे स्तर से ही शुरू होती है। कहते हैं अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता पर ये क्या? यहाँ तो थोथा चना बजे घना भी घनघना उठता है,और अपने लिए एक कुर्सी का जुगाड़ करके ही मानता है। इस चक्कर में देशवासियों का भले ही घनचक्कर बन जाए पर वे तो सत्ता की बागडोर अकेले ही लेकर चलेंगे। और टुकड़े- टुकड़े के लिए जनता के हितों का भी टुकड़ा करने से नहीं हिचकेंगे।

तभी अंतरात्मा से आवाज आती है कि हर युग में कर्म ही प्रमुख रहा है, आप की पूछ – परख यदि कम हो रही है तो इसका अर्थ है आपकी उपयोगिता नहीं बची है। आप कार्य पर ध्यान दीजिए, स्वयं को समय के अनुसार अपडेट करते चलें, कोई नयी योजना पर कार्य करते हुए पुनः सफलता का परचम फहराएँ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 77 ☆ व्यंग्य – कायदे का काम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘कायदे का काम’।  वैसे काम सभी कायदे से ही होते हैं। अब यदि एहतियातन घोषणा कर दी जाये कि सभी काम कायदे से होंगे तो इतना कन्फ्यूज़न क्यों है ? भला कभी कायदे से काम हुआ भी है। इस विशिष्ट व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 77 ☆

☆ व्यंग्य – कायदे का काम

मंत्री जी ने अपने विभाग में अधाधुंध नियुक्तियाँ कीं। जब सरकार गिरी तो जाँच पड़ताल में बात सामने आयी कि लाखों का लेनदेन हुआ। पत्रकारों ने पूर्व मंत्री जी से पूछा तो उन्होंने हथेली पर तम्बाकू ठोकते हुए इत्मीनान से जवाब दिया, ‘सब बकवास है। हमने तो जनसेवा की है। हजारों लोगों को रोजगार दिया है। हवन करने में घी चुराने का आरोप लग रहा है। विरोधियों को शिकायत है तो जाँच करा लें।’

उधर पूर्व मंत्री जी के द्वारा नियुक्त नये कर्मचारियों का एक विशेष सम्मेलन हुआ जिसमें सभी ने शपथ ली कि किसी भी हालत में और किसी भी दबाव में यह स्वीकार नहीं करना है कि उन्होंने नौकरी के लिए कोई रिश्वत दी, अन्यथा लगी लगाई नौकरी छूट सकती है। सम्मेलन में पूर्व मंत्री जी को धन्यवाद दिया गया और यह कामना की गयी कि वे बार बार मंत्री बनें और बार बार इसी तरह बेरोज़गारी हटाने की मुहिम चलायें।

नये मंत्री ने शपथ लेते ही घोषणा की कि अब सब काम कायदे से और पारदर्शी तरीके से होगा और जो कर्मचारी कायदे के खिलाफ जाएगा उस पर सख्त अनुशासनात्मक कार्यवाही होगी।

घोषणा होते ही विभाग के हलकों में चर्चा शुरू हो गयी कि कायदे से काम का मतलब क्या है। अनेक टीकाकारों ने कायदे से काम के अनेक अर्थ प्रस्तुत किये। लोगों की शंका यह थी कि क्या अभी तक काम कायदे से नहीं होता था? जब फाइलें बाकायदा चली हैं और जब उनमें बाकायदा टीपें दी गयी हैं तो काम कायदे से कैसे नहीं हुआ?

तब विभाग के आला अफसर ने दोयम दर्जे के अफसरों को एक दिन बताने की कृपा की कि कायदे से काम का मतलब यह है कि नियुक्तियों और दूसरे कामों में कोई लेन-देन नहीं होगा, और जो अधिकारी या कर्मचारी मुद्रा या वस्तु के रूप में घूस लेगा उसे बिना रू-रियायत के पुलिस को सौंप दिया जाएगा, उसके बाद भले ही वह घूस देकर छूट जाए।

बात आला अफसर से चलकर नीचे तक आयी और पूरे विभाग में फैल गयी। फिर विभाग से चलकर पूरे प्रदेश में फैल गयी। चिन्तित चेहरे सड़कों पर घूमने लगे। यह कायदे का काम क्या होता है? क्या अब पुराने कायदे से काम बिलकुल नहीं होगा? विभाग के सभी दफ्तरों में लोग आ आकर पूछताछ करने लगे। जो

पढ़ने-लिखने में थोड़ा पिछड़े, लेकिन धन-संपत्ति के मामले में अगड़े हैं, उनकी नैया अब कैसे पार होगी? क्या सिर्फ योग्यता ही नौकरी का आधार बन कर रह जाएगी?
लोग विभाग के कर्मचारियों से हमदर्दी जताने लगे—‘हमें अपनी परवाह नहीं है। हमारा जो होगा सो होगा। इस विभाग में नौकरी नहीं लगी तो दूसरे में लगेगी। लेकिन आपका और आपके बाल-बच्चों का क्या होगा?’ सुनकर अधिकारियों-कर्मचारियों की आँखों से अश्रु प्रवाहित होने लगे। हमदर्द उनकी दुखती रग छू रहे थे। बहुत से काम रुके पड़े हैं। किसी को मकान की तीसरी मंजिल बनानी है तो किसी को पुत्री की शादी में दस लाख खर्च करना है। किसी ने साले के नाम से ट्रक खरीदने की योजना बनायी है। कायदे से काम हुआ तो सब काम रुक जाएंगे।

दुख का आवेग बढ़ा तो कर्मचारियों के आँसुओं से फाइलें गीली होने लगीं। विभाग ने तुरन्त आदेश जारी किया कि सभी फाइलों पर तत्काल प्लास्टिक के कवर चढ़ा दिये जाएं।

कायदे से काम वाला आदेश ज़ारी होने के एक महीने के भीतर तीन चार कर्मचारी फूलपत्र लेते हुए पकड़े गये और मुअत्तल कर दिये गये। वे ऐसे आसानी से पकड़ लिये गये जैसे कोई शिकारी घायल पक्षी की गर्दन पकड़कर ले जाता है। वजह यह थी कि उन्हें अभी कायदे से काम करना नहीं आया था। बहुत से ऐसे थे जो बुढ़ापे में राम-राम बोलना सीख ही नहीं सकते थे।

‘कायदे से काम’ लागू होने से जनता कुछ प्रसन्न हुई। चार छः जगह नये मंत्री जी का अभिनन्दन हुआ, तारीफ हुई। लेकिन विभाग की हालत चिन्ताजनक हो गयी। अफसरों-कर्मचारियों की जैसे जान निकल गयी थी। दफ्तरों में मनहूसी फैल गयी। काम करने के लिए किसी का हाथ ही नहीं उठता था। कर्मचारी उदास चेहरा लिये धीरे धीरे दफ्तर में आते और मेज़ पर सिर टिकाकर बैठ जाते। कुछ मुर्दों की तरह बाहर पेड़ों के नीचे पड़े रहते। आला अफसर परेशान थे। किस किस के खिलाफ कार्रवाई करें?कर्मचारियों से कुछ कहते तो वे आँखों में आँसू भरकर जवाब देते, ‘क्या करें सर!हाथ में जान ही नहीं रही। शरीर लुंज-पुंज हो गया है। जो सजा देनी हो दे दीजिए। जो भाग्य में होगा, भोगेंगे।

मंत्री जी के पास रिपोर्ट पहुँची कि ‘कायदे से काम’ वाला आदेश लागू होने से कर्मचारियों के मनोबल में भारी गिरावट हुई है। दफ्तरों में उत्पादकता पहले से आधी भी नहीं रह गयी है। पहले जो काम एक दिन में पूरा होता था वह अब दस दिन में भी नहीं होता। अफसरों कर्मचारियों में प्रेरणा का पूर्ण अभाव हो गया है।

मंत्री जी ने चिन्तित होकर दौरा किया तो पाया कि विभाग के ज़्यादातर कार्यालय श्मशान जैसे हो गये हैं। सब तरफ धूल अंटी पड़ी है। हवा चलती है तो सब तरफ धूल उड़ती है। फाइलों पर मकड़जाले बन गये हैं। चूहे धमाचौकड़ी मचाते घूमते हैं। कमरों में कुत्ते सोते हैं, उन्हें कोई नहीं भगाता। कोई काम न होते देख जनता ने आना बन्द कर दिया था।

मंत्री जी ने हर कार्यालय में मीटिंग की। कर्मचारी धीरे धीरे आकर सिर लटकाये बैठ गये। मंत्री जी ने ‘कायदे से काम’ के फायदे गिनाये तो वे ऐसे सिर हिलाते रहे जैसे मुर्दों में बैटरी लगी हो। मंत्री जी मुर्दों को संबोधित कर, परेशान होकर उठ गये। कर्मचारी फिर धीरे धीरे चलते हुए अपनी कुर्सियों पर सिर लटकाकर बैठ गये।

दफ्तरों की चिन्ताजनक हालत की खबर अखबारों में छपी। मुख्यमंत्री जी ने मंत्री जी को तलब किया। उनकी ‘कायदे से काम’ की योजना की बखिया उधेड़ी। जब कोई काम ही नहीं होता तो कायदे से काम का क्या मतलब?मंत्री जी को हिदायत दी गयी कि किसी भी कीमत पर विभाग की कार्यक्षमता बढ़ायी जाए, अन्यथा उनका पोर्टफोलियो बदल दिया जाएगा।

दूसरे दिन आला अफसर को गोपनीय सन्देश गया कि भविष्य में लकीर का फकीर होने के बजाय व्यवहारिक हुआ जाए और एक महीने के भीतर विभाग की कार्यक्षमता पुराने स्तर पर लायी जाए। अफसरों कर्मचारियों ने सन्देश के भीतर निहित सन्देश को पढ़ा और गुना, और फिर कुछ ही दिनों में दफ्तरों की धूल छँटने लगी। चूहों कुत्तों को अन्यत्र शरण लेने के लिए हँकाला जाने लगा। कर्मचारियों के शरीर में जान और मुख पर मुस्कान लौट आयी। जनता फिर दफ्तरों के काउंटरों पर दिखायी देने लगी।

विभाग के सभी दफ्तरों में कर्मचारियों ने मीटिंग करके मंत्री जी को अपनी नीति में व्यवहारिक परिवर्तन करने के लिए धन्यवाद दिया और उन्हें विश्वास दिलाया कि वे अब निश्चिंत होकर सब कुछ कर्मचारियों पर छोड़ दें और देखें कि कर्मचारी अब विभाग को कहाँ से कहाँ पहुँचा देते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #85 ☆ व्यंग्य – रामभरोसे का कोविड वैक्सीनेशन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक समसामयिक व्यंग्य  ‘रामभरोसे का कोविड वैक्सीनेशन’ इस सार्थक एवं अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 85 ☆

☆ व्यंग्य रामभरोसे का कोविड वैक्सीनेशन ☆

मियां अल्लारख्खा, रामभरोसे जी का उर्दू संस्करण हैं. दोनो ही गरीबी की रेखा से नीचे वाले  राशन कार्ड, बी पी एल कार्ड, आयुष्मान कार्ड जैसे बेशकीमती दस्तावेजों के महत्वपूर्ण धारक हैं. वे सब्सिडी वाली बिजली, उज्वला गैस, अंत्योदय योजना, बैंको के रोजगार लोन के सुपात्र हैं. उनके लोन की गारंटी सरकारें लेती हैं.वे मुफ्त शौचालय निर्माण, बिना ब्याज के गृह ॠण, डायरेक्ट फंड ट्रांस्फर वगैरह वगैरह जैसी एक नही अनेकों जन हितैषी योजनाओ के लाभार्थी हैं. तमाम सरकारी कोशिशों के बाद भी वे गरीबी रेखा पार नही कर पाते. दीन हीन रामभरोसे में राम बसते हैं. जनगणना में अल्लारख्खाओ और रामभरोसों के आंकड़े सब के लिये बड़े मायने के होते हैं. उनके आंकड़े सरकारो की सारी योजनाओ का मूल आधार बनते हैं. अल्लारख्खा और रामभरोसे की बस्तियां नेता जी की वोट की खदाने हैं. वे राजनैतिक दलो के घोषणा पत्रो के चुनिंदा विषय हैं.

लालकिले की प्राचीर से होने वाले भाषण हों या रेडियो पर दिल की बातें उनमें इनमें से किसी की चर्चा हो तो भाषण हिट हो जाते हैं. इनके मन को टटोलने में जो सफल हो जाता है वह जननेता बन जाता है. इनकी गिनती में थोड़ी बहुत हेरा फेरी कर्मचारियो की ऊपरी कमाई का स्त्रोत है. धर्म के कथित ठेकेदारो के लिये रामभरोसों और अल्लारख्काओ की आस्थायें बड़ा महत्व रखती हैं, ये और बात है कि इस सब से बेफिक्र उनकी पहली आस्था भूख के प्रति है. दोनो ही दिन भर की थकान मिटाने के लिये शाम को एक ही ठेके पर मिलते हैं, और जब कभी जेबें थोड़ी बहुत भरी होती हैं तो वे एक ही बाजार में देह की खुशी तलाशने निकल जाते हैं.

फटे, मैलेकुचैले कपड़ो में उनके बच्चो की मुस्कराती हुई तस्वीरें अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने की क्षमतायें रखती हैं. जब कभी अल्लारख्खा और रामभरोसे की बस्ती से कोई बच्चा अपने बस्ते और बुद्धि के कमाल से किसी प्रतियोगिता में कोई सफलता पा लेता है, तो खबरो में धमाल मच जाता है. रामभरोसे या अल्लारख्खा की जान बड़ी कीमती है. उन्होने देखा है कि जीते जी न सही किसी दुर्घटना में उनकी मौत तुरंत लाख रुपयो की सरकारी सहायता और परिवार में किसी के लिये सरकारी नौकरी का वादा लेकर आती है.

किसी भी राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम की सफलता  रामभरोसों और अल्लारख्खाओ के वैक्सीनेशन हुये बिना संभव नही है. यह तथ्य डाक्टर्स से लेकर राजनेता तक खूब समझते हैं. ये और बात है कि स्वयं की प्रतिरोधक क्षमताओ पर इन बस्तियों को इतना भरोसा है कि उन्हें पकड़ पकड़ कर टीके लगाने होते हैं. उनकी इस आत्मनिर्भरता की भावना से मुकाबले के लिये ही स्वास्थ्य कर्मियो का बड़ा अमला घर घर जाकर उनके मना करने पर भी उन्हें मना मना कर उनका वैक्सिनेशन करता है.

दुनियां को फिर से पटरी पर लाने के लिये कोरोना की वैक्सीन जरूरी है. नेता जी ने चुनावी वादों में सबको मुफ्त कोविड वैक्सीनेशन का वादा किया हुआ है. तरह तरह की वैक्सीन बन रही हैं.किसी के दो डोज लगने हैं तो किसी के तीन. कोई माइनस ७० डिग्री में रखी जानी है तो कोई फ्रिज टेम्प्रेचर पर. माइनस ७० डिग्री स्टोरेज तापमान वाले उपकरण बनाने वाली कम्पनियां दुनियां भर से अपने उपकरणो के लिये आर्डर लेने की जुगत भिड़ाने में  लगी हैं. उनकी मार्केटिंग टीमें ईमेल करने और देश देश के संबंधित मंत्रालयो से हर तरह के संपर्क में  सक्रिय हैं. नकली चीनी वैक्सीन निर्माता इंतजार में हैं कि कब कोई वैक्सीन बाजार में आये और वे उंचे दामो पर अपना माल खपा दें. वैक्सीन, कोरोना की आपदा में अवसर बनकर आ रही है. किसी के लिये कमाई और रोजगार के तो किसी के लिये पुरस्कार के मौके कोविड वैक्सिनेशन में अंतर्निहित हैं.

इस सबसे बेखबर रामभरोसे और अल्लारख्खा अपनी खुद की इम्युनिटी के बल पर गमछा लपेटे कोविड आत्मनिर्भर दिखते हैं.संभ्रांत बुद्धिजीवी दानवीर लोग व संस्थायें इन्हें ही मास्क बांटतें हैं और अपने संवेदनशील होने की तस्वीरें खिंचवा पाते हैं.  वे स्वयं को सेल्फ वैक्सीनेटेड मानते हैं. कोरोना के प्रति रामभरोसे और अल्लारख्खा के दृष्टिकोण बड़े परिपक्व हैं, वे इसे अमीरों की बीमारी बताने में नही हिचकिचाते. वे बिना मास्क मजे में बाजारो में घूमते मिल सकते हैं. उन्हें चुनावो की रैलियों, धार्मिक जुलूसों, किसान आंदोलनो की भीड़ से डर नही लगता.  कभी कभार नाक,मुंह पर गमछे का कोना या साड़ी का पल्ला लपेटकर वे मास्क का शौक पूरा कर लेते हैं. जब कभी सरकारी चालान का डर हो तो यही गमछा उनका अस्त्र बन जाता है. जिसको वैक्सीनेशन के दस्तावेजों में उनका नाम चढ़ाना हो अभी से चढ़ा ले. रामभरोसे हों या अल्लारख्खा वे वैक्सीन के भरोसे नही. आत्मनिर्भरता ही उनकी ताकत है. उनका कोविड वैक्शीनेसन हो न हो उनकी बला से. वैक्सीनेशन की जल्दबाजी आप करें, रामभरोसे और अल्लारख्खा को पता है उन्हें तो मना मना कर, टीवी पर विज्ञापन दे देकर वैक्सीन लगायेगी सरकार.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 45 ☆ माइक, बाइक और लाइक ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “माइक, बाइक और लाइक”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 45 – माइक, बाइक और लाइक ☆

आज के समय में एक बढ़िया सी बाइक हो,  माइक पर बोलने की कला आती हो, और डिजिटल प्लेटफार्म पर लाइक की बरसात हो रही हो, तो आपको किसी भी चुनाव का टिकिट मिल सकता है। बाइक पर जब कोई रैली निकलती है तो युवा शक्ति की दबंगई का अहसास होता है। साथ ही साथ  वहाँ चल रहे राहगीर भी अपनी चाल धीमी कर के एक किनारे खड़े हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें ये डर होता है कि कहीं नया खून ज्यादा उबाल न मार दे।

रास्ते थम जाते हैं, और हो हल्ले के बीच बाइक सवार निकल जाते हैं। ये सब देखकर कमजोर दिलवाले लोग वहीं, माथा पकड़ कर बैठ जाते हैं।

नगर  भ्रमण रैली की लाइव प्रस्तुति सारे डिजिटल प्लेटफार्म पर वायरल हो जाती है, अब तो बधाइयों का दौर शुरू हो जाता है। जब तक टिकिट पक्का न हो जाये तब तक ये प्रचार – प्रसार चलता रहता है।

रैली के आयोजक ने ठंडी आह भरते हुए कहा  “मेरा तो दिल ही टूट गया आज के आयोजन से।”  दूसरे ने चुटकी लेते हुए कहा मेरा तो शरीर थक कर चकनाचूर हो गया। अब तो सभी मज़ाक के मूड में आ गए। सबने अपना-अपना अनुभव बताना शुरू कर दिया।

तभी महामंत्री जी ने कहा “अरे  बेचारे को कोई बताने भी तो दो कि आखिर उसका दिल क्यों टूटा ?”

क्या टूटा भाई  जी, कोई मुझे भी तो बताए,  टैंट हाउस के कर्मचारी ने पूछा

हमारी नींद टूट गयी है बे,  और तुझे सामान की पड़ी है,  गुर्राते हुए महामंत्री ने कहा।

टूटे हुए सामान अक्सर लोग उठाकर ले जाते हैं ; सभा में प्रवेश करते हुए बड़े नेता जी ने कहा।

चारों ओर शांति छा गयी। भैय्या जी, नगर निगम चुनाव के लिए मेरी सीट पक्की हुई कि नहीं ? कातर स्वर से नगर महामंत्री जी ने पूछा।

बस पक्की ही समझो, नेता जी ने चिर परिचित मुस्कान बिखेरते हुए कहा। अनयास गम्भीर मुद्रा प्रदर्शित करते हुए कहने लगे,  काँटे की टक्कर रहेगी। पूरा दम खम दिखाना होगा तुमको। आज की रैली में कुछ खास मज़ा नहीं आया।

काहे भैया जी, उदास स्वर से छुटभैय्ये नेता ने पूछा।

इतना भी नहीं जानते,  चलें हैं देश संभालने,  बड़े नेता जी ने अपना कुर्ता ठीक करते हुए कहा। जब तक पुलिस की भागीदारी,  लाठीचार्ज,  आँसू गैस,  हवाई फॉयर न हो तब तक कोई रैली सफल नहीं होती,  इसीलिए कहते हैं पहले बड़ों की चरण वंदना करें, उनके साथ सीखें,  फिर ये टिकिट की आस लगाएँ। अपनी तरफ से तो मैंने अच्छी रिपोर्ट भेजी है हाईकमान के पास, बाकी आप की कुंडली वहीं पढ़ी जायेगी।

जी भैया जी, कहते हुए महामंत्री ने बड़े नेता जी के  चरण पकड़ लिए। आप का आशीर्वाद मिलता रहे बस टिकिट का क्या है,  जनता के सेवक बनना चाह रहे थे।

सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े नेता जी ने कहा,  देखिए इस समय दो गज दूरी बहुत जरूरी का पालन करना है इसलिए दूरी बनाएँ रखें,  कहीं ऐसा न हो विपक्षी हमला कर दें। और हाँ कोरोना को रोते रहिए भाषणों में यही आपको मजबूत बनायेगा।   कल फिर से जागरूकता रैली करिए, उसमें एक कवि दो कवि भी रखिए जो बुलट में बैठकर गाते बजाते रहेंगे। और हाँ मास्क भी सब लोग जरूर लगाएँ। वैक्सीन की भी चर्चा आपके मुँह से होती रहनी चाहिए। पुराने वीडियो देखिए,  रैली कैसे आयोजित होती है। छोटी -छोटी बातों को तूल देना सीखें तभी नेतागिरी चलेगी।

अच्छा चलता हूँ, अरे हाँ पेपर वाले से बात कर ली है मैंने,  उसे कुछ खिला – पिला देना। वही तुम्हारी आज की रैली को सफल बना सकता है।

अगले दिन, अखबार की हेड लाइन को पढ़कर बड़े नेता जी मुस्कुराते हुए अपने पी ए से कह रहे थे,  “बहुतय जल्दी या महामंत्री नेतागिरी सीख लिहिस।”

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 72 ☆ व्यंग्य – चुनाव में भाग्य रेखा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य – “चुनाव में भाग्य रेखा“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 72

☆ व्यंग्य – चुनाव में भाग्य रेखा ☆

गंगू की टीवी देखने की बुरी आदत है, टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में टीवी वाले छोटी सी बात को धजी का सांप बना देते हैं, और गंगू है कि टीवी की हर बात को सच मान लेता है। इन दिनों गंगू को अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की ज्यादा चिंता है। बिहार और म.प्र.के चुनाव में नेताओं की चालबाजियों और ऊंटपटांग बयानबाजी से उसका मन ऊब गया है, इसलिए अमेरिका के चुनाव में उसका खूब मन लग रहा है।

जब हम पेपर पढ़ने बैठते हैं तो गंगू बीच-बीच में बहुत डिस्टर्ब करता है।पूरा पेपर पढ़ नहीं पाते और बीच में पूछने लगता है–बाबू जी आज के पेपर में अमेरिका के चुनाव के बारे में कुछ नया आया है क्या ?  फिर थोड़ी देर बाद कहने लगता है -बाबू जी लाक डाउन के पहले अमेरिका से जो टमटम आये थे उनकी हालत इस बार कुछ पतली लग रही है ? हमने कहा- गंगू चीजों को सही नाम से पुकारना चाहिए,वो जो आये थे वे दुनिया के सबसे अमीर शक्तिशाली राष्ट्रपति माने जाते हैं, उनका असली नाम डोनाल्ड ट्रंप है।

गंगू भड़क गया बोला- देखो बाबू… हम पढ़े लिखे तो नहीं हैं, हमारे मुंह से टमटम ही निकल रहा है तो हम क्या करें….हमारा क्या दोष ……….

और सीधी सी बात है कि हम गरीबी रेखा के नीचे के आदमी हैं, वे अमीर हैं तो अमीर होंगे अपने घर के….. उनके अमीर होने से हमारी गरीबी थोड़े न दूर होगी। बाबू यदि हम उनको टमटम बोल रहे हैं तो वो भी तो हमारे यहां के लोगों को कुछ भी बोल रहे थे।जब वो आये रहे तो मोदी जी के सामने भरी सभा में चाय वाला कहने की जगह ‘चिवाला’ बोल रहे थे, अभी तक तो शिवाला, दिवाला तो सबने सुना था पर ये ‘चिवाला’ तो कभी नहीं सुना था। टमटम भैया हम गरीबों के बीच बड़े होशियार बनना चाहते थे, वो हम सबको दिखाना चाहते थे कि वे भारत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं। कल्लू महराज ने उनका पूरा भाषण सुना रहा, कल्लू महराज ने बता रहे थे कि वे अपने भाषण में स्वामी विवेकानंद को ‘विवेकामनन’, चंद्रयान को ‘चन्डराजान’

और हमारे क्रिकेट हीरो सचिन तेंदुलकर को “सूचिन” कह रहे थे। अरे सही नाम लेते नहीं बन रहा था तो न लेते….

अपनी ज्यादा होशियारी बताने के लिए ‘शोले ‘फिल्म को “सूजे” कह रहे थे। ये भी क्या बात हुई कि सबकी प्यारी फिल्म ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ को उनने “डीडीएलजे” कह कर फिल्म का मजाक उड़ा दिया। हद कर दी टमटम ने… और बाबू जी आप कहते हैं कि टमटम कहने से वो नाराज़ हो जायेंगे। हम गरीब लोग भी तो नाम बिगाड़ने से नाराज़ हैं, काहे चाय वाले को ‘चिवाला’ कह दिया भाई, और अपने मोदी जी सिर झुकाए सब सुनते रहे, मुस्कराते रहे…ये बात तो ठीक नहीं है न….।

–अच्छा बाबू जे बताओ कि ये टमटम कुछ स्वार्थ लेकर आये रहे थे … काहे से कि एक बार कल्लू महराज कह रहे थे कि जे आदमी कभी किसी को भाव नहीं देता, सबको डराये रहता है, हथियार बेचने में विश्वास करता है।

—  हां …गंगू सही सुना है, ट्रंप राजनीति के बड़े खिलाड़ी हैं, नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव हैं न…. तो उनको लगता है कि हिन्दूओं के वोट मोदी के मार्फत मिल जाएंगे, इसलिए इस बार उनने मोदी जी को पटाकर ‘नमस्ते ट्रंप ‘कार्यक्रम करवा लिया। उनको मालूम था कि अमेरिका में अधिकांश गुजराती पटैल रहते हैं। यहां आने के पहले उनने मोदी जी को पहले से कह दिया था कि तीन घंटे में सात बार गले मिलना और नौ बार हाथ मिलाना, कोरोना-अरोना से नहीं डरना, भले बाद में लाक डाउन लगाना और थाली कटोरा बजवाना, पर अमेरिका वालों को दिखा देना कि दोस्ती बहुत तकड़ी है, अमेरिका के सारे हिन्दुओं के वोट लूटना है इस बार।

— तो जे बात है बाबू…इधर भी वोट की राजनीति में अपने अस्सी नब्बे करोड़ लुट गये। कल्लू महराज तो कह रहे थे कि टमटम गांधी जी के साबरमती आश्रम भी गए थे तो वहां भी मोदी जी का गुणगान करते रहे… महात्मा गांधी की तरफ देखा भी नहीं….

— बिलकुल सही सुना है गंगू…. साबरमती आश्रम में चरखा देखकर चक्कर खा गए, पत्नी से कान में बोले- इसीलिए इंडिया गरीब है, अभी भी चरखा के पीछे पड़े हैं। मोदी जी बताते रहे उनके समझ में कुछ नहीं आया तो साबरमती आश्रम की विजिटर्स बुक में मोदी की तारीफ के कसीदे काढ़ दिए और गांधी जी को भूल गए। असली क्या है गंगू… कि ट्रंप बुद्धिजीवी या किताबी ज्ञान रखने वाले विचारक किस्म के राजनेता नहीं माने जाते, उन्हें महात्मा गांधी के आदर्श सिद्धांतो से क्या लेना-देना। अहिंसा, सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन, अपरिग्रह के सिद्धांत जैसी बातों में ट्रंप को क्यों रुचि होगी। सीधा मतलब ट्रंप को चुनाव जीतने से है, और उनको लगा कि भारतीय पटैलों के वोट मोदी दिला सकते हैं, इसीलिए ट्रंप को तगड़ी दोस्ती का नाटक दिखाना जरूरी था।

जिस दिन ये साबरमती आश्रम से लौटे थे उसी रात को ट्रंप की पत्नी मेलानिया ने पूछा भी था कि गांधी को क्यों जलाया दरकिनार करके आपने मोदी के गुणगान में सब कुछ लिख दिया, तो ट्रंप का सीधा जवाब था कि काम मोदी से है तो गांधी की तरफ क्यूं देखूं… नवंबर के चुनाव यह बात साफ है कि वोट दिलवाने का काम महात्मा गांधी नहीं कर पायेंगे, बल्कि मोदी मोदी कहने से काफी काम बन जाएगा। तुम तो जानती हो युद्ध और राजनीति में सब जायज है, इसलिए हमने चुनाव प्रचार के सारे आइटम इस बार चीन से बुलवाये हैं।

और अंदर की बात सुनो डियर मेलानिया, तुम तो जानती हो कि अमेरिका का राष्ट्रपति ग्लोबल दृष्टिकोण रखते हुए अपने देश के हितों को सर्वाधिक प्राथमिकता देता है, कुछ देश के मुखिया अपना हित और पार्टी के हितों को प्राथमिकता देते हैं। हमारी यात्रा का एक उद्देश्य तो ये है कि नवंबर के चुनाव के लिए वोट का जुगाड़ करना और दूसरा उद्देश्य भारत-अमेरिका मैत्री का नाटक कर भारत को घातक अस्त्र, विमान, लड़ाई का सामान बेचकर लाभ कमाना है। कंगाल पाकिस्तान की बजाय सम्पन्न होता भारत काफी बेहतर और मित्रता के लायक लगता है, इसी कारण से हमने पहले से अमेरिका में “हाउडी मोदी” प्रोग्राम करवा कर गेयर में लेलिया था। वैसे भी भारत के लोग संकोची होते हैं अपना नुकसान करके भी लिहाज करते हैं, इसीलिए माय डियर मेलानिया महात्मा गांधी की चिंता नहीं करो।

–बाबू जी टीवी वाले बता रहे थे कि जैसे जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है टमटम की हालत पतली होती जा रही है, सर्वे वाले भी कह रहे हैं कि इस बार इनका आना मुश्किल लग रहा है। सुना है कि हाथ की भाग्य रेखा बदलने के लिए मोदी जी को फोन करके सलाह मांगी है ?

— हां गंगू, तुम बहुत ऊंची खबर रखते हो। क्या है कि ट्रंप बहुत व्यवहारिक दृष्टिकोण रखने वाले नेता हैं, शुरू से धंधा पानी में ध्यान देने वाले, कभी वे अपने को सुपरमेन बताने लगते हैं, कभी मास्क लगाकर सामने वाले को पिद्दी नेता कहने लगते हैं। हालांकि तुमने सही सुना है मोदी जी के पास फोन आया रहा, तो यहां वालों ने भाग्य रेखा बदलने की दुकान का पता बतला दिया है, मीडिया वालों ने बताया कि थाईलैंड में एक दुकान खुली है जिसमें हाथों की लकीरों को बदलकर भाग्य बेहतर बनाने के लिए टेटू का सहारा लिया जाता है, याने भाग्य अवरुद्ध करने वाली लकीरें मिटा दी जाती हैं और हथेलियों पर नयी भाग्य रेखा बना दी जाती है, चुनाव जीतने में भाग्य रेखा का असली रोल होता है, तो अपनी पतली हालत को देखते हुए और चीन की चालबाजियों को समझते हुए ट्रंप जी ने रातों-रात नयी भाग्य रेखा बनवा ली है और कल कुछ भी हो सकता है…….

गंगू और बाबूजी की इस चर्चा को हुए एक अरसा गुजर गया ….. गंगू के टमटम की हालत वास्तव में पतली हो गई। टेटू वालों की नयी भाग्य रेखा किसी काम नहीं आई। गंगू के टमटम आज भी हार मानने को तैयार नहीं है। भला ऊपरवाले की लिखी भाग्यरेखा कभी कोई बदल सका है भला ….. और अपना गंगू है कि टीवी की हर बात को अब भी सच मान लेता है ….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 76 ☆ व्यंग्य – शरीर के उपयोग का दर्शन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘शरीर के उपयोग का दर्शन’।  शरीर के विभिन्न अंगों के उपयोग  के फलसफे पर डॉ परिहार जी ने गहन विमर्श किया है।  इस व्यंग्य को पढ़ने के पश्चात यदि इस विषय में कुछ अपना ज्ञान और तजुर्बा दे सकें तो निश्चय ही अनेक लोग लाभान्वित होंगे और देश उनका आभारी होगा। इस विशिष्ट व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 76 ☆

☆ व्यंग्य – शरीर के उपयोग का दर्शन

कभी ख़ाली बैठता हूँ तो दिमाग़ ऊँची चीज़ें सोचने लगता है। एक दिन ख़ाली बैठा तो दिमाग़ सोचने लगा कि भगवान ने आदमी को ‘नर तन’ क्यों दिया है। तुलसीदास ने कहा, ‘बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुरलभ सदग्रंथन गावा। ‘ तो सवाल यह उठ जाता है कि हमारा यह भाग्य किस वास्ते खुला है?

मैं चारों तरफ निगाहें दौड़ाने और काफी तजुर्बा इकट्ठा करने के बाद अपनी अल्पबुद्धि से यह समझ पाया हूँ कि हमारा यह शरीर, जिसे ‘साड़ियों में साड़ी’ की तर्ज़ पर ‘शरीरों में शरीर’ कहा जा सकता है, हमें इसलिए मिला है कि हम इसके मार्फत इस जटिल और टेढ़े संसार में छछूँदर की तरह अपना रास्ता तैयार कर सकें। हमारे शरीर के सारे अंग इसी मसरफ से बने हैं और अगर हम इसी हिसाब से अपने अंगों का उपयोग नहीं कर सकते तो हमारे लिए हर कदम पर संकट खड़ा हो सकता है।

मसलन, कई लोगों को यह भ्रम है कि रीढ़ का मुख्य काम शरीर को सँभालना और सीधा रखना है। इन नासमझों को यह ज्ञान नहीं है कि रीढ़ का सबसे अहम काम शरीर को ज़रूरत के हिसाब से अलग अलग कोणों पर झुकाना है। शरीर जितना ज़्यादा झुक सकता है उतना ज़्यादा वह कारगर और उपयोगी होता है। इसलिए रीढ़ में पर्याप्त लचक होना बेहद ज़रूरी है। जिनकी रीढ़ में अकड़ होती है वे संसार के उन द्वारों तक नहीं पहुँच पाते जो थोड़ा ज़्यादा झुकने पर ही खुलते हैं। जो मतिमन्द इस रहस्य को नहीं जानते वे या तो ‘सुपरसीड’ हो जाते हैं या तीन साल में छः ट्रांसफर की गति को प्राप्त होते हैं। इसीलिए जो लोग दंड-बैठक की जगह योगासन करते हैं उनका शरीर ज़्यादा कारामद रहता है।

सच पूछिए तो हमारा शरीर जीवन में सफलता और समृद्घि के कपाट खोलने वाली चलती-फिरती कुंजी है, और ज्ञानी लोग इसी हेतु उसे साधते हैं। सफलता के लिए बुद्धि आवश्यक नहीं है, शरीर के सफल संचालन के लिए ज़रूर अक्ल आवश्यक होती है।

मसलन,भगवान ने यह हाथों का जोड़ा किस लिए दिया है?आपमें से अनेक मुझे बुद्धू समझकर मुसकाकर कहेंगे, ‘काम करने के लिए!’ और मैं मुसकाकर कहता हूँ कि आप भ्रमित हैं। हाथ इसलिए हैं कि आराध्य (ऊपर वाले नहीं, इसी धरती पर चलते फिरते) के लिबर्टी शूज़ के तस्मे खोलें और बाँधें, उन्हें शेरवानी या कोट पहनायें, उन्हें पान-तमाखू पेश करें, उनकी कार का दरवाज़ा खोलें, उनका ब्रीफ़केस और पनडब्बा उठायें। उन्हें हर मिनट पर सलाम-कोर्निश करें और बहाना मिलते ही उमग कर उनके गले में माला डालें।

हाथों के अन्य उपयोग हैं आराध्य का झंडा उठाना और अगर वे कानून से ऊपर हों तो उनके लिए डंडा बजाना। हाथों का इस्तेमाल सुख के भार से थके हुए आराध्य का शरीर दबाने और उनके पवित्र पैरों पर पुटपुरी (मुक्कियाँ) लगाने के लिए भी किया जाता है। झलने वाले पंखों के ग़ायब हो जाने के बाद से हाथों की सार्थकता कम हुई है। कुछ ज़्यादा समझदार लोग अपनी बाँहों पर आराध्य का नाम गुदवाकर हाथों की उपयोगिता में और इज़ाफ़ा कर देते हैं।

इसी तरह पाँवों की सार्थकता यह है कि ‘उनके’ आदेश पर दौड़ें और नाचें। जब वे कहें तब दुलत्ती चलायें और जब वे कहें तब पीछे हट जाएं।  जहाँ वे कहें वहाँ बगुले की तरह सबेरे से शाम तक  एक टाँग पर खड़े रहें और उसके बाद भी सेवा के लिए थिरकते रहें।

कंधे इसलिए कि उन पर अपने चरन रखकर ‘वे’ संसार में स्वर्ग की ऊँचाइयाँ छुएंँ और पीठ इसलिए कि उस पर सवार होकर उनके बाबा लोग ‘घोड़ा घोड़ा’ खेलें।

आप कहते हैं कि आँखें देखने के लिए हैं, कान सुनने के लिए, नाक सूँघने के लिए और मुँह बोलने के लिए। मैं कहता हूँ कि आँखें ‘उनके’ प्रति भक्ति और श्रद्धा छलकाने के लिए हैं, कान उनकी मधुर वाणी सुनने के लिए और मुँह उनकी स्तुति करने के लिए। नाक इसलिए बनायी गयी है कि हम उनकी उपस्थिति,उनके ‘मूड’ और उनकी ज़रूरतों को सूँघ सकें। दाँत इसलिए हैं कि ‘उन्हें’ देखकर प्रसन्नता से चमकें और ओठ इसलिए कि उनकी ज़रूरत के हिसाब से प्रसन्नता के आकार को फैलाते सिकोड़ते रहें।

उन्हें छोड़िए जो सिर को शरीर का सर्वश्रेष्ठ अंग कहते हैं। सिर इसलिए है कि ‘उनके’ सामने झुककर श्रद्धा का इज़हार करे और उन्हें ‘सर आँखों पर’ बैठाये रखे। माथा जो है वह इसलिए है कि उस पर ‘लिबर्टी रज’ धारण की जा सके। उनकी चरण-रज से बेहतर चन्दन अभी तक ईजाद नहीं हुआ।

हमारे शरीर में जो ख़ून है वह सिर्फ ‘रगों में दौड़ने’ के लिए नहीं है। वह इसलिए है कि उसका क़तरा क़तरा उनकी ख़िदमत में गिरे। दिल जो है वह इसलिए है कि उसमें उनकी प्यारी छवि बसायी जा सके। और हमारी जाँ इसलिए नहीं है कि उसे इधर-उधर महबूबाओं पर ज़ाया किया जाए। उसे उन्हीं पर लुटाना चाहिए।

और यह जो खाल नाम की चीज़ है उसका सर्वोत्तम उपयोग यही है कि वह ‘उनके’ लिए जूते बनाने के काम आ जाए। मैं दावे से कहता हूँ कि ‘ह्यूमन लैदर’ (मानव-चर्म) के सामने ‘स्नेक लैदर’ (सर्प-चर्म) दो कौड़ी का साबित होगा। बस ‘वे’ एक बार सेवा का अवसर तो दें।

मैं तुलसीदास से इत्तफ़ाक़ रखता हूँ कि यह नर-देह बड़े भाग्य से मिलती है, लेकिन देखने की बात यह है कि हम इस सौभाग्य का सही उपयोग करते हैं या नहीं। देह को सीढ़ी बनायें तो स्वर्ग हमारी मुट्ठी में आ सकता है,और अकड़ू बने रहे तो ‘एक मुश्ते ख़ाक’ के सिवा कुछ हाथ न लगेगा।

मुझे पता है कि नर-देह के उपयोग के मुझसे बड़े कई ज्ञानी और तजुर्बेकार इस धरा पर पड़े हैं। वे इस विषय में कुछ अपना ज्ञान और तजुर्बा दे सकें तो निश्चय ही अनेक लोग लाभान्वित होंगे और देश उनका आभारी होगा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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