डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘शरीर के उपयोग का दर्शन’।  शरीर के विभिन्न अंगों के उपयोग  के फलसफे पर डॉ परिहार जी ने गहन विमर्श किया है।  इस व्यंग्य को पढ़ने के पश्चात यदि इस विषय में कुछ अपना ज्ञान और तजुर्बा दे सकें तो निश्चय ही अनेक लोग लाभान्वित होंगे और देश उनका आभारी होगा। इस विशिष्ट व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 76 ☆

☆ व्यंग्य – शरीर के उपयोग का दर्शन

कभी ख़ाली बैठता हूँ तो दिमाग़ ऊँची चीज़ें सोचने लगता है। एक दिन ख़ाली बैठा तो दिमाग़ सोचने लगा कि भगवान ने आदमी को ‘नर तन’ क्यों दिया है। तुलसीदास ने कहा, ‘बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुरलभ सदग्रंथन गावा। ‘ तो सवाल यह उठ जाता है कि हमारा यह भाग्य किस वास्ते खुला है?

मैं चारों तरफ निगाहें दौड़ाने और काफी तजुर्बा इकट्ठा करने के बाद अपनी अल्पबुद्धि से यह समझ पाया हूँ कि हमारा यह शरीर, जिसे ‘साड़ियों में साड़ी’ की तर्ज़ पर ‘शरीरों में शरीर’ कहा जा सकता है, हमें इसलिए मिला है कि हम इसके मार्फत इस जटिल और टेढ़े संसार में छछूँदर की तरह अपना रास्ता तैयार कर सकें। हमारे शरीर के सारे अंग इसी मसरफ से बने हैं और अगर हम इसी हिसाब से अपने अंगों का उपयोग नहीं कर सकते तो हमारे लिए हर कदम पर संकट खड़ा हो सकता है।

मसलन, कई लोगों को यह भ्रम है कि रीढ़ का मुख्य काम शरीर को सँभालना और सीधा रखना है। इन नासमझों को यह ज्ञान नहीं है कि रीढ़ का सबसे अहम काम शरीर को ज़रूरत के हिसाब से अलग अलग कोणों पर झुकाना है। शरीर जितना ज़्यादा झुक सकता है उतना ज़्यादा वह कारगर और उपयोगी होता है। इसलिए रीढ़ में पर्याप्त लचक होना बेहद ज़रूरी है। जिनकी रीढ़ में अकड़ होती है वे संसार के उन द्वारों तक नहीं पहुँच पाते जो थोड़ा ज़्यादा झुकने पर ही खुलते हैं। जो मतिमन्द इस रहस्य को नहीं जानते वे या तो ‘सुपरसीड’ हो जाते हैं या तीन साल में छः ट्रांसफर की गति को प्राप्त होते हैं। इसीलिए जो लोग दंड-बैठक की जगह योगासन करते हैं उनका शरीर ज़्यादा कारामद रहता है।

सच पूछिए तो हमारा शरीर जीवन में सफलता और समृद्घि के कपाट खोलने वाली चलती-फिरती कुंजी है, और ज्ञानी लोग इसी हेतु उसे साधते हैं। सफलता के लिए बुद्धि आवश्यक नहीं है, शरीर के सफल संचालन के लिए ज़रूर अक्ल आवश्यक होती है।

मसलन,भगवान ने यह हाथों का जोड़ा किस लिए दिया है?आपमें से अनेक मुझे बुद्धू समझकर मुसकाकर कहेंगे, ‘काम करने के लिए!’ और मैं मुसकाकर कहता हूँ कि आप भ्रमित हैं। हाथ इसलिए हैं कि आराध्य (ऊपर वाले नहीं, इसी धरती पर चलते फिरते) के लिबर्टी शूज़ के तस्मे खोलें और बाँधें, उन्हें शेरवानी या कोट पहनायें, उन्हें पान-तमाखू पेश करें, उनकी कार का दरवाज़ा खोलें, उनका ब्रीफ़केस और पनडब्बा उठायें। उन्हें हर मिनट पर सलाम-कोर्निश करें और बहाना मिलते ही उमग कर उनके गले में माला डालें।

हाथों के अन्य उपयोग हैं आराध्य का झंडा उठाना और अगर वे कानून से ऊपर हों तो उनके लिए डंडा बजाना। हाथों का इस्तेमाल सुख के भार से थके हुए आराध्य का शरीर दबाने और उनके पवित्र पैरों पर पुटपुरी (मुक्कियाँ) लगाने के लिए भी किया जाता है। झलने वाले पंखों के ग़ायब हो जाने के बाद से हाथों की सार्थकता कम हुई है। कुछ ज़्यादा समझदार लोग अपनी बाँहों पर आराध्य का नाम गुदवाकर हाथों की उपयोगिता में और इज़ाफ़ा कर देते हैं।

इसी तरह पाँवों की सार्थकता यह है कि ‘उनके’ आदेश पर दौड़ें और नाचें। जब वे कहें तब दुलत्ती चलायें और जब वे कहें तब पीछे हट जाएं।  जहाँ वे कहें वहाँ बगुले की तरह सबेरे से शाम तक  एक टाँग पर खड़े रहें और उसके बाद भी सेवा के लिए थिरकते रहें।

कंधे इसलिए कि उन पर अपने चरन रखकर ‘वे’ संसार में स्वर्ग की ऊँचाइयाँ छुएंँ और पीठ इसलिए कि उस पर सवार होकर उनके बाबा लोग ‘घोड़ा घोड़ा’ खेलें।

आप कहते हैं कि आँखें देखने के लिए हैं, कान सुनने के लिए, नाक सूँघने के लिए और मुँह बोलने के लिए। मैं कहता हूँ कि आँखें ‘उनके’ प्रति भक्ति और श्रद्धा छलकाने के लिए हैं, कान उनकी मधुर वाणी सुनने के लिए और मुँह उनकी स्तुति करने के लिए। नाक इसलिए बनायी गयी है कि हम उनकी उपस्थिति,उनके ‘मूड’ और उनकी ज़रूरतों को सूँघ सकें। दाँत इसलिए हैं कि ‘उन्हें’ देखकर प्रसन्नता से चमकें और ओठ इसलिए कि उनकी ज़रूरत के हिसाब से प्रसन्नता के आकार को फैलाते सिकोड़ते रहें।

उन्हें छोड़िए जो सिर को शरीर का सर्वश्रेष्ठ अंग कहते हैं। सिर इसलिए है कि ‘उनके’ सामने झुककर श्रद्धा का इज़हार करे और उन्हें ‘सर आँखों पर’ बैठाये रखे। माथा जो है वह इसलिए है कि उस पर ‘लिबर्टी रज’ धारण की जा सके। उनकी चरण-रज से बेहतर चन्दन अभी तक ईजाद नहीं हुआ।

हमारे शरीर में जो ख़ून है वह सिर्फ ‘रगों में दौड़ने’ के लिए नहीं है। वह इसलिए है कि उसका क़तरा क़तरा उनकी ख़िदमत में गिरे। दिल जो है वह इसलिए है कि उसमें उनकी प्यारी छवि बसायी जा सके। और हमारी जाँ इसलिए नहीं है कि उसे इधर-उधर महबूबाओं पर ज़ाया किया जाए। उसे उन्हीं पर लुटाना चाहिए।

और यह जो खाल नाम की चीज़ है उसका सर्वोत्तम उपयोग यही है कि वह ‘उनके’ लिए जूते बनाने के काम आ जाए। मैं दावे से कहता हूँ कि ‘ह्यूमन लैदर’ (मानव-चर्म) के सामने ‘स्नेक लैदर’ (सर्प-चर्म) दो कौड़ी का साबित होगा। बस ‘वे’ एक बार सेवा का अवसर तो दें।

मैं तुलसीदास से इत्तफ़ाक़ रखता हूँ कि यह नर-देह बड़े भाग्य से मिलती है, लेकिन देखने की बात यह है कि हम इस सौभाग्य का सही उपयोग करते हैं या नहीं। देह को सीढ़ी बनायें तो स्वर्ग हमारी मुट्ठी में आ सकता है,और अकड़ू बने रहे तो ‘एक मुश्ते ख़ाक’ के सिवा कुछ हाथ न लगेगा।

मुझे पता है कि नर-देह के उपयोग के मुझसे बड़े कई ज्ञानी और तजुर्बेकार इस धरा पर पड़े हैं। वे इस विषय में कुछ अपना ज्ञान और तजुर्बा दे सकें तो निश्चय ही अनेक लोग लाभान्वित होंगे और देश उनका आभारी होगा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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