हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 44 ☆ नजरअंदाज नजर से ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “नजरअंदाज नजर से”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 44 – नजरअंदाज नजर से ☆

एक ही ढर्रे पर चलते रहने से बात नहीं बनती। जब तक कुछ नया न हो मन ऊब जाता है। ये दुनिया का सबसे बड़ा सत्य है। इस सबसे शुरू होता है। किसी को भी नजरअंदाज करने का दौर। अब नजर का क्या करें। नजरबट्टू काला टीका लगाकर तो जीवन गुजारा नहीं जा सकता। सो हम सबको अपनी सोच  बदलनी ही पड़ती है। इसके साथ ही साथ हम अपना व्यवहार भी बदल लेते हैं। जो उपयोगी हुआ उसी के साथ चल दिये। इस जगत में यदि कुछ स्थायी है, तो वो स्वार्थ सिद्धि है। चाहें इसके लिए जो भी कीमत चुकानी पड़े, इसे पूरा करना ही अंतिम लक्ष्य होता है। ऐसा अनोखे लाल जी का मानना है।

बात जब नारी से सम्बंधित हो, तो ये किसी का भी जीवन बदलने के लिए काफी होती है। सोचिए, जब श्रद्धा,नम्रता, योग्यता ये तीनों मिल बैठीं तो क्या होगा … ?

तब तो गाड़ी सरपट दौड़ पड़ेगी, कभी झगड़ा, कभी प्यार, कभी मान- मनुहार। बस धैर्य रूपी अस्त्र- शस्त्र का प्रयोग भी हो जाय तो सोने पे सुहागा हो जायेगा।

सुखीराम जी के जीवन का यही मूलमंत्र था, वे तो आनन्द के साथ रंगरेलियाँ मानते हुए, इंसानियत के साथ जीवन बिता रहे थे, कि तभी अहम अपनी कार लेकर आ धमका और उन्हें उनके अधिकारों की याद दिलाने लगा कि उनको योग्यता के साथ ही निर्वाह करना चाहिए। दौलतरानी भी उनकी बातें सुनकर एक सच्चे सलाहकार की तरह समझाने लगी,  कि आपको अपने रुतबे का ध्यान रखना चाहिए , ये क्या आप तीन लोगों के सामने हार गए ?

मुस्कुराते हुए अनोखेलाल जी ने कहा, अरे जिसके पास विद्या का धन है, वो तो कुछ भी हासिल कर सकता है। विधा, विवेक , धीरज ये सब तो अपने  सखा हैं, बस कैसे  समझदारी दिखाएँ, ये तो विश्वास ही बता सकता है।

विश्वास ने मुस्कुराते हुए कहा, आप लोग दिमाग़ लगाना बंद करें, मेरी तरह श्रद्धा,नम्रता व योग्यता की शरण में जाएँ सुखी रहेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 15 ☆ व्यंग्य ☆ अपना तो नहीं है, अपना मानने वालों की कमी भी नहीं है ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “अपना तो नहीं है, अपना मानने वालों की कमी भी नहीं है” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 15 ☆

☆ व्यंग्य – अपना तो नहीं है, अपना मानने वालों की कमी भी नहीं है ☆

“ओ बारीक, एक सुतली बम दे सांतिभिया को, ओके.” – उन्होने आवाज लगाई और मुझसे बोले – “आओ सांतिभिया, आप भी जलाओ, ओके.” भियाजी और भियाजी के फैंस जमकर आतिशबाज़ी कर रहे थे. मामला दीपावली का नहीं था. धमाके की आवाजों के बीच बोले – “कमला आंटी चुनाव जीत गईं हैं अमेरिका में. बस अभी नारियल चढ़ा केई आ रिये हैं और अब बम फोड़ रिये हैं. ओके”

“तो जश्न इस कदर भिया! क्या बात है!!”

“उनके नाम का पहला हिज्जा हिन्दू नाम का जो है. ओके.” – भियाजी ने एक तरह से अंडरलाईन किया.

“क्या मार्के की बात पकड़ी है आपने भिया!! बारीक नज़र चईये कसम से. चौपन साल पहले जो बात उनके माता-पिता ने भी नहीं सोची होगी वो आपने पकड़ ली. फटाके फोड़ने का हक तो है भिया आपको.”

“सांतिभिया, केंडीडेट की जात, धरम, गोत्र, आगा-पीछा सब देखना पड़ता है. ओके. आपको पता है उनकी माँ ब्राह्मण थीं.”

पोजीशन थोड़ी और क्लीयर हुई. दरअसल, भियाजी सर्व ब्राह्मण महापंचायत की लोकल यूनिट के प्रेसिडेंट भी हैं, सो उनकी खुशी दुगुनी है. जो कमला आंटी की मम्मी सनाढ्य ब्राह्मण होतीं तो भियाजी आज सातवें आसमान पे होते. उनका मानना है कि ब्राह्मणों में भी सनाढ्य ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ होते हैं. बहरहाल, वे उनके तमिल ब्राह्मण होने पर ही खुश हैं और इस कदर हैं कि खुशी थम ही नहीं रही. जब वे खुश होते हैं तो किसी की नहीं सुनते, उनकी भी नहीं जिनकी वजह से खुश हैं. कमला आंटी कह रहीं हैं वे अमेरिकी हैं और भियाजी हैं कि उन्हें भारतीय साबित करने पर उतारू हैं. भियाजी को उनके ब्राह्मण होने पर नाज़ है और वे अपने को ब्लैक बेपटिस्ट मानती हैं. आंटी अमेरिकी जनता को अपना मानती हैं, भियाजी हैं कि उन्हें भारत की होने की याद दिला दिला कर हलाकान हुये जा रहे हैं. पिता की ओर से वे अफ्रीकन हैं, भियाजी हैं कि उन्हें इंडियन मान कर लट्टू हुवे जा रहे हैं. हालांकि, खुश तो जमैकन्स भी हैं मगर वे इस कदर इतराये इतराये फूल कर कुप्पा नहीं हुवे जा रहे. वे न भारत में पैदा हुईं, न पली न बड़ी हुई मगर फैंस उनकी पसंद में भारतीयता ढूंढकर बल्लियों उछल रहे हैं. बोले – “पेले मालूम रेता तो चौराहे के बीच में स्टेचू बिठा के माला पिना देते. ओके. पन ठीक है अभी फटाके फोड़ के मना ले रिये हैं जीत का जश्न. ओके.”

“मगर वे अब तो इंडियन नहीं हैं”.

“डबल हैं. मदर से साउथ इंडियन, फादर से वेस्ट इंडियन. ओके. सांतिभिया भगवान नी करे कि ऐसा हो मगर होनी को कौन टाल सकता है, खुदा-न-ख्वास्ता आने वाले चार साल में कोई ऊंच-नीच हो गई और बिडेन दादा ऑफ हो गिये तो व्हाईट हाउस ‘कमला निवास’ में बदलते देर नी लगेगी. ओके”.

“नाम क्यों बदलेंगे व्हाईट हाउस का ?”

“गाँव-शहर, बिल्डिंगों, सड़कों के नाम नहीं बदले तो चुनाव जीतने का फायदा क्या? आपको पता नी होयगा पन सईसाट बता रिया हूँ के वाशिंगटन का पुराना नाम वशिष्ठपुरम ही था. ओके.”

“आप कह रहे हो तो सही होगा भिया. अब आगे क्या प्लान है ?”

“समाज की तरफ से सम्मान करने की सोच रिये हैं. ओके.”

“आ पायेंगी वे ?”

“उनके रिश्तेदारों को बुला लेंगे चेन्नई से. ओके. उनका कर देंगे.” कहकर ओके भिया जीत के जश्न में फिर बिजी हो गये. वे आगे भी बिजी होते रहेंगे. वे आये दिन ऐसे विदेशी नायकों को ढूंढ ही लेते हैं जो खुद को भारतीय माने-न-माने मगर उसमें डीएनए भारत के हों, भले ही बहुत थोड़े से हों मगर भारत के हों. मिल जाये तो मारे खुशी के – शादी बेगानी, दीवाना अब्दुल्ला (हालाँकि अब्दुल्ला कहाना उन्हें सुहायेगा नहीं मगर कहावत का क्या कीजियेगा, ज्यों की त्यों लिखना पड़ती है श्रीमान). उन्होने एक बम और फोड़ा, इस भरोसे के साथ कि उसके फूटने की गूंज सात समंदर पार कमला आंटी ने जरूर सुनी होगी. ओके.

 

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 71 ☆ व्यंग्य – नमस्ते-नमस्ते ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य – “नमस्ते-नमस्ते “। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 71

☆ व्यंग्य – नमस्ते-नमस्ते ☆

सुबह-सुबह टहलने निकलो तो बहुत से लोग परस्पर अभिवादन करते हैं। कोई नमस्ते, नमस्ते करता है, कोई गुड मॉर्निंग, कोई राधे राधे, कोई जय श्रीकृष्ण, तो कोई जय श्रीराम…. अपनी बचपन से आदत है कि सबको नमस्ते नमस्ते करते हैं। कुछ लोग इसमें भी बुरा मान जाते हैं, और कहते हैं तुम बड़े ‘वो’ हो, राधे राधे का जबाव राधे राधे से नहीं देते हो, तब हमें कहना पड़ता है कि राधे राधे कहने पर हमारी खासमखास प्यारी राधा याद आ जाती है जिसे हमने दिल से चाहा था, राधा इतनी प्यारी थी कि उसे नमस्ते करो तो वो तुरंत कह देती थी कि तुम भले नमस्ते करो, पर ‘हम कुछ नहीं समझते’ । बचपन में राधा के साथ ये नमस्ते-नमस्ते का खेल हम खूब खेला करते थे, नमस्ते-नमस्ते खेलते एक दिन राधा डोली में बैठकर सबको नमस्ते करके ससुराल चली गई थी, तब से मन में सूनापन सवार हो गया था।

अब जमाना बदल गया है आजकल जब कोई आपको नमस्ते कहता है तो पलटकर ‘हम कुछ नहीं समझते’ टाइप की बात करने पर बबाल मच  जाता है, ऐसे समय बचपन रह रहके याद आता है । बचपन में खेल खेल में एक दूसरे का मजाक उड़ाने में बड़ा मजा आता था। अब बचपन में किसी को नमस्ते कहने वाला कहां मिलता है, अब तो मोबाइल और सोशल मीडिया में ये सब झूठ मूठ का लेन-देन चलता है। बचपन में नमस्ते कितने प्रकार के होते हैं नहीं पता था,जब बड़े हुए और नौकरी करने लगे तब समझ में आया कि ये नमस्ते में भी बड़े लफड़े हैं।

हमें समझ में ये आया कि हर किसी को खुश नहीं कर सकते तो कोशिश करें कि हमारी वजह से किसी को दुख न पहुंचे,  इसीलिए हमने हर किसी को नमस्ते करने की आदत डाल ली, हालांकि नमस्ते करने में कहीं फायदा हो जाता है तो कभी किसी को गलतफहमी हो जाती है। कुछ लोग नमस्ते करने से बुरा भी मान जाते हैं और कभी कभी कोई गले भी पड़ जाता है। कई लोग तो उधारी मांगने पहुंच जाते हैं, कहते हैं- आपने बाजार में एक बार नमस्ते किया था तो इस बुरे वक्त पर आप आप हमारे काम भी आ सकते हैं। नौकरी करते हुए यह बात समझ में आयी कि कुछ लोगों को आप यदि आदरपूर्वक नमस्ते कहोगे तो वे आपको सचमुच कुछ भी नहीं समझेंगे। मेरे विभाग के दो आला अफसर इस बात के लिए कुख्यात थे, वे किसी के भी नमस्ते को कुछ नहीं समझते थे। अक्सर लोग बड़े आदमियों को इसलिए नहीं नमस्ते कर लेते हैं कि इस पता नहीं, कब किस नमस्ते के प्रताप से कौन सा काम बन जाए। मेरे विभाग के आला अफसर इस बात को समझते थे इसलिए वे केवल अपने से बड़े अफसरों को देखकर ही नमस्ते करते थे। अपने से नीचे वालों को वे हेय दृष्टि से देखते और कभी गुड मॉर्निंग जैसा बिना मन के कर लेते थे। एक अफसर हमारे बाजू की टेबल पर बैठने वाली सुनीता को अपने केबिन में बुलाकर नमस्ते की विधि और उसके पीछे का विज्ञान समझाया करते थे, बाद में हंसते हुए सुनीता बताती थी कि सबसे पहले साहब अपने दोनों हाथ जोड़कर सीने में रख देते थे,उनका कहना था कि सीने में हाथ रखने से हृदय चक्र और सूर्य चक्र एक्टिव हो जाते हैं, फिर आंखों को बंद करके सिर झुका लेते थे। वे कहते थे कि वैदिक शास्त्रों का मानना है कि हाथों को जोड़कर जब हृदय चक्र और सूर्य चक्र पर लाते हैं तो आपस में दैवीय प्रेम का संचरण होता है और मुंह से बार बार नमस्ते- नमस्ते निकलने लगता है, सुनीता बताती थी कि ऐसा नमस्ते करने का तरीका उसने पहली बार देखा था। जब उसने साहब से नमस्ते करने के इस तरीके के बारे में पूछा था तो साहब ने बताया था कि नमस्ते की क्रिया के दौरान जोड़े गए हाथों से शरीर के कुछ ऐसे दबाव बिंदु सक्रिय हो जाते हैं जिनसे प्रसन्नता महसूस होती है। साहब ऐसा नमस्ते क्यूं करते थे आज तक समझ नहीं आया।

आफिस खुलते ही साहब की घंटी बजती और सुनीता जुल्फें और साड़ी का पल्लू संभालने लगती थी, जब केबिन के बाहर निकलती तो आंख नीचे किए रहती थी। साहब हमारे गुड मॉर्निंग से चिढ़ते थे और सुनीता के सामने हमारी हंसी उड़ाते थे। अजीब बात थी नमस्ते कहने में सुनीता खुश होती और साहब गुड मॉर्निंग में नाराज होते थे, तब हम डरे डरे रहते थे।

नमस्ते के नाम से बड़े बड़े खेल हो जाते हैं, नमस्ते के नाम से बड़ी राजनीति हो जाती है, चुनाव जीतने के चक्कर में “नमस्ते ट्रंप” के आयोजन के बाद देश में ‘नमस्ते’ का बड़ा शोर मचा था, ट्रंप को देखने जो भीड़ जुटाई गई थी उनको पुलिस ने नमस्ते-नमस्ते कहकर दौड़ा-दौड़ा के मारा था, जब अमेरिका के चुनाव के रिजल्ट आये तो हमने क्रेडिट ले ली कि हम लोगों ने चुनाव के पहले नमस्ते ट्रंप कर लिया था। भारत होशियार हो गया है, नमस्ते ट्रंप के पीछे की भावना को ट्रंप ने भी नहीं समझा था।

आजकल दुनिया में जितना कोरोना का डर है उतना ही पूरी दुनिया में नमस्ते का असर है। कोरोना काल में हैरानी होती है ये सब देखकर कि दुनिया की बड़ी बड़ी हस्तियों ने हाथ मिलाना, गले लगाना, हेलो-हाय को त्यागकर नमस्ते-नमस्ते को अपनाया है, और नमस्ते नमस्ते को कोरोना का उपाय बताया है।

बार बार नमस्ते नमस्ते करने लगो तो कई लोग शक की निगाह से देखने लगते हैं, फिर ऐसे लोगों से जय श्रीराम-जय श्रीराम करना पड़ता है। नमस्ते की गजब माया है, एक विशेष प्रकार से नमस्ते करो तो ये नमस्ते सामने वाले को डरा देता है, कोई कोई नमस्ते किसी का भला भी कर देता है, कुछ कहा नहीं जा सकता कि कौन सा नमस्ते किस वक्त क्या कला दिखा दे। हमारे पड़ोसी बल्लू भैया को उनका मकान मालिक बहुत सालों से तंग कर रहा था, बल्लू भैया पुराने किरायेदार हैं, ईमानदार हैं, समय पर किराया भी देते हैं, मकान मालकिन को सुबह-शाम नमस्ते करते हैं। बल्लू भैया में कोई अवगुण नहीं है फिर भी मकान मालिक खाली कराने हेतु तंग करता रहता है, कभी नल बंद कर देता है, कभी नाली बंद कर देता है, कभी रात में दरवाजे के सामने गंदगी फिकवा देता है। बल्लू भैया सीधे सादे इंसान हैं, सहनशील इतने कि कुछ बोलते भी नहीं, लड़का डाक्टर है, दस्यु प्रभावित जिले में पदस्थ है। अच्छा इलाज करता है गोली और छर्रे दो मिनट में आपरेशन करके निकाल देता है इसलिए डाकू लोग उसको पूजते हैं।

जब मकान मालिक की हरकतें बहुत बढ़ गईं तो बल्लू भैया ने लड़के को सूचना दी कि मकान मालिक बहुत तंग कर रहा है। लड़के ने दो तीन खूंखार डाकू मकान मालिक के पास भेज दिए। मकान मालिक घबरा गया बोला- मुझसे कुछ गलती हो गई क्या ?

तब डाकूओं ने कहा कि आपके शहर तक आये थे तो सोचा आपको नमस्ते ठोंक दें, और एक डाकू ने उसके सीने में बंदूक अड़ा दी। मकान मालिक थर थर कांपने लगा, डाकूओं ने कहा कि आपके किरायेदार हमारे पूज्यनीय हैं, उनका ध्यान रखा कीजिए, मकान मालिक बल्लू भैया के चरणों में गिर गया, माफी मांगी और तभी से मकान मालिक सुबह शाम बल्लू भैया को नमस्ते करने लगा। तो नमस्ते में इतना दम है कि नमस्ते से काम भी बन जाते हैं और नमस्ते करने से मुक्ति भी मिल जाती है।

आज सुबह टहलने निकले तो रास्ते में राधा के पापा ने दुखी मन से नमस्ते किया और बताया कि राधा की रिपोर्ट कोरोना पाज़िटिव आयी थी, सांस लेने में बहुत तकलीफ थी। अस्पताल से अभी अभी खबर आयी है कि राधा ने इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए नमस्ते कह दिया… प्रोटोकॉल के नियमानुसार उसका अंतिमसंस्कार होगा, खबर सुनकर मन उदास हो गया, बचपन में राधा के साथ नमस्ते नमस्ते खेलने की यादें चलचित्र की तरह चलने लगीं। पालीथीन से सील की गई डेड बॉडी को शव वाहन में रख दिया गया, हमें बीस फुट दूर रहने को कहा गया, गाड़ी छूटने लगी, नम आंखों से नमस्ते करने हाथ उठे ही थे कि मुंह से ‘राधे राधे’ निकल गया…….

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 75 ☆ एक व्यंग्यकार का आत्मकथ्य ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है आपका एक  अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘एक व्यंग्यकार का आत्मकथ्य’।  इस व्यंग्य में  वे समस्त तथ्य आपको मिल जायेंगे जो एक व्यंग्यकार भलीभांति जानता है किन्तु, लिख नहीं पाटा। इस विशिष्ट व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 75 ☆

☆ एक व्यंग्यकार का आत्मकथ्य

जैसा कि आप जानते ही होंगे, आपका यह सेवक (देखी विनम्रता?) पिछले पच्चीस- तीस साल से व्यंग्य लिख रहा है। नहीं जानते हों तो क्यों नहीं जानते?कुछ पढ़ते लिखते रहिए। कुछ और न पढ़ें तो कम से कम मेरा लिखा तो पढ़िए। कोई भी लेखक साहित्य को पतन की ओर अग्रसर तभी मानता है जब उसका खुद का लिखा कोई नहीं पढ़ता। दूसरे का लिखा न पढ़ा जाए तो साहित्य में कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाँ, तो कह यह रहा था कि मैं पिछले पच्चीस-तीस साल से श्रेष्ठतम, विश्व-स्तर का व्यंग्य-लेखन कर रहा हूँ। मुझे इसमें रंच मात्र भी शक नहीं है कि चेखव, गोगोल, सर्वेंटीज़, बर्नार्ड शॉ,मार्क ट्वेन के कद में और मेरे कद में बस एक दो सेंटीमीटर का ही फर्क है। मुझे पूरा भरोसा है कि जल्दी ही मेरा कद इन सब महानुभावों से एक दो सेंटीमीटर ऊँचा हो जाएगा। ठोस कारण यह है कि ये सब महानुभाव दिवंगत हुए जबकि मैं आप सब पाठकों की दुआ से मैदान में हूँ।

अपने बारे में कुछ तफसील से बता दूँ। व्यंग्यकार के रूप में मेरा काम सामाजिक विसंगतियों को उघाड़ना, पाखंड का पर्दाफाश करना और मुखौटों को नोचना है। पच्चीस-तीस साल से मैं यह काम पूरी निष्ठा से कर रहा हूँ। मेरे घर आएंगे तो आपको सौ-दो सौ मुखौटे इधर उधर बिखरे मिलेंगे।

मैं बड़े उसूलों वाला हूँ।  ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और विश्वबंधुत्व में विश्वास रखता हूँ, लेकिन अपनी जाति के लिए मेरे मन में बड़ी कमज़ोरी है। अपनी जाति के आदमी को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। अपनी जाति के स्थानीय संगठन का अध्यक्ष और राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य हूँ। आप मानें या न मानें, लेकिन जो बात मेरी जाति में है वह दूसरी जातियों में कहाँ। अन्तर्जातीय विवाह का पुरज़ोर समर्थन करता हूँ लेकिन अपने सुपुत्र के कान में फूँकता रहता हूँ कि मेरे लाल, किसी दूसरी जाति की बहू लाएगा तो मैं दुख के मारे स्वर्गलोक चला जाऊँगा।

बहुत प्रगतिशील और नये विचारों वाला हूँ,लेकिन पाँचों उँगलियों में तुरत फलदायी, विघ्नविनाशक, चमत्कारी रत्नों वाली अँगूठियाँ पहनता हूँ। ज्योतिषियों से पूछे बिना यात्रा नहीं करता। व्यंग्य-गोष्ठियों में जाता हूँ तो अपनी नज़र उतरवा लेता हूँ। अनिष्ट के निवारण के लिए यज्ञ, अनुष्ठान कराता हूँ। ज़िन्दगी में दोनों नावों पर पैर रखकर चलने से मन शान्त रहता है और ज़िन्दगी आराम से कट जाती है।

वैसे मैं एक दफ्तर में आला अफसर हूँ। आपकी दुआ से पचास-साठ आदमी मेरे मातहत हैं। अच्छा रोब-दाब है। शहर के बड़े बड़े लोगों से रसूख है। इनमें से कई भ्रष्टाचारी और पाखंडी हैं, लेकिन क्या कीजिएगा? पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर तो नहीं किया जा सकता। डायन भी एकाध घर छोड़ देती है। इसलिए कहीं आँख खोलकर और कहीं आँख मूँदकर चलता हूँ। इसीलिये ख़ुशोखुर्रम हूँ। सुख की नींद सोता हूँ। कबीर नासमझ थे जो जागते और रोते थे।

लेखन के लिए मुझे अतिरिक्त समय की ज़रूरत नहीं पड़ती। दफ्तर में बहुत समय मिलता है। देश तो भगवान भरोसे चल ही रहा है। दफ्तर के कागज़ का सदुपयोग हो जाता है। दफ्तर का टाइपिस्ट टाइप कर देता है। मेरी रचनाएं टाइप करते करते उसका हाथ साफ हो गया है। आजकल हर काम में हाथ की सफाई का महत्व है। मुझे पता है कि कुछ लोग रचनाएं दफ्तर में टाइप कराने के लिए पीठ पीछे मेरी आलोचना करते हैं, लेकिन मैं ऐसे छिद्रान्वेषण की परवाह नहीं करता।

मेरे दफ्तर की एक लाइब्रेरी है। जिन जिन पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं छप सकती हैं उनको दफ्तर की लाइब्रेरी में मंगाता हूँ। संपादक जी जानते हैं कि मैं सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हूँ,इसलिए मुझसे बड़े प्रेम से पेश आते हैं। जो संपादक पत्रिका निकालने के साथ पुस्तकों का प्रकाशन भी करते हैं उनकी पुस्तकें लाइब्रेरी में खरीद लेता हूँ। इसलिए मेरे कई संपादकों से गाढ़े संबंध बन गये हैं। पत्र-व्यवहार होता रहता है और प्रेम-भाव बना रहता है।

जब कहीं से साहित्यिक कार्यक्रम का बुलावा आता है तो उस शहर का आफिशियल टूर निकाल लेता हूँ।  ‘गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट’ हो जाती है। दफ्तर की कृपा से साहित्य का भरपूर सुख मिलता रहता है। किराया गाँठ से जाए तो साहित्य बेमज़ा हो जाता है।

आजकल हास्य-व्यंग्य के मंचीय कवि-सम्मेलनों में जाने लगा हूँ। तुकबन्दी से तीन चार कविताएं गढ़ ली हैं,उन्हीं को पढ़ देता हूँ। कहीं लेख पढ़ देता हूँ। रचना कमज़ोर होती है, लेकिन हाव-भाव और अभिनय से श्रोताओं को खुश कर लेता हूँ। कहीं कुत्ते का ज़िक्र आता है तो पिल्ले की आवाज़ निकाल देता हूँ, बिल्ली का ज़िक्र आता है तो ‘म्याऊँ म्याऊँ’ कर देता हूँ। श्रोता ‘खी खी’ करते लोट-पोट हो जाते हैं। नेता पर व्यंग्य करता हूँ तो खादी की टोपी पहन लेता हूँ। एक कविता बीवी पर है, उसे पढ़ते वक्त दुपट्टा ओढ़ लेता हूँ। आपकी दुआ से धंधा अच्छा चल रहा है। श्रोताओं के बीच पहचान बन गयी है। कवि-सम्मेलनों के आयोजकों की नज़र में मैं चलने वाला सिक्का हूँ। कुछ जगह तो श्रोता मुझे देखते ही खिखियाने लगते हैं। माइक  पर पहुँचते ही आँखें गोल-गोल घुमाता हूँ और श्रोता मगन हो जाते हैं।

आजकल मेरी नज़र पुरस्कारों पर है। ज़्यादा बड़ा नहीं तो पाँच दस हज़ार का ही कोई पुरस्कार जम जाए। कोशिश कर रहा हूँ। कई जगह प्रेम-पत्र लिखे हैं। लेखन भले ही काम न दे,संबंध तो काम देते ही हैं। इसीलिए लेखन से ज़्यादा मेहनत संबंध बनाने पर करता हूँ। आपकी दुआ रही तो जल्दी ही कोई न कोई पुरस्कार इस ख़ाकसार की झोली में गिरेगा। बस दुआ करते रहिए।

अगले हफ्ते मेरी पहली किताब का विमोचन एक मंत्री के कर-कमलों से होगा। मुख्यमंत्री के लिए जुगाड़ बैठाया था लेकिन  गोटी न बैठा सका। मंत्री जी विमोचन कर दें तो किताब का प्रचार-प्रसार हो जाएगा। फिर सरकारी खरीद के लिए जुगत भिड़ाऊँगा। सफलता ज़रूर मिलेगी क्योंकि अफसर से लेकर संतरी तक की नब्ज़ मैं पहचानता हूँ।

किस्सा मुख़्तसर यह कि मैं पिछले पच्चीस-तीस साल से विसंगतियों को उघाड़ रहा हूँ और पाखंडियों की नींद हराम कर रहा हूँ। आपका आशीर्वाद मिलता रहा तो आगे भी इसी तरह दुनिया को सुधारने के काम में लगा रहूँगा।

कुन्दन सिंह परिहार

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 43 ☆ अलग-थलग से रास्ते ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अलग-थलग से रास्ते”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 43 – अलग-थलग से रास्ते ☆

समय बहुत बलवान होता है। ये किसी की प्रतीक्षा नहीं करता है। जैसे ही कोई नीति बनें तो उसका पालन तुरंत होना चाहिए। केवल सबको बधाई देते रहिए, अपने आप समय आपको भी इस लायक कर देगा कि आप सबकी बधाई पाने लगेंगे। परन्तु लोगों  को तो छीनने- झपटने की आदत होती है। बस आडंबर का जामा पहन कर पोस्टर की रौनक बन जाते हैं। जब किसी का प्रभाव कम होने लगता है, तो वो जद्दोजहद करके, ऐन-केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा कर ही लेता है।

अब बात आती है; ईमानदारी की। जिसकी नियत पाक साफ होती है, वो तो तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ जाता है। और बाकी लोग दूर से बैठे हुए देखते रहते हैं। सफलता के पायदान पर चलने की ताकत, केवल लगन और निष्ठा से आती है। एक सांस्कृतिक कार्यक्रम अपने  पूरे रंग में  था। लोगों की एक से बढ़कर एक प्रस्तुतियाँ आती रहीं पर आयोजक महोदय ने चालबाजी दिखाते हुए, अपने ही लोग एक-एक कर पुरस्कृत कर दिए। अब तो खींचातानी होने लगी। दबे स्वर में विद्रोह का बिगुल बज उठा। जिसे सरल समझ कर बाहर का रास्ता दिखा रहे थे उसने बाहर जाते ही नए रास्ते का निर्माण कर डाला। और अपने अनुयायियों के साथ चलते हुए मंजिल पर पहुँच अपना परचम फहरा दिया।

इधर सब बातों से बेखबर वे लोग जश्न में डूबे रहे। टी. व्ही.  पर जब खबर सुनी तब 440 वोल्ट का झटका लगा। किसी की उपेक्षा इतनी भारी पड़ेगी, ये तो सोचा भी नहीं था। पर अब तो चुपचाप खून का घूँट पीने के अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं था। अपेक्षा और उपेक्षा दोनों ही बहनें किसी को भी अपने लक्ष्य से अलग- थलग करने की क्षमता रखतीं हैं। अभिमानी अहंकार के साथ मिल कर कोई न कोई कारनामा करता ही रहता है। बहला – फुसलाकर पहले कार्य करवाना फिर आयोजनों के दौरान अनजान बनने का नाटक करना, ये सब इतना भारी पड़ेगा, कि  ‘सिर मुड़ाते ही ओले पड़े’ वाले  मुहावरे को भी पीछे छोड़कर आगे बढ़ जायेगा, ये तो आयोजकों ने कल्पना भी नहीं की थी। खैर जहाँ चाह वहाँ राह इसी को प्रेरणा बना अब पिछली सीट पर बैठकर ताली बजाते रहिए।

योग्य व्यक्ति की कार्य करने की इच्छा हो, और कोई कार्य न हो, तो वो नए कार्यों का सृजन कर ही लेते हैं। अचानक से कोई कोई योजना ठप्प  पड़ जाए और आप अपने को असहाय समझे तो भरोसा न छोड़ें, ईश्वर परिश्रमी की मदद करते हैं। नयी राह और राही दोनों ही मिलते हैं।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 70☆ आमने-सामने – 6 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे।  आज अंतिम में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार श्री रमेश सैनी जी  (जबलपुर), श्री राजशेखर चौबे जी (रायपुर) एवं  श्री आत्माराम भाटी जी के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 70

☆ आमने-सामने  – 6 ☆

श्री रमेश सैनी (जबलपुर)

वर्तमान समय में सभी तरफ व्यंग्य पर बहुत गंभीरता से विमर्श हो रहा है, विशेषकर परसाई जी और आज लिखे जा रहे व्यंग्य के संदर्भ में। क्योंकि आज के पाठक और आलोचक इससे संतुष्ट नज़र नहीं हो रहे। एक व्यंग्य विमर्श गोष्ठी में आपके सवाल के उत्तर में यह बात उभर कर आई थी कि व्यंग्य में खतपरवार ऊग आई है, जो फसल को नष्ट कर रही है।

उक्त टिप्पणी को केंद्र में रखकर व्यंग्य में खतपरवार और अराजक परिदृश्य पर आप क्या सोचते हैं ?

इसकी सफाई कैसे संभव हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय सैनी जी  व्यंग्य विधा के उन्नयन और संवर्धन के यज्ञ में आपका योगदान महत्वपूर्ण है, अब व्यंग्य विमर्श के आयोजन के बिना आपका खाना नहीं पचता, हम सब आप से और सबसे ही बहुत कुछ सीख रहे हैं। खरपतवार हमारे अपने ही कुछ लोग पैदा कर रहे हैं इसलिए व्यंग्य की लान में ऊग आयी जंगली घास को आप जैसे पुराने व्यंग्यकारों को निंदाई का कार्य करना पड़ेगा और जो लोग खरपतवार में खाद पानी दे रहे हैं उन्हें चौगड्डे में लाकर खड़ा करना पड़ेगा।

श्री राजशेखर चौबे (रायपुर) 

आज बहुत सारे व्यंग्यकार सत्ता के साथ खड़े होकर विपक्ष को टारगेट  करते नजर आते हैं ऐसा क्यों है ?

आप इसका क्या कारण मानते हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय भाई, शेरदिल धाकड़ व्यंग्यकार यह तो भली-भांति जानता है कि उसका धर्म और दायित्व सत्ता पर अंकुश रखते हुए विपक्ष की भूमिका निभाना है। मीडिया जब कमजोर बना दिया जाता है, या बिक जाता है, विपक्ष भी जब तोड़फोड़ के चक्कर में विपक्ष की भूमिका ठीक से नहीं निभा पाता है तब व्यंंग्यकार ही वह महान हस्ती के रूप में विपक्ष की दमदार भूमिका निभाने में सक्षम माना जाता है। तब व्यंंग्यकार ही घोड़े की लगाम खींच खींच कर घोड़े को नियंत्रण में रख पाता है, तो आज के विकट समय में व्यंंग्यकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। जो नकली व्यंग्यकार लोभ लालच और पूंछ हिलाने के चक्कर में विपक्ष पर व्यंग्य लिखकर सत्ता पक्ष के सामने इम्प्रैशन जमाकर पुरस्कार लूटना चाहते हैं, वे व्यंंग्यकार नहीं जोकर होते हैं और सियार की खाल पहनकर कूद फांद करने में विश्वास करते हैं।

श्री आत्माराम भाटी

जयप्रकाश जी ! बतौर साहित्यकार स्वयं लिखी रचना को सम्पादित करना आसान है या किसी दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से देखना ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय जी,स्वयं लिखी रचना को सबसे पहले सम्पादित करने और कांट-छांट करने का अधिकार, कायदे से घर की होम मिनिस्ट्री के पास होना चाहिए, फिर उसके बाद आवश्यक सुधार, संशोधन आदि स्वयं लेखक को करना चाहिए।  दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से नहीं बल्कि सुझाव की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पहले किसी लेखक की रचना जब संपादक के पास प्रकाशनार्थ जाती थी तो संपादक लेखक की अनुमति लेकर छुट-पुट सुधार कर लेता था।  आजकल तो कुछ संपादक ऐसे हैं जो विचारधारा के गुलाम हैं,सत्ता के दलाल बनकर बैठे हैं, रचना मिलते ही सबसे पहले कांट-छांट कर रचना की हत्या करते हैं बिना लेखक की अनुमति लिए। फिर छापकर अच्छी रचना बनाने का श्रेय भी खुद ले लेते हैं।

समाप्त

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 42 ☆ जोर लगाकर हईशा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “जोर लगाकर हईशा…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 42 – जोर लगाकर हईशा… ☆

एकता और शक्ति कार्यक्रम में शक्ति का प्रदर्शन चल रहा था। सभी से एकता बनाए रखने की अपील की जा रही थी। पर एकता के तो भाव ही नहीं मिलते हैं। एक- एक मिलकर ग्यारह तो हो सकते हैं। एक- एक जल की बूंद से सागर भर सकता है। एक – एक लकड़ी मिलकर बड़ा सा गट्ठर बना सकती है, पर प्रत्येक व्यक्ति के विचारों को एकता के सूत्र में बाँधकर रहना बहुत मुश्किल होता है ।

हर व्यक्ति अपनी ही जीत चाहता है। जिसके लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगाकर गुटबाजी करने से भी नहीं चूकता है। एकता का जाप करते हुए मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा का गीत अवश्य ही उसका नारा होता है। परंतु कथनी और करनी का भेद यहाँ भी टपक पड़ता है। जिस तरह रस्सी खींच प्रतियोगिता में दो गुट बनाकर , दोनों ओर बराबर संख्या में प्रतिभागी होते हैं। वैसा ही किसी भी आयोजन में देखा जाता है। यहाँ लोग पुरानी बातों को एक – एक कर खोलने लगते हैं ताकि सामने वाले का मनोबल कम हो जाए। पर लोगों ने भी कोई कच्ची गोटियाँ नहीं खेली होती हैं। आयोजक ऐसे लोगों को चयनित ही करते हैं। जो आकर्षण के सिद्धांत का पालन करते हुए ही नीतियाँ बनाता और लागू करवाता हो।

जोर लगाकर हईशा…

इस नारे की गूँज से वातावरण गुंजायमान हो गया, सब लोग पूरे दमखम के साथ मैदान पर उतरे हुए थे। बस इंतजार था कि जिस दल की एकता भंग हुई वही चारो खाने चित्त होगा। पर इसकी यही तो खूबी है कि ये सत्ता पक्ष के साथ ही इतराती है। एकता को भी साजो शृंगार की आदत जो ठहरी , ये  वहीं रुकेगी जहाँ स्थायित्व हो। प्रतियोगिता अपने चरम पर थी , दर्शकों की धड़कनें थम गयीं …अब क्या होगा , सभी की निगाहें परिणाम की ओर थीं। दोनों दल पूरे मनोयोग से रस्सी खींच रहे थे। सभी ओर एक से बढ़कर एक नीतिकार योद्धा मौजूद थे। दर्शकों ने भी गुटबाजी में अपनी भलाई समझी ,सो वे भी दो समूहों में बँट कर आंनद लेने लगे। अब तो निर्णायकों को भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। उन्होंने चारों ओर निगाहें दौड़ाई और आँखों ही आँखों में ये तय कर लिया कि यदि समय पूरा हो गया और कोई आशाजनक परिणाम नहीं मिल पाया तो  इस जीत से ज्यादा फायदा जिसके द्वारा हम लोगों को मिल सकता है उसे ही विजेता बना देंगे ।

पर एकता में शक्ति होती है। सो एक समूह जो पहले से ही एकता के सूत्र की मिसाल है वो जीत ही गया क्योंकि एक – एक मोती मिलकर ही सम्पूर्ण माला को बनाते  हैं ।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 69☆ आमने-सामने – 5 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध  साहित्यकार  डॉ सुरेश कुमार मिश्रा जी (हैदराबाद),श्री  अशोक व्यास जी (भोपाल) एवं श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी  (जबलपुर) के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 69

☆ आमने-सामने  – 5 ☆

डॉ सुरेश कुमार मिश्रा (हैदराबाद)

क्या एक सरकारी कर्मचारी सत्ता पक्ष के गलत फैसलों पर तंज कसते हुए व्यंग्य लिख सकता है? यदि हाँ तो उसके लिए क्या प्रावधान हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

सुरेश कुमार जी, जब तक ढका मुंदा है और आपके कार्यालय परिवार के लोग जीवन से तटस्थ हैं, तब तक तो कुछ नहीं होता, कार्यालय का काम और अनुशासन आपकी प्राथमिकता है और यदि लेखक के अहंकार में चूर होकर बास से खुन्नस ली तो साथ के लोग और बास आपको फांसी चढ़ाने के लिए बैठे रहते हैं। क्योंकि आप जानते हैं कि सच को उजागर करने वालों का दुनिया पक्ष कम लेती है और आपको व्यंग्य लिखने की सरकारी अनुमति मिलेगी नहीं, ऐसी दशा में लेखक को विसंगतियों पर इशारे करके लिखना होगा।

 

श्री अशोक व्यास (भोपाल) 

मेरा प्रश्न है कि आजकल जो व्यंग्य पढ़ने में आ रहे हैं उसमें  साहियकारों  पर जिसमें अधिकतर व्यंग्यकारों पर व्यंग्य किया जा रहा है । क्या विसंगतियों को अनदेखा करके दूसरे के नाम पर अपने आप को व्यंग्य का पात्र बनाने में खुजाने जैसा मजा ले रहे हैं हम ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

भाई साहब, सही पकड़े हैं। हम आसपास बिखरी विसंगतियों, विद्रूपताओं, अंधविश्वास को अनदेखा कर अपने आसपास के तथाकथित नकली व्यंंग्यकारों को गांव की भौजाई बनाकर मजा ले रहे हैं, जबकि हम सबको पता है कि इनकी मोटी खाल खुजाने से कुछ होगा नहीं, वे नाम और फोटो के लिए व्यंग्य का सहारा ले रहे हैं।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव (जबलपुर)

आप लंबे समय तक बैंकिंग सेवाओं मे थे, बैंक हिंदी पत्रिका छापते थे, आयोजन भी करते थे।

आप क्या सोचते हैं की व्यंग्य, साहित्य के विकास व संवर्धन में संस्थानों की बड़ी भूमिका हो सकती है ? होनी चाहिये ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

विवेक भाई, हम लगातार लगभग 36 साल बैंकिंग सेवा में रहे और शहर देहात, आदिवासी इलाकों के आलावा सभी स्थानों पर लोगों के सम्पर्क में रहे और अपने ओर से बेहतर सेवा देने के प्रयास किए। पर हर जगह पाया कि बेचारे दीन हीन गरीब, दलित, किसान, मजदूर दुखी है पीड़ित हैं, उनकी बेहतरी के लिए लगातार सामाजिक सेवा बैंकिंग के मार्फत उनके सम्पर्क में रहे, गरीबी रेखा से नीचे के युवक युवतियों को रोजगार की तरफ मोड़ा, दूरदराज की ग़रीब महिलाओं को स्वसहायता समूहों के मार्फत मदद की मार्गदर्शन दिया। प्रशासनिक कार्यालय में रहते हुए गृह पत्रिकाओं के मार्फत गरीबों के उन्नयन के लिए स्टाफ को उत्साहित किया, बिलासपुर से प्रतिबिंब पत्रिका, जबलपुर से नर्मदा पत्रिका, प्रशिक्षण संस्थान से प्रयास पत्रिका आदि के संपादन किए, और जो थोड़ा बहुत किया वह आदरणीय प्रभाशंकर उपाध्याय जी के उत्तर में देख सकते हैं। बैंक में रहते हुए साहित्य सेवा और सामाजिक सेवा से समाज को बेहतर बनाने की सोच में उन्नयन हुआ, दोगले चरित्र वाले पात्रों पर लिखकर उनकी सोच सुधारने का अवसर मिला। कोरोना काल में विपरीत परिस्थितियों के चलते बैंकों में अब समय खराब चल रहा है इसलिए आप जैसा सोच रहे हैं उसके अनुसार अभी परिस्थितियां विपरीत है।

क्रमशः ……..  6

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ लोकतंत्र की चुनावी दीवाली ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

श्री नवेन्दु उन्मेष

☆ व्यंग्य ☆ लोकतंत्र की चुनावी दीवाली ☆ श्री नवेन्दु उन्मेष

लोकतंत्र में मतदाता ही चुनाव में दीपावली मनाते हैं। मतदाता ही लोकतंत्र के दीये जलाते हैं और मतदाता ही लोकतंत्र के दीये बझाते भी हैं। जिस दल या नेता का दीया मतदाता जलाते देते हैं उसके घर पर दीपावली मनती है और जिसके घर के दीये मतदाता बुझा देते हैं उसके घर पर बीरानी छा जाती हैं।

चुनाव आयोग जैसे ही चुनाव की दीपावली जलाने की तिथि की घोषणा करता है। राजनीतिक दल और उनके नेता दीपावली का जश्न मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं। इसके लिए प्रत्याशी चयन से लेकर प्रचार तक का काम शुरु कर दिया जाता है। इसके बाद शुरु होती है मतदाताओं को यह बतलाने का काम कि किस दिन
दीपावली मनायी जायेगी। घर-घर जाकर उम्मीदवार मतदाताओं को बताते हैं कि अमुक दिन लोकतंत्र की दीवाली मनायी जायेगी। उम्मीदवार मतदाताओं को यह भी बताते हैं कि दीपावली मनाते वक्त किस तरह की सावधानी बरतने की जरूरत है। सावधानी बताते वक्त वे यह भी बताते हैं कि किस दल के उम्मीदवार की क्या
कथनी और करनी रही है। किस दल ने मतदाताओं के लिए कार्य किया है और किसी दल ने मतदाताओं के लिए कार्य नहीं किया है।

लोकतंत्र के दीये जलाने के लिए महंगाई, बेरोजगारी, नाली, सड़क, चिकित्सा व्यवस्था, युवा, महिलाएं और लोगों की समस्याएं टूल्स का कार्य करती हैं। अगर ये टूल्स न रहें तो लोकतंत्र के दीये जल ही नहीं सकते हैं। नेता या उम्मीदवार इन्हीं टूल्स के भरोसे दीये जलाने वाले मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। ये ऐसे टूल्स है जो कभी खत्म हो ही नहीं सकते। अगर ये टूल्स खत्म हो जायें तो फिर लोकतंत्र के दिये जलेंगे कैसे। इसलिए नेता हमेशा इन टूल्स को जिंदा रखने का काम करते हैं। उम्मीदवार जब भी मतदाताओं के घर पर जाते हैं तो वे जानते हैं कि मतदाता उन्हें देखकर भड़केगा जरूर। इसके लिए वे उन्हें आश्वासन की घुट्टी पिलाते हैं ताकि मतदाता उन्हें मत देकर उनका दीया जला सके। अगर मतदाता उम्मीदवार के झांसे में आ जाता है तो वह उम्मीदवार के दीये जा देता है। अगर झांसे में नहीं आता है तो उसके दीये को बुझा देता है। नेता कहते हैं ’हमने चहुंमुख दीये जलाये, न जाने किस पथ से लक्ष्मी आ जाये।‘ इसका मतलब है कि लोकतंत्र की दीपावली में नेता अपने चुनाव क्षेत्र में घूम-घूमकर मतदाताओं को रिझाते हैं यानी आश्वासन के दीये बांटते हैं ताकि वे मतदान के दिन इवीएम पर बटन दबाकर  उनके पक्ष में दीये जला सकें।

इवीएम पर बटन दबते ही लोकतंत्र के धनतेरस और दीपावली का त्यौहार संपन्न हो जाता हैं। इस दिन मतदाता के साथ-साथ चुनाव आयोग और अन्य लोग धनकुबेर की जमकर पूजा करते हैं। चुनाव आयोग मतदान की व्यवस्था करने में धन खर्च करता है तो राजनीतिक दल बूथ स्तर पर कार्यकर्ताओं पर खर्च करते है। इस प्रकार लोकतंत्र में मतदान के दिन दीपावली और धनतेरस का त्यौहार संयुक्त रूप से मनाया जाता है।

अगर मतदाता न हों तो लोकतंत्र की दीपावली का कोई मतलब नहीं रह जाता है। लोकतंत्र की दीपावली मनाने के लिए मतदाताओं की जरूर वैसे ही पड़ती है जैसे दीये को जलाने के लिए तेल की। अगर तेल न हो तो दीये जल नहीं सकते। मतदाता न हों तो लोकतंत्र की दीपावली भी मन नहीं सकती। लोकतंत्र की दीपावली मनते ही मतदाताओं और ईवीएम का वहीं हस्र होता है जैसे दीपावली के बाद मिट्टी के दीये का होता है। दीपावली के दूसरे दिन न दीये की जरूरत पड़ती है और न मतदान के दूसरे दिन मतदाताओं की कोई अहमियम रह जाती है। दोनों ही भुला दिये जाते हैं। दीयों को लोग उठाकर फेंक देते हैं तो मतदाताओं की कोई की कोई सुधी लेने वाला नहीं रहता। इसके बाद मतगणना के दिन छोटी दीपावली मनायी जाती है। इसके मतदाताओं कोई जरूरत नहीं पड़ती। इसका जश्न सिर्फ दल के कार्यकर्ता या नेता मनाते हैं।

©  श्री नवेन्दु उन्मेष

संपर्क – शारदा सदन,  इन्द्रपुरी मार्ग-एक, रातू रोड, रांची-834005  (झारखंड) मो  -9334966328

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 41 ☆ बदलापुर की गाथा ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “बदलापुर की गाथा”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 41 – बदलापुर की गाथा ☆

बड़े घमंड के साथ, प्रचार – प्रसार द्वारा लगभग लाखों सब्सक्राइबर बना लिए,  पर जब भी कोई पोस्ट करते तो बस दस पन्द्रह लाइक ही झोली में आते हैं, अब तो बदलू जी परेशान रहने लगे। हद तो तब हो गयी जब वे बदलापुर के लिए निकल पड़े तो उनके दो अनुयाई भी उनका साथ न देकर,  नए नेता की ओर चल दिये। लोटा और पेंदी का साथ बहुत अच्छी बात है,  पर जब दोनों अलग हो जाएँ तो बिन पेंदी का लोटा लुढ़कता ही है।

इसी सब में क्षमा के गुणों की चर्चा भी चल निकली। ‘क्षमा वीर आभूषण’ होता कहना और सुनना तो सरल होता है पर जब किसी को क्षमा करना हो तो अहंकार आड़े आ ही जाता है। वो तो भला हो वीरचंद्र का जो सबको संमार्ग  ही दिखाते हैं। उन्होंने ने न जाने कितने लोगों को माफ किया और आगे बढ़ चले। सच ही कहा गया है। सिर पर ज्यादा बोझ हो तो चलना मुश्किल होता है ।

मजे की बात ये है कि अधिकांश लोग पूर्वाग्रही होते हैं। वे एक ही रंग का चश्मा पहन कर दुनिया को बदलने चल पड़ते हैं। अरे भई जब तक स्वयं को नहीं बदलोगे तब तक कुछ भी बदलने से रहा। कब तक कुएँ के मेढ़क की तरह उछल कूद करते रहोगे। कभी नदी का सफर भी करो। कैसे वो प्रपात बनाती हुई चलती है। तट का पहरा अवश्य ही उसके ऊपर रहता है। पर अपने लक्ष्य को साधकर आगे बढ़ने में उसे महारत हासिल होती है। सागर में समाहित होकर भी अपना अस्तिव व पहचान बनाए रखती है। उद्गम से चलते हुए न जाने कितनी बाधाओं को पार करना पड़ता है। कई छोटी – बड़ी नदियों के साथ संगम बनाती हुई,  रास्ते के कूड़े- करकट, नालियों का पानी सबको आत्मसात कर निरंतर चरैवेति – चरैवेति के सिद्धांत पर अड़िग होकर बढ़ती जाती है ।

सिक्के के एक पहलू से दूसरे पहलू की मित्रता कभी हो ही नहीं सकती ये तो दिन- रात की भांति दिखते हैं। कभी हेड तो कभी टेल बस जिस नज़र से दिखेंगे वही दिखेगा। यहाँ फिर से बात नजरिए पर आ टिकी,  सोच बदलो जीवन बदल जायेगा। ये बदलाव भी आखिर क्या चीज है। बदलू जिसे अपनाकर इतिहास रच रहा है। बदला लेने के लिए लोग क्या- क्या नहीं कर बैठते। औरंगजेब को देखिए उसने तो बदले की सभी हदें पार कर दी थीं । अपने पिता शाहजहां को बूंद- बूंद पानी के लिए तरसा दिया था। जरा सोचिए हमारी परंपरा तो प्याऊ लगवाने की रही है वहाँ ऐसा घोर अनाचार,  आखिर ये भी तो बदलापुर की बदलागिरी ही लगती है ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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