हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 358 ☆ व्यंग्य – “आभासी आदर्श बनाम वास्तविक व्यवहार” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 358 ☆

?  व्यंग्य – आभासी आदर्श बनाम वास्तविक व्यवहार ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

अजब दौर है, हर कोई अपनी ‘वाल’ या ‘स्टेटस’ पर ऐसी चमकती-दमकती बौद्धिकता और आदर्शवाद का प्रदर्शन करता है, मानो गांधी, नेल्सन मंडेला और दलाई लामा का संयुक्त स्वरूपउनके कीबोर्ड में निवास करता हो। “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की स्टोरी, कहीं पर्यावरण बचाने का जोशीला स्टेटस, तो कहीं नारी सशक्तिकरण पर विद्वतापूर्ण उपदेश। देखकर लगता है कि धरती पर स्वर्ग उतर आया है और उसके मुख्य देवदूत हमारे फ्रेंडलिस्ट में विराजमान हैं।

लेकिन ज्योंही इस आभासी आभा से निकलकर हम इन ‘आदर्श पुरुषों’ और ‘आदर्श नारियों’ के वास्तविक जीवन में कदम रखते हैं, त्योंही चश्मे के शीशे टूट जाते है। वही सज्जन, जिनकी वाल पर “क्षमा वीरस्य भूषणम्” (क्षमा वीरों का आभूषण है) टंगा होता है, सड़क पर गलती से टकरा जाने पर ऐसी गालियों का वर्षा करते हैं जो शायद ही किसी डिक्शनरी में मिले। वही महानुभाव, जो स्टेटस में “सादा जीवन उच्च विचार” का पाठ पढ़ाते हैं, असल जिंदगी में ब्रांडेड कपड़ों और महंगी गाड़ियों के पीछेदौड़ लगाते हैं, मानो सादगी कोई संक्रामक रोग हो।

पारिवारिक मोर्चे पर तो यह विसंगति महाकाव्य बन जाती है। फेसबुक पर “मातृ-पितृ भक्ति सबसे बड़ा धर्म” का उद्घोष करने वाला युवक, घर पहुंचते ही मां के “जरा पानी ला दो” कहने पर ” मम्मी, मैं बिजी हूं!” का तीखा जवाब देता है। ट्विटर पर “समानता और सम्मान” की पैरोकार करने वाली सुश्री, घर की बहू-बेटियों के साथ बर्ताव में ऐसा पुरातनपंथी रवैया अपनाती हैं, कि स्टेटस खुद शर्म से पानी-पानी हो जाए।

कार्यालयों में तो यह व्यवहार रोज का रंगमंच है। जो साहब लिंक्डइन पर “टीम वर्क” और “इथिकल लीडरशिप” पर लेख लिखते नहीं थकते, वही कार्यालय में अपने जूनियर की बढ़ती प्रतिभा से इतने क्षुब्ध रहते हैं कि उसकी प्रमोशन रिपोर्ट खराब करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। और “सत्यमेव जयते” वाला स्टेटस लगाने वाला कर्मचारी? उसके तो ऑफिस टाइम में पर्सनल काम और पर्सनल टाइम में ऑफिस के झूठ बनाने का शेड्यूल इतना टाइट होता है कि ‘सत्य’ तो बस उसकी प्रोफाइल पिक्चर तक ही सीमित रह जाता है।

इस विडंबना के मूल में छवि का भूत होता है। सोशल मीडिया’इमेज मेकिंग फैक्ट्री’ बन गया है। यहां आप जो दिखाना चाहते हैं, वही दिखाते हैं, आप जो हैं, वह नहीं। यह एक सुविधाजनक मास्क है, जिसे पहनकर वास्तविकता के दाग-धब्बों को छिपाने की कोशिश में हर प्रोफाइल जुटा हुआ है।

आदर्शवादी, प्रबुद्ध और संवेदनशील दिखने वाले पोस्ट्स को आभासी जगत में सामाजिक स्वीकृति और प्रशंसा मिलती है। यह एक डोपामाइन रश है।

आत्ममंथन करके अपने चरित्र को सुधारना एक कठिन, दीर्घकालिक प्रक्रिया है। उसके मुकाबले किसी महान व्यक्ति का कोट कॉपी-पेस्ट करके तुरंत ‘अच्छा इंसान’ दिख जाना सरल है। यह समय है कि हम अपनी ‘वाल’ को सजाने से पहले, अपने ‘व्यवहार’ को संवारने पर ध्यान दें। आदर्शवाद वह नहीं जो टाइप होता है, बल्कि वह है जो जीवन के कैनवास पर चरित्र के रंगों से चित्रित होता है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 57 – ऑनलाइन ज़माना, ऑफ़लाइन ड्रामा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना ऑनलाइन ज़माना, ऑफ़लाइन ड्रामा )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 57 – ऑनलाइन ज़माना, ऑफ़लाइन ड्रामा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

हैदराबाद की सड़कें, रात के आठ बज रहे थे और मैं अपने नए AI-संचालित स्मार्टफ़ोन के लिए लेटेस्ट चिपसेट ढूँढ रहा था। जब निकला था, तो शाम के पाँच बज रहे थे, अब आठ बज चुके थे, और मुझे लगने लगा था कि हैदराबाद ने ‘तकनीकी संतुष्टि’ से नाता ही तोड़ लिया था। टेक-पार्कों के बाहर कैब की लाइनें इतनी लंबी थीं, जितनी कि किसी IPO के लिए निवेशकों की। महंगे गैजेट की दुकानें, वीगन कैफे और ‘को-वर्किंग’ स्पेस ठसाठस भरे थे। ऑनलाइन गेमिंग सेंटर के बाहर बच्चे ऐसे चिपके थे, जैसे उनका भविष्य यहीं दाँव पर लगा हो। लेटेस्ट चिपसेट? वो तो शायद किसी डार्क वेब के कोने में पड़ा अपनी कीमत का इंतज़ार कर रहा था, ठीक वैसे ही जैसे कुछ स्टार्टअप इन्वेस्टर के पैसे का। मुझे लगा, इस डिजिटल दुनिया में कम से कम एक कप ऑर्गेनिक ग्रीन टी ही मेरी आत्मा को शांति दे दे। एक हिपस्टर कैफे में घुस गया, लेकिन वहाँ भी शांति कहाँ! मेरे अंदर का ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ जाग उठा, जो अमूमन ऐसी परिस्थितियों में ‘रील्स’ बनाने लगता है। मुझे याद आया, जब मार्क ज़करबर्ग ने कहा था, “तेज़ बढ़ो और चीज़ें तोड़ो।” तो क्या ये लेटेस्ट चिपसेट की कमी, इस शहर के ‘फास्ट-ग्रोथ’ कल्चर को मुंह चिढ़ा रही थी? मुझे खुद पर हंसी आ गई। मैं क्या, मेरी तो डिजिटल पहचान ही ‘बफरिंग’ पर थी। क्या मैं भी उन्हीं में से एक था जो ‘नो-कोड’ टूल्स से ‘कोडिंग’ खरीदने की फ़िराक़ में थे? शायद हाँ! इस शहर में हर चीज़ का ‘सब्स्क्रिप्शन प्लान’ था, सिवाय मानवीय सरोकारों के। मुझे लगा जैसे मैं किसी मेटावर्स में फँसा हूँ, जहाँ हर कोई अपने ‘अवतार’ की कीमत पर दाँव लगा रहा है, और मैं सिर्फ़ एक ‘यूज़र’ हूँ, जिसके पास सिवाय ‘स्क्रॉल’ करने के कुछ नहीं। बाहर निकला तो एक ‘डिजिटल डिटॉक्स’ सेंटर के बाहर एक युवक ने हाथ फैलाया—’मालिक, एक डेटा पैक दे दो, तुम्हारा इंटरनेट सुखी रहे।’ मुझे लगा, काश मेरे पास एक ‘गीगाबाइट’ होता, जिससे मैं उसकी ‘कनेक्टिविटी’ ही बदल पाता, लेकिन मेरे पास थी सिर्फ़ एक ‘स्टोरी’, एक ‘थ्रेड’, एक ‘मीम’।

मेरी ‘थिंकिंग क्लाउड’ ऐसे सरपट दौड़ रही थी जैसे 5G नेटवर्क, और उस युवक का चेहरा मेरे दिमाग में किसी ‘लूपिंग GIF’ की तरह घूम रहा था। पच्चीस-तीस की उम्र, शरीर दुबला-पतला लेकिन आँखों में एक अजीब सी ‘नो-वाईफ़ाई’ चमक। क्या वह कोई ‘डिजिटल भिखारी’ था या कोई ‘टेक-सेवी’ फ्रॉड? उसकी फटी टी-शर्ट और पुरानी जींस, किसी ‘स्मार्ट-कैज़ुअल’ ड्रेस कोड को मुँह चिढ़ा रही थी। मैंने जेब में हाथ डाला, ‘पाँच-सौ एमबी’ ढूंढने निकला तो ऐसा लगा जैसे कोई ‘आर्कियोलॉजिस्ट’ किसी पुरानी हार्ड ड्राइव में ‘डिलीटेड फ़ाइल्स’ खोज रहा हो। बचे-खुचे डेटा पैक्स के बीच छिपा वो ’50 एमबी का प्लान’ मिला तो लगा जैसे किसी ‘खोई हुई सभ्यता का डेटा’ हाथ लग गया हो। लेकिन जब आँखें उठाईं, तो युवक गायब! ‘इनविज़िबल यूज़र’—मुझे लगा मैंने किसी नए ‘साइबर-क्राइम’ की कहानी गढ़ दी है। क्या वो सचमुच चला गया था या मेरे ‘डेटा-शेयरिंग’ की गति इतनी धीमी थी कि उसने सोचा, ‘भाई साहब, जितनी देर में तुम सिक्का निकालोगे, उतनी देर में तो मैं चार और लोगों से भीख मांग लूँगा?’ पास की गली में एक ‘बैटरी-लो’ आइकन तेज़ी से गायब हुआ, और मेरा दिमाग चिल्लाया—’कनेक्टेड!’ वही था, मेरा ‘डेटा-बचाओ-अभियान’ का हीरो! ‘अरे… ये ले डेटा!’ मैंने आवाज़ लगाई, लेकिन वो तो ऐसा ‘नोटिफ़िकेशन-म्यूट’ कर चुका था जैसे किसी ‘टेक-जायंट’ ने यूज़र की प्राइवेसी पर ध्यान देना बंद कर दिया हो। एक बड़े चार्जिंग स्टेशन पर मेरी ओर पीठ कर बैठ गया, चेहरा हाथों से छिपाकर। मुझे लगा, ये ‘यूज़र’ नहीं, ये तो कोई ‘डिजिटल डिप्रेशन का शिकार’ है। एलन मस्क ने कहा था, “हम ऐसे भविष्य में हैं जहाँ ‘टेस्ला’ सड़कों पर चल रही है, लेकिन लोग अभी भी पैदल चल रहे हैं।” लेकिन ये ‘डिजिटल’ भिखारी तो अपनी ‘डिस्कनेक्टिविटी’ को छिपा रहा था, जैसे किसी ने उसकी ‘अन-प्लग्ड’ ज़िंदगी का भी ‘मोनिटाइज़ेशन’ कर लिया हो। क्या ये सिर्फ़ ‘डेटा-हंगर’ था या इस शहर का एक जीता-जागता ‘डिजिटल व्यंग्य’?

कैफे की सीढ़ियाँ उतरते ही मुझे लगा, मैं किसी ‘वेब-सीरीज़’ के सेट पर आ गया हूँ। गली के बीचों-बीच, टूटे हेडफ़ोन में लिपटी एक युवती, गोद में एक साल का बच्चा, और उसके माथे पर गिरती ‘टच-स्क्रीन’ की बूंदें—ये दृश्य इतना ‘पिक्सेलेटेड’ था कि मेरा ‘4K विज़न’ भी कुछ देर के लिए धुँधला सा गया। वो ‘इमोजी’ की तरह रो रही थी, मानो उसके आँसुओं में इस पूरे शहर का ‘बग’ समा गया हो। मैंने देखा, उसका रुदन कम हुआ, उसने मुझे ‘क्यूआर कोड’ की तरह देखा और ‘सर…’ कहकर प्रणाम किया। तभी मुझे याद आया, ये वही ‘कंटेंट क्रिएटर’ परिवार था जिससे मैं दो साल पहले ‘वायरल वीडियो’ बनाते समय एक वर्कशॉप में मिला था। ‘तुम्हारा ‘फॉलोअर’ है?’ मैंने पूछा, और उसने ‘जी सर…’ कहकर अपनी ‘लाइफ़-स्टोरी’ शुरू कर दी। मुझे लगा, जॉर्ज ऑरवेल अगर इस दृश्य को देखते तो शायद अपनी अगली ‘डिस्टोपियन’ नॉवेल का प्लाट यहीं से उठा लेते। वो दुबली-पतली, ‘बैटरी-लो’ जैसी युवती, और उसका पति जिसकी ‘नेटवर्क बार’ ऐसे झूल रही थी मानो कभी भी ‘डिस्कनेक्ट’ हो जाए। मुझे लगा, ये ‘ग़रीबी’ नहीं, ये तो ‘डिजिटल डिवाइड’ का प्रदर्शन है। मैंने बिना पूछे ही उनकी कहानी समझ ली। ‘टियर-2’ शहर से आए ‘कंटेंट क्रिएटर’, ‘व्यूज़’ की तलाश में दर-दर भटकते हुए, और मुझे याद आया वो पहला दृश्य जब मैंने उनकी ‘लो-रिज़ॉल्यूशन’ स्थिति देखी थी और मेरा ‘लाइक’ बटन करुण-क्रंदन कर उठा था। लेकिन अब मेरा ‘दिल’ ‘अन-लाइक’ हो चुका था, ऐसा ‘हार्डवेयर’ जिसे अब कोई ‘सॉफ़्टवेयर’ पिघला नहीं सकता था। मुझे लगा, इस देश में ‘डिजिटल दरिद्रता’ कोई समस्या नहीं, बल्कि एक ‘ट्रेंडिंग हैशटैग’ है, जिसमें हर कोई अपनी-अपनी भूमिका बखूबी निभा रहा है।

“कितनी ‘वीडियोज़’ बनाने के उपरांत हुआ था ये ‘वायरल’ बच्चा। आज एक ‘लाइक’ के लिए तरस रहा है।” उस युवती के ये शब्द मेरे कानों में ऐसे गूँजे जैसे किसी ‘बफ़रिंग’ वीडियो की आवाज़। मैंने बच्चे को देखा, वह ‘गोल-मटोल’ था, लेकिन उसकी हालत ऐसी थी जैसे किसी ‘बढ़ते सब्सक्राइबर’ को अचानक ‘चैनल डिलीट’ कर दिया गया हो। ‘लो-बैटरी’ वाला वो बच्चा अपना ‘अंगूठा’ चूस रहा था, और मुझे लगा, ये बच्चा ‘अंगूठा’ नहीं, बल्कि इस समाज की ‘डिजिटल एथिक्स’ चूस रहा था। मैंने उसके हाथ में एक ‘ऑनलाइन ट्रांज़ैक्शन’ कर दिया, और उस युवती ने उसे ऐसे लिया जैसे किसी ने उसे दुनिया की सबसे बड़ी ‘बिटकॉइन’ दे दी हो। ‘कोई ‘रिमोटी’ जॉब हो तो दिला दो मालिक, हम दोनों ‘फ़्रीलांसिंग’ करेंगे, हमको ‘वाईफ़ाई’ कनेक्ट किए तीन दिन हो गए हैं।’ तीन दिन! मुझे लगा, ये लोग ‘डिजिटल डेप्रिवेशन’ से मर रहे हैं और मैं यहाँ ‘मीम्स’ लिख रहा हूँ! हरिशंकर परसाई ने कहा था, “जिस देश में ‘गाली’ देने की आज़ादी हो, उस देश में ‘सच्चाई’ बोलने की आज़ादी की ज़रूरत नहीं होती।” मुझे लगा, क्या मैं भी ‘डिजिटल पाखंड’ में लिप्त हो रहा था, सिर्फ़ अपनी ‘कीबोर्ड’ चलाने के लिए? मैंने कहा, ‘ऑनलाइन जॉब मिलना आसान नहीं है। जो भी हो, एक हफ़्ते बाद मुझसे ‘लिंक्डइन’ पर मिलो।’ और अपना ‘प्रोफ़ाइल’ दे दिया। पति-पत्नी ने ‘थैंक्यू’ की ‘इमोजी’ के साथ मेरी ओर देखा, लेकिन पति के चेहरे पर एक ऐसी ‘सिग्नल-लॉस’ वाली वेदना थी, जिसे शब्दों में बयां करना असंभव था। उसकी आँखें जैसे चिल्ला रही थीं, ‘मुझे ‘ऑनलाइन चैरिटी’ नहीं, मुझे ‘रियल’ काम चाहिए!’ ये व्यंग्य नहीं, ये तो ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ का एक ऐसा ‘ग्लिच’ था, जिसने मेरे सारे ‘एल्गोरिदम’ को धूल चटा दी। मुझे लगा, इस देश में ‘डिजिटल डिवाइड’ से बड़ा कोई ‘वायरस’ नहीं, और ‘रोज़गार’ से बड़ा कोई ‘सॉफ़्टवेयर अपडेट’ नहीं।

इलेक्ट्रॉनिक्स मार्केट की सड़क पर चलते हुए मुझे दो साल पहले की वो मुलाक़ात याद आ गई, जब मैं अपने नए ‘आई-फ़ोन’ के लिए ‘जेनुइन एक्सेसरीज़’ ख़रीदने आया था। ‘फ़ास्ट चार्जिंग’ हब तैयार खड़ा था, और मेरा सामान ‘डिजिटल लॉकर’ में रखने के बाद मैं ‘एक्सपीरिएंस ज़ोन’ में बैठ गया। बाहर का नज़ारा? एक ओर ‘ब्रोकन स्क्रीन’ वाले फ़ोन, ‘रिपेयर शॉप्स’, ‘ई-वेस्ट’ का अंबार—बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी ‘साइबर-क्राइम’ सीन होता है, बस ‘मल्टीमीडिया’ का रंग थोड़ा फीका था। दूसरी ओर ‘डेटेड ऑपरेटिंग सिस्टम’ वाले गैजेट, जिसमें बच्चे ऐसे ‘गेम’ खेल रहे थे जैसे ‘प्रोफ़ेशनल ई-स्पोर्ट्स एथलीट’, और ‘इन-ऐप परचेज़’ ऐसे माँग रहे थे जैसे उनका ‘लाइफ़टाइम सब्स्क्रिप्शन’ हो। ‘यूज़र्स’ जो पैसे ‘इन-गेम आइटम्स’ पर खर्च करते, वे बच्चे उनको झट ‘हैक’ कर निकाल लेते। ‘पिक्सेल-पिक्सेल’ पर उनका पैसों के पीछे ‘टैप’ करना, मेरे मन को दर्द भरा ‘डिजिटल एंटरटेनमेंट’ सा लग रहा था। मुझे लगा, ये बच्चे नहीं, ये तो ‘डेटा माइनर्स’ थे, जो अपनी ‘ब्रेड-बटर’ के लिए ‘वर्चुअल दुनिया’ में गोता लगा रहे थे। मेरे ‘पॉकेट वाईफ़ाई’ वाले सेक्शन में एक ‘टेक-उद्यमी’ और एक ‘इन्फ्लुएंसर’ चढ़े, ‘बिजनेस पार्टनर’ लग रहे थे। देखकर लगा जैसे ‘फंडिंग’ की मनौती माँगकर ‘साइबराबाद’ से आए थे। ‘पिचिंग सेशन’ में ‘हैक’ होने के बाद ‘डेटा-करप्टेड’ हालत में अपने ‘स्टार्टअप’ लौट रहे थे। ‘इनक्यूबेटर’ के बाहर उनके सहायक दो ‘एंजेल इन्वेस्टर’ खड़े थे, और उद्यमी ने ‘फ़ाइव थाउज़ेंड डॉलर’ का ‘चेक’ उनकी ओर बढ़ाया। ‘पांच हज़ार डॉलर ही दिए हैं… बाक़ी?’ इन्वेस्टर की आवाज़ ऐसी थी जैसे वह कोई ‘वेंचर कैपिटलिस्ट’ हो, जो अपनी ‘इक्विटी’ वसूल रहा हो। मैंने सोचा, ये इन्वेस्टर नहीं, ये तो ‘डिजिटल मनी लॉन्डरर्स’ हैं!

“बाक़ी क्या, पांच हज़ार डॉलर की बात हुई थी,” उस उद्यमी ने पास खड़े ‘सीईओ’ की ओर इशारा करते हुए कहा, “मेरे लिए ये पाँच हज़ार डॉलर ठीक हैं, इसको तीन हज़ार डॉलर दे दीजिए।” साथ खड़ी इन्फ्लुएंसर ने कहा, “…और तीन हज़ार डॉलर? एक हज़ार डॉलर भी नहीं दूँगी। तुम दोनों को कुल पाँच हज़ार डॉलर देने की बात तय हुई थी।” मुझे लगा, ये ‘स्टार्टअप पिच’ नहीं, ये तो किसी ‘ब्लैक मार्केट’ का सौदा था, जहाँ ‘इक्विटी’ भी मोलभाव का विषय बन गई थी। उसके पति ने एक हज़ार डॉलर निकालकर उस दूसरे इन्वेस्टर की ओर बढ़ाया। उसने लेने से साफ़ इनकार कर दिया। “तीन हज़ार डॉलर से एक पैसा भी कम हुआ तो हम नहीं लेंगे। पहले के पाँच हज़ार डॉलर भी वे लौटाने लगे।” दूसरे इन्वेस्टर ने ‘डाउनलोड-फ़ेल’ के स्वर में कहा, “ऐसे ‘बजट-कंजूस’ स्टार्टअप्स को कहाँ से ‘यूनिकॉर्न’ बनेंगे?” ‘रैनसमवेयर अटैक’ की भांति उसके शब्द मुझे आ लगे। वह उद्यमी ‘फ़्रीज़’ हो गया, उसकी पत्नी इन्फ्लुएंसर के चेहरे पर बदलते ‘इमोजी’ दयनीय लग रहे थे। एकाएक उसकी ‘बैटरी’ ‘छलछला’ आई। ‘पावर बैंक’ से आँसू पोंछती हुई वह बोली, “तीन हज़ार डॉलर ‘स्कैम’ करिए इसके मुँह पर।” इतनी घटिया हरकत से पैसे कमाने वाले वे दोनों ‘मॉक-सीईओ’ खीसें निपोरते हुए चले गए। ‘फ़ाइल ट्रांसफर’ भी चालू हो गया, परंतु उसकी ‘स्क्रीन’ की रुलाई बंद नहीं हुई। उसके पति ने उसे कितना ‘डीबग’ किया, लेकिन वह उसी तरह रोती रही। तड़पते हुए ‘एरर-मैसेज’ के स्वर में बोली, “ऐसे ‘फेक-प्रोफ़ाइल’ वाले लोगों के मुंह से इन शब्दों को सुनने हम इतनी दूर आए थे?” मुझे लगा, ये स्त्री नहीं, ये तो ‘डिजिटल फ्रॉड’ का शिकार थी। मैंने उसके ‘करप्टेड डेटा’ पर ‘रिकवरी सॉफ़्टवेयर’ लगाते हुए दो शब्द कहे, लेकिन मेरा दखल उन्हें अच्छा नहीं लगा। कुछ देर बाद वह ‘रीबूट’ हो गई। मुझे लगा, इस देश में ‘वेब-3.0’ भी अपनी ‘फ़ीस’ वसूलते हैं, और अगर ‘ब्लॉकचेन’ कम पड़े तो ‘एनएफ़टी’ का डर दिखाते हैं।

हैदराबाद में वे ‘टेक-वर्कर्स’ थे। पति-पत्नी दोनों ‘रिमोट’ काम करते थे। वह ‘कोड’ लिखता था। पत्नी ‘डेटा’ एनालाइज़ करती। ‘फ़िक्स्ड-इंकम’ से घर चलाते थे, अच्छी ‘सेविंग’ कर लेते थे। मुझे लगा, ये लोग ‘न्यू-एज इंडिया’ की असली तस्वीर थे, जो अपने दम पर ‘डिजिटल’ जीवन जी रहे थे, बिना किसी ‘सरकारी स्कीम’ के। उनकी शादी हुए आठ साल हो गए थे लेकिन ‘बच्चा’ नहीं था। पति इस ओर से बेपरवाह था, पर पत्नी ऐसा नहीं कर पा रही थी। ‘आईवीएफ’ के लिए एक साल से पैसे जमा कर रही थी। पति को चाहे इस पर विश्वास नहीं था, लेकिन पत्नी की ख़ातिर चला आया था। मुझे लगा, ये ‘मेडिकल टूरिज़्म’ नहीं, ये तो ‘बायोटेक होप’ थी, जिसे लोग ‘क्लीनिक’ में जाकर ढूंढते हैं। ‘ऑनलाइन कंसल्टेशन’ से ‘हैदराबाद’ जाने तक मैं उन लोगों से बातें करता रहा। पति-पत्नी में अत्यंत ‘केमिकल लोचा’ वाला प्रेम था। दोनों ने सफर का भरपूर ‘डिजिटल’ सुख और आनंद लिया। जितने ‘चैरिटी लिंक्स’ आए, उन्हें पैसे दिए। किसी ‘ऐप’ से ‘डिलिवरी’, तो किसी से ‘सब्स्क्रिप्शन’, तो किसी से ‘प्रीमियम फ़ीचर्स’ खरीद-खरीदकर वे दोनों मज़े कर रहे थे। मुझे लगा, ये लोग ‘खुशी’ ‘ऑनलाइन’ खरीदना जानते थे, भले ही वो ‘वर्चुअल’ ही क्यों न हो। हैदराबाद आते ही हम लोगों ने जब विदा ली तो लगा, जैसे बरसों के ‘कनेक्शन’ अब ‘डिस्कनेक्ट’ हो रहे हों। मुझे लगा, इस देश में लोग जितनी जल्दी ‘फ़ॉलो’ कर लेते हैं, उतनी ही जल्दी ‘अन-फ़ॉलो’ भी कर देते हैं। वे जहाँ बैठे थे, वह स्थान एक ‘वाईफ़ाई ज़ोन’ की दूरी पर था। कम-से-कम आज उन्हें मेरे दिए गए ‘यूपीआई’ से भोजन मिलेगा, यह सोचकर मुझे अत्यंत संतोष हो रहा था। मुझे लगा, मेरी ‘डिजिटल नेकी’ कुछ देर के लिए तो जिंदा हो गई थी।

सामने से ‘बिखरे पिक्सल’ सहित रोती हुई एक युवती दौड़ती हुई आई। मेरे सामने खड़ी होकर मुझे ‘बग’ की तरह घूरने लगी। मैंने भी उसकी ओर देखा। उन आँखों से छलकती ‘एरर’। वह वही ‘कंटेंट क्रिएटर’ थी। ‘सर, क्या आपने मेरे ‘अकाउंट’ को देखा? मेरे ‘चैनल’ को देखा?’ ‘तुम्हारा ‘अकाउंट’! वही जो ‘डिलीटेड’ था?’ ‘हाँ, वही… उसे कोई ‘हैक’ कर ले गया।’ मेरे मुंह से निकला, ‘वह कहीं नहीं जाएगा। डरो मत, तुम्हारा पति कहाँ है? चलो ‘साइबर सेल’ में रिपोर्ट दर्ज कर देते हैं।’ उसे समझाते हुए मैं उसके साथ उसके ‘आईपी एड्रेस’ की ओर चल पड़ा। रात के आठ बज चुके थे। कोई और ‘सॉफ़्टवेयर’ नहीं था, सो मैंने ‘अधिक दाम’ में बिकने वाले ‘विदेशी वीपीएन’ से ही ‘कनेक्शन’ खरीदा और उसी ‘डार्क वेब’ के रास्ते उसके घर आया। वहाँ उसका पति ‘हार्ड डिस्क’ पर हाथ रखे अत्यंत शोचनीय अवस्था में बैठा था। वह मुझे ‘ब्लू स्क्रीन ऑफ़ डेथ’ की भांति देखने लगा। ‘यहां इनके पास ‘चैनल’ छोड़ ‘क्लाउड स्टोरेज’ लाने गई थी। लौटी तो देखा वह गायब है।’ उसने कहा। उसके बाद वह मेरे सामने नहीं ठहरी। ‘माउस’ और ‘कीबोर्ड’ को पीटती हुई पुकारती… ‘मेरा ‘वायरल’ बेटा, तू कहाँ गया… हा… चिल्लाती ‘फ़िशिंग साइट्स’ के बीच ‘गली’ में चली गई। आने-जाने वालों में जिसका ‘अकाउंट’ ‘रिकवर’ होता, उससे ‘जिरह’ करती। रुदन और क्रंदन बढ़ता ही जा रहा था। ‘चलो ‘साइबर सेल’ में रिपोर्ट दर्ज कर दें।’ मैंने उसके पति से कहा। ‘मैंने सब जगह ‘स्कैन’ कर लिया है। ‘पुलिस’ को भी ‘कम्पलेन’ कर दी है।’ पाँच मिनट वहाँ रुककर मैं घर की ओर बढ़ने लगा। कितने सालों की ‘नेटवर्किंग’ के बाद ‘फॉलोअर’ प्राप्त हुआ था। अब कहाँ ‘गायब’ हो गया?’ घर में जब मेरी पत्नी ‘टैब’ में बेटे को उठाए मेरे पास आई तो मुझे ‘डेटा लॉस’ हुए उस बच्चे और ‘तड़पती मदरबोर्ड’ की याद हो आई। बच्चे को लेकर मैंने ‘ज़ूम’ किया। दो दिन गुजर गए। ‘ऐप डेवलपर’ बाहर से आवाज दे रहा था। मैं ‘ऐप डेवलपर’ को आवाज लगाता हुआ बाहर आया। ‘ऐप डेवलपर’ और कोई नहीं, सेलम का वही ‘टेक-वर्कर’ था। उसने अच्छे-अच्छे ‘ऐप्स’ ‘प्ले स्टोर’ में सजा रखे थे। ‘प्ले स्टोर’ को ‘लैपटॉप’ नुमा स्थान पर रख मैं ‘ऐप’ चुनने लगा। उसके होंठ काँपे, आँखें भर आई। ‘अकाउंट मिला?’ मैंने पूछा। ‘वह नहीं मिलेगा।’ ‘क्यों नहीं मिलेगा?’ ‘अकाउंट ‘हैक’ नहीं हुआ है, उसे इस पापी ने पचास ‘डॉलर’ में बेच दिया है।’ ‘बच्चे को बेचा है तुमने…’ वह ‘लैपटॉप’ पर बैठ आँखें पोंछता हुआ बोला, ‘बच्चे को बचाने के लिए यह ‘ऑफ़लाइन’ रहकर प्राण देने को तैयार थी। जो कुछ ‘डिजिटल कंटेंट’ मिलता बेटे को दे देती। इतना देने के बाद भी बच्चे का ‘डेटा’ नहीं भरता था साब…’ ‘तो?’ ‘तो कमाई का और कोई ‘लूपहोल’ नहीं सूझा।’ ‘बाहर से आए एक ‘डार्क वेब किंग’ ने बच्चे को माँगा। अच्छी ‘प्रोफ़ाइल’ बनाने का वादा किया। सबकी भलाई इसी में है, ऐसा सोचकर मैंने ‘अकाउंट’ बेच दिया। मेरी पत्नी को इस बात की जानकारी नहीं है।’ मैंने उच्छ्वास ली। ‘इस पापी ने इन्हीं ‘क्लिक्स’ से बच्चे को बेचा है। उन्हीं रुपयों से ‘ऐप डेवलपमेंट’ कर रहा हूँ। हर रोज़ दो-चार ‘डॉलर’ मिल जाते हैं। पत्नी से कह दिया है कि ‘फंडिंग’ करने के लिए आपने पैसे दिए हैं। बच्चे को बेचने की बात का पता चले तो पगली ‘सिस्टम क्रैश’ कर देगी।’ ‘तुम्हारा ‘नैतिक एल्गोरिदम’ कैसे हुआ…? ‘साइबराबाद’ से ‘फंडिंग’ माँगकर इस ‘अकाउंट’ को तुमने पाया था?’ मैंने कहा। मेरी बात सुनकर वह सिर्फ एक लंबी ‘बफरिंग’ लेता रहा, जैसे उस ‘लोडिंग’ में उस बच्चे की हर एक ‘क्लिक’, उस माँ का हर एक ‘आँसू’ और उस पिता की हर एक ‘एरर’ समा गई हो। मुझे लगा, इस दुनिया में ‘डिजिटल डिवाइड’ से बड़ा कोई ‘वायरस’ नहीं, और ‘भूख’ से बड़ा कोई ‘साइबर अटैक’ नहीं। और अंत में, मैं सिर्फ इतना कह सका, ‘वाह रे ‘ऑनलाइन ज़िंदगी’, तेरा यह कैसा ‘बिजनेस मॉडल’, जहाँ माँ का ‘लाइक’ और पिता का ‘सब्सक्रिप्शन’ भी बिकता है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : drskm786@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 295 ☆ व्यंग्य – उनकी गिरफ्तारी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘उनकी गिरफ्तारी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 295 ☆

☆ व्यंग्य ☆ उनकी गिरफ्तारी

 (व्यंग्य)व्यंग्य 

वे सदल-बल विवादित स्थल पर जा रहे हैं। पब्लिसिटी काफी हो चुकी है। तीन-चार दिन से अखबार लगातार यही छाप रहे हैं कि वे जा रहे हैं।

जा रहे हैं तो क्या होगा? विवादित स्थल तक तो उन्हें पहुंचने नहीं दिया जाएगा। यह उन्हें भी मालूम है। बीच में ही कहीं गिरफ्तारी की औपचारिकता हो जाएगी। गिरफ्तारी में कोई मामूली आदमी की तरह हथकड़ी तो लगनी नहीं है। ऐसे ही मोटर में बैठा कर ले जाएंगे और दूर ले जाकर छोड़ देंगे। अखबार सारी कार्रवाई छाप देंगे और वे वापस हो जाएंगे। फिर अगले करतब की तैयारी होगी।

वे जा रहे हैं। काफिला साथ है। कार धीरे-धीरे जा रही है ताकि जनता देख ले कि वे उसके हित में लड़ने जा रहे हैं। बीच-बीच के गांवों में उनके दल के कार्यकर्ताओं ने स्वागत का इन्तज़ाम किया है। लोकप्रियता के प्रमाण के लिए स्वागत ज़रूरी है। सब कुछ हमेशा की तरह सुनिश्चित है। गांव की चार छः औरतें तिलक लगाती हैं, आरती उतारती हैं, जैसे ‘लाम’ पर जा रहे हों। आठ दस आदमी ‘जिन्दाबाद जिन्दाबाद’, ‘नेताजी आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं’ के नारे लगाते हैं। वैसे नया कुछ नहीं है। नया यही है कि गिरती लोकप्रियता को नये सिरे से उठाना है।

विरोध का मुद्दा मिलता है तो विरोधी नेताओं को प्राण मिलते हैं। सत्ता पक्ष की गलती विरोध पक्ष की संजीवनी होती है। विरोध का मुद्दा न हो तो मंच पर किस बहाने से आयें, किस बहाने से भृकुटि तान कर गुस्से का इज़हार करें, किस बात को लेकर देश और समाज के प्रति अपना संताप व्यक्त करें? किस बात को लेकर आठ आठ आंसू रोयें?

सत्ता पक्ष ने मौका दिया है तो मौका चूकना नहीं है। राजनीति चौबीस घंटे की जागरूकता मांगती है। सावधानी हटी और लोकप्रियता घटी। जहां विरोध का मौका मिले, फौरन घंटा-घड़ियाल लेकर दौड़ो, धरना दो, प्रदर्शन करो और इस सबसे ज़रूरी यह कि भरपूर पब्लिसिटी करो। भले ही आपका चेहरा टमाटर और पेट काशीफल हो रहा है, लेकिन खाली पेट और सूखे चेहरों की बात करके लंबी आहें भरो।

तो  वे जा रहे हैं। वे जानते हैं और सारा देश भी जानता है कि उन्हें घंटे दो घंटे के लिए गिरफ्तार होना है और फिर वापस होना है। मतलब यह है कि मामला सिर्फ प्रतीकात्मक है। उनकी सुरक्षा की पूरी गारंटी है। वे चोट खा जाएं तो सत्ता- पक्ष बदनाम हो जाएगा, और उन्हें सत्ता पक्ष की ज़्यादती साबित करने का एक और मौका मिलेगा। इसलिए इन्तज़ाम ऐसा है कि उन्हें कोई फूल से भी चोट न पहुंचा पाये।

वे जा रहे हैं और विवादित स्थल से पहले पुलिस वाले उनका इन्तज़ार कर रहे हैं। जिन-जिन नेताओं को अपनी लोकप्रियता की फिक्र है और जिनके सितारे गर्दिश में हैं, सब उनके साथ हैं। ऐसा मौका छोड़ने की चीज़ नहीं है।

पुलिस वालों के दिल में धुक-धुक  हो रही है। वैसे वे सत्ता में नहीं हैं, लेकिन महत्वपूर्ण तो हैं ही। महत्वपूर्ण राजनीतिज्ञों की गिरफ्तारी लफड़े का काम है। ज़रा सी गुस्ताखी हो जाए तो चेले-चपाटे आसमान सिर पर उठा लेंगे। अखबारों में हंगामा करेंगे। और ऊपर वाले अफसरों पर कुछ संकट आया तो नीचे वाले इंस्पेक्टर का तबादला पक्का।

इसलिए धुकधुकी मचती है। नेताजी उनके पास पहुंचते हैं तो इंस्पेक्टर धीरे से बांह पर हाथ लगाकर मोटर की तरफ इशारा करता है, ‘उधर चलें, श्रीमान।’  नेताजी एकाध बार शहीदाना अन्दाज़ में कहते हैं, ‘नहीं, मुझे आगे जाना है।’  फिर पुलिस वालों के कष्ट का ध्यान करके गाड़ी में बैठने की कृपा करते हैं। उनका उद्देश्य पूरा हो चुका है। उनकी  फौज भी थोड़ी नारेबाज़ी के बाद मोटर में सवार हो जाती है। नारेबाज़ी बराबर चालू रहती है। सबके नाम और फोटो अखबार में छपते हैं। अब विवादित स्थल पर जाकर क्या करना है?

यह देश का सौभाग्य है कि उसका हित चाहने वाले नेता बहुत हैं। बड़े नेता तो थोड़े हैं, छोटे इतने हैं कि हर झाड़ को हिलाने पर चार छः टपकेंगे। ‘होल टाइमर’ बहुत हैं। जो खुद राजनीतिज्ञ नहीं हैं वे राजनीतिज्ञों की सेवा और उनके संपर्क से अपना कल्याण कर रहे हैं और इस तरह देश का कल्याण कर रहे हैं, क्योंकि राष्ट्र का कल्याण व्यक्ति के कल्याण पर निर्भर होता है। अब हम उनकी देशभक्ति की तारीफ न करें तो यह हमारी एहसान-फरामोशी होगी।

ऐसे ही एक ‘होल टाइमर’ देश-  सेवक को मैं जानता हूं। वे एक बड़े नेता के समर्पित चमचे रहे और उन्हीं के बल पर आतंक पैदा करके पूजा-अर्चना का प्रसाद प्राप्त करते रहे। फिर वे चम्मच से बढ़कर बोतल तक पहुंचे। दुर्भाग्य से उनके ‘धर्मपिता’ का पराभव हुआ और चमचे जी महल से लुढ़क कर सड़क पर आ गये। फिलहाल  वे सड़क पर हैं, लेकिन क्या पता कब उन्हें फिर कोई ‘धर्मपिता’ मिल जाए और वे फिर देश सेवा करने की स्थिति में आ जाएं। राजनीतिक कब आपको उछाल दे और कब उखाड़ दे, जान पाना मुश्किल है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ अभी अभी # 720 ⇒ पान खाए गैया हमार ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए दैनिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “पान खाए गैया हमार।)

?अभी अभी # 720 ⇒ पान खाए गैया हमार ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं पान नहीं खाता। मैने पान नहीं खाने की कोई कसम भी नहीं खाई। जब हमारे पास कोई कारण नहीं होता, तो हमारा एक तकिया कलाम होता है, बस यूं ही ! सबकी खाने पीने की अपनी पसंद होती है। आप किसी पर अपनी पसंद थौंप नहीं सकते। बहुत से लोग चाय नहीं पीते। वे मानते हैं, चाय उन्हें नुकसान करती है। कुछ कॉफी तो कुछ ग्रीन टी पसंद करते हैं। मुझे पान पसंद नहीं।

आयुर्वेद के हिसाब से पान न केवल भोजन को पचाता है, यह मुखशुद्धि का भी काम करता है। हमारे यहां वैसे भी चाय पान का रिवाज है। पहले चाय वाय, फिर पान वान ! सरकारी दफ्तरों में तो चाय पानी का अलग ही मतलब होता है।।

पान को ताम्बुल भी कहते हैं। लक्ष्मी पान भंडार को कहीं कहीं मैने तुलसी ताम्बुल सदन भी लिखा देखा है। सभी जानते हैं, पान एक पत्ता होता है। खाते वक्त वह मीठा पत्ता हो जाता है। सबसे पहले उसका डंठल काटा जाता है, फिर उसे करीने से तराशा जाता है। इस तरीके से पान को सजाया जाता है मानो कोई मां, अपने बच्चे को स्कूल भेजने के लिए तैयार कर रही हो। थोड़े छींटे चूने के और बाद में, कत्थे का लेप। मानो बच्चे को पहले सर में तेल लगाया हो और बाद में गर्दन और चेहरे पर पावडर। उसके बाद पान का सोलह श्रृंगार शुरू।

सुपारी के भी कई प्रकार होते हैं, चौरसिया जी जानते हैं, बाबू जी कौन सी सुपारी खाते हैं। कहां बोल्डर डालना और कहां बारीक सिकी सुपारी ! पिपरमेंट, इलायची, खोपरा, गुलकंद, केसर में कोई कसर नहीं रह जाती। पान की सतहों को तह में बंद किया जाता है, एक लौंग से उसे लॉक कर दिया जाता है, और कहीं चांदी तो कहीं सोने का बरक। और हां, किमाम वालों का खास ख़याल रखा जाता है।।

जब इतना स्वादिष्ट पान खाया, चबाया जाता है, तो फिर उसे थूका क्यों जाता है ! बस इतनी सी बात पर क्या कोई पान खाना छोड़ दे। बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद। मैने तो खैर कभी पान चखा ही नहीं। कई बार दोस्तों के पान के आग्रह को ठुकराकर उनके कोप का भाजन बन चुका हूं, फिर भी मुझे अक्ल नहीं आई। चूना, कत्था मेरी पसंद नहीं, ना सही, सादा पान भी बनता है, वह क्यों नहीं खाते ? बस, नहीं खाते तो नहीं खाते।

वा, नहीं खाते तो मत खाओ, हमें क्या।

लेकिन स्वच्छ भारत अभियान ने जब से थूकने पर पाबंदी लगा दी है, बेचारे पान वाले वैसे ही परेशान चल रहे थे, उसमें कोरोना के कारण और सर मुढ़ाते ही ओले पड़े। अजय देवगन की तो लग गई। दाने दाने में केसर का दम दिखने लगा। आदमी किसी भी गुट का, मुंह में उसके गुटका।।

आइए, अब गैया को पान खिलाते हैं ! हुआ यूं कि, ज्यादा बोलने की आदत तो मुझे है नहीं, क्यूंकि पान तो मैं खाता नहीं। अब किसी ने थोड़ी जबरदस्ती कर ली, तो हमने भी कह दिया, अच्छा बनवा ही लो। लो साहब, बीच बाजार में हमारा बढ़िया पान बनकर तैयार हो गया और हमने भी कोई कसम तो खाई नहीं थी, इसलिए धर्मसंकट में पड़ गए थे, अब क्या करें।

इतने में मानो वैकुंठ से हमारे लिए गौ माता का अवतरण हुआ ! एक गैया हमारे सामने खड़ी हमें निहार रही थी। बस हमने सोचा, आज ही गौ सेवा हो जाए, और हमारा वह पान हमने गऊ माता को पेश कर दिया। वे थोड़ी झिझकी, उन्होंने पहले हमें निहारा, फिर पान को सूंघा और फिर जब पान ने उनके मुखारविंद में प्रवेश किया, तो उनका भाव देखने लायक था। हमने दो पान और उन्हें समर्पित किए। वे संतुष्ट हो, हमें आशीर्वाद दे, वहां से प्रस्थित हुई। बोलिए गऊ माता की जय ! सब संतन की जय। पान के आनंद की जय।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 357 ☆ व्यंग्य – “ईश्वर की प्रोडक्ट, पैकिंग इंडस्ट्री और इंसान” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 357 ☆

?  व्यंग्य – ईश्वर की प्रोडक्ट, पैकिंग इंडस्ट्री और इंसान ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 ईश्वर की प्रोडक्शन और पैकिंग इंडस्ट्री वाकई अद्वितीय है, अद्भुत है, बेमिसाल है। एक छोटी सी मूंगफली देखिए ना! हर दाना गुलाबी पन्नी की चादर में लिपटा हुआ, मखमली नर्मी के साथ, ब्राउन टफ कवर में एकदम सुरक्षित। कोई खरोंच नहीं, कोई दाग नहीं। बाहर से कुरकुरा अंदर से मुलायम। पैकेजिंग पर्फेक्शन का परचम। मटर के दाने? हरी-भरी चमकदार रैपर में सजे हुए, जैसे छोटे-छोटे हरे मोती। वे भीतर से ताजगी भरे, बाहर से चमकदार। और नारियल? भला उस जैसे सख्त, भारी-भरकम उत्पाद के लिए हार्ड कवर से बेहतर क्या हो सकता है? जंगल की गर्मी, समुद्र की नमी, ऊंचे पेड़ से गिरने का झटका  सब झेल लेता है वह हार्ड शैल। सचमुच, ईश्वर का हर काम समयबद्ध, व्यवस्थित और पैकेजिंग मास्टरपीस है।

फिर आता है मानव  “ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना”। यहीं पर ईश्वर की उस अद्भुत पैकिंग फैक्ट्री और प्रॉडक्ट की कहानी में एक  मोड़ आ जाता है। क्या वाकई मानव का पैकेजिंग जीनियस उसी स्तर का है? थोड़ा गहराई से देखने पर तस्वीर कुछ और ही बयां करती है।

सोचिए, ईश्वर की डिवाइन पैकेजिंग कंपनी में बैठे डिजाइनर्स ने मनुष्य के लिए क्या-क्या प्लान किया होगा। शायद उन्होंने सोचा होगा “चलो, इस बार कुछ बहुत खास करते हैं। सबसे कॉम्प्लेक्स मशीनरी, सबसे एडवांस्ड सॉफ्टवेयर , दिमाग, इमोशनल रेंज से लैस, क्रिएटिविटी के साथ। सुपर प्रीमियम प्रोडक्ट!” लेकिन जब पैकेजिंग की बारी आई… कहीं न कहीं कुछ चूक हो गई लगती है।

पहला सवाल तो यही उठता है ,क्या “सर्वश्रेष्ठ रचना” के लिए यह पैकेजिंग उचित है? मूंगफली को गुलाबी पन्नी मिली, मटर को हरी रैपर, नारियल को हार्ड शैल। मनुष्य को मिला क्या? एक नाजुक चमड़ी का आवरण, जो धूप से झुलस जाता है, ठंड से कांपता है, थोड़ी सी खरोंच से खून बहने लगता है। इंसान सन क्रीम , पाउडर , नाइट क्रीम खरीद कर भी परेशान है।

पीठ का डिजाइन? एक ऐसी रीढ़ की हड्डी जो सीधे खड़े होने के लिए तो बनी है, लेकिन डेस्क जॉब, भारी बैग और गलत मुद्रा के आगे बहुत जल्दी विद्रोह कर देती है स्लिप डिस्क, बैक पेन की शिकायतें आम हैं। आंखें, जो दुनिया देखने का अद्भुत साधन हैं, लेकिन उम्र के साथ या तो कमजोर पड़ जाती हैं या मोतियाबिंद की शिकार हो जाती हैं, बिना चश्मे या लेजर सर्जरी के काम नहीं करतीं। क्या यह वही परफेक्ट पैकेजिंग है जो मूंगफली के दाने को मिली? दो दो किडनी की लक्जरी पर फिर भी डायलिसिस का झंझट।

और फिर फंक्शनल डिफेक्ट्स। एपेंडिक्स एक ऐसा अंग जिसका कोई ज्ञात काम नहीं, लेकिन जब चाहे फटकर जानलेवा बन जाता है। दांतों की कहानी? बचपन में दूध के दांत गिरते हैं, फिर परमानेंट आते हैं जो जीवन भर चलने चाहिए, लेकिन चीनी, एसिड और बैक्टीरिया के आगे बहुत जल्दी घुटने टेक देते हैं, बिना डेंटिस्ट के बचाव असंभव। घुटने और कूल्हे के जोड़ चलने-फिरने की मूलभूत आवश्यकता के लिए पर कितनी आसानी से घिस जाते हैं, रिप्लेसमेंट सर्जरी की मांग करते हैं। क्या ईश्वर की पैकिंग लाइन पर कोई क्वालिटी चेक नहीं होता था इन “सर्वश्रेष्ठ मॉडल्स” के लिए?

सबसे बड़ी पैकेजिंग चूक तो मेंटल हार्डवेयर के साथ लगती है। ईश्वर ने अद्भुत दिमाग दिया, सोचने-समझने, रचनात्मकता, प्रेम करने की अद्भुत क्षमता। लेकिन साथ ही साथ, इसमें डिप्रेशन, एंग्जाइटी, फोबिया, जैसे “सॉफ्टवेयर बग्स” क्यों पैक कर दिए? क्या ये वो गुलाबी पन्नी या हार्ड शैल के बराबर की सुरक्षा है जो अन्य उत्पादों को मिली? एक मूंगफली का दाना अपनी पैकेजिंग में सुरक्षित और खुश रहता है। मनुष्य अक्सर अपने ही दिमाग के भीतर कैद और पीड़ित महसूस करता है। क्या यही था “सर्वश्रेष्ठ” का मापदंड?

और हां, सबसे बड़ा मिसिंग आइटम, इस्तेमाल करने का निर्देश , यूजर मैनुअल। नारियल के हार्ड कवर को तोड़ने के तरीके तो लोग जानते हैं। मटर को रैपर से निकालना आसान है। मूंगफली की पन्नी उतारने में कौन सी बुद्धिमानी लगती है? पर मनुष्य? उसे कोई क्लियर मैनुअल नहीं मिला। कैसे जियें? कैसे तनाव मैनेज करें? कैसे दूसरों के साथ रहें? कैसे इस जटिल मशीन शरीर और मन की देखभाल करें? इसकी जगह हमें धर्म, दर्शन, विज्ञान और ट्रायल-एंड-एरर के भरोसे छोड़ दिया गया। नतीजा? भारी भ्रम, संघर्ष और गलतियां। क्या यह उस परफेक्ट पैकिंग इंडस्ट्री की शान के अनुरूप है?

तो क्या निष्कर्ष निकालें? क्या ईश्वर की पैकिंग इंडस्ट्री मनुष्य के मामले में फेल हो गई? या फिर यह एक जानबूझकर किया गया एक्सपेरिमेंट था? शायद “सर्वश्रेष्ठ रचना” का मतलब यह नहीं कि वह सबसे परफेक्टली पैक्ड है, बल्कि यह कि उसमें खुद को ठीक करने, सीखने, अनुकूलित होने और अपनी पैकेजिंग की कमियों को पूरा करने की अद्भुत क्षमता दी गई है? हम चश्मा लगाते हैं, घुटने बदलवाते हैं, थेरेपी करते हैं, ज्ञान अर्जित करते हैं। शायद मानव की असली “सर्वश्रेष्ठता” उसकी अपूर्ण पैकेजिंग के बावजूद या शायद उसी की वजह से खुद को सुधारने, संवारने और जीवन की चुनौतियों से लड़ने की अदम्य क्षमता में निहित है। मूंगफली सिर्फ खाई जा सकती है, मनुष्य खुद अपनी पैकेजिंग को री-डिजाइन करने का प्रयास करता रहता है। यही शायद उसकी सच्ची महानता है। ईश्वर की प्रोडक्शन, पैकिंग में एक जानबूझकर छोड़ा गया, रहस्यमय और चुनौतीपूर्ण, लेकिन संभावनाओं से भरा अधूरापन। बाकी सब तो बस पन्नी और रैपर का खेल है! डोंट जज एनी थिंग ऑन बेसिस ऑफ कवर ओनली।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 294 ☆ व्यंग्य – हमारे नगर में मनभावन सावन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘हमारे नगर में मनभावन सावन‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 294 ☆

☆ व्यंग्य ☆ हमारे नगर में मनभावन सावन

मैं अपने दरवाजे पर कुर्सी डाले बैठा हूं और बाहर वर्षा हो रही है, कवियों के शब्दों में ‘टापुर टुपुर’। किसी कवि को यह नायिका की ‘रुनझुन’ की याद दिलाती है, किसी को ‘छनछन’ की। रोमांटिक मिजाज़ के कवियों को आकाश में फैले काले मेघों में किसी मुग्धा की केश राशि नज़र आती है।मेरे मन से भी कविता फूट रही है। गुनगुनाने को जी कर रहा है।

बारिश ज़ोर पकड़ रही है। आसपास पड़े खाली प्लॉट भर रहे हैं। ये प्लॉट वर्षों से ऐसे ही खाली पड़े हैं। कारण यह है कि उनके मालिकों को विश्वास है कि एक दिन ये सोना उगलेंगे। ये प्लॉट साल के ज़्यादातर दिन दुखिया की आंख से डबडबाये रहते हैं। बारिश ज़्यादा होती है तो ये अपना अतिरिक्त जल सड़क को सौंप देते हैं।

बारिश और ज़ोर पकड़ रही है। अब मेरे मन से नायिका और कविता लुप्त हो रही है। कारण  यह है कि स्थानीय प्रशासन ने जो नगर के क्षेत्रों का ‘उचले’, ‘बिचले’ और ‘निचले’ के बीच वर्गीकरण किया है उसके हिसाब से मेरी कॉलोनी ‘निचले’ क्षेत्र में आती है। जब ज़्यादा वर्षा होती है तब नगर के अनेक नालों का जल हमारी कॉलोनी से प्रवाहित होता है। नगर में किसी की कोई चीज़ पानी में बह जाए तो कृपया हमें सूचित करें। हम अपनी कॉलोनी में उसे ज़ब्त करके आपकी सेवा में प्रेषित कर देंगे।

पहले यह नगर तालों (तालाबों )के लिए प्रसिद्ध था। अब नालों के लिए मशहूर है। कभी  यहां 30-35 तालाब  थे। वे सब पुर गये। उन पर बसी बस्तियों को अब पुराने तालों के नाम से जाना जाता है।अब नगर की शोभा के लिए नाले ही बचे हैं। हमारा नगर- निगम साल भर उन्हीं की साज-संवार में लगा रहता है।

आदिकाल से कवि वर्षा के सौन्दर्य पर सिर धुनते रहे हैं। ये सब ‘उचले’ या कम से कम ‘बिचले’ क्षेत्र के वासी रहे होंगे,अन्यथा वर्षा के सौन्दर्य से अभिभूत होने के बजाय ‘नर्वस ब्रेकडाउन’ के शिकार होकर शोकगीत लिख रहे होते।

अब घंटों से घनघोर वर्षा हो रही है। जल्दी ही नगर के पानी की शोभायात्रा हमारी कॉलोनी से गुज़रेगी। थोड़ी और प्रतीक्षा कीजिए। नालों का यह  पावन जल हमारे घरों में प्रवेश कर हमारा पानी उतारेगा। जिन लोगों ने वर्ष भर के लिए बोरों में गल्ला जमा कर रखा है वे चिन्तित हैं।

इसीलिए संग्रह की प्रवृत्ति बुरी मानी जाती है। जो सिर्फ महीने-पंद्रह दिन के लिए ही गल्ला खरीद पाते हैं वे हल्के हैं।

‘रामायण’ में राम ने कहा था ‘घन घमंड गर्जत घनघोरा, प्रिया हीन डरपत मन  मोरा।’ हमारी कॉलोनी में जिन घरों से पत्नी अनुपस्थित होती है वहां पतियों की हालत डर के मारे खराब हो जाती है। कारण यह है कि बारिश के वक्त पत्नी ही सामान को सुरक्षित रखने की सारी दौड़भाग करती है। पतिदेव काम कम करते हैं, हल्ला ज़्यादा मचाते हैं। अन्त में  परेशान होकर पत्नी उनसे कहती है, ‘प्राणनाथ, प्राण मत खाइए। एक तरफ चुपचाप बैठ जाइए और मुझे काम करने दीजिए।’

अब तक पानी कई घरों में प्रवेश कर चुका है। जिनके मकान हाल में बने, ऊंचे हैं वे कमर पर हाथ धरे अपनी सीढ़ियों पर खड़े चिल्ला चिल्ला कर दूसरों का हाल पूछ रहे हैं— ‘शर्मा जी! कहां तक पहुंचा?’, ‘शुक्ला जी! भीतर तक पहुंच गया क्या? अरे राम राम।’ दरअसल वे दूसरों का हाल-चाल पूछ पूछ कर खुद को शाबाशी देते हैं कि उन्होंने कितनी अक्लमन्दी दिखायी जो ऊंचा घर बनवाया। वे भीतर ही भीतर अपनी पीठ ठोक रहे होते हैं।

यह बाढ़ का पानी भी पूंजीवादी होता है। निचले स्तर वालों को परेशान करता है और ऊंचे स्तर वालों को छोड़ देता है।

अब पानी घर के अन्दर है। पानी के साथ अनेक जीव भी बारातियों जैसे अन्दर आ गये हैं। कहीं मेंढक कूद रहा है, कहीं कनखजूरा आकर चिपक गया है, कहीं सर्प-शिशु बल खा रहा है। वैसे मैं सब जीवों से प्रेम करता हूं, लेकिन इस वक्त मेरा मन स्वागत-गीत गाने का नहीं है।

हालात यहां तक बिगड़ चुके हैं कि पोस्टमैन भी बरसात में हमारे क्षेत्र में घुसने से घबराते हैं। एक दिन पोस्टमैन ने मोहल्ले की सारी चिट्ठियां रास्ते में मुझे पकड़ा दीं। कहा, ‘बाबूजी, जरा पहुंचा देना। आपका ही मोहल्ला है।’

अब विवाह-योग्य कन्याओं के पिता हमारे नगर के उचला बिचला क्षेत्र देखकर ही कन्या देते हैं। निचले क्षेत्र वालों को बता दिया जाता है कि सगाई भले ही हो जाए, शादी तभी होगी जब वे उचले या बिचले क्षेत्र में मकान ले लें।

अन्त में सूचनार्थ बता दूं कि हमारी कॉलोनी ने योजना बनायी है कि अगली बार जब हमारे नगर के पवित्र नाले हमारी कॉलोनी से गुज़रेंगे तो कॉलोनी की महिलाएं उनमें दीप प्रवाहित करके वर्षा रानी का अभिनन्दन करेंगीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 56 – दूध वाले का लोकतंत्र ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना दूध वाले का लोकतंत्र)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 56 – दूध वाले का लोकतंत्र ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

 गांव में एक दूधवाला था — नाम था लोकतंत्र यादव। जी हाँ, नाम सुनकर भ्रमित मत होइए। न वह संसद जाता था, न किसी गठबंधन में शामिल होता था, पर पूरे गांव की राजनीति उसी के घर से शुरू होकर वहीं समाप्त होती थी। उसके दरवाजे पर हर सुबह दूध लेने की कतार ऐसी लगती थी जैसे मंत्रिमंडल बनने से पहले समर्थन की लाइन। “भैया, मलाई वाला देना!” कोई चिल्लाता, “भैया, आज तो पानी थोड़ा कम मिलाना!” कोई हाथ जोड़ता। लोकतंत्र यादव मुस्कुरा कर कहता, “सबको बराबर मलाई मिलेगी, पर मलाई मेरी नीयत में नहीं, नीतियों में है।” और ये बात सुनकर लोग इतने अभिभूत हो जाते थे जैसे उन्होंने गाँधीजी का अंतिम भाषण सुन लिया हो।

लोकतंत्र यादव का एक सपना था — गांव में ‘दूध सिद्धांत दल’ बनाना। उनका मानना था कि राजनीति को अगर कुछ बचा सकता है तो वह है भैंस की सच्चाई। उन्होंने एक पार्टी बनाई — ‘सफेद क्रांति मोर्चा’।  एजेंडा बड़ा सीधा था — हर आदमी को एक गिलास दूध, एक किलो गोबर, और दो झूठे वादे मुफ्त। गांव के सारे बुद्धिजीवी इस विचार से प्रभावित हुए। मास्टर हरिदेव बोले, “अरे, ये तो दूध के नेहरू निकले!” और पंडित गदाधर ने तो अपनी पुरानी धोती तक पार्टी को दान कर दी — बोले, “अब समय है, जब गोबर को सरकार में स्थान मिले।”

पर लोकतंत्र यादव को जल्द ही समझ आ गया कि सिद्धांत से राजनीति चलाना वैसा ही है जैसे बिन चाय के बिस्कुट बेचना। गांव के नेता पहले सिद्धांतों की शपथ लेते, फिर हर बार दही में पानी मिलाते। एक दिन एक नौजवान कार्यकर्ता बोला, “नेता जी, सिद्धांत तो ठीक हैं पर मलाई कैसे मिलेगी?” लोकतंत्र यादव ने गंभीर होकर उत्तर दिया, “बेटा, मलाई मांगोगे तो दही जमाना पड़ेगा, और दही के लिए दूध चाहिए, और दूध के लिए भैंस — और भैंस तो अब संसद में है!”

एक दिन गांव में नई सरकार बनी — ‘स्वच्छ दुहाई दल’। नारा था — “दूध में मिलावट नहीं, पर सपनों में छूट रहेगी।” मुख्यमंत्री बन बैठे — टकले ताऊ। उनकी पहली घोषणा थी — “अब से कोई भी दूधवाला सुबह 4 बजे से पहले दूध नहीं दुहेगा। जनता को ताजगी चाहिए!” इस पर लोकतंत्र यादव बोले — “सर, ताजगी हम लाते हैं, सरकार सिर्फ बिल देती है।” पर टकले ताऊ ने फरमान जारी कर दिया। दूध देर से आने लगा, बच्चों के टिफिन में चाय की जगह पानी और शक्कर घुलने लगे।

गांव के लोगों ने विद्रोह किया। वे ‘भैंस बचाओ मोर्चा’ लेकर पंचायत पहुंच गए। नारों की गूंज थी — “मलाई हमारी, नीतियाँ तुम्हारी क्यों?” और “भैंस तेरी, दूध हमारा!” लोकतंत्र यादव को जनता ने फिर से नेता घोषित कर दिया। लेकिन इस बार वे बोले — “अब राजनीति नहीं, अब मैं सिर्फ भैंस चराऊँगा।” लोगों ने पैर पकड़ लिए — “नेता जी, एक बार फिर मलाई दिलवा दो।” लोकतंत्र यादव ने एक लंबी साँस ली — “जिस देश में सिद्धांत मलाई से भारी हो जाए, वहां दूध भी आँसू बन जाता है।”

कुछ दिनों बाद गांव में ‘त्यागी दल’ बना। घोषणा हुई — “हम पद नहीं लेंगे। हम सेवक बनेंगे।” गांव के अखबार ‘गोधन टाइम्स’ ने ब्रेकिंग न्यूज़ चलाई — “त्यागियों की क्रांति: अब नेता नहीं, दुहैया सेवक बनेंगे।” सब जनता खुश। पर शाम होते-होते त्यागियों में झगड़ा शुरू हो गया — “सेवक कौन बनेगा?” रामधनी बोले — “मैं दूध उबालूँगा।” हरिनाथ गरजे — “मैं मलाई निकालूँगा!” चंद्रकांत भड़क उठे — “सब मलाई तू ही लेगा?” और फिर पतीले हवा में उड़ने लगे। दूध, सिद्धांत और सपने सब बह गए — भैंस गुमसुम खड़ी रही।

अब गांव में एक स्मारक है — ‘दूध सिद्धांत शहीद स्थल’। वहां लिखा है — “यहाँ लोकतंत्र यादव ने आखिरी बार सिद्धांत दुहे थे।” लोग आते हैं, फूल चढ़ाते हैं, बच्चे पूछते हैं — “पापा, ये सिद्धांत किस जानवर का नाम है?” और पापा आह भरते हैं — “बेटा, ये एक ऐसी भैंस थी जो कभी लोकतंत्र में दूध देती थी। अब तो वह सरकारी गोशाला में भर्ती है, और उसकी नज़रें हमेशा रास्ता ताकती रहती हैं — शायद कोई फिर से आदर्शवाद की घास लेकर आए।”

अंत में, लोकतंत्र यादव बूढ़े हो चुके थे। उन्होंने अपने आखिरी भाषण में कहा — “सिद्धांतों का बोझ इतना भारी होता है कि अगर दूध में डाल दो तो मलाई डूब जाती है।” और ये कह कर उन्होंने अपने पुराने दूध के डिब्बे को माला पहनाकर बंद कर दिया। आंखों से आँसू छलक पड़े। कोई पूछ बैठा — “क्या अब दूध भी राजनीति करेगा?” जवाब आया — “नहीं बेटा, अब राजनीति ही दूध को पी जाएगी।” गांव वालों ने एक स्वर में कहा — “अब तो भैंस ही संविधान लिखेगी।” और भैंस… वो चुपचाप खड़ी रही, उसकी आंखों में एक बूंद आंसू चमक रहा था — शायद किसी पुराने नेता का बचा हुआ वादा।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : drskm786@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ उलट कर देखे दो बड़े  ☆ श्री तीरथ सिंह खरबंदा ☆

श्री तीरथ सिंह खरबंदा

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री तीरथ सिंह खरबंदाजी का हार्दिक स्वागत। आपने विधि विषय में पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की है। व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में सतत सक्रिय, विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन-प्रकाशन तथा हलफनामा, इक्कीसवीं सदी के अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार एवं हमारे समय के धनुर्धारी व्यंग्यकार, साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। वर्ष 2023 में पहला व्यंग्य संग्रह “सुना है आप बहुत उल्लू हैं” प्रकाशित हुआ। वर्ष 2024 में दूसरा व्यंग्य संग्रह “झूठ टोपियाँ बदलता रहा” प्रकाशित हुआ। वर्ष 2022 में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा स्पंदन साहित्य सम्मानसंप्रति : इंदौर में विधि एवं साहित्य के क्षेत्र में सतत सक्रिय। आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – उलट कर देखे दो बड़े )

☆ व्यंग्य ☆ उलट कर देखे दो बड़े ☆ श्री तीरथ सिंह खरबंदा ☆

एक बड़े लेखक की किताब का विमोचन था। किसी बड़े नेता (जी) को बुलाया गया। नेता (जी) शायद बहुत दिनों से भरे पड़े थे। जब बोलना शुरू किया तो फूट पड़े। रुके ही नहीं, बोलते चले गए। जितनी बड़ी किताब न थी उससे कहीं ज्यादा लंबा भाषण हो गया। किताब के बारे में भला कुछ जानते तो बोलते। किन्तु कुछ बोलना भी जरूरी था। बोले – किताब का आवरण पृष्ठ बहुत सुंदर है। कागज की क्वालिटी एक नंबर की है। इसकी छपाई बहुत उम्दा है। अच्छी खासी मोटी किताब है। लगता है बहुत मेहनत की है। और फिर लगे हाथ उसकी पृष्ठ संख्या भी गिनवा डाली। साथ ही किताब पलटकर उसकी कीमत देखने लगे। होले से फुसफुसाकर बोले बहुत ज्यादा है, सस्ती होनी चाहिए थी। नेता चाहता कि किताब सस्ती हो। किन्तु बढ़ती महंगाई के बारे में उससे पूछो तो बंगले झांकने लगता है।

लेखक ने नेता के स्वागत में पलक पावड़े बिछा दिए। स्वागत भाषण में अपनी पूरी प्रतिभा खोल कर रख दी। नेता की तारीफ में खुलकर ऐसे-ऐसे अलंकारों का प्रयोग किया कि जिसे सुन श्रोता तो क्या स्वयं नेता भी अचंभित थे।

उपस्थित लोग नेता को नमस्कार करने का अवसर खोज रहे थे। बड़े नेता को सभी नमस्कार करते हैं। बड़े लेखक का लिखा सभी पढ़ते हैं किन्तु वह दूसरों का लिखा कभी नहीं पढ़ता। बड़े नेता और बड़े लेखक दोनों की रीति नीति एक जैसी होती है, दोनों ही ईर्ष्यालु होते हैं। यदि वे ईर्ष्यालु नहीं हैं तो समझो उनमें बड़ा बनने की काबिलियत नहीं है। वे दूसरों की बुराइयाँ ढूंढते-ढूंढते ही एक दिन बड़े बन जाते हैं।

बड़ा नेता मन ही मन पूरा हिसाब रखता है, किसने नमस्कार किया और किसने नहीं और फिर मौका आने पर सबका हिसाब बराबर करता है। बड़ा लेखक भी हिसाब रखता है, किसने उसके लिखे की तारीफ की, और किसने उसे इग्नोर किया। मौका आने पर वह भी हिसाब बराबर करता है। ये दोनों प्राणी हिसाब के बहुत पक्के होते हैं। मौका मिला नहीं कि सूद सहित हिसाब निपटाते हैं।

आजकल बड़ा लेखक भी बड़े नेता से ही अपनी किताब का विमोचन करवा कर ज्यादा खुश होता है। यह भी हो सकता है कि वह आज मौका पाकर उसे चिढ़ाना चाहता हो। देख मैंने किताब लिख डाली। क्या तुम कभी लिख सकते हो। यह भी हो सकता है कि यह मेरी कोरी आशंका हो। इस बार लेखक का इरादा कुछ और ही हो। हो सकता है कि वह किसी सरकारी पुरस्कार की जुगाड़ में लगा हो और यह सब उसी रणनीति का एक हिस्सा हो।

जिसे एक बार इनाम का चस्का लग जाए तो वह ताउम्र जाता नहीं है। वह चाहता है कि सारे इनाम उसी के नाम हो जाएँ। सरकारी इनाम का नंबर आता है तो कहता है चाहो तो मेरे सारे इनाम ले लो पर बदले में मुझे एक अदद सरकारी इनाम दे दो। सरकारी इनाम को वह छाती से चिपकाकर रखना चाहता है।

एक बार जिसे सरकारी इनाम मिल जाए उस पर बड़ा लेखक होने की मोहर चस्पा हो जाती है। ठीक ऐसा ही किसी नेता के साथ तब होता है जब उसे सत्ता में कोई पद मिल जाए। वह रातों रात बड़ा नेता हो जाता है। एक बार ब्रांडेड हो जाने के बाद कचरा माल भी बिकने लगता है।

एक बार जो नेता बन गया तो समझो वह बहुत कुछ बन गया। बड़ा नेता बनते ही वह सबको नसीहतें देने लगता है। परम ज्ञानी की तरह ज्ञान बांटने लगता है। उसकी डिग्री के बारे में बात करो तो दाएं बाएं देखने लगता है। अब्बा-डब्बा-जब्बा करने लगता है। प्रश्न पूछने वाले को दुश्मन की मानिंद घूरने लगता है। जैसे उसने कोई गुनाह कर दिया हो।

बड़ा नेता जुगाड़ से कुर्सी और लेखक इनाम हासिल करता है। वैसे नेता लेखक को और लेखक नेता को कुछ नहीं समझता है। दोनों में छत्तीस का आंकड़ा होता है किंतु कब यह त्रैसठ के आंकड़े में बदल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। बस मौका मिलने पर दोनों आपस में समझ लेते हैं।

बड़े नेता और लेखक दोनों का पेट कभी नहीं भरता। नेता का पेट हमेशा खाली ही रहता है उसे चाहे जो पद मिल जाए। लेखक को चाहे जितना यश मिल जाए उसका पेट भी नहीं भरता। ये दोनों कथित बड़े जीव हमेशा दूसरों की लाइन छोटी कर अपनी लाइन बड़ी करने के चक्कर में रहते हैं। इसमें जो जितना सफल हो जाए वह उतना ही बड़ा कहलाता है। यदि आप भी इनके जैसा बड़ा बनने की दौड़ में लगे हैं तो यह सब आपके बहुत काम का है।

©  श्री तीरथ सिंह खरबंदा

ई-मेल : tirath.kharbanda@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 51 ☆ व्यंग्य – “झेड प्लस प्लस से झेड स्क्वेयर सिक्सटीन तक…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  झेड प्लस प्लस से झेड स्क्वेयर सिक्सटीन तक…” ।)

☆ शेष कुशल # 50 ☆

☆ व्यंग्य – “झेड प्लस प्लस से झेड स्क्वेयर सिक्सटीन तक… – शांतिलाल जैन 

‘सर, सारी गलती अंग्रेजों की है. अल्फाबेट में ‘झेड’ से आगे कोई अक्षर ही नहीं बनाया आलसियों ने. बनाया होता तो बनवारी हमेशा आपके लेवल की सिक्युरिटी से दो चार अक्षर पीछे ही रहा होता.’ – पीएस ने सर का मूड नार्मल करने की कोशिश की.

पार्टी में पिछले दिनों अपने घोर विरोधी बनवारी को झेड लेवल की सिक्युरिटी दो प्लस के साथ मिल गई है, बस तभी से वे खिन्न हैं. हालाँकि झेड प्लस प्लस सिक्युरिटी उनके पास पहले से ही है. मगर दूसरों को भी मिल जाने से दुखी हैं. अंदेशे में दुबले हो रहे हैं. अंदेशा वाजिब भी है श्रीमान. एक बार आदमी साधारण से चलकर ‘वीवीआई’ मकाम तक पहुँच जाए, ‘पी’ तो महज़ फ्लैश एंड ब्लड वाला परसन भर रह जाता है, आदमियत खो जाती है. सिस्टम में धंसा एक आदमी जब अपने को महत्वपूर्ण मनवाने के लिए अति करने पर उतर आए तो अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति का लेवल चस्पा करवा लेता है. पहले उन्होंने किया, आज बनवारी ने करा लिया है. वीवीआईपियों की भीड़ से बैकुंठ संकड़ा पड़ गया है.

जीवनशैली में वे आने वाले समय में आ सकने वाले बदलावों से आज ही डरने लगे हैं. वे आगे देख पा रहे हैं कि वीवीआईपी इतने अधिक हो गए हैं कि शाही स्नान के दिन गाड़ी सीधे गंगा के घाट तक नहीं ले जा पा रहे हैं. वीवीआईपिओं की भीड़ में भगदड़ मच गयी है और वे कुचले जा रहे हैं. उनसे कहा जा है कि सर वीवीआईपी-क्यू उस तरफ लगी है, कृपया उधर से. अभी तक तो उन्हें कभी किसी क्यू में लगना ही नहीं पड़ा मगर हर किसी ऐरे गैरे नत्थू खैरे को वीवीआईपी स्टेटस दिए जाने से अब उनको लाइन में लगना पड़ रहा है. मंदिरों में प्रोटोकॉल पाए भक्तों की लाइन आम भक्तों की लाइन से ज्यादा लंबी हो गई है. ये क्या, उनकी गाड़ी ट्राफिक सिग्नल पर रोक दी गई है. तीखी धूप में जाम में फंसी जनता को देख उनका वीवीआईपी सुख चरम को पा जाता था, बनवारी प्रकरण के बाद ऐसा नहीं हो पा रहा है. वीवीआईपी रोक दिए गए हैं, बताईए भला. एसपी साब सफाई दे रहें हैं – ‘सर ये जो ट्राफिक देख रहे हैं आप वीवीआईपियों का ही है. आम आदमी ने तो घर से निकलना ही बंद कर दिया है. सॉरी सर. ग्रीन हो गया है निकल जाईए.’

अभी तक स्टेट प्रोटोकॉल ऑफिसर उनकी अगवानी को आता रहा मगर पिछले दिनों प्रोटोकॉल ऑफिसर को ही वीवीआईपी का दर्ज़ा मिल गया है. कौन किसको रिसीव करे – अफरा तफरी मची है. उधर सर्किट हाऊस में पहले से इतने वीवीआईपी रुके हैं कि उनके लिए पोर्च में दरी बिछाकर सोने की नौबत आ गयी है. खानसामा वीवीआईपी बनने की जुगाड़ में कहीं बिजी है. ब्रेड पर बटर-जैम उनको खुद लगाना पड़ रहा है. वे तीन दिन से ट्राय कर रहे हैं वीआईपी कोटे में बर्थ कन्फर्म नहीं हो पा रही. अभी तक वे कानून से ऊपर थे मगर वीवीआईपियों की धक्कामुक्की में नीचे गिर गए हैं. अभिजात्य अभिजात्य नहीं रहा, आम हो गया है. इस कदर कि ये साला पीएस जो अभी तक यस सर यस सर करता हुआ झुकी झुकी कमर लिए खड़ा रहता था, तन कर खड़ा होने लगा है, डिक्टेशन लेने में इसकी नानी मरने लगी है. इतने बुरे दिन पहले कभी नहीं आए थे. वे भविष्य के ऐसे दृश्यों की कल्पना मात्र से पसीना पसीना हो गए हैं, और सजगता में लौट आए हैं. उन्होंने पूछा – ‘बनवारी से आगे कैसे रहा जा सकता है ?……. होम मिनिस्टर से बात करके देखा जा सकता है, हिंदी के अक्षर से चलें तो ‘ढ-प्लस’ या ‘ज्ञ-प्लस’ तक भी जाया जा सकता है.’

‘नहीं सर, ऐसी गलती मत कीजिएगा. बेईज्जती हो जाएगी. हिंदी तो अब पानवाले तक यूज नहीं करते आप सिक्युरिटी लेवल की बात कर रहे हैं.’

‘तब क्या किया जाए? अपन के झेड में आलरेडी दो प्लस लगे है, अब बनवारी के भी लग गए हैं, कुछ तो करना पड़ेगा.’

‘सर, स्क्वेयर लगवा लीजिए. झेड स्क्वेयर सिक्सटीन, झेड स्क्वेयर थर्टी टू ऑर सिक्सटी फोर. समथिंग लाईक दैट. बाकियों को वहाँ तक पहुँचने में टाईम लगेगा. फिर आप पुराने वीवीआईपी जो हैं. सिनिओरिटी काउंट होनी चाहिए.’

बात तो ठीक है. कुछ देर सोचकर उन्होंने अपने आप को संयत किया, उठ खड़े हुए, पीएस को गाड़ी पोर्च लगवाने का निर्देश दिया. होम मिनिस्टर से मिलने के लिए निकलने वाले हैं. बीच में मंशामन मंदिर में रुकेंगे, शीश नवाएँगे, मन्नत मांगेंगे – प्रभु, झेड स्क्वेयर सिक्सटीन लेवल की सुरक्षा का प्रोटोकॉल बने जो उन्हें और सिर्फ उन्हें ही नसीब हो.

शीघ्र ही हम उनकी मंशा फलीभूत होते देखेंगे. देखेंगे आर्यावर्त में अभिजात्य के टापू के बीच एक सुपर-अभिजात्य टापू निकल आया है.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 9 – हास्य-व्यंग्य – “बाल की खाल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य-व्यंग्य  बाल की खाल

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 9

☆ हास्य व्यंग्य ☆ “बाल की खाल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

शरीर में बालों के महत्व से कौन परिचित नहीं है ? मनुष्यों सहित पशु -पक्षी भी रंग – बिरंगे बालों के कारण ही प्राणी जगत में सुंदरता और आकर्षण का केंद्र बनकर सम्मान पाते हैं। पशु – पक्षियों को इसका बोध नहीं जबकि मनुष्य को इसका बोध है। संसार के सभी प्रणियों के लिए शरीर के बाल सिर्फ बाल हैं, केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसने बालों को दो भागों में बांट दिया है, चाहे गए बाल और अनचाहे बाल याने प्रिय और अप्रिय बाल। हम सभी को शरीर के कुछ अंगों के बाल तो बहुत पसंद हैं जबकि कुछ अंगों के बिल्कुल नापसंद। विडंबना है कि जिन बालों को हम पसंद करते हैं या जिनसे प्रेम करते हैं वे बेवफा होते हैं, ये समय के साथ कम होते जाते हैं जो हमें नापसंद हैं वे बेशर्म होते हैं।

बालों के प्रति महिलाओं व पुरुषों का प्रेम देखकर ही आज दुनिया भर में चाहने वाले बालों को झड़ने से रोकने, मोटा और मजबूत बनाने, उन्हें तरह – तरह के रंगों में रंगने के लिए अनेक प्रकार के तेल, क्रीम, साबुन, शैम्पू, डाई, दवाएं आदि उपलब्ध हैं। इसी तरह अनचाहे बेशर्म बालों से छुटकारे के लिए भी बाजार में ढेरों उत्पाद हैं। पूरी दुनिया में आदमी के बालों के रखरखाव के लिए अरबों रुपयों का कारोबार चल रहा है। यदि आदमी बालों से प्यार करना छोड़ दे तो न सिर्फ उसका तनाव घट जाए, ब्लड प्रेशर नार्मल हो जाए बल्कि पैसे भी बचें। बालों के बढ़ने, उगाने और बेशर्म बालों को खत्म करने के उत्पादों का कारोबार ठप्प हो जाए। प्रश्न यह है कि अगर ऐसा होता है तो फिर उन लड़कियों का क्या होगा जो पुरुषों की आकर्षक हेयर स्टाइल पर आहें भरते हुए दिल और जन न्यौछावर करते हुए कहती हैं –

“उड़ें जब – जब जुल्फें तेरी,

 कंवारियों का दिल मचले”

महिलाओं के बाल भी पुरुषों के आकर्षण का केंद्र हैं, वे कहते हैं –

“ये रेश्मी जुल्फें, ये शरबती आँखें,

 इन्हें देखकर जी रहे हैं सभी। “

शायरों – कवियों ने तो अच्छी जुल्फों के बिना हसीनाओं की कल्पना तक नहीं की है। हसीनाओं के जुल्फ – प्रेम पर तो एक शायर व्यंग्य करता हुआ यहां तक कहता है कि –

तेरी जुल्फें हैं या रात का साया हैं,

अगर तू सर को मुंडा ले तो सवेरा हो जाए।

खैर, सर के बालों के सौन्दर्य – प्रसंग से तो सभी भाषाओं का साहित्य भरा पड़ा है, आप भी बहुत कुछ जानते हैं। यहां मुझे याद आ रहे हैं “नाक के बाल”। चूंकि ये बाल नाक के अंदर होते हैं और वायु के कचरे को अंदर जाने से रोकते हैं अतः लोग इन्हें अनचाहे बालों की श्रेणी में नहीं रखते, बल्कि “नाक के बालों” का तो इतना सम्मान है कि चमचे किस्म के लोग महत्वपूर्ण लोगों की “नाक का बाल” बनने के लिए जी जान से लगे रहते हैं। जब किसी व्यक्ति द्वारा किसी विशिष्ट व्यक्ति की प्रशंसा, सेवा और विश्वसनीयता चरम पर पहुंच जाती है तो विशिष्ट व्यक्ति उसे बाल के रूप में अपनी नाक में स्थान प्रदान कर देता है। जब कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट व्यक्ति की “नाक का बाल” बन जाता है तो समाज में उसकी पूंछ परख बढ़ जाती है। किसी क्षमतावान व्यक्ति की नाक का बाल होने के अनेक फायदे हैं, किंतु किसी की नाक का बाल बनना और फिर उसकी नाक में बाल के रूप में अपना स्थान बनाए रखना आसान नहीं है। मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूं जो कल तक तो विशिष्ट व्यक्ति की नाक के बाल थे, किंतु जरा सी लापरवाही के कारण या तो उखाड़ दिए गए या ऐसे स्थान पर स्थानांतरित कर दिए गए जिनकी कोई कीमत नहीं है। यहां मैं अपने एक परिचित का उल्लेख अवश्य करना चाहूंगा। मैं जब भी उनके पास जाता हूं वे हमेशा मुझे अपनी नाक के बाल उखाड़ते ही मिलते हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि रोज उन्हें अपनी नाक में बाल मिल कहां से जाते हैं। आप सोच रहे होंगे कि मैने मूंछ के बालों की चर्चा नहीं की। मूंछ के बाल भी बड़े कीमती, व्यक्ति की आन – बान – शान का प्रतीक होते हैं। लोग अपनी मूंछों के सम्मान के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं। बालों से हमारा और हमसे बालों का इतना गहरा सम्बन्ध है कि लिखूं तो लिखता ही जाऊं, लेकिन सोचता हूं “बाल की खाल” निकालना ठीक नहीं।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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