हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 39 – धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 39 – धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

शिवपुर के छोटे से गाँव में जीवन हमेशा सादगी और संघर्ष की एक मधुर धुन रहा है। यहाँ, सूरज गेहूं के सुनहरे खेतों को चूमता है, और हल्की हवा गाँव के कुएं के पास खेलते बच्चों की हंसी को लेकर आती है। लेकिन इस अद्भुत दृश्य के बीच खड़े हैं मास्टर विनय, एक समर्पित शिक्षक, जिनका जीवन सरल नहीं था। सालों से, उन्होंने अपने छात्रों में ज्ञान की रौशनी बिखेरी, उनके सपनों को संजोया। लेकिन जैसे-जैसे मौसम बदला, शिक्षा विभाग की मनमानी और नौकरशाही ने उनके समर्पण पर भारी पड़ना शुरू कर दिया। हर बार जब उन्होंने ट्रांसफर की अर्जी लिखी, वह फाइलों के गर्त में खो जाती, जैसे व्यस्त बाजार में एक भूला हुआ बच्चा। यह विडंबना भरी बात थी; वह सिस्टम, जो शिक्षा को ऊपर उठाने का वादा करता था, वह असल में शिक्षकों के कल्याण से ज्यादा कागजी कार्यवाही में उलझा था।

एक भाग्यशाली सुबह, एक पत्र आया जिसने विनय के जीवन के संतुलन को चूर-चूर कर दिया। उस लिफाफे पर शिक्षा विभाग का निशान था, जो झूठी आशा की एक चमक की तरह था। उनका दिल तेजी से धड़कने लगा जब उन्होंने उसे खोला, और उसमें शहर में ट्रांसफर की घोषणा थी—एक ऐसा स्थान, जो धूल, कंक्रीट, और तेज गति से भरा हुआ था, जो उनके शांत गाँव के साथ कड़ा विरोधाभास था। विनय का दिल टूट गया जब उन्होंने शहर की सड़कों की कल्पना की, जहाँ उनके छात्रों की हंसी की जगह कारों की हार्नेस और फाइलों की खड़खड़ाहट ले लेगी। उनकी पत्नी, सुषमा देवी, हमेशा उनके लिए ताकत का स्तंभ रही थी, लेकिन इस खबर ने उसे विश्वास और निराशा के बीच झूलने पर मजबूर कर दिया। उसकी आँखों में भरी आँसू हजारों अनकही डर की पीड़ा को दर्शाते थे: क्या वह सच में चले जाएंगे? उनके बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य बनाने के सपनों का क्या होगा? जब उन्होंने सुषमा के आँसू भरे चेहरे की ओर देखा, तो उन्हें एहसास हुआ कि इस ट्रांसफर की असली कीमत उनकी नौकरी की हानि से कहीं अधिक थी; यह एक परिवार, एक समुदाय, और एक शिक्षक की अटूट प्रतिबद्धता का टूटना था।

उनके जाने का दिन भारी दिल के साथ आया। विनय अपनी पुरानी साइकिल पर चढ़े, जिसका जंग लगा ढांचा उनके अनकहे दुख के बोझ की तरह कराह रहा था। नए स्कूल का रास्ता असहनीय लंबा लग रहा था, हर पैडल उन्हें याद दिला रहा था कि वे क्या छोड़ने जा रहे हैं। बच्चे उनका इंतजार कर रहे थे, उनकी मासूम आँखें उम्मीद और अनिश्चितता से चमक रही थीं। उनके छोटे हाथों में रंगीन चित्र थे, जो उन्होंने अपने प्रिय शिक्षक के लिए बनाए थे, एक ऐसे भविष्य की चित्रण जो उन्हें शामिल करता था। लेकिन खुशी की बजाय, विनय के दिल में एक दर्द महसूस हुआ। वह कैसे बता सकते थे कि वह उनके सपनों को छोड़ रहे हैं, कि शिक्षा प्रणाली ने युवा मनों की परवरिश के बजाय नौकरशाही के ट्रांसफर की सुविधा को चुन लिया है? उन्होंने कक्षा में प्रवेश किया, उनका दिल दुःख से भरा हुआ था, और ब्लैकबोर्ड पर लिखा, “शिक्षा केवल ज्ञान देने के बारे में नहीं है, बल्कि दिलों को जोड़ने के बारे में भी है।” ये शब्द खोखले लगे जब बच्चे उनकी ओर देख रहे थे, उनके चेहरों पर वही उलझन और डर था जो सुषमा के चेहरे पर था। वे पूरी तरह से नहीं समझते थे, लेकिन वे आने वाली हानि का अनुभव कर रहे थे, जो केवल भौगोलिक परिवर्तन से कहीं ज्यादा गहरी थी।

उस रात, जब विनय सुषमा के साथ भोजन कर रहे थे, उन्होंने एक निर्णय लिया जो सब कुछ बदल देगा। “मैं नहीं जाऊंगा, सुषमा। मैं उन्हें छोड़ नहीं सकता,” उन्होंने कहा, उनके विश्वास का वजन उनकी थकी हुई आँखों में रोशनी भर रहा था। सुषमा का चेहरा निराशा से विश्वास और फिर उम्मीद की झलक में बदल गया, लेकिन अज्ञात का डर अभी भी था। जब जोड़े ने अपने सपनों और डर साझा किए, विनय का संकल्प और मजबूत होता गया। अगली सुबह, जबकि शिक्षा विभाग के क्लर्क उसकी ट्रांसफर आदेश के लिए फाइलों की खोज कर रहे थे, वह स्कूल के मैदान में थे, उस छोटे पौधे की देखभाल करते हुए जिसे उन्होंने सालों पहले लगाया था—एक प्रतीक जो शिवपुर में उनकी जड़ों का प्रतीक था। शिक्षक का दिल भारी था, लेकिन यह अपने छात्रों और समुदाय के प्रति प्रेम से भरा था। उन्होंने सीखा कि सच्ची शिक्षा संबंध और प्रतिबद्धता में फलती-फूलती है, न कि नौकरशाही के ट्रांसफर में। उस पल, सुनहरे गेहूं के खेतों और बच्चों की हंसी के बीच, उन्हें एहसास हुआ कि परिवर्तन का मौसम सरकार द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि वह अपने दिल में धारण किए गए प्रेम और समर्पण से होता है। और जब सूरज शिवपुर के ऊपर अस्त हो रहा था, सुनहरी चमक के साथ, विनय ने समझा कि कभी-कभी, ठहरना और अपने सपनों को पोषित करना सबसे साहसी कार्य होता है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #203 – व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 203 ☆

☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।

“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”

हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”

बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।

हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”

“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।

सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।

सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।

अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।

सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।

बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।

इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।

उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01- 2025

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 275 ☆ व्यंग्य – साहित्य और ‘सुधी पाठक’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘साहित्य और ‘सुधी पाठक’ ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 275 ☆

☆ व्यंग्य ☆ साहित्य और ‘सुधी पाठक’

हर भाषा के साहित्य से जुड़े कुछ लोग होते हैं जिन्हें ‘सुधी पाठक’ कहा जाता है। ‘सुधी पाठक’ वे पाठक होते हैं जिनकी सुध या याददाश्त बड़ी तगड़ी होती है। किसी भी भाषा में निकलने वाली पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं और लेखकों की पिछले 25-50 साल की जानकारी सुधी पाठकों के पास मिल जाती है। इसलिए कोई लेखक जनता- जनार्दन की याददाश्त कमज़ोर मानकर कुछ लाभ लेने की कोशिश करता है तो सुधी पाठक लपक कर उसकी गर्दन थाम लेते हैं। हमला इतना अचानक होता है कि लेखक को जान छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए जिन लोगों को अपनी इज़्ज़त प्यारी है उन्हें सुधी पाठकों से ख़बरदार रहना ज़रूरी है।

कुछ  समय पहले एक प्रतिष्ठित कथा-पत्रिका में एक वरिष्ठ कथाकार की कहानी छपी। ज़्यादातर लोगों को उसमें कुछ भी गड़बड़ नज़र नहीं आया, लेकिन महीने भर के भीतर ही दो सुधी पाठक अपनी बहियों की धूल झाड़ते हुए मैदान में आ गये। लेखक पर आरोप लगा कि उनकी वह कहानी 25 साल पहले एक पत्रिका में छप चुकी है। उन सुधी पाठकों ने पत्रिका का नाम, संपादक का नाम, सन् वगैरह सब गिना दिया। लेखक के लिए सब दरवाज़े बन्द करते हुए उन्होंने लिखा कि उस पुरानी पत्रिका की प्रति उनके पास सुरक्षित है। दो में से एक सुधी पाठक ने बताया कि उन्होंने उस कहानी के भूतकाल में प्रकाशन का पता अपने व्यक्तिगत पत्रिकालय और पुस्तकालय को छान मारने के बाद लगाया। जहां ऐसे जागरूक और चुस्त पाठक हों वहां लेखक को हमेशा फूंक-फूंक कर पांव रखना होगा।

कुछ साल पहले सुधी पाठकों ने एक स्थापित कथा-लेखिका को संकट में डाल दिया था। लेखिका ने भी अपनी एक कहानी दुबारा कहीं छपा ली थी। बस, सुधी पाठकों ने अपनी बहियां पटकनी शुरू कर दीं और लेखिका को उन्हीं ‘याद नहीं’, ‘शायद भूल से’ वाले धराऊ बहानों की ओट लेनी पड़ी। मुश्किल यह है कि एक बार पकड़ में आने के बाद फिर कोई बहाना काम नहीं आता। सब जानते हैं कि कोई ‘भूल’ नहीं होती। लेखक जितने बहाने करता है उतने ही उसके झूठ के कपड़े टपकते जाते हैं।

कई साल पहले एक और कलाकार हिन्दी साहित्य में उभरे थे। वे दूसरों की कहानियों को कुछ समय बाद अपने नाम से छपा लेते थे। इतनी मौलिकता उनमें ज़रूर थी कि रचना का शीर्षक और पात्रों के नाम बदल देते थे। बड़े बहादुर और आला दर्ज़े के बेशर्म थे। रचना के साथ बाकायदा अपना फोटो और परिचय छपाते थे। कुछ भी पोशीदा नहीं रखते थे। लेकिन ज़माने से उनका सुख न देखा गया और एक दिन वे पकड़ में आ गये। मरता क्या न करता। उन्होंने बहाना गढ़ा कि वे कहानियों का संग्रह करने के आदी थे और उनकी पत्नी ने गलती से वह कहानी उनका नाम लिखकर पत्रिका को भेज दी थी। इस देश में वीर पुरुषों पर जब जब बड़ा संकट आता है तब तब वे बेचारी पत्नी को आगे कर देते हैं। कभी पत्नी के बल पर दया प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, तो कभी पत्नी को जाहिल और मूर्ख बता कर अपनी करनी उसके सिर थोप देते हैं। बहरहाल, उन लेखक महोदय का यह बहाना चला नहीं और उनके उज्ज्वल साहित्यिक जीवन का असमय ही अन्त हो गया। साहित्य की इस बेवफाई के बाद अब वे शायद किसी और क्षेत्र में अपना हस्तलाघव दिखा रहे होंगे। अगर सुधी पाठक उनके पीछे न पड़ते तो अपनी जोड़-तोड़ के बल पर वे अब तक दो-चार साहित्यिक पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके होते।

दरअसल जब लेखक के प्रेरणास्रोत सूखने लगते हैं तब मजबूरी में पुरानी रचनाओं को ‘रिसाइकिल’ करना पड़ता है। कारण यह है कि शोहरत का चस्का आसानी से छूटता नहीं। ‘छुटती नहीं है काफ़िर मुंह से लगी हुई’। एक और बात यह है कि दुबारा छपाने का काम अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण रचनाओं के साथ ही हो सकता है क्योंकि महत्वपूर्ण रचनाएं सुधी पाठकों के ज़ेहन और ज़ुबान पर ज़्यादा रहती हैं। फिर भी सुधी पाठक का कोई भरोसा नहीं। जिस रचना को लेखक दो गज़ ज़मीन के नीचे दफ़न मान लेता है उसी को कंधे पर लादे सुधी पाठक दौड़ता चला आता है और लेखक इस साहित्यिक डिटेक्टिव का करिश्मा देखकर अपनी मूर्खता पर पछताता रह जाता है। लेकिन यह सब सामर्थ्यहीन लेखक ही करते हैं। जो सामर्थ्यवान होते हैं वे ‘न लिखने का कारण’ पर बहस भी चला लेते हैं और उस पर पुस्तक भी छपवा लेते हैं। यानी ‘चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी’।  कुछ लोग ज़िन्दगी भर ‘कागद कारे’ करके भी गुमनामी में डूबे रहते हैं और कुछ लिखने से मिली शोहरत को न लिखने का कारण बता कर उसे और लंबा कर लेते हैं। सामर्थ्यवान और सामर्थ्यहीन के बीच के फ़र्क का इससे बेहतर नमूना भला क्या होगा?

जो भी हो, यह ‘सुधी पाठक’ नाम का जीव खासा ख़तरनाक होता है। वह साहित्यिक नैतिकता का चौकीदार, साहित्य का ‘ओम्बड्समैन’ होता है। वह बड़े-बड़े लेखकों को भी नहीं बख्शता। सब लेखकों की कर्मपत्री उसके पास सुरक्षित होती है। उसकी नज़र जॉर्ज ऑरवेल के ‘बिग ब्रदर’ की नज़र से ज़्यादा तेज़ होती है। लेखक अपनी मर्यादा से तनिक भी दाएं-बाएं हुआ कि भारतवर्ष के किसी दूरदराज़ के कस्बे से एक सुधी पाठक हाथ उठाकर खड़ा हो जाता है। जिन लेखकों को अपनी रचनाओं की चोरी-बटमारी का डर हो वे सुधी पाठक के भरोसे निश्चिन्त सो सकते हैं।

चुनांचे, जिन लेखकों की स्याही सूख चुकी है उनके लिए सम्मान का मार्ग यही है कि सुधी पाठक को नमस्कार करके मंच से उतर जाएं। नयी बोतल में पुरानी शराब भरेंगे तो सुधी पाठक बोतल लेखक के मुंह पर मार देगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संक्षिप्त परिचय

जन्म : 1952, रानापुर, जिला: झाबुआ, म. प्र. शिक्षा : भौतिकी, हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर. टोरंटो (कनाडा) : 2002 से कैनेडियन नागरिक.

प्रकाशन :  “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता।

स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन।

नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित।

श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।” आज प्रस्तुत है आपका अप्रतिम व्यंग्य फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते। 

☆ फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

लोग घोड़ा देखते हैं तो उस पर बैठने की आशा संजो लेते हैं। यदि कुँआरे घोड़े पर बैठ जाएँ तो मंडप तक पहुँचे बिना उतरते नहीं। वैसे ही जब कोई लेखक किताबों के प्रकाशक को देखता है तो दुल्हे जैसे सपने देखने लगता है। ऐसे मीठे सपने कि प्रकाशक उसकी किताब छापेगा। कहानियों की किताब छपी तो उन कहानियों पर फिल्में बनेंगी और वे ऑस्कर जीतेंगी। कविताओं की किताब छपी तो किशोर कुमार घराने के लोग उसके गीत गाएँगे और उसके एल्बम इतने टॉप पर होंगे कि ग्रैमी अवार्ड वाले उसका घर ढूंढते-ढूंढते आ जाएँगे। रेल्वे प्लेटफॉर्मों और हवाईअड्डों के बुक स्टोर वाले उसकी किताब ‘डिस्प्ले’ पर रखेंगे। साहित्य के आलोचक उसकी किताब को चाहे महत्व नहीं दें पर राज्य अकादमियों के लोग प्रशंसा की गोटियाँ डालने लगेंगे। साहित्य के छोटे-बड़े फेस्टिवल में वह अपनी किताब के अंश सुना सकेगा। पांडुलिपि तैयार है, बस कोई ढंग का प्रकाशक नहीं मिल रहा। लेखक को प्रकाशक तो कई मिल रहे हैं, पर उसे ऐसा प्रकाशक चाहिए जो उसके जूतों में पैर रख कर उसके जैसे सपने देख सके। हर नया प्रकाशक नई उम्मीद का लॉलीपॉप देता है। प्रकाशक पांडुलिपि देखने की बजाय उस लेखक का वजन देखता है, लेखक के कपड़े देखता है। फिर लेखक के कपड़े उतरवाना शुरू करता है, कुछ मालमत्ता दिखा तो छिलाई शुरू करता है। धीरे-धीरे नव-प्रकाशक और लेखक का संबंध खानदानी बनने लगता है। कुछ महीनों बाद वह लेखक समझ पाता है कि उसने जो उम्मीदें बाँधी थीं वे एकदम झाँसा थीं। नया प्रकाशक भी उसे उल्लू बना गया। लेखक व्यंग्यकार है, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह उल्लू ही है। व्यंग्य लिख-लिख कर जब अजीर्ण हो जाता है तब बेचारा लेखक ऐसे झाँसा-प्रकाशक को दिन-रात कोसता रहता है तब कहीं उसकी रोटी हजम होती है।

अब लेखक चिरोंजीलालजी को ले लें। वह सूखे मेवे जैसे लेखक हैं, चमकदार बर्नियों में सजाए जाते हैं। महंगे बिकते हैं पर कम मात्रा में उठाए जाते हैं। सड़ा मेवा फ्री में मिले तो भी लोग नहीं चखते। उनकी किताबों का यही हाल है। वे जब पांडुलिपि प्रकाशक को सौंपते हैं तो प्रकाशक उनसे धन रूपी मेवा रखवा लेता है। गूगल के सौजन्य से प्राप्त मुफ्तिया सामग्री से किताब का आकर्षक कवर बनते देर नहीं लगती। चिरोंजीलालजी, प्रकाशक को और मेवा देते हैं। कुछ और पेज छपवाने में लेखक का मेवा खतम हो जाता है। अंततः, लेखक के हाथ में शगुन की पाँच प्रतियाँ आ जाती हैं। उन्हीं से विमोचन हो जाता है, उन्हीं से तीन-चार लोकार्पण, और दस-बीस जगह समीक्षाएँ हो जाती हैं। वे पाँच प्रतियाँ सदा सुहागन की तरह लेखक के कब्जे में रहती हैं। प्रकाशक, किताब के कवर पेज को हर पोर्टल पर चिपका कर रखता है ताकि किसी दिन बिल्ली के भाग्य से अमेजॉन पर कोई ऑर्डर आ जाए और वह ऑन डिमांड प्रिंट निकाल कर किताब की पहली प्रति बेच सके। चिरोंजीलाल जी अपनी लेखकीय प्रति हरदम अपने साथ रखते हैं। हर मंच पर उसकी मार्केटिंग करते हैं, किताब का टाइटल बताते हैं, उसे खोल कर प्रकट करते हैं और श्रोताओं को उनसे मिलने के लिए उकसाते हैं। मजाल, कोई भी सभ्य-असभ्य श्रोता उनके टोने-टोटके से प्रभावित हो जाए और समीप आ कर उनकी किताब के कवर पेज पर उनका नाम पढ़ ले।

आज एक प्रकाशक मुझे ‘भवन’ के अहाते में प्रसन्न मुद्रा में मिल गए। वे भरे पेट लग रहे थे। प्रकाशक दो ही स्थितियों में इतना प्रसन्न हो सकता है। या तो पिछले साल की बकाया राशि का संस्थान ने उसे चेक दे दिया हो या बचे हुए बजट को निपटाने के चक्कर में थोक ऑर्डर दे दिया हो। मैंने प्रसन्नचित्त प्रकाशक से पूछा- आपने आज किसकी किताब कांजी हाउस में चरा दी। वे हाथ जोड़ कर प्रणाम मुद्रा में बोले -आप भी अपनी पांडुलिपि दे दीजिए, हमें यहाँ गठ्ठर सप्लाय करना है। आपकी घास भी चरने डाल देंगे। और खुश खबर ये कि हम एग्रीमेंट करेंगे, बिक्री का हिसाब देंगे और सुप्रबंधन कर इसे अमेजॉन की टॉप टेन लिस्ट में चढ़वा देंगे। मैंने उन्हें हाथ जोड़ते हुए कहा “आपने किसी लेखक से कभी एग्रीमेंट किया हो तो बताएँ। किसी को रॉयल्टी में कुछ दिया हो तो बताएँ। दूध होगा तो दूध दिख जाएगा।” वे हं, हं, हं, करने लगे। झाँकी जमाने आए थे, यहाँ-वहाँ झाँक कर वे विजयी हो गए। सुना है विभाग ने राज्य भर में नई अलमारियों की आपूर्ति के लिए टेंडर निकाला है और फर्नीचर वाले गुप्त जी पुस्तक चयन समिति के खासमखास बनाए गए हैं।

मेरे दूसरे मित्र सुप्रसिद्ध लेखक हैं, कचौड़ीलाल। वह जब प्रकाशित होते हैं तो फूले-फूले, तेल चढ़े होते हैं। प्रकाशक एक झारे में जितनी कचौड़ियाँ समा सकता है, वह उतनी किताबें छाप कर रख देता है। किताबी कचौड़ियों का जब तक कहीं गणित नहीं जमता, वे प्रकाशक के खोमचे में पड़ी-पड़ी महकती रहती हैं। फिर प्रकाशक इन कचौड़ियों पर चटनी डालता है, दही डालता है, और महंगी मिठाई खरीदने वालों को मुफ्त में कचौड़ियाँ टेस्ट करवाता है। दो-चार कचौड़ियाँ बच जाए तो वह कचौड़ियों का नया संस्करण ले आ आता है। पुरानी कचौड़ियाँ उनमें मिक्स कर दी जाती हैं। ऐसे प्रकाशक मुझे अच्छे लगते हैं। पुराना माल नया होता रहे और बाजार में बना रहे तो लेखक के जिंदा बचे रहने की आस बंधी रहती है। इस बहाने लेखक अपने दोस्तों और परिचितों को दस परसेंट डिस्काउंट में अपनी किताब बिकवा तो सकता है। अन्यथा, उसके जीते-जी ही उसकी किताब काल-कलवित हो गई तो वह बेचारा विधुर लेखकों की पंगत में बैठा दिया जाएगा।

खेद, सारे प्रकाशक ऐसे निष्ठुर, हृदयहीन और टटपूँजिया किस्म के नहीं होते। आपको पता होगा, घेवरमलजी के प्रकाशक भोजनालय किस्म के हैं। किताब छापने का पैकेज साफ-साफ बता देते हैं, ताकि किसी लेखक को परोपकार का भ्रम नहीं रहे। उनका पैकेज वस्तुनिष्ठ होता है, तेरा तुझको अर्पण शैली वाला। वे निश्छल बता देते हैं, पैकेज में चार रोटी, दाल-सब्जी, नींबू-कांदा, पापड़ आदि से सजी आधी थाली मिलेगी, किफायती और स्टैंडर्ड। नगर पालिका के नल का देसी पानी मिलेगा। लिमिटेड थाली में सब थोड़ा-थोड़ा मिलेगा, लिमिट में। किताब छपवाने की भूख मिट जाएगी, प्यास बुझ जाएगी पर अमर होने की लालसा बनी रहेगी।  वे कहते हैं, अपने लेखन पर गुमान हो और उसका इसी जन्म में लुत्फ उठाना हो तो रॉयल पैकेज ले लो। उस पैकेज में वे किताब छापेंगे, उसकी मार्केटिंग करेंगे, साथ ही किसी पुराने चावल से भूमिका लिखवा लाएँगे, समारोह पूर्वक विमोचन करवाएँगे, प्रशस्तिपूर्ण समीक्षाएँ छपवाएँगे, मेले में नाच-नचनिया के साथ लेखक को नचवाएँगे, लायब्रेरियों के गोडाउनों में भरवाएँगे, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगवाएँगे और फिर छोटी-बड़ी सफेद रेशमी शाल में लेखक और किताब दोनों को लिपटवा कर दम लेंगे। वे आपसे कहेंगे, हे लेखक तुम रचना का बीज बो दो, धन की खाद डालते जाओगे तो वे बीज से वृक्ष तान देंगे। वृक्ष का समय-समय पर रख-रखाव होता रहेगा तो उसे वटवृक्ष बनने में देर नहीं लगेगी। समझदार लेखक को इससे बड़ा इशारा कोई प्रकाशक नहीं कर पाएगा।

मेरे कुछ लेखक मित्रों को निहायत शरीफ प्रकाशक भी मिले हैं। उनसे कोई लेखक एक रोटी माँगे तो वे एक रोटी का ही चार्ज लेते हैं। खाली पेट में कोई निवाला भी डाल दे तो वह जनम-जनम का पूज्य बन जाता है। ये शरीफ प्रकाशक ई-बुक की लौ सुलगा कर लेखक (माफ करें, लेखक की मशाल) को जलाए रखते हैं। किंडल जैसे प्रकाशक भी हैं, मुफ्त में छाप देते हैं, मुफ्त में बेच देते हैं। वे कहते हैं यहाँ उपलब्ध लाखों किताबों के ढेर में लेखक तुम्हारी भी एक किताब सही। जिस दिन कयामत आएगी, कब्रों से निकल कर मुर्दे जिंदा हो जाएँगे, तब तुम्हारी किताब जरूर पढ़ी जाएगी। वर्तमान दुनिया के बाजार के लिए कृपया क्षमा करें। इस काल में पाठकों से ज्यादा लेखक हो गए हैं। आप जानते ही हैं, लेखक का काम केवल लिखना है, उन्हें खुद का लिखा पढ़ने की फुरसत नहीं है तो दूसरों का लिखा कब और कैसे पढ़ेंगे?

कुछ परंपरागत प्रकाशक हैं, उनकी अपनी धुन है और अपना राग।  उनके पास पहले से ही गोडाउन भरे पड़े हैं। उनके पास जो पुराना है वह दुर्लभ किस्म का है और वे नया छापते हैं उसे भी दुर्लभ बनाने के हिसाब से छापते हैं। इनके द्वारा जो टिफिन भरे जाते हैं उनके खाने वाले बंधे हुए हैं। वे अपना माल उन्हीं को खिलाते हैं और उन्हीं से कमाते हैं। वे उन संस्थानों को माल बेचते हैं जो वांछित भाव देते हैं। इन खरीददारों की हालत यह है कि उधार मिल रहा है तो बासी माल खाने में कैसा परहेज! कहीं से दान या अनुदान मिलेगा तो बकाया सुलट जाएगा। मैंने आपको हिंदी के लेखकों के लिए उपलब्ध प्रकाशकों के कुछ ‘सेम्पल बताए’। बड़े शहरों विशेषकर राजधानियों में चार-पाँच स्टार वाले रेस्टोरेंटनुमा प्रकाशक होते हैं। इनके पास आधार सामग्री तो वही रहती है ठेले वाली, पर कटलरी उम्दा होती है, साज-सज्जा मनमोहक होती है। इनके लोग आगंतुकों को झुक-झुक कर किताबें परोसते हैं, पहले मेनू बताते हैं, खिलाते-पिलाते हैं, फिर बिल थमा देते हैं। ये इतनी शालीनता से जेब खाली करवाते हैं कि ग्राहक को लगता है वे इन किताबों को पढ़कर भारत के गुरूर, थरूर बन सकते हैं।

मैं यह व्यंग्य पोस्ट करने वाला ही था कि राजधानी के प्रतिष्ठित स्व-नाम धन्य लेखक मेरी टोह लेते आ गए और इसे पढ़ कर बोले – ‘किस जमाने में रहते हैं आप। मेरे प्रकाशकों को देखिए, रोज बारी-बारी से शाम को मेरे घर पर अपना कमोड छोड़ जाते हैं और दो-तीन दिन में ले जाते हैं। इतने समय में जितना उत्पादन होता है, सब छप जाता है और पूरे देश की लाइब्रेरियों में खप जाता है। जुगाड़ बैठ जाए तो विदेशी लाइब्रेरियों में भी अपना माल धकेला जा सकता है। मैंने ऐसा काँटा बिठाया हुआ है कि आठ-दस बड़ी भारतीय भाषाओं में मेरी किताब के अनुवाद शाया हो जाते हैं। लेखक को लिखने के अलावा दुनियादारी की कुछ समझ हो तो अपार काम है। लिखने वाला थक जाए पर प्रकाशक कभी न थके। गूगल पर सर्च के देख लो, मैंने कितने प्रकाशकों को धन्य किया है।’ अच्छा हुआ सिर पर मैला ढोने की प्रथा खत्म हो गई और लेखक के घर पर कमोड जड़ा कर साहित्य छापने का काम संस्थागत हो गया। मैं जानता हूँ वे मेरे लेखक मित्र पद से पूजे जाते हैं, पद न हो तो उनका पैंदा ही नहीं रहे। वे संस्थागत चल निकले हैं। यदि लेखक, लेखन के ही भरोसे रहे तो सम्मान महोत्सवों में भी जूते खाए। जो सच था वह आपको बता दिया, फिर न कहियेगा कि कोई प्रकाशक नहीं मिलता! बस जो मिल जाए उसे ढंग का बनाना आपका काम है।

♥ ♥ ♥ ♥

© श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संपर्क – 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

वेब पृष्ठ : www.dharmtoronto.com

फेसबुक : https://www.facebook.com/djain2017

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 330 ☆ व्यंग्य – “गए थे कुंभ नहाने, मिल गई मोनालिसा…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 330 ☆

?  व्यंग्य – गए थे कुंभ नहाने, मिल गई मोनालिसा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

धन्य हैं वे श्रद्धालु जो कुंभ में गंगा दर्शन की जगह मोनालिसा की चितवन लीला की रील सत्संग में व्यस्त हैं. स्त्री की आंखों की गहरी झील में डूबना मानवीय फितरत है. मेनका मिल जाएं तो ऋषि मुनियों के तप भी भंग हो जाते हैं. हिंदी लोकोक्तियाँ और कहावतें बरसों के अध्ययन और जीवन दर्शन, मनोविज्ञान पर आधारित हैं. “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ एक प्रचलित लोकोक्ति है. इसका अर्थ है कि किसी विशेष उद्देश्य से हटकर किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो जाना. बड़े लक्ष्य तय करने के बाद छोटे-मोटे इतर कामों में भटक जाना”.

कुम्भ में इंदौर की जो मोनालिसा रुद्राक्ष और 108 मोतियों वाली जप मालाएं बेचती हैं उनकी मुस्कान से अधिक उनकी भूरी आंखों की चर्चा है. वे शालीन इंडियन ब्लैक ब्यूटी आइकन बन गई हैं. यह सब सोशल मीडिया का कमाल है. एक विदेशी युवती सौ रुपए लेकर कुंभ यात्रियों के साथ सेल्फी खिंचवा रही है. दिल्ली में वड़ा पाव बेचने वाली सोशल मीडिया से ऐसी वायरल हुई कि रियल्टी शो में पहुंच गई. मुंबई के फुटपाथ पर लता मंगेशकर की आवाज में गाने वाली सोशल मीडिया की कृपा से रातों रात स्टार बन गई. जाने कितने उदाहरण हैं सोशल मीडियाई ताकत के कुछ भले, कुछ बुरे. बेरोजगारी का हल सोशल इन्फ्लूएंसर बन कर यू ट्यूब और रील से कमाई है.

तो कुंभ में मिली मोनालिसा की भूरी चितवन इन दिनों मीडिया में है. यद्यपि इतालवी चित्रकार लियोनार्दो दा विंची की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग मोनालिसा स्मित मुस्कान के लिए सुप्रसिद्ध है. यह पेंटिंग 16वीं शताब्दी में बनाई गई थी. यह पेंटिंग फ़्लोरेंस के एक व्यापारी फ़्रांसेस्को देल जियोकॉन्डो की पत्नी लीज़ा घेरार्दिनी को मॉडल बनाकर की गई थी. यह सुप्रसिद्व पेंटिंग आजकल पेरिस के लूवर म्यूज़ियम में रखी हुई है. इस पेंटिंग को बनाने में लिओनार्दो दा विंची को 14 वर्ष लग गए थे. पेंटिंग में 30 से ज़्यादा ऑयल पेंट कलर लेयर्स है. इस पेंटिंग की स्मित मुस्कान ही इसकी विशेषता है. यूं भी कहा गया है कि अगर किसी परिस्थिति के लिए आपके पास सही शब्द न मिलें तो सिर्फ मुस्कुरा दीजिये, शब्द उलझा सकते है किन्तु मुस्कुराहट हमेशा काम कर जाती है.

तो अपना कहना है कि मुस्कराते रहिए. माला फ़ेरत युग गया, माया मिली न राम, कुंभ स्नान से अमरत्व मिले न मिले, पाप धुले न धुलें, किसे पता है. पर राम नामी माला खरीदिए, मोनालिसा के संग सेल्फी सत्संग कीजिए, इसमें त्वरित प्रसन्नता सुनिश्चित है. हमारे धार्मिक मेले, तीज त्यौहार और तीर्थ समाज के व्यवसायिक ताने बाने को लेकर भी तय किए गए हैं. आप भी कुंभ में डुबकी लगाएं.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

आजकल भारत में एक नई संस्कृति प्रचलित हो गई है – ‘फ्रीबी कल्चर।’ जैसे ही चुनावों का मौसम आता है, नेता लोग निःशुल्क वस्तुओं का जाल बुनने लगते हैं। अब ये निःशुल्क वस्तुएँ क्या हैं? एकबारगी तो यह सुनकर आपको लगेगा कि ये किसी जादूगर की जादुई छड़ी का कमाल है, लेकिन असल में यह तो केवल राजनैतिक चालाकी है।

राजनीतिक पार्टी के नेता जब मंच पर चढ़ते हैं, तो उनका पहला वादा होता है: “आपको मुफ़्त में ये मिलेगा, वो मिलेगा।” जैसे कि कोई जादूगर हॉटकेक बांट रहा हो। सोचिए, अगर मुहावरे में कहें, तो “फ्री में बुरा नहीं है।” पर सवाल यह है कि ये निःशुल्क वस्तुएँ हमें कितनी आसानी से मिलेंगी?

एक बार मैंने अपने मित्र से पूछा, “तूने चुनावों में ये निःशुल्क वस्तुएँ ली हैं?” वह हंसते हुए बोला, “लेता क्यों नहीं, बही खाता है।” जैसे कि मुफ्त में लड्डू खाने के लिए किसी ने उसे आमंत्रित किया हो। उसकी बात सुनकर मुझे लगा, हम सभी मुफ्तखोर बन गए हैं।

फिर मैंने सोचा, आखिर ये नेता किस प्रकार का जादू कर रहे हैं? क्या ये सब्जियों की दुकान से खरीदकर ला रहे हैं या फिर फलों की टोकरी से निकालकर हमें थमा रहे हैं? नहीं, ये सब तो हमारे कर के पैसे से ही आता है। तो जब हम मुफ्त में कुछ लेते हैं, तो क्या हम अपने ही पैसों को वापस ले रहे हैं? यह एक प्रकार का आत्मा का हंसी मजाक है, जहां हम अपने ही जाल में फंसे हुए हैं।

और जब हम फ्रीबी की बात करते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये फ्रीबी कोई बिस्किट का पैकेट नहीं है, यह तो एक ऐसे लोन का जाल है, जिसका भुगतान हमें भविष्य में करना है। यह एक नारा है – “हम आपको देंगे, लेकिन इसके लिए आप हमें अपनी आवाज़ दें।” इसलिए, जब भी कोई निःशुल्क वस्तु मिलती है, हमें उस पर दो बार सोचना चाहिए।

आधुनिकता के इस दौर में, मुफ्त में चीजें लेना जैसे एक नया धर्म बन गया है। लोग अपनी गरिमा को भूलकर उन मुफ्त वस्तुओं की कतार में लग जाते हैं। और नेता भी इस बात का फायदा उठाते हैं। वे यह सोचते हैं कि “अगर हम मुफ्त में कुछ देते हैं, तो हमें वोट मिलेंगे।” तो क्या हम अपनी आत्मा को बिकने के लिए तैयार कर रहे हैं? यह तो जैसे अपने घर की दीवारों को बेचने जैसा है।

इस फ्रीबी संस्कृति के चलते, हमने अपनी मेहनत की कीमत कम कर दी है। अब लोग काम करने के बजाय मुफ्त में चीजें पाने की तलाश में रहते हैं। और नेता? वे खुश हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि हम मुफ्त में चीजें लेकर खुश हैं। यह एक चक्रव्यूह है, जिसमें हम सभी फंसे हुए हैं।

मैंने तो सुना है कि कुछ जगहों पर लोग मुफ्त में शराब और सिगरेट भी पाने के लिए वोट देते हैं। तो क्या हम अपनी सेहत की भीख मांग रहे हैं? यह एक ऐसी स्थिति है, जहां हम अपने स्वास्थ्य का सौदा कर रहे हैं। हमें यह समझना चाहिए कि “फ्रीबी” का मतलब सिर्फ मुफ्त में चीजें लेना नहीं है, बल्कि यह हमारे भविष्य को दांव पर लगाना है।

और तो और, जब ये नेता अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते, तो हमें याद दिलाते हैं कि “देखो, हमने तो फ्रीबी दी थी।” तो क्या यह हम पर निर्भर नहीं है कि हम अपने अधिकारों के लिए खड़े हों? हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि मुफ्त में मिले सामान का मतलब यह नहीं कि हमने अपनी आवाज़ बेच दी है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या हमें फ्रीबी की संस्कृति को खत्म करना चाहिए? या फिर हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा? हम केवल इसलिए मुफ्त में चीजें नहीं ले सकते क्योंकि यह हमें आसान लगती है। हमें अपने वोट की कीमत समझनी होगी और उसे केवल मुफ्त वस्तुओं के बदले नहीं बेचना चाहिए।

समाप्ति में, मैं यह कहूंगा कि फ्रीबी लेना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह एक सतत चक्र है। हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना होगा। तब ही हम इस निःशुल्क वस्तुओं के जाल से बाहर निकल पाएंगे। और जब हम इस जाल से बाहर निकलेंगे, तब हम वास्तविकता का सामना कर पाएंगे। इसलिए, फ्रीबी को छोड़कर, अपने मेहनत के पैसे पर भरोसा करना ही बेहतर है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #202 – इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 202 ☆

☆ व्यंग्य – इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग इंटरनेट मीडिया का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस इंटरनेट मीडिया में भी फेसबुक सबसे ज्यादा प्रचलित, लोकप्रिय और मोबाइल के कारण तो जेब-जेब तक पहुंचने वाला माध्यम हो गया है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्र-पत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर इंटरनेट मीडिया पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है। मगर उसकी चर्चा इंटरनेट मीडिया पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पोस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज पांच से सात घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकाना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है। कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वे छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकाना उन्हें नहीं आता है। वे इंटरनेट मीडिया से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है। जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर

लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा इंटरनेट मीडिया पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में इंटरनेट मीडिया पर बने रहते हैं।

ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है, जितनी रचना छप जाती है। उसे इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं, जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि इंटरनेट मीडिया के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह इंटरनेट मीडिया पर अपना ‘फेस’ चमकते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01/12/2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 274 ☆ व्यंग्य – परमलाल की पाप-मुक्ति ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘परमलाल की पाप-मुक्ति ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 274 ☆

☆ व्यंग्य ☆ परमलाल की पाप-मुक्ति

परमलाल की ज़िन्दगी घोर गरीबी में गुज़री। छोटे-मोटे अपराध करके ज़िन्दगी को ढकेलना नियति बना रहा। पढ़ने-लिखने का कोई वातावरण नहीं रहा। नतीजतन कल की समस्या हमेशा सामने खड़ी रही।

बड़ा होने पर बड़े अपराधियों का संग मिला। आसानी से बड़ी कमाई करने का वही ज़रिया दिखा। चोरी, सेंधमारी, सड़क पर छीन-झपट करने लगा। किस्मत अच्छी थी कि कभी पकड़ा नहीं गया।

हिम्मत बढ़ी तो एक दिन दो साथियों के साथ एक एटीएम मशीन तोड़ने में लग गया। तभी किसी ने पुलिस को सूचित कर दिया और तीनों धर लिये गये। तीन महीने बाद तीनों ज़मानत पर छूटे, लेकिन तब से पुलिस की नज़र उनकी गतिविधियों पर रहती है। हर हफ्ते थाने में हाज़िरी देनी पड़ती है। ज़िन्दगी मुश्किल हो गयी है।

इसी बीच महाकुंभ का हल्ला मचा। टीवी पर कुंभ में इकट्ठे जनसमूह की तस्वीरें दिन रात चलने लगीं। परमलाल के घर में छोटा टीवी था। उसी में वे रंग बिरंगे चित्र चलते रहते। परमलाल आंखें फाड़े उन दृश्यों को देखता रहता।

फिर एक दिन एक धर्माचार्य आये। उन्होंने बताया कि कुंभ में गंगा-स्नान से अनेकों जन्म के पाप धुल जाते हैं। परमलाल चमत्कृत हुआ। तुरन्त तैयारी करके प्रयागराज पहुंच गया। रात को एक चाय वाले की खुशामद करके उसकी दूकान में सोया। सवेरे स्नान किया। प्रमाण के तौर पर वहां उपस्थित लोगों की मदद से रील भी बना ली। और भी प्रमाण संभाल कर रख लिये। फिर खुश खुश घर लौटा।

कुंभ से लौटकर सीधा अपने वकील के पास पहुंचा। बोला, ‘वकील साहब, मैं कुंभ स्नान कर आया। ये सारे सबूत हैं। अब मेरे सारे पाप धुल गये। अब आप अदालत में अर्जी लगा दें कि मेरा केस खारिज करके मुझे बरी कर दिया जाए। अब आगे कोई पाप नहीं करूंगा।’

तब से वह वकील साहब के चक्कर काट रहा है और वकील साहब उससे पीछा छुड़ाते फिर रहे हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 37 – नेताओं का संकल्प और जनता का विकल्प ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना नेताओं का संकल्प और जनता का विकल्प)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 37 – नेताओं का संकल्प और जनता का विकल्प ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गांव का नाम था आशावादीपुर, जहां हर चार साल में उम्मीदें हवा में तैरतीं, और ज़मीन पर गिरते ही चकनाचूर हो जातीं। इस बार का चुनावी माहौल बड़ा ही गरमागरम था। प्रत्याशी धर्मपाल वर्मा, जो हर बार अपने वादों से गांववालों को चकाचौंध कर देते थे, इस बार फिर तैयार थे। उनके प्रमुख वादे—”हर घर में इंटरनेट, हर हाथ में टैबलेट, और हर गली में डामर की सड़क।”

सभा में, धर्मपाल वर्मा की आवाज़ गूंज रही थी, “भाइयों और बहनों, मैंने जो कहा, वो करके दिखाया। पिछली बार मैंने वादा किया था कि हर खेत तक पानी पहुंचेगा। पानी पहुंचा ना?”

पीछे से एक बूढ़े किसान ने खांसते हुए कहा, “हां, पानी पहुंचा था, लेकिन ट्यूबवेल के पाइप में, वो भी चुनाव के आखिरी दिन तक।”

सभा में तालियां और ठहाके गूंज उठे। धर्मपाल जी मुस्कुराए, “सिर्फ आलोचना से काम नहीं चलेगा। इस बार मैं गारंटी देता हूं कि आपकी गली चमचमाती सड़कों से भरी होगी।”

गांव के एक युवा, शंभू, जो हमेशा धर्मपाल जी के भाषणों में चाय बेचता था, इस बार एक सवाल लेकर खड़ा हो गया, “साहब, आपके भाषण में जो सड़कें हैं, वो हमारे गांव में क्यों नहीं दिखतीं? क्या वो भाषण में ही बनती हैं?”

धर्मपाल जी ने अपने रुमाल से पसीना पोछा और जवाब दिया, “सड़कें बन रही हैं, बेटा। देखना, अगली बार जब मैं आऊंगा, तो मेरी गाड़ी से धूल नहीं उड़ेगी।”

चुनाव नज़दीक था, और वादों की बारिश हो रही थी। “हर गरीब को पक्का मकान देंगे, हर बच्चे को शिक्षा मुफ्त। बिजली चौबीस घंटे और पानी सातों दिन!”

गांववाले मन ही मन बोले, “अगर ये सब होगा, तो फिर ‘आशावादीपुर’ को ‘सपनों का शहर’ बना दिया जाएगा।”

धर्मपाल जी जीत गए। गांववालों ने मिठाई खाई, और फिर भूले नहीं, बल्कि सपनों को धूल खाते देखा। चुनाव के अगले दिन ही बिजली की लाइन काट दी गई। “सरकारी काम में थोड़ी देरी होती है,” अधिकारी ने कहा। सड़कें बनीं, लेकिन बारिश में बह गईं। पक्के मकान आए, लेकिन दीवारों पर दरारें थीं। हर हाथ में टैबलेट की जगह, हर हाथ में बिल थमा दिया गया।

धर्मपाल जी पांच साल बाद फिर लौटे। इस बार उनके वादे और बड़े थे। “इस बार हर घर में हवाई जहाज और हर खेत में ड्रोन से सिंचाई!”

गांववालों ने ठहाका लगाया, “साहब, सड़कें तो पहले बनवा दीजिए, ड्रोन बाद में चलाएंगे।”

सभा खत्म हुई, धर्मपाल जी गाड़ी में बैठे, और गाड़ी के ड्राइवर ने धीरे से कहा, “साहब, गाड़ी का टायर इस सड़क पर फिर फंस गया।” धर्मपाल जी चुपचाप आसमान की ओर देखने लगे।

गांववाले अब जानते थे कि वादे सिर्फ वादे हैं। लेकिन एक नई पीढ़ी तैयार हो रही थी, जो सवाल पूछने लगी थी। धर्मपाल जी इस बदलाव से घबरा गए। और गांव ने तय किया, “अब चुनाव में कोई वादा नहीं, सिर्फ काम पर वोट मिलेगा।”

अब गांव का नाम बदलकर हो गया—”प्रश्नवादीपुर।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 329 ☆ व्यंग्य – “एक धांसू व्यंग्य की रचना…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 329 ☆

? व्यंग्य – एक धांसू व्यंग्य की रचना…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

क्या बात है आज बड़े प्रसन्न लग रहे हैं. घर पहुंचते ही पत्नी ने उलाहना देते स्वर में उनसे पूछा.मनोभाव छिपाते हुये वे बोले, कुछ तो नही. मैं तो सदा खुश ही रहता हूं. खुश रहने से पाजीटिवीटी आती है. व्यंग्यकार जी ने व्हाट्सअप ज्ञान बघारते हुये जबाब दिया. पर मन ही मन उन्होंने स्वीकार किया कि सच है इन पत्नियों की आंखो में एक्स रे मशीन फिट होती है. ये हाव भाव से ही दिल का हाल ताड़ लेती हैं. इतना ही नही पत्नी की पीठ भी  आपकी ओर हो तो भी वे समझ लेती हैं कि आप क्या देख सुन और कर रहे  होंगे. बिना बातें सुने केवल मोबाईल के काल लाग देखकर ही उन्हें आधे से ज्यादा बातें समझ आ  जाती हैं. पत्नी के सिक्स्थ सेंस को व्यंग्यकार जी ने मन ही मन नमन किया और अपनी स्टडी टेबल पर जा बैठे. बगीचे के ओर की खिड़की खोली और आसमान निहारते हुये एक धांसू फोड़ू व्यंग्य रचना लिखने का ताना बाना बुनने लगे. 

दरअसल व्यंग्यकार जी को देश के श्रेष्ठ १०१ रचनाकारों वाली किताब के लिये व्यंग्य लिखने का मौका मिल रहा था. वे इस प्रोजेक्ट में अपनी सहभागिता को लेकर मन ही मन खुशी से फूले नही समा रहे थे. उन्होंने तय किया था कि इस किताब के लिये वे  एक चिर प्रासंगिक व्यंग्य की रचना करेंगे. कुछ शाश्वत लिखने के प्रति वे आश्वस्त थे. उन्होंने अपनी कलम चूम ली. जब चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी अपनी तीन कहानियों से  हिन्दी साहित्य में अमरत्व प्राप्त कर चुके हैं, फिर वे तो आये दिन लिख ही नही रहे छप भी रहे हैं.पर अखबारो में छपने और जिल्द बंद किताब में छपने का अंतर वे खूब समझते हैं इसलिये व्यंग्यकार जी अपने ज्ञान और व्यंग्य कौशल से कुछ जोरदार धारदार ऐसा लिखने का प्लान बना रहे थे जो हरिशंकर परसाई जी के लेखो की तरह हर पाठक की पसंद बन सके. जिसे शरद जी के प्रतिदिन की तरह शारदेय कृपा मिल सके. 

व्यंग्यकार जी की पहली समस्या थी कि व्यंग्य किस विषय पर लिखा जाये, जो एवर ग्रीन हो लांग लास्टिंग हो सीधे सीधे कहें तो आज रात एक धांसू व्यंग्य की रचना कर डालना उनका टारगेट था ? व्यंग्यकार जी अच्छी तरह जानते थे कि शाश्वत मूल्यो वाली रचना वही हो सकती है, जिसमें व्यंग्यकार जन पीड़ा  के साथ खड़ा हो. ए सी कमरे में रिवाल्विंग चेयर पर बैठ  आम आदमी की तकलीफों को महसूसना सरल काम नही होता.  काफी पीते हुये सिगरेट के कश से  मूड बनाकर व्यंग्यकार जी शाश्वत टापिक ढ़ूंढ़ने लगे. सोचा कि अखबारी खबरों की मदद ली जाये, पर तुरंत ही उन्हें ध्यान आया कि व्यंग्य गुरू ने कल ही एक चर्चा में कहा था कि खबरो पर लिखे व्यंग्य अखबार की ही तरह जल्दी ही रद्दी में तब्दील हो जाते हैं. मूड नही बन पा रहा था सो उन्होनें स्मार्ट टीवी का रिमोट दबा दिया, शायद किसी वेब सिरीज से कोई प्लाट मिल जाये, पर हर सिरीज में  मारधाड़ और अश्लीलता ही मिली. उन्होने सोचा वे इतना फूहड़ नही लिख सकते.

अनायास उनका ध्यान व्यंग्य के साथ जुड़े दूसरे शब्द ” हास्य ” की ओर गया. हाँ, मुझे हास्य पर ही कुछ लिखना चाहिये उन्होंने मन बनाया. हंसी ही तो है जो आज सबके जीवन से विलुप्त हो रही है. वे भीतर ही भीतर बुदबुदाये हंसी तो हृदय की भाषा है दूध पीता बच्चा भी माँ के चेहरे पर हास्य के भाव पढ़ लेता है. वे व्यंग्य तो लिख लेते हैं पर क्या वे हास्य भी उसी दक्षता से लिख पायेंगे, उन्होने स्वयं से सवाल किया.  उन्होंने कामेडी शो से कुछ गुदगुदाता टाइटिल उठाने का मन बना लिया. फेमस कामेडी शो का चैनल दबाया, पर वहां तो भांडगिरी चल रही थी. पुरुष स्त्री बने हुये थे, जिनकी मटरगश्ती पर जबरदस्ती हंसने के लिये भारी पेमेंट पर सेलीब्रिटी को चैनल ने सोफा नशीन किया हुआ था. बात व्यंग्यकार जी की ग्रेविटी के स्तर की नही थी. और आज उन्होने तय किया था कि वे  एंवई कुछ भी बिलो स्टैंडर्ड नही लिखेंगे. लिहाजा अपने लेखन में वे कोई काम्प्रोमाइस नही कर सकते थे, मामला जम नही रहा था.

तभी पत्नी ने फ्रूट प्लेट के साथ  स्टडी रूम में  प्रवेश किया, मुस्कराते हुये बोली किस उधेड़बुन में हो. उन्होनें अपनी उलझन बता ही दी कि वे कुछ झकास व्यंग्य लिखना चाहते हैं. पत्नी ने भी पूरी संजीदगी से साथ दिया बोली देखिये, व्यंग्य वही हिट होता है, जिसमें भरपूर पंच लाईनें हों.  फिर अपनी बात एक्सप्लेन करते हुये बोली, पंच लाईने तो समझते ही हैं आप. साहित्यिक ढ़ंग से  कहें तो जैसे कबीर के दोहे या सीधे सीधे रोजमर्रा की बातों में कहूं तो वे ताने यानी व्यंग्यबाण जिनसे सासें अपनी बहुओ को बेधकर बेवजह बुरा बनती हैं. उन्हें गुस्सा आ गया वे स्थापित व्यंग्यकार हैं और पत्नी उन्हें व्यंग्य में पंच लाईनो का महत्व बता रही है, वे तुनककर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये बोले अरे तुम तो रचना के विन्यास की बात कर रही हो इधर मैं सब्जेक्ट सर्च कर रहा हूं.

पत्नी ने चुटकियो में प्राब्लम साल्व करते हुये कहा तो ऐसा कहिये न. सुनिये व्यंग्य वही फिट होता है जो कमजोर के पक्ष में लिखा जाये. फिर उसने समझाते हुये बात बढ़ाई, वो अपन खाटू श्याम के दर्शन के लिये गये थे न. वे ही खाटू श्याम जो हमेशा हारते का सहारा होते हैं , व्यंग्यकार को भी हमेशा ताकतवर से टक्कर लेते हुये कमजोर के पक्ष में लिखना चाहिये.पत्नी की बात में दम था.  एक बार फिर व्यंयकार जी  पत्नियों के सामान्य ज्ञान के कायल हो गये. यूं ही नही हर पत्नी चाहे जब ठोंककर कह देती है, “मैं तो पहले ही जानती थी “. पर उन्होनें रौब जमाते हुये कहा,  यार तुम भटक रही हो, मेरी समस्या व्यंग्य की नही  टापिक को लेकर है. एक बार यूनिवर्सल टापिक डिसाइड हो जाये फिर तो मैं खटाखट कंटेट लिख डालूंगा.तुम तो देखती ही हो मैं कितने फटाफट धाकड़ सा व्यंग्य लिख लेता हूं. इधर घटना घटी नही कि मेरा व्यंग्य तैयार हो जाता है और अगली सुबह ही अखबारो में छपा मिलता है. फिर उन्हें व्यंग्य लेखन और प्रकाशन कि इस सुपर फास्ट गति से तेज एनकाउंटर की याद हो आई, जिसमें अपराधी के पकड़ आने पर उनका व्यंग्य संपादक के मेल बाक्स में पहुंच पाता इससे पहले ही एनकाउंटर हो गया और व्यंग्य की भ्रूण हत्या हो गई.

वे बोले, मुझे ऐसा सब्जेक्ट चाहिये, जो हिट हो और सबके लिये सदा के लिये फिट हो.  अच्छा तो मतलब आप बच्चा होने से पहले ही उसका नाम तय करने को कह रहे हैं, पत्नी ने कहा. कुछ सोचते हुये वह बोली, चलिये कोई बात नही, चुनावों पर लिख डालिये इतने सारे चुनाव होते रहते हैं देश विदेश में जब भी चुनाव होंगें, आपका व्यंग्य सामयिक हो जायेगा. नहीं, नहीं, चुनावों पर बहुत लिखा जा चुका है. उन्होने तर्क दिया. हम्मम, कुछ सोचते हुये पत्नी बोली हिंदू मुस्लिम पर लिखिये, साल दो साल में दंगे फसाद होते ही रहते हैं, आपका व्यंग्य चकाचक बना रहेगा. अरे भाई मैं सरकारी अफसर हूं, और उससे भी पहले एक भारतीय मैं कोई सांप्रदायिक बात नही लिखना चाहता, व्यंग्यकार जी का जबाब तर्कसंगत था. पत्नी ने सुझाया, अच्छा तो भ्रष्टाचार पर लिखिये, जब तक लेन देन रहेगा, कमीशन रहेगा, घोटाले रहेंगें, आपका व्यंग्य रहेगा. उन्होने बात काटते हुये कहा नहीं.  कहने तो लोग यह भी  कहते थे कि “जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू”. लालू को मैनेजमेंट पर व्याख्यान के लिये हावर्ड बुलाया जाता था, पर देखा न तुमने कि लालू किस तरह जेल में है, मैं ऐसे मैटर पर जोरदार, असरदार, लगातार बार बार पढ़ा जाने वाला व्यंग्य भला कैसे लिख सकता हूं, अब डिजिटल पेमेंट का जमाना है, अब जल्दी ही कमीशन और परसेंटेज गुजरे जमाने की बातें हो जायेंगे. पत्नी को व्यंग्यकार जी का यह आशावाद यथार्थ से बहुत परे लग रहा था, पर फिर भी उसने बहस करना उचित नही समझा और अपने हर सजेशन के रिजेक्शन से ऊबते हुये टरकाने के लिये सुझाया कि आप कोरोना पर लिख डालिये. व्यंग्यकार जी ने भी चिढ़ते हुये प्रत्युतर दिया, हाँ इधर कोरोना की वैक्सीन बनी और उधर मेरा व्यंग्य गया पानी में. मैने कहा न कि मैं कुछ धांसू व्यंग्य लिखना चाहता हूं जो फार एवर रहे. मेरा मतलब है जैसे तुम्हारे चढ़ाव के कंगन, पत्नी के खनकते कंगनो को देखते हुये व्यंग्यकार जी उसकी काम की भाषा में बोले. पत्नी ने भी तुरंत बाउंड्री पर कैच लपका, बोली ये आपने अच्छी बात कही.सुनिये सोना बहुत मंहगा हो रहा है, एक सैट ले लीजीये, बेटे के चढ़ाव में काम आयेगा इसी बहाने बचत हो जायेगी. आपका व्यंग्य रहे न रहे पर मेरा कंगन पुश्तैनी है, यह शाश्वत है, यह हमेशा रहेगा. व्यंग्यकार जी को भी समझ आया कि सोना शाश्वत है, और वे   एक धांसू व्यंग्य की रचना का सपना देखने  सोने चले गये. 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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