हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 82 ☆ व्यंग्य – “ब से बजट और बसंत” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  “”ब से बजट और बसंत”“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 82

☆ व्यंग्य – “ब से बजट और बसंत”  ☆

बजट के बाद ‘बसंत’ इधर से उधर  भागमभाग मचाए हुए है

पीली सरसों के खेतों से लेकर अमराई तक दौड़ रहा है जब पूछा – कि क्यों दौड़ रहा है ? तो कहता है – लोकतंत्र के खातिर दौड़ चल रही है। लुढ़को बाई चिंतित है कि सड़कों पर नुकीली कीलों की फसल लगी है , और ये बसंत है कि लगातार दौड़ रहा है, इस बार के बजट में स्टील सेक्टर पर जोर इसीलिए दिया गया था कि बजट के बाद सड़कों पर  स्टील की नुकीली कीलें लगाने के काम से स्टील उद्योग में उछाल आयेगा।

लुढ़कोबाई परेशान है कि बेचारा बसंत भूखा प्यासा दौड़ रहा है। लुढ़कोबाई की चिंता जायज है, उसे लगता है कहीं नुकीली चीजों से बेटा घायल न हो जाए, इसीलिए ज्यादा चिंता कर रही है। लुढ़कोबाई के पास दो बीघा जमीन है इसलिए बसंत भी अपने आपको किसान कहलाने पर गर्व करता है, पर उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि किसान के भाग्य में बजट के बाद ये नुकीली कीलें ठोंकी जाएंगी।

लुढ़कोबाई की छोटी सी किराना दुकान भी है उसी के सहारे भूख मिटाने का जुगाड़ बनता है। लुढ़कोबाई के दो बेटे हैं एक का नाम ‘बसंत ‘है और दूसरा है’ विकास ‘..

बजट में विकास ही विकास का बड़बोलापन है इसलिए लोग कहते हैं कि विकास  पागल हो गया है लोग वोट को विकास से जोड़ देते हैं,पर ये बसंत को क्या हो गया है कि लोकतंत्र की चिंता में खाना पानी छोड़ के सरसों के खेतों से लेकर जंगल के महुआ के पेड़ों तक इधर से उधर भाग रहा है।  रास्ते भर नुकीली कीलें लगीं हैं पर इसे डर भी नहीं लगता। बसंती बयार चल रही है।

पेट के लिए सूखी रोटी और सोने के लिए थिगड़े वाली कथरी ही लुढ़कोबाई का लोकतंत्र है पर ये बसंत है कि उसे लोकतंत्र पसंद है जबकि ‘विकास ‘ वोट के चक्कर में घूमता है। विकास और बजट नाम ही ऐसे हैं जिसमें कुछ खास तरह का आकर्षण होता है।खपरेवाली किराना दुकान से नून – तेल लेने आने वाला गंगू अक्सर बेचारे बसंत को पूछता रहता है वो भी लोकतंत्र और बसंत के लिए चिंतित रहता है।

लुढ़कोबाई की दुकान में जीएसटी वाले साहेब आये हैं कह रहे हैं कि “लोकतंत्र में बसंत” लाने के लिए जीएसटी अनिवार्य है। लुढ़कोबाई परेशान है साहब से पूछ रही है – साहब जे “लोकतंत्र” क्या बला है ?…

साहब की आंखें नम हैं नम आंखों में नमक मिला जीएसटी का पानी है आंखों का नमक मिला पानी जब बह के मुंह में घुसने लगा तो साहब का मुंह खुल गया – सुनो लुढ़कोबाई ये लोकतंत्र मंहगी और समय बर्बाद करने वाली खूबी का नाम है भ्रमित करने का एक तरीका है, चुनावी भाषण में यह कहने की चीज है कि लोकतंत्र में लुढ़कोबाई सत्ता की मालकिन है।

लोकतंत्र में बसंत लाने के लिए लुढ़कोबाई एक अदने से बूथ तक चलके और एक अदने सी ईवीएम मशीन की बटन दबाके’ सेवक ‘पैदा करती है और सेवक अचानक सत्ता का शासक बन जाता है फिर उसके लोकतंत्र और बजट में बसंत आ जाता है। यही लोकतंत्र है।

लुढ़कोबाई डरते हुए हुए कह रही है – साहब हमारे बसंत को समझा दो वो बेचारा सरसों के खेतों और जंगल के महुआ में लोकतंत्र को ढूंढ़ रहा है भूखा प्यासा दौड़ता रहता है।

—सुनो लुढ़कोबाई ! इस बार के बजट में सबका बसंत लुढ़क गया है, सब लोग चिंता में है कि पिछले साल की सारी संपत्ति अमीरों के पास कैसे चली गई,  कोरोना आया तो अमीरों की संपत्ति बेहिसाब बढ़ी, और बाबा ने कह दिया आपदा में अवसर का कमाल है। भयानक आर्थिक असमानता से लोकतंत्र भी परेशान हो गया है और भ्रष्टाचार और ‘विकास” का दबदबा बढ़ गया है।

बसंती बयार चल रही है और विकास कंटीले तार की बाड़ और नुकीली कीलें देखकर खुश हो रहा है, गांव भर के लोग  विकास को चिढ़ा र‌हें हैं ये चिढ़ चिढ़कर और पगला रहा है । लुढ़को बाई लोगों से बार बार पूंछ रही है कि हमारे लुढ़के विकास को ठीक करने का कछु उपाय हो तो बताओ ?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 85 ☆ व्यंग्य – सुख का बँटवारा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘सुख का बँटवारा ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 85 ☆

☆ व्यंग्य – सुख का बँटवारा 

समझदार लोग कह गये हैं कि सुख बाँटने से बढ़ता है और दुख बाँटने से हल्का होता है। लेकिन आज के ज़माने में अक्सर होता यह है कि दुख बाँटने से बढ़ जाता है और सुख इतने लोगों को दुखी कर देता है कि उसकी लज्जत जाती रहती है।

उस दिन मैं अपने जैसे चार पांच ठलुओं के साथ बैठा निन्दा-रस में स्नान कर रहा था। हमारा निन्दा का स्तर हमेशा राष्ट्रीय होता है। मुहल्ला स्तर की निन्दा से हम कभी संतुष्ट नहीं हुए जैसे कि कुछ निम्नस्तरीय लोग हो जाते हैं। दो तीन घंटे की भरपूर परनिन्दा के बाद हम लोग नयी स्फूर्ति और जीवन के प्रति नयी आस्था लेकर उठते थे। उसके बाद पूरा दिन उत्साह और उमंग में कट जाता था।

उस दिन हम सुख के सागर में गोते लगा रहे थे कि अचानक त्यागी जी आ गये। वे भी हमारी मंडली के सदस्य थे, लेकिन उस दिन लेट हो गये थे। यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि आम तौर से परनिन्दा की संजीवनी की एक बूँद भी ज़ाया करना हमें बर्दाश्त नहीं होता।

त्यागी जी आकर निर्विकार और उदासीन भाव से बैठ गये। देखकर हमारा माथा ठनका। उनके निर्विकार दिखने का मतलब था कि कुछ था जो हमें बताने के लिए वे लालायित थे, और लालायित होने का मतलब था कि बात खुशी की थी। इसीलिए उनका भाव देखकर हमारा दिल बैठने लगा। निन्दा-रस बेमज़ा हो गया और, ज़बरदस्ती कुछ बोलते, हम तिरछी नज़रों से त्यागी जी को और सीधी नज़रों से एक दूसरे को देखने लगे।

उधर त्यागी जी हमारे पास से उठकर गुलाब की क्यारियों के पास खड़े होकर फूलों को देखने लगे थे। सालों से वे मेरे घर आते रहे थे, लेकिन उन्होंने कभी गुलाब और गोभी में फर्क नहीं किया था। आज वे जहांगीर की तरह गुलाब सूँघ रहे थे और काँटे हमारे दिल में चुभ रहे थे।

अन्त में वे हमारे पास आकर बैठ गये। उनकी मुद्रा देखकर हमें विश्वास हो गया कि वे कोई खुशी का हृदयविदारक समाचार सुनायेंगे।  थोड़ी देर बाद वे लम्बी साँस छोड़कर बोले, ‘गाड़ी उठा ही ली।’

हमें धक्का लगा, लेकिन हम पूरे दुखी नहीं हुए क्योंकि ‘गाड़ी’ शब्द में बैलगाड़ी से लेकर रेलगाड़ी तक समाहित होती है।

हमने धड़कते दिल से पूछा, ‘कौन सी गाड़ी?’

वे हमारी बात को अनसुना करके बोले, ‘लड़के बहुत दिन से पीछे पड़े थे। अब तक हम टालते रहे। आखिरकार कल उठा ही लाये।’

हमें लगा यह आदमी हमारी जान लेने पर तुला है। हमने फिर पूछा, ‘कौन सी गाड़ी?’

वे उदासीन भाव से बोले, ‘मारुती वैन।’

सुनकर हम सभी हृदयाघात की स्थिति में आ गये। सबके चेहरे का खून निचुड़ गया। शरीर में जान न रही।

हमारी मंडली के भाई रामजलन बची खुची उम्मीद से मिनमिना कर बोले, ‘सेकंड हैंड ली होगी।’

त्यागी जी हिकारत के भाव से बोले, ‘अपन सेकंड फेकंड हैंड में बिस्वास नहीं करते। आज गाड़ी खरीदी, कल मिस्त्री के दरवाजे खड़े हैं। अपन तो ब्रांड न्यू खरीदते हैं। लाख पचास हजार ज्यादा लग जाएं, लेकिन साल दो साल निस्चिंत भाव से गाड़ी तो चलायें।’

सुनकर रामजलन बेहोश हो गये। मैंने जल्दी से पानी के छींटे मारे तब वे दुबारा ज़िन्दा हुए। लेकिन वहाँ से उठकर भीतर पलंग पर लेट गये। बोले, ‘तबियत गड़बड़ है।’

बाहर हमारी निन्दा-मंडली के शनीचर भाई और मनहूस भाई फर्श में नज़रें गड़ाये ऐसे खामोश बैठे थे जैसे घर में गमी हो गयी हो। बड़ी देर बाद शनीचर भाई नज़रें उठाकर त्यागी जी से बोले, ‘बैंक से लोन लिया होगा।’

त्यागी जी हाथ उठाकर बोले, ‘अरे नहीं भइया! अपन लोन-फोन के चक्कर में नहीं पड़ते। अपन ने तो पूरे पैसे डीलर के मुँह पर मारे और गाड़ी उठा लाये।’

सुनकर शनीचर भाई चित्त हो गये और हम उन्हें भी लाद-फाँदकर पलंग पर लिटा आये। चिन्ता की बात नहीं थी क्योंकि ऐसा अक्सर होता रहता था।

मनहूस भाई ज़मीन में नज़र गड़ाये गड़ाये मुझसे धीरे से बोले, ‘हम कुछ नहीं पूछेंगे। हम दूसरे के घर में बेहोश नहीं होना चाहते।’

त्यागी जी उमंग में बोले, ‘भाई, हमने सोचा कि अपने घर में खुसी आयी है तो दोस्तों को बताना चाहिए। खुसी बाँटने से बढ़ती है। हम खुस हैं तो दोस्तों को भी खुस होना चाहिए।’

मुनमुन भाई खुशी की खबर सुनकर अखबार के पीछे मुँह छिपाये बैठे थे। त्यागी जी की बात सुनकर अखबार थोड़ा नीचे करके मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक कहा आपने। हम सबको बड़ी खुशी हुई।’

त्यागी जी बोले, ‘हम यह सोच कर आये थे कि कल नयी गाड़ी में कहीं पिकनिक पर चलेंगे। पिकनिक भी हो जाएगी और गाड़ी का उदघाटन भी हो जाएगा।’

मनहूस भाई भारी आँखें उठाकर बोले, ‘अभी एकाध हफ्ता तो रहने दीजिए, त्यागी जी। रामजलन भाई और शनीचर भाई की हालत तो आप देख ही रहे हैं। अपनी तबियत भी सबेरे से गिरी गिरी है। एकाध हफ्ते में सब धूल झाड़कर खड़े हो जाएंगे। फिर तो पिकनिक होना ही है।’

त्यागी जी प्रसन्न भाव से बोले, ‘जैसी पंचों की मर्जी।’

उस दिन का सत्यानाश हो चुका था। थोड़ी देर में त्यागी जी चले गये और उनके जाने के बाद सभी दोस्त भारी कदमों से विदा हुए। दुनिया अचानक बदसूरत हो गयी थी और हर चेहरे से चिढ़ लग रही थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 53 ☆ अमरबेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “अमरबेल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 52 – अमरबेल ☆

एक – एक कर सीढ़ियों को मिटाते जाना और आगे बढ़ना बहुत अच्छा होता है। पर कभी नीचे आना पड़े तो कैसे आयेंगे पता नहीं। खैर जो होता है उसमें अच्छाई छुपी होती है, ऊपर बैठा व्यक्ति ये सोचता ही नहीं कि वो जमीन से उठकर ही ऊपर गया है।

वक्त के घाव तो समय के साथ -साथ भर जाते हैं किंतु निशान समय की कीमत को समझाने के लिए समय- समय पर प्रश्न करते ही रहते हैं। अक्सर भूल – चूक की उदासीनता में झूलता हुआ मनुष्य ऐसे- ऐसे निर्णय कर बैठता है, जो उसके नीचे से आधार ही खींच सकते हैं। जिम्मेदारी के बोझ के तले दबा हुआ व्यक्ति क्या कुछ करना नहीं चाहता पर होता वही है जो ईश्वर की इच्छा होती है।

जब दिमाग़ बिल्कुल शून्य हो जाए तो क्या करना चाहिए? कुछ न कुछ करते रहना ही सफलता की ओर पहला कदम होता है। जब बाधाएँ आती हैं, तभी तो चट्टानों को काट कर प्रपात बनते हैं; जिससे न केवल जल की राह व स्वरूप बदलता है वरन गतिविधि भी परिवर्तित होकर नया इतिहास रच देती है। कुछ रचने की बात हो तो सत्य का दामन थामकर ही चलना चाहिए क्योंकि कहते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते हैं। खैर झूठ के सहारे ही तो व्यक्ति अमरबेल की तरह फैलता जाता है ये बात अलग है कि शुरुआत सच से होती है जो धीरे- धीरे झूठ तक पहुँच जाती है। लोग इसे अच्छी निगाहों से नहीं देखते हैं। ये एक परजीवी बेल है जो जिस वृक्ष पर फैल जाती है उसे सुखा देती है। किंतु इसके अनगिनत लाभ भी होते हैं जो मानव के लिए लगातार फायदेमंद सिद्ध हो रहे हैं।

शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने, गठिया रोग, कैन्सर, किडनी, लिवर, दिल, खुजली, डायबिटीज, आँखों में सूजन, मानसिक विकार आदि रोगों को मिटाकर इससे लाभान्वित हो सकते हैं। ये खुद भी अमर है साथ ही इसका उपयोग करने वाले भी इससे लाभ उठाते हैं ये बात अलग है कि जो इसे सहारा दे उसे सुखा कर निर्जीव करती जाती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 84 ☆ व्यंग्य – पापी आत्माओं का दुख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘पापी आत्माओं का दुख‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 84 ☆

☆ व्यंग्य – पापी आत्माओं का दुख

आजकल नरक में भारी भीड़भाड़ और धक्कमधक्का है। तिल धरने की जगह नहीं है। जहाँ देखें, मर्त्यलोक से आयी आत्माओं की भीड़ ठाठें मार रही है। यमराज परेशान हैं। भीड़ को सँभालना मुश्किल हो रहा है।’ लॉ एण्ड ऑर्डर’ की समस्या हो गयी है। ख़ास वजह यह है कि मर्त्यलोक से आयी हुई पच्चानवे प्रतिशत आत्माएं नरक पहुँच रही हैं। स्वर्ग वाली लाइन में मुश्किल से दो चार लोग खड़े दिखायी देते हैं। नरक की भीड़ रोज़ बढ़ती है। मर्त्यलोक में अब पापी ही ज़्यादा बचे हैं, पुण्यवान उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। मंत्री, अफसर, कर्मचारी, व्यापारी, पंडे, महन्त, सब लाइन में लगे हैं। नरक के कर्मचारी काम बढ़ता देख क्षुब्ध हैं। उनमें असन्तोष फैलने की संभावना बन रही है।

नरक में संख्यावृद्धि का एक कारण यह भी है कि पहले ईमानदार आदमी अन्त तक ईमानदार रहता था। अब ईमानदार का ईमान चार छः साल में डगमगाने लगता है। ईमानदार आदमी की घर में भी इतनी लानत-मलामत होती है कि वह बीच में ‘कन्वर्ट’ हो जाता है। कई पुण्यवान लोग रिटायरमेंट के कगार पर आकर पलटी मार जाते हैं और अन्त में कोई लम्बा हाथ मारकर समाधि-धारण की अवस्था में आ जाते हैं।

न में खड़ी कुछ ऊँचे अफसरों की आत्माएं भारी कष्ट में हैं। उनकी शिकायत है कि उन्हें ऐसे मामूली क्लर्कों और व्यापारियों की आत्माओं के साथ एक ही लाइन में खड़ा कर दिया गया है जिनसे उन्होंने कभी सीधे मुँह बात नहीं की। उनके ख़याल से यह उनकी बेइज्ज़ती है। लेकिन वहाँ उनकी सुनने वाला कोई नहीं। अलबत्ता उनकी बात सुनकर कुछ क्लर्क कह रहे हैं कि ओहदे में वे भले ही कम रहे हों, लेकिन कमाई के मामले में वे अफसरों से कभी पीछे नहीं रहे।

नरक की लाइन में कुछ ऐसी आत्माएं भी हैं जिन्हें ज़िन्दगी भर सदाचारी और स्वर्ग का अधिकारी समझा जाता रहा। उन्हें कुछ आत्माएँ नसीहत दे रही हैं कि ज़रूर कुछ गड़बड़ हुई है `और वे आगे बढ़कर अपने रिकॉर्ड की जाँच करवा लें। लेकिन सब तथाकथित सदाचारी ठंडी आहें भरते, मुँह लटकाये खड़े हैं। कहते हैं, ‘अब रिकॉर्ड देख कर क्या करेंगे?जब महाराज जुधिष्ठिर नरक भोगने से नहीं बचे, तो हमारी क्या हस्ती। जो प्रारब्ध में लिखा है, झेलेंगे।’  उन्हें पता है कि रिकॉर्ड खुलवाने से मामला गड़बड़ हो जाएगा। यहाँ सब की कारगुज़ारियों की पक्की ‘मानिटरिंग’ होती है।

खड़े खड़े ऊबकर अनेक आत्माएँ अलग अलग गोल बनाकर बैठ गयी है और मन बहलाने के लिए गाने बजाने में लग गयी हैं। कहीं से ‘माया महा ठगिनि हम जानी’ की धुन उठ रही है तो कहीं से ‘अरे मन मूरख जनम गँवायो’ की। एक अफसर की आत्मा अलग बैठी दुखी स्वर में गुनगुना रही है—‘सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया।’

नरक का दंडविधान भी शुरू हो गया है। पापियों को अपने किये की सज़ा मिल रही है। यमराज के गण पूरी निष्ठा से अपने काम में लगे हैं।

लेकिन कुछ आत्माएँ इस सबसे तटस्थ, व्याकुल घूम रही हैं। ये कुछ नेता-टाइप आत्माएँ हैं जो किसी बात को लेकर व्यथित हैं। वे जुगाड़ में हैं कि किसी तरह यमराज तक उनकी बात पहुँच जाए और उनसे बात करने का मौका मिल जाए। बड़ी कोशिश के बाद अन्ततः उन्हें सफलता मिल गयी और यमराज तक खबर पहुँच गयी कि पन्द्रह बीस आत्माएँ अपनी ख़ास व्यथा उनके सामने रखना चाहती हैं।

यमराज आत्माओं की बात सुनने को राज़ी हो गये। बारह पन्द्रह दुखी आत्माएँ उनके सामने हाज़िर हुईं। एक आत्मा, जो किसी राजनीतिज्ञ की थी, बोली, ‘प्रभु, हम अपनी व्यथा आपके समक्ष प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित हुए हैं। जैसा कि आपके रिकॉर्ड से स्पष्ट है, हमने ज़िन्दगी भर पाप करके खूब दौलत बटोरी और उसी की सज़ा भोग रहे हैं। लेकिन हमारा हृदय यह देखकर विदीर्ण हुआ जा रहा है कि जिस दौलत के लिए हम पापी बने और नरक की सज़ा पायी, उसी दौलत के बल पर हमारे सपूत ऐश कर रहे हैं और गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। प्रभु, यह कैसा अन्याय है कि जिस दौलत के लिए हमें सज़ा मिली उसी का हमारे वंशधर सुख लूट रहे हैं। हम यह कैसे बर्दाश्त करें?’

एक आत्मा मर्त्यलोक की ओर इशारा करके बोली, ‘देखिए, देखिए, अभी हमें रुख्सत हुए महीना भर भी नहीं हुआ और हमारे बड़े सपूत पेरिस पहुँचकर वहाँ नाइट क्लब में बिराजे हैं। सामने मँहगी दारू का जाम रखा है। और उधर हमारे दूसरे नंबर के सपूत फाइवस्टार होटल में दोस्तों के साथ बोतल खोले बैठे हैं। तीसरा जो है वह कोई ड्रग लेकर अपने बिस्तर पर बेहोश पड़ा है। प्रभु, क्या इसीलिए हमने पाप करके दौलत कमायी थी?’

यमराज ने लाचारी में सिर हिलाया, कहा, ‘हे पापी आत्माओ,हम इसमें क्या कर सकते हैं?आपकी दौलत का अन्ततः यही हश्र होना था। जब आपके वंशज यहाँ आएंगे तब उनका भी खाता देखा जाएगा। उन्हें भी उनके कर्मों का परिणाम भोगना होगा।’

नेताजी बोले, ‘प्रभु, हम एक विशेष निवेदन करने आये हैं। हमारा निवेदन यह है कि चूँकि हमारी सारी दौलत हमारी कमायी है इसलिए उसका ट्रांसफर यहीं एक बैंक बनाकर कर दिया जाए। अब तो मर्त्यलोक में भी आसानी से मनी ट्रांसफर हो जाता है।’

यमराज हँसे,बोले, ‘यहाँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। फिर यहाँ आपकी मुद्रा का कोई उपयोग नहीं है।’

नेताजी बोले, ‘उपयोग भले ही न हो, लेकिन हमारी आँख के सामने तो रहेगी। कम से कम दूसरे उसे उड़ायेंगे तो नहीं।’

यमराज बोले, ‘यदि आपको अपनी दौलत अपने वंशजों को नहीं देनी थी तो उसे किसी ज़रूरतमन्द व्यक्ति या संस्था को दान कर देते।’

नेताजी ने लम्बी आह भरी,बोले, ‘यह मुश्किल था। ज़िन्दगी भर की पाप की कमाई किसी को देने में हमारा कलेजा न फट जाता?’

यमराज बोले, ‘अब धन-संपत्ति को भूल जाइए। सब माया है। अन्त में धन संपत्ति किसी के काम नहीं आती। इतना तो अब आप समझ ही गये होंगे।’

नेताजी और दुखी होकर बोले, ‘हमारे निवेदन को इतनी सरलता से मत टालिए, प्रभु। हम सचमुच बहुत संतप्त हैं। यदि आप हमारे पैसे को यहाँ नहीं मँगवा सकते तो हमारा सुझाव है कि जिस प्रकार सत्यनारायण की कथा का प्रसाद ग्रहण न करने के कारण साधु बानिया की सारी संपत्ति लता-पत्र में बदल गयी थी, उसी तरह हमारी सारी संपत्ति भी लता-पत्र में बदल दें। वह हमारे काम भले ही न आये, कम से कम हमारे सुपुत्र बिगड़ने से बच जाएंगे।’

यमराज हँसकर बोले, ‘हम आपकी बात पर विचार करेंगे। फिलहाल आपकी दंड- प्रक्रिया का दूसरा सत्र शुरू हो गया है। कृपया वहाँ पधारें और अपने पापों का प्रायश्चित करें।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 52 ☆ फूटा ढोल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “फूटा ढोल”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 52 – फूटा ढोल ☆

कालूराम का फट गया ढोल, बीच बजरिया खुल गयी पोल… खूब जोर शोर से यह गाना बज रहा था। सभी मदिरा के नशे में मदमस्त होकर अपनी ही धुन में झूमे जा रहे थे कि सहसा कुछ चिटकने की आवाज कानों में गूँज उठी। ये स्वर इतना विषैला था कि ढोल वाले के हाथ जहाँ के तहाँ ऐसे जमें मानो बर्फीले इलाके में अचानक बर्फबारी शुरू हो गयी हो।

ऐसा दृश्य दिन के तीसरे या चतुर्थ प्रहर में हो तो एक बार मन स्वीकार कर लेता है किंतु जब पहले और दूसरे प्रहर में ये सब घटित हो तो मन वितृष्णा से भर ही जाता है। बिना सोची समझी योजना के ऐसे कार्य हो ही नहीं सकते हैं। खैर जब व्यक्ति शब्दों की गलत व्याख्या पर उतर आए तब ऐसा होना लाजिमी ही होता है। गणतंत्र के नाम पर देशहितों को ताक पर रखकर हंगामा करना, जिससे मानवता शर्मशार होती हो, ये सब किसी भी रूप में जायज नहीं हो सकता है।

तमाशा मचाने हेतु बहुत से अवसर ढूंढे जा सकते थे, किंतु जब सारा विश्व भारत की ओर उम्मीद लगाए हो तब ऐसा परिदृश्य उकेरना किसी के हित में नहीं हो सकता है। शायद ऐसे ही समय के लिए लिखा गया था कि सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं , मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। सब कुछ बदलिए पर तरीका सही हो तभी परिणाम सुखद होते हैं। पर कहते हैं न कि, विनाश काले विपरीत बुद्धि …सो ऐसा ही यहाँ भी घटित हो गया।

कुरीतियों का परचम इतने जोर से फहराया कि इससे सारी हदें पार कर दीं। जहाँ – तहाँ , बदनीयती ही झलकने लगी। सारे रंग तिरंगे की ओर देखकर उससे पूछ रहे थे कि तुम्हें आसमान में स्थापित करने हेतु कितनों ने सीने पर हँसते – हँसते गोलियाँ खायीं हैं, और आज ये क्या हो गया ?

अपनी जायज नाजायज सभी माँगों को क्या तुम्हारे माध्यम से ही पूरा किया जावेगा। अभी भी समय है सभी रंग एकजुट होकर मातृभूमि के साथ खड़ें हो और तिरंगे को सलाम करते हुए गौरवान्वित हों।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 80 ☆ व्यंग्य कविता – आटा, डाटा और टाटा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  कविता “आटा, डाटा और टाटा“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 80

☆ व्यंग्य कविता – आटा, डाटा और टाटा☆

देखिए एक रोटी का आटा

गरीब का,

जियो जी भर कर दे रही डाटा

अमीर का,

देखिए हो रहा है ये घाटा

जनता का,

देखिए कर रहे हैं आंटा-सांटा

नेताओं का,

देखिए हर दम मिले चांटा

बाबाओं का,

देखिए मंत्री कर रहे हैं टाटा

हर काम का,

देखिए हो रहा है ये घाटा

अपने देश का,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 83 ☆ व्यंग्य – लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी  ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी  ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 83 ☆

☆ व्यंग्य – लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी

बैंक के वरिष्ठ क्लर्क लफड़े बाबू के यहाँ सबेरे से ही गहमागहमी है। बरामदे में आठ दस कुर्सियाँ डाल दी गयी हैं। दोस्त-रिश्तेदार सहानुभूति जताने और लफड़े बाबू के डिपार्टमेंट को कोसने के लिए बारी बारी से आकर उन पर बैठ रहे हैं। बीच में चेहरे पर भारी शिकायत का भाव लिये खुद लफड़े बाबू विराजमान हैं।

वजह यह थी कि लफड़े बाबू पिछले दिन बैंक में पैसों की हेराफेरी करने के मामले में सस्पेंड कर दिये गये थे। कुछ खातों में बरसों से जमाकर्ताओं के लाखों रुपये पड़े थे जिन्हें निकालने कोई नहीं आ रहा था। लफड़े बाबू से पैसों का यह दुरुपयोग नहीं देखा गया, सो उन्होंने अपने बीस पचीस साल के अनुभव का सदुपयोग करते हुए उस पैसे को निकाल लिया और उसे प्रत्यक्ष रूप से अपने विकास में और परोक्ष रूप से देश के विकास में लगा दिया। यह काम धीरे धीरे तीन चार साल में संपन्न हुआ, लेकिन कुछ विघ्नसंतोषी लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया और लफड़े बाबू खामखां सस्पेंड हो गये।

अब लफड़े बाबू हर आने वाले के सामने कैफ़ियत दे रहे थे—-‘ज़माना खराब है। सही काम का गलत नतीजा निकलता है। ठीक है, हमने हेराफेरी की। लेकिन हमारी नीयत और हमारा इरादा तो देखिए। लाखों रुपये बेमतलब खाते में पड़े हैं। कोई धनी-धोरी नहीं। हमने सोचा इस बेकार पड़े पैसे को किसी काम में लगा दिया जाए तो क्या गलत किया?आखिर उससे चार आदमियों को धंधा रोजगार मिला। उनका भला हुआ। बताइए क्या गलत किया?’

सामने बैठे शुभचिन्तक सहमति में सिर हिलाते हैं।

लफड़े बाबू दुख और शिकायत के भाव से कहते हैं, ‘पचीस साल की सर्विस पर एक मिनट में पानी फेर दिया। ठीक है, आप एक्शन लीजिए, लेकिन आदमी की पोज़ीशन और उसकी सीनियरिटी पर भी गौर कीजिए। गधे घोड़े सब बराबर कर दिये। आज आखिर मेरी क्या इज्ज़त रह गयी स्टाफ के सामने? अखबार वालों को देखिए, वे अलग मज़ा लेने में लगे हैं।’

शुभचिन्तक फिर सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘ठीक कहते हैं। बहुत गलत हुआ। बड़ा अन्याय है। ‘

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘डिपार्टमेंट वालों को भी क्या दोष दें। ये जो सब कायदे कानून हैं, सब बाबा आदम के ज़माने के बने हुए हैं। आदमी का कसूर देखा और छपी छपाई सज़ा दे दी। अब ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया तो ये नियम कायदे भी बदलना चाहिए। अगर आदमी हेराफेरी कर रहा है तो यह देखना चाहिए कि उसका इरादा और उद्देश क्या है। अगर इरादा अच्छा है तो सज़ा की क्या तुक है? लेकिन सब लकीर के फकीर हैं, पढ़े-लिखे मूरख। इनको कैसे समझाया जाए? हमारी सारी पोज़ीशन एक मिनट में धो कर धर दी।

‘डिपार्टमेंट कहता तो हम एक मिनट में सारा पैसा लौटा देते। जब कर नहीं तो डर काहे का? लेकिन कुछ समझना-पूछना ही नहीं है तो हम क्या करें भई?’
हमदर्द फिर सहानुभूति में सिर हिलाते हैं।

लफड़े बाबू फिर दुखी हो जाते हैं। कहते हैं, ‘सब कुछ ऐसा बढ़िया चल रहा था। खामखां लोगों ने परेशानी पैदा कर दी। यह सब कारस्तानी उस मिचके बाबू की है।’
हमदर्द पूछते हैं, ‘कौन मिचके बाबू?’

लफड़े बाबू जवाब देते हैं, ‘है एक। चश्मे के पीछे आँखें मिचकाता रहता है, इसलिए सब मिचके बाबू कहते हैं। अपने को बड़ा ईमानदार समझता है। जब देखो तब फाइलों में घुसा रहता है। एक फाइल से निकलेगा, दूसरी में घुस जाएगा। उसी की करतूत है। उसी ने फाइलों में घुसकर हमें फँसाया है।’

शुभचिन्तक कहते हैं, ‘बड़ा गड़बड़ आदमी है। आपको बेमतलब चक्कर में डाल दिया।’

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘बड़ा घटिया आदमी है। इसी ने भिंगे बाबू को भी फँसाया था। बेचारे आठ-दस साल से धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा पैसा खा रहे थे। किसी को हवा नहीं थी, लेकिन इसने सूँघ लिया और सीधे-सादे आदमी का कैरियर चौपट कर दिया। बेचारे को जेल हो गयी। अंधेर है।’

शुभचिन्तक फिर अपनी सहमति जताते हैं।

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘इस आदमी को ठीक ज़रूर करूँगा। साले का हुलिया बिगाड़ दूँगा। ज़रा इस मामले से बरी हो जाऊँ फिर देखता हूँ। बना बनाया कैरियर बिगाड़ दिया।’

शुभचिन्तक विदा लेने के लिए खड़े होते हैं। हाथ जोड़ते हुए कहते हैं, ‘यह आपकी परीक्षा की घड़ी है, लफड़े बाबू। आप इससे तप कर, सोना बनकर निकलेंगे, ऐसा हमारा पक्का विश्वास है।’

लफड़े बाबू भी हाथ जोड़ते हैं, कहते हैं, ‘हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद। इस परीक्षा से मैं निश्चय ही तप कर, बेहतर बन कर निकलूँगा। आप देखना, इससे मेरी पर्सनैलिटी में और निखार आएगा। जो होता है, अच्छे के लिए होता है। अपनी नीयत ठीक रखना चाहिए।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 51 ☆ आशीर्वाद बना रहे ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “आशीर्वाद बना रहे”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 51 – आशीर्वाद बना रहे☆

व्याधि, उपाधि ,समाधि इन सबको अंगीकार कर जब व्यक्ति सफलता के मद में डूबता उतराता है तभी कहीं से ये आवाज सुनाई पड़ती है।

अपनी योग्यता को बढ़ाते हुए ही तुम्हें नंबर वन बनने की आवश्यकता है। यदि नींव का पत्थर चिल्ला-चिल्ला कर ये कहे कि मेरे ऊपर ही बिल्डिंग के सारे माले का भार है परंतु ऊपरी माले के लोग मुझे पहचानते भी नहीं  तो इसका क्या उत्तर होगा ?

जाहिर सी बात है कि समय के साथ -साथ एक -एक पायदान छूटते ही जाते हैं। कई बार बता कर सम्मान पूर्वक अलग किया जाता है तो कई बार धोखे से, पर परिणाम वही रहता है। सफलता की सीढ़ियाँ होती ही ऐसी हैं, जहाँ येन केन प्रकारेण धक्का देते हुए ही लोग आगे बढ़ते हैं और अंत में जब ठोकर लगती है तब एक ही झटके में मुँह के बल नीचे आ गिरते हैं और इस समय एकदम अकेले होकर नींव की ओर देखते हैं। पर बेरुखी झेलते हुए नींव के पत्थर इस घटना को भी मूक दर्शक बन कर झेल जाते हैं।

हर कदम पर साए की तरह साथ – साथ चलते रहे, बिना कुछ कहे; हर सही गलत के न केवल साक्षी बनें वरन साथ भी दिया। फिर भी हमें लगातार उपेक्षित किया गया आखिर क्यों ? अब जो भी होगा वो तुम्हें अकेले झेलना होगा। नींव के पत्थरों ने मन ही मन फैसला करते हुए कहा।

उसने भी हाथ को जमीन में टेक कर उठते हुए कहा अभी भी मैं युवा हूँ। नए सिरे से पुनः सबको जोड़कर  सफलता के शीर्ष पर विराजित होऊँगा।

नींव ने कहा जरूर, जो परिश्रमी होता है उसे सब कुछ मिलता है , थोड़ा धैर्य रखो और सबको लेकर आगे बढ़ो।

अरे दादा , सबके सहयोग से ही बढ़ता हूँ , पर जो अनावश्यक हुज्जत करके, टांग खींचते हैं उन्हें छोड़ता जाता हूँ क्योंकि मेरे पास इतना समय नहीं है कि उनको समझाता रहूँ। वैसे भी शीर्ष पर स्थापित होना और वहाँ बने रहना कोई आसान नहीं होता।

जो भी एकाग्रता से मेहनत करेगा उसे अवश्य ही ऊपर स्थान मिलेगा। चुनौतियों का सामना करिए, ऊपर वाला उसी की परीक्षा लेता है जिसे वो कुछ देना चाहता है।

सो तो है। अबकी बार नई रणनीति से कार्य करूँगा। जो साथ चले चलता रहे , जितना सहयोग करना हो करे , जहाँ छोड़ कर जाना हो जाए। अपनी ऊर्जा बस लक्ष्य प्राप्ति की ओर ही लगाना है।

यही तो खूबी है तुम्हारी, तभी तो एक – एक कर निरन्तर बढ़ते जा रहे हो। नेतृत्व करने हेतु हृदय को विशाल करना पड़ता है। तेरा तुझको अर्पण करते हुए चलने से ही लोग जुड़ते हैं।

सो तो है। बस आधारभूत स्तम्भ बनें रहें, फिर चाहें जितने माले तैयार करते चलो कोई समस्या नहीं आती है।

रेत और सीमेंट का सही जोड़ हो और पानी की तराई भी भरपूर हो,   तभी दीवालों में मजबूती रहेगी। अन्यथा दरार पड़ते देर नहीं लगती है। पहले माले में नेह रूपी जल सींचा गया था जिससे सारे झटके सहते चले गए पर अबकी बार भगवान ही बचाए।

खैर ये सब तो जीवन का हिस्सा है। बड़ों का आशीष बना रहे और क्या चाहिए।

जबलपुर (म.प्र.)©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 17 ☆ व्यंग्य ☆ ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 17 ☆

☆ व्यंग्य – ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆

आर्यावर्त का नागरिक श्रीमान, रिश्वत देकर दुखी नहीं है – रिश्वत देकर भी काम नहीं होने से दुखी है. उस दिन दादू मुझे भी अपने साथ ले गया, दफ्तर में सीन कुछ इस तरह था.

“गज्जूबाबू, आपने ही थर्टी थाउजन्ड की कही थी. अब पाँच और किस बात के ? पहली बार में आपने जित्ते की कही उत्ते पूरे अडवांस में गिन दिये हैं हम.”

“अरे तो तो कौन सा एहसान कर दिया यार ? काम के बदले में ही तो दिये हो ना. लाइसेन्स फिरी में बनते हैं क्या ? सत्तर टका तो साहब को ही शेयर करना पड़ता है. बाँटने-चुटने के बाद हमारे पास बचेगा क्या..” – वे ‘बाबाजी का कुछ’ जैसा बोलना चाह रहे थे मगर रुक गये.

“हमने आपसे मोल-भाव तो करा नहीं, कि आदरणीय गजेंद्र भाई साब दो हजार कम ले लीजिये, प्लीज……जो अपने कही सोई तो हमने करी, अब आप आँखे तरेर रहे हो ?”

“अरे तो दफ्तर में जिस काम का जो कायदा बना है सो ही तो लिया है. रेट उपरवालों ने बढ़ा दिये तो क्या मैं अपनी जेब से भुगतूंगा?”

सारी हील-हुज्जत दफ्तर में, वर्किंग-डे में, गज्जूबाबू की डेस्क पर ही चल रही थी. ब्रॉड-डे लाईट में ब्लैक डील. मीटर भर के रेडियस में बैठे सहकर्मी और कुछ आगंतुक सुन तो पा रहे थे मगर असंपृक्त थे, मानों कि आसपास कुछ भी असामान्य नहीं घट रहा है. नियम कायदे से गज्जूबाबू सही हैं और नैतिक रूप से दादू. ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा.

“पर जुबान की भी कोई वेलू होती है गज्जूबाबू.”

“तुम कुँवर गजेंद्रप्रताप सिंह की जुबान को चैलेंज करोई मती” – तमतमा गये वे – “जो गज्जूबाबू ने ठेकेदारों की कुंडलियाँ बांचनी शुरू की ना तो सबकी जुबान को फ़ालिज मार जायेगा.”

“नाराज़ मत होईये आप. इस बार थर्टी में कर दीजिए, अगली बार बढ़ाकर ले लेना.”

“यार तुम ऐसा करो, वापस ले जाओ एडवांस, हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. यहाँ दस लोग लाईन लगाकर पैसे देने को तैयार खड़े हैं, और तुमसे ज्यादा देने को तैयार हैं.”

मैंने धीरे से समझाया – “दादू, देश में पूरे एक सौ तीस करोड़ लोग रिश्वत दे कर काम कराने का मन बना चुके हैं. कॉम्पटीशन लगी पड़ी है, कौन ज्यादा देकर काम करा ले जाता है. इसी काम के कैलाश मानके चालीस देने को तैयार है, कह रहा था एक बार एंट्री मिल जाये बस.”

“ठीक है गज्जूबाबू. नाराज़ मत होईये, पाँच और दिये देते हैं, आप तो लायसेंस निकलवा दीजिये.”

“नहीं, अब हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. वो तो तुम ठहरे मनख हमारे गाँव-दुआर के, सो तुम्हें लिफ्ट दे दी…….वरना कमी है क्या काम करानेवालों की. तुम तो अपना एडवांस वापस ले जाओ.” – कहकर वे जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने की एक्शन करने लगे, मानो कि लौटा ही देंगे एडवांस.

“गुस्सा मत करिये भाई साब, गाँव-दुआर के लानेई रिक्वेस्ट करी आपसे.” – दादू ने मानिकचंद का पाउच खोलकर ऑफर किया जो स्वीकार कर लिया गया. भरे मुँह से कुछ देर और ज़ोर करवाया गज्जू बाबू ने, फिर डेस्क के नीचे की डस्टबिन में गुटका और गुस्सा दोनों थूक कर पूरे पाँच जेब के हवाले किये. टेबल के नीचे से नहीं, न ही बाहर चाय के ठेले पर कोडवर्ड के साथ. ग्राउंड जीरो पर ही.

हम इस सुकून के साथ बाहर निकले कि रिश्वत के एरियर भुगतान भी कर दिया है, अब तो शायद काम हो ही जाये. निकलते निकलते मैंने कहा – “दादू आप लक्की हो, बक़ौल ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के ‘द इंडिया करप्शन सर्वे 2019’ के आप देश के उन 51 फीसदी लोगों में शुमार हो जो जिन्होने बीते एक बरस में रिश्वत देने का काम किया है. अब ये जो बचे 49 फीसदी लोग हैं ना, ये भी देना तो चाहते थे बस गज्जू बाबूओं तक पहुँच नहीं पाये.”

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और सीसीटीवी ? कमाल करते हैं आप – देश और दफ्तर दोनों के खराब पड़े हैं.

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शांतिलाल जैन.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 79 ☆ व्यंग्य – कोहरे की करामत ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य “कोहरे की करामत“। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 79

☆ व्यंग्य – कोहरे की करामत☆

मत कहो आकाश में कोहरा घना है…. क्यों न कहें भाई। कोहरे ने दिक्कत दे कर रखी है। ऐसा कोहरा तो कभी नहीं देखा।

गांव की सर्द कोहरे वाली सुबह में बाबू फूंक फूंक कर चाय पी रहा था और उधर गांव भर में हल्ला मच गया कि कोहरे के चक्कर में गंगू की बहू बदल गई। पांच-छै दिन पहले शादी के बाद बिदा हुई थी।शादी के नेंग- ढेंग निपटने के बाद बाबू को थोड़ा चैन आया था। कड़ाके की ठंड में अभी चार रात बीती थी, और पांचवें दिन सुबह सुबह शर्माते हुए गंगू ने ये बात बतायी कि बहू गैर जात की है, बाबू सुनके दंग रह गया ….. बाबू को याद आया कोहरे के चक्कर में सब गाड़ियां बीस – बाईस घंटे लेट चल रहीं थीं और कई तो रद्द हो गई थीं। स्टेशन पर धकापेल भीड़ और आठ – दस बरातों के बराती थे उस दिन…….

भड़भड़ा के गाड़ी आ गई थी तो जनरल बोगी में रेलमपेल भीड़ के रेले में घूंघट काढ़े तीन चार बहूएं भीड़ में फंस गई और गाड़ी चल दी…दौड़ कर गंगू बहू को पकड़ के शौचालय के पास बैठा दिया और खुद शर्माते हुए बाबू के पास बैठ गया । गांव की बारात और गांव की बहू। चार पांच स्टेशन के बाद गंगू की बारात उतर गई। क्या करे कोई यात्रियों और बारातियों की बेहिसाब भीड़ थी उस दिन…………

बाबू के काटो तो खून नहीं अपने आप को समझाया । खैर, अब क्या किया जा सकता है भगवान तो जोड़ी बनाकर भेजता है। अग्नि को साक्षी मानकर फैरे हुए थे 14 वचन हुए थे , हाय रे निर्लज्ज कोहरा तुमने ये क्या कर दिया….। अब क्या हो सकता है चार रात भी गुजर गईं…. हार कर बाबू घूंघट और कोहरे की कलाबाजी को कोसता रहा। गांव वालों ने कहा बेचारा गंगू भोला भाला है शादी के पहले गंगू को लड़की दिखाई नहीं गई, नाऊ और पंडित ने देखी रही अच्छा घर देख के जल्दबाजी में शादी हो गई गंगू की गलती नहीं है गंगू की हंसी नहीं उड़ाई जानी चाहिए। गंगू निर्दोष है।

थोड़ा सा कुहरा छटा तो सबने सलाह दी कि शहर के थाने में सारी बातें बता देनी उचित रहेगी…. सो बाबू गंगू को लेकर शहर तरफ चल दिए। थाने पहुंच कर सब हालचाल बताए तो पुलिस वाले ने गंगू को बहू चोरी के जुर्म में बंद कर दिया। बाबू ने ईमानदारी से बहुत सफाई दी कि कोहरे के कारण और सब ट्रेनों के लेट होने से ऐसा धोखा अनजाने में हुआ,  उस समय कोहरा और ठंड इतनी अधिक थी कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। पुलिस वाला एक न माना कई धाराएं लगा दीं। बाबू बड़बड़ाया ईमानदारी का जमाना नहीं रह गया जे कोहरे ने अच्छी दिक्कत दे दी और नये लफड़ेबाजी में फंस गए, ऊपर से कई लाख के सोना चांदी पहने असली बहू भी न जाने कहाँ चली गई।

कोहरे के कुहासे में एक सिपाही बाबू को एक किनारे ले जाकर जेब के सब पैसे छुड़ा लिये। बाबू को फिर से पूछताछ के लिए इस बार थानेदार ने अपने चेम्बर में बुलाया।

इस तरफ अंगीठी में आग तापते कई सिपाही बतखाव लगाए थे कोहरा और ठंड के साथ सरकार को गालियां बक रहे थे। कोहरे की मार से सैकड़ों ट्रेनों के लेट होने की चर्चा चल रही थी रेल वाले सुपर फास्ट का पैसा लेकर गाड़ी पैदल जैसी चला रहे हैं हजारों बेरोजगार लड़के-लड़कियां इन्टरव्यू देने से चूक रहे थे, शादी विवाह के मुहूर्त निकल रहे थे, कोहरे से हजारों एक्सीडेंट से बहुत मर रहे थे और थाने में ज्यादा केस आने से काम बढ़ रहा था…. बाबू चुपचाप खड़ा सुन रहा था और गंगू अंगीठी की आग देखकर सुहागरात और रजाई की याद कर रहा था। बाबू से नहीं रहा गया तो दहाड़ मार के रोने लगा…… एक सिपाही ने उठकर बाबू को दो डण्डे लगाए और चिल्ला कर बोला – कोहरे की मार से सूरज तक नहीं बच पा रहा है और तुम कोहरे का बहाना करके अपराध से बचना चाहते हो, अपराधी और निर्दोष का अभी सवाल नहीं है फंसता वही है जो मौके पर हाथ आ जाए और ठंड में बड़े साहब का खुश होना जरूरी है हमें तुम्हारी परेशानी से मतलब नहीं है हमें तो साहब की खुशी से मतलब है। बाबू कुकर के चुपचाप बैठ गया।

शाम हो चुकी थी कोहरा और गहरा गया था, थानेदार मूंछों में ताव देकर खुश हो रहा था।  थानेदार ने सिपाही को आदेश दिया – भले रात को कितना कुहरा फैल जाए पर बहू को बयान देने के लिए बंगले में उपस्थित कराया जाय………..

कोहरा सिर्फ कोहरा नहीं होता, कोहरा जब किल्लत बन जाता है तो बहुत कुछ हो जाता है। बाबू कोहरे को लगातार कोसे जा रहा है और बड़बड़ाते हुए कह रहा है ये साला कोहरा तो हमारे लिए थानेदार बन गया। और थानेदार कोहरे और ठंड में रजाई के सपने देख रहा था बहू को बंगले में कोहरा और ठंड के साथ बुलवाने का बहाना कर रहा है। बयान देने के बहाने बहू को थानेदार के बंगले पहुंचाया गया। बाबू चुपचाप देखता रहा, गंगू मार खाने के डर से कुछ नहीं बोला …. बहुत देर बाद एक सिपाही से बाबू बोला – गरीबों का भगवान भी साथ नहीं देता, ऊपर वाला दुखियों की नहीं सुनता रे………..

© जय प्रकाश पाण्डेय

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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