डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी  ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 83 ☆

☆ व्यंग्य – लफड़े बाबू और परीक्षा की घड़ी

बैंक के वरिष्ठ क्लर्क लफड़े बाबू के यहाँ सबेरे से ही गहमागहमी है। बरामदे में आठ दस कुर्सियाँ डाल दी गयी हैं। दोस्त-रिश्तेदार सहानुभूति जताने और लफड़े बाबू के डिपार्टमेंट को कोसने के लिए बारी बारी से आकर उन पर बैठ रहे हैं। बीच में चेहरे पर भारी शिकायत का भाव लिये खुद लफड़े बाबू विराजमान हैं।

वजह यह थी कि लफड़े बाबू पिछले दिन बैंक में पैसों की हेराफेरी करने के मामले में सस्पेंड कर दिये गये थे। कुछ खातों में बरसों से जमाकर्ताओं के लाखों रुपये पड़े थे जिन्हें निकालने कोई नहीं आ रहा था। लफड़े बाबू से पैसों का यह दुरुपयोग नहीं देखा गया, सो उन्होंने अपने बीस पचीस साल के अनुभव का सदुपयोग करते हुए उस पैसे को निकाल लिया और उसे प्रत्यक्ष रूप से अपने विकास में और परोक्ष रूप से देश के विकास में लगा दिया। यह काम धीरे धीरे तीन चार साल में संपन्न हुआ, लेकिन कुछ विघ्नसंतोषी लोगों ने तिल का ताड़ बना दिया और लफड़े बाबू खामखां सस्पेंड हो गये।

अब लफड़े बाबू हर आने वाले के सामने कैफ़ियत दे रहे थे—-‘ज़माना खराब है। सही काम का गलत नतीजा निकलता है। ठीक है, हमने हेराफेरी की। लेकिन हमारी नीयत और हमारा इरादा तो देखिए। लाखों रुपये बेमतलब खाते में पड़े हैं। कोई धनी-धोरी नहीं। हमने सोचा इस बेकार पड़े पैसे को किसी काम में लगा दिया जाए तो क्या गलत किया?आखिर उससे चार आदमियों को धंधा रोजगार मिला। उनका भला हुआ। बताइए क्या गलत किया?’

सामने बैठे शुभचिन्तक सहमति में सिर हिलाते हैं।

लफड़े बाबू दुख और शिकायत के भाव से कहते हैं, ‘पचीस साल की सर्विस पर एक मिनट में पानी फेर दिया। ठीक है, आप एक्शन लीजिए, लेकिन आदमी की पोज़ीशन और उसकी सीनियरिटी पर भी गौर कीजिए। गधे घोड़े सब बराबर कर दिये। आज आखिर मेरी क्या इज्ज़त रह गयी स्टाफ के सामने? अखबार वालों को देखिए, वे अलग मज़ा लेने में लगे हैं।’

शुभचिन्तक फिर सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘ठीक कहते हैं। बहुत गलत हुआ। बड़ा अन्याय है। ‘

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘डिपार्टमेंट वालों को भी क्या दोष दें। ये जो सब कायदे कानून हैं, सब बाबा आदम के ज़माने के बने हुए हैं। आदमी का कसूर देखा और छपी छपाई सज़ा दे दी। अब ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया तो ये नियम कायदे भी बदलना चाहिए। अगर आदमी हेराफेरी कर रहा है तो यह देखना चाहिए कि उसका इरादा और उद्देश क्या है। अगर इरादा अच्छा है तो सज़ा की क्या तुक है? लेकिन सब लकीर के फकीर हैं, पढ़े-लिखे मूरख। इनको कैसे समझाया जाए? हमारी सारी पोज़ीशन एक मिनट में धो कर धर दी।

‘डिपार्टमेंट कहता तो हम एक मिनट में सारा पैसा लौटा देते। जब कर नहीं तो डर काहे का? लेकिन कुछ समझना-पूछना ही नहीं है तो हम क्या करें भई?’
हमदर्द फिर सहानुभूति में सिर हिलाते हैं।

लफड़े बाबू फिर दुखी हो जाते हैं। कहते हैं, ‘सब कुछ ऐसा बढ़िया चल रहा था। खामखां लोगों ने परेशानी पैदा कर दी। यह सब कारस्तानी उस मिचके बाबू की है।’
हमदर्द पूछते हैं, ‘कौन मिचके बाबू?’

लफड़े बाबू जवाब देते हैं, ‘है एक। चश्मे के पीछे आँखें मिचकाता रहता है, इसलिए सब मिचके बाबू कहते हैं। अपने को बड़ा ईमानदार समझता है। जब देखो तब फाइलों में घुसा रहता है। एक फाइल से निकलेगा, दूसरी में घुस जाएगा। उसी की करतूत है। उसी ने फाइलों में घुसकर हमें फँसाया है।’

शुभचिन्तक कहते हैं, ‘बड़ा गड़बड़ आदमी है। आपको बेमतलब चक्कर में डाल दिया।’

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘बड़ा घटिया आदमी है। इसी ने भिंगे बाबू को भी फँसाया था। बेचारे आठ-दस साल से धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा पैसा खा रहे थे। किसी को हवा नहीं थी, लेकिन इसने सूँघ लिया और सीधे-सादे आदमी का कैरियर चौपट कर दिया। बेचारे को जेल हो गयी। अंधेर है।’

शुभचिन्तक फिर अपनी सहमति जताते हैं।

लफड़े बाबू कहते हैं, ‘इस आदमी को ठीक ज़रूर करूँगा। साले का हुलिया बिगाड़ दूँगा। ज़रा इस मामले से बरी हो जाऊँ फिर देखता हूँ। बना बनाया कैरियर बिगाड़ दिया।’

शुभचिन्तक विदा लेने के लिए खड़े होते हैं। हाथ जोड़ते हुए कहते हैं, ‘यह आपकी परीक्षा की घड़ी है, लफड़े बाबू। आप इससे तप कर, सोना बनकर निकलेंगे, ऐसा हमारा पक्का विश्वास है।’

लफड़े बाबू भी हाथ जोड़ते हैं, कहते हैं, ‘हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद। इस परीक्षा से मैं निश्चय ही तप कर, बेहतर बन कर निकलूँगा। आप देखना, इससे मेरी पर्सनैलिटी में और निखार आएगा। जो होता है, अच्छे के लिए होता है। अपनी नीयत ठीक रखना चाहिए।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Shyam Khaparde

बहुत ही सुन्दर, अर्थपूर्ण, दमदार व्यंग्य, बधाई