मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ “गुंफीयेला शेला” – लेखिका – संपदा जोगळेकर, सोनाली लोहार, हर्षदा बोरकर, निर्मोही फडके ☆ परिचय – सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆

सौ विजया कैलास हिरेमठ

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “गुंफीयेला शेला” – लेखिका – संपदा जोगळेकर, सोनाली लोहार, हर्षदा बोरकर, निर्मोही फडके ☆ परिचय – सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆ 

पुस्तक – गुंफीयेला शेला  

लेखिका – संपदा जोगळेकर,सोनाली लोहार,हर्षदा बोरकर,निर्मोही फडके….

अभिप्राय- विजया हिरेमठ, संवादिनी,सांगली

 प्रत्येक व्यक्ती वेगळी असते हे जरी सत्य असले तरी काही व्यक्तींमध्ये काही समान धागे असू  शकतात.. या समान धाग्यांमुळेच त्या व्यक्ती एकत्र येऊन समूहाने एखादे चांगले काम करू शकतात असा विश्वास देणारे हे पुस्तक…

पाहून एकच चित्र

विणला प्रत्येकीने कथेचा धागा

त्या एक एक धाग्यांला घेवून

विणला त्यांनी एक सुंदर शेला.. 

चार मैत्रिणी शरीर, मन, विचार, व्यवसायाने वेगवेगळ्या.. वाचन- लेखन हाच एक समान धागा.. उत्तम भाषाभ्यास, निरीक्षण क्षमता व कल्पनाशक्ती यांच्या जोरावर

त्यांनी आपल्या भेटीसाठी गुंफियेला शेला…

तो हाती माझ्या येता उबदार मज भासला….

हे पुस्तक म्हणजे एक आगळा वेगळा प्रयोग आहे . यामध्ये चारही लेखिका आग्रही,जागरूक आणि संयमाने व्यक्त झाल्याची जाणीव प्रत्येक कथेतून होते. या चौघींनी ही एकाच चित्रकृतीचा आपापल्या दृष्टीकोनातून घेतलेला शब्दवेध आणि त्यातून निर्माण झालेल्या आगळ्या वेगळ्या कथांचा हा संग्रह…

प्रत्येकीची कथा अगदी एका पानाची, वीस वाक्यांची, पण खूप काही सांगून जाणारी, कुठेच अधुरेपण नसणारी.. चित्राचा आकार, रूप, रंग आणि प्रत्यक्ष मतितार्थापलीकडच्या जाणीवांना चार लेखकांनी कथा रुपात बांधले आणि 48 चित्रप्रेरीत कथांचा हा शेला गुंफला गेला. पुस्तकातील डॉ आनंद नाडकर्णी यांची प्रस्तावना, हा शेला गुंफण्यापूर्वीचा लेखिकांचा प्रवास उलगडतो तर अच्युत पालव यांची प्रस्तावना या शेल्यास एक नाजूक किनार म्हणून शोभते. चारही लेखिकांचे मनोगत वाचताना प्रत्येकीच्या कथा वाचण्याची उत्कंठा वाटते तसेच प्रत्येकीकडून एक प्रेरणा नक्की मिळते..

एकच चित्र पाहून प्रत्येकीला कितीतरी वेगवेगळ्या आशयाच्या कथा सुचल्या त्यांची शीर्षके वाचूनच हे लक्षात येत गेलं. खूपदा वाटलं ही या चित्राशी या शिर्षकाचा काही संबंध असू शकतो का?  चित्र पाहून आपल्या भावविश्वात एक कथा निर्माण होते  पण प्रत्येक कथा एका वेगळ्याच विश्वाचा प्रवास घडवते. एकाच चित्राकडे पाहून चार लेखिकामधील निर्माण होणाऱ्या वेगवेगळ्या भाव भावनांचे आणि संवेदनशील मनाचे आपल्याला घडणारे दर्शन खरोखर मन थक्क करते. उदाहरणादाखल सांगायचं तर या पुस्तकात एक चित्र आहे.. एका मुलीने रंगीबेरंगी फुगे हातात घट्ट धरले आहेत आणि त्यावर लेखिका हर्षदाने लिहलेली कथा “पॅलेट” एका सुंदर क्षणी एकत्रच असताना अपघाताने कायमची ताटातूट झालेल्या रसिका आणि पुनीतची कथा.

याच चित्रावरून  लेखिका सोनालीने लिहिलेली कथा-“फुगा” यात भेटते छोटीशी सुमी जी गेली पाच वर्षे आईची माय म्हणून जगत आहे आणि एकेदिवशी तिच्या आईने विहिरीत उडी मारून आत्महत्या केल्यानंतरचे तिचे आजण भावविश्व आपल्याला हळवं करतं…

लेखिका निर्मोही या चित्रावरून कथा लिहिते “स्टॅच्यू” गंमतीने खेळल्या जाणाऱ्या खेळाची एक हृदयस्पर्शी कथा..

लेखिका संपदा या चित्रावरून कथा लिहिते ” श्वेता” दत्तक बाळ वाढवताना त्याच्या वर्तमान आणि भविष्याचा विचार करायचा भूतकाळ मन गढूळ करत राहील आणि काळाबरोबर त्याचा चिखल होत राहिल. ती आपला अंकुर नसली तरी आपली सावली म्हणून वाढवावी असा सुंदर संदेश देणारी प्रबोधनात्मक कथा… 

शेवटी चारही लेखिकांनी आपल्याला आवडलेलं एक एक चित्र निवडून त्या चार चित्राला एकत्रित अशा समर्पक कथा लिहिल्या. या चार चित्रांना एकाच चौकटीत आणून सलगपणे समोर ठेवून चार चित्रांची मिळून एकच कथा प्रत्येकीने लिहून आणखी एक आगळंवेगळं पाऊल उचललं आणि आत्तापर्यंत विणलेल्या सुंदर शेल्याची शेवटी एकत्रित गाठ बांधून एक सुंदर गोंडा ओवला असंच म्हणावसं वाटतंय.

एखादं चित्र फक्त चित्रच नसतं त्यामागे चित्रकाराच्या भावना दडलेल्या असतात. चित्रकाराव्यतिरिक्त फार कमी जाणकार माणसांनाच त्या जाणवतात किंवा चित्रातून दिसतात.  नाहीतर चित्र म्हणजे नुसताच आकार आणि रंग- रेषांचा खेळ.. कोणी चित्र पाहून नेत्रसुख अनुभवतो. कोणी काही वेळाचं सुख – समाधान शोधतो. कोणी चित्रात असं गुंतून जातो की स्वतःच्या संवेदना मग कथेत शब्दबद्ध करतो. 

‘प्रत्येकीच्या दृष्टीकोनाची न्यारी ही किमया

शब्दांच्या धाग्यांनी,  ” त्यांनी गुंफियेला शेला”

पुस्तकरूपी  भेटीस तो आपुल्या आला’

प्रत्येकाने पुस्तक वाचू या आणि शेल्याचा उबदारपणा अनुभवू या. या शेल्याचा उबदारपणा अनुभवू या.

परिचय – सौ विजया कैलास हिरेमठ

पत्ता – संवादिनी ,सांगली

मोबा. – 95117 62351

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #189 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 189 ☆

☆ अधूरी ख़्वाहिशें 

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए; दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है; आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम दूसरों से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।

‘ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख।’ इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ, तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ’ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियाल भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। इसलिए मानव को अपनी संचित शक्तियों को पहचानने की सीख दी गयी है, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ *महाराष्ट्र विशेष – वारी – लघुता से प्रभुता की यात्रा*☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।) 

? आलेख ☆ महाराष्ट्र विशेष – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ? श्री संजय भारद्वाज ??

(कल देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी का पावन पर्व था। यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धित समस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के  विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा।)

श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि – वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏

 

(महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी यात्रा पर 12 वर्ष पूर्व बनाई हमारी यह डॉक्युमेंट्री फिल्म यदि अब तक न देखी हो तो अवश्य देखिएगा। विट्ठल-रखुमाई की अनुकम्पा से इसे अब तक पच्चीस हज़ार से अधिक दर्शक देख चुके हैं।)

निर्माण – श्री  प्रभाकर बांदेकर 

लेखन एवं स्वर – श्री संजय भारद्वाज  

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है- पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है- जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों  से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है- ‘जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’

चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी.  की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।

वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-

  • विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
  • 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है।  ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
  • सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
  • रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
  • रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
  • हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
  • एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
  • वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
  • जाने एवं लौटने की 33 दिनों की  यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
  • इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक   व्यवहार होता है।
  • हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
  • एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
  • रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं। हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।
  • एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
  • गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
  • नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’  का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।

वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवण कुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

  • आनंद का असीम सागर है वारी..
  • समर्पण की अथाह चाह है वारी…
  • वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
  • जन्म से मरण तक की वारी…
  • मरण से जन्म तक की वारी..
  • जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है। 

विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में – महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 86 ⇒ आषाढ़ का एक दिन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आषाढ़ का एक दिन।)  

? अभी अभी # 86 ⇒ आषाढ़ का एक दिन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आषाढस्य प्रथम दिवसे पर अगर कालिदास का कॉपीराइट है तो आषाढ़ के एक दिन पर मोहन राकेश का। मुझे संस्कृत नहीं आती, अतः मैं कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल, कुमारसंभव और मेघदूतम् नहीं पढ़ पाया। कालिदास को हिंदी में पढ़ना शेक्सपीयर को हिंदी में पढ़ने जैसा है। जिसे संस्कृत नहीं आती, वह सुसंस्कृत नहीं कहलाता और जिसे अंग्रेजी नहीं आती, आजकल वह पढ़ा लिखा नहीं कहलाता। हमने मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन पढ़ लिया और संस्कृत नहीं आने के अपराध बोध से मुक्त हो गए।

हमारे अभिन्न मित्र श्री हृदयनारायण जी, जब प्रेम के ढाई अक्षरों में भी धाराप्रवाह संस्कृत बहा देते हैं, तो हमारी हिंदी हमें थाम नहीं पाती। जिसे तैरना नहीं आता, उसे भाषा के प्रवाह में बह जाना चाहिए। भाषा का प्रवाह सबको पार लगा देता है। जिसे एक बार भाषा का ज्ञान हो जाता है फिर वह ज्ञान के सागर में डुबकियां लगाता रहता है। ज्ञान के मोती भी उसी के हाथ लगते हैं। ।

आषाढ़ के प्रथम दिन का शायद मेघदूत से संबंध है। इस बार आषाढ़ के पहले दिन ही एक बूंद भी पानी नहीं गिरा। शुक्र है फागुन की तरह, आषाढ़ के दिन चार नहीं होते, आषाढ़ निकलता जा रहा है, मेघदूत जल्दी कर, हरी अप।

इस बार आषाढ़ के दिनों में और भी कई दिन मिक्स हो गए। एक दिन तो ऐसा आया जिस दिन कई दिन एक साथ आ गए। आजकल दिन, दिवस हो जाता है, और दिवस, डे।

साल में वैसे तो सिर्फ 365 दिन होते हैं लेकिन अगर मदर्स डे, वेलेंटाइन्स डे और फादर्स डे की तरह अन्य दिवस अर्थात days का हिसाब लगाया जाए, तो वे 365 से अधिक ही बैठेंगे, कम नहीं। फरवरी का तो पूरा सप्ताह days’ week अर्थात् दिवसों का सप्ताह कहा जा सकता है। रोज़ डे, प्रोमिस डे, चॉकलेट डे, दिल दे, दिल ले, इत्यादि इत्यादि।

अभी अभी टाइपराइटर्स डे निकला, फादर्स डे भी अकेला नहीं आया, साथ में योग दिवस भी लेकर आया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, रोज दिन में तीन चार बार चाय पीने वाले हम भारतीय, चाय दिवस भी मनाते हैं। बस मैगी दिवस और पास्ता दिवस की कमी है शायद। ।

मेरे लिए ” आषाढ़ का एक दिन ” बहुत महत्वपूर्ण है।

कथाकार और नाटककार स्व.मोहन राकेश का यह पहला नाटक (1958) है। जो संस्कृत के ज्ञाता हैं, वे कालिदास को पढ़ें, हमारे जैसे हिंदीभाषी लोगों के लिए मोहन राकेश एक बहुत बड़ा काम कर गए। कितने कम समय में कोई इंसान सृजन के क्षेत्र में इतना कुछ कर जाता है ; (1925-1972) कि विश्वास ही नहीं होता। उनके दो और नाटक भी यहां उल्लेखनीय हैं, आधे अधूरे और लहरों के राजहंस।

अभी देव सोये नहीं हैं। मेघ हम पर मेहरबान नहीं। आषाढ़ के किसी भी दिन झमाझम हो सकती है। आप भी आषाढ़ के किसी एक दिन फुर्सत निकालकर मोहन राकेश का “आषाढ़ का एक दिन”, पढ़ ही लें। अगर पढ़ भी लिया हो, तो भी बार बार पढ़ने लायक है। जो नाट्य विधा अर्थात् स्टेज से जुड़े हैं, वे इसकी मंचीय खूबियों से भली भांति अवगत होंगे।

स्वागत, अभी आषाढ़ मास के कुछ दिन बाकी हैं। ।

आषाढ़ के एक दिन की तरह शायद एक दिन विश्व नाट्य दिवस का भी अवश्य होगा। संस्कृत में कालिदास के अलावा भास और भवभूति भी नाटककार हैं। उधर अंग्रेजी साहित्य में भी विलियम शेक्सपियर और क्रिस्टोफर मार्लो के अलावा भी कई नाटककार हुए हैं।

हमारे देश में आज हिंदी की अपेक्षा मराठी मंच अधिक सक्रिय है।

कारण अच्छे मंचीय कलाकारों की फिल्मों में मांग। फिलहाल तो लगता है राजनीति साहित्य और संस्कृति को पूरी तरह लील रही है। कहीं हमें ऐसा दिन ना देखना पड़े कि लोग पूछें कौन कवि कालिदास और कौन मोहन राकेश..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदाफूली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सदाफूली ??

वे खोदते रहे

जड़, ज़मीन, धरातल,

महामार्ग बनाने के लिए,

नवजात पादप रौंदे गए,

वानप्रस्थी वृक्ष धराशायी हुए,

वह निपट बावरा

अथक चलता रहा

पगडंडी गढ़ता रहा,

पगडंडी के दोनों ओर

आशीर्वाद बरसाते

अनुभवी वृक्ष खड़े रहे,

चहुँ ओर बिखरी हरी घास के

पगडंडी को आशीष मिले,

महामार्ग और सरपट टायर

के समीकरण विशेष हैं,

पग और पगडंडी

शाश्वत हैं, अशेष हैं,

हे विधाता!

परिवर्तन के नियम से

अमरबेलों को बचाए रखना,

पग और पगडंडी के रिश्ते को

यूँ ही सदाफूली बनाए रखना..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #188 ☆ भावना के चित्राधारित दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 188 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के चित्राधारित दोहे ☆

देख रही है वह मुझे, दरवाजे की ओट।

मंद मधुर मुस्कान है, नहीं दिख रही खोट।।

कजरारी आँखें लिए, काले -काले बाल।

लुक छिपकर वह देखती, कुंडल झूमें गाल।।

देख उसे मन खिंच रहा, उभरा यौवन आज।

बिंदिया मुझे बुला रही, हूँ सजनी का साज।।

नयन अभी कुछ कह रहे, भरा हुआ है जाम।

आ जाओ अब तुम सजन, लिखा तेरा ही नाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…डायबिटीज की अनदेखी न कीजिए… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण ‘किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…डायबिटीज की अनदेखी न कीजिए…’।)

☆ जीवन यात्रा – किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…डायबिटीज की अनदेखी न कीजिए… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…

ऑल इंडिया रेडियो के पूर्व समाचार निदेशक राजेंद्र रॉय का बुधवार को गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित एक अस्पताल में निधन हो गया।  वे 78 वर्ष के थे और कुछ समय से किडनी की बीमारी से पीड़ित थे।

 एक हँसमुख व्यक्ति जो अपने ऊपर ही चुटकुले सुनाता था और दूसरों को खुश करता था, रॉय अपने दोस्तों के बीच बेहद लोकप्रिय थे, जिन्होंने उनके चरित्र के गुणों को याद करते हुए  भावभीनी श्रद्धांजलि पेश की हैं।

लेकिन राजेंद्र रॉय के कुछ दोस्तों को लगता है कि उन्होंने एक तरह से खुद ही आत्महत्या की है।  रॉय इस बात पर अड़े थे कि मधुमेह और बीपी की गंभीर स्थिति के बावजूद वह एलोपैथिक दवाएं नहीं लेंगे। उनका मानना था कि एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली एक माफिया है जहां डॉक्टरों और फार्मा कंपनियों ने आम लोगों को लूटा है।

वह सादा भोजन लेते थे और भ्रामरी प्राणायाम जैसे व्यायाम करते थे और दोस्तों से उनके उदाहरण का अनुसरण करने का आग्रह करते थे।  वह यह दावा करने के लिए अपने लैब परीक्षण पोस्ट करते थे कि उन्होंने बिना किसी दवाई के अपनी शुगर और कोलेस्ट्रॉल को पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया है।  शायद उन्हें अपनी एचबी1एसी के अत्यधिक उच्च स्तर की रिपोर्ट के निहितार्थ के बारे में पता नहीं था, जिसमें उनके रक्त में शर्करा के तीन मासिक औसत स्तर को दर्शाया गया था।  यह वांछित 6.0 के मुकाबले 9.7 था।  दोस्तों ने उन्हें इस संबंध में सावधान किया और उन्हें अपने आहार के साथ-साथ मेटफॉर्मिन जैसी एलोपैथिक दवाएं लेने की सलाह दी।  एक मित्र ने अपने डॉक्टर के हवाले से कहा कि मधुमेह रोगी की किडनी पर हर बार छोटा या बड़ा निशान बनाता है, जब शुगर सामान्य स्तर को पार करता है।  रॉय को कोई परवाह नहीं थी. शायद, उन्होंने इसी की कीमत चुकाई है।

राजेंद्र रॉय कट्टर विचारों के व्यक्ति थे।  वे हमेशा कहते थे कि कोविड-19 बड़ी फार्मा कंपनियों द्वारा किया गया एक बड़ा धोखा है, जो बड़ा डर पैदा करके लोगों को लूटने के लिए किया गया है।  उन्होंने अपनी बात को साबित करने के लिए बार-बार खुद को गंभीर कोरोना मरीजों के बीच भर्ती होने की पेशकश की।  कोई भी ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार कैसे कर सकता था।

वैसे रॉय यारों के यार थे.  उन्होंने अपने सेवा सहयोगियों के हितों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक कई कानूनी लड़ाइयाँ लड़ीं।  वह किसी ऐसे दोस्त की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे जिसे प्रमोशन या अन्य मुद्दों पर अन्याय महसूस होता हो।

लेकिन सेवाकाल में खुद उन्हें बहुत कष्ट भी सहना पड़ा.  भारी काम के बोझ से दबे होने के कारण, उन्होंने आकाशवाणी रांची से क्षेत्रीय समाचार बुलेटिन में एक समाचार प्रसारित किया, जिसमें क्षेत्रीय समाचार इकाई में कर्मचारियों की कमी के कारण खराब स्थिति के लिए सरकार को दोषी ठहराया गया।  उन्हें निलंबन का सामना करना पड़ा और बाद में पदोन्नति में रुकावट आ गई। उन्हें अपने कुछ उचित लाभों को बहाल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी।

कानूनी मामलों में दोस्तों की निःशुल्क मदद करना सेवानिवृत्ति जीवन में उनका पूर्णकालिक शौक बन गया।

मूल रूप से बिहार के एक सुदूर इलाके के रहने वाले रॉय 1970 में भारतीय सूचना सेवा में शामिल हुए। उन्होंने मुख्य रूप से दिल्ली, पटना, भोपाल और रांची में काम किया और 2004 में ऑल इंडिया रेडियो के समाचार सेवा प्रभाग से समाचार निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

रॉय ने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीया और कोई अन्याय बर्दाश्त नहीं किया।  वे हमेशा मित्रों व परिजनों की यादों में रहेंगे। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।

राजेंद्र रॉय की कहानी का एक निष्कर्ष यह भी है कि डायबिटीज की बीमारी की अनदेखी मत कीजिए। सदा जीवन, खान पान और प्राणायाम और वर्जिश बेहतर हैं पर दवाई भी लेते रहिए।

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #174 ☆ एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं…”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 174 ☆

 ☆ एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं☆ श्री संतोष नेमा ☆

खींचा-तानी   मची   हुई    हैं

आकांक्षाएँ     बढ़ी   हुई    हैं

 

जिस थाली  में करते  भोजन

वही  छेद   से  भरी   हुई  हैं

 

कौन  किसे समझाये  अब तो

समझ  सभी  की  बढ़ी हुई  हैं

 

उलझाते   आपस  में   सबको

फितरत  उनकी  सड़ी  हुई   हैं

 

हमी   रहें   बस   सबसे   आगे

यही   हसरतें   पली    हुई    हैं

 

अंधे   हो  गये  इश्क  में वह तो

आँख   में  पट्टी   चढ़ी   हुई   हैं

 

कैसे   अब    संतोष     मिलेगा

कई    चाहतें   खड़ी    हुई    हैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पालखी… ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पालखी… ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

निघाली पंढरपूरी पालखी llध्रुll

 

पालखीतही मीच विराजे

मीच वाहते माझे ओझे

विठूमाऊली, दुखले खांदे

फुंकर तू घाल की      ll1||

 

मोह, क्रोध, मद सांडत गेले

निर्मळ, पावन, हलके झाले

हीण असे जे उरलेसुरले

तूच विठू जाळ की     ||2||

 

शेवटची ही मजल गाठली

विठूचरणी या मुक्ती लाभली 

नि:संगावर माझ्या उरली

विठूचीच मालकी      ||3||

 

© सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वारकरी नाचे… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वारकरी नाचे… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

(उत्कृष्ठच !वाखरीचे रिंगण असो देहु-आळंदीहून पालखींचे प्रस्थान हा सोहळाही नयनरम्य भक्तीचा असतो)

आकाशाला गवसणी घालणारा

पांडुरंगाशी अभंगी बोलणारा

आषाढाचा थेंबसरी झेलणारा

संसाराचे सुख-दुःख पेलणारा.

 

आत्मज्ञान साक्षात्कार तो दैणारा

दिंडी-दिंडीत पाप-पुण्य घेणारा

काय महती पंढरीस नेणारा

भेदाविन भक्तासंगे संत होणारा.

 

हाच तो कृष्ण सावळा  घन सांडतो

पंढरीच्या वाळवंटी खेळ मांडतो

मुक्ता जनाईसवे दैवही कांडतो

पुंडलीक सावतासंगे जो भांडतो.

 

असा हा विठ्ठल तिन्ही लोका सांभाळे

वारकरी नाचे टाळ गर्जे आभाळे.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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