हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सम्पन्नता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ सम्पन्नता


बूढ़े जीवन ने

यकायक पूछा,

कभी सोचा

अब तक

क्या खोया

क्या पाया,

अपनी संपन्नता पर

मैं इतराया,

मर्त्यलोक में

क्षरण के मूल्य पर

अक्षय पाता रहा,

साँसे खोता रहा

अनुभवी होता रहा,

रीता आया था

सृष्टि सम्पन्न लौट रहा हूँ,

सो खोया कुछ नहीं

बस, पाया ही पाया!

©  संजय भारद्वाज 

30.7.2017, रात्रि 8.18 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 21 – कितने कुर्ते  आपको चाहिए ? ☆ 

एक बार गांधीजी अपनी कलकत्ता  यात्रा  के दौरान  एक बंगाली सज्जन  के घर  उनसे मिलने गए।

उस  समय   वे केवल धोती  के समान  एक छोटा  सा  कपड़ा  पहनते  थे। उन्हे इस तरह देख गृह स्वामी  की छोटी बच्ची  ने कौतूहलवश  उनसे  एक सवाल  पूछ लिया –क्या  आपके  पास  पहनने के कपड़े  नहीं है ?  गांधीजी भी बड़े विनोदी स्वभाव के थे। उन्होने  उत्तर  दिया – “क्या  करूँ, सचमुच  मेरे  पास कपड़े  नहीं है।”

यह  सुनकर  वह बच्ची  बोल उठी – “मैं  अपनी माँ  से कह कर  आपको कुर्ता दिलवा  दूंगी। मेरी माँ के हाथ  का  सिला कुर्ता  आप पहनेंगे न ?”

गांधीजी ने कहा –”जरूर पहनूँगा ,लेकिन  एक कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा।”

“कोई  बात नहीं, मेरी  माँ  आपको  दो कुर्ते  दे देगी” –उस बच्ची  ने कहा।

“नहीं,नही, दो कुर्ते  से मेरा  काम नहीं चलेगा”– गांधी का उत्तर  था।

“तब  कितने कुर्ते  आपको चाहिए ?”- बच्ची  का सवाल  था।

तब  गांधीजी ने बड़ी गंभीरता  से कहा – “बेटी, मुझे  35 करोड़ कुर्ते  चाहिए। जब  तक  देश के हर व्यक्ति के तन  पर कपड़ा नहीं होगा, तब तक  मैं  कैसे और कपड़े  पहन लूँ।”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक विषाणु ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार श्री सुहास रघुनाथ पंडित जी की एक समसामयिक कविता ” एक विषाणु “.)

☆  कविता ☆ एक विषाणु ☆ 

एक  विषाणू आदमी को दुर्बल बना देता है/

उसका ज्ञान, उसका विज्ञान

उसका तंत्र, उसका मंत्र

उसके सारे क्षेपणास्त्र

सभी को ताला लगा देता है

एक विषाणू….

 

उसकी शक्ति, उसकी भक्ति

उसकी मति, उसकी गति

उसकी नीति, उसकी अनीति

सबको ताला लगा देता है

एक विषाणू….

 

उसका मान, उसका अभिमान

उसका विचार, उसका अहंकार

उसका विवेक, उसका स्वैराचार

सभी को ताला लगा देता है

एक विषाणू….

 

उसकी सत्ता, उसके अधिकार

उसकी भूख, उसका शृंगार

उसके मन के सारे विकार

सभी को ताला लगा देता है

एक विषाणू….

 

आज आया है ये कोरोना

कल का किसने जाना

अब याद एक ही रखना

अपनी मर्यादा का पालन करना

प्रकृति को गलत ना  समझना

कभी गलत ना समझना

कभी गलत ना समझना

 

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ देश हित काम करें ☆ श्री अमरेन्द्र नारायण

श्री अमरेन्द्र नारायण

हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह प्रतिदिन “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत एक रचना पाठकों से साझा कर रहे हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। हमने सहयोगी  “साहित्यम समूह” में “एकता शक्ति आयोजन” में प्राप्त चुनिंदा रचनाओं से इस अभियान को प्रारम्भ कर दिया  हैं। आज प्रस्तुत है श्री अमरेन्द्र नारायण जी की  एक विचारणीय कविता    “देश हित काम करें”

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ देश हित काम करें 

आलस्य,द्वेष,हिंसा,नफरत

सब छोड़ देश हित काम करें

शांति, विकास, समृद्धि, सुख-

सुविधा का स्वागत गान करें।

 

ऐसा स्वागत कर पायेंगे

जब होगी मुखड़ों पर लाली

किसी गांव, शहर के हरखू की

कभी होगी नहीं थाली खाली

 

हम ऐक्य शांति अभियान करें

सुविधा का स्वागत गान करें।

 

हैं दिये विधाता ने साधन

पुरुषार्थ शक्ति हमको दी है

हम साथ अगर पग नहीं धरें

सोचो यह किसकी गलती है!

 

प्रतिभा भी है साधन भी हैं

मिल कर हमें आगे बढ़ना है

यह देश हमारा प्रगति करे

हमें इसी लक्ष्य पर चलना है

 

कुछ लोग स्वार्थ के ही कारण

विष वमन किया करते रहते

उलझा भटका कर लोगों में

विद्वेष वह्नि फूंका करते

 

इन सब से उनकी नेतागिरी

और चमचागिरि चल जाती है

हिंसा उकसाने वालों की

जेबें भी गरम हो जाती हैं

 

क्या यही तरीका जीने का

हम भटकावे में जीते रहें?

जो अपनी दाल गलाते हैं

उनके जूते तक ढोते रहें!

 

स्वाभिमान से जीने के

साधन भी हैं, सुविधा भी है

जो बहकावे में आ जाते

मन में उनके दुविधा भी है

 

सब भेद-भाव को हम भूलें

और देश के हित में काम करें

अपना भी मस्तक ऊंचा हो

भारत का सब सम्मान करें

 

फूट डालने वालों को

अपनी दुकान की चिंता है

लड़वाते रहते में उनको

संतोष और सुख मिलता है

 

इस धोखे, फरेब और नफरत के

बहकावे में हम ना आयें

मिलजुल कर देश की सेवा में

श्रद्धा पूर्वक सब जुट जायें

 

जो धूर्त लड़ाते हैं हमको

उनका हम बहिष्कार करें

धोखे चकमें में ना आयें

सच्चों का ही सत्कार करें

 

छोटी बातों में न उलझें

तत्परता से हम काम करें

और स्वाभिमान के पथ चल कर

हम देश का ऊंचा नाम करें!

 

©  श्री अमरेन्द्र नारायण 

शुभा आशर्वाद, १०५५ रिज़ रोड, साउथ सिविल लाइन्स,जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश

दूरभाष ९४२५८०७२००,ई मेल [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 18 ☆ मंजिल खो गयी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मंजिल खो गयी) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 18 ☆ मंजिल खो गयी 

 

मंजिल खो गयी जिंदगी के ताने-बाने बुनने में,

जो बहुत हसीन दिख रही थी बचपन के खुशनुमा लम्हों में ||

 

सोचा था उलझनों को तो सुलझा लेंगे आसानी से,

पहले जिंदगी सुलझा ले जो दिख रही ज्यादा उलझनों में ||

 

मगर अफ़सोस जिंदगी भी कितनी बेवफा निकली,

उलझा कर रख दिया मुझको बुझते दियों को जलाए रखने में ||

 

अफ़सोस आसान दिखती उलझने सुलझ ना सकी,

जिसे आंसा समझ बैठा, उलझ गयी जिंदगी उसी के मकड़जाल में ||

 

ए ऊपरवाले अब तो कुछ मुझ पर रहम कर,

क्या जिंदगी हमेशा ऐसे ही उलझी रहेगी इस  मकड़जाल में ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवरात्रि विशेष☆ देवी गीत – रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे …….. ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित नवरात्रि पर्व पर विशेष  देवी गीत रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे ……..। ) 

☆ नवरात्रि विशेष  ☆ देवी गीत – रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे …….. ☆

रहते भी नर्मदा किनारे प्यासे फिरते मारे मारे

भटकते दूर से थके हारे , आये दर्शन को माता तुम्हारे

 

भक्ति की भावना में नहाये , मन में आशा की ज्योति जगाये

सपनों की एक दुनियां सजाये , आये मां ! हम हैं मंदिर के द्वारे

 

चुन के विश्वास के फूल , लाके हल्दी , अक्षत औ चंदन बना के

थाली पूजा की पावन सजाके , पूजने को चरण मां तुम्हारे

 

सब तरफ जगमगा रही ज्योति , बड़ी अद्भुत है वैभव विभूति

पाता सब कुछ कृपा जिस पे होती , चाहिये हमें भी माँ सहारे

 

जग में जाहिर है करुणा तुम्हारी  , भीड़ भक्तों की द्वारे है भारी

पूजा स्वीकार हो मां हमारी , हम भी आये हैं माँ बन भिखारी

 

माँ  मुरादें हो अपनी  पूरी , हम आये हैं झोली पसारे

हरी ही हरी होये  किस्मत , दिवाले जैसे जवारे

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 69 – तेजशलाका ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 69 ☆

☆ तेजशलाका ☆

 

तू श्रीहरीची मधूर बासरी

सरस्वतीची वीणा मंजूळ

वसुंधरेची नव चैत्रपालवी

मृगनयनी तव रूप लाघवी

 

तू साक्षात्कारी एक कल्पना

कवितेमधली मृदूल भावना

प्राजक्ताचा प्रसन्न दरवळ

तरूणाईचा तरंग अवखळ

 

तू पूर्वेची पहाटलाली

 नवकिरणांची तेजशलाका

साकारलेले स्वप्न मनोहर

नवयुवती तुज प्राप्त युगंधर

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे – श्रीचामुण्डेश्वरी चरणावली – 5 ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

या भागात देवीच्या विविध रुपांचे वर्णन व तिच्या भक्तीचे स्वरुप .

– साधक उर्मिला इंगळे

☆ केल्याने होतं आहे रे ☆

???श्रीचामुण्डेश्वरी चरणावली -5 ?

!!श्रीराम समर्थ!!

 

माता माहूर गडाची

तांबुलाचा होई लाभ

शालू हिरवा नेसली

अलंकारे राखी आब !!

 

भरजरी पैठणीत

खुलुनिया दिसे रुप

भक्ती शक्ती देवतेचे

अंतरंगी निजरुप !!

 

कुमारिका पूजनाने

ऐश्र्वर्याची प्राप्ती होते

सुखशांती समाधान

जगन्माता सौख्य देते !!

 

रामानेही केली पूजा

पूजियेली भगवती

केला वध रावणाचा

दिले सौख्य सेवाव्रती !!

 

सप्तशती श्रीसूक्तही

यथाशक्ती करु पाठ

भक्तीभाव वृद्धिंगत

मांगल्याचे गेही ताट !!

 

दुर्गास्तोत्र रामरक्षा

करु पाठ भक्तीभावे

पावतसे जगदंबा

परिपूर्ण मनोभावे !!

 

मंत्रातील एक एक

शक्तीवंत हे अक्षर

नामजप उच्चारण

देवी नामाचा जागर !!

 

मन होई शुचिश्मंत

देवी आराधना करु

नवरात्रात सुंदर

पूजा संकीर्तन करु !!

 

शिवनेरी किल्ल्यावरी

शोभे दैवत शिवाई

कुलदेवी माहेरची

पूजीताती जिजाबाई !!

 

आई अंबेचा गोंधळ

माता रेणुका गोंधळ

बोला सप्तशृंगी उदो

महालक्ष्मी उदो उदो !!

 

उदो उदो उदो उदो उदो उदो उदो..ऽऽ..ऽऽ..

               क्रमश:   …..

©️®️ साधक- उर्मिला इंगळे

सातारा

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ राहिले रे दूर घर माझे ☆ सौ. अमृता देशपांडे

सौ. अमृता देशपांडे

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ राहिले रे दूर घर माझे ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

तिचं मन अतिशय हळवं,

फक्त तिचंच?..

त्यांचं ही तितकंच हळवं,

किंबहुना जरा जास्तच..

 

नोकरीसाठी घर सोडून जाताना

त्यांचं ही मन रडतं

घरापासून त्यालाही दूर

रहावं लागतं .

 

घरच्या आठवणींनी मन त्याचंही

कासावीस होतं,

जाऊ घरी लवकरंच….आपलीच

आपण समजूत काढतं.

 

घरचे सणवार,पारंपरिक जेवण

त्यालाही चुकतं,

मन मोकळं करण्या पूर्वीच

दोन टिपं गाळतं….

 

मी मस्त मजेत आहे घरी फोनवर

तो सांगतो,

घरच्या सगळ्यांना आनंदात ठेव

म्हणून देवाकडे मागतो.

 

कधी कधी आठवणींनी काळीज

त्यांचं पिळवटतं,

आणि उशीमध्ये तोंड खुपसून

ढसढसा रडतं…

 

पुरूषमाणूस बाबा तू रडणं

तुला शोभत नाही,

शब्द घुमतात कानात,

पण मन मात्र ऐकत नाही…

 

जड मनाचं ओझं आज काही केल्या पेलवत नाही,

आसवं सुद्धा आज ऐकायला तयार नाहीत..

 

हुंदक्यांची लाट उशी भिजवून

टाकते,

घरच्या आठवणींनी मन आणखीच जड होते.

 

अनावर मन तुला आर्त साद

घालते,

” आई, ए आई, तुझी खूप

आठवण येते

तुझी खूप आठवण येते. ”

 

© सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गंधलहरी ☆ श्री आनंदहरी

☆ जीवनरंग ☆ गंधलहरी ☆ श्री आनंदहरी ☆ 

ऊन चांगलंच रणरणत होतं.. तो पाय ओढत चालत होता. पायात अंगठा तुटलेली जुनाट चप्पल.. तळ झिजलेला,अगदी आहे म्हणायला असणारा.. रस्ता म्हणजे मातीचा नुसता फुफाटा.. डोक्यावर मुंडासं आणि त्यावर घातलेली त्याच्यासारखीच म्हातारपणाच्या सुरकुत्या ल्यालेली मोरपिसांची टोपी..दोन्ही खांद्याला अडकवलेल्या दोन झोळ्या. एका  हातात आधारासाठी घेतलेली त्याच्या कानापेक्षा थोडीशी उंच अशी चिव्याची काठी. तिला वरच्या टोकाला बांधलेली घुंगरं कधी वाजायची तर कधी नाही. दुसऱ्या हातात शरीराचा जणू अवयवच असावा असं वाटाव्यात अशा दोन बोटांत अडकवलेल्या चिपळ्या. आधीच मंद झालेली चाल उन्हाच्या तकाट्यानं आणखी मंद झाली असली तरी त्याच्या मनाच्या चालण्याचा वेग मात्र तरुणाईलाही लाजवेल असा होता.. मनाने तो कधीच शिवेवरच्या आंब्याच्या झाडाच्या सावलीत पोहोचला होता..

फोंडया माळावर असणारं ते एकमेव झाड.. बाकी नजरेच्या टप्प्यात चिटपाखरूही न दिसणारा तो माळ..

घशाला कोरड पडली होती पण तरीही घोटभर पाणी पिण्यासाठी तो थांबला नाही..रस्त्यावरुन वळून पायवाटेने तो माळावर निघाला आणि शेवटी आंब्याचं झाड दिसलं तसा सावलीत आल्यासारखा तो मनोमन सुखावला आणि त्याच्याही नकळत त्याच्या चालण्याचा वेग वाढला.

आंब्याच्या सावलीत तो पोहोचला. त्याने हातातल्या चिपळ्या, काठी ,खांद्याच्या दोन्ही झोळ्या खाली ठेवल्या आणि खाली बसता बसता घाम पुसत त्यानं झाडाच्या जरासे पलीकडे असणाऱ्या खोपटाकडे नजर टाकली..

“किस्ना ss !”

एका झोळीतून पाण्याची बाटली काढत त्यानं हाळी मारली. त्याच्या आवाजानं चित्तवृत्ती फुललेला किस्ना खुरडत खुरडत खोपटातनं बाहेर आला.  किस्नाला पाहताच त्याचा चेहरा खुलला. किस्ना तसाच त्याच्याजवळ आला. दोन घोट पाणी पिऊन त्यानं ती बाटली किस्नाकडे दिली. किस्नानं बोटं झडलेल्या हातात कशीबशी बाटली धरली आणि दोन-चार घोट पाणी पिऊन, त्याच्या येण्याने आधीच थंडावलेल्या जीवाला आणखी थंड केलं. त्यानं झोळीतून कुणी कुणी कागदात गुंडाळून दिलेला भाकरतुकडा बाहेर काढला.  त्यातील दोन गुंडाळ्या उलगडून पाहिल्या. एकात अर्धी भाकरी-चटणी होती, दुसऱ्यात झुणका भाकरी होती.. त्याने त्या किस्नापुढं ठेवल्या.

“खा..”

“देवा, तू ?”

भुकेली नजर भाकरीवरून त्याच्याकडं वळवत किस्नानं विचारलं.

त्यानं त्या झोळीतून कागदाच्या  आणखी काही गुंडाळ्या, पुड्या बाहेर काढल्या. त्यातली चटणी- भाकरी एका कागदावर घेतली. दोन तीन कागदातली भाकरी,चपाती,चटणी,भाजी काही शिळं काही ताजं.. जणू गोपाळ काला करावा तसं सारे एकत्र केले आणि एका पुडीत बांधून बाजूला ठेवत म्हणाला,

“सांच्याला खा. “

उरलेल्या पुड्या, गुंडाळ्या परत झोळीत टाकल्या.

“घ्ये देवाचं नाव. “

असे किस्नाला म्हणून त्यानं भाकरीचा तुकडा मोडला.

भाकरी खाऊन झाल्यावर तो किस्नासाठीची भाकरी आणि झोळीतून चारपाच पाण्याच्या बाटल्या काढून घेऊन खोपटात गेला. तिथं भाकरी ठेवून, पाण्याच्या बाटल्या तिथल्या  मटक्यात रिकाम्या करून परत आला. पारभर सावलीत किस्नासंगं बोलत बसला. काही वेळ गप्पांत गेल्यावर लेक,सून,नातवंडं असणाऱ्या गोकुळात परतायला पाहिजे..आधीच रोजच्या पेक्षा जरा जास्तच उशीर झालाय हे जाणवून निघण्यासाठी उठता उठता तो किस्नाला म्हणाला,

“भाकरी हाय खोपटात…सांच्याला खा बरं का ? घरला जाया पायजेल आता.”

त्यानं रिकाम्या बाटल्या झोळीत टाकल्या, मोरपिसांची टोपी मुंडाशावर ठेवली, दोन्ही झोळ्या खांद्याला अडकवून काठी हातात घेत ‘येतो रं किस्ना ‘ म्हणत तो काहीशा धीम्या गतीनं चालू लागला.

त्याला जाताना पाहून किस्नानं त्याच्याशी नकळत पाणावलेले डोळे आपल्या थोट्या हाताने पुसता पुसता किस्नाला आठवलं.

हाता-पायाची बोटं झडायला लागल्यावर पोटच्या पोरांनी, बायकोनं घराबाहेर हाकललं.. आणि कोण कुठला तो.. एकदा सावलीला म्हणून झाडाखाली आला.. आणि या शापित आयुष्याची सावली झाला.. त्यानंच नाव दिलं..’ किस्ना ‘

पाठमोऱ्या त्याच्याकडे पाहत असणाऱ्या किस्नाला ते सारे आठवलं आणि त्यानं ‘ देवाs !’ म्हणून आपले थोटे हात जोडून नमस्कार केला.

आपल्या मोहराला त्याच्या मनाचा गंध ल्यावा, यावा असे आंब्याच्या झाडालाही वाटू लागलं.

 

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:-  8275178099

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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