अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (36-37) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

(तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के पृथक-पृथक भेद)

 

सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।36।।

 

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌।।37।।

 

सुख के तीन प्रकार हैं, भेद समझ के जान

रमता मन अभ्यास से, दुख से निकल प्रधान ।।36।।

जो पहले विष सा  लगे, अमृत सा परिणाम

मन को करे प्रसन्न उस ,सुख का सात्विक नाम ।।37।।

भावार्थ :  हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम ‘विष के तुल्य प्रतीत होता’ है) होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है॥36-37॥

  1. Now hear  from  Me,  O  Arjuna,  of  the  threefold  pleasure,  in  which  one  rejoices  by practice and surely comes to the end of pain!
  1. That which is like poison at first but in the end like nectar-that pleasure is declared to be Sattwic, born of the purity of one’s own mind due to Self-realisation.

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

 ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

विकल रहूँ या मैं विवश, कौन करे परवाह ।

सब सुनते हैं शोर को, सब जाती है आह।।

 

सोच रहा हूँ आज मैं, करता हूँ अनुमान ।

अधिक अपेक्षा ही करें, सपने लहूलुहान।।

 

शब्द ब्रह्म आराधना, प्राणों का   संगीत।

भाव प्रवाहित ज्यों सरित, उर्मि उर्मि है गीत।।

 

कहनी अन कहनी सुनी, भरते रहे हुँकार ।

क्रोध जताया आपने, हम समझे हैं प्यार ।।

 

कितनी दृढ़ता मैं रखूँ, हो जाता कमजोर ।

मुश्किल लगता खींच कर, रखना मन की डोर।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 22 – फिर समेटे दिन कहीं…. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “फिर समेटे दिन कहीं ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 22– ।। अभिनव गीत ।।

☆ फिर समेटे दिन कहीं…. ☆

 

शाम घिरते  होगया धुँधला

वह कनक गुम्बद हवेली का

आँख को ज्यों खूब भाया,

प्रीतकर सुरमा बरेली  का

 

स्याह हो उट्ठे दिशाओं के

बनैले चुप पखेरू

थरथराहट लाँघती

दिनमान के अनगिन सुमेरू

 

फिर समेटे दिन कहीं

गायब हुआ है

खुशनुमा वह सूर्य

पीली इस पहेली का

 

चिपचिपी होने लगी है

ओसारे की ,वाट गीली

थाम हाथों में पहाड़ों को

गरम  होती पतीली

 

घूमती, आँखों अधूरापन

सम्हाले

अँधेरे में चीन्हती

जो गुड़ करेली   का

 

फिर किसी सौभाग्य से

जा पूछती उन्नत शिखरणी

क्यों उदासी ओढ़ती  मृगदाब

की  अनजान हिरणी

 

देखती जो राह

सारे दिन रही है

चैन भी जिसको मिला

न एक धेली  का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

24-01-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ अक्षय ☆

मैं पहचानता हूँ

तुम्हारी पदचाप,

जानता हूँ

तुम्हारा अहंकार भी,

झपटने, गड़पने

का तुम्हारा स्वभाव भी,

बस याद दिला दूँ,

जितनी बार गड़पा तुमने,

नया जीवन लेकर लौटा हूँ मैं,

तुम्हें चिरंजीविता मुबारक

पर मेरा अक्षय होना

नहीं ठुकरा सकते तुम..!

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 12.11बजे, 22.10.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 ☆ आमने-सामने -3 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है ।

प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ  के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से  आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के  पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है  सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री मुकेश राठौर जी , खरगोन  के प्रश्नों के उत्तर । ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 

☆ आमने-सामने  – 3 ☆

श्री मुकेश राठौर (खरगौन) – 

प्रश्न-१ 

आप परसाई जी की नगरी से आते है| परसाई जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं में तत्कालीन राजनेताओं,राजनैतिक दलों और जातिसूचक शब्दों का भरपूर उपयोग किया | क्या आज व्यंग्यलेखक के लिए यह सम्भव है  या फ़िर कोई बीच का रास्ता है ?ऐसा तब जबकि रचना की डिमांड हो सीधे-सीधे किसी राजनैतिक दल,राजनेता या जाति विशेष के नामोल्लेख की|

प्रश्न- २

कथा के माध्यम से किसी सामाजिक, / नैतिक विसंगति की परतें उधेड़ना। बग़ैर पंच, विट, ह्यूमर के |ऐसी रचना कथा मानी जायेगी या व्यंग्य?

जय प्रकाश पाण्डेय १ –

मुकेश भाई, व्यंग्य लेखन जोखिम भरा गंभीर कर्म है, व्यंग्य बाबा कहता है जो घर फूंके आपनो, चले हमारे संग। व्यंग्य लेखन में सुविधाजनक रास्तों की कल्पना भी नहीं करना चाहिए, लेखक के लिखने के पीछे समाज की बेहतरी का उद्देश्य रहता है। परसाई जी जन-जीवन के संघर्ष से जुड़े रहे,लेखन से जीवन भर पेट पालते रहे,सच सच लिखकर टांग तुड़वाई,पर समझौते नहीं किए, बिलकुल डरे नहीं। पिटने के बाद उन्हें खूब लोकप्रियता मिली, उनकी व्यंग्य लिखने की दृष्टि और बढ़ी।लेखन के चक्कर में अनेक नौकरी गंवाई। व्यंंग्य तो उन्हीं पर किया जाएगा जो समाज में झूठ, पाखंड,अन्याय, भ्रष्टाचार फैलाते हैं, व्यंग्यकार तटस्थ तो नहीं रहेगा न, जो जीवन से तटस्थ है वह व्यंंग्यकार नहीं ‘जोकर’ है। यदि आज का व्यंग्य लेखक तत्कालीन भ्रष्ट अफसर या नेता या दल का नाम लेने में डरता है तो वह अपने साथ अन्याय करता है। आपने अपने सवाल में अन्य कोई बीच के रास्ते निकाले जाने की बात की है, तो उसके लिए मुकेश भाई ऐसा है कि यदि ज्यादा     डर लग रहा है तो उस अफसर या नेता की प्रवृत्ति से मिलते-जुलते प्रतीक या बिम्बों का सहारा लीजिए, ताकि पाठक को पढ़ते समय समझ आ जाए। जैसे आप अपने व्यंग्य में सफेद दाढ़ी वाला पात्र लाते हैं तो पाठक को अच्छे दिन भी याद आ सकते हैं।पर आपके कहने का ढंग ऐसा हो, कि ऐसी स्थिति न आया…….

रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सरग-पताल।

आप तो कह भीतर गई, जूती खात कपाल।

जय प्रकाश पाण्डेय – २

मुकेश जी, व्यंग्य वस्तुत:कथन की प्रकृति है कथ्य की नहीं।कथ्य तो हर रचना की आकृति देने के लिए आ जाता है। आपके प्रश्न के अनुसार यदि कथा के ऊपर कथन की प्रकृति मंडराएंगी तो वह व्यंग्यात्मक कथा का रुप ले लेगी।

क्रमशः ……..  4

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #15 ☆ बहुत मुश्किल है ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर , अर्थपूर्ण एवं भावप्रवण  कविता “ बहुत मुश्किल है ”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 15 ☆ 

☆ बहुत मुश्किल है ☆ 

घटनाएं अच्छी-बुरी

घट रही थी

जिंदगी खुशी खुशी

कट रही थी

यह कैसा प्रलय आया

जिसने तूफान लाया

इससे बच पाना

बहुत मुश्किल है

 

हमने तो जीवन भर

फूलों के पौधे लगाए

फूलों के संग संग

कांटे भी उग आए

फूलों पर कब्जा

जमाने ने कर लिया

कांटों से दामन

हमारा भर दिया

फूलों से बेहतर

हमने कांटों को बनाया

तराशा,

खुशबू से महकाया

फिर भी इनको कांटों की

क्षमता पर शक है

क्या वाकई इनको

ये कहने का हक है

इन तंगदिल वालों से

जीत पाना

बहुत मुश्किल है

 

घर उनका जला है तो

खुश हो रहे हो

बेफिक्र, खूब

तानकर सो रहे हो

कल घर तूम्हारा जलेगा

तो तुम्हें पता चलेगा

इस आग की कोई

धर्म या जाति नहीं होती

आग लगती है तो वो

सबकुछ है जलाती

यह इन दिग्भ्रमित

लोगों को समझाना

बहुत मुश्किल है

 

कसौटी पर परखो

फिर उसे चाहों

इन्सान ही रहने दो

खुदा ना बनाओं

खुदा जो बन गया तो

तूम्हारी नहीं सुनेगा

अपनी प्रशंसा के ही

सपने बुनेगा

उसके डर से

या उसके कहर से

इन नशे में गाफिल

लोगों को बचा पाना

बहुत मुश्किल है।

© श्याम खापर्डे 

18/10/2020

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 22 ☆ माझा जोडीदार.…. ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 22 ☆ 

☆ माझा जोडीदार.…. ☆

आहे तो सावळा

सदैव कोवळा

ऐसा माझा जोडीदार… १

 

जीवाचा कैवारी

वाजवी बासरी

ऐसा माझा जोडीदार… २

 

कर्ता करविता

सृष्टीचा निर्माता

ऐसा माझा जोडीदार… ३

 

द्वापारी प्रगटला

कारागृही अवतरला

ऐसा माझा जोडीदार… ४

 

पांडवांचा कैवारी

प्रगटला भूवरी

ऐसा माझा जोडीदार… ५

 

गीता उपदेश करी

शस्त्र न हाती धरी

ऐसा माझा जोडीदार… ६

 

सतत माझ्या पाठी

कर्म त्याच साठी

ऐसा माझा जोडीदार… ७

 

तयासी मी नमितो

स्मरण सदैव करितो

ऐसा माझा जोडीदार… ८

 

कृष्ण तयाचे नाम

मनस्वी प्रणाम

ऐसा माझा जोडीदार…९

 

© कवी म. मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वळणवाट ☆ श्री महेशकुमार गुंडाप्पा कोष्टी

श्री महेशकुमार गुंडाप्पा कोष्टी

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ वळणवाट ☆ श्री महेशकुमार गुंडाप्पा कोष्टी ☆ 

पाय चालते वळणावरती अलगद वळत होते

मन पाखरू मात्र तयाला प्रश्न विचारित होते

सरळ रेषा ठाऊक मजला कुठे न वाटे वळावे

सरळ कोन हा आयुष्याचा दुभंग न त्याने व्हावे…

 

मी म्हणालो सरळ वाट ही नसते कधी कुणाची

वळसे घेता चहू दिशांना छेडिते तार मनाची

संकटांस या उभ्या आडव्या चुकवित जाते पुढे

वळणारी ही वाट शिकविते आयुष्याचे धडे…

 

जोवर आहे साथ मनाची सरळ पुढे चालावे

जिथे भेटते प्रांजळ अंगण तिथे चांदणे व्हावे

अडथळ्यांचा श्वास रोखूनी प्राण दिशेला द्यावे

वळणावरच्या वाटेचे मग काळीज आपण व्हावे…

 

©  श्री महेशकुमार गुंडाप्पा कोष्टी

मिरज, जि. सांगली

मोबाईल : 9922048846

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ समर्पण  (अनुवादीत कथा) –  क्रमश: भाग 1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ समर्पण  (अनुवादीत कथा) –  क्रमश: भाग 1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

सगळीकडे गडबड-गोंधळ उडाला होता. सगळं अस्ताव्यस्त झालं होतं. शहराच्या प्रत्येक काना-कोपर्‍यातून भयध्वनी गुंजत होता. एकापासून दुसर्‍याकडे, दुसर्‍यापासून तिसर्‍याकडे असं करत कोरोना व्हायरस एलेग्ज़ेंडर नर्सिंग होमच्या उंबरठ्यावर येऊन धडकला होता. तिथे काही वयस्क मंडळी आधीपासूनच बिछान्यावर होती. सीनियर सिटीझनच्या या केअर होम मध्ये  अधिकांश लोक पंचाहत्तर वर्षापेक्षा जास्त वयाचे होते. कुणी हिंडु-फिरू शकत होते, तर कुणी बिछान्यावर पडलेलेच असायचे. आपली दिनचर्या चालवण्यासाठी कुणाला मदतीची गरज नसे, तर कुणीकुणी पूर्णपणे दुसर्‍याच्या मदतीवरच अवलांबून असायचे. कुणी शारीरिक आणि मानसिकदृष्ट्या दोन्ही बाबतीत अस्वस्थ असायचे, तर कुणी फक्त मानसिकदृष्ट्या. ते चाला-फिरायचे पण असे की जसा काही त्यांच्यात जीवच नाही. त्यांच्याकडे बघताना वाटायचं जीवन तुटून-फुटून गेलय. कसे बसे ते तुकडे गोळा करून ते चालताहेत पण कुठल्याही क्षणी ते विखरून पडतील.

करोनाचा प्रहार सहन करण्याची ताकद या वयस्क मंडळींमध्ये खूपच कमी होती. त्याचा फायदा उठवून व्हायरस,    शहरातल्या अशा प्रकारच्या नर्सिंग होम्सना  आपलं लक्ष्य बनवत होता. आत्तापर्यंत सुरक्षित असलेलं हे नर्सिंग होम आता त्याच्या पकडीत सापडलं होतं. एका मागोमाग एक असे अनेक लोकांचे रिपोर्टस पॉझिटिव्ह येत चालले होते आणि त्यांना हॉस्पिटलमध्ये पाठवलं जाऊ लागलं होतं. चोवीस तास सरता सरता दहा जणांच्या मृत्यूची बातमी त्यांच्या साथीदारांमध्ये निराशा आणि दहशत पसरवत भिंतींना धडकून गोंधळ निर्माण करत होती. मृत्यूचं दृश्य डोळ्यांच्या अगदी जवळ येऊन टकटक करत होतं.

भीती आणि धोके यांच्याशी झुंजत, आणि आपल्या जिवाची काळजी करत इथले कर्मचारी ही परिस्थिती हाताळत होते. कुणी पॉझिटिव्ह झाल्याने घरी एकांतवासात होते, कुणी पॉझिटिव्ह होण्याच्या शंकेने घरी राहू इच्छित होते, पण नाईलाजाने काम करत होते. एका मागोमाग येणार्‍या आशा बातम्यांनी रोझा विचलित झाली होती. आपला शेजारी स्टीव्हबद्दलच्या बातमीची उतावीळपणे वाट बघत होती.

जीवनातले शहाऐशी वसंत पार केलेल्या रोझावर मृत्यूच्या बातम्यांचा आतंक आशा तर्‍हेने पसरला होता, की टी.व्ही.च्या स्क्रीनवरून  तिची नजर हटतच नव्हती. गेली दहा वर्षे हे नर्सिंग होम हेच तिचं घर होतं. गेले काही दिवस इथले कर्मचारी आशा तर्‍हेने घाबरत घाबरत आपले काम करत होते, जसे काही बिछान्यावर पडलेले हे लोक, त्यांच्यासाठी मृत्यूचा संदेश घेऊन उभे आहेत. सगळ्यांनी आपल्याला पूर्णपणे कव्हर केलं होतं. कळतच नव्हतं कोण कोण आहे. काम करणारे त्यांच्या अवती-भवती रोबोटप्रमाणे वावरतील, अशी स्थिती आत्तापर्यंत कधीच आली नव्हती.  हलक्या निळ्या रंगाच्या प्लॅस्टिक कव्हरमध्ये झाकलेले किंवा असं म्हणता येईल की प्लॅस्टिक गाऊन घातलेले , हातात हातमोजे, तोंडावर मास्क असे सगळे सजलेले होते. चष्म्याच्या मागे लपलेल्या डोळयांशवाय त्यांचं काहीही दिसत नव्हतं.

नर्सिंग होम ची रिसेप्शनिस्ट सूझन आली आणि तिने दिवंगत झालेल्या व्यक्तींची नावे सांगितली. त्यात स्टीव्हचं नावही होतं. रोझाच्या डोळ्यांच्या पापण्या जशा काही उघड-झाक करायच्या विसरूनच गेल्या.  अनेक स्नेह्यांबरोबर तिचा खास मित्र  स्टीव्हही तिला सोडून गेला होता. ती दोघे नेहमी गप्पा मारत. दोघांनीही इथलं जीवन खुशीने स्वीकारलं होतं. आता कुणालाही आपला परिवार, मुलं-बाळं यांची प्रतीक्षा नव्हती. दोघेजण एकमेकांचे चांगले साथीदार झाले होते.

त्या मोठ्या खोलीत चार पलंग होते. एका बाजूने दुसर्‍या बाजूपर्यंत कापडाचा पडदा होता. ती त्यांच्या खोलीची सीमा होती. त्यांचं आपलं घर होतं. कोण कुणाच्या चार भिंतींच्या आत डोकावत नसे. बसून बसून, झोपून झोपून बोलायचे. मोठमोठ्याने हसायचे. लंच-डिनरच्या टेबलवर एकमेकांची सोबत करायचे आणि फिरायलाही बरोबर जायचे.

मूळ लेखिका – सुश्री हंसा दीप

भावानुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आविष्कार एका सृजनाचा ☆ सुश्री स्नेहा विनायक दामले

 ☆ विविधा ☆ आविष्कार एका सृजनाचा ☆ सुश्री स्नेहा विनायक दामले ☆ 

आविष्कार एका सृजनाचा

छान किती दिसते फुलपाखरू

मी धरु जाता येई न आता…. फुलपाखराचं असं यथार्थ वर्णन एका कवितेत केलेलं आहे. रंगीत फुलपाखरांची दुनिया मोठी अजब असते. काही दिवसांचे छोटेसे आयुष्य असणारी फुलपाखरं जन्म घेतात ती एकदम मोठी होऊनच! इतर प्राण्यांसारखा ‘बालपण’ हा टप्पाच नसतो त्यांच्या आयुष्यात; आणि या कीटकवर्गी जीवाचा जन्म सुद्धा अगदी वैशिष्ट्यपूर्ण रीतीने होतो. अंडी-अंड्यातून अळी-अळीचा कोष आणि कोषातून फुलपाखरू असा तो प्रवास! मागे एकदा एका फुलपाखरू उद्यानात फुलपाखराच्या या जीवनावस्था जवळून प्रत्यक्ष पाहता आल्या होत्या. झाडांची कुरतडलेली, अर्धवट खाल्लेली पानं ही बरेचदा फुलपाखराच्या अळीचा प्रताप असतो हेही तेव्हा कळलं होतं. तेव्हापासून अशी पानं पाहिली की ही कोणत्या बरं फुलपाखराच्या अळीने खाल्ली असतील या विचाराने कुतूहल जागृत होऊ लागले..  भविष्यात एका सुंदर फुलपाखराला जन्म देण्यासाठी झाडाची पानं विद्रूप करणाऱ्या अळीला पानावरून झटकून टाकण्याची भावना नाहीशी झाली.. असो..

गवतावर बागडणारी पिवळी फुलपाखरे प्रत्येकाने पाहिली असतील. ‘ग्रास यलो’ फुलपाखरे म्हणतात त्यांना. यातही बरेच प्रकार आहेत. याच प्रकारच्या एका फुलपाखराच्या जन्माची ही गोड कहाणी….

माझ्या घरातल्या कुंडीतील शिरीषाच्या रोपावर एक दिवस तीन चार हिरव्यागार उदबत्तीच्या पातळ काडी सारख्या जेमतेम एक सेंटीमीटर लांबीच्या अळ्या दिसल्या. जेमतेम अर्धा फूट उंचीचे ते रोप आणि त्याला चार-पाच चिंचेच्या पानासारखी संयुक्त पानं, छोटी छोट पर्णदलं असणारी.. या एवढ्याच विश्वात या अळ्या दोन-चार दिवस मनसोक्त हुंदडत होत्या; बाजूच्या इतर झाडांकडे ढुंकूनही पाहत नव्हत्या. त्या इटुकल्या झाडाच्या पानांचा फडशा पाडत होत्या आणि दिवसागणिक लठ्ठ होत होत्या. ‘खादाड’ हाच शब्द अगदी बरोबर लागू पडतो त्यांना. मी वाट बघत होते आता पुढे काय होणार? ही अळी कोष कुठे बनवणार? रोज सकाळी उठल्यावर आधी झाडाचे निरीक्षण करत होते. एके दिवशी पाहिलं तर एकही अळी दिसेना! म्हटलं कोष बनवायला दुसरीकडे गेल्या की काय? म्हणून आजूबाजूची झाडं न्याहाळू लागले पण काsही दिसेना.. मग पुन्हा शिरीषाच्या रोपाचंच पान अन् पान बारकाईने पाहू लागले; आणि काय? अगदी पानासारखे दिसणारे, पानाच्या आकाराचे दोन हिरवे कोश मला दिसले आणि एका हिरव्या देठाला बिलगून असलेली एक लठ्ठ अळी, हालचाल न करता अगदी निपचीत पडून असलेली; पटकन दिसणारच नाही अशी! तिच्याकडे पहात मी तशीच उभी राहिले अन् तेवढ्यात अळीची जोरदार हालचाल सुरू झाली!! अळीच्या  शरीराचे एक टोक देठाला चिकटून राहिले आणि दुसरे टोक  अधांतरी लोंबकळत; त्यातून भराभर स्त्राव पाझरू लागला आणि त्यात अळी गुरफटली जाऊ लागली. वीस-पंचवीस सेकंदांचा खेळ!! अळी ‘अळी’ राहिलीच नाही, त्या ठिकाणी हिरव्या रंगाचा त्रिकोणी आकार दिसू लागला. त्रिकोणाचे अधांतरी टोक तेवढ्यात वर देठाकडे सरसावले आणि पुन्हा खाली आले. पाहते तर काय? एका बारीक धाग्याने आता ते टोकही देठाला जोडले गेले होते! विस्फारलेल्या नजरेने मी हा सगळा प्रकार पाहत होते. अगदी अद्भुत!!! हुबेहूब पानासारखा दिसणारा तिसरा कोष आता त्या इवल्याशा रोपावर लटकत होता; खादाड अळी कोषात बंदिस्त झाली होती….

आता रोज मी त्या कोषाचे निरीक्षण करू लागले. चार दिवस उलटले. प्रत्येक दिवसागणिक कोषाचा रंग पालटताना दिसत होता. हिरवा कोष सुरुवातीला पिवळसर होत गडद पिवळा झाला. आणखी एक-दोन दिवसांनी त्या पिवळ्या कोषात काळी कडा उमटलेली दिसली. मी निरखून पाहत होते काही हालचाल दिसते का ते आणि माझे अहोभाग्य की निसर्गाच्या सृजनाचा एक मनमोहक आविष्कार माझ्या डोळ्यासमोर साजरा झाला. एका क्षणात या कोषाच्या, धाग्याने जोडलेल्या टोकातून पिवळी पिवळी लड खाली घरंगळली. रेशमी कापडासारख्या त्या पिवळ्या गुंडाळीतून ताबडतोब दोन काळ्या अँटिना(स्पृशा) उंचावल्या आणि आणि दोन इवल्या पायांची पकड कोषावर घट्ट बसली. पिवळा अपारदर्शी कोष आता रिकामा होऊन पारदर्शक झाला. पिवळी गुंडाळी आता हळूहळू मोकळी होऊ लागली आणि काही सेकंदात काळ्या किनारीचे ठिपकेदार पिवळे पंख पसरले गेले. आपल्या पायांच्या तीन जोड्यांच्या आधाराने कोषाला बिलगलेले, पूर्ण वाढ झालेले ग्रास यलो फुलपाखरू या जगात अवतरले होते.

अर्ध्या-एक मिनिटात घडलेले हे अद्भुत पाहून मी आनंदाने ओरडायचीच बाकी होते. एक बाय अर्धा सेंटीमीटर आकाराच्या कोषातून चांगले तीन सेंटीमीटर लांब पंख असलेले फुलपाखरू बाहेर आले होते. जवळ जवळ तासभर ते तसेच रिकाम्या कोषात पाय रोवून होते; अधून-मधून पंखांची उघडझाप करत होते. एका क्षणी ते झटकन कोष सोडून उडून गेले आणि दूर पसार झाले…

दिवाळीच्या मुहूर्तावर अशाप्रकारे दोन सुंदर जीवांचा आमच्या घरी जन्म झाला होता, दिवाळीचा आनंद त्यांनी दशगुणित केला होता.

 

© सुश्री स्नेहा विनायक दामले

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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