(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जो क़द को देखकर अपना…“)
श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक, चंद कविताएं चंद अशआर” शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – यूं ही उजड़ा – उजड़ा सा रहता है…।)
यूं ही उजड़ा – उजड़ा सा रहता है… ☆ श्री हेमंत तारे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा “स्वर्ण पदक“ )
☆ कथा-कहानी # 124 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 5🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
रजतकांत और उनके भाई स्वर्णकांत एक शहर में होने बावजूद प्रतियोगिता के अंतिम दिन याने फाईनल के दिन मिल पाये और वह भी खेल के मैदान पर. रजतकांत ने रेल्वे के VIP guest house में टीम के साथ रुकना ही पसंद किया, mandatory भी रहता है, कोई भी स्पांसर डेवियेशन अफोर्ड नहीं करना चाहता. तो फाईनल मुकाबले के पहले ही ये मुलाकात हुई जिसमें गर्मजोशी कम औपचारिकता ज्यादा थी. नहीं मिलने के दोनों के अपने अपने कारण थे, रजत के लिये फाईनल जीतना उसके लिये टीम इंडिया में वांछित पोजीशन दिला सकता था और स्वर्णकांत अपने छद्मनाम स्वयंकांत से छुटकारा पाना चाहते थे क्योंकि उनका कैरियर भी दांव पर लगा हुआ था. रविवार को इस प्रतिष्ठित मैच को देखने के लिये बैंक का बहुत सारा स्टॉफ भी दर्शक दीर्घा में मौजूद था.
हॉकी की चैम्पियनशिप रेल्वे की टीम ने हरियाणा को हराकर 3-2 से जीती, रेल्वे की तरफ से तीनों गोल फील्ड गोल थे जो रजतकांत की उत्कृष्ट ड्रिबलिंग का कमाल थे जिसमें बेहतरीन प्लेसिंग का बहुत कुशलता से उपयोग किया गया. पिछली चैम्पियन हरियाणा की टीम का पॉवरप्ले, रेल्वे की टीम की चपलता के आगे मात खा गया हालांकि उनके पैनल्टी कार्नर विशेषज्ञ खिलाड़ी के दम पर पहले दो गोल हरियाणा ने ही पहले हॉफ टाईम में किये और हॉफ टाईम का स्कोर 2-0 था. पर सेकेंड हॉफ ने खेल का नक्शा बदल दिया. मैदान में रजतकांत का टीमवर्क और चपलता दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर गई. रजत हीरो बन चुके थे और जश्न के बाद दूसरे दिन विशाल सेंटर बैंक ब्रांच ने रेल्वे की टीम को शाम को बैंक में आमंत्रित किया. रजत व्यस्त होने के बावजूद मना नहीं कर पाये ,आखिर भाई के साथ वक्त गुजारने का मौका भी तो मिल रहा था. तो दूसरे दिन शाम को लगभग 6 बजे एक तरफ रेल्वे की हॉकी टीम के सदस्य अपने कैप्टन रजतकांत के साथ बैठे थे और दूसरी तरफ थी इंडस्ट्रियल रिलेशन की धीमी आंच को अपने अंदर समेटे बैंक की टीम जिसके कप्तान थे स्वर्णकांत. कुछ अवसर ऐसे होते हैं जब बैंक की छवि और बैंक का सम्मान सबके ऊपर वरीयता पाता है. वही आज भी हुआ पर इस कार्यक्रम के हीरो थे रजतकांत जिनके खेल का पूरा स्टॉफ दीवाना हो गया था और उपस्थित स्टाफ की नजर दोनों भाइयों के बीच उसी तरह दौड़ लगा रही थीं जैसे हॉकी के ग्राउंड में बॉल दौड़ती है कभी इस हॉफ में तो कभी उस हॉफ में.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – तजुर्बा।)
कमल जी सुबह-सुबह मन्दिर से वापस आईं। देखा उनकी पोती रागिनी कालेज जाने के लिए तैयार खड़ी है। किसी से फोन पर बात कर रही है। दादी को देखकर वह बहुत गुस्सा हो गई – आप मेरी बातें क्यों सुन रही हो क्या यह अच्छी बात है? मां इन्हें गांव क्यों नहीं भेज देती हो? एक तो इन्हें मेरे कमरे में रख दिया है, दिन भर पूजा पाठ करके मुझे डिस्टर्ब करती रहती हैं। हमेशा मेरे कपड़े के पहने होने पर रोक लगाती रहती हैं।
– अच्छा यह तो बता तू मोबाइल में सारा दिन करती क्या रहती है?
– बस बेटी मैं सीखना चाहती हूं क्योंकि इसमें खाना बनाने की भी अच्छे-अच्छे विधियां बताते हैं। मैं सोचती हूं तुझे बनाकर खिलाऊँ और दोपहर में टाइम पास भी अच्छा हो जाता है। ठीक है तुझे गुस्सा लगता है तो अब नहीं पूछूंगी चुप रहूंगी।
– लेकिन एक बात सुन ले मैं भी कॉलेज की पढ़ाई की है और मैंने भी जमाना देखा है। तेरी मां ने तो आंख में पट्टी बांध ली है बेचारा मेरा बेटा तो दिन भर काम करता है।
– क्या मैं ऑंख में पट्टी बांध लूं? मन ही मन बुदबुदाई।
– हे राम जमाने को क्या हो गया है। क्यों बहू रागिनी क्या तुम पेपर नहीं पढ़ती न्यूज़ नहीं सुनती आजकल जमाना कितना खराब है। खैर जमाना तो हमारे जमाने से भी ऐसा था।
– माँ आजकल यही फैशन है सब बच्चे इसी तरह पहनते हैं, देखकर उसका भी मन करता है यदि सलवार कमीज पहने की तो सब उसे गवार समझेंगे। जाने दो मैं आपके लिए नाश्ता बनाती हूं क्या बना दूं?
– तू चाय नाश्ता और घर गृहस्थी छोड़ थोड़ी बाहर की भी दुनिया देख। स्कूल कॉलेज में पढ़ना कोई बुराई नहीं है शिक्षा तो हर किसी को मिलनी चाहिए क्या हम तो पढ़े नहीं थे लेकिन क्या आजादी इतना देना उचित है वह तो बच्ची है उसे कुछ समझ नहीं है लेकिन तू तो समझ है?
– खाना तो मैं बना दूंगी। जा तू थोड़ा देख बिटिया रानी क्या करती है? पीछे देख चुपके से वह स्कूल कॉलेज में क्या कर रहे हैं, कहीं बुरी संगत में तो नहीं फंस गई है। तेरा यह फर्ज है। देख मेरी बातें तुझे बुरी जरूर लग रही है, पर तू मेरा कहा मान जा। आज तू अपनी जिंदगी जी ले खूब घूम ले फिर न मेरी तरफ से बाबूजी की पेंशन तो मुझे मिलती है। 1000 रुपया लो और कुछ अपने लिए खरीद लेना।
अब सासू मां ने कहा था तो रागिनी ने सोचा चलो इसी बहाने घूम फिर लूंगी और वह जब अपनी बेटी के कॉलेज पहुंची तो उसने दूर से देखा कि उसकी बेटी कुछ लड़कों के साथ सिगरेट पी रही है, और लड़कों की नजर और नीयत ठीक नहीं लग रही थी वह कुछ देर रुक कर यही देखने लग गई फिर कुछ और लौट के आगे देखा कि वह लोग क्लास में नहीं गए तभी उसने देखा कि वह लोग रागिनी के साथ कुछ अजीब सी हरकतें करने लग गए और वह चिल्लाने लग गई तो कुछ लड़कों ने मिलकर उसे पकड़ लिया।
तभी उसकी मां दौड़ी दौड़ी उसके पास आ गई। और वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी इसी समय पूरे कॉलेज का स्टाफ इकट्ठा हो गया और उन लड़कों की बहुत पिटाई हुई वह माफी मांगने लग गए कि आंटी हमें पुलिस में मत दीजिए हमसे गलती हो गई और ऐसा नहीं करेंगे उसने भी समझदारी से कम लेकर उन्हें छोड़ दिया और अपनी बेटी को लेकर घर आ गई।
तभी कमल जी ने दरवाजा खोला और बोला क्या हुआ बहू तूने क्या खरीदा ?
– अपने लिए कुछ नहीं मांजी आपको मैं गलत सोचती थी पर बात सही है घर में बड़े बुजुर्गों का होना चाहिए उनकी सलाह और तजुर्बा से घर गृहस्थी चलना चाहिए। जब आपको रवि घर में लेकर आए थे तब मैं बोझ मानती थी और मुझे यह लगता था कि आप क्यों आ गई लेकिन अब आप कभी मत जाइएगा आप यही रहिएगा।
आज मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि माँ के रूप में मुझे एक सहेली मिल गई। बड़ों बुजुर्गों का का घर में होना कितना जरूरी होता है, आज मुझे अनुभव हुआ।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे।
इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 105 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 10 ☆ आचार्य भगवत दुबे
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा – “प्रतीक्षा की प्रतीक्षा” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 353 ☆
लघुकथा – प्रतीक्षा की प्रतीक्षा श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
आंखों पर साया करते झुर्रियों भरे हाथ किसी छाया की चाह नहीं थे, बल्कि किसी अपने की राह तकते समय की आदत बन चुके थे। यह चेहरा, समय के उस पृष्ठ की तरह था, जिसका उत्तर खोजना खुद एक अनुत्तरित प्रश्न बन गया था।
अम्मा एक वृद्धा नहीं, वो मां हैं, जिसने जीवन दिया, परंतु बदले में जीवन भर प्रतीक्षा ही पाई।
बेटी प्रतीक्षा को विदेश भेजा था ‘कुछ बन जाने’ के लिए। पर अब वर्षों से उनका क्रम बन गया है नज़रें टिकाए प्रतीक्षा की प्रतीक्षा का। कोई पत्र नहीं, कोई संदेश नहीं, बस एक उम्मीद, बाकी रह गई है। जो हर सुबह उन की आंखों में उगती है और हर संध्या जिंदगी सी बुझने लगती है। बेटी नहीं लौटी तो नहीं ही लौटी।
प्रतीक्षा की प्रतीक्षा एक पूरी पीढ़ी की उम्मीदें हैं, जो गाँवों से निकलकर शहरों की चकाचौंध में गुम हो रही है। अम्मा के हाथ की रेखाएँ, चेहरे की झुर्रियां केवल उम्र की नहीं, बुजुर्ग होती पीढ़ी के उस त्याग की कथा कहती हैं जो रोटियाँ बेलने, खेतों में काम करने और अकेलेपन से जूझते हुए गुजरे वर्षों की गाथा कहना तो चाहती है पर उसे सुनने वाला कोई पास नहीं।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपके “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 135 ☆ देश-परदेश – दिल्ली 6 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली 6 के नाम से फिल्म आई थी, खूब चली थी। दिल्ली के दिल चांदनी चौक के आस पास के क्षेत्र को दिल्ली 6 कहा जाता हैं।
स्वतंत्रता के बाद जब शहर महानगर बन रहे थे, तब वहां ऐसे बड़े शहरों को 1 अंक से नंबर आरंभ दिए गए थे, शहर के क्षेत्र को अंक देकर विभाजित किया गया था। इसके बाद छः अंक का पिन कोड आरंभ हुआ, जो विद्यमान में भी कार्यरत हैं।
पुराने लोग तो कभी भी पिन कोड के महत्व को समझ नहीं पाए थे। कौन छे नंबर याद रखें। उनका ये मानना था, कि पत्र को प्राप्त करने वाला व्यक्ति बहुत जानी मानी हस्ती है, इसलिए मिल जाता हैं। पूरा शहर उसको जानता है।
चार दशक पूर्व हमारे एक पत्र पर नाम के साथ स्टेट बैंक और शहर का नाम लिख कर प्रेषित किया था। पोस्टमैन ने भी उसको समय से हमारे पास पहुंचा दिया था। अब समय बदल गया है, बहुत सारे लोग तो पड़ोसी का नाम तक भी नहीं जानते हैं।
वर्तमान में पोस्टल सेवाओं की उपयोगिता भी कम हो गई है। मोबाइल और ईमेल जैसी सुविधा आ चुकी हैं। लॉजिस्टिक और ई कॉमर्स में समय का महत्व बहुत है, अधूरे पत्ते से उनको बहुत हानि हो रही हैं। इसलिए अब 14 डिजिट का डिजिपिन व्यवस्था लागू की जा रही हैं। समय की पुकार जो हैं। देश की आधी से अधिक जनसंख्या अभी छह अंक के पिन कोड तक को याद नहीं कर पाई है, अब ये 14 अंक कैसे याद रखेगी, ये तो आने वाला समय ही बता पाएगा।
☆ माझी जडणघडण… ओळख – भाग – ४५ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆
(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)
ओळख
सुप्रसिद्ध कवी, गझलकार सुरेश भटांची“केव्हातरी पहाटे उलटून रात्र गेली” ही गझल मला फार आवडते. सुरुवातीला मला ही एक प्रणयभावनेची गझल वाटायची पण आयुष्याच्या एकेका टप्प्यावर जेव्हा जेव्हा मी ही गझल वाचत गेले तस तसे त्यातले खोल दडलेले अर्थ जाणवू लागले. हे प्रणयगीत नसून आयुष्यातली स्थित्यंतरे, एक पार केलेला टप्पा, उलटून गेलेला एक काळ याविषयी फार सुंदर भाष्य कवी सुरेश भट यांनी या गझलेत केलेलं आहे याची जाणीव झाली.
“केव्हा तरी पहाटे उलटून रात्र गेली मिटले चुकून डोळे हरवून रात्र गेली”
समजलंच नाही बालपण कधी संपलं! अचानक मिटलेले डोळे उघडावेत आणि नवी पहाट उगवलेली असावी तशी बाल्य संपल्याची, नवी वाट सुरू झाल्याची चटकन जाणीव झाली. एका नवीन आयुष्याची सुरुवात होत होती.. अगदी तसेच झाले आणि लक्षात आले की माझ्या जडणघडणीचा एक महत्त्वाचा टप्पा आता पार झालेला आहे. तत्पूर्वी अनेक बदल जीवनात घडले. आमचं धोबी गल्लीतलं वास्तव्य संपलं. जुन्या मुंबई आग्रा रस्त्यावर आणि राम मारुती रोडच्या सुरुवातीलाच असलेल्या आधुनिक, ऐसपैस, सर्वांसाठी वेगळ्या बेडरूम्स असलेला मागे पुढे बागेचं स्वप्न पूर्ण करणारी मोकळी जागा, चोवीस तास पाणी (हे फार महत्वाचं) वगैरे अनेक सुविधांचा “केदार” नावाचा बंगला पपांनी बांधला. खरं म्हणजे हा बंगला माझ्या आजोबांनी माझ्या आईला प्रेमाची भेट म्हणून दिला. “मालुने (म्हणजेच माझ्या आईने) एका चांगल्या ऐसपैस, सुख सोयी असलेल्या घरात राहावे ही त्यांची आंतरिक तळमळ होती. कसं असतं ना! माझे पप्पा हे एक सेल्फमेड व्यक्तिमत्त्व होतं पण त्यांनी स्वाभिमानाचा दुराग्रह न बाळगता बापलेकी मधला एक प्रेमाचा धागा सांभाळला आणि मनापासून घर बांधणीच्या प्रक्रियेत भाग घेतला. वास्तविक बंगल्याचे बांधकाम पूर्ण होईपर्यंत त्यांनी एकही पैसा आजोबांकडून घेतला नाही नंतर पूर्ण रकमेचा चेक आजोबांनी पप्पांना दिला आणि तो मात्र त्यांनी प्रेमादर भावनेने स्वीकारला.
अर्थात इतक्या सुंदर घरात आमचं वास्तव्य असणार आहे यापुढे, ही कल्पना आम्हा सर्वांसाठी आनंदाची नक्कीच होती पण धोबी गल्लीचा निरोप घेताना मात्र फार म्हणजे फार जड गेले. हृदयाचा एक कप्पाच बंद झाल्यासारखे वाटले. ज्या वास्तूने, ज्या गल्लीने आम्हाला जन्मापासून घडवलं त्या सर्वांचा निरोप घेणं हे मुळीच सोपं नव्हतं याची जाणीव वास्तूचा उंबरठा ओलांडल्यानंतर पिळवटून गेली. काही जुनं सामान आम्ही त्याच घरात सोडून दिलं होतं पण एक दिवस जीजी एकटीच त्या घरी गेली आणि एका हातगाडीवरून ते सारं सोडलेलं सामान घेऊन आली. खरंच तेव्हा कळलं! ” महत्त्वाचं सामान नसतं, महत्त्वाच्या असतात त्या आठवणी! ”
आजही जीजी, हातगाडी आणि ते जुने सामान माझ्या नजरेसमोर अनेक वेळा येतं.
एकच नव्हे तर पुढील आयुष्यात अनेक घरात मी राहिले. लग्नानंतरचे, सासरचे वाडा स्वरूप घर, त्यानंतर व्यवसायासाठी आम्ही दोघं जळगावला आलो तिथलं भाड्याचं वन बीएचके घर, नंतरचे आम्ही स्वतः बांधलेलं घर, मुलींची परदेशातील विदेशी धाटणीची प्रशस्त घरे आणि आता उतार वयातलं सह्याद्रीच्या कुशीतलं पुण्यातलं घर…… , इतकी सारी घरं असताना सुद्धा अगदी आज पर्यंत माझ्या स्वप्नात जर कुठलं घर येत असेल तर ते फक्त आणि फक्त धोबी गल्लीतलंच घर. तो जिना, तो उंबरठा, तो पायरीवरचा नळ, मागच्या गॅलरीत वाळत घातलेल्या ओल्या कपड्यांचा वास आणि कितीतरी…
लिहिता लिहिता थोडी भरकटले कारण आज डोक्यात एक निराळाच विषय घेऊन लिहायला बसले होते.
तर आयुष्याचा एक टप्पा पूर्णपणे ओलांडला होता शिक्षण ही संपलं होतं. पुढे काय करायचं याचा निर्णय व्हायचा होता. सुरुवातीपासूनच आमच्या घरात, “तुम्ही तुमचे निर्णय स्वतंत्रपणे घ्यावेत” हाच जीवनाचा कन्सेप्ट होता. त्याप्रमाणे अजून पुढचे शिक्षण किंवा विवाह यामधला एक पर्याय मी निवडला तो म्हणजे नोकरी करणे.
त्या वेळी टक्केवारीनुसार अधिकतर स्त्रिया गृहिणी होत्या. नोकरी करणार्या स्रियांची संख्या खूप जास्त नव्हती.
पण कसे कोण जाणे मला लहानपणापासूनच वाटायचे आपण नोकरी करायची. पैसे कमवायचे.
म्हणजे आर्थिक सक्षमता वगैरे विचार नव्हते त्यामागे पण आपण कमावलेले पैसे, ते मनासारखे खर्च करायचे,
त्याचा कुणी हिशोब वगैरे विचारण्याचा प्रश्नच नव्हता. या काही भावना मला सुखद वाटायच्या.
शाळेत असताना “खरी कमाई”अंतर्गत मी अक्षरश: कुणाचे अंगण झाडून दिले. कुणाचे तांदुळ निवडून दिले. कुणाच्या झाडांना पाणी घातलं आणि त्यांतून हातात पडणार्या काही नाण्यांची गंमत वाटायची. अर्थात ते पैसे शाळेकडे जमा व्हायचे अन् नंतर धर्मादाय. पण मेहनतीने पैसे कमावण्याचे समाधान वाटायचे.
मी वयाच्या अठराव्या वर्षापासून लहान मोठे समर जाॅब्स् केले. महाविद्यालये, बोर्डाच्या परिक्षांच्यावेळी पर्यवेक्षक
म्हणूनही काम केले. एका तासाला दहा रुपये मिळायचे. त्यावेळी दहा रुपयाला किंमत होती.
तुम्हाला गंमत सांगते, आम्ही लहान असताना मे महिन्याच्या सुट्टीत भाड्याची सायकल फिरवायला दोन आणे लागत. वडीलांशी करार असायचा, “अडीचकं” हा पाढा त्यांना बिनचूक, एका दमात म्हणून दाखवायचा मग ते मला दोन आणे द्यायचे. not a penny less not a penny more.!! खूप मोट्ठी कमाई वाटायची ती मला!!
पण ही सगळी किरकोळ कमाई. मजेची पण स्वत: पैसे मिळवण्याची मानसिकता इथूनच तयार झाली.
मी बी एस्सी झाले आणि घरात जाहीर केले “मी नोकरी करणार. “
बरीच उमेदवारी करावी लागली. अर्ज भरा, लेखी परीक्षा द्या, मुलाखतींना जा. पूर्व अनुभव नाही म्हणून नकारही पचवले. सुरवातीला मी रसायनशास्त्रातील पदवीधर म्हणून केमीकल इंडस्ट्रीत केमीस्ट म्हणून नोकरी शोधण्याचा प्रयत्न केला. “हेक्स्ट” या विदेशी, औषधांच्या कंपनीत माझी उत्कृष्ट मुलाखतही झाली होती पण एक स्त्री म्हणून मला तो जॉब नाकारण्यात आला आणि माझ्याबरोबर शेवटपर्यंत असलेल्या एका मुलाला नेमणूक पत्र मिळाले. माझा प्रचंड पराभव होता तो! त्याहीपेक्षा मानसिक त्रास टोकाचा झाला. अजूनही वाटतं तेव्हा मला “सुधा मूर्ती”सारखे का होता आले नाही? माझ्यातली मुळातली बंडखोरी अशी लुळीपांगळी का झाली?
आतासारखे रेझ्युमे, सीव्ही, प्रोफाईल वगैरे लिहिण्यासाठी मार्गदर्शन करणार्या संस्था नव्हत्या. माझे आजोबा
बँक आॅफ इंडीयात खूप वरच्या पदावर होते. (Chief Accountant) जरी तेव्हां ते निवृत्त असले तरी त्यांचा दबदबा होता. मी त्यांना सांगितलं, “मला तुमच्या बँकेत नोकरी मिळवून द्या!! “
त्यांनी नुसता नकारच दिला नाही तर ते म्हणाले, ” तू वाणीज्य शाखेची पदवीधर नसल्यामुळे तुला हा जाॅब मिळूच शकणार नाही. ”
पण बँकेच्या नोकरभरती च्या जाहिरातीत अशी कुठलीही अट नव्हती. ” “कुठल्याही शाखेत पदवीधर “एव्हढेच होते पण वशीलेबाजी हा प्रकार तेव्हा नव्हता इतका. त्यातून आजोबांची कठोर आणि कणखर तत्वे पण मीही त्यांचीच नात. त्यांना म्हटले, “तुमच्याच बँकेत मी नोकरी मिळवूनच दाखवेन तुम्हाला. “
अतिशय मेहनत, खटपट, प्रतीक्षा
पण अखेर नोकरी मिळाली. स्वीकारलेल्या आव्हानात यशस्वी झाले!!!
हो! पण त्यातही एक अनपेक्षित अडचण उभी राहिली होती. अंतीम नेमणूकीपूर्वी वैद्यकीय तपासणी होती. आणि त्यात मी चक्क नापास झाले. कुणाला खरंतरी का वाटाव? मी इतकी सुदृढ निरोगी असताना?
पण मला असा शेरा मिळाला. Less vision at left eye so medically unfit. Doctors certificate required.
आभाळ कोसळणं म्हणजे नक्की काय हे अनुभवले पण यावेळी मात्र आजोबा मदतीस धावले. त्यावेळी नेत्रचिकित्सक म्हणून अत्यंत प्रसिद्ध असलेले डॉ. चिटणीस आजोबांचे मित्र होते. त्यांनी नेत्रतपासणी केल्यानंतर सांगितले, ”काहीच मोठा प्राँब्लेम नाही. ही एक टेन्डन्सी आहे. ही मुलगी एकाच डोळ्याने पहाते, वाचते म्हणून हिचा दुसरा डोळा झोपून गेला. “अशी गंमतीदार कोटी करून मला सहजपणे त्यांनी फिटनेस सर्टीफिकेट दिले आणि हातातोंंडाशी आलेला निसटता घास पुन्हा मुखी गेला. गंगेत घोडं नहालं आणि मला नोकरी मिळाली. मात्र एक आणखी पदवीही मिळाली “एकाक्षी”
(हल्ली लहानपणापासून मुलांची नेत्रतपासणी, दंत तपासणी होते.. ही जागरुकता किती प्रशंसनीय आहे)
असो.
पण काय सांगू तुम्हाला जेव्हा माझा पहिला पगार झाला तेव्हाचा आनंद!!
मी आणि माझे वडील व्ही. टी. ते फ्लोरा फाउंटन बसने एकत्र जायचो. दहा पैसे तिकीट होतं. त्यादिवशी वडील म्हणाले, “आज तुझं तिकीट तूच काढायचंस..!”
मी म्हणाले “आज तुमचंही तिकीट मीच काढेन.”
पुढची चाळीस वर्षे मी आर्थिक स्वातंत्र्य उपभोगले….
पैशाची गरज म्हणून मी नोकरी नाही केली.
माझ्या अस्तित्वाची ती गरज होती…..!!
हाती पडलेल्या पहिल्या पगाराने मला माझी भक्कम ओळख मिळाली आणि या ओळखीने मला नेहमीच आत्मविश्वास दिला. जगताना जी निर्भयता लागते ती मला मिळाली हे मात्र निर्विवाद!!