हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नवगीत – सत्य की छाँव ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ☆

सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

परिचय

कवियत्री – सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

संप्रत्ति – सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन।

प्रकाशित पुस्तक – पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह)

पुरस्कार/सम्मान –  कई साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित

? नवगीत – सत्य की छाँव ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ? ?

चौसर की यह चाल नहीं है,

नहीं रकम के दाँव।

अपनापन है घर- आँगन में,

लगे मनोहर गाँव।।

*

खेलें बच्चे गिल्ली डंडे,

चलती रहे गुलेल।

भेदभाव का नहीं प्रदूषण,

चले मेल की रेल।।

मित्र सुदामा जैसे मिलते,

हो यदि उत्तम ठाँव।

*

जीवित हैं संस्कार अभी तक,

रिश्तों का है मान।

वृद्धाश्रम का नाम नहीं है

यही निराली शान।।

मानवता से हृदय भरा है,

नहीं लोभ की काँव।

*

घर-घर बिजली पानी  देखो,

हरिक दिवस त्योहार।

कूके कोयल अमराई में,

बजता प्रेम सितार।।

कर्मों की गीता हैं पढ़ते,

गहे सत्य की छाँव।

*

© सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #208 ☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 206 ☆

☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हर व्यक्ति के अंदर जो परमात्मा के अंश स्वरूप आत्मा विद्यमान है, वह हमारे हर कार्य की साक्षी है और हमें अच्छे बुरे का आभास कराते हुए बुरे कार्य करने से रोकने के लिए प्रेरित भी करती है.! दूसरे शब्दों में हम इसे  विवेक भी कह सकते हैं जो बुरे- भले को कसौटी में कसते हुए,हमें सचेत करता है एवं अच्छाई का मार्ग प्रशस्त करता है.! कुछ लोग इसे वॉइस ऑफ गार्ड भी कहते हैं..!! परंतु यह विवेक या अंतरात्मा व्यक्ति के संस्कारों,पृष्ठभूमि,चरित्र,मानसिकता, एवं धर्म आदि पर निर्भर होती है.!

आजकल राजनीति में अंतरात्मा शब्द का इस्तेमाल बहुत आम हो गया है.! अब इन नेताओ का आए दिन अंतरात्मा की आवाज के नाम पर दल-बदल एवं सिद्धांतों से समझौता करना आम हो गया है.? और आधुनिकता एवं स्वार्थ के इस दौर में हो भी क्यों न.? अब व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करना एवं अपना फायदा पहले देखना क्या कोई बुरी बात है.? नेता ही क्यों किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति को देख लो चाहे वह व्यापारी हो लोकसेवक हों संत हों साधु हों महात्मा हों कितने लोग अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनते हैं.? यदि आसाराम बापू ने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी होती तो आज जेल में नहीं होते.! ना जाने ऐसे कितने बाबा हैं जो अपने तात्कालिक फायदे के लिए, अपनी अंतरात्मा की आवाज को कुचल देते हैं ! आम जिंदगी में यहां हर कोई लूट- खसोट और एक दूजे को बेवकूफ बनाने में लगे हुए.!  अब कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे लोगों की आत्मा मर गई है.? अब इन्हें कौन समझाए कि आत्मा कभी मरती नहीं है..! समाज में चोरी करने वाला भी जानता है कि वह गलत काम कर रहा है ऐसे ही हर गलत काम करने वाला व्यक्ति जानता है कि वह यह अनैतिक,अवैधानिक कार्य कर रहा है.! पर सभी जानते हुए भी यह सब किये जा रहे हैं.? अब यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर इनकी विबसता  क्या है.? इस प्रश्न के जवाब व्यक्ति के हिसाब से अलग-अलग हो सकते हैं.! हालांकि अपने अंतरात्मा की आवाज को दबाने का सिलसिला नया नहीं है.यह प्राचीन काल से ही चला आ रहा है.त्रेता में  रावण,द्वापर में कंस जैसे हर युग में अनेकानेक व्यक्ति हैँ जो विशेष रूप से चर्चाओं के साथ इतिहास का हिस्सा रहे.! कलयुग में तो अब यह आम हो गया है.! स्वार्थ और लोभ इस कदर बढ़ गया है कि व्यक्ति पग पग पर आत्मा की आवाज की अनसुनी कर रहा है.! कहते हैं कुछ तो मजबूरियां रही होंगी यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता.!

राजनीति में तो अंतरात्मा की आवाज बहुत सुनाई देती है और नेता लोग अंतरात्मा की आवाज के नाम पर जब चाहे तब सिद्धांतों से समझौता दल बदल ग्रुप बाजी , आराम से अपनी सहूलियत एवं सुविधाओं के हिसाब से कर लेते हैं.? अभी विगत दिनों राज्यसभा चुनाव में हिमाचल,उत्तर प्रदेश एवं , कर्नाटक में अंतरात्मा की आवाज कहकर पाले बदल लिए.? राजनीति मैं तो अंतरात्मा की आवाज का अपना एक लंबा चौड़ा इतिहास है विभिन्न अवसरों पर संसद एवं विधान सभाओं में अंतरात्मा की आवाज का आव्हान भी किया जाता है और बहुतेरे नेता, इस लालच रूपी आव्हान में अपनी असल आवाज को भूल कर चक्कर में आ जाते हैं.! अब आएं भी क्यों ना उन्हें भी अपने भविष्य के बारे में चिंता करने का अधिकार जो है.? सब कुछ आम लोगों के हिसाब से थोड़ी चलेगा.!! लोग है कि बेवजह है नेताओं को बदनाम करते हैं..! कितने लोग हैं जो अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुन रहे हैं..?  यह तो भला हो नेताओं का जो अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर कुछ तो फैसले कर रहे हैं.!! फिर यह सतयुग थोड़ी ही है जो हर कोई अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन ले.! यह कलयुग है भाई.! यहाँ तो बेटे बाप की नहीं सुनते .? पत्नी पति की नहीं सुनती.,भाई भाई का नहीं सुनता,हर कोई अपनी धुन में अपने हिसाब से जी रहा है.! फिर इस दौर में यदि नेता अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर अपना फायदा खोजते हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है.? अब कुछ विश्लेषक अंतरात्मा की आवाज का भी विश्लेषण करने उतारू हो जाते हैं.! हम तो बस यही कह सकते हैं कि किसी के कृत्यों से अंतरात्मा की आवाज का विश्लेषण करना क्या उचित है. ?

चुनाव के समय भी कई बार मतदाताओं से भी अपील की जाती है कि आप अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करें.! अनेकों बार ऐसा लगता है कि कैसे अपने लक्ष्य को साधने के लिए अंतरात्मा की आवाज के नाम का उपयोग किया जाता है.! पर यह क्या कुछ लोग तो अपनी इस आवाज को ही बेच देते हैं.? आखिर इससे भी तो उन्हें कुछ फायदा तो हुआ ना.!

हमारा तो बस यही कहना है की अंतरात्मा की आवाज की यह सुर्खियां हमेशा बनी रहें और लोग, अपनी अंतरात्मा की आवाज को सतत सुनते भी रहें.! क्योंकि एक यही आवाज है जो आपको अपने असल वजूद का एहसास कराती है.!

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 215 ☆ गाथा तुकोबांची…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 215 – विजय साहित्य ?

☆ गाथा तुकोबांची…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

गाथा तुकोबांची

अमृताची धारा

प्रबोधन वारा

प्रासादिक..! १

*

तुकाराम गाथा

जीवन आरसा

तात्त्विक वारसा

विठू नाम…! २

*

दिली अभंगाने

दिशा भक्तीमय

षडरिपू भय

दूर केले…! ३

*

अभंगांचे शब्द

जणू बोलगाणी

झाली लोकवाणी

गाथेतून…! ४

*

जीवनाचे सूत्र

महा भाष्य केले

भवपार नेले

अभंगाने…! ५

*

तुकाराम गाथा

आहे शब्द सेतू

प्रापंचिक हेतू

पांडुरंग…! ६

*

वाचायला हवी

तुकाराम गाथा

लीन होई माथा

चरणातें…! ७

*

कविराज शब्दी

गाथा पारायण

अंतरी स्मरण

तुकोबांचे..! ८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सखा… ☆ सुश्री मानसी चिटणीस ☆

सुश्री मानसी विजय चिटणीस

? विविधा ?

☆ “सखा…” ☆ सुश्री मानसी विजय चिटणीस

माणूस माणसाशी बोलताना नकळत हातात हात घेतो. सहज कृती आहे ती. जसा सहज श्वास घेतो तसा सहज जगू शकतो का ? याचे उत्तर बहुधा नाही असेच आहे. जगणे सोपे व्हावे म्हणून प्रत्येकालाच एक मितवा हवा असतो. तो प्रसंगी मित्र , तत्वज्ञ किंवा वाटाड्या, मार्गदर्शक होवू शकेल असा कोणीही आपल्याला हवाच असतो. बरेचदा काय होते , आयुष्यातला प्रॉब्लेम जेवढा मोठा तेवढे समोरचे आव्हान मोठे वाटू लागते. आव्हान आपल्या अहंकारला सुखावण्यासाठीच असते. मुळात अहंकार नसतोच पण तो निर्माण केला जातो. यात मुख्य सहभाग त्या लोकांचा असतो जे त्यांना स्वत:ला आपले हितचिंतक मानतात. एखाद्या छोट्या गोष्टीला डोंगराएवढी करण्यात त्यांचा पुढाकार असतो,  Psychoanalyst, गुरु मंडळी, तत्ववेत्ते तुमच्या नसलेल्या problems ना अस्तित्व देतात नाहीतर त्यांचे अस्तित्व धोक्यात येऊ लागेल. अडचणीत जर कोणी आलेच नाही तर ते मदत कोणाला करणार? हा ही प्रश्न उरतोच. खरेतर नक्की काय शोधत असतो आपण? नेमके काय हवे असते आपल्याला? याचा विचार का करत नाही आपण? आपण जे पचायला सोपे ते आणि तेवढेच स्वीकारतो आणि जे पटत नाही ते सोडून देतो. बरेचदा सरावाने आपल्याला कळत जाते काय घ्यायचे आणि काय नाही,  पण त्यातही आपली कुवत आड येतेच.

आपण सारेच तसे अर्जुन असतो.आपापल्या कुरूक्षेत्रांवर लढण्यासाठी ढकलले गेलेले अर्जुन..आणि प्रत्येकाला कोणी कृष्ण भेटतोच असे नाही.म्हणून आपल्याला स्वतःमधला कृष्ण  चेतवावा लागतो परिस्थितीप्रमाणे.. कृष्णच का ??..तर कृष्ण ही वृत्तीची तटस्थता आहे.आपल्या वर्तनाचा त्रयस्थ राहून विचार करणारी.स्वतःला ओळखण्यासाठी त्रयस्थ व्हा..आरसा व्हा स्वतःचाच ..” प्रत्येकात कृष्ण असतोच .तो कोणाला सापडतो , कोणाला भासमान दिसतो , कोणी कृष्ण होतो तर कोणी कृष्णमय…” अर्जुनालाही कृष्णमय व्हावे लागले तेव्हाच त्याला महाभारतीय युद्धाची आवश्यकता , त्यासाठीचे त्याच्या स्वतःच्या अस्तित्वाचे असणे उमजले…” कृष्णायन ”

पण कृष्णायन म्हणजे गीता नव्हे.स्वतःला ओळखणे , स्वतःच्या अस्तित्वाचा हेतू ओळखणे , स्वतःच्या कोषातून बाहेर काय आहे याची जाणिव होणे म्हणजे गीता.एखादा कोणी जेव्हा म्हणतो की तुझ्याकडे कोणतीच कसलीच प्रतिभा नाही..तेव्हा हा विचार करावा कृष्णाने सांगीतलेला..दुस-या कोणापेक्षा तुम्ही स्वतः स्वतःला जास्त ओळखू शकता..तुमची ताकद , तुमची मर्यादा तुम्हाला माहिती हवी..असे कोणी म्हणल्याने तुमच्याकडे काही येत नाही तसे जातही नाही.ते असतेच अंगभूत.. माऊलींनी देखील स्वतःचा स्वतःमध्ये लपलेल्या अर्जुनापासून विलग होऊन कृष्णरुप होण्याचा प्रवासच जणु ज्ञानेश्वरीत मांडला आहे. आपल्याला काय काय हवे आहे ह्याची बकेट लिस्ट  नक्कीच करावी. पण आपल्याकडे काय काय आहे आणि नाही  हे आपल्याला कळले आहे का ह्याची लिस्टही जरुर करावी आणि ह्या कळण्यातही किती वाढ झाली हे पण पहावे. आपल्याकडे असलेल्याचा वापर आपण कसा करतो यावर आपले व्यक्तिमत्व घडते. “माझ्याबाबतीच असे का होते”? “त्याला मिळू शकते तर मग मला का नाही”?  असे प्रश्न पडत असतील तर आपल्याकडे काय आहे हे आपल्याला कळलेच नाही हे पक्के ओळखावे. आयुष्य अनुभवानी आपल्याला समृद्ध करत असते. आणि श्रीमंत ही ! आपले असमाधान आपल्या अपेक्षांना जन्म देते त्यामुळे असे असमाधानी असण्यापेक्षा अप्रगतच असणेच  बरे नाही का?

चोरी फक्त गरजा भागवण्यासाठीच केली जाते असे नाही होत.  काहीजण गरजा लपवण्यासाठीही चोर्‍या  करतात. उघडपणे केले तर समाज बहिष्कृत करेल या भितीने चोरुन करतात. काय हवे,  काय नको हेच साठत जाते नंतर. काय हवे आहे आणि का हवे आहे  ह्याचा विचारच करायला विसरतो आपण. हे नाही, हे सुध्दा नाही. असे सगळेच नाकारून पहा एकदा, सर्व नकार संपले. . . की एक आणि एकच होकार उरेल. हेच हवे असते आपल्याला.  हेच असते आपले खरे सत्य, सत्व आणि अस्तित्व. मानवी प्रयत्न , मानवी जीवन , मानवी आकांक्षा या सर्वांमध्ये ..यासाठी प्रयत्न करणा-या व्यक्ती अविस्मरणीय ठरतात आणि त्या व्यक्तींच्या आयुष्याचा परिपाक आपल्याला मानवतेच्या छटांचे दर्शन घडवत राहतो….” पिंडी ते ब्रम्हांडी ” जे मनात उपजते तेच आपण अंगिकारतो.हिग्ज बोसाॅन , क्वांटम थिअरी , ब्लॅक होल या संकल्पना ज्ञानेश्वरांनी अभ्यासल्या होत्या  की नाही हे माहिती नाही पण  ” मी विश्वरुप आहे ” ही कल्पना त्यांनी प्रत्यक्षात आणली.प्रत्येकाने आहे आणि नाही यामधला अवकाश समजून घेतला पाहिजे ही जाणिव जिथे उमगते…तिथे कृष्ण भेटतो. ….

घनसावळ्या….

अजूनही थिरकतात मीरेची पावलं

तुझ्या त्या मुरलीच्या स्वरांवर

आजही बावरी होते राधा

तुला कदंबाखाली शोधताना

राधा काय किंवा  मीरा काय

तुझीच रुपं अद्वैत 

तू जादुगार. ..

बांबूच्या  पोकळीत स्वर गुंफून त्यांना सजीव करणारा

तुझ्या वेणुच्या स्वरांतून जन्मतात मानवी देहाचे

षड्ज

तू निराकार , साकार ,सगुण, निर्गुण

तूच सर्वत्र

तूच आदिम तूच अंतिम सोहळा

हे घनसावळ्या. …….

© सुश्री मानसी विजय चिटणीस

केशवनगर, चिंचवड, पुणे. फोन : ०२०२७६१२५३१ / ९८८११३२४०७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सहावा — आत्मसंयमयोग — (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सहावा — आत्मसंयमयोग — (श्लोक ३१ ते ४०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३१ ॥

*

प्राप्त करूनी ऐक्यत्व भजितो मज सकल जीवात

समस्त कृती तयाची साक्ष होते सदैव हो माझ्यात ॥३१॥

*

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ ६-३२ ॥

*

सकल प्राणिमात्रात पार्था देखितो निज रूप

सुखदुःख सर्व जीवांचे जाणतो अपुल्यासमान

साक्षात्कार तयाला जाहला आत्म्याच्या अद्वैताचा

शिरोमणी त्या परम मानिती समस्त श्रेष्ठ योग्यांचा ॥३२॥

*

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥ ३३ ॥

कथित अर्जुन

कथन केलासी हे कृष्णा योग समदृष्टीचा

मला न उमगे चंचलतेने माझिया मनाच्या ॥३३॥

*

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्‍दृढम्‌ ।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥ ३४ ॥

*

विकार मनासी सदैव असतो चंचलतेचा 

स्वभाव त्याच्या ठायी मंथन करण्याचा

बलशाली दृढ मनाचा कसा करू निग्रह

पवनासी थोपविणे ऐसे हे कृत्य दुष्कर ॥३४॥

*

श्रीभगवानुवाच

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ६-३५ ॥

*

कथित श्रीभगवंत

महावीरा अवखळ चंचल  निःसंशय हे मन 

वैराग्यप्रयासे तया अंकुश जाणी रे अर्जुन ॥३५॥

*

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ३६ ॥

*

मना ना करि अंकित अपुल्या दुष्प्राप्य तयासी योग

वश करुनी मना प्रयत्ने सहज साध्य तयासी योग ॥३६॥

*

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ३७ ॥

*

कथित अर्जुन

योगावरती मनापासुनी असुनी श्रद्धा केशवा

नसल्याने संयम मनावर विचलित अंतःकाळी 

योगसिद्धी तयासी अप्राप्य तसाचि राही वंचित

गती काय तयासी भगवंता अंतिम होते प्राप्त ॥३७॥

*

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ ६-३८ ॥

*

मार्गावरती ब्रह्मप्राप्तीच्या झाला मोहित

निराधार मार्गास चुकोनी राही जो भरकटत

जलदासम तो व्योमामधल्या दो बाजूंनी भ्रष्ट

होउन जातो का श्रीकृष्णा होत्याचा तो नष्ट ॥३८॥

*

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥ ३९ ॥

*

किल्मिष माझ्या मनातील निवारण्या तू समर्थ

नष्ट करण्या संशयास मम दुजा नसे संभवत ॥३९॥

*

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्‍दुर्गतिं तात गच्छति ॥४० ॥

*

कथित श्रीभगवंत

इहलोकी वा परलोकी त्याचा नाश न होत

सत्कर्मास्तव कर्मरत तया दुर्गती न हो प्राप्त ॥४०॥

– क्रमशः अध्याय सहावा

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 138 ☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सेंध दिल में। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 138 ☆

☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

फ्लैट का दरवाजा खोलकर अंदर आते ही उसकी नजर सोफे पर रखी लाल रंग की साड़ी पर पड़ी। उसने पास जाकर देखा ‘अरे! यह कितनी सुंदर साड़ी है। लाल रंग पर सुनहरा बार्डर कितना खिल रहा है, चमक भी कितनी है साड़ी में। सुनहरे बार्डरवाली लाल साड़ी तो मुझे भी चाहिए। कब से दिल में है पर पैसे ना होने से हर बार मन मसोसकर रह जाती हूँ। ’ – उसने मन ही मन सोचा।

मालकिन के फ्लैट की चाभी उसी के पास रहती है पर वह घर की किसी चीज को कभी हाथ नहीं लगाती। ‘अपनी इज्जत अपने हाथ’ लेकिन आज साड़ी पर नजर पड़ी तो मानों अटक ही गई। काम करते-करते भी उसकी आँखें उसी ओर चली जा रही थीं। ‘आज क्या हो गया उसे?’ उसने अपने मन को चेताया ‘अरे! कमान कस!’। काम निपटाती जा रही थी लेकिन मन बेलगाम घोड़े की तरह उस साड़ी की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।

‘साड़ी को एक बार हाथ से छूकर देखने का बहुत मन हो रहा है। ‘

‘ठीक नहीं है ना! मालकिन की किसी चीज को हाथ लगाना। ‘

‘पर कौन-सा पहन के देख रही हूँ साड़ी को, बस हाथ से छूकर देखना ही तो है’ – उसका मन तर्क–वितर्क करने लगा।

उसने धीरे से पैकेट खोलकर साड़ी निकाल ली- ‘अरे! कितनी मुलायम है, रेशम हो जैसे, सिल्क की होगी जरूर, बहुत महँगी भी होगी। मेमसाहब ऐसी ही साड़ी तो पहनती हैं’। साड़ी हाथ में लेकर वह आईने के सामने खड़ी हो गई। मन फिर मचला- ‘एक बार कंधे पर डालकर देखूँ क्या, कैसी लगती है मुझ पर? हाँ तह नहीं खोलूंगी, बस ऐसे ही डाल लूंगी। ‘ बड़े करीने से अपने कंधे पर साड़ी डालते ही वह चौंक गई –‘ओए! कितनी सुंदर दिख रही है मैं इस सिलक की लाल साड़ी में, गजब खिल रहा है रंग मुझ पर। ‘ खुशी से पागल- सी हो गई किसी को दिखाने के लिए, कैसे बताए कि वह इतनी सुंदर भी दिखती है। ‘बाप रे! सिलक की साड़ी की कैसी चमक है, मेरे चेहरे की रंग-रौनक ही बदल गई। इतनी अच्छी तो कभी दिखी ही नहीं, अपनी शादी में भी नहीं। ‘ हाथ मचलने लगे फोन उठाने को, ‘पति को एक वीडियो कॉल कर लूँ? नहीं-नहीं, वह नाराज होगा उसने पहले ही कहा था कि ‘साहब के घर कोई लोचा नहीं माँगता’, फिर क्या करे? अच्छा एक फोटो तो खींच ही लेती हूँ, पर क्या फायदा किसी को दिखा तो नहीं सकती?सबको पता है मेरी हैसियत।

 ‘किसी को नहीं दिखा सकती तो क्या, खुद तो देखकर खुश हो सकती हूँ?’ मालकिन की बड़ी ड्रेसिंग टेबिल के सामने जाकर वह खड़ी हो गई। आत्ममुग्ध हो खुशी में गुनगुनाने लगी। उसने आईने में स्वयं को भरपूर नजरों से देखा जैसे अपने उस रूप को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो। वह जैसे अपनी ही आँखों में उतरती चली गई। पर तभी न जाने उसे क्या हुआ अचानक विचलित हो खुद पर बरस पड़ी -‘अरे! क्या कर रही है?मत् मारी गई है क्या? संभाल अपने मन को।

‘मैं तो बस साड़ी को छूकर देखना चाह रही थी- – कभी देखी नहीं ना, ऐसी साड़ी- वह मायूसी से बोली। ‘

‘माँ की बात याद है ना! एक छोटी-सी गलती इज्जत मिट्टी में मिला देती है। ‘

वह झटके से आईने के सामने से हट गई। बचपन में माँ ने दिल की जगह पत्थर का टुकड़ा लगा दिया था यह कहकर कि ‘लड़की जात और ऊपर से गरीब, गम खाना सीख। ‘

आज पत्थर दिल में सेंध लग गई थी?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा

बहुत ही लोकप्रिय शब्द है प्रजातंत्र, कुछ भी करो सब जायज हो जाता है आखिर प्रजा की ताकत तो राजतंत्र से ही चली आ रही है। चुनाव के समय पर इसकी पूछ – परख कुछ ज्यादा ही होती है। एक साहित्यिक गोष्ठी चल रही थी उसमें परजा को लेकर एक से एक विचार आने लगे एक ने कहा पर जा अर्थात दूर हो जा तो दूसरे ने चौका मारते हुए कहा पर होते तो उड़ न जाते। तीसरे ने भी शब्दों का छक्का जड़ते हुए कहा, बिन पर जा राजा की भी कोई कीमत नहीं होती।

पर, किन्तु, परन्तु से लोग त्रस्त ही रहते हैं। पर इसकी शक्ति का कोई सानी नहीं होता तभी तो इनकी शक्ति का लोहा बड़े- बड़े वीरों को भी मानना पड़ा। पर जब भी उपसर्ग के रूप में आया तब उसने अपने से जुड़े हुए शब्द को महान बना दिया।

अब तो तीनों तरकश से परजा की तारीफ में तीर निकलने लगे किसी ने अपने गुरु को याद किया तो किसी ने गुरु घण्टाल को तो किसी ने एकता की शक्ति में भक्ति को समाहित करते हुए मुक्तक के तार छेड़ दिए। आस-पास बैठे लोग भी खुश हुए चलो कुछ तो हाथ लगा दिन भर से पर फड़फड़ा रहे थे अब जाकर दाना पानी हाथ लगा आखिर समय और निष्ठा की भी तो कोई ताकत होती है।

चुनावी जोड़तोड़ से कोई भी अछूता नहीं है जिसे जहाँ मन आ रहा है वहीं की राह पकड़ने लगा है। कोई भक्ति की शक्ति में डूबकर शक्ति प्रदर्शन करता है तो कोई कुर्सी की आशक्ति में बिना सिर पैर की कोशिश कर रहा है।कोशिशें वही कामयाब होंगी जिसमें सर्वजन हिताय का भाव हो। दूरदर्शिता के साथ आगे बढ़िए विश्व आपकी अगुआई चाहता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 270 ☆ व्यंग्य – लंदन से 6 – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – लंदन से 6 – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है !

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 270 ☆

? व्यंग्य – ये जो कुछ “ई” है वह ही सदा साथ है ! ?

पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं च धनम् |

कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||

अर्थ – यह है कि पुस्तक में रखा ज्ञान तथा दूसरे के हाथ में दिया गया धन, ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम के नहीं होते

यह चाणक्य के समय की बात थी, जो तब शाश्वत सत्य रही होगी।

अब इस नीति में अमेंडमेंट की आवश्यकता है। मोबाइल हाथ में हो, और इंटरनेट हो तो गूगल का ज्ञान और ई बटुए का धन ही नहीं, ई मेल में पड़े रिफरेंस, डिजिटल डाक्यूमेंट, फोटो गैलरी के फोटो, कांटेक्ट लिस्ट के नंबर, एड्रेस, बैंक एकाउंट, सब कुछ काम का होता है। बल्कि यूं कहना ज्यादा सही है की जो कुछ “ई” है, आज वह ही सोते, जगते, उठते बैठते, घर बाहर, हर कहीं सदा साथ होता है।

देश विदेश की यात्रा करते हुए न तो सारे सहेजे हुए फिजिकल डाक्यूमेंट्स और न ही एल्बम तथा विजिटिंग कार्ड्स होल्डर लेकर चल पाते हैं न ही पास बुक और चैक बुक किसी काम आते हैं।

आवश्यकता इंस्टेंट होती है, तब ई डाक्यूमेंट्स एक सर्च पर खुल जाते हैं। दुनियां में कहीं भी हों नेट बैंकिंग ही रूपयो के लेन देन में काम आती है। खुल जा सिम सिम के जप की तरह पासवर्ड डालते ही एप ओपन हो जाते हैं और वह सब जो “ई” है न वह सेवा में हाजिर मिलता है। याददाश्त में पासवर्ड गुम भी हों तो मोबाइल आपका चेहरा देखकर खुल जाता है और स्कैनर पर फिंगर प्रिंट्स लगाते ही आप मनचाही वेबसाइट खोल पाते हैं।

मुझे तो लगता है कि ” ई ” ईश्वर सा ही है जो सर्व व्यापी है। ईश्वर की कल्पना स्वर्ग में होने की है। स्वर्ग की परिकल्पना बादलों के पार कहीं आकाश में की गई है। ये जो सदा साथ रहने वाला “ई” है वह भी क्लाउड स्टोरेज में रहता है। आप कहीं भी हों, क्लोज सर्किट कैमरों की मदद से घर दफ़्तर जहां चाहें पहुंच जाते हैं। कैमरों के क्लाउड स्टोरेज से घर बाहर के बीते हुए पल भी फिर फिर देख सकते हैं।

इधर जूम या गूगल पर वर्चुअल सेमिनार खत्म होता है और क्लिक करते ही ई सर्टिफिकेट जनरेट होकर मेल बाक्स में हाजिर हो जाता है।

हर चैट बोट पर कोई ई सहायक ईवा, दिया, सिया, 24 घंटे सेवा में समर्पित है।

ई वीजा, ई पासपोर्ट, ई सर्टिफिकेट, ई कामर्स, ई पत्रिका, ई अखबार, ई बुक्स, ई राइटिंग, और ई रेटिंग, ई वोटिंग वगैरह वगैरह है। जमाना ई का है, पर ई डेटिंग से जनरेटेड दिल की अहसासी फाइल अभी भी भौतिक स्पर्श की ही भूखी है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #40 ☆ कविता – “हमें बेवफा न समझना…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 40 ☆

☆ कविता ☆ “हमें बेवफा न समझना…☆ श्री आशिष मुळे ☆

हमें बेवफा न समझना

हम तलाश जो कर रहे है

तुम अब तुम नहीं रही

हम तुम्हें ही ढूंढ़ रहे है

 *

कितनी जिंदा थी तुम

ये सोच कर मर जाते है हम

अब सामने दिखती नहीं

ये देखकर खो जाते है हम

 *

कभी इसमे कभी उसमे

तुम झलक दिखलाती हो

ए मेरे इश्क़ की दास्तां

यूं टुकड़ों में क्यों मिलती हो

 *

जिस्म तो आज भी तुम्हारा

मगर रूह अब तुम्हारी नहीं

हमने प्यार रूह से किया था

तुम्हारे जिस्म से नहीं

 *

था एक जमाना तुम्हारी रोशनी का

जब सूरज डूबता नहीं था

आज भी खोई किरणों से रोशन

चांद भी कभी बेवफा नहीं था

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 197 ☆ बाल पहेली कविता – बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 197 ☆

☆ बाल पहेली कविता – बूझो तो जानें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

 जिसको आज बचाना हमको

उसमें रहते हाथी शेर।

कंद – मूल फल मिलते उसमें

किस्म – किस्म के होते पेड़।।

 *

जिसमें रहे चालाक लोमड़ी

जिसमें रहता है चीता।

रहे भेड़िया और तेंदुआ

कोई नहीं पढ़े गीता।।

 *

जो विवेक और बल से जीए

वह ही उसमें रहे सुरक्षित।

जो समूह में मिल जुल रहता

रहे मजे से वही सुमित।।

 *

लंगूरों की धमाचौकड़ी

उसमें रहते सेई , अजगर।

सदा आग से उसे बचाएँ

वह ही ऑक्सीजन का घर।।

 *

बोलो बच्चो क्या हम कहते

हिंदी में क्या – क्या हैं नाम?

अंग्रेजी में क्या हम कहते

वह सबके ही आता काम।।

  

उत्तर – जंगल,वन,कानन, अरण्य हिन्दी में और अंग्रेजी में फोरेस्ट कहते हैं।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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