डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सेंध दिल में। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 138 ☆

☆ लघुकथा – सेंध दिल में ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

फ्लैट का दरवाजा खोलकर अंदर आते ही उसकी नजर सोफे पर रखी लाल रंग की साड़ी पर पड़ी। उसने पास जाकर देखा ‘अरे! यह कितनी सुंदर साड़ी है। लाल रंग पर सुनहरा बार्डर कितना खिल रहा है, चमक भी कितनी है साड़ी में। सुनहरे बार्डरवाली लाल साड़ी तो मुझे भी चाहिए। कब से दिल में है पर पैसे ना होने से हर बार मन मसोसकर रह जाती हूँ। ’ – उसने मन ही मन सोचा।

मालकिन के फ्लैट की चाभी उसी के पास रहती है पर वह घर की किसी चीज को कभी हाथ नहीं लगाती। ‘अपनी इज्जत अपने हाथ’ लेकिन आज साड़ी पर नजर पड़ी तो मानों अटक ही गई। काम करते-करते भी उसकी आँखें उसी ओर चली जा रही थीं। ‘आज क्या हो गया उसे?’ उसने अपने मन को चेताया ‘अरे! कमान कस!’। काम निपटाती जा रही थी लेकिन मन बेलगाम घोड़े की तरह उस साड़ी की ओर ही खिंचा चला जा रहा था।

‘साड़ी को एक बार हाथ से छूकर देखने का बहुत मन हो रहा है। ‘

‘ठीक नहीं है ना! मालकिन की किसी चीज को हाथ लगाना। ‘

‘पर कौन-सा पहन के देख रही हूँ साड़ी को, बस हाथ से छूकर देखना ही तो है’ – उसका मन तर्क–वितर्क करने लगा।

उसने धीरे से पैकेट खोलकर साड़ी निकाल ली- ‘अरे! कितनी मुलायम है, रेशम हो जैसे, सिल्क की होगी जरूर, बहुत महँगी भी होगी। मेमसाहब ऐसी ही साड़ी तो पहनती हैं’। साड़ी हाथ में लेकर वह आईने के सामने खड़ी हो गई। मन फिर मचला- ‘एक बार कंधे पर डालकर देखूँ क्या, कैसी लगती है मुझ पर? हाँ तह नहीं खोलूंगी, बस ऐसे ही डाल लूंगी। ‘ बड़े करीने से अपने कंधे पर साड़ी डालते ही वह चौंक गई –‘ओए! कितनी सुंदर दिख रही है मैं इस सिलक की लाल साड़ी में, गजब खिल रहा है रंग मुझ पर। ‘ खुशी से पागल- सी हो गई किसी को दिखाने के लिए, कैसे बताए कि वह इतनी सुंदर भी दिखती है। ‘बाप रे! सिलक की साड़ी की कैसी चमक है, मेरे चेहरे की रंग-रौनक ही बदल गई। इतनी अच्छी तो कभी दिखी ही नहीं, अपनी शादी में भी नहीं। ‘ हाथ मचलने लगे फोन उठाने को, ‘पति को एक वीडियो कॉल कर लूँ? नहीं-नहीं, वह नाराज होगा उसने पहले ही कहा था कि ‘साहब के घर कोई लोचा नहीं माँगता’, फिर क्या करे? अच्छा एक फोटो तो खींच ही लेती हूँ, पर क्या फायदा किसी को दिखा तो नहीं सकती?सबको पता है मेरी हैसियत।

 ‘किसी को नहीं दिखा सकती तो क्या, खुद तो देखकर खुश हो सकती हूँ?’ मालकिन की बड़ी ड्रेसिंग टेबिल के सामने जाकर वह खड़ी हो गई। आत्ममुग्ध हो खुशी में गुनगुनाने लगी। उसने आईने में स्वयं को भरपूर नजरों से देखा जैसे अपने उस रूप को आँखों में कैद कर लेना चाहती हो। वह जैसे अपनी ही आँखों में उतरती चली गई। पर तभी न जाने उसे क्या हुआ अचानक विचलित हो खुद पर बरस पड़ी -‘अरे! क्या कर रही है?मत् मारी गई है क्या? संभाल अपने मन को।

‘मैं तो बस साड़ी को छूकर देखना चाह रही थी- – कभी देखी नहीं ना, ऐसी साड़ी- वह मायूसी से बोली। ‘

‘माँ की बात याद है ना! एक छोटी-सी गलती इज्जत मिट्टी में मिला देती है। ‘

वह झटके से आईने के सामने से हट गई। बचपन में माँ ने दिल की जगह पत्थर का टुकड़ा लगा दिया था यह कहकर कि ‘लड़की जात और ऊपर से गरीब, गम खाना सीख। ‘

आज पत्थर दिल में सेंध लग गई थी?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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