हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #8 – आपदा प्रबंधन ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज आठवीं  कड़ी में प्रस्तुत है “आपदा प्रबंधन ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 8 ☆

 

☆ आपदा प्रबंधन ☆

 

आपदा प्रबंधन का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि आज अनेक संस्थायें इस विषय में एम.बी.ए. सहित अनेक पाठ्यक्रम चला रहे हैं।  जापान या अन्य विकसित देशों में आबादी का घनत्व भारत की तुलना में बहुत कम है। अतः वहाँ आपदा प्रबंधंन अपेक्षाकृत सरल है। हमारी आबादी ही हमारी सबसे बड़ी आपदा है, किन्तु , दूसरी ओर छोटे-छोटे बिखरे हुए गांवों की बढी संख्या से बना भारत हमें आपदा के समय किसी बडे नुकसान से बचाता भी है।

आम नागरिकों में आपदा के समय किये जाने वाले व्यवहार की शिक्षा बहुत आवश्यक है। संकट के समय संयत व धैर्यपूर्ण व्यवहार से संकट का हल सरलता से निकाला जा सकता है। नये समय में प्राकृतिक आपदा के साथ-साथ मनुष्य निर्मित यांत्रिक आकस्मिकता से उत्पन्न दुर्घटनाओं की समस्यायें बड़ी होती जा रही है। जैसे भोपाल गैस त्रासदी हुई थी तथा हाल ही जापान में न्यूक्लियर रियेक्टर में विस्फोट की घटना हुई है। खदान दुर्घटनायें, विमान, रेल व सडक दुर्घटनायें, आंतकवादी तथा युद्ध की आपदायें हमारी स्वंय की तेज जीवनशैली से उत्पन्न आपदायें है। प्राकृतिक आपदाओं में बाढ, चक्रवात, भूकंप, सुनामी, आग की दुर्घटनायें सारे देश में जब-तब होती रहती हैं। इनसे निपटने के लिये सामान्य प्रशासन, पुलिस, अग्निशमन व स्वास्थ्य सेवाओं को ही सरकारी तौर पर प्रयुक्त किया जाता है। जरूरत है कि आपदा प्रबंधंन हेतु अलग से एक विभाग का गठन किया जाये।

फायर ब्रिगेड व एम्बुलेंस से झूठी खबरों के द्वारा मजाक करना, लोगो के असंवेदनशील  व्यवहार का प्रतीक है। भेड़िया आया भेड़िया आया वाला मजाक कभी बहुत महँगा  भी पड़ सकता है। इंटरनेट, मोबाइल व रेडियो के माध्यम से आपदा प्रबंधंन में नये प्रयोग किये जा रहे हैं। हमें यही कामना करनी चाहिए कि आपदा प्रबंधंन इतना सक्षम हो जिससे दुर्घटनायें हो ही नहीं।

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-7 – अभंग – आम्ही वारकरी ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। अब आप उनकी अतिसुन्दर रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित  “अभंग – आम्ही वारकरी”।)

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #-7 ? 

 

? अभंग – आम्ही वारकरी ?

(अभंग- 6 6 6 4)

नित्य नेम वारी।

पावन पंढरी।

आम्ही वारकरी।

पंढरीचे।

 

वारीची पताका।

ऐक्याचा संदेश।

जात, धर्म, वेश।

एक आम्हा।

 

पवित्र तुळस।

मांगल्य कळस।

सोडून आळस।

घेऊ डोई।

 

टाळ विणा करी।

नाद गगनांतरी।

विठाई आंतरी।

अखंडीत

 

वैष्णवांची भक्ती ।

अलौकिक शक्ती।

कलीची आसक्ती ।

व्यर्थ जाय।

 

नामामृत गोडी।

चाखतो आवडी।

ध्यास घडोघडी

माऊलींचा।

 

निर्गुण माऊली।

भक्तांची सावली।

संकटी धावली।

सर्वकाळ।

 

संत सज्जनास।

आस ही मनास।

द्वैत बंधनास।

तोडी वारी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #5 – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

इस आलेख को हम देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी के पावन पर्व पर साझा करना चाहते थे। किन्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है कि- आपको यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धितसमस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के  विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा।)

??  मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि वारी पर बनाई गई फिल्म और इस लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

– संजय  भारद्वाज  ????

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 5 ☆

 

☆ वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆

 

 

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों  से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’

चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी.  की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।

वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-

  • विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
  • 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है।  ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
  • सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
  • रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
  • रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
  • हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
  • एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
  • वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
  • जाने एवं लौटने की 33 दिनों की  यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
  • इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक   व्यवहार होता है।
  • हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
  • एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
  • रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।

हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।

  • एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
  • गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
  • नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’  का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।

वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत   जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

  • आनंद का असीम सागर है वारी..
  • समर्पण की अथाह चाह है वारी…
  • वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
  • जन्म से मरण तक की वारी…
  • मरण से जन्म तक की वारी..
  • जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।  विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में -महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

 

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 8 – लघुकथा – तरक़ीब ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी लघुकथा  “तरक़ीब  ”।  हमारे जीवन में  घटित  घटनाएँ कुछ सीख तो दे ही जाती हैं और कुछ तो तरक़ीब भी सीखा देती हैं।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 8 ☆

 

☆ लघुकथा – तरक़ीब ☆

 

रमेश जी अपने परिवार के साथ प्लेटफार्म पर बैठे थे। गाड़ी का इंतज़ार था। दोनों बच्चे प्लेटफार्म पर धमाचौकड़ी मचाये थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने ‘भूख लगी है’  की टेर लगानी शुरू कर दी। माँ ने टिफिन-बॉक्स खोला और बच्चों को देकर पति की तरफ भी पेपर-प्लेट बढ़ा दी।

रमेश जी के हलक़ तक निवाला पहुँचा होगा कि वे प्रकट हो गये—-तीन लड़कियाँ और दो लड़के, उम्र तीन चार से दस बारह साल के बीच। फटेहाल । करीब पांच फुट की दूरी पर जड़ हो गये। आँखें खाने पर, अपलक। जैसे आँखों की बर्छी भोजन को बेध रही हो।

निवाला रमेश जी के गले में अटक गया। मुँह फेरा तो वे मुँह के सामने आ गये। दृष्टि वैसे ही खाने पर जमी। रमेश जी के बच्चे भी उनकी नज़र देख कौतूहल में खाना भूल गये। रमेश जी गु़स्से में चिल्लाये, लेकिन बेकार। उनकी नज़र यथावत। झल्लाकर रमेश जी ने प्लेट उनकी तरफ ढकेल दी, चिल्लाये, ‘लो, तुम्हीं खा लो।’ वे प्लेट उठाकर पल में अंतर्ध्यान हो गये।

दिमाग़ ठंडा होने पर रमेश जी ने सोचा, यह तरक़ीब अच्छी है। न लड़ना झगड़ना, न चीख़ना चिल्लाना। बस खाना गले में उतरना मुश्किल कर दो । रमेश जी खीझ में हँस कर रह गये।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #12 – अंतर… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  बरहवीं कड़ी अंतर… ।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  आज पढ़िये अंतर… ।  वास्तव  में सम्बन्धों में दूरी एवं मर्यादा  का  स्थान, काल, समय, उम्र एवं जिम्मेवारी का कितना महत्व है  न । फिर उससे भी अधिक सम्बन्धों में  समर्पण की भावना। आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। ) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #12  ?

 

☆ अंतर… ☆

 

कितीक हळवे कितीक सुंदर,

अपुल्यामधले अंतर…

हे गाणं खूप जवळचं आहे… ह्यातील अपुल्यामधले अंतर हे दोन शब्द मनाचा ठाव घेतात… आणि एक प्रकारचं समाधान देऊन जातात…

मैत्रीला जपत असताना, त्या नात्याला फुलवत असताना, दोघांमधील मर्यादा लक्षात घेऊन त्या मर्यादांचा आदर ठेवणे, खरंच वाटतं तेवढं सोपं आहे का?

नक्कीच नाही ! पण स्थळ, काळ, वेळ, वय, जबाबदारी ह्याचं भान ठेवणंही तितकंच महत्वाचं आहे नाही !

हे अंतर जास्त असलं तरी एका हाकेत नष्ट होतं, खूप समजूतदार असतं, खोल असतं, अनेक क्षणांना एकत्रित गुंफलेलं असतं, मनाच्या एका कोपऱ्यात बंदिस्त असतं, ओंजळीत सुरक्षित असतं, बंद डोळ्यात बहरतं, शब्दांमध्ये अबोल असतं, स्वप्नांमध्ये जागं असतं, आठवणींचे झंकार छेडीत स्वरमय होऊन जातं, भरती ओहोटीच्या लाटेवर आरूढ होऊन किनारा शोधत असतं, नदीच्या पाण्याप्रमाणे प्रवाही असतं… !

हे अंतर म्हणजे प्रेमळ मन लागतं, आणि त्यातून निर्माण होणारे समर्पण, अवघ्या विचारधारेला ग्रासून टाकत हृदयस्थ होतं !

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #8 – पगली गलियाँ ☆ – श्री आशीष कुमार

 

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “स्मृतियाँ/Memories”में  उनकी स्मृतियाँ । आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति  पगली गलियाँ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #8 ☆

 

पगली गलियाँ

 

बचपन गुजर भी गया तो क्या हुआ ?
याद वो पगली गलियाँ अब भी आती हैं।

 

क्यों ना हो जाये फिर से वही पुराना धमाल
वही मौसम है, उत्साह है और वही साथी हैं।

 

कल जो काटा था पेड़ कारखाना बनाने के लिए
देखते हैं बेघर हुई चिड़िया अब कहाँ घर बनाती है|

 

गरीब जिसने एक टुकड़ा भी बाँट कर खाया
ईमानदारी उस के घर भूखे पेट सो जाती है |

 

बरसों से रोशन है शहीदों की चिता पर
सुना है इस जलते दिये में वो ही बाती है |

 

© आशीष कुमार  

 

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # 5 ☆ मोहक थेंब ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर
(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हमने  आपका  “साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती” शीर्षक से प्रारम्भ
किया है। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की  हायकू शैली में कविता “मोहक थेंब”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # -5 ☆ 

☆ मोहक थेंब ☆ 

 

मोहक थेंब

पाण्यावर सजला

मनी रुजला ..        १

 

हिरव्या रांनी

थेंबा थेंबा ची नक्षी

निसर्ग साक्षी ..       २

 

भिजती पाने

थेंबांची च साखळी

सुमन कळी ..          ३

 

इवलें थेंब

पानावर हालले

स्मित हासले ..       ४

 

उनाड वर्षा

छेडीताच थेंबांना

शांत राहिना ..        ५

 

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 7 ☆ अबला नहीं सबला ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “अबला नहीं सबला  ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 7 ☆

 

☆ अबला नहीं सबला ☆

 

मैं अबला नहीं

सबला हूँ

पर्वतों से टकराने

सागर की

गहराइयों को मापने

आकाश की

बुलंदियों को छूने

चक्रव्यूह को भेदने

शत्रुओं से लोहा मनवाने

सपनों को हक़ीक़त में

बदलने का

माद्दा रखती हूँ  मैं।

 

क्योंकि, पहचान चुकी हूँ

मैं अंतर्मन में छिपी

आलौकिक शक्तियों को

और वाकिफ़ हूँ मैं

जीवन में आने वाले

तूफ़ानों से

जान चुकी हूँ मैं

सशक्त, सक्षम, समर्थ हूं

अदम्य साहस है मुझमें

रेतीली, कंटीली

पथरीली राहों पर

अकेले बढ़ सकती हूँ  मैं।

 

अब मुझे मत समझना

अबला ‘औ ‘पराश्रिता

जानती हूं मैं

अपनी अस्मिता की

रक्षा करना

समानाधिकार

न मिलने पर

उन्हें छीनने का

दम भरना

सो! अब मुझे कमज़ोर

समझने की भूल

कदापि मत करना।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #5 ☆ भरोसा ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  भरोसा”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #5  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ भरोसा 

 

आज बहुत अरसे बाद मेरी मुलाकात संस्कृति से हुई, उसे देखकर ऐसा लगा जैसे उसके चेहरे की रौनक चली गई हो। हेलो, हाय सामान्य औपचारिकता के बाद हमसे रहा नहीं गया हमने पूछ ही लिया …

“क्या बात है संस्कृति सब ठीक है न, आज कल तुम पहले की तरह चहकती हुई नहीं दिखाई दे रही।”

“नहीं कोई बात नहीं सब ठीक है।”

“इतने बुझे शब्दों में तो तुमने कभी उत्तर नहीं दिया था, आज क्या हो गया? अच्छा संस्कृति मैं सामने ही रहती हूँ, चलो घर बैठकर बात करते हैं।”

“अब तुम नि:संकोच मुझे बताओ, मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

“अब कुछ नहीं हो सकता न ही कोई कुछ कर सकता है, गया हुआ समय वापस नहीं आ सकता।” इतना कहते ही संस्कृति फूट-फूटकर रोने लगी।

हमने कहा “रोओ मत, कहो मन की बात। अब बताओ.”

तुम जानती हो मेरी पक्की दोस्त ख़ुशी को, उसकी नौकरी हमारे ही शहर दिल्ली में लगी। एक रात उसका फोन आया मैं आ रही हूँ, मेरी नौकरी लग गई है बैंक में। यह सुनते ही मैं ख़ुशी से पागल हो गई और कहा – अरे तुम ज़रूर आओ.

मैंने अपने हसबेंड को बताया, ख़ुशी आ रही है। इन्होने भी कहा कोई बात नहीं आने दो तुम्हें भी सहारा मिल जायेगा नए मेहमान आने में ज़्यादा समय नहीं है। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था बहुत बरसों के बाद दो दोस्त मन की बातें करेंगे।

ख़ुशी आई। हमने अपने हसबेंड से मिलवाया, ख़ुशी ने कहा हम आप लोगों की लाइफ को डिस्टर्ब नहीं करेंगे 15 दिनों में हमें घर मिल जायेगा, हम चले जायेंगे। हमने कहा कोई बात नहीं तुम यहां भी रह सकती हो।

एक सप्ताह बाद मेरी तबीयत ख़राब हुई मैं अस्पताल में भर्ती हो गई. डॉ. ने कहा बच्चे को खतरा है, डॉ  ने बहुत कोशिश की पर बच्चा खो दिया, पति ने गुस्से से कहा तुमने मेरे साथ बहुत ग़लत किया। मैं करीब 5 / 6 दिन भर्ती रही और यही सोचती रही बच्चा खोने में मेरी क्या गलती है?

अगले दिन घर पहुंची तो आराम करना ज़रूरी ही था, ख़ुशी मेरी बहुत सेवा करती रही, पर पतिदेव बहुत ही रुष्ट नजर आये। हमने उन्हें बहुत समझाने की कोशिश की पर कोई फर्क नहीं पड़ा। ख़ुशी ने कहा कोई बात नहीं सब ठीक हो जायेगा। इसी आशा से रोते–रोते सो गई जब आँख खुली तो कुछ आवाजें  सुनाई दी। मैं बाहर हॉल में गई तो देखा पतिदेव ख़ुशी के साथ हाथ में हाथ डाले बैठे थे। मैंने कहा ख़ुशी ये क्या?

ख़ुशी के पहले ही पतिदेव बोल पड़े, साली है आधी घरवाली का दर्जा है।

मैंने कहा, सुबह होते मुझे तुम दिखनी नहीं चाहिए।

अगले दिन सुबह मेरे होश ही उड़ गए जब देखा ख़ुशी तो नहीं गई पर पतिदेव ने कहा संस्कृति इस घर में तुम्हारी कोई जगह नहीं है। ख़ुशी ने मुझे वह ख़ुशी दी है जो आज तक तुमसे नहीं मिली।

ख़ुशी मैंने कभी नहीं सोचा था,  तुम मेरी हंसी–ख़ुशी, सुख–चैन सब कुछ छीन लोगी।

मैंने कहा “अरे इतना सब कुछ तुम अकेले झेलती रही और कहाँ रही अब तक?”

“यहीं दिल्ली में अलग रूम लेकर रह रही हूँ मेरा तलाक हो चुका है। उन दोनों ने शादी कर ली है मौज से रहते है।”

“जहां तक मुझे याद है, तुमने लव मैरिज की थी।”

“हां सही याद है।”

“मुझे बाद में पडौसी से पता चला जब मैं अस्पताल में थी तब ही ख़ुशी ने इन्हें अपने कब्जे में कर लिया था।”

“क्या कभी शोभित मिलने नहीं आये या कुछ बोला नहीं, कोई अफ़सोस?”

“अब तो उस शख्स के बारे में सोचना भी नहीं चाहती, सोचकर धोखे की बू आती है।”

“जब जो मेरा अपना था, उसने ही भरोसा तोड़ा तो दोस्त की क्या बिसात?”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प सातवे # 7 ☆ कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . !” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प सातवे  # 7 ☆

 

☆ कुठे चाललोय आपण? . . .  समाज पारावरून . . . ! ☆

 

*जमाना बदललाय भाऊ* असं म्हणत प्रत्येक पिढीने सोयीस्कर रित्या  आपले रहाणीमान बदलले.  चुकांचे समर्थन करण्यासाठी नवे साधन मिळाले. सुनेने सासू ला आत्याबाई सोडून  आई म्हणायला सुरवात केली. मामंजीचे पप्पा झाले. पण नात्यातला संघर्ष होतच राहिला. जनरेशन गॅप तशीच राहिली. फक्त तिचे स्वरूप बदलले.

सासुबाई  नऊवारी साडीतून पंजाबी ड्रेस मध्ये  आल्या.  मामंजी धोतरातून सुट बूट, सलवार कुडता  अशा पेहरावात  आले. नातवंडे मुलांच्या  इच्छेने वाढू लागली.  वडील धा-यांनी नातवंडांचे फक्त लाड करायचे  आणि वेळप्रसंगी  आजी आजोबांनी नातवंडांचा संभाळ करायचा एवढ्या परीघात नाती फिरू लागली.

मौज मजा,  ऐषोराम,  एकमेकांवर केलेला खर्च यात नात्याचा हिशोब होऊ लागला. रक्ताची नाती गरजेपोटी  उपयोगात  आणण्याचा नवा प्रघात सुरू झाला आणि ग्रामीण भागातील समाज पारावर  पिंपळपारावर खळबळ माजली. वृद्धाश्रम  आणि पाळणाघर यांना काळाची गरज आहे  अशी शहरी लोकांनी दिलेली मान्यता गावातील वृद्धांना घातक ठरू लागली.  गावातल्या गावात एकाच कुटुंबातील दोन पिढ्यांची दोन घरे झाली.  शेतातल घर  अर्थातच म्हाताऱ्याच्या वाट्याला आले.  आणि गावातील घर दुमजली होऊन दोन भाऊ स्वतंत्र दोन मजले करून वरती खाली राहू लागले.  शेती करण्यासाठी पगारी मजूर बोलावताना जुनी पिढी हळहळली पण त्याच वेळेस  आलेले  उत्पन्न वाटून घेताना  उगाचच कुरकुरली.

समाज पारावर देखील  अनेक बदल घडत आहेत. माणूस माणसापासून दूर जातो आहे.  आणि याला कारणीभूत ठरला आहे तो पैसा.  बदलत्या जमान्यात *माणूस  ओळखायला शिकले पाहिजे*  हेच वारंवार कानी पडते. हा माणूस  ओळखायच्या स्पर्धेत  आपण मात्र  कंपूगिरी करत  आहोत.  आपल्या  उपयोगी पडणारा तो आपला.  गरज सरो नी वैद्य मरो या  उक्ती प्रमाणे आपल्या माणसाची व्याख्या बदलते आहे.  बदलत्या काळात जात पात धर्म भेदभाव नष्ट होत  असले तरी  आर्थिक विषमता  हे मूळ माणसामाणसात प्रचंड दरी निर्माण करीत आहे. ही विघातक दरी जनरेशन गॅप पेक्षा ही विनाशकारी आहे.

आपण सर्व जण ज्या मार्गाने जात  आहोत त्या मार्गावर वाडवडिलांचे आशिर्वाद, संस्कार  अभावानेच आढळतात. पण महत्व कांक्षी विचारांना पुढे करून स्वार्थाला दिलेले  अवाजवी महत्त्व माणसाला  एखाद्या वळणावर तो एकटा  असल्याची जाणीव करून देत आहे.

माणूस किती शिकला? काय शिकला? यापेक्षा तो आर्थिक दृष्ट्या स्वावलंबी आहे का याची चर्चा माणसातला  आपलेपणा नष्ट करते. बसा जेवण करूनच जा असा  आग्रह करणारे  आज फालतू कारणे शोधून बाहेर हाॅटेलमध्ये स्नेहभोजनाचे जंगी बेत  आयोजित करतात यातून व्यवहार सांभाळत पुढे जायचे हा कानमंत्र  एकमेकांना देत ही कंपूगिरी समाजात  एकमेकांना धरून रहाते.

मन दुखावले की नाती संपली. भुमिका बदलल्या. पात्रे बदलली. पैसा सोबत  असला की माणसांची गरज नाही. पैशाने माणूस विकत घेता येतो हा विचार करत  सर्व जीवन प्रवास चालू आहे.  संवाद माध्यमातून प्रबोधन करणारी पिढी समोरासमोर आली तरी  ओळख दाखवताना दहा वेळा विचार करून ओळख दाखवते अशी  सद्य परिस्थिती आहे.  नवीन पिढीला  आर्थिक दृष्ट्या स्वयंपूर्ण करून देताना  आपण आपल्याच लेकरांना चार भिंतीची ओळख करून देतो पण त्या भिंतीवर  असणाऱ्या छप्पराचे ,  त्या चार कोनाचे कौटुंबिक महत्त्व सांगायला विसरतो.

नव्या वाटेने चालताना  जुन्या आठवणींना उजाळा देणारे प्रसंग घडतात. तेव्हा  आपली माणसे  आपल्या सोबत  असावीत.  नव्या जमान्यात वावरताना  आपण कुठे चाललो आहोत याचा विचार करण्याची वेळ आली आहे.  आपला जीवनप्रवास ह्रदयापासून ह्रदयापर्यत व्हायला हवा  इतके जरी  आपण ठरवले तरी मला वाटत  आपण माणसांना घेऊन, माणसासोबत  आपला जीवन प्रवास सुरू ठेऊ. होय ह्रदयापासून ह्रदयापर्यत.

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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