मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 189 ☆ चिंब पाऊस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 189 ?

चिंब पाऊस… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

बाहेर चिंब पाऊस,

आणि मनात

आठवणींचे ढग,

काळजातली,

घुसमट वाढली,

अन् डोळे…

बरसू लागले,

झरझर  !

प्रश्न असंख्य…

उत्तर नाहीच

सापडत!

नीती अनितीच्या

पल्याड…

एक गाव असतं!

कृष्णडोहाशी,

संतत धार पाऊस,

आणि युगायुगांची

तहान…

शुष्क…कोरडीच !!!

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 10 – भुतैली काली रातें हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – भुतैली काली रातें हैं…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 10 – भुतैली काली रातें हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

दिन आतंकी, और

भुतैली काली रातें हैं

 

भूखी आँतों से

रोटी की कितनी दूरी है

स्वाभिमान तक

गिरवी रखने की मजबूरी है

व्यभिचारों को देख

मूक भयभीत कनातें हैं

 

खौफ़नाक मंजर चुभते हैं

नित्य निगाहों में

ओढ़ हिरण की खाल

भेड़िये फिरते राहों में

अमन-शांति बकवास

सिर्फ भाषण की बातें हैं

 

नेताओं ने चेहरे पर

ओढ़ी है बेशर्मी

सूर्योदय को, सूर्यास्त

कहने की हठधर्मी

राजनीति में, राष्ट्रघात की

बिछी बिसातें हैं

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 87 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 87 – मनोज के दोहे… ☆

1 बूँदाबाँदी

बूँदाबाँदी ने भरा, तन-मन में उल्लास।

जेठ माह की ज्वाल से, मन था बड़ा उदास।।

2 बरसात

धरा मुदित हो कह उठी, लो आई बरसात।

अनुपम छटा बिखेर दी, गर्मी को दी मात।।

3 धाराधार

रूठे बादल घिर गए, बरसे धाराधार।

ग्रीष्म काल दुश्वारियाँ,बदल गया संसार।।

 4 पावस

प्रिय पावस की यह घड़ी, लगती सब को नेक।

नव अंकुर निकले विहँस, मुस्कानें हैं एक।।

5 चातुर्मास

भक्ति भाव आराधना, आया चातुर्मास।

धर्म धुरंधर कह गए, माह यही हैं खास।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 15 – हमारी इटली यात्रा – भाग 3 ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी इटली यात्रा – भाग 3)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 15 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – हमारी इटली यात्रा – भाग 3 ?

(अक्टोबर 2017)

हमारा तीसरा पड़ाव था पॉम्पे।

पॉम्पे संसार का एकमात्र ऐसा शहर है जो ज्वालामुखीय लावा के कारण उध्वस्त हो चुका था और फिर कभी न बसा। यह शहर बहुत पुराना शहर था। पॉम्पे मैगनस नामक रोमन जेनरल ने इस शहर की स्थापना की थी। बाद में यह शहर लोगों की छुट्टी मनाने की जगह बन गई थी। यहाँ के मकान अत्यंत सुंदर और रंग बीरंगी टाइल्स से बने थे। यहाँ फलों -सब्ज़ियों का बाजार था, रेस्तराँ थे। तकरीबन 12000 लोग यहाँ स्थायी रूप में रहते थे। उत्सवों के समय आसपास के रहवासी भी उत्सव मनाने यहाँ ऊपर आया करते थे।

नेपल्स की खाड़ी के पास एक ज्वालामुखीय पर्वत है जिसका नाम है विसूवियस।

सन 79 में इस पर्वत से निकला लावा या भूराल ने देखते ही देखते पूरे शहर को उध्वस्त कर दिया, निगल लिया। लोगों को एक क्षण में पत्थर जैसा बना दिया।

आज मनुष्य की कोई ऐसी मूर्ति यहाँ नहीं हैं पर उस समय के बर्तन, कुछ पत्थर बने पशु और उध्वस्त घर अवश्य देखने को मिलते हैं। सारा शहर सुचारु रूप से बना हुआ था। आधुनिक ढंग से सड़कें, गलियों में वितरित तथा स्टेटस के हिसाब से मकान बने हुए थे। एक भव्य मंदिर भी था क्योंकि अभी लोग ईसाई नहीं थे। वहाँ पहुँचकर सच में मन में टीस- सी उठती है कि किस तरह बसा बसाया शहर और एक अत्यंत उन्नतशील सभ्यता क्षण में उध्वस्त हो गई। तकरीबन 10, 000 लोगों की मौत हुई थी। 1748 तक किसी को इस शहर के अस्तित्व के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। आज यह स्थान UNESCO की देखरेख में है। आज भी यहाँ आरक्योलॉजिकल सर्वे हो रहे हैं।

पॉम्पे के उध्वस्त शहर में घूमते हुए हमें आठ – नौ घंटे लगे। हम पॉम्पे के इतिहास की जानकारी पढ़कर ही यह स्थान देखने गए थे। हर स्थान के दर्शन के समय हम ऐतिहासिक तथ्यों से रिलेटे कर सके।

स्मरण रहे हमने हर स्थान का चुनाव अपनी जिज्ञासा के अनुरूप किया था और हम किसी ग्रुप के साथ कभी नहीं घूमें। उसका मुख्य कारण यह है कि ऐसी ट्रिप वाली बसें आपको जगहें बाहर से ही दिखाती हैं या दो घंटे में सैर करके लौट आने को कहती है। हम इस तरह से घूमना नहीं चाहते थे तो हर स्थान पर पर्याप्त समय दे सके।

यहाँ हमें बड़े -बड़े घरों के सामने ईंट से बँधी चौड़ी सड़कें दिखीं। सारा शहर छोटी छोटी गलियों में वितरित थी। बड़े अमीरों के घर के भीतर सुंदर मूर्तियाँ लगी दिखाई दी, कुछ घरों में फव्वारे और बगीचे भी दिखाई दिए। सभी आठ दस घर एक दूसरे के साथ स्टे हुए थे। फिर उसके बाद एक गली हुआ करती थी। हर घर के बाहर बरामदा सा है। उनमें खंभे बने हुए हैं।

हमने ज्वालामुखी की राख से लिप्त बर्तन, कुत्ते और घर में उपयोग में लाए जानेवाले बर्तन देखे। हमारा मन सिहर उठा। सभी कुछ मानो ठोस पदार्थ से बने हुए दिखाई देते हैं। उस रात क्या हुआ होगा इसका अंदाज़ा लगाना भी कठिन ही है।

बाहर निकलने के गेट से पूर्व एक रेस्तराँ है जहाँ साधारण इटालियन भोजन और कॉफी की व्यवस्था है। हम भी सारा दिन चलकर थक चुके थे तो थोड़ी देर आराम करने के लिए कॉफी का स्वाद लेकर वहाँ बैठ गए।

उस दिन हम बारह पर्यटक रिसोर्ट से चले थे तो हमारे लिए एक मिनी बस की व्यवस्था रिसोर्ट ने कर दी थी। अवश्य ही थोड़ी ऊँची कीमत देकर यह व्यवस्था की गई थी उसका कारण यह था कि पॉम्पे तक जाने के लिए कोई ट्रेन की व्यवस्था नहीं थी। वहाँ प्राइवेट टैक्सी या इस तरह के मिनी बस द्वारा ही पहुँचा जा सकता है। लौटते समय हमें वह पहाड़ भी दिखाया गया जहाँ से ज्वालामुखी का प्रकोप हुआ था। हम नैपल्स की खाड़ी तक पहुँचे। यह ऐतिहासिक शहर है। यहाँ बहुत पुराने चर्च भी हैं। यहाँ की इमारतें अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं। हम सभी बहुत थक चुके थे इसलिए हम किसी भी चर्च की सुंदरता को देखने के लिए नहीं गए जिसका आज हमें पश्चाताप भी है।

चौथे दिन हम रिज़ोर्ट में रहे। यहाँ भोजन पकाने की सुविधा थी। यहाँ हमने एक बेडरूम हॉल किचन वाला फ्लैट बुक किया था। उस दिन हमने कैरोलीन और डेनिस को दोपहर के समय भारतीय भोजन के लिए आमंत्रित किया था। उन्हें भी हमारा यह आतिथ्य बहुत मन भाया।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 143 – “रेकी हीलिंग …” – रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ जी द्वारा रचित पुस्तक  “रेकी हीलिंग पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 143 ☆

☆ “रेकी हीलिंग …” – रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक – रेकी हीलिंग

लेखक – रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ

प्रकाशक – नोशन प्रेस

संस्करण – २०२१

पृष्ठ – २५४, मूल्य – ५९९ रु

पुस्तक चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल  

जान है तो जहान है. अर्थात शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर  हमेशा से मनीषियों के चिंतन का चलता रहा है.  आयुर्वेद, यूनानी दवा पद्धती, ऐलोपैथी, सर्जरी, होमियोपैथी,योग चिकित्सा, कल्प, अनेकानेक उपाय सतत अन्वेषण के केंद्र रहे हैं. रेकी भी इन्हीं में से एक विकसित होता विज्ञान है जिसे अब तक प्रामाणिक वैज्ञानिक मान्यता नहीं मिल सकी है. मानवता के व्यापक हित में होना तो यह चाहिये कि एक ही छत के नीचे सारी चिकित्सा पद्धतियों की सुविधा सुलभ हों और समग्र चिकित्सा से मरीज का इलाज हो सके. किन्तु वर्तमान समय भटकाव का ही बना हुआ है.

साहित्यिक पुस्तको पर तो मेरे पाठक हर सप्ताह किसी किताब की मेरी चर्चा पढ़ते ही हैं. किताब के कंटेंट पर बातें करता हूं, पाठको की प्रतिक्रियायें मिलती हैं, जिन्हें पुस्तक चर्चा में कुछ उनके काम का लगता है वे किताब खरीदते हैं.

इस सप्ताह मेरे सिराहने  रेकी हीलिंग पर रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ की नोशन प्रेस से प्रकाशित किताब थी. नोशन प्रेस ने सेल्फ पब्लिशिंग के आप्शन के साथ हिन्दी किताबों को भी बड़ा प्लेटफार्म दिया है. मेरी अमेरिका यात्रा के संस्मरणो की किताब “जहां से काशी काबा दोनो ही पूरब में हैं” मैंने नोशन प्रेस से ही प्रकाशित की है.

इस पुस्तक रेकी हीलिंग के कवर पेज पर ही सेकेंड हेडिंग है अवचेतन का दिव्य स्पर्श. दरअसल रेकी जापान में फूला फला एक आध्यात्मिक विज्ञान है.हमारे कुण्डलिनी जागरण, स्पर्श चिकित्सा, टैलीपेथी का मिला जुला स्वरुप कहा जा सकता है. नकारात्मक विचार, क्रोध, असंतोष, असहिष्णुता जैसे अप्राकृतिक विचार हमारे मन और शरीर में तरह तरह की व्याधियां उत्पन्न करते हैं. रेकी आत्म उन्नयन कर मानसिक ऊर्जा के संचयन से स्वयं का तथा किसी दूसरे की भी बीमारी ठीक करने की क्षमता का विकास करती है. फिल्म मुन्ना भाई एम बी बी एस में जादू की झप्पी का जादू हम सब ने देखा है. मां के स्पर्श से या पिता के आश्वासन और हौसले से रोता चोटिल बच्चा हंस पड़ता है, अर्थात स्पर्श और भावों के संप्रेषण का हमारे शरीर को ऊर्जा मिलती है यह तथ्य प्रमाणित होता है. वैज्ञानिक सत्य है कि ऊर्जा अविनाशी है, हर पिण्ड में ऊर्जा होती ही है, तथा ” यत्पिण्डे तत ब्रम्हाण्डे ” हम सब में वह ऊर्जा विद्यमान है, उसे ईश्वर कहें या कोई अविनाशी वैज्ञानिक शक्ति. हर दो पिण्ड परस्पर एक ऊर्जा से एक दूसरे को खींच रहे हैं यह वैज्ञानिक प्रमाणित सत्य है. इस ऊर्जा के इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन को ही केंद्रीय विचार बनाकर रेकी में रेकी मास्टर स्वयं की धनात्मक ऊर्जा को बढ़ाकर, ॠणात्मक ऊर्जा के चलते बीमार व्यक्ति का इलाज करता है यही रेकी हीलिंग है.

इस किताब में रेकी के इतिहास का वर्णन है. रेकी के सात चक्र मूलाधार, स्वाधिष्टान, मणिपुर चक्र, अनाहत या हृदय चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्त्रधार चक्र परिकल्पित हैं ये लगभग उसी तरह हैं जिस तरह हमारे यहां कुण्डलनी जागरण के चक्र हैं. किताब में  स्वयं पर रेकी, तथा दूसरों पर रेकी का वर्ण किया गया है. रेकी ध्यान अर्थात मेडीटेशन, प्रभा मण्डल अर्थात औरा के विषय में भी बताया गया है. ओम के चिन्ह को ऊर्जा का प्रतिक बताया गया है.इसके साथ ही अन्य प्रतीक चिन्हों का भी विशद वर्णन है. शक्तिपात अर्थात एट्यूनमेंट को ग्रैंडमास्टर स्तर की दीक्षा बताया गया है. टेलीकाईनेसिस के जरिये दूरस्थ व्यक्ति तक शांत चित्त होकर एकाग्र ध्यान से ऊर्जा पहुंचा कर रेकी हीलिंग की जा सकती है.

रेकी विज्ञान के क्षेत्र में प्रारंभिक रुचि रखने वालों को यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी लगेगी.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 162 – गुरुपूर्णिमा विशेष – औलौकिक गुरु पूजा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्रावण पर्व पर विशेष प्रेरक एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा औलौकिक गुरु पूजा ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 162 ☆

☆ लघुकथा – 🙏 गुरुपूर्णिमा विशेष 🪔औलौकिक गुरु पूजा🪔

शौर्य आज के युवा पीढ़ी का नौजवान  कार्य कुशलता में निपुण, संस्कारों का धनी, धार्मिक और सभी से मित्रता करना, उसका अपना व्यक्तित्व था।

एक बड़ी सी प्राइवेट कंपनी में अच्छे बड़े पद पर कार्यरत। उसके व्यक्तित्व की चर्चा ऑफिस तो क्या आसपास के लोग भी किया करते थे। सदा खुश रहने वाला शौर्य बहुत ही दयालु था।

किसी की मदद करना, किसी को जरूरत का सामान दे देना और जरूरत पड़ने पर उसके घर जाकर सहायता करके आ जाना। घर में पापा मम्मी भी कहते ” बहुत ही होनहार है हमारा बेटा।” पापा कहते “दादाजी पर जो गया है।”

शौर्य साधु संतों की सेवा सत्संग भी किया करता था। उसकी शादी की बात चलने लगी। घर में सभी उत्साहित थे। परंतु शौर्य चाहता था कि जब तक दादाजी की ओर से सभी परिवार एक नहीं हो जाते, वह शादी नहीं करेगा।

हर वर्ष गुरु पूर्णिमा के अवसर पर वह अपने ऑफिस में एक शानदार कार्यक्रम रखता। सभी की भोजन व्यवस्था और पूजा में सिर्फ खाली टेबल पर कुछ फूल मालाओं से औलौकिक पूजा करता था।

ऑफिस के कर्मचारी कहते हैं “साहब आप इतने अच्छे से गुरु पूर्णिमा का पर्व प्रतिवर्ष मनाते हैं परंतु गुरु की फोटो या मूर्ति नहीं रखते या कोई आपके गुरु जी कभी नहीं आते।”

शौर्य मुस्करा कर कहता.. “जिस दिन मेरे गुरु जी आएंगे उसी दिन दीपावली की तरह रौशन होगा और आप सभी को पता चल जाएगा।”

शौर्य के साथ काम करने वाली उसकी एक महिला मित्र सीमा अक्सर देखा करती अपने पॉकेट पर्स से किसी वरिष्ठ सर्जन की फोटो को रोज देख कर प्रणाम करते है और अपने दिन की शुरुआत करते हैं। एक दिन किसी काम से शौर्य अपना पर्स भूल गए और ऑफिस के काम से दूसरे चेम्बर में चले गए।

बस फिर क्या था सीमा ने जो उसे मन ही मन पसंद करती थी उस फोटो को कॉपी करके, पता लगाना शुरू कर दिया। पता चला यह तो शौर्य के दादाजी है जो उसके पापा को किसी कारण आपसी बहस से उन्हें घर से निकाल दिए हैं।

अब पापा और दादाजी एक दूसरे का मुँह देखना पसंद नहीं करते। उसने अपना प्रयास जारी रखी। दादा जी के पास पहुंचकर शौर्य के सारे किस्से कहानी बता दी और यह भी बता चुकी आपको गुरु के रूप में मानता है।

“कल गुरु पूर्णिमा है आप दादा जी नहीं आप गुरु के रूप में एक बार शौर्य के ऑफिस पहुंचे।”

दादाजी का मन द्रवित हो उठा आज गुरु पूर्णिमा के दिन मन ही मन गर्व से भर उठे और ठीक समय पर ऑफिस पहुँचे। दीपावली की तरह सजा था आफिस। “इतनी शानदार सजावट मैने तो नहीं कहा था” गंभीर हो गया शौर्य । दादा जी आए सीमा ने दौड़कर स्वागत किया।

कुर्सी पर बिठा दिया और और शौर्य को बुलाने पहुंच गई। आपको पूजा के लिए बुलाया जा रहा है। शौर्य जल्दी-जल्दी जाने लगा, दूर से देखा पाँव तले जमीन खिसक गई और खुशी आश्चर्य से दोनों आँखों से अश्रुं की धारा बहने लगी। साष्टांग गुरु के चरणों में गिर चुका था शौर्य।

आफिस वाले इस मनोरम दृश्य को मोबाइल पर कैद कर रहे थे। पीछे से मम्मी पापा पुष्पों का हार लिए दादाजी के गले में पहनाने के लिए आगे बढ़ चुके थे। आज गुरु पूर्णिमा पर शौर्य को इससे बड़ा तोहफा शायद और कभी नहीं मिल सकता था। उठ कर शौर्य ने सीमा का हाथ थामा और दादा जी के सामने खड़ा था। दोनों हाथों से आशीर्वाद की छड़ी लग चुकी थी। शौर्य की औलौकिक पूजा साकार हो चली।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 41 – देश-परदेश – लपकों ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 41 ☆ देश-परदेश – लपकों ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत दिन “तीर्थराज पुष्कर” जाना हुआ था।  परिवार के एक सदस्य के अस्थि विसर्जन के सिलसिले में जब कार से बाहर आए तो करीब आठ सौ मीटर के मार्ग से सरोवर तक पहुंचने के दौरान अनेक व्यक्ति अपने आप को महापंडित, अधिकृत, वास्तविक, सबसे पुराने ना जाने कितने अलंकारों से अपना परिचय देकर हमें प्रभावित करने का प्रयास करते रहे। परिवार के दो अन्य सदस्य भी हमारे साथ  उसी प्रकार से अपने मार्ग पर अग्रसर होते रहे, जिस प्रकार से जल की धारा अपने मार्ग में आने वाली सभी बाधाओं को पार कर गंतव्य तक पहुंच जाती हैं।

इस प्रकार की “लपको” गतिविधियां प्रयागराज पहुंचने से पूर्व भी होती हैं।  प्रयागराज से पहले नैनी स्टेशन पर भी ट्रेन रुकने से पूर्व ही ट्रेन के डिब्बों में कमांडो कार्यवाही कर प्रवेश कर बैठे हुए यात्रियों  को अपना-अपना यजमान घोषित कर देते हैं।

ये लपको प्रकार की प्रजाति ना सिर्फ धार्मिक स्थानों पर वरन दैनिक जीवन में प्राय प्रतिदिन हम सब को प्रभावित करते हैं। ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी हमारे फिल्मी कलाकार, नामी गिरामी क्रिकेट के खिलाड़ी भी तो मन लुभावन विज्ञापनों के माध्यम से उनके द्वारा प्रायोजित वस्तुएं खरीदने के लिए बाध्य कर अपना शिकार बना लेते हैं, और हमें इस बात का आभास भी नहीं हो पाता है। आखिर कब तक बचेंगे इन जालसाजों की दुनिया में, आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे को ठगने/ छलने में व्यस्त हैं। 

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #195 ☆ ‘झकास’ आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 195 ?

☆ ‘झकास’ आहे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

असा कसा रे तुझा जीवना प्रवास आहे

रस्त्यामधला खड्डा सुद्धा उदास आहे

डोळ्यामधला अश्रु झाकतो आहे मुखडा

ओठावरचा शब्द बोलला ‘झकास’ आहे

अडचण झाली सामान्यांना  कोरोनाने

पण नेत्यांचा कुठे थांबला विकास आहे

जडले होते प्रेम गुलाबी नोटांवरती

बंदी येता अडचण येथे ठगास आहे

तेलासाठी वाळूचे कण रगडत बसलो

जिद्द सोडली नाही करतो प्रयास आहे

सुंदर दिसतो पानांवरती डोलत असतो

क्षणभंगुर का जीवन मिळते दवास आहे ?

विकास होता आनंदाने नाचत होतो

अता कशाला म्हणू जिंदगी भकास आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 145 – मन रहता है प्यासा… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – मन रहता है प्यासा।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 145 – मन रहता है प्यासा…  ✍

कितनी बात करूँ मैं तुमसे

मन रहता है प्यासा।

 

कभी कभी हो मिलना जुलना

बेमतलब की बातें

स्पर्शों को बरजा करतीं

लज्जा भरी कनातें

आँखों के रतनारे डोरे, देते रहें दिलासा।

 

अगवानी करती हैं आँखें

करते होंठ नमस्ते

मौखिक में ही वक्त बीतता

कभी न खुलते बस्ते।

होगी कभी पढ़ाई आगे, बस इतनी है आशा।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 145 – “बन्द किताबों हुआ शब्द -…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  बन्द किताबों हुआ शब्द – )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 145 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

बन्द किताबों हुआ शब्द –  ☆

प्यास भूमिका निभा रही

जीवन पराग में

कुआँ निरंतर रहा यहाँ

जिनके दिमाग में

 

कण्ठ सूखते रहे अभावों

प्रतिश्रुत जल के

शापित रहे यहाँ हर

घर मे रोपित नलके

 

लोग भूल न पाये हैं

अब भी पनघट को

जो भविष्य को देखा

करते हैं तड़ाग में

 

बन्द किताबों हुआ शब्द-

प्यारा, पनिहारिन

पूछ रही थी यही बात

पुनिया बनजारिन

 

बस विवाह के समय

सुनो हमने माँगा था-

दे देना जलस्रोत एक

हमको सुहाग में

 

वैकल्पिक कुछ नहीं

और कुछ भी न सांत्वना

करते हुये नहीं जी सकते

सहज कल्पना

 

जो कुछ है सब जल

की माया जग उद्यम में

धरती के लौकिक प्रभाग

या  बीतराग में

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-06-2023 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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