हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 174 – उष्णता– ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा उष्णता”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 174 ☆

☆ लघुकथा –   🌞उष्णता🌞 

ठंड की अधिकता को देखते आज कक्षा में उपस्थित सभी बच्चों को ठंड से बचने और मिलने वाली गर्मी यानी उष्णता के बारे में बताया जा रहा था।

सूर्य से मिलने वाली उष्णता का जीवन में कितना महत्व है। गर्म कपड़े पहन हम अपने शरीर को कैसे गर्म रख सकते हैं। अध्यापिका ने बड़े ही सहज ढंग से मुर्गी के अंडे को मुर्गी कैसे अपने  पंखों के नीचे दबाकर उसे गर्म करती है। यह भी बता रही थी।

वेदिका बड़े ही गौर से सब सुन रही थी। इसी बीच अध्यापिका ने बताया की मांँ के आंचल की उष्णता से एक नया जीवन मिलता है। और गर्भ से एक नया जीव जन्म लेता है यानी कि गर्भ में भी बालक पलता और संवरता है।

वेदिका के बाल सुलभ मन में माँ का स्पर्श क्या होता है, उसे नहीं मालूम था। क्योंकि बताते हैं वेदिका अभी संभल भी नहीं पाई थी कि वह अपनी माँ को खो चुकी थी।

पिताजी ने अपने ऊपर सारा भार लेकर उसे माता-पिता बन कर पाला और धीरे-धीरे वह बड़ी हुई। परिवार के बड़े बुजुर्गों के कहने पर पिताजी ने दूसरी शादी कर लिया।

सौतेली मां ब्याह कर आई। बहुत अच्छी थी। वेदिका का मन बहुत कोमल था। माँ भी उसका बहुत ख्याल और प्यार करने लगी, परंतु कभी उसे ममता से भर कर गले या सीने से नहीं लगाई।

उसकी आवश्यकता, जरूरत की सारी चीज पूरी करती परंतु कहीं ना कहीं ममता के आँचल के लिए तरस रही वेदिका बहुत ही परेशान रहती थी।

आज दिन का तापमान बहुत कम था। ठंड लिए बारिश होने लगी। वेदिका का मन आज सुबह से खराब था। शायद उसे हल्की सी ताप भी चढ़ी थी। वह फिर भी स्कूल गई थी।

स्कूल में अचानक बहुत तेज बुखार और चक्कर की वजह से वह गिर गई।

अध्यापिका ने उसे कसकर गले लगा लिया। हल्की हाथ की थपकी देती रही और वेदिका कुछ न बोल सकी।

घर में फोन करके मम्मी – पापा को बुलाया गया। अध्यापिका ने वेदिका के हृदय भाव को उसकी मम्मी से बात करके, उसे अधिक से अधिक प्यार दुलार देने को कहा।

माँ की आँखें ममता से भर गई। वेदिका के मासूम सवाल को अध्यापिका ने उसकी माँ से बताया… कि वह मुर्गी के अंडे और उससे बनते चूज़े को कैसे अपनी नरम पंखों से गर्म करके जीवन देती है। यह सवाल उसके दिलों दिमाग पर था।

माँ ने वेदिका को गोद में लेकर आज हृदय से चिपका कर बालों पर हाथ फेरने लगी। वेदिका की आँखों से  आँसू लगातार बहने लगी। वह कसकर अपनी माँ को बाहों में समेट आज जीवन भर की उष्णता पा चुकी थीं। पिताजी ने हौले से अपनी आँखें पोछते कहा… आज मैं अपने जीवन और जीवन की परीक्षा से जीत गया।

वेदिका भरी ठंड में माँ की ममता रुपी  उष्णता से भर गई थीं।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 216 ☆ लघुकथा – “आंखों में क्या जी, गजब की हलचल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक मनोरंजक लघुकथा – “आंखों में क्या जी, गजब की हलचल”)

☆ लघुकथा – “आंखों में क्या जी, गजब की हलचल☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

पहली बार आंख की महिला डाक्टर को दिखाया तो बोली – आपकी आंखें बहुत अच्छी हैं, प्यारी हैं।

दूसरी बार दिखाया तो बोली – अब तो हर तीन महीने में दिखाना ही पड़ेगा।

तीसरी बार दिखाया तो बोली – अब आपको अपने आंखों की जीवन भर रखवाली करनी पड़ेगी, क्योंकि कोई आपकी आंख चुरा भी सकता है….

महिला डॉक्टर से डरकर आंखों के पुरूष डाक्टर को जब दिखाया तो बोला – गलतफहमी में मत रहना ये ग्लूकोमा के प्रारंभिक लक्षण हैं…..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – भेदभाव… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘शहीद’।)

☆ लघुकथा – भेदभाव…. ☆

पंडाल में,श्री गणेश जी की भव्य मनोहर मूर्ति विराजमान थी,पंडाल रोशनी से जग मग हो रहा था,भक्तों में धार्मिक भावना,और धार्मिक उल्लास नजर आ रहा था,भजन मंडली, भजन कीर्तन कर रही थी सभी रसास्वादन कर रहे थे, मैं अपने परिवार के साथ, पत्नि और बेटी के साथ उपस्थित था,आयोजन भव्य था,तभी श्रीगणेश आरती की घोषणा हुई,और आरती शुरू हुई,जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा…. आरती संपन्न हुई,सभी आरती ले रहे थे,तभी मेरी बेटी ने मुझसे कहा,पापा भगवान श्री गणेश जी की आरती में,बांझन को पुत्र देत,क्यों,,पुत्री क्यों नहीं,यह तो पुत्र और पुत्री के मध्य भेदभाव है ना,समाज में ऐसा भेदभाव क्यों,,

मैं सोच में पड़ गया,,आज तक ये ही आरती गाता आ रहा हूं,,कभी किसी ने प्रश्न नहीं किया,मेरे मन में भी कभी ख्याल नहीं आया,,आरती में बांझन को पुत्र देत क्यों,,पुत्री क्यों नहीं,,

घर आकर विचार किया, कि आरती तो किसी व्यक्ति ने ही लिखी होगी,सुधार तो हो सकता है,और आरती में थोड़ा सुधार किया,,,बांझन की गोद भरे,,निर्धन को माया,

अब मैं यही आरती गाता हूं,आप भी विचार कीजिए,आपको मेरी सोच अच्छी लगे, तो आप भी यही आरती गाएं,ताकि पुत्री के साथ भेदभाव न हो

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 131 ☆ अम्माँ को पागल बनाया किसने ?  ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘अम्माँ को पागल बनाया किसने ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 131 ☆

☆ लघुकथा – अम्माँ को पागल बनाया किसने ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘भाई! आज बहुत दिन बाद फोन पर बात कर रही हूँ तुमसे। क्या करती बात करके? तुम्हारे पास बातचीत का सिर्फ एक ही विषय है कि ‘अम्माँ पागल हो गई हैं’। उस दिन तो मैं दंग रह गई जब तुमने कहा –‘अम्माँ बनी-बनाई पागल हैं। भूलने की कोई बीमारी नहीं है उन्हें।’

‘मतलब’? मैंने पूछा 

‘जब चाहती हैं सब भूल जाती हैं, वैसे फ्रिज की चाभी ढ़ूंढ़कर सारी मिठाई खा जाती हैं। तब कैसे याद आ जाता है सब कुछ? अरे! वो बुढ़ापे में नहीं पगलाईं, पहले से ही पागल हैं।’  

‘भाई! तुम सही कह रहे हो – वह पागल थी, पागल हैं और जब तक जिंदा रहेंगी पागल ही रहेंगी।‘

‘अरे! आँखें फाड़े मेरा चेहरा क्या देख रहे हो? तुम्हारी बात का ही समर्थन कर रही हूँ।’ ये कहते हुए अम्माँ के पागलपन के अनेक पन्ने मेरी खुली आँखों के सामने फड़फड़ाने लगे।

‘भाई! अम्माँ का पागलपन तुम्हें तब समझ में आया, जब वह बेचारी बोझ बन गईं तुम पर। पागल ना होतीं तो तुम पति-पत्नी को घर से बाहर का रास्ता ना दिखा दिया होता? तुम्हारी मुफ्त की नौकर बनकर ना रहतीं अपने ही घर में। सबके समझाने पर भी अम्माँ ने बड़ी मेहनत से बनाया घर तुम्हारे नाम कर दिया।‘ मेरा राजा बेटा’ कहते उनकी जबान नहीं थकती थी, पागल ही थीं ना बेटे-बहू के मोह में? बात- बात में एक दिन मुझसे कह गईं – ‘बेटी ! बच्चों के मोह में कभी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी ना मार बैठना, मेरी तरह।‘ 

भाई! फोन रखती हूँ। कभी समय मिले तो सोच लेना अम्माँ को पागल बनाया किसने??

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 245 ☆ लघुकथा – धन तेरस ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – धन तेरस।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 245 ☆

? लघुकथा – धन तेरस ?

क्या हुआ आज त्यौहार के दिन मुंह क्यों लटकाये हुये हो, काम वाली मीना के चेहरे को पढ़ते हुये बरखा ने उससे पूछा। दुखी स्वर में अपने कान दिखाते हुये धीमे स्वर में मीना बोली, मैडम जी आज धन तेरस के दिन मुझे कान की बाली गिरवी रखनी पड़ी। क्यों बरखा ने त्वरित प्रति प्रश्न किया ? पुलिस वाले ने लड़के की मोटर सायकिल जब्त कर ली थी क्योंकि बेटा गाड़ी तेज चला रहा था। पांच हजार देने पड़े बाली गिरवी रखकर। त्यौहार मनाने के लिये जबरन वसूली कर रहे हैं।

बरखा ने संजो संजो कर पाँच हजार इकट्ठे कर रखे थे कि धन तेरस पर कुछ खरीदी करूंगी। उसने पल भर कुछ सोचा और रुपये निकाल लाई, मीना को रुपये देते हुये बोली जाओ पहले अपनी बाली छुड़ा कर ले आओ, कल मुझे दिखाना जरूर। दिये जलाते हुये मैं तय नहीं कर पा रहा था कि धन तेरस किसने मनाया ? मीना के लडके ने, पोलिस वाले ने, काम वाली मीना ने या बरखा मैडम ने।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – जो बोओगे, वही काटोगे ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – जो बोओगे, वही काटोगे ? ?

…मुझे कोई पसंद नहीं करता। हरेक, हर समय मेरी बुराई करता है।

.. क्यों भला?

…मुझे क्या पता! वैसे भी मैंने सवाल किया है, तुमसे जवाब चाहिए।

… अच्छा, अपना दिनभर का रूटीन बताओ।

… मेरी पत्नी गैर ज़िम्मेदार है। सुबह उठाने में अक्सर देर कर देती है। समय पर टिफिन नहीं बनाती। दौड़ते, भागते ऑफिस पहुँचता हूँ। सुपरवाइजर बेकार आदमी है। हर दिन लेट मार्क लगा देता है। ऑफिस में बॉस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता। बहुत कड़क है। दिखने में भी अजीब है। कोई शऊर नहीं। बेहद बदमिज़ाज और खुर्राट है। बात-बात में काम से निकालने की धमकी देता है।

…सबको यही धमकी देता है?

…नहीं, उसने हम कुछ लोगों को टारगेट कर रखा है। ऑफिस में हेडक्लर्क है नरेंद्र। वह बॉस का चमचा है। बॉस ने उसको तो सिर पर बैठा रखा है।

… शाम को लौटकर घर आने पर क्या करते हो?

… बच्चों और बीवी को ऑफिस के बारे में बताता हूँ। सुपरवाइजर और बॉस को जी भरके कोसता हूँ। ऑफिस में भले ही होगा वह बॉस, घर का बॉस तो मैं ही हूँ न!

…अच्छा बताओ, इस चित्र में क्या दिख रहा है?

…किसान फसल काट रहा है।

…कौनसी फसल है?

…गेहूँ की।

…गेहूँ ही क्यों काट रहा है? धान या मक्का क्यों नहीं?

…कमाल है। इतना भी नहीं जानते? उसने गेहूँ बोया, सो गेहूँ काट रहा है। जो बोएगा, वही तो काटेगा।

…यही तुम्हारे सवाल का जवाब भी है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 173 – दहकते अंगारे – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक लघुकथा “दहकते अंगारे ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 173 ☆

☆ लघुकथा – 👁️दहकते अंगारे 👁️ 

भोर होते ही महिमा घर का सारा काम निपटाकर, जल्दी-जल्दी जाकर, स्नान घर में कपड़े से भरी बाल्टी लेकर बैठी। जोर से आवाज आई—- “कहाँ मर गई हो??” परमा की कर्कश आवाज और दहकते लाल अंगारे जैसे आँखों की कल्पना से ही महिमा कंपकंपा उठती थी।

“अभी आई” – कहते ही वह उठी थी कि परम ने आकर पानी से भरी बाल्टी को सर से उड़ेलते हुए कहा – – – “अब तुम भीगें-भीगें ही दिन भर घर में रहोगी और घर का सारा काम करोगी।”

यह कह कर वह चला गया। आज महिमा को दिसंबर की कड़कती ठंड में पानी से भरी बाल्टी से भींग कर भी ठंड का एहसास नहीं हो रहा था।

क्योंकि आज परमा ने अपनी दहकते अंगारों से उसे देखा नहीं था। वह उसकी कल्पना से ही सिहर उठती थी।

जोर से दरवाजा बंद होने की आवाज से महिमा समझ गई की परमा अपने ऑफिस के लिए निकल चुका है।

घर में सास-ससुर एक कमरे में अपना-अपना काम कर चुपचाप बैठे थे। वह भीगे कपड़ों में ही दिन भर घर का काम करती रही। पता नहीं कब परमा आ जाए और उसे लात घूसों से सराबोर कर दे। अभी वह सोच ही रही थी कि ना जाने क्या हुआ सब कुछ अंधेरा।

धम्म की आवाज से वह जमीन पर गिर चुकी थी। होश आया पता चला वह एक अस्पताल में है। डॉक्टर, नर्स ने घेर रखा है। उसके बदन को गर्म करने के लिए दवाइयाँ और इंजेक्शन दिए जा रहे हैं। लगातार ठंड और पानी की ठंडक के कारण उसे ठंड लग चुकी थी। डॉक्टर ने  कहा – “अब कैसी हो??” महिमा ने कहा — “कोई ऐसी दवाई नहीं जिसे अपने पास रखने पर अंगारों जैसे दहकते आँखों से ठंडक दिला सके।”

बिना मौत के मौत के मुँह में जाती निर्दोष बहू को देखते सास ससुर थोड़ी देर बाद जंजीरों से बंधे परमा को लेकर पुलिस बयान के लिए आ गई। आज उसके दहकते आँखों के अंगारों से निकलते आँसू महिमा के कलेजे को मखमली ओस की ठंडक पहुंचा रहे थे।

दूसरी तरफ मुँह फेरते ही परमा बोल उठा – – – “मुझे माफ कर दो।” परंतु वह चुपचाप अपने सास ससुर का मुँह देख रही थी। जिनके दोनों हाथ बहु के सिर पर फिरते चले जा रहे थे।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 130 ☆ वाह रे इंसान! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘वाह रे इंसान!’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 130 ☆

☆ लघुकथा – वाह रे इंसान! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

लक्ष्मी जी दीवाली-पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पड़ीं। एक झोपड़ी के पास पहुँचीं, चौखट पर रखा नन्हा- सा दीपक अमावस के घोर अंधकार को चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था उस पर दो- चार फूल चढ़े थे और एक दीपक यहाँ भी मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोड़े से खील – बतासे एक कुल्हड़ में रखे हुए थे।

लक्ष्मी जी को ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढ़ी स्त्री याद आ गई- ‘जिसने जबरन उसकी झोपड़ी हथियाने वाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपडी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा था।‘ लक्ष्मी जी ने फिर सोचा – ‘बूढ़ी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, अब जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।‘

जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खड़े थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह- जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी, मंदिर में भी खान -पान का वैभव भरपूर था। लक्ष्मी जी ने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह- तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साड़ी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से वह कह रहा था –‘एक बुढ़िया की झोपड़ी लौटाने से दुनिया में मेरे नाम की जय-जयकार हो गई। यही तो चाहिए था मुझे, लेकिन गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो यह वैभव कहाँ से आएगा। एक बार दिखावा कर दिया, बस बहुत हो गया।’ वह घमंड से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोला– ‘यह धन–दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘ 

जमींदार की बात सुन लक्ष्मी जी सोच में पड़ गईं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 244 ☆ लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 244 ☆

? लघुकथा – रील बनाम रियल लाइफ  ?

उसने कैमरा स्टैंड पर लगाया, फोकस किया और हिट गाने के मुखडे पर, अधखुले कपड़ों में बेहूदे बेढ़ब लटके झटके का डांस कैमरे में कैद किया। थोड़ी एडिटिंग करनी पड़ी, पर उसे लगता है एक बढ़िया रील बन गई। इंस्टा, फेसबुक, यू ट्यूब हर प्लेटफार्म पर प्लीज लाइक, शेयर, सब्सक्राइब की रिक्वेस्ट करते हुये रील अपलोड कर दी। उसके फालोअर हजारों में हो चुके हैं। उसने सोचा यदि यह रील हिट हो गई तो अकेले यू ट्यूब से ही इतनी कमाई तो हो ही जायेगी कि इस महीने बापू के इलाज में जो खर्च पड़ा है वह निकल जायेगा। पर वह रील के हिट्स पर भरोसा नहीं कर सकती थी। उसने रील बनाने के लिये पहने हुये कपड़े बदले और रियल लाइफ का सामना करने के लिये तैयार होकर काम पर निकल पड़ी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 172 – कोरा कागज – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है टेलीपेथी पर आधारित सात्विक स्नेह से परिपूर्ण एक लघुकथा “कोरा कागज ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 172 ☆

☆ लघुकथा – 📋कोरा कागज 📋 

आजकल मोबाइल के इस आधुनिक युग में लाईक, डिलीट, स्टार, ब्लॉक, शेयर,ओहह यह सब करते-करते मनुष्य भावपूर्ण मन की बातें पत्र लेखन चिट्ठियों को भूल ही गया है।

पत्र सहेज कर रखना, उसे फिर से दोबारा निकाल कर पढ़ना और फिर मन लगाकर कई बार पढ़ना। चाहे वह किसी प्रकार की बातें क्यों ना हो। जाने अनजाने मन को छू जाती थीं। कोरे कागज की बातें।

माया अपने पति सुधीर के साथ रहती थी। यूं तो दोनों का प्रेम विवाह हुआ था। शादी के पहले की सारी चिट्ठियाँ माया और सुधीर ने बहुत ही संभाल, सहेज कर रखा था।

विवाह के बाद सब कुछ अच्छा चल रहा था। अचानक सुधीर का तबादला किसी बड़े शहर में हो गया।

कहते हैं नारी मन बड़ा कांचा होता है। माया को उसके जाने और अकेले रहने में कई प्रकार की बातें सता रही थी। जो भी है सुधीर को जाना तो था ही। अपना सामान समेट वह शहर की ओर बढ़ चला।

माया अपने कामों में लग गई। एक सप्ताह तक कोई खबर नहीं आई। धीरे-धीरे समय बीत गया। अब तो मोबाइल था। फिर भी सुधीर बस हाँ हूं कह… कर काम की व्यस्तता बता बात ही नहीं करता था। माया इन सब बातों से आहत होने लगी।

उसे लगा सुधीर कहीं किसी ऑफिस में सुंदर महिला के साथ – – – – – “छी छी, ये मैं क्या सोचने लगी।” उसने झट कॉपी पेन निकाला और पत्र लिखने बैठ गई।

लिखने को तो वह बहुत सारी बातें लिखना चाह रही थी। परंतु केवल यही लिख सकी – – – ‘सुधीर तुम्हारे विश्वास और तुम्हारे भरोसे में जी रही हूं। पत्र लिखकर पोस्ट करके जैसे ही घर के दरवाजे पर ताला खोलने लगी। सामने पोस्टमेन  खड़ा दिखाई दिया — “मेम साहब आपकी चिट्ठी।” आश्चर्यचकित माया जल्दी-जल्दी पत्र खोल पढ़ने लगी… सुधीर ने लिखा था.. ‘माया तुमसे दूर आने पर तुम्हारी अहमियत और भी ज्यादा सताने लगी है। मुझ पर विश्वास करना।

दुनिया की नजरों से नहीं मन की भावनाओं से देखना मैं सदैव तुम्हारे साथ खड़ा हूं। जल्दी आता हूं।’ कोरे कागज पर लिखी यह बातें..। माया पास पड़ी कुर्सी पर बैठ, अश्रुधार बहने लगी ।तभी मोबाइल की घंटी बजी उठी..

“हेलो” माया ने देखा पतिदेव सुधीर ने ही कॉल था। सुधीर ने कहा… “ज्यादा रोना नहीं जैसा तुम्हारा मन है वैसा ही यह कोरा कागज है। ठीक वैसे ही मैं भी उस पर लिखे अक्षरों का भाव हूँ। हम कभी अलग नहीं हो सकते। मन के कोरे कागज पर हम दोनों का नाम लिखा है। बस बहुत जल्दी आ रहा हूं। तुम्हें लिवा ले जाऊंगा।”

माया सुनते जा रही थी तुम मेरी कोरी कल्पना हो। रंग भरना और सहेजना, उसमें हंसना- मुस्कराना तुम्ही से सीखा है। बस विश्वास और भरोसा करना इस कोरे कागज की तरह। माया सामने लगे आईने पर अपनी सूरत देख मुस्करा उठी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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