हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 163 ☆ “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य  – “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू”)  

☆ व्यंग्य # 163 ☆ “मेरा नाम मैं, तेरा नाम तू” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं । हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

गांव के खपरैल मकान की गोबर लिपी खुरदुरी जमीन पर जब हम रात तीन बजे उतरे, तो नाइन ने लालटेन की रोशनी में सब्जी काटने की चाकू से नरा काट दिया था और शरीर को उल्टा पुल्टा कर के नाम ढूंढा था पर शरीर में कहीं भी नाम लिखा नहीं आया था। नाइन को शरीर में ऐसा क्या कुछ दिखा कि उसने नवजात शिशु का नाम ‘लड़का’ रख दिया। नाम की शुरुआत यहीं से हो गई।

सुबह गांव के चौपाल में लड़का होने की बात हुई और ये भी बात हुई कि आज से मुगलसराय का नाम बदल गया ।कुछ दिन बाद मालिश करते हुए नाइन बड़बड़ाई कि लो अब इलाहाबाद और हबीबगंज भी हाथ से गया ।

मालिश के प्रताप से लड़के के शरीर में चर्बी फैलने लगी तो कोई कहता क्यूट बेबी, कोई कहता वाह रे लल्ला, कोई कहता मुन्ना रे मुन्ना, कोई कहता होनूलुलु…… न जाने किस किस नाम से रोज पुकारा गया। दिन में पांच सात बार नाम बदलते रहे। दशरथ के पुत्र बड़े भाग्यवान थे कि जब ठुमक के पहली बार चले तो पूरी दुनिया गाने लगी……

“ठुमक चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियां”

इस प्रकार धरती पर पहली बार ठुमक के चलने से उनको स्थायी नाम मिल गया। इधर हमारे गरीब परिवार के अधिकांश बच्चों को स्थायी नाम स्कूल का हेड मास्टर ही मजबूरी में दे पाता है।

जिनका नाम नहीं होता वह इंसान नहीं होता, इसलिए पुराने जमाने में पत्नी अपने पति का नाम नहीं लेती थी, पति को पप्पू के पापा कहके पुकारती थी।

नाम रखने में बड़े चोचले होते हैं, नाइन कुछ नाम लेकर आती है, नानी कुछ नाम और भेजती है, आजा – आजी कुछ और नाम रखना चाहते हैं, नाम रखने की प्रतियोगिता होती है फिर नाम रखने में ईगो टकराते हैं और नाम रखने के चक्कर में बाप-महतारी लड़ पड़ते हैं इस प्रकार नाम रखने का काम टलता जाता है। पांच साल लल्ला- मुन्ना जैसे टेम्प्ररी नाम से काम चलता रहता है। प्रापर नाम नहीं मिलने से घर में ऊधम जब बढ़ जाता है तो ऊधम करने वाले की हेड मास्टर के सामने पेशी हो जाती है। हेड मास्टर बोला स्कूल में ये लल्ला – मुन्ना नहीं चलेगा कोई परमानेन्ट नाम देना पड़ेगा, ऐसा नाम जिसको रिकार्ड करना पड़ेगा और वही नाम भविष्य में समाज, शासन, आधार कार्ड, वोटर कार्ड और अंत में श्मशान में काम आयेगा।

शहरों, स्मारक, स्टेशन के नाम परिवर्तन को लेकर कालेज की वाद विवाद प्रतियोगिता में विवाद की स्थिति पैदा हो गई। राम के नाम पर भी विवाद हो गया। जिस नाम को सामाजिक मान्यता मिल जाती है उसको बदलने से आक्रोश पैदा होता है। पक्ष और विपक्ष में टकराव होता है, राज पथ का नाम अब कर्तव्य पथ हो रहा है। इतिहास को खोद कर नये विवाद पैदा किये जाते हैं। नियति के बदलने से नाम बदलने का जुनून सवार हो जाता है।

नाम बदलने के कई छुपे हुए कारण है कुछ होता-जाता नहीं है तो नई चाल खेली जाती है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन में जिस शहर का नाम सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में आ जाता है उन शहरों के नाम बदल के सूची से नाम दूर हो जाता है और यदि अकबर से बदला लेने का मूड बन गया तो इलाहाबाद को प्रयाग राज कर दिया जाता है जिससे नाम परिवर्तन करने वाले का इतिहास में नाम दर्ज हो जाता है।

स्वीटी है कि अपनी जिद पर अड़ी है कहती है – नाम-वाम में कुछ नहीं रखा है काम से मतलब है काम करोगे तो नाम होगा, स्वीटी की बात सुनकर किसी ने कहा – ‘नाम गुम जाएगा…. चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान है….. और यदि आवाज भी खराब हो गई तो आधार तो है आधार से काम चल जाएगा उसमें नाम मिल ही जाएगा। देखो भाई, सीधी सी बात ये है कि नाम में क्या रखा है काम से नाम होता है।

दशरथ के पुत्र राम का नाम उनके काम से हुआ, वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाए, तभी तो सब कहते हैं…….

“राम का नाम सदा मिसरी

सोवत जागत न बिसरी”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 105 ☆ # मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 105 ☆

☆ # मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है… # ☆ 

जब मैंने कलम उठाई

तो सोचा

बस सच ही लिखूंगा

चारण और भाटों सा नहीं बिकूंगा

कुछ अलग होगी छवि मेरी

सिद्धांतों से कभी नहीं डिगूंगा

 

मेरे शब्द जब उनको चुभने लगे

अपने अहंकार में जब वो डूबने लगे

खतरे में पड़ा जब उनका अस्तित्व

वो हर गली चौराहे पर मुझे ढूंढने लगे

 

मेरे कलम का बहिष्कार कर दिया

मेरे खिलाफ दिलों में नफ़रत भर दिया

जो उसे पढ़ेगा वो विद्रोही कहलायेगा

मुझे कवि मानने से ही इनकार कर दिया

 

मेरे साथ आज कोई खड़ा नहीं है

मेरे हक के लिए कोई लड़ा नहीं है

गुमनाम सा जी रहा हूं अपने ही शहर में

मेरा वजूद जिंदा है, अभी मरा नहीं है

 

ऐसे समाज में मैं लिख के क्या करूं?

किसके लिए जीऊँ, किसके लिए मरूं

पत्थर से हो गये हैं जीते जी यहां

किस किसके सीने में जान फूंकता फिरूँ

 

आज मैंने अपनी कलम तोड़ दिया है

आज से मैंने लिखना छोड़ दिया है

अंधों, गूँगों, बहरों की नगरी में

पत्थरों पर सर फोड़ना छोड़ दिया है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 106 ☆ कुठे हरवली प्रीत… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 106 ? 

☆ कुठे हरवली प्रीत… ☆

(दश अक्षरी) 

कुठे हरवली प्रीत सांगा

तुटला कसा प्रेमाचा धागा…०१

 

स्नेह कसे आटले विटले

तिरस्काराचे बाण रुतले…०२

 

अशी कशी ही बात घडली

संयमाची घडी विस्कटली…०३

 

मधु बोलणे लोप पावले

जसे अंगीचे रक्त नासले…०४

 

तिटकारा हा एकमेकांचा

नायनाट ऋणानुबंधाचा…०५

 

अंधःकार भासतो सर्वदूर

लेकीचे तुटलेच माहेर…०६

 

भावास बहीण जड झाली

पैश्याची तिजोरी, का रुसली…०७

 

कोडे पडले मना-मनाला

गूढ उकलेना, ते देवाला…०८

 

माणूस मी कसा घडवला

होता छान, कसा बिघडला…०९

 

राज विषद, मन मोकळे

सु-संस्कार, सोनेचं पिवळे…१०

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग – ४३ – आशिया ते अमेरिका प्रवास ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग – ४३ – आशिया ते अमेरिका प्रवास ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

परिव्राजक म्हणून स्वामी विवेकानंद या आधी भारतात हवे तसे फिरले होते. पण हा प्रवास तसा नव्हता, आजही ते परिव्राजक होते, पण ही भ्रमंती ठरल्याप्रमाणेच, ठरलेल्या दिशेने आणि एका शिस्तीनेच करायची होती. तेरा हजार किलोमीटर अंतरावर जायचे होते.भारत भ्रमणात दरवेळी फिरताना त्यांच्याकडे सामान नसे. आता मात्र समान होते आणि पैसेही होते गरज म्हणून. सोय म्हणून. विवेकानंदांना याची सवय नव्हती. जहाजाचा प्रवास, सकाळचा नाश्ता, दुपारचे आणि रात्रीचे जेवण, वागण्या बोलण्यातले शिष्टाचार पाळणे याला ते हळूहळू सरावले.

त्यांच्या या पी अँड ओ कपंनीच्या पेनिन्शूलर जहाजातून याच वेळी मुंबईचे शेठ छबिलदास जपानला आणि भारतातील औद्योगिक युगाचे प्रवर्तक मानले जाणारे सर जमशेटजी टाटा शिकागोसाठीच प्रवास करत होते. एक आठवड्याने पहिला पडाव झाला एक दिवसाचा, सिलोन म्हणजे श्रीलंकेतील कोलंबो इथं.विवेकानंद शहरातून फिरून आले, नंतर जहाज पेनांगला थोडा वेळ थांबून, हाँगकाँगला आले. सिंगापूर, मलाया सुमात्रा यांचे दर्शन जहाजावरूनच झाले होते. हाँगकाँगला त्यांना खलाशी, कामगार, तिथले लोक यांचा व्यवहार पाहून तिथल्या दारीद्र्याची कल्पना आली. स्त्रियांची स्थिति समजली .अनेक गोष्टींची निरीक्षणे त्यांनी केली. चीनी मंदिरे आणि भारतीय मंदिरे पाहिली. कॅन्टनमध्ये चीनमधला पहिला बुद्धधर्मीय सम्राट आणि त्याचे पाचशे शिष्य यांच्या स्मरणार्थ उभे केलेले सर्वात मोठे बुद्धमंदिर पहिले. पण इथला बौद्ध मठ कसा असतो याची त्यांना उत्सुकता होती,

इथे एक मजेदार घटना घडली. गाईडने बुद्ध मठाजवळ विवेकानंदांना नेलं, पण कुणाला आत प्रवेश नव्हता. विवेकानंदांनी कसेबसे त्याला मनवून आत प्रवेश केला तेव्हाढ्यात आतून दंडुके घेऊन काही लोक आले. बरोबरचे प्रवासी बाहेर पाळले, पण विवेकानंद यांनी त्या माणसाचा हात धरून ठेवला आणि त्याला म्हटले, चीनी भाषेत ‘भारतीय योगी’ याला काय शब्द आहे? त्याने शब्द सांगितला. विवेकानंद जागचे हलले नाहीत. ठामपणे उभे राहिले आणि धावत येणार्‍या लोकांना त्या शब्दात आपण भारतीय योगी आहोत हे मोठयाने सांगितले. तसे चमत्कार झाला, सर्वांनी दंडुके खाली घेतले आणि सर्वजण नम्रपणे उभे राहिले.त्या मठवासी लोकांनी विवेकानंदांना हात जोडून विनंती केले की,भुते खेते आणि पिशाच्च यांची बाधा होऊ नये म्हणून तुम्ही ताईत द्यावेत . विवेकानंदांचा यावर अजिबात विश्वास नव्हता. पण हा विचार करण्याची ही वेळ नव्हती. त्यांचे समाधान करणे भाग होते. विवेकानंदांनी जवळचा कागद काढला, दोन तुकडे केले, त्यावर आडव्या उभ्या रेघा मारल्या, मधोमध ओम अक्षर लिहिले. आणि त्यांना दिले. त्याबरोबर त्यांनी आदराने तो घेतला आणि कपाळाला लावला. हे त्यांचे अज्ञान बघून विवेकानंदांना खूप कीव आली. याच जोडीला त्यांचे दारिद्र्य, अस्वच्छता हेही दिसले. नंतर त्या लोकांनी मठाच्या आतील भागात नेले तिथे, जुन्या हस्तलिखित पोथ्या ठेवल्या होत्या.त्या संस्कृतमध्ये होत्या आणि लिपी बंगाली होती. याचं त्यांना फार आश्चर्य वाटलं. तिथे बुद्ध मंदिरात पाचशे अनुयायांपैकी काहींचे चेहरे विवेकानंदांना बंगाली वाटले होते. मग त्यांच्या लक्षात आले की, बुद्ध धर्माचा प्रचार करण्यासाठी भारतातून जे भिक्षू गेले होते त्यापैकी अनेक बंगाल मधून गेले असले पाहिजेत. 

हाँगकाँग सोडल्यानंतर जहाज नागासकी बंदरात थांबले होते. जपान मध्ये शिरताच त्यांना चीन आणि जपान यातला प्रचंड फरक जाणवला होता. त्यांना जपान मध्ये दिसलं होतं, स्वच्छता, नीटनेटकेपणा, प्रत्येक बाबतीतली सौंदर्य दृष्टी, आधुनिक विज्ञानाचा केलेला स्वीकार, याचा त्यांच्या मनावर प्रभाव पडला होता.सरळ आणि रुंद रस्ते, शहराची नीटशी रचना, घराभोवती बगीचे, अशा शिकण्यासारख्या अनेक गोष्टी पाहायला मिळाल्या. त्यांना मनोमन वाटलं की जास्तीत जास्त भारतीय तरुणांनी जपानला एकदा तरी भेट दिली पाहिजे, इथेही त्यांना जपानी मंदिरांमध्ये भिंतीवर जुन्या बंगाली लिपीत संस्कृत मंत्र लिहिलेले आढळले. चीन आणि जपान हे दोन्ही देश भारताशी नातं सांगणारे दिसले. भारताकडे आदराने पहाणारे दिसले. पण भारताची आजची स्थिति विवेकानंदांनी पाहिली होती. याची तुलना त्यांनी लगेच केली. त्यांनी इथूनच लगेच शिष्यांना एक पत्र लिहिलं आणि परखडपणे म्हटलं की,  “जरा इकडे या, हे लोक पहा आणि शरमेने आपली तोंडे झाकून घ्या. पण परंपरेने गुलाम असलेले तुम्ही इकडे कसे येणार?तुम्ही जरा बाहेर पडलात की लगेच आपली जात गमावून बसाल. गेली कित्येक शतके आपण काय करीत आलो आहोत?. ”               

आशियामधून अजून जहाज बाहेर पडायचे होते, नव्या जगात पोहोचायला साडेसहा हजार किलोमीटरचा प्रवास अजून बाकी होता, पॅसिफिक महासागर पार व्हायचा होता. तोवरच विवेकानंदांनी मनातली ही व्यथा आपल्या शिष्यांना पत्रातून कळवली होती.

चौदा जुलैला योकोहामाला जहाज बदलून ‘एम्प्रेस ऑफ इंडिया’ या जहाजात ते बसले. आशिया खंडाला मागे टाकून, पॅसिफिक महासागरातून नव्या दिशेकडे जहाज मार्गस्थ होत होते. भारतातून निघताना त्यांची तयारी अनुयायांनी छान करून दिली होती. पण त्यात गरम कपडे नव्हते. त्यामुळे हा थंडीतला प्रवास खूप त्रासदायक ठरला.

पंचवीस जुलै १८९३ला संध्याकाळी जहाज व्हंकुव्हरला पोहोचले. इथून रेल्वेने दुसर्‍या दिवशी शिकागोला जायचे होते. इथे पहिल्यांदा विवेकानंदांनी अमेरिकेच्या भूमीवर पहिले पाऊल ठेवले.

अमेरिकेचा भूप्रदेश, उंच उंच पर्वत, खोल दर्‍या, पांढर्‍या शुभ्र हिमनदया, घनदाट अरण्ये, अशी निसर्गाची अनेक रुपे बघून त्यांचे मन प्रसन्न झाले. शिकागोकडे जाणार्‍या, या गाडीत अनेक देशांचे प्रवासी बसले होते. त्यात केट सॅनबोर्न ही पन्नाशीची बुद्धिवंत लेखिका होती, तिच्याशी विवेकानंद यांचा संवाद झाला. त्यांचा पत्ता घेतला. ओळख झाली. त्यांनी घरी येण्याचं निमंत्रण पण दिलं. ते पुढच्या मुक्कामात कामी आले.

तीस जुलैला विवेकानंद शिकागोला उतरले. इथल्या बारा दिवसांच्या सुरुवातीच्या वास्तव्यात एकामागून एक त्यांना धक्के बसले. पहिलं म्हणजे प्रचंड महागाई, रोज पाच डॉलर खर्च, दुसर म्हणजे सर्वधर्म परिषद सुरू होण्यास अजून पाच आठवडे बाकी आहेत, तिसरं म्हणजे या परिषदेला प्रतिनिधी म्हणून उपस्थित राहायचे असेल तर, कोणत्या तरी संस्थेचे अधिकार पत्र आवश्यक आहे, चौथं म्हणजे प्रतिनिधी म्हणून नाव नोंदविण्याची मुदतच संपली आहे. आता कोणालाही प्रतिनिधी म्हणून प्रवेश मिळणार नाही. आता पुढे काय? हे मोठे प्रश्न चिन्ह उभे होते.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 37 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 37 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

५७.

प्रकाश, माझा प्रकाश,

विश्व भरून राहिलेला प्रकाश

नयनाला स्पर्श करून

ऱ्हदयाला आनंद देणारा प्रकाश

 

हे जीवलगा, माझ्या जीवनात

आनंद नाचून राहिला आहे

माझ्या प्रेमाच्या तारा प्रकाशात झंकारल्या आहेत.

प्रकाशामुळेच आकाश विस्तारते,

वारा बेफाट वाहतो, भूमीवर सर्वत्र हास्य पसरते.

 

फुलपाखरं आपल्या नौका

प्रकाशसमुद्रात सोडतात,

लिली आणि जास्मिनची फुलं फुलतात

ती प्रकाशाच्या लाटांवर!

 

हे प्राणसख्या, प्रत्येक ढगाच्या

सोनेरी छटेवर प्रकाश आहे

मुक्तपणे मोत्यांची उधळण करतो आहे.

 

पानांपानांतून अमर्याद

आनंदाची उधळण तो करतो.

स्वर्गनदी दुथडी भरून वाहते आहे.

सर्वत्र आनंद भरून राहिला आहे.

५८.

अल्लड गवत पात्याच्या तालावर

आनंदात जे सर्व पृथ्वी फुलवतं,

 

जन्म- मृत्यू या जुळ्या भावंडांना

जगभर ते नाचवत ठेवतं,

 

हसत हसत सर्व जीवन वादळीवाऱ्यातही

ते डोलवतं आणि जागं ठेवतं.

 

फुललेल्या लाल कमळाच्या पाकळीवर

आसूभरल्या नयनांनी ते विसावतं,

 

आपल्याकडं असलेलं सर्वस्व

मूकपणं जे धुळीत उधळतं,

 

त्या माझ्या आनंदगीताच्या सुरावटीत

सर्वानंदाचे स्वर मिळावेत.

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #168 ☆ व्यंग्य ☆ साहित्यिक पीड़ा के क्षण ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय व्यंग्य ‘साहित्यिक पीड़ा के क्षण’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 168 ☆

☆ व्यंग्य ☆ साहित्यिक पीड़ा के क्षण

डेढ़ सौ कविताओं और सौ से ऊपर कहानियों का लेखक शहर में कई दिन से पड़ा है। लेकिन शहर है कि कहीं खुदबुद भी नहीं होती, एक बुलबुला नहीं उठता। एकदम मुर्दा शहर है, ‘डैड’। लेखक बहुत दुखी है। उनके शहर में आने की खबर भी कुल जमा एक अखबार ने छापी, वह भी तब जब उनके मेज़बान दुबे जी ने भागदौड़ की। अखबारों में भी एकदम ठस लोग बैठ गये हैं। इतने बड़े लेखक का नाम सुनकर भी चौंकते नहीं, आँखें मिचमिचाते कहते हैं, ‘ये कौन शार्दूल जी हैं? नाम सुना सा तो लगता है। अभी तो बहुत मैटर पड़ा है। देखिए एक-दो दिन में छाप देंगे।’

शहर के साहित्यकार भी कम नहीं। कुल जमा एक गोष्ठी हुई, उसके बाद सन्नाटा। गोष्ठी की खबर भी आधे अखबारों ने नहीं छापी। किसी ने रिपोर्ट छापी तो फोटो नहीं छापी। एक ने उनका नाम बिगाड़ कर ‘गर्दूल जी’ छाप दिया। रपट छपना, न  छपना बराबर हो गया। जैसे दाँत के नीचे रेत आ गयी। मन बड़ा दुखी है। वश चले तो उस अखबार के दफ्तर में आग लगा दें।

दो-तीन दिन तक कुछ साहित्यप्रेमी दुबे जी के घर आते रहे। शार्दूल जी अधलेटे, मुँह ऊपर करके सिगरेट के कश खींचते, उन्हें प्रवचन देते रहे। अच्छी रचना के गुण समझाते रहे और अपनी रचनाओं से उद्धरण देते रहे। दूसरे लेखकों की बखिया उधेड़ते रहे। फिर साहित्यप्रेमी उन्हें भूलकर अपनी दाल-रोटी की फिक्र में लग गये। अब शार्दूल जी अपनी दाढ़ी के बाल नोचते बिस्तर पर पड़े रहते हैं। आठ दस कप चाय पी लेते हैं, तीन-चार दिन में नहा लेते हैं। शहर पर खीझते हैं। इस शहर में कोई संभावना नहीं है। शहर में क्या, देश में कोई संभावना नहीं है। ‘द कंट्री इज गोइंग टू डॉग्स’। ऊबकर शाल ओढ़े सड़क पर निकल आते हैं। बाज़ार के बीच में से चलते हैं। दोनों तरफ देखते हैं कि कोई ‘नोटिस’ ले रहा है या नहीं। उन्हें देखकर किसी की आँखें फैलती हैं या नहीं। लेकिन देखते हैं कि सब भाड़ झोंकने में लगे हैं। किसी की नज़र उन पर ठहरती नहीं। कितनी बार तो पत्रिकाओं में उनकी फोटो छपी— हाथ में कलम, शून्य में टँगी दृष्टि, आँखों में युगबोध। लेकिन यहाँ किसी की आँखों में चमक नहीं दिखती। सब व्यर्थ, लेखन व्यर्थ, जीवन व्यर्थ। पत्थरों का शहर है यह।

एक चाय की दूकान पर बैठ जाते हैं। चाय का आदेश देते हैं। मैले कपड़े पहने आठ- दस साल का एक लड़का खट से चाय का गिलास रख जाता है। ‘खट’ की आवाज़ से शार्दूल जी की संवेदना को चोट लगती है, ध्यान भंग होता है। खून का घूँट पीकर वह चाय ‘सिप’ करने लगते हैं। सड़क पर आते जाते लोगों को देखते हैं। उन्हें सब के सब व्यापारी किस्म के, बेजान दिखते हैं।      

चाय खत्म हो जाती है और लड़का वैसे ही झटके से गिलास उठाता है। गिलास उसके हाथ से फिसल कर ज़मीन पर गिर जाता है और काँच के टुकड़े सब दिशाओं में प्रक्षेपित होते हैं। दूकान का मालिक लड़के का गला थाम लेता है और सात-आठ करारे थप्पड़ लगाता है। लड़का बिसूरने लगता है।

शार्दूल जी के मन में बवंडर उठता है। मुट्ठियाँ कस जाती हैं। साला हिटलर। हज़ारों साल से चली आ रही शोषण की परंपरा का नुमाइंदा। समाज का दुश्मन। नाली का कीड़ा। ज़ोरों से गुस्से का उफान उठता है, लेकिन शार्दूल जी मजबूरी में उसे काबू में रखते हैं। पराया शहर है यह। यहाँ उलझना ठीक नहीं। कोई पहचानता नहीं कि लिहाज करे। दूकान मालिक की नज़र में इतना बड़ा लेखक बस मामूली ग्राहक है। हमीं पर हाथ उठा दे तो इज़्ज़त तो गयी न। और फिर हमारे विद्रोह को समझने वाला, उसका मूल्यांकन करने वाला कौन है यहाँ? न अखबार वाले, न फोटोग्राफर, न साहित्यकार-मित्र। ऐसा विद्रोह व्यर्थ है, खासी मूर्खता।

शार्दूल जी एक निश्चय के साथ उठते हैं। विरोध तो नहीं किया, लेकिन दूकान-मालिक को छोड़ना नहीं है। कविता लिखना है, जलती हुई कविता। कविता में इस जल्लाद को बार-बार पटकना है और लड़के को न्याय दिलाना है। बढ़िया विषय मिला है। धुँधला होने से पहले इसे कलमबंद कर लेना है। धधकती कविता, लावे सी खौलती कविता।
दूकान-मालिक पर आग्नेय दृष्टि डालकर शार्दूल जी झटके में उठते हैं और बदन को गुस्से से अकड़ाये हुए दुबे जी के घर की तरफ बढ़ जाते हैं। अब दूकान-मालिक की खैर तभी तक है जब तक शार्दूल जी घर नहीं पहुँच जाते। उसके बाद कविता में इस खलनायक के परखचे उड़ेंगे।

शार्दूल जी चलते-चलते मुड़कर दूकान की तरफ दया की दृष्टि डालते हैं। पाँच दस मिनट और मौज कर ले बेटा, फिर तुझे रुई की तरह धुनकर भावी पीढ़ी के लाभार्थ सौंप दिया जाएगा।

शार्दूल जी की गति तेज़ है। वे जल्दी अपने मित्र के घर पहुँचना चाहते हैं। एक सामाजिक दायित्व है जो पूरा करना है और जल्दी पूरा करना है। एक कविता जन्म पाने के लिए छटपटा रही है— ऐसी कविता जो बहुत से कवियों को ढेर कर देगी और शार्दूल जी को स्थापित करने के लिए बड़ा धमाका साबित होगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 116 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 116 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 116) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 116 ?

☆☆☆☆☆

Treasure of Love

 कभी किसी ने अपना थोड़ा सा

कीमती वक्त दिया था हमें,

हमने भी उसे दौलत-ए-इश्क़ समझ

आज तक दिल के करीब रखा है

 Someone had once given his

little bit of precious time,

I’ve also kept it close to the heart

as treasure of love till date…!

☆☆☆☆☆

क्यूँ तुम्हारे नाम को सुनते ही

मेरी सांस महकने  लगती है,

एहसास नशे का होता है और

हर फ़िक्र बहकने लगती है…

Why my breaths become fragrant

moment I hear your name

Feeling is of inebriation and

every worry starts to delude…

☆☆☆☆☆

दोबारा प्यार करना अब

कभी मुमकिन ही नहीं,

छोड़ा ही कहाँ तुमने इस

दिल को धड़कने के काबिल…

It is just not possible

to fall in love again,

You haven’t left this heart

capable of beaing again!

☆☆☆☆☆

सिरहाने मीर के

ज़रा आहिस्ता बोलो…

अभी तक रोते-रोते

सो गया है…!

Speak slowly near

the head of Mir…

He has just fallen off

to sleep crying…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 164 ☆ तीर्थाटन-1 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 164 ☆ तीर्थाटन – 1 ☆?

भारतीय दर्शन में तीर्थ के अनेक अर्थ मिलते हैं। तरति पापादिकं तस्मात। अर्थात जिसके द्वारा मनुष्य दैहिक, दैविक एवं भौतिक, सभी प्रकार के पापों से तर जाए, वह तीर्थ है। इसीके समांतर भवसागर से पार उतारने वाला अथवा वैतरणी पार कराने वाला के अर्थ में भी तीर्थ को ग्रहण किया जाता है।

संभवत: इसी आधार पर स्कंदपुराण के काशी खंड में तीन प्रकार के तीर्थ बताये गए हैं- जंगम, स्थावर तथा मानस। संत, वेदज्ञ एवं गौ, जंगम यानि चलते-फिरते तीर्थ। सत्पुरुषों को जंगम तीर्थ कहा गया। सच्चे और परोपकारी भाव के सज्जनों का आशीर्वाद फलीभूत होने की सामुदायिक मान्यता भी जंगम तीर्थ को मिली है। कतिपय विशिष्ट स्थानों को स्थावर तीर्थ कहा गया। इन स्थानों का अपना महत्व होता है। यहाँ एक दैवीय सकारात्मकता का बोध होता है। अद्भुत प्रेरणादायी ऐसे तीर्थस्थान सामान्यत: जल या जलखंड के समीप स्थित होते हैं। ‘पद्मपुराण’ स्थावर तीर्थों को परिभाषित करते हुए लिखता है,

तस्मात् तीर्थेषु गंतव्यं नरै: संसार भिरूभि: पुण्योदकेषु सततं साधुश्रेणी विराजिषु।

पग-पग पर बुद्धिवाद को प्रधानता देनेवाली वैदिक संस्कृति ने समस्त तीर्थों में मानसतीर्थ को महत्व दिया है। मानसतीर्थ अर्थात मन की उर्ध्वमुखी प्रवृत्तियाँ। इनमें सत्य, क्षमा, इंद्रियनिग्रह, दया, दान, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, मधुरवचन, सरलता, संतोष सभी शामिल हैं।

अनेक मीमांसाकारों ने तीर्थों के 9 प्रकार बताते हैं। उन्होंने पहले तीन प्रकार का नामकरण नित्य, भगवदीय एवं संत तीर्थ किया है। ये तीर्थ ऐसे हैं जो अपने स्थान पर सदा के लिए स्थित हैं।

नित्य तीर्थ में पवित्र कैलाश पर्वत, मानसरोवर, काशी,  गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी आदि का समावेश है। माना जाता है कि इन स्थानों पर सृष्टि की रचना के समय से ही ईश्वर का वास है।

जिन स्थानों की रज पर भगवान के चरण पड़े, वे भगवदीय तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनमें ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, अयोध्या, वृंदावन आदि समाविष्ट हैं‌।

संतों की जन्मभूमि, कर्मभूमि, निर्वाणभूमि को संत तीर्थ कहा गया है। ये क्षेत्र मनुष्य को दिव्य अनुभूति एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं।

प्रत्यक्ष जीवन में, नित्य के व्यवहार में निरंतर ईश्वरीय सत्ता का दर्शन करनेवाली वैदिक संस्कृति अद्भुत है। वह अपने आसपास साक्षात तीर्थ देखती, दिखाती और जीवन को धन्य बनाती चलती है। इसी विराट व्यापकता ने अगले  6 तीर्थों में भक्त, गुरु, माता, पिता, पति, पत्नी को स्थान दिया है। अपने साथ ही तीर्थ लेकर जीने की यह वैदिक शब्दातीत दिव्यता है।

वैदिक दर्शन में चार पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवनचक्र के लिए उद्दिष्ट माने गये हैं। तीर्थ का एक अर्थ तीन पुरुषार्थ धर्म, काम और मोक्ष का दाता भी माना गया है। एक अन्य मत के अनुसार सात्विक, रजोगुण या तमोगुण जिस प्रकार का जीवन  जिया है, उसी आधार पर तीर्थ का परिणाम भी मिलता है। समान कर्म में भी भाव महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ परमाणु ऊर्जा से एक वैज्ञानिक बिजली बनाने की सोचता है जबकि दूसरा मानवता के नाश का मानस रखकर परमाणु बम पर विचार करता है।

जिससे संसार समुद्र तीरा जाए, उसे भी तीर्थ कहा जाता है। अगस्त्य मुनि ने एक आचमन में समुद्र को पी लिया था। प्रभु श्रीराम के धनुष उठाने पर समुद्र ने रास्ता छोड़ा था। तीर्थयात्रा संसार समुद्र के पार जाने का सेतु बनाती है।

तीर्थ मृण्मय से चिन्मय की यात्रा है। मृण्मय का अर्थ है मृदा या मिट्टी से बना। चिन्मय, चैतन्य से जुड़ा है। देह से देहातीत होना, काया से आत्मा की यात्रा है तीर्थ। आत्मा के रूप में हम सब एक ही परमात्मा के अंश हैं, इस भाव को पुनर्जागृत और पुनर्स्थापित करता है तीर्थ। अनेक से एक, एक से एकात्म जगाता है तीर्थ। अत: मनुष्य को यथासंभव तीर्थाटन करना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 116 ☆ दोहा सलिला – “मन दर्पण में देख रे!…” ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित दोहा सलिला – “मन दर्पण में देख रे!…”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 116 ☆ 

☆ दोहा सलिला –  मन दर्पण में देख रे!

कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान

पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण

मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ

हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ

हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर

मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर.

मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स

वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स

जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार

छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार

माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार

माटी माटी से मिले, माटी ले आकार

मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम

मैना – कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२७-१०-२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #148 ☆ आलेख – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 148 ☆

☆ ‌आलेख – एक हृदय स्पर्शी संवाद – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

अगर सच कहा जाए तो सूर दास जी के द्वारा रचित कृष्ण चरित पर आधारित सूर  सागर में जितना सुंदर कथानक प्रेम में संयोग श्रृंगार का है।  

उससे भी कहीं अनंत गुना ज्यादा आत्म स्पर्शी वर्णन उन्होंने वियोग श्रृंगार का किया है। कृष्ण जी की ब्रजमंडल में की गई बाल लीलाएं जहां मन को मुदित करती है, एक-एक रचना का सौंदर्य, बाल लीला की घटनाएं जहां आनंदातिरेक में प्रवाहित कर देती है वहीं प्रेम के  वियोग श्रृंगार-श्रृंखला की रचनाएं बहाती नहीं बल्कि पाठक वर्ग को करूणा रस में डुबा देती हैं, कृष्ण की यादों ने जहां ब्रज मंडल की गोपिकाओं तथा राधा को विक्षिप्तता की स्थिति में ला खड़ा किया है, वह कृष्ण की यादों में खोई कृष्णमयी हो गई है, जिसे पढ़ते हुए समस्त पाठक वर्ग को आत्म विभोरता की स्थिति में ला के खड़ा कर देती है।

जिसका जीवंत उदाहरण कृष्ण-उद्धव, तथा उद्धव गोपियों के संवाद में दिखाई देता है तो वहीं दूसरी ओर कृष्ण जी मात्र गोपियों को ही नहीं याद करते बल्कि उनके स्मृतियों में तो पूरा का पूरा ब्रजमंडल ही समाया हुआ है। जो ईश्वरीय चिंतन के असीमित विस्तार को दिखाता है। जब कृष्ण जी कहते हैं कि – “उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं”।

तब, कालिंदी कुंज की यादें, यशोदा के साथ की गई बाल लीला प्रसंग, गायों तथा गोप समूहों के साथ बिताए गए दिन तथा गोपियों और राधिका के साथ बिताए पलों को तथा ब्रज मंडल के महारास लीला को भूल नहीं पाते – बिहारी जी के शब्दों में वे अनोखी घटनाएं —-

बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।

सौह कहै भौहनि हसै, देश कहै नटि जाय।।

तथा छछिया भर छांछ पर नाचना आज भी नहीं भूला है कृष्ण को साथ ही याद है मइया यशोदा के हाथ का माखन याद है ब्रज की गलियां। तभी तो अपने हृदय की बात कहते हुए अपने सखा उद्धव से अपने मन की बात कह ही देते हैं। – उधव मोहि ब्रज बिसरत नाही”। 

ऐसा भी नहीं है कि कृष्ण को ही मात्र ब्रज की यादें व्यथित किए हुए हो, बल्कि सारा ब्रजमंडल ही कृष्ण वियोग की यादों में पगलाया हुआ है। जिसकी झांकी जब ऊधव ब्रज की गोपियों को निराकार ब्रह्म का उपदेश देने जाते हैं तब रास्ते के कांटे भी ऊधव जी को प्रेम का अर्थ समझाते हुए प्रतीत होते हैं जिसका यथार्थ चित्रण बिंदु जी की रचनाओं में दृष्टि गोचर होता है।

चले मथुरा से जब कुछ दूर, बृंदावन निकट आया।

वहीं पर प्रेम ने उनको, अनोखा रंग दिखलाया।

उलझ कर वस्त्र से कांटे, लगे ऊधव को समझानें।

तुम्हारा ज्ञान परदा फाड़ देंगे, प्रेम दीवाने।

…में प्रेम की गहन अनुभूति नहीं कराता बल्कि ऊधव को मजबूर कर प्रेम के सागर में डुबो देता है फिर तो एक हाथ में यशोदा का माखन तथा दूसरे में राधा द्वारा दी गई मुरली लिए  राधे राधे गा उठते हैं। और लौट आते हैं अपने बाल सखा के पास। भला प्रेम के वियोग श्रृंगार का ऐसा उत्कृष्ट और अनूठा चित्रण सूरसागर के अलावा कहाँ मिलेगा?

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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