डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय व्यंग्य ‘साहित्यिक पीड़ा के क्षण’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 168 ☆

☆ व्यंग्य ☆ साहित्यिक पीड़ा के क्षण

डेढ़ सौ कविताओं और सौ से ऊपर कहानियों का लेखक शहर में कई दिन से पड़ा है। लेकिन शहर है कि कहीं खुदबुद भी नहीं होती, एक बुलबुला नहीं उठता। एकदम मुर्दा शहर है, ‘डैड’। लेखक बहुत दुखी है। उनके शहर में आने की खबर भी कुल जमा एक अखबार ने छापी, वह भी तब जब उनके मेज़बान दुबे जी ने भागदौड़ की। अखबारों में भी एकदम ठस लोग बैठ गये हैं। इतने बड़े लेखक का नाम सुनकर भी चौंकते नहीं, आँखें मिचमिचाते कहते हैं, ‘ये कौन शार्दूल जी हैं? नाम सुना सा तो लगता है। अभी तो बहुत मैटर पड़ा है। देखिए एक-दो दिन में छाप देंगे।’

शहर के साहित्यकार भी कम नहीं। कुल जमा एक गोष्ठी हुई, उसके बाद सन्नाटा। गोष्ठी की खबर भी आधे अखबारों ने नहीं छापी। किसी ने रिपोर्ट छापी तो फोटो नहीं छापी। एक ने उनका नाम बिगाड़ कर ‘गर्दूल जी’ छाप दिया। रपट छपना, न  छपना बराबर हो गया। जैसे दाँत के नीचे रेत आ गयी। मन बड़ा दुखी है। वश चले तो उस अखबार के दफ्तर में आग लगा दें।

दो-तीन दिन तक कुछ साहित्यप्रेमी दुबे जी के घर आते रहे। शार्दूल जी अधलेटे, मुँह ऊपर करके सिगरेट के कश खींचते, उन्हें प्रवचन देते रहे। अच्छी रचना के गुण समझाते रहे और अपनी रचनाओं से उद्धरण देते रहे। दूसरे लेखकों की बखिया उधेड़ते रहे। फिर साहित्यप्रेमी उन्हें भूलकर अपनी दाल-रोटी की फिक्र में लग गये। अब शार्दूल जी अपनी दाढ़ी के बाल नोचते बिस्तर पर पड़े रहते हैं। आठ दस कप चाय पी लेते हैं, तीन-चार दिन में नहा लेते हैं। शहर पर खीझते हैं। इस शहर में कोई संभावना नहीं है। शहर में क्या, देश में कोई संभावना नहीं है। ‘द कंट्री इज गोइंग टू डॉग्स’। ऊबकर शाल ओढ़े सड़क पर निकल आते हैं। बाज़ार के बीच में से चलते हैं। दोनों तरफ देखते हैं कि कोई ‘नोटिस’ ले रहा है या नहीं। उन्हें देखकर किसी की आँखें फैलती हैं या नहीं। लेकिन देखते हैं कि सब भाड़ झोंकने में लगे हैं। किसी की नज़र उन पर ठहरती नहीं। कितनी बार तो पत्रिकाओं में उनकी फोटो छपी— हाथ में कलम, शून्य में टँगी दृष्टि, आँखों में युगबोध। लेकिन यहाँ किसी की आँखों में चमक नहीं दिखती। सब व्यर्थ, लेखन व्यर्थ, जीवन व्यर्थ। पत्थरों का शहर है यह।

एक चाय की दूकान पर बैठ जाते हैं। चाय का आदेश देते हैं। मैले कपड़े पहने आठ- दस साल का एक लड़का खट से चाय का गिलास रख जाता है। ‘खट’ की आवाज़ से शार्दूल जी की संवेदना को चोट लगती है, ध्यान भंग होता है। खून का घूँट पीकर वह चाय ‘सिप’ करने लगते हैं। सड़क पर आते जाते लोगों को देखते हैं। उन्हें सब के सब व्यापारी किस्म के, बेजान दिखते हैं।      

चाय खत्म हो जाती है और लड़का वैसे ही झटके से गिलास उठाता है। गिलास उसके हाथ से फिसल कर ज़मीन पर गिर जाता है और काँच के टुकड़े सब दिशाओं में प्रक्षेपित होते हैं। दूकान का मालिक लड़के का गला थाम लेता है और सात-आठ करारे थप्पड़ लगाता है। लड़का बिसूरने लगता है।

शार्दूल जी के मन में बवंडर उठता है। मुट्ठियाँ कस जाती हैं। साला हिटलर। हज़ारों साल से चली आ रही शोषण की परंपरा का नुमाइंदा। समाज का दुश्मन। नाली का कीड़ा। ज़ोरों से गुस्से का उफान उठता है, लेकिन शार्दूल जी मजबूरी में उसे काबू में रखते हैं। पराया शहर है यह। यहाँ उलझना ठीक नहीं। कोई पहचानता नहीं कि लिहाज करे। दूकान मालिक की नज़र में इतना बड़ा लेखक बस मामूली ग्राहक है। हमीं पर हाथ उठा दे तो इज़्ज़त तो गयी न। और फिर हमारे विद्रोह को समझने वाला, उसका मूल्यांकन करने वाला कौन है यहाँ? न अखबार वाले, न फोटोग्राफर, न साहित्यकार-मित्र। ऐसा विद्रोह व्यर्थ है, खासी मूर्खता।

शार्दूल जी एक निश्चय के साथ उठते हैं। विरोध तो नहीं किया, लेकिन दूकान-मालिक को छोड़ना नहीं है। कविता लिखना है, जलती हुई कविता। कविता में इस जल्लाद को बार-बार पटकना है और लड़के को न्याय दिलाना है। बढ़िया विषय मिला है। धुँधला होने से पहले इसे कलमबंद कर लेना है। धधकती कविता, लावे सी खौलती कविता।
दूकान-मालिक पर आग्नेय दृष्टि डालकर शार्दूल जी झटके में उठते हैं और बदन को गुस्से से अकड़ाये हुए दुबे जी के घर की तरफ बढ़ जाते हैं। अब दूकान-मालिक की खैर तभी तक है जब तक शार्दूल जी घर नहीं पहुँच जाते। उसके बाद कविता में इस खलनायक के परखचे उड़ेंगे।

शार्दूल जी चलते-चलते मुड़कर दूकान की तरफ दया की दृष्टि डालते हैं। पाँच दस मिनट और मौज कर ले बेटा, फिर तुझे रुई की तरह धुनकर भावी पीढ़ी के लाभार्थ सौंप दिया जाएगा।

शार्दूल जी की गति तेज़ है। वे जल्दी अपने मित्र के घर पहुँचना चाहते हैं। एक सामाजिक दायित्व है जो पूरा करना है और जल्दी पूरा करना है। एक कविता जन्म पाने के लिए छटपटा रही है— ऐसी कविता जो बहुत से कवियों को ढेर कर देगी और शार्दूल जी को स्थापित करने के लिए बड़ा धमाका साबित होगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मनोरमा पंत

एक बढिया तीखा व्यंग