हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 180 ☆ व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव !)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 180 ☆  

? व्यंग्य – कुछ  कम एप्पल खाओ भाई आदम और ईव !  ?

उसने आदम को बनाया, उसके साथ के लिए सुन्दर सी ईव को बनाया।  एप्पल का पेड़  लगाया और उसकी रक्षा का काम आदम को सौंप दिया। आदम को ताकीद भी कर दी कि इस वृक्ष के फल तुम मत खाना।  दरअसल उसने एप्पल के फल गुरुत्वाकर्षण की खोज के लिए लगाए थे। और इसलिए भी कि बाद के समय में  कटे हुए एप्पल को ब्रांड बनाते हुए मंहगा मोबाईल लांच किया जा सके। और शायद इसलिए कि  चिकित्सा जगत को किंचित समझने वाले कथित साहित्यकार “एन  एप्पल ए डे कीप्स द  डाक्टर अवे “ टाइप की कहावतें गढ़ सकें, जो दूसरों को नसीहतें देने के काम आएं।  किन्तु नोटोरियस ईव  मनोहारी एप्पल खाने से खुद को रोक न सकी, इतना ही नहीं उसने आदम को भी एप्पल का स्वाद चखा दिया। 

तब से अब तक हर ईव  के सम्मुख हर आदम बेबस एप्पल खाये जा रहा है। कुछ सुसम्पन्न आदम एप्पल के साल दर साल बदलते मॉडल के आई फोन, नए नए स्लिम लेपटॉप, और कम्प्यूटर अपनी अपनी ईव को  रिझाने के लिए  ख़रीदे जा रहे  हैं। बाकी  के आदम और  ईव मजे में  चमकीली चिप्पी चिपके हुए विदेशी आयातित एप्पल खरीदकर खाये जा रहे हैं।  जो रियल एप्पल नहीं खा पा रहे वे  नीली फिल्मों से कल्पना के प्रतिबंधित वर्चुएल  एप्पल खाये जा  रहे हैं।  बच्चे को  जन्म देने के तमाम  दर्द भुगतते हुए भी ईव आबादी बढ़ाने में आदम का साथ दिये जा रही हैं। मजे लेकर एप्पल खाये जाने के आदम और ईव के इस  प्रकरण से उसकी बनाई दुनियां की आबादी इस रफ्तार से बढ़ रही है कि हम आठ अरब हो चुके हैं। कम से कम आबादी के मामले में जल्दी ही हम चीन से आगे निकलने वाले हैं।  

इसके बावजूद कि कोरोना जैसी महामारियां हुईं, भुखमरी, चक्रवाती तूफान, भयावह भूकंप, बाढ़, आगजनी जैसी विपदाएं होती ही रही।  आदम और ईव कथित ईगोइस्ट आदमी की नस्ल में  बदल  दंगे फसाद, कत्लेआम, आतंकवादी हत्याएं करने से रुक नहीं  रहे। रही सही कसर पूरी करने के लिए कई कई ‘आफ़ताब’ ढेरों  ‘श्रद्धाओं’ के टुकड़े टुकड़े, बोटी बोटी कर रहे हैं, फिर भी आदम और ईव का कुनबा दिन दूनी  रात चौगुनी गति से बढ़ा जा रहा है। अनवरत बढ़ा जा रहा है।  यूँ मुझे आठ अरब होने से कोई प्रॉब्लम नहीं है, जब सरकारों को कोई प्रॉब्लम नहीं  है, यूनाइटेड नेशंस को कोई समस्या नहीं है तो मुझे समस्या होनी भी नहीं चाहिए। वैसे भी जिन किन्हीं  संजय गांधियो को  इस बढ़ती आबादी से दिक्कत महसूस हुई उन्हें जनता ने नापसंद  किया है। फिर भी हिम्मत का काम हो रहा है जनसंख्या कानून की गुप चुप  चर्चा की सुगबुहाअट तो जब तब सुन पड़  रही है। अपनी तो दुआ है खूब आबादी बढ़े, क्योंकि आबादी वोट बैंक होती है और वोट से ही नेता बनते हैं, राजनीति चलती है।  मुझे दुःख केवल इस बात का है की कोई नया  कोलम्बस क्यों पैदा नहीं हो रहा जो एक दो और अमेरिका खोज निकाले। हो सके तो  महासागर ही पांच की जगह कम से कम सात ही हो जाएँ, हम तो कब से गए जा रहे हैं “सात समुन्दर पार से, गुड़ियों के बाजार से “ पर समुन्दर पांच के पांच ही हैं। महाद्वीप भी बस सात के सात हैं। 

हम जंगलो को काट काट कर नए नए महानगर जरूर बसाये जा रहे हैं पर उनका आसमान महज़  एक ही है।  सूरज बस एक ही है।  आठ अरब थके हारे आदम जात को सुनहरे सपनों वाली चैन की नींद में सुलाने, लोरी सुनाने के प्रतीक  दूर के  चंदामामा भी  सिर्फ एक ही हैं।  मुश्किल है कि इंसानो में बिलकुल एका नहीं है। मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना, अब आठ अरब भिन्न भिन्न दृष्टिकोण होंगे तो आखिर कैसे मैनेज होगी दुनियां।  इसलिए हे आदम और ईव  कृपया एप्पल खाना कम करो।  धरती पर आबादी का बोझा कम करो । 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 143 – गुब्बारे की कीमत ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विमर्श पर आधारित एक हृदयस्पर्शी लघुकथा “🎈गुब्बारे की कीमत 🎈”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 143 ☆

🌺लघु कथा 🎈गुब्बारे की कीमत 🎈

एक गुब्बारे वाला बरसों से बगीचे में गुब्बारे बेचकर अपनी जिंदगी की गाड़ी चला रहा था। एक साइकिल पर रंग-बिरंगे गुब्बारे सजाए वह बगीचे में इधर से उधर घूमता रहता था। सभी बच्चे उसका इंतजार करते थे। जिसके पास पैसे होते थे,  वे गुब्बारा ले लेते।

अभी कुछ दिनों से एक मासूम सी पांच वर्ष की बच्ची वहां खेलने आया करती थी। अपने टूटे-फूटे खिलौने लिए एक जगह बैठकर खेलती रहती थी। गुब्बारे देख उसका भी मन होता था। बार-बार वहां आती और देख कर चली जाती थी।

आज बड़ी हिम्मत करके आई और बोली… बाबा मुझे भी एक गुब्बारा दे दो पैसे मैं कल लाकर दूंगी। उसकी मासूमियत देखकर गुब्बारे वाले ने उसको एक गुब्बारा दे दिया और बड़े कड़े शब्दों में कहा… कल पैसे जरुर ले आना।

आज शाम को गुब्बारे वाला फिर बगीचे में आया। सभी बच्चों ने खेलकूद के बाद कुछ खाया। गुब्बारा खरीदा और अपने – अपने घर की ओर चले गए। पर वह बच्ची दिखाई नहीं दी।

गुब्बारे वाले ने एक बच्ची को धीरे से बुलाकर पूछा… तुम्हारे साथ जो कल एक बच्ची आई थी वह नहीं आई।

बच्ची ने कहा… अब कभी नहीं आएगी उसकी मां ने उसे गुब्बारा के लिए सजा दिया है।

सामने से देखा दोनों हाथ जले आंसुओं की धार, बाल बिखरे, वह एक महिला के साथ चली आ रही थी। आते ही वह महिला बोली… यह तुम्हारे पैसे अब कभी इसे गुब्बारा नहीं देना।

यह कह कर वह पीछे पलट कर चली गई।

बच्ची से पूछने पर पता चला उसकी अपनी मां मर गई है। यह सौतेली मां है। पिताजी तो हर समय बाहर रहते हैं और मां हमेशा कहती हैं इसकी मां तो मर गई, इसे छोड़ गई मेरे सिर पर, देखना किसी दिन नाक कटवायेगी।

थोड़ी देर बाद गुब्बारे वाला अपने सारे गुब्बारे स्वयं फोड़ चुका था और भारी मन से घर की ओर चल पड़ा।

फिर कभी बगीचे में उसने गुब्बारे नहीं बेचे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -12 – झीलें ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – परदेश की अगली कड़ी  “झीलें।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 12 – झीलें ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मुम्बई निवास के समय “बल्लार्ड पियर” के नाम का क्षेत्र सुना/देखा था। अमेरिका के शिकागो शहर में भी एक स्थान है, “नेवी पियर” गूगल से जब पियर का अनुवाद ढूंढा तो उसने पहले तो नाशपाती नामक फल बता दिया, हमें लगा जुलाई माह (सावन) के आस पास ही इस फल का मौसम रहता है। गूगल भी हमारे समान मौसम को मानता होगा, हम तो जीवन में मौसम को ही सबसे अधिक महत्व देते हैं।

नेवी पियर क्षेत्र यहां की सबसे बड़ी “मिशेगन झील” के एक तट को बांध कर बनाए गया था। झील इतनी बड़ी है, तो नेवी (नौसेना) भी इसका उपयोग करती रही होगी। अब ये एक दर्शनीय भ्रमण स्थल है, जहां हमेशा भीड़ रहती है। आसपास के क्षेत्र में उत्तर भारत के मेरठ शहर में प्रतिवर्ष भरने वाले “नौचंदी मेले” जैसा नज़ारा रहता हैं। खाने पीने की सैकड़ों दुकानें, बच्चे और बड़ो के विद्युत संचालित झूले, सार्वजनिक संगीत के माहौल में झूमते हुए युवा, मनोरंजन के नाम पर सब कुछ है।

मिशीगन झील एक “शिकागो नदी” से भी जुड़ी हुई है। झील में एकल नाव से दो सौ लोगों के बैठने वाले जहाज तक घूमने के लिए उपलब्ध हैं। पैसा फेक और तमाशा देख वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होती है।

यहां के युवा “पानी के खेल” (वाटर स्पर्ट्स) को भी बहुत शौक से खेलते हुए प्रकृति द्वारा उपलब्ध साधन का सही उपयोग करते हैं।

यहां के अमीर अपनी बड़ी वाली कार को नाव की छत पर रखकर आनंद लेने आते हैं। बड़े अमीर बड़ी नाव (Y वाला याट) को कार के साथ खींच कर लाते हैं। पुरानी कहावत है “जितना गुड डालेंगे उतना ही मीठा हलवा होगा। सावन आरंभ हो चुका है, तो कुछ मीठा हलवा हो जाए

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #166 ☆ ना चूक पाखरांची… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 166 ?

ना चूक पाखरांची … ☆

झालीत यंत्र साऱ्या मुडदाड माणसांची

किंमत कुठे कुणाला डोळ्यांतल्या झऱ्यांची

 

बैलास काम आता उरलेच फार नाही

बैला विनाच चाके पळतात ह्या रथाची

 

देहास अर्थ नाही काहीच हा कसा तो

जळतो तरी दिसेना का राख कापराची ?

 

मातीस खोल खड्डे लोखंड पेरलेले

उगवून छान आली स्वप्ने इथे घरांची

 

सोडून सर्व गेले सरणावरी मला ते

जळतेय सोबतीला मोळीच लाकडांची

 

सारेच उच्च शिक्षित शेती कुणी करावी

शेते उपेक्षतेने बघतात वाट त्यांची

 

आकाश झेप घ्यावी माझीच तीव्र ईच्छा

गेले उडून पक्षी ना चूक पाखरांची

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 116 – गीत – वशीकरण है तेरा… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत –वशीकरण है तेरा…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 116 – गीत – वशीकरण है तेरा…  ✍

वशीकरण है तेरा, शरणागत यह मन मेरा ।

 

लंबी गहरी मरुस्थली में भटक भटक भरमाया

जाने किसकी पुण्य प्रभाव से हरित भूमि को पाया

आनत हूं आश्चर्यचकित हूं, किसने दिया बसेरा।

वशीकरण है तेरा…

 

धूल धूसरिता रही जिंदगी एक रंग था काला।

मुझको कुछ भी पता नहीं था कैसा है उजियाला ।

दिव्य ज्योति अंबर से उतरी, नूतन दृश्य उकेरा।

वशीकरण है तेरा…

 

महक उठा है मन में मधुबन अद्भुत रास रचा है

वेणु गीत सा जीवन लगता या फिर वेद ऋचा  है ।

संभव हुआ असंभव कैसे, निश्चय जादू तेरा ।

वशीकरण है तेरा…

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 118 – “तीन तरह के तीन इत्र थे…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत –तीन तरह के तीन इत्र थे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 118 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “तीन तरह के तीन इत्र थे” || ☆

उस गरीब के तीन पुत्र थे

जो अपने में ही विचित्र थे

 

बडा पुत्र इस मोहल्ले की

सुबहसुबह गंदगी उठाता

एक बडा सा झाडू लेकर

पूरी सड़क झाड कर आता

 

सारे आसपास के पशुधन

जैसे उसके परम मित्र थे

 

दूजा स्टेशन पर जाकर

बड़ेबड़े से बोझ उठाता

जो अशक्त निर्धन होंउनको

उनके घरतक जा पहुँचाता

 

उसकी अच्छाई के किस्से

पूरी नगरी में सचित्र थे

 

और तीसरा बीमारों को

अस्पताल पहुँचाया करता

दीन दुखी की हर प्रकार की

सेवा टहल कराया करता

 

लोग कहा करते  इस घरके

तीन तरह के तीन इत्र थे

 

माँ बापू की कठिन कमाई

से दो पैसे आ पाते थे

नून प्याज से कैसे भी वे

रोटी आपनी खा पाते थे

 

सारे लोग सराहे इनको

जिन जिन के हिरदय पवित्र थे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

30-11-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 165 ☆ चिंतन – “महत्व श्रम”☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय आलेख–चिंतन – “महत्व श्रम”)

☆ आलेख # 165 ☆ चिंतन – “महत्व श्रम” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्त्री -पुरुषों के पास समय बिताने के लिए कोई काम न हो तो वे पतित हो जाते हैं। हमे काम मतलब श्रम से जी नहीं चुराना चाहिए, अन्यथा हम ऐसी वस्तु बन जायेंगे जिसका प्रकृति के लिए कोई उपयोग नहीं होगा। ”फल हीन अंजीर” की कथा याद करो जिसमे कहा गया था कि- बिना काम स्त्री-पुरुष झगड़ालू , असंतुष्ट, अधीर और चिड़चिड़े हो जाते हैं, चाहे ऊपर से वे कितने ही मीठे और मिलनसार ही क्यों न दिखाई दें। जो यह शिकायत करे कि ”मेरे पास कोई काम नहीं है” या ”मुझसे काम नहीं बनता” उसे झगड़ालू और शिकायत से भरा हुआ समझना चाहिए, उसके चेहरे पर थकावट सी छाई हुई होगी, … उसका चेहरा देखने में भला न प्रतीत हो रहा होगा।

कई लोग ऐसा सोचते हैं कि उनके पास काम नहीं है तो वे भाग्यवान हाँ या उनसे काम नहीं बनता तो वे खुशहाल है यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि काम का न होना सौभाग्य या मनचाही वस्तु है । काम न करना एक तरह से प्रक्रति के विरुद्ध -विद्रोह है, मनुष्यता या पौरुष का अपमान है। यह पुर्णतः अप्राकृतिक और लोकिक नियमो के विपरीत है … अपनी रोजी-रोटी के लिए थोड़ी कमाई कर के अपने अन्दर अहं पाल लेना … बाल-बच्चे पैदा कर के घर चला लेना क्या इतना ही पर्याप्त है इस जीवन के लिए … सोचो तो जरा … अरे भाई कुछ काम करो। कुछ काम करो … जग में रह कर कुछ नाम करो यह जन्म हुआ कुछ व्यर्थ न हो …। तो कुछ तो ऐसा ‘काम’ कर लो जिससे पूरे विश्व के उत्थान का रास्ता प्रशस्त हो… जिस दिन इस धरती पर श्रम और काम की कीमत गिर जायेगी उस दिन यहाँ की सारी चहल-पहल और खुशहाली  मिटटी में मिल जायेगी … अतः हमें अपने काम और श्रम के द्वारा इस संसार को बहुत सुन्दर बनाना है काम। 

काम और श्रम ही वास्तव में असली देवता है ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 107 ☆ # गरीबी की रेखा … # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#गरीबी की रेखा…#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 107 ☆

☆ # गरीबी की रेखा… # ☆ 

एक पत्रकार ने

गरीबी रेखा से नीचे

रहने वाले व्यक्ति से पूछा,

आप लोगों की तो

मौज ही मौज है

होली या दिवाली रोज है

वो गरीब व्यक्ति

उसका मुंह ताकने लगा

उसकी आंखों में झांकने लगा

और पूछा कैसे ?

पत्रकार बोला ऐसे –

आपको मुफ्त में –

चावल

दाल

चना

तेल

शक्कर (गुड़)

सहायता राशि

मिल रही है

इसलिए आप की शक्ल

पके हुए टमाटर की तरह

लाल-लाल सी खिल रही है

सरकार जबरदस्ती

चिल्ला-चिल्ला कर

गरीबी की रेखा को पीट रही हैं

असलियत में तो

गरीबी कब से मिट गई है

 

वो गरीब व्यक्ति

हतप्रभ होकर

पत्रकार से बोला –

साहेब कभी हमारी

गरीब बस्ती मे आइए

साथ में कैमरा भी लाइए

देखिए हम कैसा

कीड़ों सा नारकीय जीवन जीते हैं

कितना गन्दा पानी पीते हैं

कहने को ऊपर छत

नीचे गंदी नाली है

यह जिंदगी तो

लगती एक गाली है

असाध्य बीमारियों ने

यहां डाला डेरा है

क्या इससे पहले कभी आपने

लगाया यहाँ फेरा है?

आप हम गरीबों का

मज़ाक मत उड़ाइए

कल जरा अपने चैनल पर

इस स्टोरी को प्राइम टाइम में दिखाइए

गर आप में दम है तो

कल के अखबार की

हेडलाइन बनाइए

उसके बाद जीवन संघर्ष के लिए

आप तैयार हो जाइए

हमारे जख्मों को कुरेदकर

हरा मत कीजिए

धीरे धीरे भर रहे है

इन्हें भरने दीजिए

साहेब,

हम गरीब लोग

इसकी शिकायत

किसी से नहीं करते हैं

गरीबी में जन्म लेते हैं

गरीबी में जीते हैं और

गरीबी में मरते हैं  /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 108 ☆ अभंग… (गीता जयंती) ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

 

?  हे शब्द अंतरीचे # 108 ? 

☆ अभंग… (गीता जयंती) ☆

अर्जुनासी मोह, गीतेचा उगम

साधला सुगम, श्रीकृष्णाने.!!

 

अठरा अध्याय, सार जीवनाचे

कर्म भावनांचे, नियोजन.!!

 

विषाद योगाने, होते सुरुवात

मोक्ष संन्यासात, पूर्णकार्य.!!

 

गीता जागविते, गीता शिकविते

गीता उठविते, पडतांना.!!

 

कवी राज म्हणे, गीता अध्ययन

करा पारायण, नित्यानेम.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग -४७ – सर्वधर्म परिषद उद्घाटन ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग -४७ – सर्वधर्म परिषद उद्घाटन☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

‘सर्वधर्मपरिषद’ ही मानवजातीच्या धार्मिक इतिहासातली सर्वात महत्वाची घटना. ही परिषद म्हणजे आपल्याला वाटेल की नेहमी संस्थांच्या होतात तशीच काहीशी ही परिषद असणार. शिकागोला सुरूवातीलाच स्वामी विवेकानंद यांनी ज्या भव्य औद्योगिक प्रदर्शनला भेट दिली होती, ते प्रदर्शन एका महत्वाच्या निमित्तानं भरवलं गेलं होतं. त्याला पार्श्वभूमी आहे. कोलंबस अमेरिकेत उतरलेल्या घटनेला चारशे वर्ष पूर्ण झाली म्हणून अमेरिकेत प्रचंड मोठा महोत्सव होत होता. त्या निमित्ताने जागतिक पातळीवरील अनेक परिषदा आणि प्रदर्शने आयोजित केली गेली होती. हे औद्योगिक प्रदर्शन त्याचाच एक भाग होता. म्हणून यात मनुष्याच्या भौतिक क्षेत्रातली प्रगती आणि अमेरिकेबरोबरच जगातल्या सुधारलेल्या तसेच, अनेक रानटी समाजाचे दर्शन घडवणार्‍या माणसांचे पूर्ण पुतळे, त्यांचे पोशाख, त्यांची अवजारे व हत्यारे, त्यांची खाद्यसंस्कृती, याची माहितीपर मांडणी केली होती. 

त्याचप्रमाणे मानवाने केलेली बौद्धिक ज्ञान शाखांची आणि विचारांची वाटचाल याचाही विचार व्हायला पाहिजे असे आयोजकांच्या लक्षात आले. म्हणून १५ ते २८ ऑक्टोबर १८९३ अशा पाच महिन्यांमध्ये वीस परिषदांचं नियोजन करण्यात आल होतं .त्यात अर्थशास्त्र, संगीत, वृत्तपत्रांचे कार्य, महिलांची प्रगती, औषधे आणि शस्त्रक्रिया, व्यापार आणि अर्थव्यवहार, राजव्यवहार आणि कायदा सुधारणा, यांच्या परिषदा झाल्या.

या परिषदेत  जगातल्या त्या त्या विषयांचे तज्ञ सहभागी झाले होते. पण मानवाचे वैचारिक क्षेत्र याची उणीव राहिली असे आयोजकांना वाटून, त्यांनी धर्म आणि तत्वज्ञान या विषयांचे जगातले तज्ञ एका व्यासपीठावर येऊन वैचारिक देवाण घेवाण करतील  तर ते तुलनेने व्यापक ठरेल.या दिशेने विचार सुरू झाला . प्रसिद्ध वकील, विचारवंत चार्ल्स कॅरोल बॉनी यांना ही कल्पना सुचली. सर्वांनी ती उचलून धरली.

यासाठी १८९० ला एक समिति स्थापन करण्यात आली. अध्यक्षपद अर्थातच बोनी यांच्याकडे आले. जगात असणारे धर्मपीठं, पंथ, संप्रदाय यांची माहिती गोळा करण्यात आली. सर्व प्रमुखांना पत्रे आणि पत्रके पाठवली. या अडीच वर्षांच्या काळात दहा हजार पत्र आणि चाळीस हजार परिपत्रके पाठवण्यात आली. जगभरात सल्लागार समित्या स्थापन करण्यात आल्या. त्याच तीन हजार समित्या होत्या. या आकडेवारीवरून आपल्याला ही परिषद किती मोठ्या प्रमाणावर होती ते लक्षात येत.                      

आपला भारत देश यात असणारच, होय होता. प्रचंड भारतातली विविधता, धर्म पंथ संप्रदाय पण कितीतरी. तरी भारताला एकच समिती होती. या समितीत सामाजिक सुधारणा पुरस्कर्ते आणि रूढी व परंपरांना विरोध करणारे, मद्रासच्या हिंदू वृत्तपत्राचे संपादक जी एस अय्यर, ब्राह्म समाजाचे मुंबईचे बी बी नगरकर व  कलकत्त्याचे प्रतापचंद्र मुजूमदार हे होते. इथे हे लक्षात येते की एव्हढी मोठी धर्म परिषद पद्धतशिरपणे आखणी करून केलेली होती.

नियोजन करताना जगातल्या सर्व धर्माच्या प्रवक्त्यांना एकत्र आणणे,सर्व धर्मात मानी असलेली आणि शिकवली जाणारी समान तत्वे लक्षात घेऊन त्यावर अभ्यासकांची व्याख्याने ठेवणे, कोणत्या धर्माचे काय वैशिष्ट्य आहे त्याचा शोध घेणे, एका धर्म कडून दुसर्‍या धर्माला काय घेता येईल अशा गोष्टी शोधून आणि त्याच बरोबर शिक्षण ,श्रम, संपत्ति, दारिद्र्य मद्यपान निषेध अशा चालू असणार्‍या समस्या सोडवण्यासाठी मार्ग सुचविणे जगत शांतता नांदण्यासाठी ,राष्ट्रीय बंधुभावाच्या आधारे सर्वांना एकत्र आणणे या उद्देशाने ही परिषद भरवली जात होती. यामुळे परस्पर सामंजस्य वाढेल. समाज एकमेकांच्या जवळ येतील, असे त्यांना वाटत होते. खरच या परिषदेचा हेतु किती छान व उपयोगी होता. पण यावर उलट सुलट प्रतिक्रिया येत राहिल्या.   

कोणाला वाटत होते, ही परिषद म्हणजे ख्रिस्त धर्मविरोधी कट आहे, तर कोणी म्हणे ख्रिस्त धर्माच्या तत्वांना हरताळ फासला जाईल, कोणी म्हणे जगात सर्वश्रेष्ठ धर्म ख्रिस्त धर्म आहे, मग इतर धर्मांबरोबर परिषद कशाला हवी? अशी अनेक मते होती. मात्र संयोजकांचा हेतु चांगलाच होता. जगातली जी जी राष्ट्र समृद्ध प्रगत आणि सामर्थ्यसंपन्न होती  ती राष्ट्र ख्रिस्त धर्मियांची होती. पण धर्माचे श्रेष्ठत्व नुसते भौतिक प्रगतीवर आणि समृद्धीवर न ठरता माणसाच्या मनाचे सुसंस्कृत, सदाचरणाने व्यापक असलेले सामर्थ्य यावर पण असते, तेच त्याचे सामर्थ्य असते.असा विचार यामागे होता. त्यामुळे काही विरोध असतांनाही परिषद होऊ घातली होती.

ही सर्वधर्म परिषद शिकागो मधील आर्ट इंस्टिट्यूट च्या भव्य अशा इमारतीत भरली होती. कोलंबस आणि वॉशिंग्टन ही दोन भव्य सभागृह या इमारतीत होती. आजूबाजूला तीस लहान मोठ्या खोल्या होत्या. इथे सत्र दिवस परिषदेचे काम चालले होते. विषया नुसार गट पाडण्यात आले होते.कोलंबस सभगृहात चार हजार जण मावतील अशी आसन व्यवस्था होती. तर मोकळ्या जागेत एक हजार प्रेक्षक उभे राहू शकत होते एव्हढी जागा होती. याशिवाय उरलेले तेव्हढेच प्रेक्षक शेजारच्या वॉशिंग्टन सभागृहात बसून राहत आणि त्यांच्यासाठी तीन दिवसांनंतर कोलंबस मध्ये होणारा प्रत्येक कार्यक्रम पुन्हा होत असे.

११ सप्टेंबर १८९३ उजाडला. सकाळचे दहा वाजले. आर्ट इंस्टिट्यूट च्या आवारात भल्यामोठ्या घंटेचे दहा टोले वाजले. हे दहा टोले म्हणजे, जगातील दहा धर्माच्या वतीन दिले गेले होते. बोनी यांनी जगातल्या प्रमुख दहा धर्मांची निवड केली होती. हा घंटानाद झाला आणि जगातून आलेले सर्व धर्माचे प्रतींनिधी मिरवणुकीने सभागृहकडे निघाले. या मिरवणुकीत सर्वात पुढे अमेरिकेतील चर्चचे मुख्य पदाधिकारी कार्डिनल गिबन्स आणि परिषदेचे अध्यक्ष चार्ल्स कॅरोल बॉनी, त्यामागे कोलंबियन एक्स्पोझिशन च्या महिला अध्यक्षा मिसेस पॉटर पामर व उपाध्यक्षा मिसेस चार्ल्स एच. हेंरोटीन आणि त्यामागे सर्व प्रतींनिधी या क्रमाने मिरवणुकीत सहभागी झाले होते. यातून जागतिक सर्वधर्माचे, अनेकरंगी विविधतेचे दर्शन होत होते.चार ते पाच हजार लोक उपस्थित होते तरी निस्तब्ध शांतता पसरली होती. सर्वांच लक्ष वेधून घेणारे ते दृश्य होतं. सर्वांच्या मनात कुतूहल आणि उत्कंठा होती. मिरवणूक सभागृहात प्रवेशली. सभागृहात पाश्चात्य आणि पौर्वात्य अशा दोन प्रमुख गटात प्रतींनिधींना बसण्याची व्यवस्था केली होती. हे व्यासपीठ पन्नास फुट लांबीचे आणि दहा फुट रुंदीचे होते.

भारतातून आलेले इतर प्रतींनिधी होते, बुद्धधर्माचे धर्मपाल,जैन धर्माचे विरचंद गांधी, ब्राह्म समाजाचे प्रतापचंद्र मुजूमदार व बी. बी. नगरकर, थिओसोफिकल सोसायटीच्या डॉ. अॅनी बेझंट व ज्ञानचंद्र चक्रवर्ती.

सर्वजण आसनास्थ झाले. सभागृहात ऑर्गनचे गंभीर सूर उमटले आणि सर्वांनी उभं राहून प्रार्थना व श्लोक म्हटले. एका सुरात जणू सर्वजण जगन्नियंत्याची प्रार्थना करत होते, हा ऐतिहासिक क्षण होता.

पहिला दिवस उद्घाटन कार्यक्रमाचा होता.सुरूवातीला सर्व धर्म प्रतींनिधींचे स्वागत करणारी भाषणे झाली. एमजी त्याला उत्तर देणारी प्रतिनिधींची आठ भाषणे झाली. विवेकानंद हे सारं वातावरण भारलेल्या मनाने पाहत होते अनुभवत होते. विशाल जंसमूह पद्धतशिरपणे आखलेला एक सुंदर कार्यक्रम त्यांना प्रथमच पाहायला मिळत होता. याचवेळी त्यांना आपल्यावरच्या जबाबदारीची जाणीव झाली होती. नाव पुकारल्या नंतर एकामागून एक वक्त्यांची भाषणे होत होती .उत्तम प्रतिसाद मिळत होता.

विवेकानंद पुरते गोंधळून गेले होते, आत्मविश्वास वाटेना, आपण बोलू शकू का? घसा कोरडा पडला . छाती धडधडत होती. शब्द फुटेना. कारण ते काहीच तयारी करून आले नव्हते. सर्वजण तयारीने आले होते . दोन तीन वेळा नाव पुकारले तर आता नको म्हणून ते उठले नव्हते. ते अनेक वेळा असे बोलले असतांनाही भीती वाटत होती कारण आताचा प्रेक्षक वेगळा होता,

शिकागो शहरातले उच्च विद्याविभूषित श्रोते समोर होते. ख्यातनाम विद्वान होते. विचारवंत होते, पत्रकार होते. सार्‍या जगातून आलेले प्रतींनिधी विद्वान प्रवक्ते तर होतेच, पण ते अधिकृत प्रतिनिधी होते. त्यांच्या मागे त्यांची संस्था उभी होती. आपल्या मागे तर कोणीच नाही. म्हणून विवेकानंद यांचा धीर सुटला होता एका क्षणी. पण अचानक उपनिषदातील ‘अहम ब्रह्मास्मि’ हे वचन मनात चमकले आणि त्याच क्षणी त्यांच्या हृदयात सामर्थ्य संचारले.

दुपारच्या सत्रात चार प्रतिनिधींची भाषणे झाली. आता पुन्हा विवेकानंदांचे नाव पुकारले गेले. तेंव्हा त्यांच्या शेजारी बसलेल्या फ्रेंच प्रतींनिधी जी.बॉनेट मॉवरी त्यांना म्हणाले, ‘आता थांबू नका, बोला! तेंव्हा विवेकानंद आसनावरून उठले, विद्येची देवता सरस्वतीचे मनोमन स्मरण केले. समोरील प्रेक्षकांवरुन दृष्टी फिरवली आणि म्हणाले,

“अमेरिकेतील भगिनींनो आणि बंधुनो” या पाहिल्याच वाक्याला कंठाळ्या बसणारा टाळ्यांचा कडकडाट झाला. अनेकांच्या भाषणाला टाळ्या पडल्या होत्या पण पाहिल्याच संबोधनाला असा प्रतिसाद नव्हता मिळाला, त्यांनाही आश्चर्य वाटले. टाळ्या थांबण्याची वाट पाहत विवेकानंद थांबले होते. शांतता झाल्यावर पुन्हा बोलायला सुरुवात केले. “सुंदर शब्दांमध्ये जे आपले स्वागत केले गेले आहे त्याबद्दलचा आनंद अवर्णनीय आहे. जगातील सर्वात प्राचीन असा हिंदू धर्म, त्यातील सर्वसंगपरित्यागी संन्याशांची परंपरा यांच्या वतीने मी जगातील सर्वात नवीन अशा अमेरिकन राष्ट्राला मन:पूर्वक धन्यवाद देतो”.  त्यांनी परिषदेच्या आयोजकांचे आभार मानले. आधी बोललेल्या वक्त्यांचा गौरवपूर्ण उल्लेख केला. प्रत्येक मताबद्दलची सहिष्णुता आणि सर्व जगातील धर्म विचारांच्या बाबतीतली स्वीकारशीलता हे हिंदू धर्माचे वैशिष्ठ्य आहे असे सांगून, पारशी लोक आपल्या जन्मभूमीतून बाहेर फेकले गेल्यानंतर त्यांनी भारताचा आश्रय घेतला. त्यांना निश्चिंत पणे राहण्यासाठी आसरा मिळाला. ही ऐतिहासिक घटना सांगून, अशा देशातून आपण आलो आहोत आणि अशा धर्माचा मी प्रतींनिधी आहे याचा आपल्याला अभिमान वाटतो. सार्‍या जगातून इथे आलेल्या सर्व धर्म प्रतिनिधींच्या स्वागतासाठी आज सकाळी जी घंटा वाजवली गेली, ती सर्व प्रकारच्या धर्म वेडेपणाची मृत्युघंटा ठरेल, लेखणी किंवा तलवार यांच्या सहाय्याने केल्या जाणार्‍या मानवाच्या सर्व प्रकारच्या छळाच्या तो अंतिम क्षण असेल आणि आपआपल्या मार्गाने एकाच ध्येयाच्या दिशेने चाललेल्या मानवांपैकी कोणाविषयीही कोणाचाही कोणत्याही प्रकारचा अनुदार भाव यानंतर शिल्लक राहणार नाही. असा मला पूर्ण विश्वास आहे”. असे पाच मिनिटांचे आपले भाषण विवेकानंदांनी थांबवले. आणि पुन्हा टाळ्यांचा कडकडाट झाला.

हे छोट भाषण उत्स्फूर्त आविष्कार होता. विवेकानंदांनी  परिषदेच्या उद्दिष्टालाच स्पर्श केला होता. स्वागतपर भाषणाला उत्तर म्हणून अशी चोवीस भाषणे झाली त्यात विवेकानंदांचे विसावे भाषण होते. अजून खरा विषय तर मांडला जायचा होता. ही परिषद सतरा दिवस चालू होती. रोजतीन तीन तासांची तीन सत्रे होत.

  पहिल्याच दिवशीच्या प्रतिसादाने आणि एव्हढ्या अडचणी पार पाडून झालेल्या सहभागाने विवेकानंद खर तर शिणले होते पण रात्री अंथरुणावर पडल्यावर झोप न लागता डोळ्यासमोर समृद्ध अमेरिका आणि आपली दीन दरिद्री मातृभूमी यामधलं प्रचंड अंतर बघून आपल्या देशबांधवांच्या विषयी त्यांच्या मनात करुणा दाटून आली, अस्वस्थ होऊन डोळ्यातून अश्रु वाहू लागले. सकाळच्या यशानंतर पण ते हुरळून नाही गेले तर, जगन्मातेला त्यांनी म्हटले, “माझ्या देशबांधवांचं अपार दारिद्र्य दूर होणार नसेल तर हे नाव आणि किर्ती घेऊन मला काय करायचं आहे? कोण जाग आणेल भारतातल्या सर्व सामान्य जनतेला? जगन्माते कृपा कर, ते कसं करता येईल याचा मला काही मार्ग दाखव”.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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