सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’
☆ विपदा भू पर आई ☆
सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’
☆ विपदा भू पर आई ☆
सुश्री सुषमा भंडारी
ये जीवन दुश्वार सखी री
(सुश्री सुषमा भंडारी जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य मंथन की महासचिव एवं प्रणेता साहित्य संस्थान की अध्यक्षा हैं ।आपको यह कविता आपको ना भाए यह कदापि संभव नहीं है। आपकी विभिन्न विधाओं की रचनाओं का सदैव स्वागत है। )
ये जीवन दुश्वार सखी री
मरती बारम्बार सखी री
ये जीवन दुश्वार सखी री
जब घन घिर- घिर आये सखी री
पी की याद दिलाये सखी री
मुझमें रहकर भी क्यूं दूरी
ये मुझको न भाये सखी री
ये जीवन ——
कान्हा हो या राम सखी री
हो जाउँ बदनाम सखी री
उसकी खातिर छोडूं दुनिया
भाये उसका धाम सखी री
ये जीवन——-
बन्धन माया- मोह है सखी री
झूठी काया – कोह सखी री
वो प्रीतम मैं उसकी प्रीता
मन अन्तस अति छोह सखी री
ये जीवन——-
निराकार से प्यार सखी री
वो सब का आधार सखी री
जड़-चेतन सब अंश उसी के
करता वो उद्धार सखी री
ये जीवन ——————
© सुषमा भंडारी
फ्लैट नम्बर-317, प्लैटिनम हाईटस, सेक्टर-18 बी द्वारका, नई दिल्ली-110078
मोबाइल-9810152263
डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव
☆ यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है ☆
(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है की रचना के लिए डॉ प्रेम कृष्ण जी को हार्दिक बधाई। हम आपसे आपकी विभिन्न विधाओं की चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )
तैरती थी जिसमें कई महीने,
वो गर्भ का एक सागर था।
सृष्टि पाली जिसमें बड़े करीने,
ममता का सुरक्षित सागर था।।
उसकी बंद पलकों में अंधेरा था,
आज खुली पलकों में सवेरा है।
गर्भ एक घुप सागर घनेरा था,
अब ये एक अनुपम बसेरा है।
उनींदी आंखों से मुझे निहारती,
शायद मैं कौन प्राणी हूँ सोचती।
मैं कहॉ आ गई हूं ये विचारती,
अनगिनत सपने मन में पोषती।।
अष्टमी में सद्यः जन्मी आई मेरे सामने,
थी मुझे जिसकी उत्कट प्रतीक्षा।
लेकर आई वो अनगिनत मायने,
पूर्ण करने हम सबकी उर इच्छा।।
बेटियों के रूप में मैं ही तो जन्मा हूँ,
बेटियों के रूप में मैं ही तो जी रहा हूं।
अब नातिन में मैं अष्टमी में पुनः जन्मा हूँ,
शिवानी बन मैं फिर जी रहा हूं।।
सृष्टि का वो स्वयं एक रूप है,
वो शिवानी का तो ही प्रतिरूप है।
पर नारी हेतु समाज कितना कुरूप है,
यद्यपि वो नव दुर्गा का ही स्वरूप है।।
बेटियां सरस्वती लक्ष्मी दुर्गा ही बने,
चूड़ियाँ पहन वो घर में ही न बंद रहें।
धरती आकाश सागर उड़ने हेतु ही बने,
पंख पसारें उड़ें खुश्बू बन महकती रहें।।
लक्ष्मी हैं सरस्वती हैं रति भी वही हैं,
मर्दन करें दरिंदों का और चहकती रहें,
वक्त आने पर नवदुर्गा का स्वरूप वही हैँ।।
© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
? मैं प्रेम चंद नहीं ?
सब्जी लेने क्यों जाना
तीन मील दूर मंडी तक
क्यों जाना
सवेरे-सवेरे
मिस्त्री,
मज़दूर खोजने
चौराहे पर
खपाने दिमाग
टुटपुँजिया गृहस्थी पर
जीना ही क्यों वह ज़िंदगी
जो तपाए जीवन भर
क्यों सुनना कोई दुःखद समाचार
किसी घटना के घटने का
क्यों हो मेरी नज़र में
किसी दुखियारी का दुःख
या नीलगायों के फ़सल चर लेने पर
आँगन में पड़ी
उलटी सरावन -सी
किसान की लाश
मैं प्रेमचंद नहीं
जो दीये की रोशनी में
आँखें फोड़ूँ
एक उपयोगितावादी
साहित्यकार हूँ
फिर क्यों न किसी वातानुकूलित कक्ष में
बैठ कर
गढ़ूँ लल्लनटॉप पटकथाएं
या फिर
गूगल पर खोजूँ कोई उपयोगी चरित्र
और लिखूँ
किसी ऐसे नेता की वैसी जीवनी
जिस पर मिल सके
भारत रत्न
पद्मश्री, पद्म भूषण
और कुछ नहीं तो
साहित्य अकादमी,
ज्ञान पीठ या व्यास सम्मान।
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’
सुनहरे पल………
(सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ जी का हार्दिक e-abhivyakti में स्वागत है। “सुनहरे पल…….” एक अत्यंत मार्मिक एवं भावुक कविता है। इस भावप्रवण एवं सकारात्मक संदेश देने वाली कविता की रचना करने के लिए सुश्री बलजीत कौर जी की कलम को नमन। आपकी रचनाओं का सदा स्वागत है। )
कुछ पल……
ठहरे तो होते,
क्यों तोड़ दी उम्मीद तुमने!
क्यों छोड़ दिए हौंसले तुमने!
ये असफलताएँ,
वो कष्ट!
ये रोग,
वो दर्द!
ये बिछोह,
वो विराग!
इतने भी तो नहीं थे वो ख़ास!
क्यों छोड़ दी तुमने वो आस!
जानते हो कोई कर रहा था,
तुम्हारा इन्तज़ार!
किन्हीं झुर्रिदार चेहरे,
धुंधली निगाहों के थे तुम,
एकमात्र सहारा !
पर तुमने तो एक ही झटके में,
उन्हें कर दिया बेसहारा!
तुम्हारा यह दर्द
क्या इतना…….?
हो गया था असहनीय!
कि अपने जीते-जागते उस
अदम्य-शक्ति से भरपूर
शरीर को, बिछा दिया!
मैट्रो की पटरी पर
और …………..
उफ़!
गुज़र जाने दिया,
उन सैंकड़ों टन वजनी डिब्बों को
अपने ऊपर से…………
वो चटख़ती हड्डियों की आवाज़………..
वो बहते रक्त की फुहार………..
क्या उस क्षण……!
जीवन के वो सुनहरे पल,
नहीं आए थे तुम्हें याद!
कि कहीं से बढ़कर,
रोक लेते तुम्हें कोई हाथ!
काश…….!
कि देख पाते तुम….
उसके बाद का
वो मंज़र…….
लोगों के चेहरों पर चिपके
मौत का वो ख़ौफ़………!
प्लेटफॉर्म पर पसरा
वो सन्नाटा………!
और एक वो तुम
कि जिसने………
जीवन की असफलताओं,
अपनी कमजोरियों,
से घबराकर
लगा लिया
मौत को यूँ गले!
और फिलसने दिया
एक खूबसूरत ज़िंदगी को
अपने इन्हीं हाथों से
रेत के मानिंद
जानते हो ……..
कुछ सुनहरे पल
कर रहे थे
तुम्हारे धैर्य की परीक्षा!
एक खुशहाल ज़िंदगी…….!
उज्ज्वल भविष्य…….!
पलक-पाँवड़े बिछाए……..
बस! तुम्हारे उन
दो सशक्त
कदमों का ही
कर रहा था इंतज़ार……..
हाय!
कुछ पल……..
ठहरे तो होते……..!
© बलजीत कौर ‘अमहर्ष’
सहायक आचार्या, हिन्दी विभाग, कालिन्दी महाविद्यालय
डॉ ऋतु अग्रवाल
☆ मेरी बिटिया ☆
(आज प्रस्तुत है प्रख्यात लेखिका/कवियित्री डॉ ऋतु अग्रवाल जी की कविता “मेरी बिटिया”। संयोगवश आज के ही अंक में सुश्री निशा नंदिनी जी की एक और कविता “परिभाषा बेटियों की ” भी प्रकाशित हुई है और बेटियों से ही संबन्धित सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविता “Tearful Adieu” कल प्रकाशित की थी । निश्चित ही आपको ये तीनों कवितायेँ बेहद पसंद आएंगी।)
मेरी आन है मेरी शान है बेटी
मेरी सांसों की पहचान है बेटी
ममता का एहसास है बेटी
कुदरत का एहसान है बेटी
बाती बन दिए की, दूर करती अंधेरा
रोशनी बन लाती, मेरे जीवन में सबेरा ।
मेरे सपनों की बहार है बेटी
खिलते फूलों की मुस्कान है बेटी
मेरे आंगन की किलकारी है बेटी
मेरे जीवन सफर के, हर कदम की शान बनी
निराशा से आस बनी बेटी
मेरी बुलबुल, मेरी आंखों की पुतली है
मेरा हंसना, मेरा बिछौना है मेरी बेटी ।
बेटी के आने से घर में बहार आयी
पुलकित को गए रिश्ते, खुशियां ही खुशियाँ छायी
मुझ में भर दिया ममत्व
सत्कर्म से मिला, वरदान है मेरी बेटी |
© डॉ.ऋतु अग्रवाल
श्रीमति सुजाता काले
वर्षा ऋतू खत्म हुई,
पुनः स्वच्छता अभियान शुरू हुआ है,
पालिका द्वारा रास्ते, गलियों की
सफाई जोरों से हो रही है ।
शैवाल चढ़े झोपड़ों की
दीवारें पोंछी गई हैं …!
सुन्दर बंगलों की चारदीवारी
साफ़ की गई हैं … !
उन्हें रंगकर उनपर गुलाब, कमल
के चित्र बनाये गए हैं … !
दीवारों पर रंगीन घोष वाक्य लिखे गए हैं :
‘स्वस्थ रहो, स्वच्छ रहो।’
‘जल बचाओ, कल बचाओ।’
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।’
जगह- जगह पोस्टर्स लगे हुए हैं;
सूखा और गीला कचरा अलग रखें !
पांच ━ छह वर्ष के बच्चें ,
कचड़े में अन्न ढूँढ रहे हैं… !
झोंपड़ी की बाहरी रंगीन दीवार देखकर,
दातुन वाले दाँत हँस रहे हैं !
अंदरूनी दीवारों की दरारें,
गले मिल रही हैं !
कहीं-कहीं दीवारों की परतें,
गिरने को बेताब हैं !
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ लिखी –
दीवार के पीछे सोलह वर्ष की
लड़की प्रसव वेदना झेल रही है !
बारिश में रोती हुई छत के निचे,
रखने के लिए बर्तन कम पड़ रहे हैं।
‘जल बचाओ’ लिखी हुई दिवार,
चित्रकार पर हँस रही है…..!
बस्ती के कोने में कचड़े का ढेर है ।
सूखे और गीले कचड़े के डिब्बे,
उलटे लेटे हुए हैं !
पालिका का सफाई कर्मचारी,
तम्बाकू मल रहा है !
‘जब पढ़ेगा इंडिया, तब आगे बढ़ेगा इंडिया’
का पोस्टर उदास खड़ा है …..!
यह कैसी विसंगति लिखने में है !!
इन झोपड़ियों के अंदर का विश्व,
पोस्टर्स छिपा हुआ है,
कोई कहीं से दो पोस्टर्स ला दे मुझे
जो गरीबी और बेकारी
ढूँढकर ……. हटा दे उन्हें !!!
© सुजाता काले …
पंचगनी, महाराष्ट्र।
9975577684
डॉ ऋतु अग्रवाल
☆ अब क्यूँ ? ☆
(डॉ ऋतु अग्रवाल जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप भीम राव आंबेडकर कॉलेज, दिल्ली में प्राध्यापक हैं । सोशल मीडिया से परिपूर्ण वर्तमान एवं विगत जीवन के एहसास की अद्भुत अभिव्यक्ति स्वरूप यह कविता “अब क्यूँ?” हमें विचार करने के लिए प्रेरित करती है।)
अब क्यूँ
हमारे शर्म से
चेहरे गुलाब नहीं होते.
अब क्यूँ
हमारे मिजाज मस्त मौला नहीं होते
इजहार किया करते थे
दिल की बातों का
अब क्यूँ
हमारे मन खुली किताब नहीं होते
कहते हैं तब, बिना बोले
मन की बात समझते
आलिंगन करते ही हालात समझ लेते
ना होता था
व्हाट्सएप, फेसबुक
ख़त होता था
खुली किताब
मिल जाता था दिलों का हिसाब
हम कहां थे कहां आ गए
नहीं पूछता बेटा बाप से
उलझनों का समाधान
नहीं पूछती बेटी मां से
घर के सलीको का निदान
अब कहां गई
गुरु के चरणों में बैठकर
ज्ञान की बातें
परियों की वह कहानी
न रही ऐसी जुबानी
अपनों की वह यादें
न रहे वो दोस्त,न रही वो दोस्ती
ऐ मेरी जिंदगी
हम सब
व्यावहारिक हो गए
मशीनी दुनिया में इंसानियत खो गए.
© डॉ.ऋतु अग्रवाल
डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव
☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆
(डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में स्वागत है। इस अत्यंत भावप्रवण प्रणय गीत ☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆की रचना के लिए डॉ प्रेम कृष्ण जी को हार्दिक बधाई। हम आपसे आपकी विभिन्न विधाओं की चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )
प्रिय उर वीणा के तार छेड़नें,
मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ।
निज मन तेरे मन से मिला दूंगा,
मैं तेरा नेह मनस्वी आया हूँ।।
मैं निज उर वीणा के तार प्रिये,
तेरे ह्रदतन्त्री से मिलाने आया हूँ।
प्रिय प्रेमज्योति मैं बुझने न दूंगा,
मैं नेह का दीप जलाने आया हूँ।।
न होने पाए काया का विगलन,
मैं प्रेम अमृत पिलाने आया हूँ।
यौवन विगलित मैं न होने दूंगा,
मैं तेरा प्रीति यशस्वी आया हूँ।।
है करता प्रेम नवजीवन सर्जन,
प्रेम से होता विश्व का संचालन।
तेरा प्रेम मैं कभी न मरने दूंगा,
मैं तेरा प्रेम तपस्वी आया हूँ।।
है प्रेम यहॉ यौवन का अर्जन,
है प्रेमय हॉ अंतर्मन का बंधन।
मैं नफरत यहां न फैलने दूंगा,
मैं तेरी प्रेम संजीवनी लाया हूँ।।
मन है जीवन के मरु में प्यासा,
है जीवन में विसरित घोर निराशा,
तनमन का उपवन महका दूंगा,
मैं निर्झर तेरे प्रेम का लाया हूँ।।
हैं शूल यहां हर पथ में बिछे,
हैं प्रस्तर यहां हर पंथ चुभे।
फूल यहॉ हर पंथ बिछा दूंगा,
मैं ऋतुराज बसंत लाया हूँ।।
मन क्यों अवसादग्रस्त होता,
तन भी क्यों है क्लांत हुआ।
तनमन सोने सा चमका दूंगा,
मैं पारस निज नेह का लाया हूँ।।
प्रिय उर वीणा के तार छेड़नें,
मैं तेरा प्रणयतपस्वी आया हूँ।।
© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव
डॉ भावना शुक्ल
(प्रस्तुत है डॉ भावना शुक्ल जी की एक भावप्रवण कविता ☆ नदी हूँ मैं ☆)