हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? सुनहरे पल……… ? – सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

 

? सुनहरे पल……… ?

 

(सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ जी का हार्दिक e-abhivyakti में स्वागत है। “सुनहरे पल…….” एक अत्यंत मार्मिक एवं भावुक कविता है। इस भावप्रवण एवं सकारात्मक संदेश देने वाली कविता की रचना करने के लिए सुश्री बलजीत कौर जी की कलम को नमन। आपकी रचनाओं का सदा स्वागत है। )  

 

कुछ पल……

ठहरे तो होते,

 

क्यों तोड़ दी उम्मीद तुमने!

क्यों छोड़ दिए हौंसले तुमने!

 

ये असफलताएँ,

वो कष्ट!

ये रोग,

वो दर्द!

ये बिछोह,

वो विराग!

इतने भी तो नहीं थे वो ख़ास!

क्यों छोड़ दी तुमने वो आस!

 

जानते हो कोई कर रहा था,

तुम्हारा इन्तज़ार!

किन्हीं झुर्रिदार चेहरे,

धुंधली निगाहों के थे तुम,

एकमात्र सहारा !

पर तुमने तो एक ही झटके में,

उन्हें कर दिया बेसहारा!

 

तुम्हारा यह दर्द

क्या इतना…….?

हो गया था असहनीय!

कि अपने जीते-जागते उस

अदम्य-शक्ति से भरपूर

शरीर को, बिछा दिया!

मैट्रो की पटरी पर

और …………..

उफ़!

गुज़र जाने दिया,

उन सैंकड़ों टन वजनी डिब्बों को

अपने ऊपर से…………

वो चटख़ती हड्डियों की आवाज़………..

वो बहते रक्त की फुहार………..

क्या उस क्षण……!

जीवन के वो सुनहरे पल,

नहीं आए थे तुम्हें याद!

कि कहीं से बढ़कर,

रोक लेते तुम्हें कोई हाथ!

 

काश…….!

कि देख पाते तुम….

उसके बाद का

वो मंज़र…….

लोगों के चेहरों पर चिपके

मौत का वो ख़ौफ़………!

प्लेटफॉर्म पर पसरा

वो सन्नाटा………!

 

और एक वो तुम

कि जिसने………

जीवन की असफलताओं,

अपनी कमजोरियों,

से घबराकर

लगा लिया

मौत को यूँ गले!

और फिलसने दिया

एक खूबसूरत ज़िंदगी को

अपने इन्हीं हाथों से

रेत के मानिंद

 

जानते हो ……..

कुछ सुनहरे पल

कर रहे थे

तुम्हारे धैर्य की परीक्षा!

एक खुशहाल ज़िंदगी…….!

उज्ज्वल भविष्य…….!

पलक-पाँवड़े बिछाए……..

बस! तुम्हारे उन

दो सशक्त

कदमों का ही

कर रहा था इंतज़ार……..

हाय!

 

कुछ पल……..

ठहरे तो होते……..!

 

© बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सहायक आचार्या, हिन्दी विभाग, कालिन्दी महाविद्यालय

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मेरी बिटिया ☆ – डॉ ऋतु अग्रवाल

डॉ ऋतु अग्रवाल 

☆ मेरी बिटिया ☆

(आज प्रस्तुत है प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री डॉ ऋतु अग्रवाल जी की  कविता “मेरी बिटिया”।  संयोगवश  आज के ही अंक में  सुश्री निशा नंदिनी जी की  एक और कविता “परिभाषा बेटियों की ” भी प्रकाशित हुई है  और बेटियों से ही संबन्धित सुश्री नीलम सक्सेना  चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविता  “Tearful Adieu” कल प्रकाशित की थी । निश्चित ही आपको ये तीनों कवितायेँ  बेहद पसंद आएंगी।)

 

मेरी आन है मेरी शान है बेटी

मेरी सांसों की पहचान है बेटी

ममता का एहसास है बेटी

कुदरत का एहसान है बेटी

बाती बन दिए की, दूर करती अंधेरा

रोशनी बन लाती, मेरे जीवन में सबेरा ।

 

मेरे सपनों की बहार है बेटी

खिलते फूलों की मुस्कान है बेटी

मेरे आंगन की किलकारी है बेटी

मेरे जीवन सफर के, हर कदम की शान बनी

निराशा से आस बनी बेटी

मेरी बुलबुल, मेरी आंखों की पुतली है

मेरा हंसना, मेरा बिछौना है मेरी बेटी ।

 

बेटी के आने से घर में बहार आयी

पुलकित को गए रिश्ते, खुशियां ही खुशियाँ छायी

मुझ में भर दिया ममत्व

सत्कर्म से मिला, वरदान है मेरी बेटी |

 

© डॉ.ऋतु अग्रवाल 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पोस्टर्स ☆ – श्रीमति सुजाता काले

श्रीमति सुजाता काले

☆ पोस्टर्स ☆
(प्रस्तुत है श्रीमति सुजाता काले जी  की एक भावप्रवण कविता जो उजागर करती है शायद आपके ही आसपास  के पोस्टर्स  की दुनिया की एक झलक।)

 

वर्षा ऋतू खत्म हुई,
पुनः स्वच्छता अभियान शुरू हुआ है,
पालिका द्वारा रास्ते, गलियों की
सफाई जोरों से हो रही है ।
शैवाल चढ़े झोपड़ों की
दीवारें पोंछी गई हैं …!

सुन्दर बंगलों की चारदीवारी
साफ़ की गई हैं … !
उन्हें रंगकर उनपर गुलाब, कमल
के चित्र बनाये गए हैं … !
दीवारों पर रंगीन घोष वाक्य लिखे गए हैं :
‘स्वस्थ रहो, स्वच्छ रहो।’
‘जल बचाओ, कल बचाओ।’
‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।’

जगह- जगह पोस्टर्स लगे हुए हैं;
सूखा और गीला कचरा अलग रखें !
पांच ━ छह वर्ष के बच्चें ,
कचड़े में  अन्न ढूँढ रहे हैं… !
झोंपड़ी की बाहरी रंगीन दीवार देखकर,
दातुन वाले दाँत हँस रहे हैं !
अंदरूनी दीवारों की दरारें,
गले मिल रही हैं !
कहीं-कहीं दीवारों की परतें,
गिरने को बेताब हैं !

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ लिखी –
दीवार के पीछे सोलह वर्ष की
लड़की प्रसव वेदना झेल रही है !
बारिश में रोती हुई छत के निचे,
रखने के लिए बर्तन कम पड़ रहे हैं।
‘जल बचाओ’ लिखी हुई दिवार,
चित्रकार पर हँस रही है…..!

बस्ती के कोने में कचड़े का ढेर है ।
सूखे और गीले कचड़े के डिब्बे,
उलटे लेटे हुए हैं !
पालिका का सफाई कर्मचारी,
तम्बाकू मल रहा है !
‘जब पढ़ेगा इंडिया, तब आगे बढ़ेगा इंडिया’
का पोस्टर उदास खड़ा है …..!

यह कैसी विसंगति लिखने में है !!
इन झोपड़ियों के अंदर का विश्व,
पोस्टर्स छिपा हुआ है,
कोई कहीं से दो पोस्टर्स ला दे मुझे
जो गरीबी और बेकारी
ढूँढकर ……. हटा दे उन्हें !!!

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ अब क्यूँ ? ☆ – डॉ ऋतु अग्रवाल

डॉ ऋतु अग्रवाल 

☆ अब क्यूँ ? ☆

(डॉ ऋतु अग्रवाल जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप भीम राव आंबेडकर कॉलेज, दिल्ली में प्राध्यापक हैं । सोशल मीडिया से परिपूर्ण वर्तमान एवं विगत जीवन के एहसास की अद्भुत अभिव्यक्ति स्वरूप यह कविता “अब क्यूँ?” हमें विचार करने के लिए प्रेरित करती है।)

 

अब क्यूँ

हमारे शर्म से

चेहरे गुलाब नहीं होते.

अब क्यूँ

हमारे मिजाज मस्त मौला नहीं होते

इजहार किया करते थे

दिल की बातों का

अब क्यूँ

हमारे मन खुली किताब नहीं होते

कहते हैं तब, बिना बोले

मन की बात समझते

आलिंगन करते ही हालात समझ लेते

ना होता था

व्हाट्सएप, फेसबुक

ख़त होता था

खुली किताब

मिल जाता था दिलों का हिसाब

हम कहां थे कहां आ गए

नहीं पूछता बेटा बाप से

उलझनों का समाधान

नहीं पूछती बेटी मां से

घर के सलीको का निदान

अब कहां गई

गुरु के चरणों में बैठकर

ज्ञान की बातें

परियों की वह कहानी

न रही ऐसी जुबानी

अपनों की वह यादें

न रहे वो दोस्त,न रही वो दोस्ती

ऐ मेरी जिंदगी

हम सब

व्यावहारिक हो गए

मशीनी दुनिया में इंसानियत खो गए.

 

© डॉ.ऋतु अग्रवाल 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆

(डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी का e-abhivyakti में स्वागत है। इस अत्यंत भावप्रवण प्रणय गीत  ☆ मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ ☆की रचना के लिए डॉ प्रेम कृष्ण जी को हार्दिक बधाई। हम आपसे आपकी विभिन्न विधाओं की चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )

 

प्रिय उर वीणा के तार छेड़नें,

मैं तेरा प्रणय तपस्वी आया हूँ।

निज मन तेरे मन से मिला दूंगा,

मैं तेरा नेह मनस्वी आया हूँ।।

 

मैं निज उर वीणा के तार प्रिये,

तेरे ह्रदतन्त्री से मिलाने आया हूँ।

प्रिय प्रेमज्योति मैं बुझने न दूंगा,

मैं नेह का दीप जलाने आया हूँ।।

 

न होने पाए काया का विगलन,

मैं प्रेम अमृत पिलाने आया हूँ।

यौवन विगलित मैं न होने दूंगा,

मैं तेरा प्रीति यशस्वी आया हूँ।।

 

है करता प्रेम नवजीवन सर्जन,

प्रेम से होता विश्व का संचालन।

तेरा प्रेम मैं कभी न मरने दूंगा,

मैं तेरा प्रेम तपस्वी आया हूँ।।

 

है  प्रेम यहॉ यौवन का अर्जन,

है प्रेमय हॉ अंतर्मन का बंधन।

मैं नफरत यहां न फैलने दूंगा,

मैं तेरी प्रेम संजीवनी लाया हूँ।।

 

मन है जीवन के मरु में प्यासा,

है जीवन में विसरित घोर निराशा,

तनमन का उपवन महका दूंगा,

मैं निर्झर तेरे प्रेम का लाया हूँ।।

 

हैं शूल यहां हर पथ में बिछे,

हैं प्रस्तर यहां हर पंथ चुभे।

फूल यहॉ हर पंथ बिछा दूंगा,

मैं ऋतुराज बसंत लाया हूँ।।

 

मन क्यों अवसादग्रस्त होता,

तन भी क्यों है क्लांत हुआ।

तनमन सोने सा चमका दूंगा,

मैं पारस निज नेह का लाया हूँ।।

 

प्रिय उर वीणा के तार छेड़नें,

मैं तेरा प्रणयतपस्वी आया हूँ।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ नदी हूँ मैं ☆ – डॉ भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

☆ नदी हूँ मैं ☆

 

(प्रस्तुत  है डॉ भावना शुक्ल जी की एक भावप्रवण कविता ☆ नदी हूँ मैं ☆)

नदी हूं मैं !
बहती हूं
अनवरत
चारों दिशाओं में
मैं हूँ सेवा में रत
राह में धीरे-धीरे
बहती हो प्रवाह में
अविरल
शांत निर्मल जल
पावन है गंगाजल
सुंदर वादियों के आसपास निकलती हूँ
लहराती बलखाती सी चलती हूँ
चलती हूँ तट पर सुंदरता बिखराती हूँ
बहुत कुछ सहती हूँ
बढ़ती हूं आगे
कभी पथरीले
कभी रेतीले
कभी उबड़-खाबड़
कभी पहाड़ के रास्तों से
कभी पहाड़ के रास्तों से गुजरती हूं
कभी बहाव तेज तेज
कभी धीमा
कभी बाढ़
कभी कभी तबाही
कभी कंपन्न
होता है सब छिन्न-भिन्न
फिर भी रखना है हौसला
यही है किस्मत का फैसला
राह में आयें
कितनी भी बाधाएं
कितनी समस्याएं
मुझे पथ पर बहना है
सब कुछ सहना है
एक नारी की तरह
तप, त्याग, विश्वास की भरती रहेगी सबकी गागर
होगा मिलन एक  दिन मुझसे सागर
बहते हुए बीत गई सदी
हूं मैं एक नदी
हूं मैं एक नदी…………
© डॉ भावना शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बस इतना ही चाहता हूँ…. ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर

*बस इतना ही चाहता हूँ….*

(सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी मराठी की एक बेहतरीन कवियित्रि हैं. प्रस्तुत है उनकी एक हिन्दी गजल।)

अक्सर बढ़ती महंगाई के बारे मे सोचता हूँ
सरकारी नए नियमों मे बस उलझ जाता हूँ ।
अख़बार मे जी एस टी दर पे ग़ुम हो जाता  हूँ
कहीं अख़बार न महंगे हो जाएं इससे डरता हूँ ।
अवसर हो तभी बाज़ार में  कुछ लेने जाता हूँ
बटुए में कम पैसे होने से ख़ुद पे शरमाता हूँ ।
आवाम को हर जग़ह कतारों मे देखता हूँ
राशन के लिए लोगों को व्यस्त ही  पाता हूँ ।
आजीवन मैं कठिनाइओं से दोस्ती निभाता हूँ
बच्चों को संस्कार की मधुशाला भी बाँटता हूँ ।
आयु अधिक होने से थोड़ा बहुत थकता हूँ
विचारों की गहराई मे नम आँखों से सोता हूँ ।
अच्छे दिन तो आते रहेंगें रबसे दुआ करता हूँ
कुछ भी हो साँसो को मुफ़्त ही लेना चाहता हूँ ।
© स्वप्ना अमृतकर (पुणे)

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्ता जी के मुक्तक  ☆ –डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

मुक्ता जी के मुक्तक 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी के अतिसुन्दर एवं भावप्रवण मुक्तक – एक प्रयोग।)

 

दुनिया में अच्छे लोग

बड़े नसीब से मिलते हैं

उजड़े गुलशन में भी

कभी-कभी फूल खिलते हैं

बहुत अजीब सा

व्याकरण है रिश्तों का

कभी-कभी दुश्मन भी

दोस्तों के रूप में मिलते हैं

◆◆◆

मैंने पलट कर देखा

उसके आंचल में थे

चंद कतरे आंसू

वह था मन की व्यथा

बखान करने को आतुर

शब्द कुलबुला रहे थे

क्रंदन कर रहा था उसका मन

परन्तु वह शांत,उदारमना

तपस्या में लीन

निःशब्द…निःशब्द…निःशब्द

◆◆◆

मेरे मन में उठ रहे बवंडर

काश! लील लें

मानव के अहं को

सर्वश्रेष्ठता के भाव को

अवसरवादिता और

मौकापरस्ती को

स्वार्थपरता,अंधविश्वासों

व प्रचलित मान्यताओं को

जो शताब्दियों से जकड़े हैं

भ्रमित मानव को

◆◆◆

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोहे ☆ – सुश्री शारदा मित्तल

सुश्री शारदा मित्तल

दोहे

(सुश्री शारदा मित्तल जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप महिला काव्य मंच चड़ीगढ़ इकाई  की संरक्षक एवं वूमन टी वी की पूर्व निर्देशक रही हैं। प्रस्तुत हैं उनके दोहे। हम भविष्य में उनकी और रचनाओं की अपेक्षा  करते हैं।) 

 

कंकर पत्थर सब सहे, मैंने तो दिन रात  ।

सागर सी ठहरी रही, मैं नारी की जात ।।

 

साथ निभाया हर घड़ी, मन की गाँठें  खोल।

रिश्तों को महकाऐं हैं,  तेरे मीठे बोल ।।

 

मानवता देखें नहीं, सब देखें औकात ।

इस सदी ने दी हमें, ये कैसी सौगात ।।

 

अड़ियल कितना झूठ हो, सब लेते पहचान ।

खामोशी भी बोलती, सच में कितनी जान ।।

 

मात-पिता का हाथ यूँ, ज्यूँ बरगद की छाँव ।

तू जन्नत को खोजता, जन्नत उनके पाँव ।।

 

बौराया जग में फिरे, कैसे आऐ हाथ ।

तू बाहर क्यूँ  खोजता, वो है तेरे साथ ।।

 

खुद पर, तुझ पर, ईश पर, है इतना विश्वास ।

तूफ़ा कितने हों मगर, छू लूँगी आकाश ।।

 

शाखों से झरने लगे, अब हरियाले पात ।

शायद अपनों ने दिया, इनको भी आघात ।।

 

तुझे स्मरित जब किया, झुक जाता है शीश ।

प्रभु हमेशा ही मिले, बस तेरा आशीष ।।

 

नदी किनारे बैठकर कब बुझती है प्यास।

बिना भरे अंजलि यहाँ, रहे अधूरी आस।।

 

© शारदा मित्तल 

605/16, पंचकुला

 

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कविता
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ स्त्री शक्ति ☆ – डॉ भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

स्त्री शक्ति

 

स्त्री शक्ति स्वरूपा है

जगत रूपा है।

स्त्री की महिमा जग में अपार

थामी है उसने घर की पतवार

उसमे समाया ममता का सागर

जीवन भर भरती सदा स्नेह की गागर।

प्रेम दया करुणा की है मूर्ति

करती है हर रूपों में पूर्ति।

स्त्री ही है पालनहार

उसी से है जन्मा सकल संसार

स्त्री शक्ति की ललकार है

स्त्री

दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती का है अवतार

मां ,बहन, बेटी है जग का सार।

स्त्री है सबसे न्यारी

है वो हर सम्मान की अधिकारी।

 

©डॉ.भावना शुक्ल

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