हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ साहित्यिक सम्मान की सनक ☆ – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

☆ साहित्यिक सम्मान की सनक ☆

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी  की यह कविता  जो आईना दिखाती है उन समस्त  तथाकथित साहित्यकारों को जो साहित्यिक सम्मान की सनक से पीड़ित हैं ।  यह उन साहित्यिकारों पर कटाक्ष है जो सम्मान की सनक में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं।  संपर्क, खेमें,  पैसे और अन्य कई तरीकों से प्राप्त सम्मान को कदापि सम्मान की श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता।

साथ ही मुझे डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के पत्र  की  निम्न  पंक्तियाँ  याद आती हैं  जो उन्होने  मुझे आज से  37  वर्ष पूर्व  लिखा था  – 

“एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार।  हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।”)    

 

सच कह रहा हूँ भाईजान

मेरी उम्र को मत देखिए

न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइए

आईये

मैं आपको बतलाऊँ

मेरी साहित्यिक सनक को देखिए

सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है,

जिसे साहित्य समझ में नहीं आता

मेरे साहित्य को पढ़ रही है।

 

सनक एकदम नयी नयी है

नया नया लेखन है

नया नया जोश है,

मैं क्या लिख रहा हूँ

इसका मुझे पूरा पूरा होश है।

 

सब माई की कृपा है

कलम घिसते बनने लगी

कितनी घिसना है

कहाँ घिसना है

कैसी घिसना है

ये तो मुझे नहीं मालूम

पर घिसना है तो घिस रहे हैं।

 

हमने कहा- भाईजान जरूर घिसिये

पर इतना ध्यान रखिये

आपके घिसने से कई

समझदार साहित्यकार पिस रहे हैं।

वे अकड़कर बोले,

मेरा हाथ पकड़कर बोले-

आप बड़े कवि हैं

हम पर व्यंग्य कर रहे हैं

अत्याचार कर रहे हैं

आपको नहीं मालूम

पूरी दुनिया के पाठक

मेरी साहित्यिक सनक की

जय जयकार कर रहे हैं।

 

मेरा अभिनंदन कर रहे हैं

मैं उन्हें बाकायदा धनराशि देता हूँ

पर वे लेने से डर रहे हैं।

जबकि मैं जानता हूँ

मेरे जैसे लोगो का

अभिनन्दन करने वाले

अपना घर भर रहे हैं।

 

हमारी रचनाएं अनेक देशों में

साहित्यिक रक्त पिपासुओं द्वारा

भरपूर सराही जा रही हैं।

घनघोर वाहवाही पा रही हैं।

 

हमने कहा- भाईसाब

मेरा ये ख्याल है

इसी सनकी प्रतिभा का तो हमें मलाल है।

जो कविता हमें और

हमारे साहित्यिक कुनबे को

समझ में नहीं आ रही है

आपकी सर्जना को

सिरफिरी दुनिया सिर पर उठा रही है।

 

आखिर आप क्यों?

हिंदी साहित्य में स्वाइन फ्लू फैला रहे हैं,

और अफसोस

उस बीमारी को समझकर भी

लोग तालियां बजा रहे हैं।

 

आप क्या समझते हैं

आपके तथाकथित सृजन और पठन से

श्रोता जाग रहे हैं,

आपको पता ही नहीं आपका नाम सुनते ही

श्रोता दहशत में हैं और भाग रहे हैं।

आयोजकों के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं,

हाल खाली है और दरवाजे पर ताले जड़े हैं।

 

लगता है विदेशियों ने

साहित्यिक षड्यंत्र रचा दिया है

जैसे पूरी दुनिया ने

भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर

कोहराम मचा दिया है।

 

ये लाईलाज बीमारी है

आपके अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के

गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा, कहानी और

नाटक को कुचलने की तैयारी है।

 

आप अपने सम्मान पर गर्वित हैं, ऐंठे हैं

आपको पता नहीं

आप एक बारूद के ढेर पर बैठे हैं।

आपको पता नहीं चल रहा कि

आपकी दशा है या दुर्दशा है

आपको सम्मान का अफीमची नशा है।

 

आपको पता ही नहीं कि

आपके सम्मान के रंग में

कितनी मिली भंग है,

सच कहूं आपकी सृजनशीलता

पूरी तरह से नंग धड़ंग है।

 

मर्यादा का कलेवर आपके

तथाकथित अभिमान को ढक नहीं सकता

और, मेरे मना करने पर भी

आपका इस तरह लेखन रूक नहीं सकता।

 

आप अपनी वैचारिक विकलांगता

साहित्यिक विकलांगों के बीच में ही रहने दो

आप अपनी कीर्ती के कमल

गंदगी के कीच में ही रहने दो।

 

आपने हिंदी साहित्य का गला घोंटने

अपना जीवन अर्पित कर दिया,

परिणामस्वरूप स्वम्भू साहित्यकारों ने

आपको सम्मानित किया और चर्चित कर दिया।

आपके सम्मान से साहित्य के सम्रद्धि कलश भर नहीं सकते

और सायनाइट में भी डुबोने पर भी

आपके अंदर हलचल मचा रहे

साहित्यिक कीटाणु मर नहीं सकते।

 

आपकी गलतफहमी है

इक्कसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों के

साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान में

आपका भी नाम लिखा जाएगा

ध्यान रखना

वास्तविक साहित्यिक समालोचक

आपको आईना दिखा जाएगा।

 

आप आत्ममुग्ध हो

अपने सम्मान से स्वयं अविभूत हो

आप सोचते हो कि

अनन्तकाल तक जीते रहोगे

भूत नहीं बन सकते,

प्रेमचंद, परसाई, नीरज, महादेवी, दुष्यंत और

जयशंकर प्रसाद के वंशज

आपके तथाकथित साहित्य को

अलाव में भी फेंक दें पर

आप भभूत नहीं बन सकते।

 

मैंने पढ़ा है-

दूषित धन की कभी शुद्धि नहीं हो सकती

ऐसे ही

दूषित विचारों के रचनाकार की

शुद्ध बुद्धि नहीं हो सकती।

आपकी इस तरह की सृजनशीलता से

राष्ट्र की वैचारिक अभिवृद्धि नहीं हो सकती।

 

आपका पेन सामाजिक, सांस्कृतिक,

कुरीतियों, कुप्रथाओं पर

अमोघ बाण नहीं हो सकता

आप जैसे सनकियों से

राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता।

 

हे ! माँ सरस्वती

या तो इनकी कलम को

शुभ साहित्य से भर दीजिये

या इन्हें तथाकथित साहित्यिक सम्मान की

सनक से मुक्त कर दीजिए।

 

©  पंडित मनीष तिवारी, जबलपुर

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कुम्भ की त्रासदी ☆ –डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

☆ कुम्भ की त्रासदी ☆

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। कुछ लोगों के लिए कुम्भ एक पर्व है और कुछ लोगों के लिए त्रासदी। जिनके लिए कुम्भ एक पर्व है उस पर तो सब लिखते हैं किन्तु, जिसके लिए त्रासदी है , उसके लिए वे ही लिख पाते हैं जो संवेदनशील हैं। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को सादर नमन।)

 

कुम्भ के अवसर पर

छोड़ दी जाती हैं वृद्धाएं

अपने आत्मजों

जिगर के टुकड़ों द्वारा

अनुपयोगी समझ

क्योंकि इक्कीसवीं सदी

उपभोक्तावाद पर केंद्रित

“यूज़ एंड थ्रो” जिसका मूल-मंत्र

और वे अगले कुंभ की प्रतीक्षा में

अपने बच्चों पर आशीष बरसातीं

दुआओं के अम्बार लगातीं

ढोती रहती हैं ज़िंदगी

नितांत अकेली…इसी इंतज़ार में

शायद! लौट आए उसका लख्ते-जिगर

और उसे अपने घर ले जाए

जहां बसी है उसकी आत्मा

और मधुर स्मृतियां।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ खारा प्रश्न ☆ – श्रीमति सुजाता काले

श्रीमति सुजाता काले

☆ खारा प्रश्न ☆
(प्रस्तुत है श्रीमति सुजाता काले जी  की एक भावप्रवण कविता । यह सच है कि सिर्फ समुद्र का पानी ही खारा नहीं होता। आँखों का पानी भी खारा होता है। हाँ, यह एक प्रश्नचिन्ह है कि स्त्री और पुरुष दोनों की आँखों का खारा पानी क्या  क्या कहता है? किन्तु, एक स्त्री की आँखों के खारे पानी  के पीछे की पीड़ा  एक स्त्री ही समझ सकती है।  इस तथ्य पर कल ई-अभिव्यक्ति संवाद में चर्चा करूंगा । ) 

 

प्रिय,
तुम्हारा मुझसे प्रश्न पूछना,
“तुम कैसी हो?”
और मेरा
आँखों का खारा पानी
छिपाकर कहना,
“मैं ठीक हूं।”

तब तुम्हारी व्यंग्य भरी
हँसी चुभ जाती थी
और गहरा छेद करती थी
हृदय में।

आज उसी प्रश्न का
उत्तर देने के लिए
आँखें डबडबा रही हैं।

प्रिय,
अब पुछो ना
तुम कैसी हो?

 

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ देश तुझे आगे बढ़ना होगा, विश्व गुरु तुझे फिर बनना है  ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ देश तुझे आगे बढ़ना होगा, विश्व गुरु तुझे फिर बनना है ☆

 

देश तुझे आगे बढ़ना होगा,

विश्व गुरु तुझे फिर बनना है ।

 

देश तुझे आगे चलना होगा।

विश्व नेतृत्व तुझे ही करना है।।

देश तुझे —————बनना है।

 

अभी करोडों जन भूखे प्यासे हैं,

सबकी क्षुधा तुझे मिटाना होगा।

अभी करोडों फुटपाथ पर सोते हैं,

सबको आवास दिलाना   होगा।।

देश तुझे —————-बनना है।।

 

अन्नदाता भूखा क्यों मर जाता है,

अन्नदाता के भंडार भरना होगा।

कर्ज तले वो ही क्यों दब जाता है,

कृषकों का बोझ हरना होगा।।

देश तुझे——————-बनना है।

 

तन रोगी दिल रोगी मानस रोगी है,

चिकित्सा सबकी करना  होगा।

अस्पताल छलते डाक्टर ढोंगी हैं,

चिकित्सा  में सुधार लाना होगा ।।

देश तुझे——————-बनना है।

 

विद्यालय भ्रष्ट हैं शिक्षक  भोगी हैं,

उत्तम  शिक्षा सुलभ कराना होगा।

चरित्रहीन हैं पर कहने को योगी हैं,

आश्रमों को भी सुधारना होगा।।

देश तुझे——————-बनना है।

 

सीमा पर रक्षक सेना खूब लड़ी है,

जोश न टूटे उसे संबल देना होगा।

आंतरिक सुरक्षा में पुलिस खडी़ है,

पुलिस कमीशन से सुधारना होगा।

देश तुझे——————बनना है।

 

विज्ञान का पुजारी देश हमारा है,

वैज्ञानिकों को सुविधाएं देना होगा

तकनीकी संवर्द्धन उत्तम सहारा है,

कर्मनिष्ठा हों नीति बनाना होगा।
देश तुझे——————-बनना है।

 

जब मेहनतकश मजदूर हमारा है,

ईमानदार नेता चुनना  हमें होगा।

धर्म उन्माद न बढ़े संदेश हमारा है,

बुद्धिजीवियों मार्ग दिखाना होगा।।

देश तुझे——————बनना है।

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोज़ख ☆ –डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

☆ दोज़ख ☆  

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  जीवन के कटु सत्य को उजागर करती  हृदयस्पर्शी कविता।)

 

हर दिन घटित हादसों को देख

मन उद्वेलित हो,चीत्कार करता

कैसी है हमारी

सामाजिक व्यवस्था

और सरकारी तंत्र

जहां मां,बेटी,बहन की

अस्मत नहीं सुरक्षित

जहां मासूम बच्चों को अगवा कर

उनकी ज़िंदगी को दोज़ख में झोंक

नरक बनाया जाता

जहां दुर्घटनाग्रस्त

तड़पता,चीखता-चिल्लाता इंसान

सड़क पर सहायता हेतु

ग़ुहार लगाता

और सहायता ना मिलने पर

अपने प्राण त्याग देता

और परिवारजनों को

आंसू बहाने के लिए छोड़ जाता

जहां दाना मांझी को

पत्नी के शव को कंधे पर उठा

बारह किलोमीटर पैदल चलना पड़ता

उड़ीसा में एंबुलेंस के बीच राह

उतार देने पर

सात साल की बेटी के शव को

कंधे पर उठा

एक पिता को छह किलोमीटर

पैदल चलना पड़ता

जहां एक मां को रात भर

अपनी बेटी का शव सीने से लगा

खुले आसमान के नीचे बैठ

हाथ पसारना पड़ता

ताकि वह दाह-संस्कार के लिए

जुटा सके धन

यह सामान्य सी घटनाएं

उठाती हैं प्रश्न…..

क्या गरीब लोगों को संविधान द्वारा

नहीं मौलिक अधिकार प्रदत्त?

क्या उन्हें नही प्राप्त

जीने का अधिकार?

क्या उन्हें नहीं

रोटी,कपड़ा,मकान की दरक़ार

क्यों मूलभूत सुविधाएं हैं

उनसे कोसों दूर?

हमारी संसद सजग है,परंतु मौन है

एक वर्ष में दो बार

अपना वेतन व भत्ते बढ़ाने निमित्त

हो जाती हैं

सभी विरोधी पार्टियां एकमत

और मेज़ें थपथपा कर

करते हैं सब अनुमोदन

क्यों नहीं उन पर

सर्विस रूल्स लागू होते

क्यों हमारे नुमाइंदे हर पांच वर्ष बाद

बन जाते नई पेंशन पाने के हक़दार

जबकि आमजन को

तेतीस वर्ष के पश्चात्

मिलता था यह अधिकार

जो वर्षों पहले छीन लिया गया

कैसा है यह विरोधाभास?

कैसा है यह भद्दा मज़ाक?

हमारे नुमाइंदों को क्यों है—

ज़ेड सुरक्षा की आवश्यकता

शायद वे सबसे अधिक

कायर हैं,डरपोक हैं

असुरक्षित अनुभव करते हैं

और जनता के बीच जाने से

घबराते हैं,कतराते हैं

वे सत्ताधीश…जिनके हाथ है

देश की बागडोर।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ छल ☆ – सुश्री सुषमा सिंह 

सुश्री सुषमा सिंह 

☆ छल ☆

(सुश्री सुषमा सिंह जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता “छल” एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता है जो पाठक को अंत तक एक लघुकथा की भांति उत्सुकता बनाए रखती है। सुश्री सुषमा जी की प्रत्येक कविता अपनी अमिट छाप छोड़ती है। उनकी अन्य कवितायें भी हम समय समय पर आपसे साझा करेंगे।)

 

हाथों में थामे पाति और अधरों पर मुस्कान लिए

आंखों के कोरों पर आंसु, और मन में अरमान लिए

हुई है पुलिकत मां ये देखो, मंद मंद मुस्काती है

मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।

 

बार-बार पढ़ती हर पंक्ति, बार-बार दोहराती है

लगता जैसे उन शब्दों को पल में वो जी जाती है

अपलक उसे निहार रही है, उसको चूमे जाती है

मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।

 

परदेस गया है बेटा, निंदिया भी तो न आती है

रो-रो कर उस पाति को ही बस वो गले लगाती है

पढ़ते-पढ़ते हर पंक्ति को, जाने कहां खो जाती है

खोज रही पाति में बचपन, जो उसकी याद दिलाती है

कितनी हो बीमार, हो कितना भी संताप लिए

खिल जाए अंतर्मन उसका, जब बेटे की आती पाति है

फिर से आई एक दिन पाति, वो तो जैसे हुई निहाल

बेटे की पाति पाकर के, खुशी से खिला था उसका भाल

उसे देख पाने की इच्छा, मन में कहीं दबाए थे

अंखियां थी अश्रु से भीगी, सबसे रही छिपाए थी

अंतिम सांसे गिनते-गिनते, सभी पातियां रही संभाल

पीड़ा थी आंखों में उसके, खोज रही थीं अपना लाल

आंचल में उस दुख को समेटे, और दिल पर लिए वो भार

दर्द भरी सखियों को संग ले, अब वो गई स्वर्ग सिधार।

 

बीते दिन किसी ने पिता से पूछा, क्या आई बेटे की पाति है?

मौन अधर अब सिसक पड़े थे, अश्रु बह निकले छल-छल

अब न आएगी कोई पाति, अब न होगा कोलाहल

मैं ही भेजा करता था पाति, मैं ही करता था वो छल

अब न आएगी कोई पाती, अब न होगी कोई हलचल

उस दुखिया मां को सुख देने को, मैं ही करता था वो छल।

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

☆ शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं ☆

(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं”।  संयोगवश आज ही के अंक में भगवान  शिव जी परआधारित  श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक और रचना “वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा” प्रकाशित हुई है। दोनों ही कविताओं के भाव विविध हैं। दोनों कविताओं के सममानीय कवियों का हार्दिक आभार।)

 

विष पी पी मैं हूँ नील कंठ बना।

विष पी कर ही प्रेम के सूत्र बना,

मैं जग में प्रेम अमर कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

विष पी पीकर मैं ही शेषनाग बना,

मैं भू माथे पर धारण कर जाऊंगा।

धरती धर खुद को निद्राहीन बना,

मैं मेघनादों का वध कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

मैं रवि टूट टूट ग्रह तारे नक्षत्र बना,

नभ मंडल आलोकित कर जाऊंगा।

पी वियोग ज्वाला मैं पृथ्वी चंद्र बना,

शीतल हो श्रृष्टि सृजन कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

नफरत पी पी कर मैं अग्नि बना,

वन उपवन नगर दहन कर जाऊंगा,

पी पी मैं लोभ द्वेष बृहमास्त्र बना,

अरि दल पल में दहन कर जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

संयोग वियोग अभिसार से जीव बना,

मैं ही नियंता सर्जक बृहमा बन जाऊंगा।

उर पढ़ पढ़ मैं ही असीम ज्ञान बना,

मैं वेद पुराण उपनिषद बन जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

प्रणय तपस्या में राधा की कृष्ण बना,

श्रृष्टि पालक नारायण मैं बन जाऊंगा।

मैं क्षिति जल पावक गगन समीर बना,

अणु परमाणु बृहम ईश्वर बन जाऊंगा।।

शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा ☆

(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की कविता  “वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा”। संयोगवश आज ही के अंक में भगवान  शिव जी परआधारित डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जीकी एक और रचना  “शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं”प्रकाशित हुई है। दोनों ही कविताओं के भाव विविध हैं। दोनों कविताओं के  सम्माननीय कवियों का हार्दिक आभार।)

 

वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा

शिव के बिना यहाँ तो, कोई मुझे न प्यारा

 

जा ना सके वहाँ तो, दिल मे उसे बिठाकर

हर साँस को बनालो, शिव नाम एक नारा

 

यह जान धूल मिट्टी, आकार तू बनाया

हर एक आदमी को, तूने किया सितारा

 

कैलाश घर तुम्हारा, दिल में किया बसेरा

जाने कहा कहाँ पर, संसार हैं तुम्हारा

 

कश्ती तुफान में थी, मैंने तुम्हे पुकारा

आँखे खुली खुली थी, था सामने किनारा

 

भगवान दान माँगे, मैने नही सुना था

सजदा किया हमेशा, सौदा किया न यारा

 

© अशोक भांबुरे, धनकवडी, पुणे.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे ? ☆ –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 ☆ ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे ? ☆
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक बेहतरीन गजल। एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार की कलम से लिखी गई गमगीन गजल से निःशब्द हूँ।)

 

खुशनुमा माहौल में ग़म को उठाए कैसे
ऐसे हालात ग़ज़ल गाएं तो गाएं कैसे

तेरी शहनाई बजी डोली उठी आँगन से
अश्क नादाँ जो बहे उस को छुपाएं कैसे

मोम का दिल हैं मेरा ओ तो पिघल जायेगा
मोम पत्थर सा बनाए तो बनाएं कैसे

गिर गये प्यार के अंबार से तो दर्द हुआ
दर्द सीने में तो हमदर्दी जताए कैसे

मान हम जायेंगे दे के तसल्ली झूठी
मानता दिल ए नही उस को मनाए कैसे

जल गए याद सें लिपटे ही रहे हम तेरे
जल गया हैं जो उसे फिर से जलाए कैसे

वह उठाकर जो चले हैं ये जनाजा मेरा
हाथ उठते ही नहीं दे तो दुआए कैसे

© अशोक भांबुरे, धनकवडी, पुणे.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संवेदना के वातायन ☆ –डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

☆ संवेदना के वातायन ☆  

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। एक माँ के जज़्बातों को एक माँ ही महसूस कर सकती हैं। डॉ मुक्ता जी  की परिकल्पना में निहित माँ -बेटे के स्नेहिल  सम्बन्धों  और माँ के वात्सल्यमयी  अपेक्षाओं को इससे बेहतर लिपिबद्ध करना असंभव है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को नमन ।)

 

काश!

काश! वह  समझ पाता

मां के जज़्बातों को

अहसासों को

मन में बसे प्यार के

अथाह सागर को

उसकी दुआओं को

शुभाशीषों को

वह पल-पल उसकी राह तकती

देर से  लौटने तक जगती

उस की सलामती की दुआ करती

क्योंकि वह उसकी

ज़िन्दगी है, धड़कन है।

 

और वह कितनी

आसानी से कह देता है

‘क्यों जगती रहती हो…

सो जाया करो

व्यर्थ परेशान होती हो’

कहकर पल्ला झाड़ लेता है

और मां क्षुब्ध हो

कर उठती है चीत्कार।

 

‘क्या कमी रह गई

उसकी परवरिश में

क्यों नहीं दे पाई वह

उसे सुसंस्कार

क्यों ज़माने की

चकाचौंध को देख

उस ओर बढ़ गये

उसके नापाक़ कदम’

 

उसकी हर इच्छा पर

बलिहारी जाने वाली मां

अब उसे अवगुणों की खान

नज़र आने लगी

क्योंकि बड़ा हो गया है वह

रुतबा है उसका समाज में

लगता है भूल गया है

वह सलीका ज़िन्दगी का

तज मान-मर्यादा

छोटे-बड़े का अंतर

वह ख़ुद को ख़ुदा मानने लगा है

नहीं झलकता अब उसके नेत्रों से

स्नेह-सम्मान व अपनत्व भाव—

और वह सबको

एक लाठी से हांकने लगा है।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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