स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – कानी रे कानी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 242 – कानी रे कानी…
(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से)
(स्व डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के बुंदेली गीत कानों में आज भी गूंज रहे हैं। आदरणीय श्री शिब्बू दादा, श्री रवि श्रीवास्तव और श्री बैजनाथ गौतम जी के द्वारा गए गीत पूरे जबलपुर शहर में विख्यात हुए। उन गीतों में एक ‘कानी रे कानी’ आज प्रस्तुत है।)
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कानी रे कानी । कानी रे कानी ।
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उदना मिल गये टोकन लाल
बिन्ने पूँछौ एक सवाल।
मोंडा हो गये तुमरे चार
नसबंदी कौ करो विचार |
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चार हमारे परे खियाल
पर उपदेसन बनी मिसाल ।
याद आई कहनात कहनात पुरानी
कानी रे कानी । कानी रे कानी ।
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बिनकी ऊँची है ससुरार
खैंचें खायें बिना डकार।
हमें बताबें जीवन-सार
सादाँ जीवन उच्च विचार ।.
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रोजड़ भैया करें कमाल
कछू न व्यापॆ मोटी खाल ।
(सौ) याद आई कहनात पुरानी
कानी रे कानी । कानी रे कानी ।
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भासन दै रये भासन बीर
मेंगाई कौ स्वेंचें चीर |
चिल्लाउत हैं बीच बजार
नैंचें दाबैं भिस्टाचार I
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हमसें कहें गम्म तो खाव
भैराने से ना चिल्याव
सो कैसे बिसरै बात पुरानी
कानी रे कानी । कानी रे कानी ।
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© डॉ. राजकुमार “सुमित्र”
साभार : डॉ भावना शुक्ल
112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈