हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ मुंह में पानी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुंह में पानी।)  

? अभी अभी ⇒ मुंह में पानी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गर्मी का मौसम है, सबको प्यास लगती है, गला सबका सूखता है। मुंह में इधर पानी गया, उधर हमारी प्यास बुझी। पानी और प्यास का चोली दामन का रिश्ता है।

 दुनिया की प्यास बुझाने वाले कुएं को भी हमने गर्मी में सूखते देखा है। प्यास कुएं को भी लगती है, उसका भी गला सूखता है। वहीं बारिश में यही कुआ मुंह तक लबालब भरा रहता है। जल है तो तृप्ति है, गर्मी है तो प्यास है। ।

होता है, अक्सर होता है ! प्यास नहीं, फिर भी हमारे मुंह में पानी आता है, जब कहीं असली घी की जलेबी बनाई जा रही हो। कभी किसी ऐसी नमकीन की दुकान के पास से गुजरकर देखें, जहां गर्मागर्म ताजी सेंव बन रही हो। खुशबू पहले नाक में प्रवेश करती है, और तुरंत पानी मुंह में आता है।

कहते हैं, हमारे शरीर में कई ग्रंथियां होती हैं, उनमें से एक ग्रंथि स्वाद की भी होती है। मुंह में पानी आना तो ठीक, लेकिन अगर मुंह से लार टपकने लगे, तो यह तो बहुत ही गलत है। लेकिन यह लार भी अनुभवजन्य है, महसूस की जा सकती है। फिर भी ताड़ने वाले ताड़ ही लेते हैं, जो कयामत की नजर रखते हैं। ।

लार टपकने की ग्रंथि को आप लालच की ग्रंथि भी कह सकते हैं। फिल्म जॉनी मेरा नाम में पद्मा खन्ना के डांस पर केवल प्रेमनाथ ने ही लार नहीं टपकाई थी। हमें तो भाई साहब, बहुत शर्म आई थी।

वैसे लार का क्या है, आजकल के बच्चे तो पिज़्जा, बर्गर और पास्ता देखकर ही लार टपकाना शुरू कर देते हैं।

लार टपकाने का एक और विकृत स्वरूप होता है, जिसे हवस कहते हैं। हमने लोगों को सिर्फ लार टपकाते ही नहीं, महिलाओं को इस तरह घूरते देखा है, मानो कुछ देर में उनकी आंखें ही टपक पड़ेंगी। ।

काश कोई ऐसा समर्थ योगी सन्यासी होता, जो इनको टपकाने के बजाय इनकी खराब नीयत को ही टपका देता। लेकिन आजकल के योगी इनको टपकाने के लिए खुद भी भाईगिरी पर उतर आते हैं और हमारे सनातन प्रेमी इनमें अपने आदर्श महामना चाणक्य के दर्शन करते हैं जिनका सिद्धान्त होता है, शठे शाठ्यम् समाचरेत्। इनका बाहुबलियों को टपकाना आजकल एनकाउंटर कहलाता है।

एक ग्रंथि भय की भी होती है। उसमें गला नहीं, मुंह सूखता है। रात को कोई डरावना सपना देखा, डर के मारे पसीना पसीना हो गए, घबराहट बेचैनी से मुंह सूख गया, हड़बड़ाहट में नींद खुल गई। गटागट पानी पीया, तब जाकर थोड़ा स्वस्थ हुए। ।

जैसे जैसे गर्मी बढ़ेगी, प्यास भी बढ़ेगी। फलों में रस होता है। संतरा, मौसंबी, तरबूज, खरबूजा, कच्ची कैरी का पना और फलों का राजा आम भी दस्तक दे ही रहा है। शरीर में तरावट बनी रहे।

मुंह में पानी का तो क्या है, कहीं बाजार में मस्तानी लस्सी का बोर्ड देखा, तो मुंह में पानी आया। लेकिन अगर लस्सी स्वादिष्ट नहीं निकली, तो सब मजा किरकिरा हो जाता है। क्या करें, रसना है ही ऐसी। जो इसका गुलाम हुआ, उसकी ऐसी की तैसी। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 205 ☆ व्यंग्य – मार्केटिंग स्ट्रेटीज… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – मार्केटिंग स्ट्रेटीज

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 205 ☆  

? व्यंग्य – मार्केटिंग स्ट्रेटीज… ?

पुस्तक मेला चल रहा था । तीन बड़े व्यंग्यकारों की नई किताबों का विमोचन होने को था, प्रकाशक एक ही था इसलिए विमोचन समारोह अलग अलग दिनों में रखे गए । पहले वरिष्ठ व्यंग्यकार की पुस्तक लोकार्पित हुई, मंच पर लगे बैनर पर उनकी फोटो के नीचे लिखा हुआ था “देश के सर्व श्रेष्ठ व्यंग्यकार“। दूसरे दिन जब दूसरे व्यंग्य लेखक की किताब का विमोचन हुआ तो बैनर पर लिखा था “विश्वस्तरीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार“। जब तीसरे व्यंग्यकार की पुस्तक विमोचन होना थी तो प्रकाशक ने समारोह के पोस्टर पर लिखवाया, मेले में विमोचित “सर्वश्रेष्ठ किताब“।

एक पाठक तीनो ही कार्यक्रमों में उपस्थित रहा और तीनों किताबे खरीद कर पढ़ चुका था, जब अगली बार वह प्रकाशक से मिला तो उसने कहा तीनों ही किताबों में नया कुछ नहीं मिला वही पुरानी रचनाएं अलट पलट कर नई किताबें छाप दी है आपने। प्रकाशक मुस्करा कर बोला मार्केटिंग स्ट्रेटीज

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ अभी अभी ⇒ व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो।)  

? अभी अभी ⇒ व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

व्यंग्य कोई बच्चों का खेल नहीं ! बच्चों के हँसने खेलने के दिन होते हैं, उन्हें व्यंग्य जैसी धारदार वस्तुओं से दूर रखना चाहिए। हमने बचपन में बहुत तेल देखा है और तेल की धार भी देखी है।

तब हमारे पंसारी के पास तेल भी दो तरह के होते थे। एक मिट्टी का तेल, जिसे बाद में घासलेट यानी केरोसिन कहा जाने लगा और दूसरा मूंगफली का तेल, जिसे हम मीठा तेल कहते थे। हमारा पंसारी एक सिंधी था, जिसे हम साईं कहते थे। उसके पास तेल के दो कनस्तर होते थे, एक मिट्टी के तेल का और एक मीठे तेल का। दोनों में ही तेल निकालने का एक यंत्र लगा रहता था, जो तेल को कनस्तर से हमारी लाई गई कांच की बोतल में, साइफन विधि से, पहुंचाता था। हम बड़े ध्यान से तेल और तेल की धार को देखते रहते थे।

बॉटल भरने के पहले ही धार रुक जाती थी। जितना पैसा, उतनी बड़ी धार। कभी नकद, कभी उधार। ।

आज मिट्टी के तेल की यह हालत है कि वह बाजार से गधे के सिर के सींग की तरह गायब है। जिस चीज का अभाव होता है, अथवा जो वस्तु महंगी होती है, उस पर तो सॉलिड व्यंग्य लिखा जा सकता है। प्याज और टमाटर इस विषय में बड़े नसीब वाले हैं। थोड़ा भाव बढ़ा, तो बाजार से गायब ! और उनके इतने भाव बढ़ जाते हैं कि उन पर व्यंग्य पर व्यंग्य और अधबीच पर अधबीच लिखे जाने लगते हैं। लेकिन जो मिट्टी का तेल काला बाजार में भी उपलब्ध नहीं, उस पर धारदार तो छोड़िए, बूंद बराबर भी व्यंग्य नहीं।

चलिए, मिट्टी के तेल को मारिए गोली, खाने के तेल को ही ले लीजिए। सरसों, सोयाबीन, सनफ्लॉवर हो अथवा मीठा तेल, जब इनके भाव आसमान छूते हैं, तब कोई भी व्यंग्यकार को न तो यह तेल दिखाई देता है और न ही इसकी धार, और बातें करते हैं धारदार व्यंग्य की। क्या राजनीति पर किया गया व्यंग्य, तेल पर किए व्यंग्य से अधिक धारदार होता है। ।

हमारे घर में हथियार के नाम पर सिर्फ चाकू, छुरी ही होते हैं। उससे केवल सब्जियां और कभी कभी हमारे हाथ ही कटते हैं, लेकिन कभी किसी का गला नहीं। लेकिन आजकल हमारे चाकू छुरी भी व्यंग्य की तरह ही अपनी धार खो बैठे हैं।

एक समय था, जब चाकू छुरियां तेज करने वाला आदमी घर घर और मोहल्ले मोहल्ले आवाज लगाता था, एक पहियानुमा यंत्र से चिंगारी निकलती थी, और हमारे घरेलू औजार धारदार हो जाते थे।

आज की गंभीर समस्या न तो महंगाई है और न ही भ्रष्टाचार। जिसे राज करना है, राज करे, और जिसे नाराज करना है नाराज करे, कहने को फिर भी यह जनता का ही राज है। लेकिन जब व्यंग्य में ही धार नहीं, तो कैसी सर्जिकल स्ट्राइक। नाई के उस्तरे में भी धार नहीं, और चले हैं हजामत करने। ।

हमने तो खैर हमारे घर के औजार धारदार कर लिए, बस आजकल के व्यंग्य में धार अभी बाकी है। पहले सोचा धार जिले में ही जाकर बसा जाए, लेकिन हमारे एक मित्र धारकर स्वयं इंदौर पधारकर यहां बस गए।

काश, यह पता चल जाता परसाई अपने व्यंग्य लेखों पर धार कहां करवाते थे, तो उन ज्ञानियों की भी यह शिकायत दूर हो जाती कि आजकल व्यंग्य में धार नहीं है।

शब्द ही धार है, कटार है, व्यंग्य का हथियार है।

जब जरूरत से अधिक पैना हो जाता है तो शासन, प्रशासन और सत्ता को चुभने लगता है। पद्म पुरस्कार जैसे अन्य प्रलोभनों के लिए इनका सही उपयोग बहुत जरूरी है। व्यंग्य वह लाठी है जो सिर्फ सांप को ही मारती है, किसी दुधारू गाय को नहीं। ।

लेकिन वक्त वह लाठी है, जो कबीर जैसे खरी और कड़वी बात कहने वाले के मुंह से भी यह लाख टके की बात कहलवा दे ;

बालू जैसी करकरी

उजल जैसी धूप।

ऐसी मीठी कछु नहीं

जैसी मीठी चुप। ।

लो जी, यह भी कह गए,

दास कबीर। और लाइए धार अपने व्यंग्य में…!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 182 ☆ “पेपर लीक मामले में डील…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – “पेपर लीक मामले में डील…”।)

☆ व्यंग्य # 182 ☆ “पेपर लीक मामले में डील…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

पेपर लीक होने के बढ़ते मामले चिंता का विषय बने हुए हैं। इसके कारण कई मुख्यमंत्री और कुछ बड़े लोग बैकफुट पर आ जाते हैं। गांव के टपकती पाठशाला में उनकी पढ़ाई हुई थी, उन्होंने बचपन में पाठशाला के रिसते खपरों से लीकेज की कला सीख ली थी। पढ़ाई पूरी करके ‘लीकेज की राजनीति’ विषय में उनकी पीएचडी भी पूरी हो गई थी, इसलिए वे लीकेज की राजनीति से घबराते नहीं थे और प्रजातंत्र में लीकेज की राजनीति को प्राकृतिक विपदा जैसा मानते थे। हर पार्टी में लीकेज पकड़ने वालों का बड़ा महत्व होता है, तो चूंकि ये लीकेज की राजनीति के डाक्टरेट थे इसलिए इनकी पार्टी में इनके अच्छे जलवे थे। ‘लीक’ से हटकर अपनी अलग तरह की राजनीतिक चाल चलने में वे माहिर भी थे।

उनके दिन तब फिरे जब पूरे माहौल में लीकेज बबंडर बनके छा गया। परीक्षाओं के समय पर्चा लीक होने का मौसम गरमाया, डाटा लीक होने के किस्सों ने लोगों का मन भरमाया, शहरों में पाईप लाईन लीकेज की घटनाओं से हाहाकार मचा, चुनाव की तारीख लीक होने से मीडिया गरमाया। जब लीकेज की समस्या विकराल रूप लेने लगी तो उनकी पूछ परख ज्यादा बढ़ गई। प्रजातंत्र में लीकेज विषय पर की गई पीएचडी के जलवे और बढ़ गए और उन्हें गोपनीय विभाग (लीकेज अनुभाग) का मंत्री का पद मिल गया। केन्द्र में महत्वपूर्ण पद जिसमें पिछली सरकार के लूपहोल, रिसाव, लीकेज को ढूंढने का काम था और ताजे लीकेज घटनाक्रम में तीखी नजर रखनी थी।

दिनों दिन लीकेज विभाग का महत्व बढ़ने लगा। मंत्री जी लीकेज की राजनीति के खिलाड़ी बन गए थे। परीक्षाओं के पेपर धड़ाधड़ लीक करा दिए गए। जब पत्रकारों ने मंत्री जी से पर्चा लीक होने संबंधी सवाल किये तो मंत्री जी ने पत्रकारों को टालने के लिए तरह-तरह के न समझ आने वाले जवाबों की बरसात कर दी।  कहने लगे – लीकेज का प्रॉब्लम सब जगह संक्रामक बीमारी की तरह फैल गया है, आपको याद नहीं है क्या अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डाटा लीकेज का मामला। आनलाईन लीकेज से डरकर चीन ने आनलाईन हंसी पर रोक लगा दी है। जहां तक परीक्षा के पेपर लीक होने का मामला है तो आप लोग कहेंगे तो अब वाटरप्रूफ पेपर छपवाने के आदेश कर देते हैं। मंत्री जी ने सोशल मीडिया पर लीक हो रहे मामलों पर चिंता व्यक्त की और मीडिया वालों से सहयोग की अपील की। प्रजातंत्र में टपका की समस्या पर गहन विचार विमर्श करते हुए पत्रकारों को बताया कि पिछली सरकार के लीकेज इतने अधिक पकड़ में आये हैं कि रिसाव रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। पिछली सरकार के पीडब्ल्यूडी विभाग की गड़बड़ी और भ्रष्टाचार से सरकारी क्वार्टरों में टपका, सीपेज, लीकेज के केस ज्यादा दर्ज हुए हैं।

नगर निगमों की पाइप लाइन में रोज बढ़ते लीकेज की समस्या पर विपक्ष जिम्मेदार है विपक्षी लोग नहीं चाहते कि जनता को रोज पानी मिले।

मीडिया वालों से हाथ जोड़कर मंत्री जी ने निवेदन किया कि हमारी पार्टी और हमारे मंत्री टपके और लीकेज की राजनीति नहीं करते, क्योंकि हमारे पास पर्याप्त जांच एजेंसियां और कोर्ट के खास लोग हैं, इसलिए जो हुआ तो हुआ आप लोग लीकेज वाली बात से संबंधित सवाल अब हमसे न पूछें नहीं तो आप सबकी आंखों में लीकेज की समस्या बढ़ सकती है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 143 ☆ मंजिल की तलाश में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 143 ☆

☆ मंजिल की तलाश में ☆

सलाहकार की फौज होने से कोई विजेता नहीं बन जाता, एक व्यक्ति हो पर सच्चा और समझदार हो तो मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। नासमझी के चलते लोग ऐसी टीम गठित कर लेते हैं, जहाँ हर सिक्का खोटा होता है, अब खोटे से कुछ होने से रहा, सो खींचतान करते हुए अपनी जगह पर मशीनी साइक्लिंग करते नज़र आते हैं। ऐसी दशा में वजन भले ही कम हो किन्तु दिशा बदलने से रही।

चाणक्य ने चंद्रगुप्त द्वारा नए साम्रज्य की स्थापना कर दी किन्तु अविवेकपूर्ण व्यक्ति न तो स्वयं बढ़ेगा न दूसरों को बढ़ने देगा। केवल धक्का- मुक्की के बल पर भला शिखर पर विराजित हुआ जा सकता है।

यदि आपमें नेतृत्व की क्षमता न हो तो जरूरी नहीं कि मुखिया बनें आप ऐसी टीम के साथ जुड़कर कार्य कर सकते हैं जहाँ बुद्धिमत्ता पूर्वक निर्णय लिए जा रहे हों। देश निर्माण में लगे रहना, विश्व बंधुत्व को बढ़ावा, तकनीकी विकास, आर्थिक उदारता के साथ अपने को विश्व का मुखिया बना लेना। कदम दर कदम चलते रहने का ही परिणाम है।

तेरा- मेरा छोड़कर मिल बाँट कर रहना सीखिए। सब कुछ केवल मेरा हो ये प्रवृत्ति जब तक मन से नहीं जायेगी तब तक मानसिक शांति नहीं मिल सकती।  जो लोग साथ रहने की आदत  रखते हैं वे हमेशा मुस्कुराते हुए हर परिस्थितियों का सामना करते जाते हैं।  कोई भी वस्तु या  क्षण स्थायी नहीं होता  इसमें बदलाव होना स्वाभाविक  है अतः किसी वस्तु के प्रति अनावश्यक मोह नहीं पालना चाहिए, कैसे योग्य बनें इस पर चिंतन करते हुए स्वयं को निखारते रहें। अनायास ही जब प्रकृति आपसे दी हुई सुविधाएँ वापस लेने लगे तो समझ जाइये की वक्त बदल रहा है सो अभी भी समय है बदलिए। पुरानी बातों का ढ़िढोरा पीटने से कुछ नहीं होगा।

हर घटना कुछ न कुछ सिखाती है व हमें अवसर प्रदान करती है खुद को सिद्ध करने का। अतः किसी एक क्षेत्र में प्रयास करते रहें जब तक मंजिल न मिल जाए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 204 ☆ व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य जूम और मीट की बहार है

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 204 ☆  

? व्यंग्य – जूम और मीट की बहार है… ?

लोकतंत्र में बिना चर्चा कोई काम नहीं होता. सबकी सहभागिता जरूरी है. सहभागिता के लिये मीटिंग आवश्यक हैं. कोरोना जनित नया जमाना वर्चुएल मीटिंग्स का है. जूम और मीट की बहार है.वर्क फ्राम होम का कल्चर फल फूल पनप रहा है. विकास की चर्चाओ के लिये सरकारी और साहित्य की असरकारी मीटिंग्स पोस्ट कोरोना युग में मोबाईल और लैपटाप्स पर ही सुसंपन्न हो रही हैं. जूम पर या गूगल मीट पर मीटींग्स के लिये पहले दिन और समय तय होता है. संबंधितो को व्हाट्सअप ग्रुप्स पर मीटिंग का संदेश दिया जाता है. यदि मीटिंग सरकारी है तब तो बडे साहब के चैम्बर में उनकी सीट के सामने की दीवार पर एक बड़ा सा मानीटर होता है. एक युवा साफ्टवेयर इंजीनियर पहले ब्राडबैंड सिग्नल, बैकग्राउंड  दृश्य और साउंड क्वालिटी चैक करता है. फिर जिन अन्य मातहत कार्यालयों को मीटिंग में जोड़ना होता है, बारी बारी से उन्हें फोन करके उनसे संपर्क करता है जिससे जब साहबों की वास्तविक मीटिंग हो तो बेतार के तार निर्विघ्न जुड़े रहें. नियत समय से कुछ पहले से ही मातहत अपनी प्राग्रेस रिपोर्ट या प्रस्तावों के प्रतिवेदन तैयार करके, अपने कपड़े ठीक ठाक करके कैमरे के सम्मुख विराजमान हो जाते हैं. यदि मीटिंग बड़ी हुई यानी उसमें प्रदेश भर के कार्यालय जुड़ने वाले हुये तो आईडेंटीफिकेशन के लिये मातहत आफिसों के नाम की फलेक्स पट्टिकायें भी लगा दी जातीं है.  इस बीच यदि कोई फरियादी जरुरी से जरूरी काम लेकर भी साहब से मिलना चाहता है तो सफेद ड्रेस में सज्जित दरबान उसे बाहर ही रोक देता है, और थोड़े रोब से बताता है आज साहब हेड आफिस से वीसी मतलब वर्चुएल कांफ्रेंस में हैं. आगंतुक समझ जाता है कि आज साहब पास होकर भी दूर वालों के ज्यादा पास हैं. आज उन तक फरियाद पहुंचाना मुश्किल है.

वर्चुएल मीटिंग को साहित्यकारों ने भी बहुत अच्छा प्रतिसाद दिया है. योग, नृत्य, ट्यूशन क्लासेज भी जूम और मीट प्लेटफार्म पर सक्सेजफुली चल रही हैं. अब साहित्य की गोष्ठियां मोबाईल से ही निपटा ली जाती है. इनवीटेशन, हाल बुकिंग, मंच माला माईक, चाय नाश्ता, सारी झंझटों से मुक्ति मिल गई है. वरचुएल मीट प्रारंभ होते ही जब अधिकाधिक लोग जुड़े होते हैं, अखबारी न्यूज के लिये स्क्रीन शाट ले लिये जाते हैं.  चतुर लोग धीरे से अपना वीडीयो और माईक बंद करके दूसरे काम निपटा लेते हैं. कुछ तो मीटिंग साउंड भी बंद करके मोबाईल जेब के हवाले कर देते हैं, पर वर्चुएली मीटिंग से जुड़े रहकर समूह के साथ अपनी सालीडेरिटी बनाये रखते हैं. ऐसे साफ्टवेयर फ्रेंडली रचनाकार वर्चुएल बैकग्राउंड में किताबों से भरी लाईब्रेरी का चित्र लगाकर अपना प्रोफाईल कुछ खास बना लेते हैं. जो थोड़ा बुजुर्ग या अधेड़ उम्र के वरिष्ठ या गरिष्ट साहित्यकार होते हैं, यदि वे जूम फ्रेंडली नहीं होते कि मींटिंग के दौरान हैंण्ड रेज कर सकें, माईक चालू या बंद कर सकें और अपना कैमरा सेट कर सकें, तो मदद के लिये वे अपने साथ अपने नाती पोतों या युवा पीढ़ी से बेटे, बहू को पकड़ रखते हैं. यदि सब सैट करके बच्चे खिसक लिये तो ऐसे लोगों की प्रोफाईल पर सीलींग का पंखा देखने मिल सकता है. कभी कभी जब किचन की आवाजें जूम मीटिंग में सुनाई दें तो समझ लें किसी न किसी ऐसे ही व्यक्ति का माईक खुला हुआ है. प्रायः जब किसी ऐसे व्यक्ति के बोलने की बारी आती है तो माईक चालू करते ही वे शुरुवात करते हुये कहते हैं ” मेरी आवाज आ रही है न ! ” तब संचालक को बताना पड़ता है कि, जी हाँ आपकी पूरी आवाज आ रही है. सच तो यह है कि कभी कभार हुये आकस्मिक तकनीकी व्यवधान छोड़ दिये जायें तो फाईव जी के इस जमाने में आवाज तो सबकी पूरी ही आती है, ये और बात है कि सबकी आवाजें सुनी नहीं जातीं.जूम और मीट की बहार है.  वर्चुएल मीटिंग का बड़ा लाभ यही है कि कार्यालयों की मीटिंग में जब डांट पड़ने लगती है तो आवाजें डिस्टर्ब कर ली जातीं हैं, साहित्यिक मीटींग्स में आत्ममुग्धता से भरे व्याख्यान खुद बोलो खुद सुनो बनकर रह जाते हैं क्योंकि आवाज आती तो है पर सुनना न सुनना दूसरे छोर पर बैठे व्यक्ति के हाथ होता है. अच्छी से अच्छी बातें तो हमेशा से हैं आ रही हैं, उन्हें सुन भी लें तो उन्हें ग्रहण करना तो सदा से हम पर ही निर्भर है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 181 ☆ “वो बेचैन सा क्यूं है…?” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – वो बेचैन सा क्यूं है…?”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 181 ☆ “वो बेचैन सा क्यूं है…?” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

वो अक्सर व्याकुल बेचैन सा नजर आता है। उसकी इस बेचैनी को देखकर चिंता भी होती है। चिकित्सक कहते हैं कि अति आतुर या व्याकुल होना भी एक रोग ही है। इसका मतलब वो जरूर इस रोग से पीड़ित है।  दैनिक जीवन में प्रतिदिन वो व्याकुल सा परेशान रहता है। उससे जब पूछो कि- वो इतना आतुर क्यों दिखता है? तो झट से उसका जबाब होता है कि- लेखक भी तो लिख देते हैं कि उनके अंदर बेचैन आत्मा रहती है, और यह बेचैन आत्मा उनसे शानदार रचनाएं लिखवा देती है। 

पहले ऐसा कहा जाता था कि वृद्ध होने पर ही इंसान आतुर जैसा हो जाता हैं, पर ऐसा लगता है कि वर्तमान में बच्चे और युवा सभी इस रोग से पीड़ित हैं। सभी को शीघ्रता है। आज कल सभी हाथ मोबाइल लिए हुए  हैं। वो भी तीन चार मोबाइल साथ रखता है,  उसकी हर दम आदर के साथ झुकी हुई गर्दन, आंखे मोबाइल के स्क्रीन में अंदर तक घुसी हुई, मन बेचैन व्याकुल सा किसी नए मेसेज की प्रतीक्षा में ही रहता है। अल सुबह वो सर्वप्रथम मोबाइल को प्रणाम कर दिन का शुभारंभ करता है। जब शुरुआत ही बेचैनी से होगी तो पूरा दिन भी उसी प्रकार का होगा। 

क्या अतुरता बेचैनी ये सब हम सब के स्वभाव का हिस्सा तो नहीं बन गया है? उसको देखकर ऐसा लगता है, साधु संत तो कहते हैं कि संयम और धैर्य से काम लो फिर वो इतना व्याकुल और बेचैन क्यों रहता है। अभी उस दिन की बात है बैंक की लंबी लाइन में वो नियम विरुद्ध किनारे से आकर पूछता है, सिर्फ खाते में बैलेंस की जानकारी लेनी हैं। ये बात अलग है, कि वो बैलेंस के नाम से अपनी बैलेंस शीट में लगने वाली बैंक की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेता है। लाइन में इंतजार कर रहे अन्य व्यक्तियों के समय हानि को दरकिनार कर अपना उल्लू सीधा करने में उसकी व्याकुलता और बेचैनी काम आती है। वो हर समय जल्दी में रहता है पर रोज खूब देर से सोकर भी उठता है।      

आज फिर जब मैं पपलू दवा की दुकान से अपने जीवित रहने की दवा खरीदने के लिए डॉक्टर का पर्चा वहां कार्यरत व्यक्ति को दे रहा था, तभी वो दूर खड़ी कार की खिड़की से कूकर के समान अपनी थूथनी बाहर निकाल कर डाक्टर पर्ची को उल्ट पलट कर दवा का नाम लेकर उसकी उपलब्धता, भाव,एक्सपायरी की तारीख, दो हज़ार के छूट आदि की पूरी जानकारी लेने लगा। उसके पास कार से बाहर आकर बातचीत करने का समय नहीं था। वो वहीं से बेचैनी से चिल्लाकर कहने लगा उसका टाइम खराब हो रहा है। उसको टीवी पर शाम को होने वाली कुत्तों की तरह होने वाली बहस देखना जरूरी है। उस हालात में उसकी बेचैनी और व्याकुलता देखने लायक थी। कहते हैं कि विश्व में सबसे ज्यादा युवा शक्ति भारत में है पर  जुकुरू बाबा ने फेसबुक, वाट्सएप, इंस्टाग्राम और तरह तरह के आनलाइन गेम में फंसाकर पूरी युवा शक्ति में बेचैनी और व्याकुलता भर दी है और डाक्टर लोग कह रहे हैं इस रोग का कोई इलाज नहीं है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #186 ☆ व्यंग्य – जानवरों की बेअदबी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  ‘जानवरों की बेअदबी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 186 ☆

☆ व्यंग्य ☆ जानवरों की बेअदबी

कहीं पढ़ा कि एक राज्य में कुछ समझदार लोगों ने ‘हलाल मीट’ के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए माँग की कि बाज़ार में ‘हलाल मीट’ की जगह ‘झटका मीट’ ही बेचा जाना चाहिए। यानी जानवर को एक झटके में ही इस दुनिया से रुखसत किया जाए, वध के तरीके में कोई मज़हबी कर्मकांड न हो।

उल्लेखनीय है कि आदमी के जन्म से ही अनेक पशु-पक्षी और समुद्री-जीव उसके ज़ायके के लिए खुशी-खुशी अपनी जान की कुर्बानी देते रहे हैं। मनुष्य- जाति का इतिहास लिखते समय पशुओं की इस कुर्बानी को स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए।

सभी धर्मग्रंथ मानते हैं कि हर जीव का जन्म और मृत्यु पूर्वनियत है। शायद इसीलिए पशुओं का वध करते समय आदमी को हिचक नहीं होती। जब सब कुछ पूर्व निश्चित है तो आदमी को केवल ऊपर वाले की इच्छा की पूर्ति का निमित्त ही माना जा सकता है। इस हिसाब से देखें तो आदमी की हत्या पर मिलने वाला दंड भी अटपटा लगता है। कुछ लोग इतने ‘पशु-प्रेमी’ होते हैं कि, बिना माँस के, निवाला उनके हलक से नीचे नहीं उतरता।

ऊपर बताए गये वाकये में जब हल्ला- गुल्ला ज़्यादा बढ़ा तो अधिकारी हरकत में आये और हलाल और झटका के तरफदारों को अलग-अलग समझाइश देने की कोशिश शुरू हुई, लेकिन बहुत मगजमारी के बाद भी पशु-वध के किसी एक तरीके पर दोनों पक्षों की सहमति नहीं बन सकी। तभी एक अधिकारी, जिन्हें उनकी न्यायप्रियता और संवेदनशीलता के कारण सनकी माना जाता था, ने एक नूतन प्रस्ताव पेश किया। उन्होंने सुझाव रखा कि बेहतर होगा कि इस मामले पर प्रभावित पक्ष यानी मुर्गो और बकरों की रायशुमारी करा ली जाए कि वे किस तरीके से स्वर्ग जाना पसन्द करेंगे।

अधिकारी के इस प्रस्ताव पर सभी पक्षों की सहमति बन गयी और प्रस्ताव पेश करने वाले अधिकारी को ही रायशुमारी की ज़िम्मेदारी सौंप दी गयी। अधिकारी ने तुरन्त वोटिंग-मशीन का इन्तज़ाम किया जिस पर पाँव से बटन दबाकर अपनी पसन्द अंकित की जा सकती थी। तीन विकल्प रखे गए— झटका, हलाल और नोटा, यानी ‘इनमें से कोई नहीं’।

नगर के बकरों-मुर्गों को इकट्ठा करके उनका वोट डलवाया गया। जब परिणाम सामने आया तो सभी पक्ष ठगे से रह गये क्योंकि सभी पशुओं ने ‘नोटा’ का बटन दबाया था, यानी वे फिलहाल इस दुनिया से रुखसत नहीं होना चाहते थे।

देखकर अधिकारियों के मुँह का ज़ायका बिगड़ गया। ऐसी बेअदबी! दिस इज़ ओपिन डिफाएंस ऑफ अथॉरिटी। ‘हमने उन्हें अपनी बात रखने का मौका दिया और वे हमारा ज़ायका बिगाड़ने पर तुल गये! इतने दिन तक दाना-पानी देने का ये सिला!’ कुछ लोगों ने रायशुमारी कराने वाले अधिकारी की लानत-मलामत की क्योंकि उन्होंने ‘नोटा’ का विकल्प शामिल किया था।

अन्त में निष्कर्ष निकला कि अधिकारियों ने पशुओं को उनकी किस्मत का फैसला करने का मौका दिया, लेकिन उन्होंने उसका गलत फायदा उठाया। इसलिए इस मामले में आगे उनसे कोई राय न ली जाए। अब एक तीन-सदस्यीय समिति गठित की जाएगी जो दो महीने के भीतर मनुष्य-जाति के दोनों पक्षों से बात कर सहमति बनाने की कोशिश करेगी। तब तक पशुओं को रुखसत करने के लिए वर्तमान तरीके ही अपनाये  जाएंगे।

 © डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 142 ☆ उठा पटक के मुद्दे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 142 ☆

☆ उठा पटक के मुद्दे ☆

बे सिर पैर की बातों में समय नष्ट नहीं करना चाहिए, ये तो बड़े- बूढ़ों द्वारा बचपन से ही सिखाया जाता रहा है। पर क्या किया जाए आजकल एकल परिवारों का चलन आम बात हो चुकी है। और खास बात ये है कि माता- पिता अब स्वयं कुछ न बता कर गूगल से सीखने और समझने के लिए बच्चों को शिशुकाल से ही छोड़ने लगे हैं। पहले बच्चा मनोरंजन हेतु फनी चित्र देखता फिर अपने आयु के स्तर से आगे बढ़कर जानकारी एकत्रित करता है। शनिवार की शाम को आउटिंग के नाम पर होटलों में बीतती है, रविवार मनोरंजन करते हुए कैसे गुजरता है पता नहीं चलता। बस ऐसा ही सालों तक होता जाता है और तकनीकी से समृद्ध पीढ़ी आगे आकर अपने विचारों को बिना समझे सबके सामने रखती जाती है। अरे भई नैतिक व सामाजिक नियमों से ये संसार चल रहा है। हम लोग रोबोट नहीं हैं कि भावनाओं को शून्य करते हुए अनर्गल बातचीत करते रहें।

बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पाँव- कितना सटीक मुहावरा है। बच्चे को सबसे पहले बोलने की कला अवश्य सिखानी चाहिए। पढ़ने- लिखने के साथ यदि वैदिक ज्ञान भी हो जाए तो संस्कार की पूँजी अपने आप हमारे विचारों से झलकने लगती है। भारतीय परिवेश में रहने के लिए, वो भी सामाजिक मुद्दों पर अपने को श्रेष्ठ साबित करने हेतु आपको जमीनी स्तर पर जीना सीखना होगा। पाश्चात्य मानसिकता के साथ शासन करना तो ठीक वैसे ही होता है, जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 200 वर्षों तक हमें गुलामी में जकड़े रखा। अब लोग सचेत हो चुके हैं वो केवल राष्ट्रवादी विचारों के पोषक व संवाहक बन अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपना परचम पहराने की क्षमता रखते हैं।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि यथार्थ के धरातल पर प्रयोग करते रहिए। जल, जंगल, जमीन, जनजीवन, जनचेतना, जनांदोलनों के जरिए हमें वैचारिक दृष्टिकोण को सबके सामने रखना सीखना होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका  एक  माइक्रो व्यंग्य – “उगलत लीलत पीर घनेरी...”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 180 ☆ “उगलत लीलत पीर घनेरी…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

कुछ दिनों से गंगू को कोई वामपंथी कहकर चिढ़ाता तो कोई दक्षिणपंथी कहता। गंगू जब तंग हो गया तो उसने अपने आप को टटोला, कुछ हरकतें वामपंथी जैसी दिखीं कुछ आदतें दक्षिणपंथी से मेल खाती मिलीं।

मां से पूछा -जब हम पैदा हुए थे तो वामपंथी जैसे पैदा हुए थे या दक्षिणपंथी जैसे ?

मां ने ज़बाब दिया- बेटा तुम्हारे पिता जी वामपंथी थे और मैं जन्म से दक्षिणपंथी थी जब तुम पैदा हुए थे तो तुम उल्टा पैदा हुए थे, ऊपर से दक्षिणपंथी और अंदर से वामपंथी।

मां की बातें सुनकर गंगू परेशान हो गया था, जंगल की तरफ भागकर गांव के पीपल के नीचे बैठकर चिंतन मनन करने लगा। थोड़ी देर बाद एक गांव वाला लोटा लिए कान में जनेऊ बांधे शौच को जाते दिखा।  गंगू ने रोककर पूछा – भाई ये बताओ कि इन दिनों मीडिया में वामपंथी और दक्षिणपंथी ‌की खूब चर्चा हो रही है। गांव वाले को जोर की लगी थी जनेऊ कान में उमेठते हुए बोला – जो जनेऊ न पहनें और जनेऊ बिना कान में बांधे शौचालय जाए फिर बाहर निकलकर  हाथ न धोये  वो वामपंथी और जो कान में जनेऊ लपेटकर दक्षिण दिशा में बैठकर शौच करे वो दक्षिणपंथी…

गंगू सुनकर सोचने लगा आगे चिंतन मनन करूं कि नहीं।

“फासले ऐसे भी होंगे, 

ये कभी सोचा न था,”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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