हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 87 ☆ # बात ही कुछ और है # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है पितृ दिवस पर आपकी एक भावप्रवण कविता “# बात ही कुछ और है #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 87 ☆

☆ # बात ही कुछ और है # ☆ 

अंबर पर छाई घटा ये घनघोर है

दीवाने बादलों पर किसका ज़ोर है

ना जाने किसको तरसा दे

ना जाने किस पर बरसा दे

तुम भी आ जाओ

वर्षा में खो जाओ

पहले प्यार में डूबने की

या पहले बारिश में भीगने की

बात ही कुछ और है

 

वर्षा की ऋतू आई है

संग रिमझिम फुहारें लाई है

बूँद बूँद में प्यास है

धरती से मिलने की आस है

वसुंधरा झूम रही है

फुहारों को चूम रही है

इस अनोखे मिलन की तो

बात ही कुछ और है

 

पेड़ पौधे, चर-अचर

सब उन्माद में डूबे हैं

बूंदों को आगोश में लेकर

प्रणय में भीगे हैं

कण कण में तरूनाई आई है

वसुंधरा पर हरियाली छाई है

जंगल में नाचते मयूर की तो

बात ही कुछ और है

 

तुम भी अब दौड़कर आ जाओ

रिमझिम बारिश में आग लगा जाओ

तुम्हारा वो बारिश में भीगना

कूदकर पानी मुझपर उड़ाना

नज़रों से मुझपर बिजली गिराना

हाथ छुड़ाकर भाग जाना

भीगी साड़ी में वो सिमट जाना

बिजली के कड़क से लिपट जाना

सच कहूं, तुम्हारी भीगी काया की तो

बात ही कुछ और है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 86 ☆ नम्रता असावी … ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 86 ? 

☆  नम्रता असावी… ☆

अभंग ईश्वरा, मागणे मागतो

सदैव चिंतीतो, साह्य तुझे…!!

 

तुझा सहवास, मला प्राप्त व्हावा

माझ्यातला जावा, अहंकार…!!

 

नम्रता असावी, माझ्या वागण्यात

अर्थ जगण्यात, सापडावा…!!

 

तुझे सूत्र देवा, आचार घडावा

देह हा पडावा, तुझ्या द्वारी…!!

 

कवी राज म्हणे, आगाधा अनंता

तूच माय पिता, जगतिया…!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 98 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 98 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 98) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 98 ?

 ☆

माना कि तुम्हें याद न करने

की  जिद  हमारी  थी…,

पर  भूल  जाने  में  तो,

आप भी कमाल निकले…

 

Agreed that it was my  

obstinacy not to miss you…

But you amazingly surpassed  

everyone in forgetting…

 जिंदगी में मंजिलों का

फितूर ही नहीं,  

कुछ सफर का

सुरूर भी जरूरी है…

 

Why alone the obsession of

the destinations in life,

Some euphoric inebriation of

the journey is also a must…

नीचे आ गिरती है

हर  बार  दुआ  मेरी,

पता नहीं किस ऊँचाई

पर  रब  रहता  है…

My benedictive prayers

kept crashing down…

Knoweth  not  at  what

height the Lord resides..!

कुछ इस तरह खूबसूरत

रिश्ते टूट जाया करते हैं,

जब दिल भर जाता है तो

लोग रूठ जाया करते हैं…

When heart gets satiated,

the people sulk away…

Some beautiful relations

break up like this also…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 98 ☆ मुक्तिका…अचेतन है ज़िंदगी… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका…अचेतन है ज़िंदगी… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 98 ☆ 

☆ मुक्तिका…अचेतन है ज़िंदगी… ☆

 ​.

बँधी नीलाकाश में

मुक्तता भी पाश में

.

प्रस्फुटित संभावना

अगिन केवल ‘काश’ में

.

समय का अवमूल्यन

हो रहा है ताश में

.

अचेतन है ज़िंदगी

शेष जीवन लाश में

.

दिख रहे निर्माण के

चिन्ह व्यापक नाश में

.

मुखौटों की कुंडली

मिली पर्दाफाश में

.

कला का अस्तित्व है

निहित संगतराश में

.

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

११.५.२०१६, ६.४५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #146 – ग़ज़ल-32 – “मुहब्बत अगर हो भी जाए…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मुहब्बत अगर हो भी जाए…”)

? ग़ज़ल # 32 – “मुहब्बत अगर हो भी जाए…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मुहब्बत से लबालब भरा किसी का भी हो दिल

नफ़रत का भी मकाँ है किसी का भी हो दिल।

 

मुहब्बत अगर हो भी जाए किसी को किसी से,

मुहब्बत का भ्रम टूटेगा किसी का भी हो दिल।

 

ग़ुलाब की तरह मुहब्बत काटों संग खिलती है,

वियोग ख़ार सा चुभता किसी का भी हो दिल।

 

कौंपल पंखुडियाँ मुरझा जाती नज़रों की तपिश से,

नफ़रत के ख़ार खिलते हो किसी का भी हो दिल।

 

आना-जाना क़ायदा है इस कायनात का ‘आतिश’

टूटता मुहब्बत में एक बार किसी का भी हो दिल,

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्तक – ।। पिता का  हाथ, अंधेरे में उजाले का साथ है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना ।पिता का  हाथ, अंधेरे में उजाले का साथ है)

☆ मुक्तक – ।। पिता का  हाथ, अंधेरे में उजाले का साथ है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

माँ स्नेह का    स्पर्श     तो

पिता धूप में      छाया   है।

माँ घर करती     देखभाल

तो पिता  धन     लाया   है।।

माँ बाप  के       आजीवन

ऋणी हैं    हम  सब      ही।

इनसे ही   प्राप्त   हुई   हम

सब को           काया     है।।

[2]

माँ ममता    की मूरत    तो

जैसे पिता        साया     है।

माँ से सबने     ही     बहुत

प्यार दुलार        पाया.   है।।

जीवन में      आती        है

जब   भी            कठिनाई।

पिता ने   साथी.  बन   कर

हाथ       बढ़ाया            है।।

[3]

माँ बाप ने   ऊँगली  पकड़

चलना          सिखाया   है।

बड़ा कर के          लिखना

पढ़ना            बताया     है।।

पिता से ही        जाना    है

कैसे   बनना          मजबूत।

बाजार से     खिलौने     तो

पिता     ही       लाया     है।।

[4]

माँ खुला   आंगन         तो

पिता     जैसे       छत    है।

जमाने से        बचने    की

हर सीख    का     खत   है।।

हम हैं संसार में          बस

माँ बाप     की      बदौलत।

माता पिता से    ही मिलता

संस्कारों का     तत्व       है।।

[5]

माता पिता ही      समझाते

अपने पराये   का       अंतर।

हमें बड़ा करने को     करते

वह दोनों    ही     हर  जंतर।।

पिता का हाथ    लगता    यूँ

जैसे अंधेरे      में     उजाला।

माता पिता की     सेवा    ही

जैसे   हर    पूजन  मंतर   है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 87 ☆ गजल – ’’पीड़ा का भारी बोझ…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “पीड़ा का भारी बोझ …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 87 ☆ गजल – पीड़ा का भारी बोझ …  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

चोटों पै चोट दिल पै कई खाये हुये है।

दुख-दर्दो को मुस्कानों में बहलाये हुये हैं।।

 

जब से है होश सबके लिये खपता रहा मैं

पर जिनको किया सब, वही बल खाये हुये हैं।।

 

करता रहा हर हाल मुश्किलों का सामना

पर जाने कि क्यों लोग मुँह फुलाये हुये हैं।।

 

गम खाके अपनी चोट किसी से न कह सका

हम मन को कल के मोह में भरमाये हुये हैं।।

 

लगता है अकेले कहीं पै बैठ के रोयें

किससे कहें कि कितने गम उठाये हुये हैं।।

 

औरों से शिकायत नहीं अपनों से गिला है

जो मन पै परत मैल की चिपकाये हुये हैं।।

 

दिल पूछता है मुझसे कि कोई गल्ती कहाँ है ?

धीरज धरे पर उसको हम समझाये हुये हैं।।

 

देखा है इस दुनियाँ में कई करके भी भलाई

अनजानों से बदनामी ही तो पाये हुये हैं।।

 

करके भी सही औरों को हम खुश न कर सके

पीड़ा का भारी बोझ ये उठाये हुये हैं।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #137 ☆ ख्वाब में कितना मीठापन… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण रचना “ख्वाब में कितना मीठापन…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 137 – साहित्य निकुंज ☆

☆ ख्वाब में कितना मीठापन… 

वादा करके किधर गये

उससे क्या तुम मुकर गये।

 

बीत गई है सदिया सारी

दिन इंतजार में गुजर गए ।

 

ख्वाब में कितना मीठापन

आँख खुली तो बिखर गये।

 

जिनके चेहरे पर मुखौटा

वे सारे ही चेहरे उतर गये।

 

तुमसे सारी ही है उम्मीदे

उनके सब चेहरे सवंर गये।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #126 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 126 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

एक रँग एक रूप हैं, पर हैं नाम अनेक

इश्क़, मुहब्बत, प्यार, वफ़ा, लगे प्रेम पर नेक

 

बहता दरिया प्रेम का, जिसका ओर न छोर

शीतल करता दिल वही, किये बिना कुछ शोर

 

चढ़िए मंज़िल इश्क़ की, पहली सीढ़ी नैन

कदम कभी रुकते नहीं, कभी न आता  चैन

 

व्हाट्सऐप पर कहें, अपने दिल की बात

फेसबुक पर दिखा रहे, झूठे सब जज्बात

 

दिखतीं इंस्टाग्राम पर, मन मोहक तसवीर

कितनी सच्ची-झूठ हैं, खींचें कौन लकीर

 

जाने कैसे पनपता, यह मायाबी प्यार

आया सोशल मीडिया, ले कर नव उपहार

 

लिवरिलेशन प्यार बढ़ा, रहा न नीति विचार

मात-पिता दर्शक बने, खूब हुए लाचार

 

बदल गए अब मायने, प्यार हुआ बदनाम

मर्यादाएं भंग हुईं, करते खोटे काम

 

मुख से जो बोले नहीं, करे नैन से बात

समझें बस प्रेमी सभी, कहे बिना जज्बात

 

सच्चे प्रेमी यूँ रहें, जैसे जल में मीन

बिछुरत ही तडफें सदा, प्राण गए ज्यूँ छीन

 

प्रेमी ऐसे मिल रहे, जैसे हल्दी चून

इक दूजे में खो गए, ख़ुशियाँ होती दून

 

मीठा लगता शहद सा, पहला पहला प्यार

खुशी मिले “संतोष” सँग, हर्षित हों सब यार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 167 ☆ कविता – हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 167 ☆

? कविता – हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन… ?

रोप पोस कर पौधे, अनगिन हरे भरे

अपनी जमीं को चूनर, हरी ओढ़ानी है

 

होंगे संकल्प सारे हमारे फलीभूत

हम प्रयास तो करें, सफलता आनी है

 

जब खरीदा, इक सिलेंडर आक्सीजन

तब  वृक्षों की कीमत उसने जानी है

 

जहाँ अंकुरण बीजों का है  संभव

ब्रम्हाण्ड में सारे, धरा यही वरदानी है

 

घाटियां गहराईयां, ऊँचाईयां पाषाण की

वादियां होंगी हरी,  हमने यह ठानी है

 

आसमां से ऊपर, नीले अंतरिक्ष से

दिखेगा हरा जो नक्शा, वो हिंदुस्तानी है

 

वृक्ष झीलें, चूनर में टंके सलमा सितारे

कुदरत की मस्ती  उसकी कारस्तानी है

 

इंद्र ले सतरंगा धनुष, अब जब कभी आये

पाये पहाड़ो पर  हरियाली, ये ही कहानी है

 

बांस के हरे वन और साल के घने जंगल

लगाये होंगे किसने , ये उसकी मनमानी है

 

हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन

हुआ हिसाब तब समझा कि पौधा दानी है

 

वृक्षों से वन हैं वनों से पशु , पशु से प्रकृति 

काट रहे हैं जो जंगल ये उनकी नादानी है

 

अरसे से रहा  जंगल में जंगल के साथ 

जंगल के बारे में आदिवासी ज्यादा ज्ञानी है

 

योग  सिखाता बेहतर जीवन की शैली

वृक्ष बताते वृक्षासन  अपनाना आसानी है

 

पर्यावरण संतुलन, मतलब जलवायु का साथ

याद रखना , वृक्ष हैं पर्यावरण है , तो पानी है

 

नकली पौधे  फूल सजावट वाले कागज के

हर घर पौधे रोपें जाये ऐसी जुगत लगानी है

 

बस फोटो और अखबार में  न हो वृक्षारोपण

बंजर जमीन पर हरी चादर सचमुच बिछानी है

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print