हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 11 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 11 ??

लोक के उदात्त भाव को विदेशी लेखकों ने भी रेखांकित किया। कुछ कथन द्रष्टव्य हैं-

“भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!’

– मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका)

‘यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है।!‘

– रोम्या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान) 

‘हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!‘

– एल्बर्ट आइनस्टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी, जर्मनी) 

‘यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।‘

– मेक्स मुलर (जर्मन विद्वान)

‘भारत ने शताब्दियों से एक लम्बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्ट्रों के बीच अपना स्थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्यता का प्रचार प्रसार किया है।‘

– सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान) 

‘भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्व बनाया है।‘

– हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 2 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में नारी आदर्श सीता – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

नारी जीवन को यदि विभिन्न आयामों में देखा जाय तो दो स्पष्ट आयाम हैं-(1)  बच्ची के जन्म से विवाह तक जब वह पिता के घर में बेटी के रूप में रहती है-शिक्षा पाती है, कलाओं में निपुणता पाती है, घर के कामकाज में हाथ बटा कर गृहस्थी का संजोना सवाँरना सीखती हैं। विनम्रता, विनय, शालीनता और सामाजिक शील और  मर्यादाओंं की रक्षा करना देखती और सीखती है और (2) विहाहोपरान्त जब वह पतिगृह जाती है और अपनी गृहस्थी की स्वामिनी होती है। पतिगृह में वह वधू, पत्नी, माता और गृहस्वामिनी की भूमिका निभाती है और पति तथा परिवार की देखभाल करते हुए परिजनों और पुरजनों में सम्मान की अधिकारी भी बन जाती है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम को यदि पुरुष वर्ग के लिये आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श शासक और आदर्श राजा के रूप में प्रस्तुत किया गया है तो तुलसी ने जगत्जननी सीता को भी विभिन्न रूपों में आदर्श एवं मर्यादित नारी के रूप में प्रस्तुत किया है जिसका यथा प्रसंग मनोज्ञ वर्णन है और भारतीय नारी के अनुकरण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान संकेत देता है। वास्तव में नारी का सच्चा श्रंृगार- रत्नजडि़त आभूषणों से नहीं वरन उसकी सरलता सदाचार और चरित्र से होता है। ‘त्रपागंनाया भूषणम्ïÓ विनम्रतापूर्ण संकोच, लज्जाशीलता भारतीय संभ्रान्त नारी के गुण हैं जो सीता के व्यवहार में आजीवन लक्षित होते हैं-देखिए-पिताके घर जनकपुर में वे माता-पिता की लाडि़ली और सहेलियों की प्यारी हैं- राम लक्ष्मण गुरु जी की पूजन के लिए फूल लेने पुष्प वाटिका में हैं तभी सखियों सहित सीता वहाँ गौरी पूजन हेतु मंदिर में पहुँचती हैं। सीताजी की दृष्टि श्री राम पर अकस्मात पड़ती है तब

(1)       

‘देखि रूप लोचन ललचाने-हरषे जनु निजनिधि पहिचाने

लोचन मग रामहि उर आनी-दीन्हें पलक कपाट सयानी’

प्रेम विभोर सीता से एक वाग्पटु सखी कहती है-

‘बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू, भूप किसोर देखि किन लेहू’

सीता आँखे खोलती हैं और –

नखसिख देखि राम कै सोभा-सुमिर पिता पनु मनु अति क्षोभा

तभी एक अन्य सखी कहती है-‘पुनि आउब एहि बिरियाँ काली’

तो सीता की मनोदशा देखिए-‘गूढ़गिरा सुन सिय सकुचानी’ कुछ बोली नहीं। मंदिर में जाकर पूजा करती हैं और प्रार्थना करती है- हे माता, ‘मोर मनोरथ जानहुँ नीके, बसहु सदा उरपुर सब ही केÓ तब गौरी माँ ने आशीष दिया-कैसे?- विनय प्रेमबस भई भवानी-खसीमाल मूरत मुसकानी,

सुन सिय सत्य आशीष हमारी-पूजिहि मन कामना तुम्हारी

सीता जी का राम के प्रति आकर्षण राम को पति रूप में पाने की मनोकामना देवी से प्रार्थना, सखियों का परिहास और देवी जी द्वारा सीता की मनोकामना की पूर्ति का आशीष-सब कुछ संकेतों द्वारा बड़ेमनोज्ञ वर्णन द्वारा प्रस्तुत है। विवाह के लिए एक शब्द का भी उपयोग बिना किये तुलसी दास जी ने सीता जी और उनकी सखियों के शील और मर्यादा को बनाये रख पाठकों को यह बता दिया कि सीता राम को पति रूप में पाने की चाह रखती थी और उनने यह बात देवी पूजन में देवी जी से कहकर आशीष में पा लिया। इस प्रसंग की तुलना आज के युग में टी. व्ही.  में प्रदर्शित किए जा रहे ऐसे विभिन्न प्रसंगों में किये जाने वाले डायलोग्स से कीजिए और आनंद लीजिये।

(2) सीता की शालीनता का एक अन्य सुन्दर उदाहरण विवाह मंडप में के अवसर का है-

राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाहीं।

या ते सबै सुधि भूल गई, कर टेक रही पल टारत नाहीं।

आदर्श पुत्री के रूप में सीता की लोक प्रियता उनके विहाहोपरान्त बिदाई के अवसर पर देखिए

(3)       

प्रेम विवस नर नारी सब, सखिन सहित रनवास,

मनहू कीन्ह विदेहपुर करुणा  विरह निवास।

पशुपक्षियों की दशा-

सुक सारिका जानकी ज्याये, जिनहिं पिंजरन्हि राखि पढ़ाये।

व्याकुल कहंहि-कहाँ वैदेही, सुन धीरज परिहरहि न केही,

जब भये व्याकुल खग मृग एहि भाँति, मनुज दशा कैसे कहि जाती।

स्वयं पिता जनक जी-

सीय विलोकत धीरता भागी, रहे कहावत परम विरागी

लीन्ह राय उर लाय जानकी, मिटी महा मरजाद ज्ञानकी॥

अयोध्या में सीता की मर्यादा, शील और आदर्श के अनेकों प्रसंग हैं, माता ने विवाह की बिदा समय जो उपदेश दिया था उसे सीता ने गाँठ में बाँध रखा था-

सास ससुर गुर सेवा करहू, पति सख लख आयसु अनुसरहू

होयेहु संतत पियहि पियारी- चिर अहिवात आशीष हमारी।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 10 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 10 ??

एक आख्यान के अनुसार व्यास जी जब संन्यास के लिए वन जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नग्न शुकदेव को देखकर वस्त्र धारण नही किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिए। व्यास जी ने आश्चर्य करते हुए जब पूछा तो उन स्त्रियों ने जवाब दिया कि आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री पुरुष का भेद बना हुआ है, पर आपके पुत्र की दृष्टि में यह भेद नही है। आपमें वासना शेष है, आपके पुत्र में उपासना अशेष है।

वासना द्वैत का प्रतीक है, उपासना अद्वैत जगाती है। लोक जैसा होने के लिए मनसा वाचा कर्मणा निर्वसन होना होगा। लोक में कुछ भी कृत्रिम नहीं है।

लोक सहजता से जीवन जीता है। लोकसंस्कृति में श्लील-अश्लील की रेखा विभाजक और विघातक रूप में नहीं है। यहाँ किसी कथित अश्लील चुटकुले पर एक स्त्री भी उतने ही खिलखिलाकर हँस लेती है जितना एक पुरुष। लोक स्त्री विमर्श के ढोल नहीं बजाता पर युवतियों को स्वयंवर का अवसर देता है, अपना साथी चुनने के लिए युवक-युवतियों के लिए ‘घोटुल’ बनाता है। 1600 ईस्वी में गोस्वामी जी के दोहे ‘ ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारि, सकल ताड़ना के अधिकारी’ में ‘ध्यान देने योग्य’ के बजाय ‘ताड़ना’ का अर्थ प्रताड़ना बताने वाले भूल गये कि द्वापरनरेश श्रीकृष्ण ने अपनी बहन सुभद्रा को अर्जुन के साथ भाग जाने की सलाह दी थी। पनघट पर महिलाओं का साथ जाना प्रचलन में रहा। सुरक्षा के साथ-साथ, साथ बतियाने, संवाद करने,  मन की गाँठें खोलने वाला घाट याने पनघट। पनघट याने स्त्रियों के भीतर जमे को तरल कर प्रवाहित होने, उन्हें हल्का करने का स्पेस। आज आधुनिकता में भी अपने ‘स्पेस’ के लिए संघर्ष करती स्त्री को लोक ‘गारियों’ के माध्यम से हर किसी पर टिप्पणी कर विरेचन का अवसर प्रदान करता है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस का एक सशक्त नारी पात्र मंथरा ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस का एक सशक्त नारी पात्र मंथरा॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

श्री राम की जीवन सरिता को नया मोड़ देने वाली -“मंथरा”

प्रत्येक व्यक्ति का जीवन जन्म से मृत्यु पर्यन्त-एक सरिता की भाँति कालचक्र से संचालित आगे बढ़ता रहता है। जो जन्म पाते हैं उनमें से बहुत बड़ी संख्या में अधिकांश तो अज्ञात जलधाराओं की भाँति बहकर समय के रेगिस्तान में निरोहित हो जाते हैं, किन्तु कुछ कालजयी जीवन सरितायें पावनी गंगा की भाँति विश्व विख्यात हो युग युग तक कल्मषहारिणी, जनकल्याणकारिणी तृप्ति और मुक्ति दायिनी पुण्य सलिला गंगा सी उभर कर चिर नवी बनी रहती हैं। वे जन भावना की पूजा का केन्द्र बिन्दु बन जाती हैं। परन्तु इस उपलब्धि के लिए कोई घटना महत्वपूर्ण होती है। जैसे गंगाजी का महात्मा भगीरथ के द्वारा धराधाम पर स्वर्ग से लाये जाने के लिए उनका घोर तप और सतत प्रयत्न। राम कथा में भी राम की जीवन सरिता को नई दिशा में आकस्मिक मोड़ देने वाली है कैके यी की सेविका मंथरा। वैसे तो प्रत्यक्षत: विमाता कैकेयी को उसके द्वारा राजा दशरथ से दो वरदान (1) भरत को राजतिलक और (2) राम का चौदह वर्षों के लिए वनगमन माँगकर अयोध्या के उल्लासमय वातावरण को विषादमय बनाने तथा पुत्र वियोग में राजा दशरथ के मरण का प्रमुख कारण कहा जाता है किन्तु रानी कैकेयी जो वरदान माँगने के पूर्व तक पति की प्रिय पत्नी और स्नेहमयी माता थी, के सोच में आकस्मिक परिवर्तन लाने तथा उसमें स्वार्थ व सौतिया डाह की ज्वाला भडक़ाने का काम तो वास्तव में उसकी मुँह लगी चुगलखोर और अविवेक में अंधी, कुटिल दासी मंथरा ने किया था। अत: उसे मानस के सशक्त नारी पात्र के रूप में देखा जाना अनुचित न होगा क्योंकि उसी के गहन प्रभाव से प्रभावित हों कैकेयी ने उस घटनाक्रम को जन्म दिया जिसने रामकथा को सर्वथा नया मोड़ दे दिया। यदि राम का यथा परम्परा राजतिलक होता तो शायद उनके द्वारा वे कार्य न तो संपादित हो सकते जो उन्होंने चौदह वर्षों के अपने वनवास के काल में किये और न शायद उन्हें वह अपार ख्याति ही प्राप्त हो सकी होती जो आज उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम राजाराम के रूप में जनजन के मृदुल मनोसिहासन पर आसीन होने से सहज संभव हो सकी है।

वह मंथरा जिसने प्रेमल विमाता कैकेयी के मन में एक तूफान उठा कर उसके व्यवहार में आकस्मिक घोर परिवर्तन कर दिया और सिया-राम की ही  जीवन सरिता की धारा को ही नहीं अयोध्या के राज परिवार और समस्त तत्कालीन भारत के इतिहास को ही एक झटके में बदल दिया निश्चित रूप से कुटिलतापूर्ण चरित्र वाली मानस की एक सशक्त पात्र है। क्योंकि बिना मंथरा की उपस्थिति के राम की जीवन गाथा का स्वरूप ही कुछ भिन्न होता।

रामचरित मानस में ‘मंथराÓ रानी कैकेयी की निजी मुँहलगी विश्वस्त सेविका है जो कैकेयी के राजा दशरथ के साथ विवाह पर उसके पीहर से उनके साथ आई थी। अत: स्वाभाविक रूप से वह कैकेयी की हितरक्षिका व संरक्षिका है। रानी के मनोभावों की निकट जानकार, रानी को अपनी बात खुल कर कह सकने वाली, कुटिल बुद्धि वाली, व्यवहार कुशल वाचाल, घरफोड़ू स्वभाव की, शरीरयष्टि में कुबड़ी, अदूरदर्शी प्रेम का दिखावा करने वाली, अंपढ़, कपटी, कुटनी सेविका है। उसी की सलाह पर विश्वास करने से कैकेयी ने ऐसा हठ किया जिसमें सारा राज परिवार एक गहन शोक सागर में डूब गया और राम को राज्याधिकार प्राप्ति के स्थान पर चौदह वर्षों के लिए वनवास पर जाना पड़ा। अयोध्या कांड दोहा क्र. 12 से 23 के बीच के तुलसीदास जी ने उसके अभिनय का जो चित्र प्रस्तुत किया है उससे स्पष्ट है कि मंथरा ही सारी भावी घटनाओं का बीज वपन करने वाली अहेरिन है जिसकी बुद्धि को देवताओं की प्रार्थना पर मानस में वर्णन के अनुसार शारदा ने कुमति दे दूषित कर दिया था-

नाम मंथरा मंद मति चेरी कैकेई केरि,

अजस पिटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।

संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

मंथरा का कैकेयी के पास जाना, अपना आक्रोश और खिन्नता प्रदर्शित करते हुए गहरी साँसे भरना, रानी के द्वारा उसका कारण पूँछने पर कुछ न बोलना, रानी के द्वारा यह पूँछने पर कि बात क्या है? सब कुशलता तो है? यह उत्तर देना कि आज राम की कुशलता के सिवा और किसकी कुशलता संभव है। आज उनका राजतिलक होने वाला है। सारा नगर सजाया जा रहा है उत्सव के लिये। कैकेयी के यह कहने पर कि यह तो खुशी की बात है। मुझे राम अत्यधिक प्रिय हैं और वह भी सब पर समान प्रेम रखते हैं। कौशल्या माता और मुझमें कोई भेद नहीं रखते। रघुकुल में यही प्रथा है कि बड़ा राजकुमार राजगद्ïदी का अधिकारी होता है और सब छोटे भाई उसका सहयोग करते तथा प्रेम से उसका अनुगमन करते हैं। फिर राम तो सब प्रकार सुयोग्य हैं और भाइयों पर उनका अगाध प्रेम है अत: उनका राजतिलक तो हम सबके के लिए खुशी की बात है। इस बात पर तू क्यों जली जा रही है? घर फोडू़ भेद  की बात क्यों करती है अगर फिर ऐसा कहा तो तेरी जीभ कटवा दूँगी। आखिर बात क्या है? तुझे बुरा क्यों लग रहा है? तुझे भरत की कसम है सच बता।

मंथरा ने कहा-एक बार कहने पर ही तो मुझे यह सब सुनना पड़ रहा है, अब और क्या सुनने को बाकी रहा। अब आगे भला क्या कहूँ। यह मेरा ही दुर्भाग्य है कि जो मैं आपका भला चाहती हूँ आपका अहित होते मुझसे देखा नहीं जाता और आपके हित की बात कहना चाहती हूँ तो आपसे ही गाली खाती हूँ, बुरी कही जाती हूँ, घरफोड़ू कही जाती हूँ। मैं अब आगे से मुँह देखी बात ही कहा कहूँगी जिससे आप खुश रहें। मुझे क्या करना है-

कोई नृप होय हमें का हानी-चेरी छाँडि न होउब रानी॥

उसकी ऐसी चिकनी चुपड़ी मर्म भरी बातें सुन कैकेयी ने उसके प्रति नरम होते हुये  उसकी बातों में सचाई का कुछ अंश होने की संभावना देखते हुए, आग्रह करते हुए कहा-सच तो बता ऐसी बात क्या हो गई जो तू व्यर्थ दुखी हो गई? मंथरा ने तब कैकेयी की नरमी को देखते हुए कपटपूर्ण मीठी बात कही- ”मुझे अब कहने में डर लगता है। तुमने कहा राम-सिया तुम्हें बहुत प्यारे हैं। बात तो सही है। प्यारे तो हम सबको हैं पर तुम बहुत भोली हो। पति का प्यार पाकर खुशी में भूली हो। तुम समझती हो राजा तुम्हारे वश में हैं। और सब ठीक-ठाक है। राजा भरत तथा शत्रुघ्न के ननिहाल में रहते राम का राज्याभिषेक  रच रहे हैं। कौशल्या ने भी बड़ी चतुराई से, प्रपंच रच तिलक के लिए ऐसी तिथि निकलवाई है। कौशल्या के मन में तुमसे सौतिया डाह है। वह जानती है कि राजा तुमको ज्यादा प्यार करते हैं। उसे यह खलता है। समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। जब तक कमल पानी भरे तालाब में रहता है सूरज भी उसको खिलाता है पर जब पानी सूख जाता है तो वही सूरज उसे जला डालता है (नष्ट कर देता है) राम के राजा हो जाने पर, उनसे वह प्रेम जो आज तुम्हें मिल रहा है संभव नहीं हैं। कौशल्या राजमाता होकर तुम्हारी जड़ें उखाड़ फेंकेगी। इसीलिए असलियत को समझो और अपने पुत्र भरत की समय रहते सुरक्षा का सही प्रत्यत्न करो।ÓÓ यह सुन कैकेयी को लगा कि वह बिलकुल अंधेरे में थी मंथरा ने प्रकाश की किरण दिखा, उसे डूबते को तिनके का सहारा सा देते हुए भविष्य की कठिनाई से बचाने का सही संकेत दिया है। कैकेयी को यह आभास होते ही उसने मंथरा को सहमकर समर्पण कर दिया। अब आगे वह अपने को कुछ भी सोचने, समझने और करने में असमर्थ कह कर क्या करे इसकी सलाह देने को कहा।

मंथरा ने रानी की मनोदशा का पूरा लाभ लेते हुए उसे पूर्णत: अपने वश में लेकर तथा अनेकों सौतों के सौतों के प्रति किए गए व्यवहारों की कथायें सुनाकर और भयभीत करते हुए कहा-अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। रातभर का समय है। तुम रात को कोपभवन में पहुँचो। राजा जब मनायें तब उनसे राम की शपथ दिलाकर, उनके द्वारा तुम्हें दिए गए दो वरदानों में जो तुम्हारी थाती हैं उनसे दो वचन ले लो-(1) अपने बेटे भरत को राजतिलक और (2) कौशल्या के पुत्र राम को चौदह वर्षों का वनवास। बस इससे ही बात बनेगी।

होहि अकाज आजु निशि बीते, बचन मोर प्रिय मानहु जी से।

इस सलाह पर कैकेयी ने उसे बड़ी समझदार व हितेषी मानकर उसकी सराहना की

तोहि सम हित न मोर संसारा, बहे जात कर भयेसि अधारा॥

जो विधि पुरब मनोरथ काली, करों तोहि चखपूतरि आली॥

मंथरा की इसी सारी कपट योजना का परिणाम है रामचरित मानस में वर्णित राम की जीवन गाथा। अत: मंथरा के परामर्श ने राम की जीवन सरिता की धारा को मोड़ कर एक सशक्त नारी पात्र की भूमिका निभाई है।

॥ को न कुसंगति पाई नसाई, रह इन नीच मते चतुराई॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पहचान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “पहचान।)

☆ आलेख ☆ पहचान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज प्रातः काल में मोबाईल दर्शन से ज्ञात हुआ कि श्री के के का रात्रि निधन हो गया। मैसेज भेजने वाले को हमने अपनी अनिभिज्ञता जाहिर की और कहा हमारा संगीत में ध्यान नहीं हैं। कुछ समय के पश्चात सभी टी वी चैनल वाले उनके गीत सुना रहे थे। गीत प्रायः सभी सुने हुए थे, और जुबां पर भी थे। देश के सभी बड़े नेताओं ने संवेदनाएं व्यक्त की। चैनल वाले भी उन से संबंधित जानकारी देते रहे।

हमने मन ही मन विचार किया इनका नाम और चेहरा कभी नही सुना/देखा। अंतर्मन में अपनी आयोग्यता को लेकर नए आयाम तय करने में लगे रहे।

उनको पहचान न पाने के कारण खोज में लगे हुए थे। तभी विचार किया- क्या स्वर्गीय के के ने किसी भी विज्ञापन में कार्य किया था?

क्या किसी रियलिटी शो में प्रतियोगी या जज के रूप में टी वी पर आए थे?

क्या उनके साथ कभी कोई विवाद हुआ था?

यदि इन सब का उत्तर ना है, तो फिर हम उनको कैसे पहचानते?

वर्तमान समय में अकेले काम से आपकी पहचान नहीं बनती हैं। आपको सोशल मीडिया में कार्यशील रहना होता हैं। बिग बॉस या अन्य किसी टीवी शो में छोटे स्क्रीन पर नजर आना होगा। किसी विवाद में आपका नाम है, तो लोग आपको चेहरे से पहचानने लग जाएंगे।

ये सब केके के साथ नहीं था। वो सिर्फ आवाज़ के जादूगर थे। इसलिए वो एक अच्छे इंसान  बनकर ही रह गए। पुरानी कहावत भी है “जो दिखता है, वो ही बिकता है।

ॐ शांति🙏🏻

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ रामचरित मानस मुझे प्रिय क्यों है? ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ रामचरित मानस मुझे प्रिय क्यों है?॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

कोई किसी को प्रिय क्यों लगता है? अचानक स्पष्ट कारण बता सकना कुछ कठिन होता है, ऐसा कहा जाता है। इस कथन में कुछ तो सच्चाई है। पर यदि आत्ममंथन कर बारीक विश्लेषण किया जाये तो प्रियता के कारण खोज निकाले जा सकते हैं। आकर्षक व्यक्तित्व, रूप-लावण्य, विशिष्ट गुण, सदाचार, वाणी का माधुर्य, कोई प्रतिभा, कला-प्रियता, सौम्य व्यवहार, धन सम्पत्ति, वैभव, सुसम्पन्नता, सर्जनात्मक दृष्टि, विचार साम्य, सहज अनुकूलता या ऐसे ही कोई एक या अनेक कारण। यह बात व्यक्ति के संबंध में तो सही हो सकती है पर किसी वस्तु के सम्बन्ध में ? किसी भी वस्तु के प्रति भी किसी के लगाव व आकर्षण का ऐसा ही कुछ कारण होता ही है।

मुझे पुस्तकों से लगाव है। पढऩे और उनका संग्रह करने में रुचि है। अनेेकों पुस्तकें पढ़ी हैं, विभिन्न विषयों की, विभिन्न सुन्दर साहित्यिक कृतियाँ भी। पर किसी पुस्तक ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया जितना तुलसीकृत रामचरित मानस ने। मानस ने तो जैसे जादू करके मन को मोह लिया है। जब-जब पढ़ता हूँ मन आनन्दातिरेक में डृब जाता है। स्वत: आत्मनिरीक्षण करता हूँ तो मानस में वे अनेकों खूबियाँ पाता हूँ जो किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं दिखतीं। इतना चित्ताकर्षक, रमणीक और आनन्ददायी कोई ग्रन्थ नहीं। इसमें मुझे संपूर्ण मानव-जीवन, जगत और उस परम तत्व के दर्शन होते हैं जिसकी अदृश्य सूक्ष्म तरंगों से इस विश्व में चेतना और गति है। साथ ही उस रचनाकार की अनुपम योग्यता, अद्वितीय अभिव्यक्ति की कुशलता और भाषा-शिल्प की, जिसने इस विश्व के कण-कण में साक्षात्ï अपने आराध्य को विद्यमान होने की प्रतीति कराने को लिखा हैं-

”सियाराम मय सब जग जानी, करऊँ प्रणाम जोरि जुग पाणी॥”

महाकवि कालिदास ने कहा है-

”पदे पदे यद् नवताँ विधत्ते, तदैव रूपं रमणीयताया:।”

अर्थ है- रमणीयता का सही स्वरूप वही है जो प्रतिक्षण नवलता प्रदर्शित करे।

रामचरित मानस के संबंध में यह उक्ति अक्षरश: सही बैठती है। हर प्रसंग में एक लालित्य है, मोहकता है और अर्थ में सरसता तथा आनंद है। जैसा कि  ”महाभारत” के संबंध में कहा गया है- ”न अन्यथा क्वचित् यद्ï न भारते।” अर्थात् जो महाभारत में नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है। वही बात प्रकारान्तर से कहने में मुझे संकोच नहीं है कि ऐसा भला क्या है जो ”मानस” में नहीं है ?

व्यक्ति की मनोवृतियों की कलाबाजियाँ, उनसे प्रभावित उसके सोच और योजनायें, पारिवारिक संबंधों की छवि के विविध रंग, सामाजिक जीवन के सरोकारों की झलक समय के साथ व्यवहारों का परिवर्तन और परिणाम, जीवन-दर्शन, व्यवहार कुशलता और सफलता के मंत्र, निष्कपट राजनीति के सूत्र, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की सरल परिभाषा और विवेचनायें, जीवन में अनुकरणीय आदर्श और मर्यादायें तथा मानव मूल्यों की स्थापना, प्रतिष्ठा और आराधनायें। सभी कुछ मनमोहक और अद्वितीय। साथ ही वर्णन व चित्रण में मधुरता, कलात्मक अभिव्यक्ति और सहज संप्रेषणीयता, साहित्यिक गुणवत्ता, प्रसंगों में रसों की विविधता, शैली में स्वाभाविकता और छन्दों की गेयता, हर एक के अन्त:करण को छू लेने वाला प्रस्तुतीकरण। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को रुचने वाली और कुछ सीखने लायक अनेकों सारगर्भित बातें। सामान्य जन से लेकर उद्ïभट विद्वानों तक के लिये विचारणीय, अनुकरणीय, आकर्षित करने वाला कथा-सूत्र तथा लोक और लोकोत्तर जिज्ञासाओं की तुष्टि करके विभिन्न समस्याओं का समाधान, ऐसी सरल भाषा में किन्तु गूढ़ गहन उक्ति में, कि हर पद की अनेकों व्याख्यायें, और आयु व बुद्धि के विकास की वृद्धि के साथ नये अर्थ नयी दृष्टि और नया चिन्तन प्रदान करने वाली अपूर्व कालजयी रचना है- ”मानस”। मैंने बचपन में इसे सुना, बड़े हो के पढ़ा, प्रौढ़ हो के समझा और निरन्तर इससे प्रभावित हुआ हूँ।

याद आता है मुझे वह जमाना जब मैं बच्चा था। उस समय की दुनियाँ आज से हर मायने में भिन्न थी। तब न बिजली थी और न आज के से मनोरंजन के साधन। बच्चों के तीन ही काम प्रमुख थे- खेलना, खाना और पढऩा। स्कूल से आकर शाम को कुछ खेलकूद करने के बाद खाना होता था और लालटेन के हल्के उजाले में घर के आवश्यक कामकाज निपटाकर सभी लोग रात्रि में प्राय: जल्दी निद्रा की गोद में विश्राम करते थे। समय काटने के सबके अपने-अपने तरीके थे- कथा, कहानी, पहेली, भजन, गीत, संगीत, ताश या कोई ऐसे ही हल्के खेल या हल्की-फुलकी चर्चायें, गप्पें।

हमारे घर में शाम के भोजन में बाद नियमित रूप से पिताजी ”मानस” (रामायण) पढ़ते-दोहे, चौपाई, सौरठों और छन्दों का लयात्मक पाठ करके अर्थ समझाते थे। अपनी माँ के साथ हम सब भाई सामने दरी पर बैठकर बड़े आदर और ध्यान से कथा सुनते थे। कभी विभिन्न प्रसंगों से संबंधित शंकाओं के  निवारण के लिये पिताजी से प्रश्न पूछते थे और रामकथा का रसास्वादन करते थे।  मुझे  अच्छी तरह से याद है कि मंथरा के कुटिलता, कैकेयी के राजा दशरथ से वर माँगने, दशरथ मरण और राम वनगमन के प्रसंगों में हमारी आँखें गीली हो जाती थीं। मुझे तो रोना आ जाता था। गला रूंध जाता था। अश्रु वह चलते थे और सिसकियाँ बंध जाती थीं। तब माँ अपने आँचल से आँसू पोंछकर समझाती थीं। लेकिन इसके विपरीत, पुष्पवाटिका में राम-लक्ष्मण के पुष्प चयन हेतु जाने पर, सीता का राम को और राम का सीता को देखने पर वर्णन को सुनकर, सीता के गौरी माँ मंदिर में पूजन और आशीष माँगने पर, लक्ष्मण-परशुराम संवाद पर, राम के धनुष्य तोडक़र सीता से ब्याह पर और उनके दर्शन से नगरवासियों, सब स्त्री पुरुषों की प्रसन्नता की बात पर मन गद्ïगद हो जाता था। अपार आनंद की अनुभूति होती थी और एकऐसी खुशी होती थी जैसे किसी आत्मीय की या स्वत: की विजय पर होती है। राम के गंगापार ले जाने के लिए केवट से आग्रह, केवट का श्रीराम के चरण पखारे बिन उन्हें नाँव में न बैठाने का हठ, पैर धोकर अपने परलोक को सुधार लेने की भावना का संकेत, राम का इस हेतु मान जाना और गंगा पार जाने पर केवट को उतराई देने की भावना से सीता की ओर ताकना और सीता का पति के मनाभावों को समझ मणिमुद्रिका केवट को उतार कर देने के मार्मिक प्रसंगों में मन की पीड़ा, परिस्थितियों की विवशता, पती-पत्नी के सोच की समानता से भारतीय गृहस्थ जीवन की पावनता व दम्पत्ति की भावनाओं की एक रूपता का आभास मन पर अमिट छाप छोड़ता हुआ भारतीय संस्कृति की उद्ïदात्तता, अनुपम आल्हाद प्रदान करती थी। मन में एक मिठास घोल देती थी। संपूर्ण मानस के कथा प्रवाह में ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जहाँ मन या तो विचलित हो जाता है या अत्यन्त आल्हादित। सबका उल्लेख तो यहाँ नहीं किया जा सकता। सहज कथा प्रवाह में जगह-जगह, ज्ञान और भक्ति की धाराऐं भी बहती हुई दिखाती हैं जो मन को सात्विकता, पावनता और संतोष प्रदान करती हैं।

इस प्रकार ”मानस” एक अद्भुत अप्रतिम गं्रथ है जो मानव-जीवन की समग्रता को समेटे हुए, प्रत्येक को एक आदर्श, कत्र्तव्यनिष्ठ, व्यक्तित्व के विकास की दिशा में उन्मुख कर सुखी व समृद्ध पारिवारिक व राष्ट्रीय जीवन बिताने के लिए आदर्श प्रस्तुत कर आवश्यक मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के महत्व को प्रतिपादित करता है।

मानस जिन सामाजिक मूल्यों को अनुशंसित करता है वे कुछ प्रमुख ये हैं- सत्य, प्रेम, निष्ठा, कत्र्तव्य-परायणता, पारस्परिक विश्वास, सद्ïभाव और परोपकार। इनके बल पर व्यक्ति दूसरों पर अमिट छाप छोडक़र विजय पा सकता है जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने प्राप्त की। मानसकार की मान्यता है-

(1)        नहिं असत्य सम पातक पुंजा॥ धरम न दूसर सत्य समाना॥

(2)        प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेमते प्रकट होत भगवाना॥

(3)        परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहि अधमाई॥

(4)        परिहत बस जिनके मनमाहीं तिन्ह कहं जग दुर्लभ कछु नाहिं॥

मानस के श्रवण अध्ययन, मनन ने मन में मेरे ऐसी गहरी छाप छोड़ी है कि मुझे लगता है मेरे जीवन में आचार-विचार, व्यवहार और संस्कार में उसकी सुगंध बस गई है। इसी से मेरे पारिवारिक जीवन में सुख-शांति, संतोष और सफलता की आभा है और इस हेतु मैं मानस का ऋणी हूँ।

अन्य कोई भी ग्रंथ किसी एक विशेष विषय की चर्चा करता है पर मानस तो मानव जीवन की लौकिक परिधि से बाहर जाकर पारलौकिक आनंद की अनुभूति का भी दर्शन कराता है। इसमें ”चारों वेद, पुराण अष्टदश,  छहों शास्त्र सब ग्रंथन को रस” है। यह एक समन्वित जीवन दर्शन है और भारतीय अध्यात्म का निचोड़ है। इसीलिये मुझे प्रिय है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 9 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका – भाग – 9 ??

वस्तुत: इस्लाम के अनुयायी आक्रमणकारियों के देश में पैर जमाने के बाद सत्तालिप्सा, प्राणरक्षा, विचारधारा आदि के चलते धर्म परिवर्तन बड़ी संख्या में हुआ। स्वाभाविक था कि इस्लाम के धार्मिक प्रतीक जैसे धर्मस्थान, दरगाह और मकबरे बने। आज भारत में स्थित दरगाहों पर आने वालों का डेटा तैयार कीजिए। यहाँ श्रद्धाभाव से माथा टेकने आने वालों में अधिक संख्या हिंदुओं की मिलेगी। जिन भागों में मुस्लिम बहुलता है, स्थानीय लोक-परंपरा के चलते वहाँ के इतर धर्मावलंबी, विशेषकर हिंदू बड़ी संख्या में रोज़े रखते हैं, ताज़िये सिलाते हैं। भारत के गाँव-गाँव में ताज़ियों के नीचे से निकलने और उन्हें सिलाने में मुस्लिमेतर समाज कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहता है। लोक से प्राणवान रहती इसी संस्कृति की छटा है कि अयोध्या हो या कोई हिंदुओं का कोई अन्य प्रसिद्ध मंदिर, वहाँ पूजन सामग्री बेचने वालों में बड़ी संख्या में मुस्लिम मिलेंगे। हर घट में राम देखने वाली संस्कृति अमरनाथ जी की पवित्र गुफा में दो पुजारियों में से एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम रखवाती है। भारत में दीपावली कमोबेश हर धर्मावलंबी मनाता है। यहाँ खचाखच भरी बस में भी नये यात्री के लिए जगह निकल ही आती है। ‘ यह जलेबी दूध में डुबोकर खानेवालों का समाज है जनाब, मिर्चा खाकर मथुरा पेड़े जमाने वालों का समाज है जनाब।’

इतिहास गवाह है कि धर्म-प्रचार का चोगा पहन कर आईं मिशनरियाँ, कालांतर में दुनिया भर में धर्म-परिवर्तन का ‘हिडन’ एजेंडा क्रियान्वित करने लगीं। प्रसिद्ध अफ्रीकी विचारक डेसमंड टूटू ने लिखा है, When the missionaries came to Africa, they had the Bible and we had the land. They said “let us close our eyes and pray.” When we opened them, we had the Bible, and they had the land.     भारत भी इसी एजेंडा का शिकार हुआ था। अलबत्ता शिकारी को भी वत्सल्य प्रदान करने वाली भारतीय लोकसंस्कृति की सस्टेनिबिलिटी गज़ब की है। इतिहास डॉ. निर्मलकुमार लिखते हैं, ‘.इसके चलते जिस किसी आक्रमणकारी आँख ने इसे वासना की दृष्टि से देखा, उसे भी इसनी माँ जैसा वात्सल्य प्रदान किया। यही कारण था कि धार्मिक तौर पर जो पराया कर दिये गये, वे  भी  आत्मिक रूप से इसी नाल से जुड़े रहे। इसे बेहतर समझने के लिए झारखंड या बिहार के आदिवासी बहुल गाँव में चले जाइए। नवरात्र में देवी का विसर्जन ‘मेढ़ भसावन‘ कहलाता है। विसर्जन से घर लौटने के बाद बच्चों को घर के बुजुर्ग द्वारा मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देेने की परंपरा है। अगले दिन गाँव भर के घर जाकर बड़ों के चरणस्पर्श किए जाते हैं। आशीर्वाद स्वरूप बड़े उसी तरह मिश्री, सौंफ, नारियल का टुकड़ा और कुछ पैसे देते हैं। उल्लेखनीय है कि यह प्रथा हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या आदिवासी हरेक पालता है। चरण छूकर आशीर्वाद पाती लोकसंस्कृति धार्मिक संस्कृति को गौण कर देती है। बुद्धिजीवियों(!) के स्पाँसर्ड टोटकों से देश नहीं चलता। प्रगतिशीलता के ढोल पीटने भर से दकियानूस, पक्षपाती एकांगी मानसिकता, लोक की समदर्शिता ग्रहण नहीं कर पाती। लोक को समझने के लिए चोले उतारकर फेंकना होता है।

क्रमशः…

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ रामचरित मानस में लोकतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादन॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ रामचरित मानस में लोकतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महात्मा तुलसी दास विरचित ‘रामचरित मानसÓ एक काल जयी अनुपम रचना है। विश्व साहित्य की अमर धरोहर है जो लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत, भटकी हुई मानवता को युगों युगों तक मार्गदर्शन कर जन जीवन के दुख दूर करने में प्रकाश-स्तंभ की भाँति दूर दूर तक अपनी किरणें बिखेरती रहेगी। महाभारत के विषय में यह लोकोक्ति है कि-

जो महाभारत में नहीं है वह संसार में भी नहीं है

अर्थात्ï महाभारत में वह सभी वर्णित है जो संसार में देखा सुना जाता है। यही बात रामचरित मानस के लिये भी सच मालूम होती है। मनुष्य के समस्त व्यापार, विकार और मनोभावों का चित्रण मानस में दृष्टिगोचर होता है और उसका प्रस्तुतीकरण ऐसा है जो एक आदर्श प्रस्तुत कर बुराइयों से बचकर चलने का मार्गदर्शन करता है। संसार में मानव जाति ने विगत 100 वर्षों में बेहिसाब वैज्ञानिक व भौतिक प्रगति कर ली है किन्तु मानवीय मनोविकार जो जन्मजात प्रकृति प्रदत्त हैं ज्यों के त्यों हैं। इन्हीं के कारण मानव मानव से प्रेम भी होता है और संघर्ष भी। मानस में पारिवारिक सामाजिक राजनैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों से संबंधित परिस्थितियों में मनुष्य का आदर्श व्यवहार जो कल्याणकारी है कैसा होना चाहिए इसका विशद विवेचन है। इसीलिए यह ग्रंथ साहित्य का चूड़ामणि है और न केवल भारत में बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी सभी धर्माविलिम्बियों द्वारा पूज्य है।

राजनैतिक क्षितिज पर आज लोकतंत्र की बड़ी चमक है। दुनियाँ के कुछ गिने चुने थोड़े से देशों को छोडक़र सभी जगह लोकतंत्रीय शासन प्रणाली का बोल बाला है। क्यों? -कारण बहुत स्पष्ट है। मानव जाति ने अनेकों सदियों के अनुभव से यही सीखा है कि किसी एक राजा या निरंकुश अधिनयाक के द्वारा शासन किये जाने की अपेक्षा जनता का शासन जनता के द्वारा ही जनता के हित के लिए किया जाना बहुत बेहतर है क्योंकि किसी एकाकी के दृष्टिकोण और विचार के बजाय पाँच (पंचों) का सम्मिलित सोच अधिक परिष्कृत और हितकारी होता है। इसीलिए जनतंत्र में जनसाधारण की राय (मत) का अधिक महत्व होता है और उसे मान्यता दी जाती है।

तुलसी दास के युग में जब उन्होंने मानस की रचना की थी जनतंत्र नहीं था तब तो एकमात्र एकतंत्रीय शासन था जिसमें राजा या बादशाह सर्वेसर्वा होता था। उसका आदेश ईश्वर के वाक्य की तरह माना जाता था। सही और गलत की विवेचना करना असंभव था। तब भी अपने परिवेश की भावना से हटकर दूरदर्शी तुलसी ने कई सदी बाद प्रचार में आने वाली शासन प्रणाली ‘जनतंत्रÓ की भावना को आदर्श के रूप में प्रतिपादित किया है। मानस के विभिन्न पात्रों के मुख से विभिन्न प्रसंगों में तुलसी ने अपने मन की बात कहलाई है जो मानस के अध्येता भली भाँति जानते हैं और पढक़र भावविभोर हो सराहना करते नहीं थकते।

जनतंत्रीय शासन प्रणाली के आधारभूत स्तंभ जिनपर जनतंत्र का सुरम्य भवन निर्मित है, ये हैं- (1) समता या समानता, (2) स्वतंत्रता, (3) बंधुता या उदारता और (4) न्याय अथवा न्यायप्रियता। इन चारों में से प्रत्येक क्षेत्र की विशालता और गहनता की व्याख्या और विश्लेषण करके यह समझना कि समाज में जनतंत्र प्रणाली ही अपनाये जाने पर प्रत्येक शासक और नागरिक के व्यवहारों की सरहदें और मर्यादा क्या होनी चाहिए, रोचक होगा किन्तु चूँकि इस लेख का उद्ïदेश्य मानस में लोकतंत्रीय भावनाओं का पोषण निरुपित करना है इसलिए विस्तार को रोककर समय सीमा का ध्यान रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में रामचरित मानस से उदाहरण मात्र प्रस्तुत करके संतोष करना ही उचित होगा।

सुधी पाठकों का ध्यान नीचे दिये प्रसंगों की ओर इसी उद्ïदेश्य से, केन्द्रित करना चाहता हूँ।

श्री राम का परशुराम से निवेदन-

छमहु चूक अनजानत केरी, चहिय विप्र उर कृपा घनेरी॥ 

अयोध्या काण्ड 281/4

श्री राम का सोच-

विमल वंश यहु अनुचित एकू, बंधु बिहाय बड़ेहि आभिषेकू॥

अयोध्या काण्ड 7/7

दशरथ जी का जनमत लेकर कार्य करना-

जो पांचहि मत लागे नीका, करहुँ हरष हिय रामहिं टीका॥

अयोध्या काण्ड 4/3

भरत का लोकमत लेकर कार्य करना-

तुम जो पाँच मोर भल मानी, आयसु आशिष देहु सुबानी।

जेहि सुनि विनय मोहि जन जानी आवहिं बहुरि राम रजधानी॥

अयोध्या काण्ड 182/4

चित्रकूट से वापस न होकर श्री राम का भरत से कथन-

इसी प्रकार शबरी मिलन, अहिल्योद्धार, विभीषण को शरणदान, सागर से मार्ग देने हेतु विनती आदि और ऐसे ही अनेकों प्रसंगों में विनम्रता, दृढ़ता, समता, सहजता, स्पष्ट वादिता, उदारता, नीति और न्याय की जो लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धान्त हैं और जो जनतंत्र को पुष्टï करते हैं तथा राजा/राजनेता को जनप्रिय बनाते है बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई हैं। इन्हीं आदर्शों को अपनाने में जन कल्याण है।

इसीलिए मानस सर्वप्रिय, सर्वमान्य और परमहितकारी जन मानस का कंठहार बन गयाहै।

अब्दुर्रहीम खान खाना ने जिसकी प्रशंसा में लिखा है-

रामचरित मानस विमल, सन्तन जीवन-प्राण।

हिन्दुआन को  वेदसम, यवनहिं प्रगट कुरान॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ?

दर्शन और प्रदर्शन पर मीमांसा आज के आलेख में जारी रखेंगे। जैसा कि गत बार चर्चा की गई थी, बढ़ते भौतिकवाद के साथ दर्शन का स्थान प्रदर्शन लेने लगा है। विशेषकर सोशल मीडिया पर इस प्रदर्शन का उफान देखने को मिलता है। साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या जीवन का कोई क्षेत्र हो,  नाममात्र उपलब्धि को ऐसे दिखाया जाने लगा है मानो वह ऐतिहासिक हो गई हो। कुछ लोग तो ऐतिहासिक को भी पीछे छोड़ चुके। उनकी उपलब्धियाँ तो बकौल उनके ही कालजयी हो चुकीं। आगे दिखने की कोशिश में ज़रा-ज़रा सी बातों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना मनुष्य को उपहास का पात्र बना देता है।

यूँ देखें तो आदमी में आगे बढ़ने की इच्छा होना अच्छी बात है। महत्वाकांक्षी होना भी गुण है। विकास और विस्तार के लिए महत्वाकांक्षा अनिवार्य है पर किसी तरह का कोई योगदान दिये बिना, कोई काम किये बिना, पाने की इच्छा रखना तर्कसंगत नहीं है। अनेक बार तो जानबूझकर विवाद खड़े किए जाते हैं, बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा की तर्ज़ पर।  बात-बात पर राजनीति को कोसते-कोसते हम सब के भीतर भी एक राजनीतिज्ञ जड़ें जमा चुका है। कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं हम?

हमारा सांस्कृतिक अधिष्ठान ‘मैं’ नहीं अपितु ‘हम’ होने का है। कठोपनिषद कहता है,

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

विसंगति यह है कि अपने पूर्वजों की सीख को भूलकर अब मैं, मैं और केवल मैं की टेर है। इस ‘मैं’ की परिणति का एक चित्र इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता में देखिए-

नयी तरह की रचनायें रच रहा हूँ मैं,

अख़बारों में ख़ूब छप रहा हूँ मैं,

देश-विदेश घूम रहा हूँ मैं,

बिज़नेस क्लास टूर कर रहा हूँ मैं..,

मैं ढेर सारी प्रॉपर्टी ख़रीद रहा हूँ,

मैं अनगिनत शेअर्स बटोर रहा हूँ,

मैं लिमोसिन चला रहा हूँ,

मैं चार्टर प्लेन बुक करा रहा हूँ..,

धड़ल्ले से बिक रहा हूँ मैं,

चैनलों पर दिख रहा हूँ मैं..,

मैं यह कर रहा हूँ, मैं वह कर रहा हूँ,

मैं अलां में डूबा हूँ, मैं फलां में डूबा हूँ,

मैं…मैं…मैं…,

उम्र बीती मैं और मेरा कहने में,

सारा श्रेय अपने लिए लेने में,

आज श्मशान में अपनी देह को

धू-धू जलते देख रहा हूँ मैं,

हाय री विडंबना..!

कह नहीं पाता-

देखो जल रहा हूँ मैं..!

मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है पर जीवन के सत्य को जानते हुए भी अनजान बने रहना, आँखें मीचे रहना केवल नादानी नहीं अपितु अज्ञान की ओर संकेत करता है। यह अज्ञान प्रदर्शन को उकसाता है। वांछनीय है, प्रदर्शन से उदात्त दर्शन की ओर लौटना। इस वापसी की प्रतीक्षा है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 2॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महाराज दशरथ के व्यवहार में अगाध पुत्र प्रेम, माता कौशल्या, सुमित्रा के व्यवहार में वत्सलता, भरत और लक्ष्मण के कार्यकलापों में भ्रातृ प्रेम और भ्रातृनिष्ठा तथा सीता में पत्नी के उच्चादर्श और पति के मनसा, वाचा, कर्मणा निष्ठा के आदर्श प्रस्तुत हैं। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ही उनके सबके साथ चाहें वे परिवार के सदस्य हो, गुरु हों, परिजन हो, पुरजन हों या  निषाद, कोल, किरात, सेवक या शत्रु राक्षस ही क्यों न हो उनके प्रति भी ईमानदारी और भक्ति वत्सलता स्पष्ट हर प्रसंग में सर्वाेपरि है। मानस तो नीति प्रीति और लोक व्यवहार का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है जिस का रसास्वादन और आनंद तो ग्रंथ के अनुशीलन से ही प्राप्त हो सकता है किन्तु सिर्फ बानगी रूप में कुछ ही प्रसंग उद्धृत कर मैंने लेख विस्तार और समय सीमा को मर्यादित रखकर कुछ संकेत करने का प्रयास किया है जिससे पाठक मूल ग्रंथ को पढऩे की प्रेरणा पा सकें। मानस कार ने कहा है –

जहाँ सुमति तँह संपत्ति नाना। जहाँ  कुमति तँह विपति निदाना।

यह कथन राजा दशरथ के परिवार पर अक्षरश:  सत्य भाषित होता है। कैकेयी की कुमति ने सुख से भरे और सम्पन्न परिवार पर विपत्ति का वज्राघात किया- राजा दशरथ और रानी कैकेयी के  दाम्पत्य प्रेम, विश्वास और कैकेयी की स्वार्थपूर्ण कुमति की झलक-

दशरथ-

झूठेहु हमहि दोष जनिदेहू: दुई के चार माँग कि न लेहू,

रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाँहि बरु वचन न जाई।

कैकेयी-         

सुनहु प्राणप्रिय भावत जीका, देहु एक वर भरतहिं टीका

मांगऊँ दूसरि वर कर जोरी, पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।

तापस बेष विशेष उदासी, चौदह बरस राम वनवासी॥

यह सुन दशरथ सहम गये-

सुन मृदु बचन भूप हिय सोचू,

शशिकर छुअत विकल जिमी कोकू।

किन्तु राम का माता कैकेयी के प्रति स्नेहभाव-

मोहि कहु मात तात दुख कारण,

करिअ जतन जेहि होहि निवारण।

कैकेयी का उत्तर-

सुनहु राम सब कारण ऐहू राजहि तुम पर अधिक सनेहू

सुत सनेह इत वचन उत, संकट परेउ नरेश,

सकहु तो आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेश॥

राम की विनम्रता-

सुनु जननी सुत सोई बड़भागी, जो पितुमात चरण अनुरागी

तनय मातु-पितु तोषण हारा दुर्लभ जननि सकल संसारा॥

वनवास तो सब प्रकार हितकर होगा-

मुनिगण मिलन विशेष वन, सबहि भाँति हित मोर,

तेहि महुँ पितु आयसु बहुरि सम्मत जननी तोर।

भरत प्राणप्रिय पावहिं राजू विधि सब विधि मोहि संमुख आजू,

जोन जाऊँ  वन ऐसेऊ काजा, प्रथम गण्हि मोंहि मूढ़ समाजा॥

कैकेयी का राम के प्रति कथन-

तुम अपराध जोग नहि ताता जननी जनक बंधु सुखदाता

राम सत्य सब जो कछु कहहू, तुम पितुमात वचनरत रहहू।

पितहि बुझाई कहहु बलि सोई, चौथेपन जेहि अजसु न होई,

तुम सम सुअन सुकृत जिन्ह दीन्हे, उचित न तासु निरादर कीन्हे।

राम प्रसन्न हैं। कवि कहता है-

नव गयंद रघुवीर मन राज अलान समान

छूट जान बन गवन सुनि, उर अनंद अधिकान॥

राम का पितृ प्रेम

धन्य जनम जगदीतल तासू पिताहि प्रमोद चरित सुन जासू

चार पदारथ करतल ताके प्रिय पितुमात प्राण सम जाके ॥

दशरथ प्रेम विह्वल हो-आँखें खोलते हैं-

सोक विवस कछु कहे न पारा हृदय लगावत बारहिंबारा,

विधिहिं मनाव राऊ उर माही, जेहि रघुनाथ न कानन जाहीं॥

अवधवासी पर दुख

मुख सुखाहि लोचन स्रवहि सोक न हृदय समाय,

मनहुँ करुण रस कटकई उतरी  अवध बजाय॥

नारियाँ कैकेयी को समझाती हैं-

भरत न प्रिय तोहि राम समाना।

सदा कहहु यह सब जन जाना॥

करहु राम पर सहज सनेहू,

केहि अपराध आज बन देहू?

संकेत :

सीय कि प्रिय संग परिहरिहिं, लखन कि रहहहिं धाम

राज की भूंजब भरत पुर, नृप कि जिअहि बिनु राम।

कौशल्या का कथन-

पति के प्रति प्रेम व विश्वास दर्शाता है।

राज  देन  कहि  दीन्ह बन  मोहि  सो  दुख  न लेस

तुम बिन भरतहि भूपतिहि, प्रजहि, प्रचंड कलेश।

जो केवल पितु आयसु ताता तो जनि जाहु जानि बडि़ माता

जो पितुमात कहेऊ बन जाना तो कानन सत अवध समाना॥

पूत परम प्रिय तुम सबहीके प्राण प्राण के जीवन जीके

ते तुम कहहु मात बन जाऊँ, मैं सुनि बचन बैठ पछताऊँ।

सीता-  

समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाय,

जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिर नाय।

पति प्रेम-

जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते, प्रिय बिन तियहि तरनिते ताते

तन, धन, धाम, धरनि, पुर, राजू, पति विहीन सब शोक समाजू।

जिय बिन देह, नदी बिन बारी तैसेहि नाथ पुरुष बिन नारी

नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे, सरद विमल बिधु बदन निहारे।

लक्ष्मण की दशा-

कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े, दीन मीन जनु जल ते काढे,

मो कह काह कहब रघुनाथा, रखिहहि भवन कि लैहहिं साथा।

सुमित्रा का कथन लक्ष्मण के प्रति-

अवध तहाँ जहँ राम निवासू, तँहइ दिवस जहँ भानुप्रकासू

जो पै राम-सीय वन जाहीं, अवध तुम्हार काम कछु नाहीं।

राम-प्राण प्रिय जीवन जीके, स्वारथ रहित सखा सब हीके

सकल प्रकार विकार बिहाई, सीय-राम पद सेवहुु जाई

तुम कहँ वन सब भाँति सुपासू, सँग पितु मात रामसिय जासू

सीता का पति प्रेम-

प्रभा जाइ कँह भानु विहाई, कहँ चंद्रिका चंदु तज जाई।

केवट प्रसंग में-

पिय हिय की सिय जाननिहारी, मनिमुंदरी मन मुदित उतारी।

भरत का अयोध्या में आते ही आक्रोश और पश्चाताप-

राम विरोधी हृदय दे प्रकट कीन्ह विधि मोही,

मो समान को पातकी बादि कहहुँ कहु तोही।

कौशल्या भरत को देखते ही-

भरतहि देखि मातु उठिघाई, मुरछित अवनि परी झंई आई।

भरत-

देखत भरत विकल भये भारी, परे चरण तन दशा बिसारी।

कौशल्या-

सरल स्वभाव माय हिय लाये, अतिहित मनहु राम पुनि आये,

भेंटेहु बहुरि लखन लघु भाई, शोक सनेह न हृदय समाई।

भरत-   ते पातक मोहि होऊ विधाता, जो येहि होइ भोर मत माता।

राम ने चित्रकूट में भरत से कहा-

करम बचन मानस विमल तुम समान तुम तात।

गुरु समाज, लघुबंधु गुण कुसमय किमि कहिजात॥

राम आदर्श पति हैं- पत्नी प्रेम में सात्विक भाव से दाम्पत्य जीवन का आनंद भी लेते दिखते हैं-

एक बार चुनि कुसुम सुहाये, निज कर भूषण राम बनाये।

सीतहिं पहराये प्रभु सादर बैठे फटिक शिला अति सुंदर।

मानस में तुलसी दास जी ने राक्षस परिवार की पत्नी और भाई के भी आदर्श संदर्भ प्रस्तुत किये हैं। मंदोदरी की अपने पति रावण को सलाह-

तासु विरोध न कीजिय नाथा, काल, करम जिव जिनके हाथा।

अस विचार सुनु प्राणपति, प्रभुसन बयरु विहाई,

प्रीति करहु रघुवीर पद मम अहवात न जाई।

भाई को (रावण को) विभीषन की सही सलाह-

जो कृपाल पूँछेहु मोहि बाता, मति अनुरुप कहऊ हित ताता

जो आपन चाहे कल्याणा, सुजस सुमति शुभ मति सुख नाना

तो पर नार लिलार गोसाई तजऊ चउथ के चंद की नाई

चौदह भुवन एक पति होई, भूत द्रोह तिष्ठइ नहिं सोई

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ

सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत

इस प्रकार मानस में परिवारिक स्नेह के संबंधों के अनुपम आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं। जिनका अनुकरण और अनुसरण कर आज के विकृत समाज के हर परिवार को सुख-शांति और समृद्धि प्राप्ति का रास्ता मिल सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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