हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती – 2॥ -॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 1॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती – 2

☆ ॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मानस – नीति-प्रीति और लोक रीति की त्रिवेणी है।

भक्त शिरोमणि तुलसीदास कृत ‘मानस’ एक ऐसा अद्वितीय कालजयी ग्रंथ है कि जिसकी टक्कर का कोई दूसरा ग्रंथ तो मेरी समझ में विश्व में नहीं है। ‘मानस’ में मानव समाज के उत्कर्ष और सुख-शांतिपूर्ण जीवन के जो आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं वे महत्ï कल्याणकारी और लोकोपयोगी हैं। मानस में क्या नहीं है? वह सभी कुछ तो है जिससे मनुष्य का न केवल इहलोक बनता है वरन्ï परलोक के बनाने का सार मंत्र भी मिलता है।

समाज की इकाई व्यक्ति है और व्यक्ति सुशिक्षित और सुसंस्कारित हो तो समाज स्वत: ही सर्वसुख सम्पन्न, सर्वगुण सम्पन्न निर्मित हो सकेगा। बारीक विवेचन से एक बात बड़ी स्पष्ट है कि व्यक्ति और समाज के बीच एक और सशक्त, संवेदनशील तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटक है-वह है परिवार। अनेकों परिवारों का सम्मिलित समूह ही किसी समाज का निर्माता है अत: परिवार में व्यक्ति का व्यवहार उसके व्यक्तित्व में निखार भी लाता है और संस्कार भी देता है। इन्हीं सुसंस्कारों से समाज को सुख, शांति, समृद्धि प्राप्त होती है और उस समाज की पहचान भी बनती है। परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री प्रमुख सदस्य होते हैं। इनकें सिवाय अनेकों परिवारजन मित्र परिजन और सहयोगी सेवक भी जिनके विचारों व व्यवहारों की घटना दैनिक जीवन चक्र में होती है। हर परिवार की अपनी अलग संरचना होती है। अपनी अलग पारिवारिक परिस्थितियाँ होती हैं जिनमें हर व्यक्ति की अलग भूमिका होती है। वह भूमिका किस व्यक्ति के द्वारा कितनी भली प्रकार निभाई जाती है इसी पर परिवार का बनना-बिखरना निर्भर करता है। ‘मानसÓ का कथानक बड़ा विस्तृत है और बहुमुखी है। राम को केन्द्र बिन्दु पर रखकर मानसकार ने उनकी संपूर्ण जीवन गाथा को उसमें गुम्फित किया है। राम अयोध्या के चक्रवर्ती राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनकी माता कौशल्या हैं जो प्रमुख राजमहिषी है। उनकी दो विमातायें है सुमित्रा और कैकेयी। सुमित्रा माता के दो पुत्र है लक्ष्मण और शत्रुघ्न तथा कैकयी विमाता के पुत्र का नाम भरत हैं। राम सब भाइयों में सबसे बड़े हैं। उनसे छोटे भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न हैं। राज महल में अपार सुख-वैभव, राजसी ठाट और आनंद है। अनेकों सहायक, सुसेवक और  हरेक सदस्य के दास-दासियाँ हैं।

राजा दशरथ शक्तिशाली, सत्यवादी, उदार, जनप्रिय नरेश हैं। चारों पुत्र उनके वार्धक्य में उन्हें प्राप्त हुए है अत: माता-पिता के सभी अत्यंत लाड़ले हैं। मातायें  भी पुत्रों में अपने पराये का भेद किये बिना सब पर समान स्नेह रखती हैं। भाइयों में आपस में आदर भाव और मेल तथा पूर्ण सामाञ्जस्य  है। चारों भाइयों का साथ-साथ लालन-पालन और गुरुवर  वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा दीक्षा होती है। इसी बीच ऋषि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षार्थ राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को उनके साथ भेजने की याचना करते हैं। कर्तव्य भाव से बँधे राजा उनके साथ अपने दोनों पुत्रों को भेज देते हैं जहाँ उन्हें युद्ध-विद्या में पारंगत होने का सुअवसर मिलता है और वे अनेकों राक्षकों क ा वध करके मुनि विश्वामित्र जी के साथ मिथिला जाते हैं। मिथिला में संयोगवश राजाजनक की सुपुत्री सीता से राम का विवाह होता है और अन्य तीनों भाइयों के भी उसी परिवार में विवाह संपन्न होते हैं। यहाँ तक तो पूर्ण आनंद और प्रेम के संबंध सबके साथ परिवार में सबके हैं। परिवार में आपसी संबंधों की परीक्षा तो तब होती है जब व्यक्तिगत स्वार्थों में टकराव होते हैं और तभी अच्छे या बुरे, हितकारी या अहितकारी, उदार या अनुदार कौन, कैसे हैं समझ में आता है और व्यक्तित्व की वास्तविक  परख होती है।

वह घड़ी आई राम के राज तिलक की घोषणा होने पर कैकेयी की दासी मंथरा के द्वारा उल्टी पट्ïटी पढ़ाये जाने पर विमाता कैकेयी के द्वारा राजा दशरथ से, अपने जीवन की पूर्व घटनओं की याद दिलाकर राम के स्थान पर अपने पुत्र भरत को राजगद्दी दिये जाने और राम को चौदह वर्षों के लिए वनवास दिये जाने का अडिग प्रस्ताव रखने पर।

यहीं से अनापेक्षित रूप से उत्पन्न हुई विपत्ति के समय परिवार के हर व्यक्ति का सोच, व्यवहार और राम को राज्याभिषेक के स्थान पर वनवास के अवसर पर उलझी समस्याओं के धैर्यपूर्ण स्नेहिल निराकरण के आदर्श दृश्य ‘मानस’ में देखने को मिलते हैं जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।

राजा दशरथ का अपने दिये गये वचनों की रक्षा के लिये अपने प्राणों का परित्याग करना- रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाँहि बरु वचन न जाई। कैकेयी का अपने त्रिया-हठ पर अडिग रहकर अपूर्व दृढ़ता का परिचय देना।

राम का, पिता के मानसिक और पारिस्थितिक कष्ट देख दुखी होना तथा पिता की आज्ञा का पालन करने में अपना हित समझ राजपद को सहर्ष त्याग देना। कहीं कोई प्रतिकार न करना, विमाता कैकेयी के प्रति कोई रोष प्रकट न करना और माता कौशल्या को समझाकर वन जाने की तैयारी करना, पितृभक्त पुत्र के व्यवहार की विनम्रता की पराकाष्ठा है।

महाराज दशरथ के व्यवहार में अगाध पुत्र प्रेम, माता कौशल्या, सुमित्रा के व्यवहार में वत्सलता, भरत और लक्ष्मण के कार्यकलापों में भ्रातृ प्रेम और भ्रातृनिष्ठा तथा सीता में पत्नी के उच्चादर्श और पति के मनसा, वाचा, कर्मणा निष्ठा के आदर्श प्रस्तुत हैं। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ही उनके सबके साथ चाहें वे परिवार के सदस्य हो, गुरु हों, परिजन हो, पुरजन हों या  निषाद, कोल, किरात, सेवक या शत्रु राक्षस ही क्यों न हो उनके प्रति भी ईमानदारी और भक्ति वत्सलता स्पष्ट हर प्रसंग में सर्वाेपरि है। मानस तो नीति प्रीति और लोक व्यवहार का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है जिस का रसास्वादन और आनंद तो ग्रंथ के अनुशीलन से ही प्राप्त हो सकता है किन्तु सिर्फ बानगी रूप में कुछ ही प्रसंग उद्धृत कर मैंने लेख विस्तार और समय सीमा को मर्यादित रखकर कुछ संकेत करने का प्रयास किया है जिससे पाठक मूल ग्रंथ को पढऩे की प्रेरणा पा सकें।

क्रमशः… 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #136 ☆ संपन्नता मन की ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख संपन्नता मन की । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 136 ☆

☆ संपन्नता मन की

संपन्नता मन की अच्छी होती है; धन की नहीं, क्योंकि धन की संपन्नता अहंकार देती है और मन की संपन्नता संस्कार प्रदान करती है। शायद इसलिए ही धनी लोगों में अहंनिष्ठता के कारण ही मानवता नहीं होती। वे केवल हृदय से ही निर्मम नहीं होते; उनमें औचित्य-अनौचित्य व अच्छे-बुरे की परख भी नहीं होती। वे न तो दूसरों की भावनाओं को समझते हैं; न ही उन्हें सम्मान देना चाहते हैं। सो! वे उन्हें हेय समझ उनकी उपेक्षा करते हैं और हर पल नीचा दिखाने में प्रयासरत रहते हैं। इसलिए दैवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति को ही जग में ही नहीं; जन-मानस में भी मान-सम्मान मिलता है। लोग उससे प्रेम करते हैं और उसके मुख से नि:सृत वाणी को सुनना पसंद करते हैं, क्योंकि वह जो भी कहता व करता है; नि:स्वार्थ भाव से करता है तथा उसकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होता। वे भगवद्गीता के निष्काम कर्म में विश्वास करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपना फल नहीं खाते; पथिक को छाया व सबको फूल-फल देते हैं। बादल भी बरस कर प्यासी धरती माँ की प्यास बुझाते हैं और अपना जल तक भी ग्रहण नहीं करते। इसलिए मानव को भी परहिताय व निष्काम कर्म करने चाहिए। ‘अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी, ऐ दिल ज़माने के लिए’ से भी यही परोपकार का भाव प्रकट होता है। मुझे स्मरण हो रहा है एक प्रसंग– जब मीरा जी मस्ती में भजन कर रही थी, तो वहां उपस्थित एक संगीतज्ञ ने उससे राग के ग़लत प्रयोग की बात कही। इस पर उसने उत्तर दिया कि वह अनुराग से कृष्ण के लिए गाती है;  दुनिया के लिए नहीं। इसलिए उसे राग की परवाह नहीं है।

‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ ब्रह्म ही केवल सत्य है। उसके सिवाय इस संसार में सब मिथ्या है, परंतु माया के कारण ही वह सत्य भासता है। शरतचंद्र जी का यह कथन कि ‘मित्रता का स्थान यदि कहीं है, तो वह मनुष्य के मन को छोड़कर कहीं नहीं है’ से स्पष्ट होता है कि मानव ही मानवता का सत्पात्र होता है। परंतु उसके मन की थाह पाना आसान नहीं। उसके मन में कुछ और होता है और ज़ुबाँ पर कुछ और होता है। मन चंचल है, गतिशील है और वह पल भर में तीनों लोगों की यात्रा कर लौट आता है।

‘वैसे आजकल इंसान मुखौटा धारण कर रहता है। उस पर विश्वास करना स्वयं से विश्वासघात करना है।’ दूसरे शब्दों में मन से अधिक छल कोई भी नहीं कर सकता। इसलिए कहा जाता है कि यदि गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला कोई है, तो वह इंसान ही है। यही कारण है कि आजकल गिरगिट भी इंसान के सम्मुख शर्मिंदा है, क्योंकि वह उसे पछाड़ आगे निकल गया है। यही दशा साँप की है। काटना उसका स्वभाव है, परंतु वह अपनी जाति के लोगों को पर वार नहीं करता। परंतु मानव तो दूसरे मानव पर जानबूझ कर प्रहार करता है और प्रतिस्पर्द्धा में उसे पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है। इस स्थिति में वह किसी के प्राण लेने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता। दुष्टता में इंसान सबसे आगे रहता है, क्योंकि वह मन के हाथों की कठपुतली है। अहंनिष्ठ मानव की सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है और उसे सावन के अंधे की भांति केवल हरा ही हरा दिखाई देता है। वह अपने परिवार के इतर कुछ सोचता ही नहीं और स्वार्थ हित कुछ भी कर गुज़रता है। मानव का दुर्भाग्य है कि वह आजीवन यह नहीं समझ पाता कि उसे सब कुछ यहीं छोड़ कर जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ ‘यह किराए का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर  पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे!/खाली हाथ तू जाएगा’ इसी तथ्य को उजागर करती हैं। काश! इंसान उक्त तथ्य को आत्मसात् कर पाता तो  संसार में धर्म, जात-पाति व अमीर-गरीब आदि के झगड़े न होते और न ही किसी प्रकार का पारस्परिक वैमनस्य, भय व आशंका मन में उपजती।

‘काश! जीवन परिंदो जैसा होता/ सारा जग अपना आशियां होता।’ यदि मानव के हृदय में संकीर्णता का भाव नहीं होता, तो वे भी अपनी इच्छानुसार संसार में कहीं भी अपना नीड़ बनाते । सो! हमें भी अपनी संतान पर अंकुश न लगाकर उन्हें शुभ संस्कारों से पल्लवित करना चाहिए, ताकि उनका सर्वांगीण विकास हो सके। वे कर्त्तव्यनिष्ठ हों और उनके हृदय में प्रभु के प्रति आस्था, बड़ों के प्रति सम्मान भाव व छोटों के प्रति स्नेह व क्षमा भाव व्याप्त हो। पति-पत्नी में सौहार्द व समर्पण भाव हो और परिजनों में अजनबीपन का एहसास न हो। हमें यह ज्ञान हो कि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए हमें दूसरों के अधिकारों के प्रति सजग रहना आवश्यक है। हमें समाज में सामंजस्य अथवा सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हेतू सत्य को शांत भाव से स्वीकारना होगा तथा झूठ व मिथ्या को त्यागना होगा। सत्य अटल व शिव है, कल्याणकारी है, जो सदैव सुंदर व मनभावन होता है, जिसे सब धारण करना चाहते हैं। जब हमारे मन में आत्म-संतोष, दूसरों के प्रति सम्मान व श्रद्धा भाव होगा, तभी जीवन में समन्वय होगा। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। यदि हमारे कर्म यथोचित होंगे, तभी हमारी इच्छाओं की पूर्ति संभव है।

जीवन में संयम का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। जो व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर अंकुश नहीं रख पाता, तो उससे संयम की अपेक्षा करना निराधार है; मात्र कपोल-कल्पना है। महात्मा बुद्ध की यह सोच अत्यंत श्लाघनीय है कि ‘यदि कोई आपका अनादर कर रहा है, तो शांति स्थापित होने तक आपको उस स्थान को नहीं छोड़ना चाहिए।’ सो! आत्म-संयम हेतू वाणी पर नियंत्रण पाना सर्वश्रेष्ठ व सशक्त साधन है। वाणी माधुर्य से मानव पलभर में शत्रु को मित्र बना सकता है और कर्कश व कटु शब्दों का प्रयोग उसे आजीवन शत्रुता में परिवर्तित करने में सक्षम है। यह शब्द ही महाभारत जैसे बड़े-बड़े युद्धों का कारण बनते हैं। 

हर वस्तु की अधिकता हानिकारक होती है,भले वह चीनी हो व अधिक लाड़-प्यार हो। इसलिए मानव को संयम से व्यवहार करने व अनुशासन में रहने का संदेश दिया गया है। ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप उनसे अपेक्षा करते हैं, क्योंकि जीवन में वही लौट कर आपके पास आता है’ में दिव्य अनुकरणीय संदेश निहित है। इसलिए बच्चों को शास्त्र ज्ञान, परमात्म तत्व में आस्था व बुज़ुर्गों के प्रति श्रद्धा भाव संजोने की सीख देनी चाहिए। बच्चे अपने माता-व गुरुजनों का अनुकरण करते हैं तथा जैसा वे देखते हैं, वैसा ही व्यवहार करते हैं। इसलिए हमें फूंक-फूंक कर कदम रखने चाहिए, ताकि हमारे कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर न हों और हमें किसी के सम्मुख नीचा न देखना पड़े। हमें मन का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जहाँ वह हमारा पथ-प्रशस्त करता है, वहीं भटकन की स्थिति उत्पन्न करने में भी समर्थ है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

जिस युग में आज हम जी रहे हैं, वह विज्ञान का युग है। विज्ञान ने एक से बढक़र एक, अनेकों सुविधाएँ उपलब्ध कराईं हैं। इनसे मानव जीवन में सुगमता आई है। हर क्षेत्र में विकास और भारी परिवर्तन हुए हैं। मनुष्य के सोच-विचार और व्यवहार मेें बदलाहट आई है। किन्तु इस प्रगति और नवीनता के चलते जीवन में नई उलझनें, आपाधापी, कठोरता और कलुषता भी बढ़ी है। आपसी प्रेम के धागे कमजोर हुए हैं। नैतिकता और पुरानी धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं का हृास हुआ है और अपराध वृत्ति बढ़ी है। स्वार्थपरता दिनों दिन बाढ़ पर है। अनेकों विवशताओं ने परिवारों को तोड़ा है। सुख की खोज में भौतिकवादी विज्ञान ने नये नये चमत्कार तो कर दिखाये किन्तु सुख की मृगमरीचिका में भागते मनुष्य ने प्यास और त्रास अधिक पाये हैं, सुख कम। मैं सोचता हूँ ऐसा क्यों हुआ? मुझे लगता है कि भौतिकता के आभा मण्डल से हमारा आँगन तो जगमगा उठा है, जिसने हमें मोहित कर लिया है किन्तु हमारा भीतरी कमरा जहाँ अध्यात्म की पावन ज्योति जलती थी, उपेक्षित होने से अँधेरा हो गया है। हमने अन्तरिक्ष में तो बड़ी ऊँची उड़ानें भरी हैं और  उसे जीत लिया है परन्तु अपने अन्त:करण को जानने समझने के लिए उस ओर झाँकने का भी यत्न छोड़ दिया है। पश्चिम की भौतिकवाद की  आँधी ने हमारी भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक विरासत के दीपक को निस्तेज कर दिया है। हम अपनी संस्कृति के मन्तव्य को समझे बिना उसके परिपालन से हटते जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति मानवीयता की भावभूमि पर तप, त्याग, सेवा और सहयोग पर आधारित है। वह सुमतिपूर्ण कर्मठता में संतोष सिखाती है जबकि पश्चिम की भौतिकवादी दृष्टि इसके विपरीत उपभोगवाद पर अधिक आधारित है। इसलिये वह त्याग और अपरिग्रह के स्थान पर संघर्ष, संग्रह और भोग पर जोर देती है।

सामाजिक जीवन के विकास क्रम में, मनुष्य जबसे किसी समुदाय का सदस्य बन कर रहने लगा तभी से उस समुदाय को सुरक्षा, जीवनयापन के साधन और विकास के अवसरों की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए किसी योग्य, सशक्त, समझदार मुखिया या शासक की बात उठी। प्रत्येक समुदाय जो जहाँ रहता था, उसे अपना देश कहकर उसे सुरक्षा प्रदान करते हुए शासन करने वाले मुखिया को राजा के नाम से संबोधित करने लगा। राजा भी अपने अधिकार क्षेत्र में रहने वाले परिवार व उसके प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सन्तान की भाँति मानकर, सुरक्षा और स्नेह प्रदान कर उस समुदाय को अपनी प्रजा कहने लगा और उसके नियमित ढंग से पालन-पोषण के दायित्व को अपनी धार्मिक और नैतिक जिम्मेदारी के रूप में निभाने लगा। इस प्रकार देश, राजा तथा प्रजा और उनके कत्र्तव्यों की अवधारणा विकसित हुई। राज्य नामक संस्था स्थापित हो गई। राजा ने प्रजा के पालन-पोषण, संवर्धन और सुरक्षा का भार अपना धार्मिक कत्र्तव्य मानकर न्यायोचित कार्य करना अपना लिया और प्रजा ने भी कृतज्ञता वश  राजा को अपना स्वामी या ईश्वर की भाँति सर्वस्व और शक्तिमान स्वीकार कर लिया। यही परिपाटी विश्व के सभी देशों में मान्य परम्परा बन गई और राजा का पद पारिवारिक विरासत बन गया। संसार में जनतांत्रिक शासन-व्यवस्था के चालू होने के पहलेे अभी निकट भूतकाल तक विभिन्न देशों के शासक और स्वामी राजा ही होते थे और वे अपनी प्रजा की रक्षा सुख-सुविधा के लिये जो उचित समझते थे, करते थे। आदर्श व सुयोग्य राजा या शासक से यही अपेक्षा होती है कि वह प्रजा-वत्सल हो, प्रजा के हितों का ध्यान रखे संवेदनशील हो और अपनी राज्य सीमा के समस्त निवासियों को हर प्रकार से सुखी रखे।

सुशिक्षित, संस्कारवान, धर्मप्राण व्यक्ति चाहे जो भी हो, राजा प्रजा या सेवक, अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करता है। परन्तु जब शिक्षा से संस्कार न मिलें, परहित की जगह स्वार्थपरता प्रबल हो, भोग और लिप्सा में कर्तव्य याद न रहें, आत्म मुग्धता और अभिमान में संवेदनशीलता न रहे, अनैतिकता और अधार्मिकता का उद्भव हो जाय तो न तो सही आचरण हो सकता है और न सही न्याय ही।

समय और परिस्थितियों के प्रवाह में बहते समाज के विचारों, धारणाओं और मान्यताओं में परिवर्तन होते रहते हैं। इसीलिए धर्मपीठाधीश्वर, सचेतक संत और साहित्यकार समाज मेें सदाचार, सद्ïविचार और कर्तव्य बोध की चेतना जागृत करने के लिए धर्मोपदेश, प्रवचन और चिंतन से तथा बोधगम्य आदर्श पात्र चरित्रों की प्रस्तुति से मार्गदर्शन देते आये हैं। महान विचारक, समाज-सुधारक, श्री राम भक्त, परम विवेकी विद्वान्ï महात्मा तुलसीदास जी ने भी अपने काव्य ”रामचरितमानस” की श्रेष्ठ सरस रचना कर, जन जन को श्रीराम कथा के माध्यम से पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक आदर्श प्रस्तुत कर आध्यात्मिक विकास के लिये दिशा दिखाई है। ईश्वर की भक्ति का अनुपम प्रतिपादन कर भारतीय दर्शन की व्याख्या की है। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम को महाकवि तुलसी दास जी ने आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श सखा, आदर्श संरक्षक, आदर्श राजा, आदर्श कष्ट हर्ता और भक्तों के आदर्श उपास्य के रूप में प्रस्तुत कर सहृदय पाठकों का मन मोह लिया है। वे सबके लिए सभी रूपों में अनुकरणीय हैं। मानस वास्तव में मानवता को तुलसीदास जी का दिया हुआ मनमोहक उपहार है। आज के भौतिकवादी समाज में चूँकि लोग स्वार्थवश मोह में फँस अपने कर्तव्य पथ से विरत हैं, सामाजिक अनुशासन के लिए निर्धारित मान्यताओं का निरादर कर रहे हैं, चारित्रिक पतन के गर्त में गिरे हैं, इसी से दुखी हैं।

मानस  का अनुशीलन और श्रीराम का अनुकरण समाज को दु:खों से उबारने में संजीवनी का काम कर सकता है किन्तु यह तभी संभव है जब ‘मानस’ का मौखिक पाठ भर न हो, उसकी पावन भावना का पढऩे वाले के मन में सुखद अवतरण भी हो और जीवन में आचरण भी। समाज के हर तबके के जन साधारण से लेकर सर्वाेच्च शासक-नृपति तक को उचित मार्गदर्शन देने के लिए सारगर्भित विचारों और भावों से समस्त ग्रंथ भरा पड़ा है। प्रत्येक शब्द के सार्थक नियोजन से एक एक छन्द में अलौकिक अमृतरस घुला हुआ है जो वर्षा की शीतल फुहार या वसन्त की नवजीवन दायिनी बयार सा आह्लाद प्रदान करता है। संवेदन शीलता, सत्य, न्याय और प्रेम पर आधारित शासन ही जन-जन को सुखकर हो सकता है।

मनोज्ञ राजा श्रीराम के शासन काल में अयोध्या कैसी सुखी, सम्पन्न और प्रफुल्लि थी इसकी सुन्दर झाँकी मानस के निम्न छन्दों में निहारिये-

दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य काहुहिं नहि व्यापा।

सबजन करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।

नहिं दरिद्र कोऊ दुखी न दीना, नहिं कोउ अनबुध लच्छन हीना।

सब गुणज्ञ, पंडित सब ज्ञानी, सब कृतज्ञ नहिं कपट-सयानी।

सब उदार सब पर उपकारी, विप्रचरण सेवक नर-नारी।

एक नारिव्रत रत सब झारी, ते मन बचक्रम पति हितकारी।

बिधु महि पूर मययूखन्हि, रवि तप जेतनहि काज।

माँगे वारिद देंहि जल, रामचंद्र के राज॥

जहाँ ऐसी अच्छी व्यवस्था हो और ऐसा समाज हो वहाँ दु:ख कहाँ? और असंतोष किसे? इसीलिये भारतीय जनमानस में रामराज्य की परिकल्पना सर्वाेपरि सुखदायी शासन व्यवस्था की है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त देश में ऐसे ही रामराज्य की कामना महात्मा गाँधी ने की थी और ऐसे ही सपने जन जन ने सँजोये थे। किन्तु हमारे शासक (जन-नेता) न तो अपने मनोविकारों को जीत राजाराम का अनुकरण करना सीख सके और न राम-राज्य आज तक आ सका। हाँ उसकी लालसा देश के जनमानस में आज भी सुरक्षित है। पश्चिम की हवा ने हमारी संस्कृति के दीपक की लौ को अस्थिर कर रखा है।

तुलसीदास जी ने लिखा है –

मुखिया मुख सों चाहिये खान-पान में एक

पालै पोषै सकल अँग तुलसी सहित विवेक।

यदि राजा या वर्तमान जनतांत्रिक प्रणाली में शासक ऐसा हो तो रामराज्य की स्थापना असंभव नहीं है। शासक के मन में सदा क्या चिंता होनी चाहिए, इसकी झलक श्रीराम की इस अभिव्यक्ति में देखिये जो उन्होंने लक्ष्मण से वन गमन के समय उनकी विवश आतुरता को राम के साथ वन जाने को देखकर कहा था। श्री राम समझाते हैं कि अन्य कोई भाई अयोध्या में नहीं है इसलिए प्रजा के हित में राज्य संचालन के लिए लक्ष्मण का अयोध्या में रुकना उचित है क्योंकि

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।

राज परिवार को चाहे जो दुख हो पर प्रजा को दुख नहीं होना चाहिए अन्यथा राजा को नरक की यातना भोगनी होती है।

इसी प्रकार श्री राम को वापस अयोध्या चलकर राज्य करने के लिये मनुहार करने के प्रसंग में प्रिय भाई भरत को भी वे ही समझाते हैं कि राजधर्म    का सार तत्व यही है कि अपने मन की बात मन ही रखकर या मन मारकर प्रजा के हित में गुरुजनों का आशीष ले राज्य काज करना भरत को ही उचित होगा सुनिये श्री राम क्या समझाते हैं-

राज धरम सरबस इतनोई, जिमि मन माँहि मनोरथ गोई

देश, कोष, परिजन, परिवारू, गुरुपदरजहि लागि धरिभारू

तुम मुनि मातु सचिव सिख मानी पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी।

ये विचार श्री राम के मन में वनवास में भी अपनी प्रजा के प्रति चिंता और प्रेम के भाव प्रदर्शित करते हैं।

रावण का विनाश कर चौदह वर्ष के वनवास के बाद जब अयोध्या लौटते हैं और उन्हें राजा बनाया जाता है तब उनकी दिनचर्या और बन्धु तथा जन-स्नेह को कवि ने यों वर्णित किया है-

राम करहि भ्रातन पर प्रीती, नाना भाँति सिखावहिं नीती,

हर्षित रहहिं नगर के लोगा, करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा।

मैं समझता हूँ कि ऐसा राजा और उसकी विचार-धारा व राजनीति तो आज की जनतांत्रिक शासन व्यवस्था से भी अच्छी थी। जनतांत्रिक व्यवस्था तार्किक विचार से जनता को यों ही सुख देने की कामना से तो की गई थी।

प्रजा को सुख देना और उनके अभिमत को महत्त्व देना श्री राम की पारिवारिक परम्परा रही है। राजा दशरथ ने जब राम को युवराज पद देने का विचार किया तो उन्होंने अपने मनोभाव प्रजा पर थोपे नहीं वरन्ï सभा में सबसे खुले रूप में सहमति देने का निवेदन किया- सभा में उन्होंने प्रस्ताव रखा राम को युवराज पद देने का और कहा-

जो पाँचहि मत लागै नीका, करऊं हरष हिय रामहिं टीका।

जहाँ राजा प्रजा की रुचि और सहमति का ख्याल रखता है वहाँ प्रजा प्रसन्न रहती है और प्रजा की प्रसन्नता ही किसी भी राज्य की सुख संमृद्धि और प्रगति का आधार मात्र नहीं होती बल्कि राजा या शासक के मनोबल और उस की शक्ति का, कार्य निष्पादन में भी बड़ा संबल होती हैं।

ऐसे जनमन रंजक लोक प्रिय राजा राम पर अनैतिकता का आरोप लगाकर महारानी सती सीता के लिए कटु शब्दों का प्रयोग करने वाले किसी प्रजाजन का मनोभाव अपने गुप्तचर से जानकर भी उन्होंने संंबंधित व्यक्ति को प्रताडि़त न कर, उसके आक्रोश और विषाद को दूर करने के लिये आदर्श राजा के रूप में आत्मप्रतारणा ही उचित समझा। इसीलिए उन्होंने प्रायश्चित स्वरूप अपने अद्र्धांग को त्याग कर जनहित में स्वत: दुख भोगना स्वीकार कर लिया। यह प्रसंग रामचरित मानस में तो भक्त शिरोमणि तुलसीदास ने नहीं उठाया है परन्तु वाल्मीकि रामयण में है जिसे राजाराम के द्वारा सीता परित्याग की संज्ञा दी जाती है और राम के अपनी पवित्र पत्नी पर किये गये अन्याय का रूप देकर उंगली उठाई जाती है किन्तु वास्तव में वह नारी के प्रति अन्याय की बात नहीं, बात है राजधर्म के निवहि में प्रजा के सुख के हेतु राजा के मनोभाव की जिसके कारण उन्होंने अद्र्धांग से ही दूर हो आत्म त्याग का अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया है। ऐसा उन्होंने किया केवल अपनी प्रजा के सामान्य जन की प्रसन्नता देखने के लिये न कि राजरानी सीता को किसी प्रकार प्रताडि़त करने के लिये और न उनको लांछित और अपमानित करने के लिए। सीता तो उनके हृदय में सतत विराजित थीं और इसीलिए अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर सीता की स्वर्ण प्रतिमा को अधीष्ठित कर यज्ञ की धार्मिक विधि सम्पन्न की थी। यदि हृदय से उन्होंने किसी कारण से पत्नी का परित्याग किया होता तो स्वर्णमूर्ति बनवाने की स्थिति कैसे बनती? इस प्रसंग में राजा के मनोभाव को समझने की आवश्यकता है। किन्तु परिवार के किसी एक व्यक्ति के दुख से सभी परिवारी जनों का मन अस्वस्थ हो जाता है और उसका दुख भोग अन्यों को भी करना ही पड़ता है। इसीलिये सीता को राम की जीवन संगिनी के नाते उनके विचारों और कर्माे का परिणाम भोगना पड़ा क्योंकि भारतीय संस्कृति तो पति-पत्नी को दो शरीर एक प्राण मानती है। (यह सारा प्रसंग एक अलग विवेचना का विषय बन सकता है।) घटना का यह दूसरा दुखद पक्ष है। परन्तु इस घटना में प्रजा के लिये राजा का अनुपम त्याग न केवल महान है वरन अलौकिक है तथा स्तुत्य है।

इस पृष्ठभूमि में आज के शासकों, जन नेताओं और अधिकारियों  के व्यवहारों को देखना चाहिए जो जनहित के विपरीत दिखते हैं। देश में अब स्थिति कुछ यों है-

आज दिखती शासकों में स्वार्थ की बस भावना

बहुत कम है जिनके मन है लोकहित की कामना।

राम से त्यागी कहाँ है? कहाँ पावन आचरण?

लक्ष्य जन सेवा के बदले लक्ष्य है धन-साधना॥

इसीलिए हर क्षेत्र में असंतोष है, कलह है, दुख है और नित नई समस्याएं हैं। कहाँ राजा राम का आदर्श आचरण और कहाँ आज के अधिकार संपन्न शासकों का व्यवहार? मानस के इस एक ही उपदेश को ध्यान में रख यदि आज के शासक व्यवहार करें तो स्थिति बहुत भिन्न होगी- “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी।”

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ☆ एक अविस्मरणीय पण अधुरी यात्रा भाग – 2 – लेखिका – डॉ. सुप्रिया वाकणकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ☆

सुश्री स्नेहलता दिगंबर गाडगीळ

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☆ एक अविस्मरणीय पण अधुरी यात्रा भाग – 2 – लेखिका – डॉ. सुप्रिया वाकणकर ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ ☆

(पण डोंगरदऱ्यात, जंगलात ,रात्र दाटत असताना ठरलेल्या ठिकाणी पोहोचण्यावाचून गत्यंतरच नव्हते.)–

इथून पुढे —

नेमकी त्या दिवशी अमावास्या होती.जसजसा काळोख दाटू लागला, मनातल्या नकारात्मक  भावनांचे साम्राज्य सुरु झाले. तहान, भूकेच्या  पलिकडे पोहोचलेली मने स्वत:ला संभाळूनही थकली. अगदी बधीर झाली. तरीही प्रवास चालूच राहिला. अखेर आमच्या त्या दिवशीच्या मुक्कामी पोहोचताच भावनांचा कडेलोट झाला. ग्रुपमधल्या इतरानी केलेल्या प्रेमळ सहकार्यांने आणि  सहअनूभुतीने मन अगदी भरून आले..!

त्या दिवशीचा प्रवास सगळ्यांसाठीच आव्हानात्मक ठरला होता. आमच्यातील काही जण  मात्र या प्रवासामुळे थोडे  जास्त धास्तावले होते.

पुढची सकाळ मात्र पुन्हा एक नवा उत्साह घेऊन समोर आली. डोले, म्याचोरमुले अशी सुंदर गावे गाठत आम्ही पुढे पुढे जात होतो. आता सात आठ तास चालणे, डोंगर चढणे- उतरणे  अंगवळणी पडू लागले होते. जसजशी आम्ही उंची गाठत होतो, निसर्ग आपली अधिक हृदयंगम रुपे दाखवत होता. आता हवेतील गारठा वाढला. हिरवाई लोपून लहान झुडपांचे राज्य सुरु झाले. दगडावर पोपटी आणि  केशरी शेवाळाचे मनमोहक patterns  पहायला मिळाले.दिवसातील तापमान 2-3 अंश असे तर रात्री उणे 3 -4 अंश! अंगावर सहा ते सात थर लेऊन आम्ही या बदलत्या वातावरणाचा सामना करत होतो. या सगळ्यात जमेची बाजू ही की आमच्या ग्रुपमधील सगळ्यांची आता छान मैत्री होऊ लागली होती. शेर्पा मदतनीसांच्या मेहनतीकडे आणि सहकार्याकडे पाहून तर माणुसकीचे जवळून दर्शन घडत होते.

अशात प्रवासाचा सहावा दिवस उजाडला. आमची अर्धी यात्रा सुखरुप पार पडली होती. आज आम्ही गोक्यो नावाच्या गावी मुक्काम करणार होतो. हा दिवस आमच्या पुढे काय घेऊन उभा असणार आहे याची काही कल्पना नव्हती. नेहमीप्रमाणे आदल्या दिवशीचा थकवा पार करुन मजला दरमजल करत आम्ही सर्व गोक्योला पोहोचलो. दुसर्या दिवशी सकाळी लहानसा प्रक्टिस ट्रेक होता. तो ही 3 तासांचा. नाही म्हणायला वावच नव्हता. गेल्या काही दिवसात शरीराने कौतुकास्पद साथ दिली होती. खरंच सांगते, या प्रवासाने माझ्या मनात मानवी शरीराबद्दल असीम कृतज्ञता दाटून आली आहे!!!! निसर्गाच्या या निर्मितीला, तिच्यातील उर्जेला आणि क्षमतेला मन:पूर्वक सलाम!!!!

तर आता आम्ही गोक्यो री या 5800 मीटर्सवरील ठिकाणी जायच्या तयारीत होतो. काल ज्या सहचर मैत्रिणीला थोडा जास्त थकवा होता तिने आज पूर्ण विश्रांती घेण्याचे ठरवले. आम्हीही पाच सहा जणानी जमेल तितके अंतर गाठून परत येण्याचे ठरवले.इथे कोणाचीच कोणाशी तुलना, स्पर्धा नव्हती. आपली स्वत:ची क्षमता पाहून निसर्गाला जमेल तसा प्रतिसाद देत पुढे जात राहणेच योग्य होते. आमची ही मैत्रीण तीन चार तासांच्या विश्रांती नंतर आम्हाला जॉईन होणार होती. आम्ही नेहमीप्रमाणे जुजबी न्याहारी करुन हाडे गोठवणा र्या थंडीचा सामना करत सराव ट्रेकसाठी निघालो. पावलागणिक धाप लागत होती.5800 मी.(19000 फूट) उंचीवर यापेक्षा फार वेगळे अपेक्षित नव्हते. त्यामुळे सावकाश पावले टाकत आमचा सहा जणांचा चमू हळूहळू चालला  होता. खडा  चढ असल्यामुळे पावले सांभाळून टाकणे फार गरजेचे होते. ‘बरं झालं, आज प्रज्ञा आली नाही’कुणीतरी म्हणालं  सुद्धा! इतक्यात आमच्यापैकी एकाला थोडं चक्करल्या सारखं वाटलं म्हणून तासाभराच्या चढाईनंतर आम्ही तिथूनच मागे फिरण्याचा निर्णय घेतला.

का कुणास ठाऊक, आजची मोहीम अर्धी सोडल्याच्या दु:खापेक्षा मनात सुटकेचा नि :श्वासच जास्त होता.आम्ही पाच सहा जण  परत हॉटेल वर आलो. मग शेकोटीच्या भोवती बसून गरम गरम मसाला चहा पित गप्पा मारु लागलो.आता हवा छान होती. गोक्यो तलावाच्या निळयाशार   प्रवाहाला चारी बाजुनी गोठलेल्या पांढर्याशुभ्र हिमप्रवाहांची पार्श्वभूमी उठाव देत होती. तळ्यात काही बदके पोहत होती. आमच्यापैकी ज्या लोकानी सकाळी ट्रेकला जायचे टाळले ते तळ्याभोवती फेरी मारायला गेले. आम्ही मात्र खिडकीच्या काचेतून आत येणारे ऊन खात निवांत गप्पा छाटत बसलो. दोन तासात एक एक करत इतर मंडळी येऊ लागली. डायनिंग हॉल गजबजू लागला. सगळे आले की न्याहरी करण्याचा विचार होता. गरम पाणी पीत, तलावाची शोभा बघत आम्ही खिडकीपाशी बसलो होतो आणि अचानक खाली काही धावपळ जाणवली. काय झाले आहे हे नीट कळले नाही पण आमचे शेर्पा मदतनीस, ग्रुपमधील तज्ञ डॉक्टरना बोलावण्याकरता आले. क्षणभरात पळापळ झाली.कोणालातरी काही त्रास होतो आहे असे कळले.ग्रुपमध्ये प्रत्येक क्षेत्रातील नामवंत डॉक्टर होते. सगळेच धावत त्या ठिकाणी पोहोचले. क्षणभरात सगळे वातावरणच बदलले….आमची मैत्रीण मृत्यूशी झुंज देत होती. इतक्या उंचीवरच्या गावातील वैद्यकीय सुविधा किती अपुर्या असतात याची त्यावेळी  सगळ्याना जाणीव झाली. तरी सगळ्या डॉक्टर मित्र मैत्रिणींनी चार तास शर्थीचे प्रयत्न  केले. होती नव्हती ती सर्व औषधे, उपचार केले गेले. लुक्ला  गावावरुन काही मदत मिळू शकेल का, यासाठी प्रचंड फोनाफोनी झाली. पण निसर्गानेही असहकार पुकारला होता. आभाळात ढग दाटू लागले. अशा वातावरणात हेलिकॉप्टर तिथवर पोहोचणे कठीण झाले. आम्ही तिच्या इतके निकट असूनही आमची ही मैत्रीण केव्हाच आम्हाला सोडून अनंतात विलीन झाली होती…..

सगळे सुन्न झालो होतो….

सगळ्यानाच जबरदस्त धक्का बसला होता. शब्द आणि अश्रू थिजले होते. बराच काळ भयाण सुन्नतेत गेला. मग भावनांचे आणि  विचारांचे काहूर माजले….

“असं झालं असतं तर…असं केलं असतं तर..”  याचं युद्ध प्रत्येकाच्या मनात चालू झालं…..आता कशाचाच काही उपयोग नव्हता….काळाने अत्यंत आकस्मिकपणे आम्हा सगळ्यांवर हा प्रहार केला होता..

खिडकीबाहेर आभाळही गच्च दाटून आले होते. त्या दिवशी तिथून कोणालाही हलणे शक्य नव्हते.

“पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा…दोष ना कुणाचा….” ग.दिंचे शब्द मनात घोळवत जड अंत: करणाने आमची ही यात्रा अर्ध्यावर  सोडून आम्ही परत फिरण्याचा निर्णय घेतला…

समाप्त

लेखिका : डॉ. सुप्रिया वाकणकर.

संग्राहिका : स्नेहलता गाडगीळ

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बुकर पुरस्कार से उठे कुछ सवाल … ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ बुकर पुरस्कार से उठे कुछ सवाल … ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

गीतांजलिश्री के हिंदी उपन्यास ‘रेत समाधि’ को मिले बुकर पुरस्कार से कुछ सवाल उठ खड़े हुए हैं जिन पर विचार होना चाहिए। इतना बड़ा पुरस्कार हिंदी उपन्यास पर मिलने पर गीतांजलिश्री चर्चा में आ गयी हैं जैसे कभी अरुंधति राॅय आ गयी थीं -‘गाॅड ऑफ स्माल थिंग्स’ के पुरस्कार से। वैसे तो पुरस्कार छोटा हो या बड़ा चर्चा तो होती ही है। हर पुरस्कार के साथ विवाद या कुछ बहस भी चलती है। गीतांजलिश्री को मिले बुकर पुरस्कार से भी यह चर्चा और बहस चल निकली है कि अनुवाद को पुरस्कार मिला है और जवाब यह है कि आखिर तो हिंदी में और अपने ही समाज के बारे में लिखा गया है। फिर बहस कैसी?  मालगुडी डेज को फिर पसंद कैसे किया? अंग्रेजी अनुवाद न हुआ होता तो क्या पुरस्कार मिलता? गीतांजलिश्री को मिला और उनके लेखन को मिला। हिंदी गौरवान्वित हुई। हिंदी लेखिका का मान सम्मान बढ़ने पर बधाई। फिर किसी प्रकार की बहस कैसी और क्यों?

यदि बहस होनी ही है और जरूरी है तो इस बात पर क्यों नहीं कि पहले से कितने लोगों ने यह उपन्यास पढ़ा है? हिंदी में पुस्तकों के पठन पाठन की परंपरा क्यों नहीं? मैं खुद ईमानदारी से यह स्वीकार करता हूं कि मैंने ‘रेत समाधि’ उपन्यास नहीं पढ़ा है। बल्कि एक समाचारपत्र के संपादक ने फोन पर पूछा था कि क्या मैंने यह उपन्यास पढ़ा है तो मैंने जवाब में इंकार कर दिया उतनी ही ईमानदारी से। पर मन ही मन शर्मिंदा जरूर हुआ कि यार, क्यों नहीं पढ़ा? इतनी किताबें पढ़ता हूं, फिर यही उपन्यास कैसे नहीं पढ़ा? वैसे किस किताब को पुरस्कार मिलने वाला है, मैं कैसे जान सकता हूं? मेरी अपनी किताब ‘महक से ऊपर’ को भाषा विभाग, पंजाब की ओर से सन् 1985 में वर्ष की सर्वोत्तम कथाकृति का पुरस्कार मिला तब मैं अपनी ही पुस्तक के बारे में अनजान था। डाॅ इंद्रनाथ मदान ने पुरस्कारों पर कहा है कि अब कोई ध्यान नहीं देता। पुरस्कार ईमानदारी से दिये नहीं जाते और लोग इनकी परवाह करना छोड़ चुके हैं। हालांकि वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया का कहना है कि पुरस्कार मिलने से रचनाकार और कृति को चर्चा तो मिल ही जाती है। विष्णु प्रभाकर ने भी कहा था कि मैं चयन समितियों में भी रहा लेकिन इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि पुरस्कारों के देने में भेदभाव नहीं होता। कोई सबसे मशहूर पंक्तियां भी हैं कि नोबेल पुरस्कार आलू की बोरी के समान है और मैं इसे लेने से इंकार करता हूं। यानी कोई नोबेल पुरस्कार भी ठुकरा सकता है और कोई छोटे से छोटे से पुरस्कार के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

बुकर पुरस्कार मिलने से यह बात तो जरूर है कि पुस्तक के प्रति पाठकों की रूचि जागृत हुई है और वे पुस्तक मंगवा भी रहे हैं। तुरत फुरत एक संस्करण आ भी गया है जिस पर यह सूचना भी है कि इस उपन्यास को बुकर सम्मान मिला है।

कभी रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि को भी अंग्रेजी में अनुवाद होने पर ही देश को एकमात्र नोबेल मिला था। फिर रेत समाधि को बुकर मिल जाने पर इतना हल्ला क्यों? पुरस्कार मिलने पर बहुत बहुत बधाई और हिंदी ऐसे ही आगे आगे बढ़ती रहे, यही दुआ है। वैसे हमारी देश की इतनी भाषाओं की रचनाएं भी हम अनुवाद से ही समझते हैं और ज्ञानपीठ ऐसी ही अनुवादित पुस्तकों पर मिलते है, तब तो कोई हो हल्ला नहीं मचाया जाता? गीतांजलिश्री निश्चित ही आपने हिंदी को गौरव प्रतिनिधित्व किया है जिसके लिए आप बधाई की पात्र हैं। जिनका काम बहस और सियासत हो, वो जानें…

अपना पैगाम मोहब्बत है

जहां तक पहुंचे…

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्वान प्रेम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख – “श्वान प्रेम।)

☆ आलेख ☆ श्वान प्रेम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कुत्ता शब्द थोड़ा कुत्ता सा लगता हैं।इसलिए विचार किया की इसका प्रयावची शब्द उपयुक्त रहेगा। विगत एक सप्ताह से सभी सामाजिक मंचो पर चर्चाएं चल रही हैं। जब तक कोई और इसी प्रकार की चटपटी घटना नहीं हो जाती, श्वान चर्चा जारी रहेगी।

देश की सबसे बड़ी पशु प्रेमी ने चर्चित श्वान के मालिक के स्थानांतरण परआपत्ति जता कर अपने पशु प्रेम का इज़हार किया है। एक पूर्व महिला अधिकारी ने श्वान मालिक को सजा (स्थानांतरण) देने के दूसरे साधन की सलाह तक दे डाली है।

“जितने मुंह उतनी बातें” वाला सिद्धांत भी यहां सही बैठता हैं।

हमारा श्वान “शेरू” भी हमें कई वर्षो से “प्रातः भ्रमण” पर नियमित रूप से एक सरकारी उद्यान में लेकर जाता हैं वहां पर उसकी जाति के कई साथी मिल जाते हैं, उसी प्रकार से हमारी जाति के कई फुरसतिए भी वहां अपने श्वानों के साथ उपस्थित रहते हैं।

कल सुबह सरकारी उद्यान पर एक दरबान खड़ा था, और कहने लगा श्वान का प्रवेश वर्जित है। ऐसा संदेश ऊपर से आया है। हम सभी श्वान प्रेमी निराश होकर वापिस घरों में आ गए।  अंग्रेजी की एक कहावत है “Bad habits die hard”. आज सुबह भी सभी श्वान प्रेमी उद्यान पहुंच गए। क्या करें, आदत से मजबूर जो हैं। परंतु उद्यान के दरवाज़े पर भीड़ का जमावड़ा देखकर आश्चर्य हुआ। उद्यान में कोई नहीं जा रहा था। पूछने पर पता चला कि कोई पागल श्वान उद्यान में लोगों को काटने के लिए पीछे पड़ जाता हैं। वो एक गली का कुत्ता (street dog),अंग्रेजी  शब्द अच्छा लगता हैं न, इसलिए लिख दिया है, जो उद्यान में घूमता रहता है, सैर करने वाले उसके लिए रोटी, बिस्कुट इत्यादि दे देते थे। लेकिन दो दिन से उद्यान में लगे प्रतिबंधों के कारण वो भूखा है, इसलिए ऐसी हरकतें कर रहा है।

ठीक भी है, भूख जब इंसान को हैवान बना देती है, और ये तो फिर बेजान प्राणी हैं। लोग दरबान को कहने लगे अब इसको बाहर निकाल कर बताओ, हमारे श्वान का प्रवेश तो निषेध कर दिया है। तब दरबान बोला इसको नगर निगम की टीम पकड़ कर ले जायेगी तभी आप लोग उद्यान में जा सकते हैं। तभी भीड़ में से किसी ने अपने साथ लाई हुई दो रोटियां जोर से उद्यान के अंदर फेंक दी और भूखे श्वान ने भी लपक कर अपनी भूख शांत करी और उद्यान की दीवार फांद कर दौड़ लगा दी। उसके बाद वहां खड़े लोग भी उद्यान की तरफ दौड़ पड़े।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पर्यावरण दिवस की दस्तक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – पर्यावरण दिवस की दस्तक  ??

(विश्व पर्यावरण दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी की इस  प्रासंगिक और विचारणीय रचना का कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा अंग्रेजी भावानुवाद आप इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं  👉 ☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक – श्री संजय भरद्वाज ☆ English Version by Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆)

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोजर और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, पर्यावरण दिवस भी दस्तक दे रहा है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

30 मई 2017 को  मुंबई से पुणे लौटते हुए लिखी पोस्ट 🙏🏻🌿✍️

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Articles – ☆ World Environment Day Special – पर्यावरण दिवस की दस्तक – श्री संजय भरद्वाज ☆ English Version by Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi article 👉 पर्यावरण दिवस की दस्तकpublished today on the eve of World Environment Day.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? पर्यावरण दिवस की दस्तक  –  श्री संजय भरद्वाज ??

(विश्व पर्यावरण दिवस पर श्री संजय भारद्वाज जी की एक प्रासंगिक और विचारणीय रचना साझा कर रहा हूँ। साथ में संलग्न है मेरा एक अंग्रेज़ी में अनुवाद प्रयास,अहिन्दी भाषियों और विदेशी  समुदाय हेतु – कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी )

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर’ में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों’ की चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।

मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

हमारे पूर्वज पेड़ लगाते थे और धरती में श्रम इन्वेस्ट करते थे। हम पेड़ काटते हैं और धरती को माँ कहने के फरेब के बीच शर्म बेचकर ज़मीन की फरोख्त करते हैं। मुझे तो खरीदार, विक्रेता, मध्यस्थ सभी ‘एजेंट’ ही नज़र आते हैं। धरती को खरीदते-बेचते एजेंट। विकास के नाम पर देश जैसे ‘एजेंट हब’ हो गया है!

मन में विचार उठता है कि मनुष्य का विकास और प्रकृति का विनाश पूरक कैसे हो सकते हैं? प्राणवायु देनेवाले पेड़ों के प्राण हरती ‘शेखचिल्ली वृत्ति’ मनुष्य के बढ़ते बुद्ध्यांक (आई.क्यू) के आँकड़ों को हास्यास्पद सिद्ध कर रही है। धूप से बचाती छाँव का विनाश कर एअरकंडिशन के ज़रिए कार्बन उत्सर्जन को बढ़ावा देकर ओज़ोन लेयर में भी छेद कर चुके आदमी  को देखकर विश्व के पागलखाने एक साथ मिलकर अट्टहास कर रहे हैं। ‘विलेज’ को ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना बेचनेवाले ‘प्रोटेक्टिव यूरोप’ की आज की तस्वीर और भारत की अस्सी के दशक तक की तस्वीरें लगभग समान हैं। इन तस्वीरों में पेड़ हैं, खेत हैं, हरियाली है, पानी के स्रोत हैं, गाँव हैं। हमारे पास अब सूखे ताल हैं, निरपनिया तलैया हैं, जल के स्रोतों को पाटकर मौत की नींव पर खड़े भवन हैं, गुमशुदा खेत-हरियाली  हैं, चारे के अभाव में मरते पशु और चारे को पैसे में बदलकर चरते मनुष्य हैं।

माना जाता है कि मनुष्य, प्रकृति की प्रिय संतान है। माँ की आँख में सदा संतान का प्रतिबिम्ब दिखता है। अभागी माँ अब संतान की पुतलियों में अपनी हत्या के दृश्य पाकर हताश है।

और हाँ, आज पर्यावरण दिवस है। हम सब एक सुर में सरकार, नेता, बिल्डर, अधिकारी, निष्क्रिय नागरिकों को कोसेंगे। कागज़ पर लम्बे, चौड़े भाषण लिखे जाएँगे, टाइप होंगे और उसके प्रिंट लिए जाएँगे। प्रिंट कमांड देते समय स्क्रीन पर भले पर शब्द उभरें-‘ सेव इन्वायरमेंट। प्रिंट दिस ऑनली इफ नेसेसरी,’ हम प्रिंट निकालेंगे ही। संभव होगा तो कुछ लोगों खास तौर पर मीडिया को देने के लिए इसकी अधिक प्रतियाँ निकालेंगे।

कब तक चलेगा हम सबका ये पाखंड? घड़ा लबालब हो चुका है। इससे पहले कि प्रकृति केदारनाथ के ट्रेलर को लार्ज स्केल सिनेमा में बदले, हमें अपने भीतर बसे नेता, बिल्डर, भ्रष्ट अधिकारी तथा निष्क्रिय नागरिक से छुटकारा पाना होगा।

चलिए इस बार पर्यावरण दिवस पर सेमिनार, चर्चा वगैरह के साथ बेलचा, फावड़ा, कुदाल भी उठाएँ, कुछ पेड़ लगाएँ, कुछ पेड़ बचाएँ। जागरूक हों, जागृति करें। यों निरी लिखत-पढ़त और बौद्धिक जुगाली से भी क्या हासिल होगा?

☆ पर्यावरण दिवस की दस्तक – श्री संजय भरद्वाज ☆

☆  English translation by Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

After a trip, I am on my return journey! But, this too is an illusion, since journey never returns, it’s only the man who returns…! D’you really think man ever returns exactly the same way? No, never!

Anyways… Whatever distance I’ve traversed in a direction since morning, the same is being traversed back after the U-turn… Witnessing the fertile land along the railway track and the highways; and the landfill to make these pathways. The bevy of middlemen roam in private sedans and hired-cars from Mumbai, Pune and some upcoming cities, eyeing to grab the land in the “Outskirts” to make a fresh-killing…! These “Dalals”– the Land-agents,  reap the fat-profits! Land-sharks buying-selling the land!

Between the deafening noise of bulldozers and JCBs are standing these terrorized-trees, cursed to witness the massacres of their friends everyday… Even fresh drizzle this morning fails to uplift their sagging spirits…As the adage goes: Even the snakes desert the place where their meat is eaten…But helpless trees can’t even run away; forcing them to remain rooted  wherever they are…only to be chopped off by those, whom they give shade, fruits and the wood…!

Premonition about the death makes a person freeze like an inanimate object…Innately, he doesn’t want to do anything, infact he cannot as he is rendered incapable… Contrary to mankind, an about-to-be-chopped tree gives life-giving oxygen, flowers & fruits and shade till last moment…Even if being trimmed or chopped off, then also tree tries to give new life through its remaining branches…

Our ancestors used to plant trees and invest their hard labour in the land…

Now, the man shamelessly engages himself in buying-selling-trading the land, while remaining in between  felling the trees and calling it: ‘Mother earth’! I find these buyers, sellers, middlemen, as the “Agents” only… Cruelly buying-selling the mother-earth! Inevitably feel as if, the nation has become the “Agent-hub” in the name of development!

Intriguingly, I think how can the development of human race and the annihilation of the nature be a complementary to each other? Mocking at the so-called ever-increasing IQ level of the ‘Shekh Chilli’ — the bufooned-nature man, who takes the life of the life-giving trees!

Killing sun-protecting-shades and piercing ozone-layer through harmful carbon dioxide by excessive use of air-conditioning, makes even all the lunatics of all the mental asylums guffaw at the mankind…

The true picture of today’s ‘Protective Europe’,  selling the dream of ‘Global-village’ to villages, and the images of India of 1980’s decade are almost similar. The pictures depict lush green trees, sources of water, villages! Now, we have waterless lakes, dried up ponds, buildings on the reclaimed water-bodies standing tall on death-defining foundations, absent greenery, dying cattles for the want of fodder; and, converting-fodder into money-grazing beastly humans.

It is believed that human is the dearest child of the ‘Mother-nature’! One always sees the reflection of her child in the eyes of the mother….Cursed mother is shockingly despondent to see the murder of herself in the iris of her own offspring!

And yes, today is World Environment Day. We all will collectively curse the government, politicians, builders,  officials and the inert public. Sheets of papers will be inked with lectures, they will get typed and printed. Though, while printing the monitor will be adorned with: “Save environment. Print this only if necessary!” Nevertheless, disregarding this, we will take out the prints. Possibly, we will make even more printouts, especially, to give it to our media-friends!

How long will this hypocrisy go on? Water is flowing above the nose! Before the nature converts the trailer of Kedarnath disaster into large scale cinemascopic film, we must get rid of the politician, builder, corrupt official and the inert countryman residing within us…

This time, lets pledge ourselves that along with the seminars and discussions, we will pick up spades, hoes, shovels; plant a few trees; and, more importantly, save them. Incidentally, what will we truly gain by writing-printing and so called intellectual ruminations??

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 141 ☆ दर्शन-प्रदर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 141 ☆ दर्शन-प्रदर्शन ?

आज यूँ ही विचार उठा कि समय ने मूल्यों को कितनी गति से और आमूल बदल दिया है। अपवाद तो हर समय होते हैं पर समय के विश्लेषण का मानक तो परम्परा ही होती है। दो घटनाओं के माध्यम से इसे समझने का प्रयास करेंगे।

पहली घटना लगभग चालीस वर्ष पुरानी है।  बड़े भाई महाविद्यालय में पढ़ते थे। उनके एक मित्र उनसे मिलने घर आए। यह साइकिल का जमाना था। गर्मी की छुट्टियों का समय रहा होगा। वे काफी दूर से आए थे, पसीने से लथपथ थे। पानी पीने के बाद माँ से बोले, “चाची शिकंजी बनाना।”  फिर पैंट की जेब में हाथ डाल कर दो नीबू निकाले और कहा, “सोचा, पता नहीं घर में नीबू होगा या नहीं। रास्ते में एक जगह नीबू दिखे तो खरीद लाया।” माँ ने उन्हीं नीबुओं से शिकंजी बनाई।

ये वे दिन थे जब जीवन को सहजता से जिया  जाता था। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का दर्शन  हमारे सामाजिक-जीवन का केंद्र था। समय के साथ केंद्र सरका और दर्शन को प्रदर्शन ने विस्थापित कर दिया। इस विस्थापन का एक अनुभव हुआ लगभग दस वर्ष पहले।

एक व्याख्यान के लिए दिल्ली जाना था। सम्बंधित संस्था ने आने-जाने के लिए हवाई जहाज की यात्रा का किराया देने का प्रावधान किया था। मैंने इकोनॉमी क्लास के टिकट खरीदे। एक  परिचित भी उसी आयोजन में जाने वाले थे। सोचा एक से भले दो। यात्रा में साथ हो जाएगा। उनसे बात की। उन्होंने बताया कि वे एक अन्य प्रीमियम एयरलाइंस की बिजनेस क्लास से यात्रा करेंगे। बात समाप्त हो गई।… मैं दिल्ली पहुँचा। व्याख्यान हुआ। होटल में मैं और मेरे परिचित अड़ोस-पड़ोस के कमरे में ही ठहरे थे। बातचीत के दौरान किसी संदर्भ में उन्होंने आने-जाने के टिकट दिखाए। उनके टिकट भी इकोनॉमी क्लास के ही थे। उन्हें तो अपना असत्य याद नहीं रहा पर सत्य सारी परतें भेदकर बाहर आ गया।

गाड़ी के शीशे पर लिखा होता है, ‘ऑब्जेक्ट्स  इन मिरर आर क्लोजर देन दे एपियर।’ सत्य भी मनुष्य के निकट ही होता है, उसे दिखता भी है पर गाड़ी के शीशे में दिखती वस्तु की भाँति वह उसे दूर मानकर उससे भागने की फिराक में रहता है। नश्वरता को शाश्वत से बड़ा मान लेने की मनुष्य की प्रवृत्ति विचित्र है। ‘लार्जर देन लाइफ’ सामान्यत: अद्वितीय सकारात्मक क्षमता के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके मूल को नष्ट करते हुए हमने प्रदर्शन के लिए इसका प्रयोग करना आरंभ कर दिया है।

वस्तुत: जीवन जितना सादा होगा, जितना सरल होगा, जितना सहज होगा, उतना ही ईमानदार होगा। जीवन को काँच-सा पारदर्शी रखें, भीतर-बाहर एक-सा। भीतर कुछ और, बाहर कुछ और.. इस ओर-छोर का संतुलन बनाये रखने की कोशिश में बीच की नदी सूख जाती है। जीवन प्रवाह के लिए है। अपने आप को सूखने से बचाइए।

प्रकृति का एक घटक है मनुष्य। प्रकृति हरी है, जीवन हरा रहने के लिए है। पर्यावरण दिवस पर इस हरेपन का सबसे बड़ा प्रतिदान मनुष्य, प्रकृति को दे सकता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #126 ☆ नाम की महत्ता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 126 ☆

☆ ‌आलेख – नाम की महत्ता ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

सुमिरी पवन सुत पावन नामू।

अपने बस करि राखे रामू।।

(रा० च०मानस०)

गोस्वामी तुलसी दास जी लिखते है कि- नाम स्मरण करते करते हनुमान जी ने भगवान राम को भी अपने बस में कर लिया था और उनके प्रिय अनुचर बन बैठे थे। वहीं पर राम चरित मानस में नाम की महिमा बताते हुए कहते हैं कि –

कलियुग केवल नाम अधारा।

सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा।।

के अलावा भी बहुत कुछ लिखा गया है यूँ  तो नाम व्याकरण के अनुसार एक संज्ञा है जिसके बारे में

हिंदी भाषा व्याकरण में पारिभाषित किया गया है कि –   किसी वस्तु व्यक्ति अथवा स्थान के नाम को संज्ञा कहते हैं।

जिससे  हमें उसकी आकृति, प्रकृति, गुण, स्वभाव तथा प्रभाव का बोध होता है। नाम से ही सबकी पहचान है, यहाँ तक कि  सृष्टि के समस्त प्राणी देव दानव सुर असुर किन्नर गंधर्व मानव सभी अपनी पहचान के लिए नाम के ही मोहताज है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सारी  शक्तियों की सिद्धि में नाम जप ही मूल है। हजारों की भीड़ में पुकारा गया नाम आप आपको भीड़ से अलग कर देता है।

नाम में शक्ति है, नाम में भक्ति है, नाम में ही सार छुपा है, नाम में ही मारण मोहन वशीकरण सब कुछ समाया हुआ है इसकी महिमा अनंत है तभी तो नाम की महिमा से प्रभावित तुलसी दास जी लिखते है कि-

राम न सकहि नाम गुण गाई।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाम की महिमा अगम अगोचर अनंत है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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