श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 142 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (2) ?

दर्शन और प्रदर्शन पर मीमांसा आज के आलेख में जारी रखेंगे। जैसा कि गत बार चर्चा की गई थी, बढ़ते भौतिकवाद के साथ दर्शन का स्थान प्रदर्शन लेने लगा है। विशेषकर सोशल मीडिया पर इस प्रदर्शन का उफान देखने को मिलता है। साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या जीवन का कोई क्षेत्र हो,  नाममात्र उपलब्धि को ऐसे दिखाया जाने लगा है मानो वह ऐतिहासिक हो गई हो। कुछ लोग तो ऐतिहासिक को भी पीछे छोड़ चुके। उनकी उपलब्धियाँ तो बकौल उनके ही कालजयी हो चुकीं। आगे दिखने की कोशिश में ज़रा-ज़रा सी बातों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना मनुष्य को उपहास का पात्र बना देता है।

यूँ देखें तो आदमी में आगे बढ़ने की इच्छा होना अच्छी बात है। महत्वाकांक्षी होना भी गुण है। विकास और विस्तार के लिए महत्वाकांक्षा अनिवार्य है पर किसी तरह का कोई योगदान दिये बिना, कोई काम किये बिना, पाने की इच्छा रखना तर्कसंगत नहीं है। अनेक बार तो जानबूझकर विवाद खड़े किए जाते हैं, बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा की तर्ज़ पर।  बात-बात पर राजनीति को कोसते-कोसते हम सब के भीतर भी एक राजनीतिज्ञ जड़ें जमा चुका है। कहाँ जा रहे हैं, क्या कर रहे हैं हम?

हमारा सांस्कृतिक अधिष्ठान ‘मैं’ नहीं अपितु ‘हम’ होने का है। कठोपनिषद कहता है,

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।

अर्थात परमेश्वर हम (शिष्य और आचार्य) दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।

विसंगति यह है कि अपने पूर्वजों की सीख को भूलकर अब मैं, मैं और केवल मैं की टेर है। इस ‘मैं’ की परिणति का एक चित्र इन पंक्तियों के लेखक की एक कविता में देखिए-

नयी तरह की रचनायें रच रहा हूँ मैं,

अख़बारों में ख़ूब छप रहा हूँ मैं,

देश-विदेश घूम रहा हूँ मैं,

बिज़नेस क्लास टूर कर रहा हूँ मैं..,

मैं ढेर सारी प्रॉपर्टी ख़रीद रहा हूँ,

मैं अनगिनत शेअर्स बटोर रहा हूँ,

मैं लिमोसिन चला रहा हूँ,

मैं चार्टर प्लेन बुक करा रहा हूँ..,

धड़ल्ले से बिक रहा हूँ मैं,

चैनलों पर दिख रहा हूँ मैं..,

मैं यह कर रहा हूँ, मैं वह कर रहा हूँ,

मैं अलां में डूबा हूँ, मैं फलां में डूबा हूँ,

मैं…मैं…मैं…,

उम्र बीती मैं और मेरा कहने में,

सारा श्रेय अपने लिए लेने में,

आज श्मशान में अपनी देह को

धू-धू जलते देख रहा हूँ मैं,

हाय री विडंबना..!

कह नहीं पाता-

देखो जल रहा हूँ मैं..!

मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है पर जीवन के सत्य को जानते हुए भी अनजान बने रहना, आँखें मीचे रहना केवल नादानी नहीं अपितु अज्ञान की ओर संकेत करता है। यह अज्ञान प्रदर्शन को उकसाता है। वांछनीय है, प्रदर्शन से उदात्त दर्शन की ओर लौटना। इस वापसी की प्रतीक्षा है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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