मानस के मोती

☆ ॥ मानस में प्रतिपादित पारिवारिक आदर्श – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महाराज दशरथ के व्यवहार में अगाध पुत्र प्रेम, माता कौशल्या, सुमित्रा के व्यवहार में वत्सलता, भरत और लक्ष्मण के कार्यकलापों में भ्रातृ प्रेम और भ्रातृनिष्ठा तथा सीता में पत्नी के उच्चादर्श और पति के मनसा, वाचा, कर्मणा निष्ठा के आदर्श प्रस्तुत हैं। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ही उनके सबके साथ चाहें वे परिवार के सदस्य हो, गुरु हों, परिजन हो, पुरजन हों या  निषाद, कोल, किरात, सेवक या शत्रु राक्षस ही क्यों न हो उनके प्रति भी ईमानदारी और भक्ति वत्सलता स्पष्ट हर प्रसंग में सर्वाेपरि है। मानस तो नीति प्रीति और लोक व्यवहार का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करता है जिस का रसास्वादन और आनंद तो ग्रंथ के अनुशीलन से ही प्राप्त हो सकता है किन्तु सिर्फ बानगी रूप में कुछ ही प्रसंग उद्धृत कर मैंने लेख विस्तार और समय सीमा को मर्यादित रखकर कुछ संकेत करने का प्रयास किया है जिससे पाठक मूल ग्रंथ को पढऩे की प्रेरणा पा सकें। मानस कार ने कहा है –

जहाँ सुमति तँह संपत्ति नाना। जहाँ  कुमति तँह विपति निदाना।

यह कथन राजा दशरथ के परिवार पर अक्षरश:  सत्य भाषित होता है। कैकेयी की कुमति ने सुख से भरे और सम्पन्न परिवार पर विपत्ति का वज्राघात किया- राजा दशरथ और रानी कैकेयी के  दाम्पत्य प्रेम, विश्वास और कैकेयी की स्वार्थपूर्ण कुमति की झलक-

दशरथ-

झूठेहु हमहि दोष जनिदेहू: दुई के चार माँग कि न लेहू,

रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाँहि बरु वचन न जाई।

कैकेयी-         

सुनहु प्राणप्रिय भावत जीका, देहु एक वर भरतहिं टीका

मांगऊँ दूसरि वर कर जोरी, पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।

तापस बेष विशेष उदासी, चौदह बरस राम वनवासी॥

यह सुन दशरथ सहम गये-

सुन मृदु बचन भूप हिय सोचू,

शशिकर छुअत विकल जिमी कोकू।

किन्तु राम का माता कैकेयी के प्रति स्नेहभाव-

मोहि कहु मात तात दुख कारण,

करिअ जतन जेहि होहि निवारण।

कैकेयी का उत्तर-

सुनहु राम सब कारण ऐहू राजहि तुम पर अधिक सनेहू

सुत सनेह इत वचन उत, संकट परेउ नरेश,

सकहु तो आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेश॥

राम की विनम्रता-

सुनु जननी सुत सोई बड़भागी, जो पितुमात चरण अनुरागी

तनय मातु-पितु तोषण हारा दुर्लभ जननि सकल संसारा॥

वनवास तो सब प्रकार हितकर होगा-

मुनिगण मिलन विशेष वन, सबहि भाँति हित मोर,

तेहि महुँ पितु आयसु बहुरि सम्मत जननी तोर।

भरत प्राणप्रिय पावहिं राजू विधि सब विधि मोहि संमुख आजू,

जोन जाऊँ  वन ऐसेऊ काजा, प्रथम गण्हि मोंहि मूढ़ समाजा॥

कैकेयी का राम के प्रति कथन-

तुम अपराध जोग नहि ताता जननी जनक बंधु सुखदाता

राम सत्य सब जो कछु कहहू, तुम पितुमात वचनरत रहहू।

पितहि बुझाई कहहु बलि सोई, चौथेपन जेहि अजसु न होई,

तुम सम सुअन सुकृत जिन्ह दीन्हे, उचित न तासु निरादर कीन्हे।

राम प्रसन्न हैं। कवि कहता है-

नव गयंद रघुवीर मन राज अलान समान

छूट जान बन गवन सुनि, उर अनंद अधिकान॥

राम का पितृ प्रेम

धन्य जनम जगदीतल तासू पिताहि प्रमोद चरित सुन जासू

चार पदारथ करतल ताके प्रिय पितुमात प्राण सम जाके ॥

दशरथ प्रेम विह्वल हो-आँखें खोलते हैं-

सोक विवस कछु कहे न पारा हृदय लगावत बारहिंबारा,

विधिहिं मनाव राऊ उर माही, जेहि रघुनाथ न कानन जाहीं॥

अवधवासी पर दुख

मुख सुखाहि लोचन स्रवहि सोक न हृदय समाय,

मनहुँ करुण रस कटकई उतरी  अवध बजाय॥

नारियाँ कैकेयी को समझाती हैं-

भरत न प्रिय तोहि राम समाना।

सदा कहहु यह सब जन जाना॥

करहु राम पर सहज सनेहू,

केहि अपराध आज बन देहू?

संकेत :

सीय कि प्रिय संग परिहरिहिं, लखन कि रहहहिं धाम

राज की भूंजब भरत पुर, नृप कि जिअहि बिनु राम।

कौशल्या का कथन-

पति के प्रति प्रेम व विश्वास दर्शाता है।

राज  देन  कहि  दीन्ह बन  मोहि  सो  दुख  न लेस

तुम बिन भरतहि भूपतिहि, प्रजहि, प्रचंड कलेश।

जो केवल पितु आयसु ताता तो जनि जाहु जानि बडि़ माता

जो पितुमात कहेऊ बन जाना तो कानन सत अवध समाना॥

पूत परम प्रिय तुम सबहीके प्राण प्राण के जीवन जीके

ते तुम कहहु मात बन जाऊँ, मैं सुनि बचन बैठ पछताऊँ।

सीता-  

समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाय,

जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिर नाय।

पति प्रेम-

जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते, प्रिय बिन तियहि तरनिते ताते

तन, धन, धाम, धरनि, पुर, राजू, पति विहीन सब शोक समाजू।

जिय बिन देह, नदी बिन बारी तैसेहि नाथ पुरुष बिन नारी

नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे, सरद विमल बिधु बदन निहारे।

लक्ष्मण की दशा-

कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े, दीन मीन जनु जल ते काढे,

मो कह काह कहब रघुनाथा, रखिहहि भवन कि लैहहिं साथा।

सुमित्रा का कथन लक्ष्मण के प्रति-

अवध तहाँ जहँ राम निवासू, तँहइ दिवस जहँ भानुप्रकासू

जो पै राम-सीय वन जाहीं, अवध तुम्हार काम कछु नाहीं।

राम-प्राण प्रिय जीवन जीके, स्वारथ रहित सखा सब हीके

सकल प्रकार विकार बिहाई, सीय-राम पद सेवहुु जाई

तुम कहँ वन सब भाँति सुपासू, सँग पितु मात रामसिय जासू

सीता का पति प्रेम-

प्रभा जाइ कँह भानु विहाई, कहँ चंद्रिका चंदु तज जाई।

केवट प्रसंग में-

पिय हिय की सिय जाननिहारी, मनिमुंदरी मन मुदित उतारी।

भरत का अयोध्या में आते ही आक्रोश और पश्चाताप-

राम विरोधी हृदय दे प्रकट कीन्ह विधि मोही,

मो समान को पातकी बादि कहहुँ कहु तोही।

कौशल्या भरत को देखते ही-

भरतहि देखि मातु उठिघाई, मुरछित अवनि परी झंई आई।

भरत-

देखत भरत विकल भये भारी, परे चरण तन दशा बिसारी।

कौशल्या-

सरल स्वभाव माय हिय लाये, अतिहित मनहु राम पुनि आये,

भेंटेहु बहुरि लखन लघु भाई, शोक सनेह न हृदय समाई।

भरत-   ते पातक मोहि होऊ विधाता, जो येहि होइ भोर मत माता।

राम ने चित्रकूट में भरत से कहा-

करम बचन मानस विमल तुम समान तुम तात।

गुरु समाज, लघुबंधु गुण कुसमय किमि कहिजात॥

राम आदर्श पति हैं- पत्नी प्रेम में सात्विक भाव से दाम्पत्य जीवन का आनंद भी लेते दिखते हैं-

एक बार चुनि कुसुम सुहाये, निज कर भूषण राम बनाये।

सीतहिं पहराये प्रभु सादर बैठे फटिक शिला अति सुंदर।

मानस में तुलसी दास जी ने राक्षस परिवार की पत्नी और भाई के भी आदर्श संदर्भ प्रस्तुत किये हैं। मंदोदरी की अपने पति रावण को सलाह-

तासु विरोध न कीजिय नाथा, काल, करम जिव जिनके हाथा।

अस विचार सुनु प्राणपति, प्रभुसन बयरु विहाई,

प्रीति करहु रघुवीर पद मम अहवात न जाई।

भाई को (रावण को) विभीषन की सही सलाह-

जो कृपाल पूँछेहु मोहि बाता, मति अनुरुप कहऊ हित ताता

जो आपन चाहे कल्याणा, सुजस सुमति शुभ मति सुख नाना

तो पर नार लिलार गोसाई तजऊ चउथ के चंद की नाई

चौदह भुवन एक पति होई, भूत द्रोह तिष्ठइ नहिं सोई

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ

सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत

इस प्रकार मानस में परिवारिक स्नेह के संबंधों के अनुपम आदर्श प्रस्तुत किये गये हैं। जिनका अनुकरण और अनुसरण कर आज के विकृत समाज के हर परिवार को सुख-शांति और समृद्धि प्राप्ति का रास्ता मिल सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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