मानस के मोती

☆ ॥ रामचरित मानस मुझे प्रिय क्यों है?॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

कोई किसी को प्रिय क्यों लगता है? अचानक स्पष्ट कारण बता सकना कुछ कठिन होता है, ऐसा कहा जाता है। इस कथन में कुछ तो सच्चाई है। पर यदि आत्ममंथन कर बारीक विश्लेषण किया जाये तो प्रियता के कारण खोज निकाले जा सकते हैं। आकर्षक व्यक्तित्व, रूप-लावण्य, विशिष्ट गुण, सदाचार, वाणी का माधुर्य, कोई प्रतिभा, कला-प्रियता, सौम्य व्यवहार, धन सम्पत्ति, वैभव, सुसम्पन्नता, सर्जनात्मक दृष्टि, विचार साम्य, सहज अनुकूलता या ऐसे ही कोई एक या अनेक कारण। यह बात व्यक्ति के संबंध में तो सही हो सकती है पर किसी वस्तु के सम्बन्ध में ? किसी भी वस्तु के प्रति भी किसी के लगाव व आकर्षण का ऐसा ही कुछ कारण होता ही है।

मुझे पुस्तकों से लगाव है। पढऩे और उनका संग्रह करने में रुचि है। अनेेकों पुस्तकें पढ़ी हैं, विभिन्न विषयों की, विभिन्न सुन्दर साहित्यिक कृतियाँ भी। पर किसी पुस्तक ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया जितना तुलसीकृत रामचरित मानस ने। मानस ने तो जैसे जादू करके मन को मोह लिया है। जब-जब पढ़ता हूँ मन आनन्दातिरेक में डृब जाता है। स्वत: आत्मनिरीक्षण करता हूँ तो मानस में वे अनेकों खूबियाँ पाता हूँ जो किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं दिखतीं। इतना चित्ताकर्षक, रमणीक और आनन्ददायी कोई ग्रन्थ नहीं। इसमें मुझे संपूर्ण मानव-जीवन, जगत और उस परम तत्व के दर्शन होते हैं जिसकी अदृश्य सूक्ष्म तरंगों से इस विश्व में चेतना और गति है। साथ ही उस रचनाकार की अनुपम योग्यता, अद्वितीय अभिव्यक्ति की कुशलता और भाषा-शिल्प की, जिसने इस विश्व के कण-कण में साक्षात्ï अपने आराध्य को विद्यमान होने की प्रतीति कराने को लिखा हैं-

”सियाराम मय सब जग जानी, करऊँ प्रणाम जोरि जुग पाणी॥”

महाकवि कालिदास ने कहा है-

”पदे पदे यद् नवताँ विधत्ते, तदैव रूपं रमणीयताया:।”

अर्थ है- रमणीयता का सही स्वरूप वही है जो प्रतिक्षण नवलता प्रदर्शित करे।

रामचरित मानस के संबंध में यह उक्ति अक्षरश: सही बैठती है। हर प्रसंग में एक लालित्य है, मोहकता है और अर्थ में सरसता तथा आनंद है। जैसा कि  ”महाभारत” के संबंध में कहा गया है- ”न अन्यथा क्वचित् यद्ï न भारते।” अर्थात् जो महाभारत में नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है। वही बात प्रकारान्तर से कहने में मुझे संकोच नहीं है कि ऐसा भला क्या है जो ”मानस” में नहीं है ?

व्यक्ति की मनोवृतियों की कलाबाजियाँ, उनसे प्रभावित उसके सोच और योजनायें, पारिवारिक संबंधों की छवि के विविध रंग, सामाजिक जीवन के सरोकारों की झलक समय के साथ व्यवहारों का परिवर्तन और परिणाम, जीवन-दर्शन, व्यवहार कुशलता और सफलता के मंत्र, निष्कपट राजनीति के सूत्र, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की सरल परिभाषा और विवेचनायें, जीवन में अनुकरणीय आदर्श और मर्यादायें तथा मानव मूल्यों की स्थापना, प्रतिष्ठा और आराधनायें। सभी कुछ मनमोहक और अद्वितीय। साथ ही वर्णन व चित्रण में मधुरता, कलात्मक अभिव्यक्ति और सहज संप्रेषणीयता, साहित्यिक गुणवत्ता, प्रसंगों में रसों की विविधता, शैली में स्वाभाविकता और छन्दों की गेयता, हर एक के अन्त:करण को छू लेने वाला प्रस्तुतीकरण। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को रुचने वाली और कुछ सीखने लायक अनेकों सारगर्भित बातें। सामान्य जन से लेकर उद्ïभट विद्वानों तक के लिये विचारणीय, अनुकरणीय, आकर्षित करने वाला कथा-सूत्र तथा लोक और लोकोत्तर जिज्ञासाओं की तुष्टि करके विभिन्न समस्याओं का समाधान, ऐसी सरल भाषा में किन्तु गूढ़ गहन उक्ति में, कि हर पद की अनेकों व्याख्यायें, और आयु व बुद्धि के विकास की वृद्धि के साथ नये अर्थ नयी दृष्टि और नया चिन्तन प्रदान करने वाली अपूर्व कालजयी रचना है- ”मानस”। मैंने बचपन में इसे सुना, बड़े हो के पढ़ा, प्रौढ़ हो के समझा और निरन्तर इससे प्रभावित हुआ हूँ।

याद आता है मुझे वह जमाना जब मैं बच्चा था। उस समय की दुनियाँ आज से हर मायने में भिन्न थी। तब न बिजली थी और न आज के से मनोरंजन के साधन। बच्चों के तीन ही काम प्रमुख थे- खेलना, खाना और पढऩा। स्कूल से आकर शाम को कुछ खेलकूद करने के बाद खाना होता था और लालटेन के हल्के उजाले में घर के आवश्यक कामकाज निपटाकर सभी लोग रात्रि में प्राय: जल्दी निद्रा की गोद में विश्राम करते थे। समय काटने के सबके अपने-अपने तरीके थे- कथा, कहानी, पहेली, भजन, गीत, संगीत, ताश या कोई ऐसे ही हल्के खेल या हल्की-फुलकी चर्चायें, गप्पें।

हमारे घर में शाम के भोजन में बाद नियमित रूप से पिताजी ”मानस” (रामायण) पढ़ते-दोहे, चौपाई, सौरठों और छन्दों का लयात्मक पाठ करके अर्थ समझाते थे। अपनी माँ के साथ हम सब भाई सामने दरी पर बैठकर बड़े आदर और ध्यान से कथा सुनते थे। कभी विभिन्न प्रसंगों से संबंधित शंकाओं के  निवारण के लिये पिताजी से प्रश्न पूछते थे और रामकथा का रसास्वादन करते थे।  मुझे  अच्छी तरह से याद है कि मंथरा के कुटिलता, कैकेयी के राजा दशरथ से वर माँगने, दशरथ मरण और राम वनगमन के प्रसंगों में हमारी आँखें गीली हो जाती थीं। मुझे तो रोना आ जाता था। गला रूंध जाता था। अश्रु वह चलते थे और सिसकियाँ बंध जाती थीं। तब माँ अपने आँचल से आँसू पोंछकर समझाती थीं। लेकिन इसके विपरीत, पुष्पवाटिका में राम-लक्ष्मण के पुष्प चयन हेतु जाने पर, सीता का राम को और राम का सीता को देखने पर वर्णन को सुनकर, सीता के गौरी माँ मंदिर में पूजन और आशीष माँगने पर, लक्ष्मण-परशुराम संवाद पर, राम के धनुष्य तोडक़र सीता से ब्याह पर और उनके दर्शन से नगरवासियों, सब स्त्री पुरुषों की प्रसन्नता की बात पर मन गद्ïगद हो जाता था। अपार आनंद की अनुभूति होती थी और एकऐसी खुशी होती थी जैसे किसी आत्मीय की या स्वत: की विजय पर होती है। राम के गंगापार ले जाने के लिए केवट से आग्रह, केवट का श्रीराम के चरण पखारे बिन उन्हें नाँव में न बैठाने का हठ, पैर धोकर अपने परलोक को सुधार लेने की भावना का संकेत, राम का इस हेतु मान जाना और गंगा पार जाने पर केवट को उतराई देने की भावना से सीता की ओर ताकना और सीता का पति के मनाभावों को समझ मणिमुद्रिका केवट को उतार कर देने के मार्मिक प्रसंगों में मन की पीड़ा, परिस्थितियों की विवशता, पती-पत्नी के सोच की समानता से भारतीय गृहस्थ जीवन की पावनता व दम्पत्ति की भावनाओं की एक रूपता का आभास मन पर अमिट छाप छोड़ता हुआ भारतीय संस्कृति की उद्ïदात्तता, अनुपम आल्हाद प्रदान करती थी। मन में एक मिठास घोल देती थी। संपूर्ण मानस के कथा प्रवाह में ऐसे अनेकों प्रसंग हैं जहाँ मन या तो विचलित हो जाता है या अत्यन्त आल्हादित। सबका उल्लेख तो यहाँ नहीं किया जा सकता। सहज कथा प्रवाह में जगह-जगह, ज्ञान और भक्ति की धाराऐं भी बहती हुई दिखाती हैं जो मन को सात्विकता, पावनता और संतोष प्रदान करती हैं।

इस प्रकार ”मानस” एक अद्भुत अप्रतिम गं्रथ है जो मानव-जीवन की समग्रता को समेटे हुए, प्रत्येक को एक आदर्श, कत्र्तव्यनिष्ठ, व्यक्तित्व के विकास की दिशा में उन्मुख कर सुखी व समृद्ध पारिवारिक व राष्ट्रीय जीवन बिताने के लिए आदर्श प्रस्तुत कर आवश्यक मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के महत्व को प्रतिपादित करता है।

मानस जिन सामाजिक मूल्यों को अनुशंसित करता है वे कुछ प्रमुख ये हैं- सत्य, प्रेम, निष्ठा, कत्र्तव्य-परायणता, पारस्परिक विश्वास, सद्ïभाव और परोपकार। इनके बल पर व्यक्ति दूसरों पर अमिट छाप छोडक़र विजय पा सकता है जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने प्राप्त की। मानसकार की मान्यता है-

(1)        नहिं असत्य सम पातक पुंजा॥ धरम न दूसर सत्य समाना॥

(2)        प्रभु व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेमते प्रकट होत भगवाना॥

(3)        परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहि अधमाई॥

(4)        परिहत बस जिनके मनमाहीं तिन्ह कहं जग दुर्लभ कछु नाहिं॥

मानस के श्रवण अध्ययन, मनन ने मन में मेरे ऐसी गहरी छाप छोड़ी है कि मुझे लगता है मेरे जीवन में आचार-विचार, व्यवहार और संस्कार में उसकी सुगंध बस गई है। इसी से मेरे पारिवारिक जीवन में सुख-शांति, संतोष और सफलता की आभा है और इस हेतु मैं मानस का ऋणी हूँ।

अन्य कोई भी ग्रंथ किसी एक विशेष विषय की चर्चा करता है पर मानस तो मानव जीवन की लौकिक परिधि से बाहर जाकर पारलौकिक आनंद की अनुभूति का भी दर्शन कराता है। इसमें ”चारों वेद, पुराण अष्टदश,  छहों शास्त्र सब ग्रंथन को रस” है। यह एक समन्वित जीवन दर्शन है और भारतीय अध्यात्म का निचोड़ है। इसीलिये मुझे प्रिय है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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