हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ सीखने की उम्र… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सीखने की उम्र”।)  

? अभी अभी ⇒ सीखने की उम्र? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

सीखने की कोई उम्र नहीं होती,यह उक्ति उन्हीं पर लागू होती है,जो इस उम्र में भी कुछ. सीखना चाहते हैं । जो लोग यह मानते हैं,कि सीखने की भी एक उम्र होती है, और हम सब सीख चुके, तय मानिये,उनके सीखने की उम्र वाकई गई ।

बच्चों की उम्र सीखने की होती है ! ज़्यादातर सीख बच्चे ही झेलते हैं । उन्हें सीखने के लिए स्कूल भेजा जाता है । सीख को ही अभ्यास अथवा पाठ कहते हैं । पाठशाला में पाठ पढ़ाए जाते हैं,अंग्रेज़ी की किताब में उसे ही lesson कहा जाता है । पढ़ाई को अभ्यास कहते हैं । जो बड़े होने पर study कहलाती है और पढ़ने वाला student .

पढ़ने से विद्या आती है,इसलिए पढ़ाई करने वाला विद्यार्थी भी कहलाता है । जो कभी हमारे देश की गुरुकुल परंपरा थी,वह बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय से होती हुई आज शासकीय विद्यालय तक पहुँच गई है । लेकिन यह भी कड़वा सच है कि पब्लिक स्कूल ही आज के गुरुकुल हैं,नालंदा विश्वविद्यालय हैं । आप चाहें तो उन्हें आज के भारत का ऑक्सफ़ोर्ड अथवा कैंब्रिज भी कह सकते हैं ।

सीखने की कला को अभ्यास कहते हैं । अक्षर ज्ञान और अंकों का ज्ञान ,किसी अबोध बालक को इतनी आसानी से नहीं आता । कितनी बार १ के अंक पर ,और ” अ ” अनार के अक्षर पर पेंसिल चलाई होगी,आज याद नहीं । मास्टरजी का दिया हुआ सबक रोज याद करना पड़ता था । गिनती,पहाड़े का सामूहिक पाठ हुआ करता था । कितनी कविता,पहाड़े, और रोज की प्रार्थना कंठस्थ हो जाती थी ! सबक याद न होने पर छड़ी, छमछम पड़ती थी,और विद्या झमझम आती थी । एक प्रार्थना को और अभ्यास को इतनी बार रटना पड़ता था,कि वह कविता,गणित का वह सूत्र आज भी याद है । कितनी भी याददाश्त कमजोर हो,पुराने लोगों को आज भी पहाड़े, गणित के सूत्र और संस्कृत के श्लोक सिर्फ इसलिए याद हैं,क्योंकि बचपन में उन्हें कंठस्थ किया गया था । यही अभ्यास है, सीख है, विद्या है, जो कभी विस्मृत नहीं होती ।।

जिसने जीवन में सीखना छोड़ दिया, उसके ज्ञान का, बुद्धि का,स्मरण शक्ति का ,मानकर चलिए, पूर्ण विराम हो गया । ज्ञान का भंडार अथाह है । केवल किताबों से ही नहीं,बड़ों-छोटों और परिस्थितियों से भी सीख ली जा सकती है । दुश्मन से सिर्फ घृणा ही नहीं की जाती । केवल एक मर्यादा पुरुषोत्तम ही अपने अनुज लक्ष्मण को आखरी साँस ले रहे राक्षसराज रावण से भी कुछ सीख लेने का निर्देश दे सकते हैं ।

दत्तात्रय भगवान के 24 गुरु थे अपने आपको ज्ञान में हमेशा लघु समझना लघुता की नहीं, विद्वत्ता की निशानी है । ज्ञान का स्रोत कभी सूखे नहीं । यह वह झरना है, जो जब बहता है, सृष्टि को तर-बतर कर देता है । इस झरने के पास कभी अज्ञान का मरुस्थल दिखाई नहीं दे सकता । सीखने की कोई भी उम्र हो सकती है ।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 187 ☆ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 187 ☆ देह न बारम्बार ?

हमारे परिसर में मेट्रो ट्रेन का काम चल रहा है। इसके चलते घर लौटने के लिए एक किलोमीटर आगे जाकर एक पुलिया के अंडरपास से यू-टर्न लेना पड़ता है। यहाँ पास में कुछ मांसाहारी ढाबे हैं जो प्राणियों के अवशेष पुलिया के पास ही फेंक देते हैं। कौवों का हुजूम इन अवशेषों को लेकर यहाँ-वहाँ बैठा होता है और मारे दुर्गंध के उस मार्ग से निकलना कठिन होता है।

प्राणियों के अवशेष जीवन की क्षणभंगुरता का चित्र सामने खड़ा करते हैं। साथ ही चिंतन में विचार उठता है कि प्राण है तो ही देह सुगंधित है। चेतन तत्व का वास है तभी जीवन में सुवास है। अनित्य में नित्य है तो शरीर शेष है अन्यथा सब अवशेष है। इसे जीवन के विस्तृत क्षितिज पर देखें तो पाएँगे कि मनुष्य देह, आत्मा की यात्रा को सार्थक करने का साधन है।

विचार किया जाना चाहिए कि हम इस देहावधि को कैसे बिता रहे हैं? निरंतर दूसरों की आलोचना में व्यस्त रह कर…? दूसरों की प्रगति से कुढ़कर…? सदा कटु भाषा का प्रयोग करके…? वर्गभेद द्वारा…? वर्णभेद द्वारा…? स्त्री-पुरुष में अंतर करके…? आभासी या बनावटी जीवन जीकर…? आत्ममुग्धता का शिकार होकर.. ? ‘मैं और मेरा’ तक सीमित रह कर.. ? ये सारे तो कुछ लोकप्रिय (!) तरीके भर हैं जीने के। बाकी कटु सत्य तो यह है कि ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ के बाद भी अधिकांश जन अपने तक सीमित होकर जीने के मामले में अभिन्न हैं।

कबीर ने लिखा है,

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

दुर्लभ मनुष्य जीवन स्वर्ग (आनंद) और नर्क (विषाद) के बीच  मील का पत्थर है। ऊर्ध्वाधर यात्रा आनंद की ओर ले जाएगी। विरुद्ध दिशा में चले तो विषाद तक पहुँचेंगे।

वस्तुत: देह से मनुष्य होना एक बात है, आचरण से मनुष्य बनना दूसरी। पहली से दूसरी की यात्रा में जीवन का उत्कर्ष छिपा है। इस यात्रा पर अपनी एक रचना स्मरण हो आती है,

यात्रा में संचित होते जाते हैं शून्य,

कभी छोटे, कभी विशाल,

कभी स्मित, कभी विकराल,

विकल्प लागू होते हैं,

सिक्के के दो पहलू होते हैं,

सारे शून्य मिलकर ब्लैकहोल हो जाएँ

और गड़प जाएँ अस्तित्व,

या मथे जा सकें सभी निर्वात एकसाथ

पाएँ गर्भाधान नव कल्पित,

स्मरण रहे,

शून्य मथने से ही उमगा था ब्रह्मांड

और सिरजा था ब्रह्मा का निमित्त,

आदि या इति, स्रष्टा या सृष्टि

अपना निर्णय, अपने हाथ

अपना अस्तित्व, अपने साथ..!

उर्ध्वाधर या रसातल, चुनाव क्या होगा?  वैसे बिरला ही होगा जो अमृत और हलाहल में अंतर न कर सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ लेटलतीफ़ आफ़ताब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लेटलतीफ़ आफ़ताब”।)  

? अभी अभी ⇒ लेटलतीफ़ आफ़ताब? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हमारी पाँचवीं क्लास के सहपाठी  का आफ़ताब नाम उसके माता-पिता ने यही सोचकर रखा होगा, कि  बड़ा होकर वह उनका नाम रोशन करेगा ! कड़कती ठंड में स्कूल जाना, किसी दंड से कम नहीं ! वह समय , समय की पाबंदी और अनुशासन का था।।आफ़ताब कक्षा में सबसे आख़िर में आने वाला छात्र था।

भरी क्लास के बीच दरवाज़े पर आहट होती थी ! मास्टरजी बिना देखे ही कह उठते थे, लो आफ़ताब आ गया। आफ़ताब सिर्फ बिस्तर से उठकर आता था, जागकर नहीं आता था। मास्टरजी की छड़ी बचपन में ही उसकी हथेलियां गर्म करती थी और फिर आफ़ताब मुर्गा बना दिया जाता था। बीच बीच में मास्टरजी पढ़ाते-पढ़ाते बेंत से मुर्गे की ऊँचाई नाप लिया करते थे। जब वह पूरी तरह जाग जाता, उसे फिर इंसान बनाकर क्लास में बैठने दिया जाता।।

तब तक हमारे लिए आफ़ताब भी केवल एक नाम ही था। भला हो फ़िल्म चौदहवीं के चाँद का, जिसके एक गाने में चौदहवीं के चाँद के साथ आफ़ताब का भी ज़िक्र हुआ है। हम भी जान गए, हमारा आफ़ताब ठंड में देरी से स्कूल क्यूँ आता था।

जो सूरज गर्मी में ज़ल्दी उगता है, देर शाम तक आसमान में बना रहता है, और जहाँ भरी दोपहर में  लोग सर पर छांव तलाश करते नज़र आते हैं, वही सूरज ठंड में ठिठुरता हुआ उदय होता है। बादलों की रजाई से अलसाया सा मुँह निकालता है। बच्चे ललचाई आँखों से उनींदे सूरज को देखते हुए बस में चढ़ जाते हैं। हर मज़दूर, किसान, पशु-पक्षी की निगाह धूप पर रहती है। सुबह की धूप का स्नान किसी कुंभ-स्नान से कम पुण्य देने वाला नहीं होता।।

किसी स्कूल मास्टर की हिम्मत नहीं, कड़कती ठंड में लेट लतीफ आसमान के आफ़ताब को मुर्गा बनाए। आस्तिक हो या नास्तिक, सुबह सूरज की ओर मुंह कर ही लेता है। किसी के अहसान का शुक्रिया अदा करना, किसी इबादत से कम नहीं। सुबह की धूप और प्याले की चाय की गर्मी क्या किसी जन्नत के मज़े से कम है।

शाम होते होते सूरज अपने दफ़्तर को समेट लेता है। गर्मी में शाम के सात बजे तक ड्यूटी बजाने वाले मिस्टर दिवाकर, पाँच बजे ही घड़ी दिखाकर लाइट्स ऑफ करने लग जाते हैं। लोग भी मज़बूरी में गर्म कपड़ों में खुद को समेटकर आदित्य को गुड नाईट कह देते हैं।।

जितनी ठंड बढ़ती जाएगी, सूर्य देवता के भाव बढ़ते जाएँगे ! उगते सूरज को ठंड में सलाम और गर्मी में सूर्य-नमस्कार किया जाता है। अमीर-गरीब, जानवर-इंसान को आसमान की छत के नीचे, कड़कती ठंड में, अगर कोई एक साथ लाता है, वह यही आफ़ताब है। इसकी कुनकुनी धूप में धरती माता की गोद कितनी प्यारी लगती है। इसे आप इंसानियत का धूप-स्नान भी कह सकते हैं।

ठंड की यह धूप ही वास्तविक कुंभ-स्नान है, जहाँ सुबह चौराहों पर स्कूल के बच्चे, चौकीदारों के द्वारा जलाए गए अलावों में हाथ तापते, अपनी स्कूल-बसों का इंतज़ार करते हैं। कोई कुत्ता भी वहाँ आकर धूप सेंकने के लिए सट जाता है। यह इंसानियत की आँच किसी अनजान राहगीर को अपने से अलग नहीं करती। सड़क पर किसी अनजान व्यक्ति के साथ धूप सेंकना हमारे अहंकार और अस्मिता को गला देता है। धूप स्नान ही कुम्भ का स्नान है। एक जलता अलाव किसी मज़हब को, किसी चुनावी नारे को नहीं पहचानता।।

केवल जिस्मों तक ही नहीं, रूह तक पहुँच है आफ़ताब की उस किरन की

ये सुबह, ये ठंडी हवाएँ

आओ अलाव जलाकर,

सुबह के नाश्ते में धूप खाकर

हम आज ठंड मिटाएँ।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ द्वैत – अद्वैत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “द्वैत – अद्वैत”।)  

? अभी अभी ⇒ द्वैत – अद्वैत? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गिनती एक से शुरू होती है और एक शून्य उसे अनंत बना देता है। हर शून्य के बाद एक का महत्व बढ़ता जाता है और अगर सिर्फ एक हटा दिया जाए, तो सब शून्य। महत्व एक का अधिक है या शून्य का। एक  शुरुआत है, और शून्य अंत भी, और अनंत भी।

एक से एक मिलकर दो होते हैं। जब दोनों मिलकर एक होते हैं, तो फिर एक पैदा होता है, मिठाई बंटती है ! यही द्वैत-अद्वैत का सिद्धांत है। ईश्वर एक है और वह घट घट में समाया है। जो घट जैसा है, वही स्वरूप उसने पाया है।।

मैं ही ब्रह्म हूं, यह भ्रम बहुत लोग पाल लेते हैं, और सबमें ब्रह्म है, मानने वाले, ब्रह्म को जल्दी जान लेते हैं। ज्ञान और भक्ति द्वैत अद्वैत के दो छोर हैं। उद्धव श्रीकृष्ण के कहने पर ज्ञान का टोकरा लेकर बृज में गोपियों के पास आते हैं। गोपियां सीधा सा जवाब दे देती हैं ;

उधो, मन न भये दस बीस

एक हुतो, सो गयो श्याम संग,

को अवराधे शीश।

उधो उन्हें नमन कर वापस मथुरा चले आते हैं। अद्वैत मुक्ति प्रदान करता है, जिसे लोग मोक्ष कहते हैं। द्वैत में जीव शरणागति हो जाता है। वह अपने इष्ट के चरणों की सेवा करता है। इष्ट उसकी सेवा से प्रसन्न हो, उसे अपने हृदय से लगा लेते हैं।

विरह में जलना ही भक्ति है।

ज्ञान की अग्नि में जलना ही मुक्ति है। बिना जले कोई खाक नहीं होता।

ईश्वर एक था। उस एक ईश्वर ने ही सृष्टि की रचना की। एक से अनेक पैदा किए। खुद ही अवतार लेता है, अद्वैत से द्वैत का भ्रम फैलाता है। कभी जीव को माया में, कभी ब्रह्म में उलझाता है। बार बार धर्म बीच में और ले आता है।।

अध्यात्म मानने से जानने की प्रक्रिया है। धर्म माने हुए को स्वीकार कर लेता है।  यहां तर्क, कुतर्क नहीं होते। भक्ति विराट तक पहुंचने के लिए झुकने को कहती है, अध्यात्म ऊपर उठने का कहता है। भक्ति का चरम हनुमान है। ज्ञान का योगेश्वर श्रीकृष्ण , जिनकी प्राप्ति शरणागति से होती है।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 23 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज प्रस्तुत  है इस शृंखला का अंतिम भाग। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 23 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

अर्थ:- हे हनुमान जी आप पवन पुत्र हैं। सभी संकटों को दूर करने वाले हैं। आप अपने भक्तों का उपकार करने वाले हैं। हे सभी देवताओं के स्वामी, आप श्री राम, माता सीता और श्री लक्ष्‍मण सहित हमारे हृदय में बस जाएं।

भावार्थ:- यह हनुमान चालीसा का अंतिम दोहा है। इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी एक बार फिर हनुमान जी से अपनी मांग दोहरा रहे। इसके पहले उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना की थी कि श्रीराम चंद्र जी उनके हृदय में आ कर रहे। परंतु इस बार वह कह रहे हैं देवताओं के राजा आप श्री रामचंद्र जी माता सीता और लक्ष्मण जी के साथ मेरे हृदय में आकर निवास करें। इस दोहे में तुलसीदास जी ने हनुमान जी को सभी का मंगल करने वाला, पवन पुत्र तथा सभी प्रकार के संकट दूर करने वाला भी बताया है।

संदेश:- अपने हृदय में हमेशा अपने आराध्य और गुरु को बसा कर रखें। इससे आपको जीवन में हमेशा सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलेगी।

इस दोहे को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

हनुमान चालीसा का यह दोहा जीवन मे मंगलदायक है और सभी संकटों से मुक्ति दिलाता है।

विवेचना:- सबसे पहले हम इस दोहे के पहली पंक्ति पहले पद का अन्विक्षण और चिंतन करते हैं। पद है “पवन तनय संकट हरण”। इस पद के आधे हिस्से में पवन तनय कहा गया है और आधे हिस्से में संकट हरण कहा गया है। यहां पर हनुमान जी को वायुपुत्र के रूप में संबोधित किया गया है। इन शब्दों के माध्यम से तुलसीदास जी ने यह बताने की कोशिश की है जिस प्रकार वायु बादलों को तेजी के साथ हटा करके वातावरण को साफ कर देती है उसी प्रकार हनुमान जी भी संकट के बादलों को हटाकर आपको संकटों से मुक्त कर सकते हैं।

हनुमान जी को पवन तनय कहने के संबंध में पूरी विवेचना हम इसी पुस्तक में पहले कर चुके हैं। फिर से इस बात की दोबारा विवेचना करना उचित नहीं होगा। इसलिए इस शब्द की विवेचना यहां पर छोड़ देते हैं।

दूसरा पद है संकट हरण। हनुमान जी को हम सभी संकट मोचक भी कहते हैं। हनुमान जी ने कई बार श्री रामचंद्र जी और वानर सेना को संकटों से मुक्त किया है। इन्होंने तुलसीदास जी को भी संकटों से मुक्त किया है। इसके अलावा हनुमान जी ने संकट मोचन के बहुत सारे कार्य किए। कुछ को हम बता रहे हैं :-

1- सुग्रीव को राजपद दिलाने के लिए रामचंद जी से मुलाकात करवाई।

2- सीता जी की खोज की।

3-रामचंद्र जी और लक्ष्मण जी को नागपाश से मुक्त करवाया।

4-लक्ष्मण जी के लिए संजीवनी बूटी लाए।

5- भरत जी को श्री रामचंद्र जी के लौटने की खबर दी। आदि, आदि

अगला पद है “मंगल मूरति रूप “

हनुमान जी सबका मंगल करने वाले हैं। तुलसीदास जी ऐसा कह कर के बताना चाहते हैं कि हनुमान जी का उनके ऊपर असीम कृपा है और वे उनका हर तरफ से अच्छा करेंगे। हनुमान जी तुलसीदास जी के ऊपर आए हुए सभी संकटों को दूर करेंगे। जब भक्त का भगवान के ऊपर संपूर्ण विश्वास होता है, उसके समस्त ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं, तब भक्त के सामने ऐसी स्थिति आती है कि उसे सब मंगल लगता है। भगवान भी भक्तों को मंगल रूप लगते हैं। 

मंगला मंगल यद् यद् करोतीति ईश्वरो ही मे।

तत्सर्वं मंगलायेति विश्वास: सख्यलक्षणम्। ।

मंगल या अमंगल, प्रभु जो कुछ करेंगे वह मेरे मंगल के लिए ही होगा। ऐसा विश्वास होना चाहिए। मुझे क्षणिक जो मंगल लगता है वह कदाचित् मेरा मंगल नहीं भी होगा। उसी प्रकार जो मुझे क्षणिक अमंगल लगता है वह मेरे मंगल के लिए भी हो सकता है। ऐसा विश्वास होना चाहिए। इसलिए तुलसीदासजी भगवान को मंगल मूरति रुप कहते है।

हृदय में हनुमान जी को रखने के लिए हमें अपना हृदय खुला रखना पड़ेगा। हृदय के अंदर हमें देखना पड़ेगा कि भगवान जी बैठे हैं या नहीं। कबीर दास जी ने लिखा है कि:-

नयनोंकी की करि कोठरी पुतली पलंग बिछाय।

पलकों की चिक डारि के पिय को लिया रिझाय।।

हमें भी ऐसे ही अनुभव लेना चाहिए।

श्री भगवत गीता के 15वें अध्याय के 15वें श्लोक में श्री भगवान ने कहा है कि:-

‘स्‍​र्वस्व चाहं हृदि संन्निविष्ट:’

अर्थात वे कहते हैं मैं तेरे हृदय में आकर बैठा हूँ इसलिए तेरा जीवन चलता है।

हमें अपने अंदर से “मैं अर्थात अपने अहंकार ” को निकालना पड़ेगा। हमें अपनी सोच में परिवर्तन करना होगा। हमें सोचना होगा की ‘मै आपका हूँ आपका कार्य करता हूँ, आपके लिए करता हूँ। मेरा कुछ नही, मै भी अपना नही हूँ यह भक्त की भूमिका है।

भगवान! सब कुछ आपका है-

विष्णु पत्नीं क्षमां देवींं माधवीं माधवप्रियाम्।

लक्ष्मीं प्रियं सखीं देवीं नमाम्यच्युत वल्लभाम्। ।

हे भगवान! वित्त आपका! आपकी लक्ष्मी मेरे पास है, परन्तु वह आपकी धरोहर है। यह भागवत का दर्शन है। अत: भक्ति में तीन बातें पक्की करनी है, ‘मुझे मालूम नहीं है’, ‘मै नही करता’ ‘मेरा कुछ नहीं है’। जिसके जीवनमें ये तीन बातें पक्की हो गयी वह भक्त है। भक्त बनने के लिए वृत्ति बदलने का प्रयत्न चाहिए। मानव को लगना चाहिए, ‘कुछ नहीं बनना है’ की अपेक्षा वैष्णव बनना है, मुझे कुछ बनना है। मुझे हनुमानजी जैसा भक्त बनना है ऐसी हमारे जीवन में, अभिलाषा का निर्माण हो। इसीलिए गोस्वामीजी हनुमानजी को अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते है।

तुलसीदास जी ने दोहा की अगली पंक्ति में लिखा है :-

राम लखन सीता सहित हृदय बसहुं सुर भूप। ।

रामजी शांत रस के परिचायक हैं उनको कभी-कभी क्रोध आता है। लक्ष्मण जी वीर रस के परिचायक हैं इनको वीरोचित क्रोध हमेशा आता है। माता जानकी करुण रस की परिचायक है। इन तीनों रस जब आपस में मिल जाते हैं तब हनुमान जी का निर्माण होता है। हनुमान जी के अंदर शांति भी है, क्रोध भी है, करुणा भी है और वे रुद्र भी हैं।

हनुमान जी की मूर्ति कई प्रकार की प्रतिष्ठित है। एक मूर्ति में हनुमान जी बैठ कर के भजन गा रहे दिखाई देते हैं। यह उनके शांति रूप की प्रतीक है। इस मूर्ति को घर में लगाने से घर में प्रतिष्ठा रहती घर संपन्ना रहता है किसी तरह की कोई विपत्ति नहीं आती है।

श्री हनुमान जी की एक दूसरी मूर्ति दिखाई पड़ती है। इसमें हनुमान जी उड़ते दिखाई पड़ते हैं। उनके दाहिने हाथ पर संजीवनी बूटी का पहाड़ रहता है। यह मूर्ति उस समय की है जब श्री लक्ष्मण जी को शक्ति लगी थी। वे मूर्छित हो गए थे। हनुमान जी द्रोणागिरी पर्वत तक संजीवनी बूटी लाने के लिए गए थे। वहां पर उनको संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई। उन्होंने पूरा पहाड़ उठा लिया और चल दिए। रास्ते में भरत जी ने उनको कोई राक्षस समझकर वाण मारकर घायल कर दिया था। वाण लगने के बाद वे फिर घायल अवस्था में ही चल दिए थे। यह मूर्ति करुण रस का प्रतीक है।

हनुमान जी की तीसरी मूर्ति वीर रस की प्रतीक है। इसमें हनुमान जी उड़ते हुए पुंछ में लगी आग से लंका को जला रहे होते हैं। उस समय के सबसे बड़े महाबली रावण के राजधानी में घुसकर अकेले के दम पर पूरे शहर में ही आग लगा देना बहुत वीरता का कार्य है। इस प्रकार यह मूर्ति वीर रस की मूर्ति है।

हनुमान जी की चौथी मूर्ति पंचमुखी हनुमान की मिलती है। इसे हम रुद्रावतार भगवान हनुमान जी का रौद्र रूप कह सकते हैं।

हनुमान जी के पंचमुखी रूप एक की कहानी है। राम और रावण के युद्ध के समय रावण के सबसे बड़े पुत्र अहिरावण ने अपनी मायवी शक्ति से स्वयं भगवान श्री राम और लक्ष्मण को मूर्क्षित कर पाताल लोक लेकर चला गया था। अहिरावण देवी का भक्त था और उसने राम और लक्ष्मण को देवी जी की मूर्ति के सामने बलि देने के लिए रख दिया। बलि देने के दौरान उसने पांच दीपक जलाए और देवी को आमंत्रित किया। उसने यह दीपक मंत्र शक्ति से अभिमंत्रित किए थे। देवी की शक्ति के कारण जब तक इन पांचों दीपकों को एक साथ में नहीं बुझाया जाता है तब तक अहिरावण का कोई अंत नहीं कर सकता था। अहिरावण की इसी माया को सामाप्त करने के लिए हनुमान जी ने पांच दिशाओं में मुख किए पंचमुखी हनुमान का अवतार लिया। पांचों दीपक को एक साथ बुझाकर अहिरावण का वध किया। इसके फलस्वरूप भगवान राम और लक्ष्मण उसके बंधन से मुक्त हुए। फिर श्री रामचंद्र जी और श्री लक्ष्मण जी को अपने दोनों कंधों पर बैठा कर हनुमान जी वापस अपने सैन्य शिविर में ले आए।

मैं आपको एक बार पुनः लंका दहन के समय ले चलता हूं। हनुमान जी लंका दहन के उपरांत अपने पूंछ कि तीव्र गर्मी से व्याकुल तथा पूँछ की आग को शांत करने हेतु समुद्र में कूद पड़े थे। उस समय उनके पसीने की एक बूँद जल में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया। पसीने की एक बूंद के कारण वह गर्भवती हो गई। इसी मछली से मकरध्वज उत्पन्न हुआ, जो हनुमान के समान ही महान् पराक्रमी और तेजस्वी था। वह मछली तैरती हुई अहिरावण के पाताल लोक के पास पहुंची। वहां पर वह अहिरावण की सेवकों द्वारा फेंके गए मछली पकड़ने के जाल में फंस गई। उस मछली के पेट को काटने पर महा प्रतापी मकरध्वज निकले। मकरध्वज को पाताल के राजा अहिरावण ने पातालपुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया था। पातालपुरी जाते समय हनुमान जी को मकरध्वज ने रोका। पिता और पुत्र में युद्ध हुआ और हनुमान जी ने मकरध्वज को मूर्छित कर अपनी पूंछ में बांध लिया। जब श्री राम और श्री लक्ष्मण को लेकर लौट रहे थे तब श्री रामचंद्र जी ने पूछा कि तुम्हारे पूंछ में बंधा हुआ यह कौन वानर है। परम प्रतापी हनुमान जी ने पूरी कहानी बताई। रामचंद्र जी ने मकरध्वज को आजाद कर पातालपुरी का राजा नियुक्त कर दिया। अगर भारत के दक्षिण क्षेत्र से कोई सुरंग इस प्रकार खोदी जाए कि वह पृथ्वी के दूसरे तरफ निकले तो वह उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के बीच में बसे होंडुरस नामक देश में पहुंचेगी।

हाल ही में वैज्ञानिकों ने मध्य अमेरिका महाद्वीप के होंडुरास में सियूदाद ब्लांका नाम के एक गुम प्राचीन शहर की खोज की है। वैज्ञानिकों ने इस शहर को आधुनिक लाइडर तकनीक से खोज निकाला है।

इस शहर के वानर देवता की मूर्ति भारतवर्ष के घुटनों के बल बैठे महावीर हनुमान की मूर्ति से मिलती है। यहां के भी वानर देवता की मूर्ति के हाथ में एक गदा है।

यही वह शहर है जिसे हम अहिरावण का पाताल लोक कहते हैं। इस बात को मानने के पीछे कई कारण हैं जिसमें प्रमुख हैं :-

1-यह सभी जगह अखंड भारत के ठीक नीचे हैं अखंड भारत से अगर कोई लाइन कोई सुरंग खोदी जाए तो वह उत्तरी अमेरिका के इन्हीं देशों के आसपास कहीं निकलेगी।

2-इन्हीं जगहों पर वक्त की हजारों साल पुरानी परतों में दफन सियुदाद ब्लांका में ठीक राम भक्त हनुमान के जैसे वानर देवता की मूर्तियां मिली हैं। अहिरावण को मारने के उपरांत वहां की राजगद्दी परम वीर हनुमान जी के पुत्र महाबली मकरध्वज जी को दी गई थी। इस प्रकार पाताल लोक जो की इस समय होंडुरास कहलाता है में वानर राज प्रारंभ हुआ। और वहां पर हनुमान जी की मूर्तियां भारी मात्रा में मिलती हैं।

3- वहां के इतिहासकारों का कहना है की प्राचीन शहर सियुदाद ब्लांका के लोग एक विशालकाय वानर देवता की मूर्ति की पूजा करते थे। यह मूर्ति तत्कालीन शासक मकरध्वज के पिता महाप्रतापी हनुमान जी की है।

इस प्रकार यह पुष्ट हुआ है कि अहिरावण के पाताल लोक को आज हम हौण्डुरस के नाम से जानते हैं। हौन्डुरस मध्य अमेरिका में स्थित देश है। पूर्व में ब्रिटिश हौन्डुरस (अब बेलीज़) से अलग पहचान के लिए इसे स्पेनी हौन्डुरस के नाम से जाना जाता था। देश की सीमा पश्चिम में ग्वाटेमाला, दक्षिण पश्चिम में अल साल्वाडोर, दक्षिणपूर्व में निकारागुआ, दक्षिण में प्रशांत महासागर से फोंसेका की खाड़ी और उत्तर में हॉण्डुरास की खाडी से कैरेबियन सागर से मिलती है। इसकी राजधानी टेगुसिगलपा है।

हनुमान जी के पंचमुखी स्वरूप की भी चर्चा कर लेते हैं। बजरंगबली के पंचमुखी स्वरूप में उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, पूर्व में हनुमान मुख और आकाश की तरफ हयग्रीव मुख है।

जीवन के प्रवाह में शांत रस, वीर रस, करुण रस और रौद्र रस सभी की आवश्यकता पड़ती है। जब सामान्य समय है आप शांत रूप में रह सकते हैं। जब कोई विपत्ति पड़ती है तब अपने आप आपके अंदर से करुण रस बाहर आता है। इस विपत्ति के समय पर विजय पाने के लिए आपको वीर बनना पड़ता है। फिर आपको वीर रस की आवश्यकता होती है। जब किसी कारण बस आप अत्यंत क्रोध में होते हैं तब आपका रौद्र रूप सामने आता है।

इस प्रकार जीवन के उठापटक में सभी को चारों तरह के गुणों की आवश्यकता पड़ती है। हनुमान चालीसा के अंत में तुलसीदास जी हनुमान जी से यही मांग कर रहे हैं कि आप चारों उनके हृदय में निवास करें।

जय श्री राम। जय हनुमान। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #179 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 179 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद 

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ मन की बातें, मन ही जाने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मन की बातें, मन ही जाने।)  

? अभी अभी ⇒ मन की बातें, मन ही जाने? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

मन रे, तू काहे न धीर धरे ! गोपियों ने तो आसानी से कह दिया, उधो ! मन नहीं दस बीस। मन की शरीर में एक्ज़ेक्ट लोकेशन किसी को पता नहीं है। कभी लोग दिल को मन मान   बैठते हैं, तो कभी दिमाग को।

मन संकल्प विकल्प करता है, और दिमाग सोचता है। अगर कभी, मन नहीं करे, तो दिमाग कुछ सोचता भी नहीं। आप कह सकते हैं कि दिल और दिमाग़ पर मन की दादागिरी है। ।

अध्यात्म में मन पर लगाम कसने की बात की जाती है। मन बड़ा उच्छ्रंखल है ! साहिर ने मन पर पीएचडी की है ! तोरा मन दर्पण कहलाये। भले बुरे, सारे कर्मों को, देखे और दिखाए। यानी मन, मन ना हुआ, किसी पुराने फिल्मी थिएटर का प्रोजेक्टर  हुआ। वह फ़िल्म देखता भी है, और उसे दर्शकों को दिखाता भी है। एक व्यक्ति मन मारकर प्रोजेक्टर चलाता है, हम मन लगाकर फ़िल्म देखते हैं। सही भी तो है ! कहीं हमारा मन लग जाता है, और कहीं हमें मन को मारना पड़ता है।

हमारे शरीर में जितना स्थूल है, वह सूक्ष्म यंत्रों से देखा जा सकता है। दिल, दिमाग़, लिवर और किडनी ! किडनी दो, बाकी तीनों एक एक। दो दो हाथ, दोनों कान, दो ही आँख, और एक बेचारी नाक ! हमारी समझ से बाहर की बात है। दाँतों तले उँगली दबाइए, और उस बनाने वाले का एहसान मानिए। ।

जो हमारे अंदर है, लेकिन नहीं नज़र आते, वे मन, चित्त, बुद्धि, और अहंकार हैं। जब हम मन की बात करते हैं, तो कभी उसके विकारों की बात नहीं करते। दुनिया में इतनी बुराई है, कि हमें अपनी बुराई कहीं नजर ही नहीं आती। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार को मन के विकार माना गया है। भले ही आप इन्हें विकार मानें, लेकिन इनके बिना भी कहीं संसार चला है।

बुद्धि का काम सोच विचार करना है। चित्त और मन को आप अलग नहीं कर सकते ! हमारे लिए तो दिल, चित्त और मन सब एक ही बात है। कौन ज़्यादा मगजमारी करे। हमारी आम भाषा में अगर कहें तो भई दिल को साफ रखो। किसी के प्रति मन में मैल न आने दो और चित्त शुद्धि के प्रति सजग रहो। ।

एक गांठ होती है, जिसे प्रेम की गांठ कहते हैं। यह जितनी मजबूत हो, उतनी अच्छी ! दुश्मनी की गांठ अगर ढीली होती जाए, खुलती चली जाए, तो बेहतर। दुश्मनी दोस्ती में बदल जाए, तो और भी  बेहतर।

मन में भी गांठ पड़ जाती है ! यह बहुत बुरी होती है। चिकित्सा पद्धति में  शरीर की किसी भी गांठ का इलाज है, मन की गांठ का नहीं। प्रेम, भक्ति और समर्पण ही वह संजीवनी औषधि है, जो मन की गांठ को खोल सकते हैं। जब मन मुक्त होता है, मस्त होता है, तब ही ये बोल सार्थक होते हैं;

मन मोरा बावरा !

निस दिन गाए, गीत मिलन के ..

चिंता को चिता कहा गया है !

कम सोचो। चिंतन अधिक करो। किसी माँ को कभी मत सिखाना कि चिंता मत करो।

माँ का नाम ही care and concern है। हम भी अगर खुद का खयाल रखें, और थोड़ी बहुत दूसरों की भी चिंता करें, तो कोई बुरा नहीं। मन लगा रहेगा, दिल को तसल्ली मिलेगी और हाँ, थोड़ा बहुत चित्त भी शुद्ध होगा। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ चेहरा और किताब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चेहरा और किताब।)  

? अभी अभी ⇒ चेहरा और किताब? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जो किताब पढ़े, वह रीडर, और जो चेहरा पढ़े, वह फेस रीडर। किताब कोई खत का मजमून नहीं, कि बिना खोले ही पढ़ लिया। किताब पढ़ने के लिए पढ़ा लिखा होना जरूरी  होता है लेकिन चेहरा तो कोई भी आसानी से पढ़ सकता है, उसके लिए कौन से ढाई अक्षर पढ़ना जरूरी है।

सुना है, चेहरे को दिल की किताब कहते हैं। यानी यह भी सिर्फ सुना ही है, किताबों में नहीं पढ़ा।

न जाने क्यों हम सुनी सुनाई बातों पर विश्वास कर लिया करते हैं। जब कि हमारे कबीर साहब जानते हैं क्या फरमा गए हैं ;

तू कहता कागद की लेखी

मैं कहता आंखन की देखी;

यानी किताबों में लिखा झूठ, और आंखों देखा सच। अजीब उलटबासी है भाई ये कबीर की वाणी। ।

किताबों में किस्से कहानियां होती हैं, चलिए मान लिया, तस्वीर भी हो सकती है, लेकिन आपको किताब खोलनी पड़ती है, किताबों के पन्ने पलटना होता है किताब को पढ़ना पड़ता है, जब कि कुछ चेहरे तो बिलकुल मानो, खुली किताब ही होते हैं। कोई किताबों में डूबा हुआ है, तो कोई किसी के चेहरे को ही पढ़ता चला जा रहा है।

उधर पन्नों में आंखें गड़ाई जा रही है और इधर झील सी आंखों में गोते लगाए जा रहे हैं। हम भी डूबेंगे सनम, तुम भी डूबोगे, सनम। कोई थोड़ा ज्यादा तो कोई थोड़ा कम। कभी कोई किताब, तो कभी की किसी का चेहरा, पढ़ते हैं हम।।

हम कोई गोपालदास नीरज तो नहीं कि शौखियों में शबाब और फूलों में शराब को मिलाकर प्यार का नशीला शर्बत तैयार कर दें, लेकिन चेहरे और किताब की कॉकटेल बनाकर पेश जरूर कर सकते हैं। जी हां, फेसबुक वही कॉकटेल तो है, जहां हर चेहरा एक खुली किताब है।

स्कूल कॉलेज में कॉपी किताबें होती थीं, उनके पन्ने होते थे। फेसबुक एक ऐसी चेहरे वाली किताब है, जिसमें चेहरों वाले पन्ने ही पन्ने हैं। किसी का भी चेहरा निकालो, और पढ़ना शुरू कर दो। हुई ना यह चेहरों वाली किताब। ।

किसी के लिए यह एक चलता फिरता, घर पोंच वाचनालय है तो किसी के लिए एक छापाखाना। यहां कहीं खबरें बिखरी हैं तो कहीं गप्पा गोष्ठी और साहित्य विमर्श हो रहा है।

यहां अभ्यास मंडल भी है और संसद का शून्य काल भी।

किसी ने अपने घर में ताला लगा रखा है तो कहीं प्रवेश निषेध है। सबसे बड़ी खूबी इसमें यह है कि यह 24×7 मुक्त विश्वविद्यालय यानी एक ओपन यूनिवर्सिटी है। कुछ लोग यहां पढ़ने पढ़ाने, तो कुछ टाइम पास करने भी आते हैं। ।

कितनी किताबें, कितने पन्ने और कितने चेहरे ! यहां हर चेहरा कुछ कहता है। एक दूसरे के सुख दुख में शामिल होता है। वह यहां अपनी कहता है, तो दूसरों की सुनता भी है। हंसता, मुस्कुराता, खिलखिलाता है। आज अगर मुकेश होते तो शायद वे भी यही गुनगुनाते ;

फेसबुक की दुनिया में

आ गया हूं मैं

आ गया हूं मैं ..!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 30 – देश-परदेश – ट्विन टावर (नोएडा) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 30 ☆ देश-परदेश – ट्विन टावर (नोएडा) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पूरी दुनिया में रविवार को फुरसतवार भी कहा जाता हैं। अट्ठाईस तारीख, हम बैंक पेंशनर के लिए भी भी बड़ा महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि हर सत्ताईस तारीख़ को पेंशन की राशि खातों में जमा होती है, इसलिए अगला दिन बाजार से आने वाले माह के लिए सामान खरीदने से लेकर सुविधाओं के बिलों का भुगतान और ना जाने कितने काम रहते है, पेंशन मिलने के बाद।

जेब (खाते) में आई हुई राशि को सुनियोजित ढंग से खर्चे को बिना चर्चा किए हुए अपनी महीने भर का गुज़ारा “आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया” से पूरा करना ही हमारे जैसे सेवानिवृत्त लोगों का जीवन रह गया हैं।   

यहां पूरे देश में कुछ अलग ही माहौल है, चर्चा तो सिर्फ ट्विन टॉवर की हो रही हैं। हमारा मीडिया कुछ दिन पूर्व से ही घटना स्थल पर डेरा डाल कर बैठा हुआ था।

प्रशासन, पुलिस, अग्निशमन, पॉल्यूशन विभाग, सड़क यातायात से लेकर वायु मार्ग पता नहीं कितने और विशेषज्ञ प्रकार के प्राणी इस कार्य को अंजाम करने में लगे होंगे।

दस किलोमीटर दायरे तक में रहने वाले निवासी दहशत में हैं। सी सी टी वी लोगों ने अपने घरों में लगाकर दूर से इस घटना को कैद किया। नजदीक के सुरक्षित एरिया में दृश्य का नज़ारा बड़ी बड़ी दूरबीन से देखा गया। खान पान में स्थानीय लोगों ने “गुड” का सेवन कर लिया था, ताकि वातावरण की धूल का उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर ना पड़े। आसपास की दवा की दुकानों ने एलर्जी से बचाव की दवाइयां मंगवा कर स्टॉक कर ली थी, ताकि वहां रहने वालों को अपातकाल में कोई कठिनाई ना हो।

दिल्ली और लखनऊ के कुछ बड़े टुअर ऑपरेटर ने इसको प्रोत्साहित करने के लिए पूरी बस जिसमें चारों तरफ कांच लगा हुआ है के द्वारा ट्रिप के माध्यम से इस नज़ारे को नजदीक से दिखाने के झूठे प्रचार भी कर रहे हैं।

टावर गिराने की कार्यवाही होते ही, “मीडिया दूत” और कैमरा चालक धूल और गुब्बार की परवाह किए बिना मलबे के बिलकुल पास तक घुस गए। वैसे इनको “मीडिया घुसक” की संज्ञा भी दी जाती है। ब्लास्ट का बटन किसने दबाया, उनके मन में उस समय क्या चल रहा था, पता नहीं कितनी बातें उगलवाने में इनका तजुर्बा रहता है।

ऐसा बताया जा रहा है, वहां आस पास मेले जैसा माहौल था, तो खाने पीने के स्टाल भी अवश्य लगे होंगें, बच्चों ने झूले झूल कर गिरते हुए टावर का मज़ा लिया होगा।

क्रिकेट खेल प्रेमियों का कहना है, एशिया कप में, भारत की जीत होनी निश्चित थी, इसलिए  ये तो अग्रिम जश्न के टशन थे। वैसे पड़ोसी देश पाकिस्तान में आज पुराने टीवी सेट की बड़ी मांग थी, इसी के मद्देनज़र दिल्ली के बड़े कबाड़ियों ने यहां से पुराने टीवी सेट वहां भेज कर चांदी काट ली थी।

नोएडा निवासी मित्र को फोन कर वहां का  हाल चाल पूछा था। बातचीत में उसने बताया की उसके बेटे की दिसंबर में शादी है, शादी का स्थान पूछने पर उसने बताया था कि जहां ट्विन टॉवर है, उसके धराशायी होने के बाद उसी खाली प्लॉट में ही शामियाना लगा कर वहीं करेगा। इतनी दूरदृष्टि हम भारतीयों में ही होती है। पुरानी कहावत है “शहर बसा नहीं और चोर पहले आ गए”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 22 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 22 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।  होय सिद्धि साखी गौरीसा।।

तुलसीदास सदा हरि चेरा।  कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।

अर्थ:- हनुमान चालीसा के पाठ करने वालों को निश्चित रूप से सिद्धि मिलती है। भगवान शिव इसके गवाह हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि वे प्रभु के भक्त हैं। अतः प्रभु उनके हृदय में निवास करें।

भावार्थ:- तुलसीदास जी भगवान शिव को साक्षी बनाकर कह रहे हैं कि जो भी व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसको निश्चित रूप से सिद्धियां प्राप्त होगी। तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा की रचना भगवान शिव की प्रेरणा से की है। अतः वे उन्ही को साक्षी बता रहे हैं।

अंतिम मांग के रूप में तुलसीदास जी कह रहे हैं की वे हरि के भक्त। हरि शब्द का संबोधन भगवान विष्णु और उनके अवतारों के लिए किया जाता है। अतः यहां पर यह श्रीराम के लिए लिया गया है। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी हनुमान जी पर दबाव डालकर मांग कर रहे हैं की वे हमेशा तुलसीदास जी के हृदय में निवास करें।

संदेश:- सुख-शांति प्राप्त करने के लिए भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए।

चौपाई को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ:-

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।  होय सिद्धि साखी गौरीसा।।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई से शिव पार्वती की कृपा होती है

तुलसीदास सदा हरि चेरा।  कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।

इस चौपाई का पाठ निरंतर करने से प्रभु श्री राम और हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती है।

विवेचना:- जब कोई ग्रंथ आपके सामने आता है तो उसको पढ़ने के लिए आपके अंदर एक धनात्मक प्रोत्साहन होना चाहिए। यह प्रोत्साहन ग्रंथ के अंदर जो विषय है उस विषय के प्रति आपकी रूचि हो सकती है जैसे जंगल के ज्ञान की पुस्तकें। यह भी हो सकता है उसके ग्रंथ में कुछ ऐसा ज्ञान दिया हो जिससे आपको भौतिक लाभ हो सकता हो, जैसे ही योग की पुस्तकें। हो सकता है कि वह ग्रंथ आपको धन कमाने के रास्ते बताएं जैसे इकोनामिक टाइम्स आदि। अगर ग्रंथ में कोई ऐसी बात नहीं होगी जो आपको उस ग्रंथ को पढ़ने के लिए प्रेरित करें तो आप उस ग्रंथ को नहीं पढ़ेंगे।

पहली चौपाई “जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा।।” में गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी प्रोत्साहन को देने की कोशिश की है। जिससे आप हनुमान चालीसा को पढ़ें और उसका पाठ कर लाभ प्राप्त कर सकें। इसके पहले की चौपाई में मैंने हनुमान चालीसा से डॉ तलवार को प्राप्त होने वाले लाभ के बारे में बताया था। अगर मैं किसी और लाभ के बारे में बताता तो संभवत हमारे बुद्धिमान लोगों को आलोचना करने का मौका मिल जाता। इसलिए मैंने एक ऐसे प्रकरण का उल्लेख किया है जो सब को ज्ञात है तथा दैनिक जागरण जैसे प्रतिष्ठित अखबार ने प्रकाशित किया था। जेल के अधिकारियों ने दैनिक जागरण को बताया था डॉ तलवार स्वयं प्रतिदिन जब भी उनको समय मिलता था वे हनुमान चालीसा का पाठ करते थे। इसके अलावा जेल के अन्य लोगों को भी हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। जब डा तलवार हाईकोर्ट से बरी हुए तब उन्होंने सबको बताया की यह हनुमान जी की कृपा से संभव हुआ है। प्रकरण कुछ यूं है :-

26 नवम्बर 2013 को विशेष सीबीआई अदालत ने आरुषि-हेमराज के दोहरे हत्याकाण्ड में राजेश एवं नूपुर तलवार को आईपीसी की धारा 302/34 के तहत उम्रक़ैद की सजा सुनाई। दोनों को धारा 201 के अन्तर्गत 5-5 साल और धारा 203 के अन्तर्गत केवल राजेश तलवार को एक साल की सजा सुनायी। इसके अतिरिक्त कोर्ट ने दोनों अभियुक्तों पर जुर्माना भी लगाया। सारी सजायें एक साथ चलेंगी और उम्रक़ैद के लिये दोनों को ता उम्र जेल में रहना होगा। इस आदेश के विरोध में दोनों लोगों ने हाईकोर्ट में याचिका लगाई। 12 अक्टूबर 2017 को इलाहाबाद हाइकोर्ट द्वारा आरुषि के माता-पिता को निर्दोष करार दे दिया गया और वे जेल से रिहा हो गये।

हनुमान चालीसा की और हनुमान जी की कृपा की का एक और प्रत्यक्ष उदाहरण छतरपुर जिले के बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र शास्त्री और भिंड जिला के रावतपुरा सरकार सिद्ध क्षेत्र के श्री रविशंकर जी महाराज का प्रकरण है। दोनों के ऊपर उनके इष्ट की महान कृपा कभी भी देखी जा सकती है। इनके अलावा ईशान महेश जी जो कि एक लेखक है उन्होंने वृंदावन के श्री चिरंजीलाल चौधरी जी का नाम बताया है जिनके ऊपर भी पवन पुत्र की कृपा है। चौथा उदाहरण श्री एम डी दुबे साहब का है जो संजीवनी नगर जबलपुर में निवास करते हैं।

इस प्रकार हम ने चार उदाहरण बताएं हैं। ये सभी वर्तमान समय में जीवित हैं और जिनके ऊपर हनुमत कृपा है। मैंने वर्तमान के उदाहरण ही लिए हैं। इसका कारण यह है अगर कोई परीक्षण करना चाहे तो कर सकता है।

इस चौपाई के माध्यम से तुलसीदास जी कह रहे हैं कि जो व्यक्ति इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा उसको सिद्धि प्राप्त हो जाएगी। यहां प्रमुख बात यह है की पाठ करने का अर्थ पढ़ना नहीं है। पाठ करने की अर्थ को हम पहले की चौपाइयों की विवेचना में विस्तृत रूप से बता चुके हैं। संक्षेप में मन क्रम वचन से एकाग्र होकर बार-बार बार-बार पढ़ने को पाठ करना कहते हैं। तुलसीदास जी ने इसी चौपाई में कहा है कि इसके साक्षी गौरीसा अर्थात गौरी के ईश भगवान शिव स्वयं हैं।

हम सभी जानते हैं कि तुलसीदास जी को गोस्वामी तुलसीदास भी कहा जाता है। गोस्वामी का अपभ्रंश गोसाई है। गोसाई समुदाय के गुरु भगवान शिव होते हैं। तुलसीदास जी ने इस पुस्तक को अपने गुरु को समक्ष मानते हुए लिखा है। अतः उन्होंने कहा है कि इस पुस्तक में लिखी गई हर बात के साक्षी उनके गुरु हैं। गोसाई के गुरु भगवान शिव होते हैं अतः भगवान शिव साक्षी हुए। हनुमान चालीसा में हनुमत चरित्र पर पूर्ण रुप से प्रकाश डाला गया है।

इस चौपाई से गोस्वामी तुलसीदास जी यह भी कहना चाहते हैं श्री हनुमान जी का जो हनुमान चालीसा में चरित्र चित्रण किया गया है उसका बार-बार पाठ करना चाहिए। एकाग्रता से पाठ करने पर आपकी वाणी पवित्र होगी। इसके अलावा आपके जीवन का दृष्टिकोण बदलेगा। जीवन का दृष्टिकोण बदलने से आपको सभी बंधनों से मुक्ति मिल जाएगी। जो ग्रंथ पढना है उसके प्रति आत्मीयता और आदर होना चाहिए तभी आप में संस्कार आएगा। हनुमान चालीसा पढते समय हनुमानजी कैसे हैं? हनुमानजी के विविध गुणों को जानकर-पहचानकर सभी बंधनों से हम मुक्त हो सकते हैं।

हनुमान चालीसा पढ़ने से आप सिद्ध हो जाएंगे इसकी गारंटी स्वयं भगवान शिव दे रहे हैं। आइए हम इस पर विचार करते हैं कि सिद्ध होना क्या है।

यह एक संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ है जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो। सिद्धि का शाब्दिक अर्थ है महान शारीरिक मानसिक या आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त करने से है। जैन दर्शन में सिद्ध शब्द का प्रयोग उन आत्माओं के लिए किया जाता है जो संसार चक्र से मुक्त हो गयीं हों।

ज्योतीरीश्वर ठाकुर जो बिहार के एक विद्वान हुए हैं उनके द्वारा सन १५०६ में मैथिली में रचित वर्णरत्नाकर में ८४ सिद्धों के नामों का उल्लेख है। इसकी विशेष बात यह है कि इस सूची में सर्वाधिक पूज्य नाथों और बौद्ध सिद्धाचार्यों के नाम सम्मिलित किए गये हैं।

अतः इस चौपाई का आशय है कि आप मन क्रम वचन की एकाग्रता के साथ हनुमान चालीसा का पाठ करें। बार बार पाठ करें। आपको सिद्धि मिलेगी। इस बात की गवाही भगवान शिव भी स्वयं देते हैं।

हनुमान चालीसा की चौपाई श्रेणी की अंतिम पंक्ति है “तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।” इस पंक्ति में तुलसीदास जी ने पुनः हनुमान जी से मांग की है। इस चौपाई के पहले खंड में तुलसीदास जी ने अपना परिचय दिया है उन्होंने बताया है कि मैं हमेशा हरि याने श्री राम चंद्र जी का सेवक हूं। अब यहां पर तीन बातें प्रमुखता से आती हैं। पहली बात है कि इस चौपाई में तुलसीदास जी ने अपना नाम क्यों दिया ? दूसरी बात उन्हों ने अपने आपको हरि का दास क्यों बताया ? तीसरी बात है की उन्होंने अपने आपको श्री हनुमान जी का दास क्यों नहीं बताया ? ये प्रश्न संभवत आपके दिमाग में भी आ रहे होंगे। आपने इनका उत्तर भी सोचा होगा। हो सकता है मेरा और आपका जवाब आपस में ना मिले। आपसे अनुरोध है कि आप मेरे ईमेल पर अपने विचार अवश्य भेजें। मेरे ईमेल का पता है :- [email protected]

बहुत पहले पुस्तके ताड़ पत्र पर लिखी जाती थी। लिखने में समय बहुत लगता था तथा ज्यादा प्रतियां लिखी नहीं जा पाती थी। अतः उस समय मौखिक साहित्य ज्यादा रहता था। इसे मौखिक परंपरा का काव्य कहते थे। साहित्य जब लिखित रूप में होता हैं तो उस पर लेखक या कवि का नाम भी होता है। मौखिक परंपरा में कवि का नाम बताना भी आवश्यक था। इस आवश्यकता की पूर्ति कवि कविता के अंत में अपने नाम को लिखकर, कर देता था। इसे कवि का हस्ताक्षर भी कहते हैं। संभवत तुलसीदास जी ने इसी कारणवश हनुमान चालीसा के अंत में अपने हस्ताक्षर किए हैं। मगर यहां पर एक दूसरा कारण और भी है। तुलसीदास जी ने इस पंक्ति के माध्यम से अपना मांग पत्र भी प्रस्तुत किया है।

हमारा दूसरा प्रश्न है तुलसीदास जी ने अपने आप को श्री रामचंद्र जी का दास क्यों कहा है।

 भक्तों के कई प्रकार होते हैं। कुछ लोग अपने आपको अपने इष्ट का दास कहते हैं। जैसे तुलसीदास जी हनुमान जी आदि।

 कुछ लोग अपने को अपने इष्ट का मित्र बताते हैं। इसे सांख्य भाव भी कहते हैं। इसमें भक्त अपने आपको अपने इष्ट का मित्र बताते हैं और मित्रवत व्यवहार करने की मांग भी करते हैं। जैसे की गोपियां भगवान कृष्ण को अपना मित्र मानती थी।

 कुछ लोग अपने इष्ट को अपना पति मानते हैं। जैसे श्री राधा जी भगवान कृष्ण को अपना पति मानती थीं।

 यह सभी सगुण भक्ति की धाराएं हैं। कोई भी भक्त एक या एक से अधिक प्रकार से ईश्वर से प्रेम कर सकता है। मीराबाई भगवान कृष्ण की भक्त थीं। वे कृष्ण को अपना प्रियतम, पति और रक्षक मानती थीं। वे स्वयं को भगवान कृष्ण की दासी बताते हुए कहती हैं-.

 “दासी मीरा लाल गिरधर,  हरो म्हारी पीर.”

गीता में भगवान श्रीकृष्ण चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं:-

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। (७। १६)

 (श्रीमद्भगवत गीता/अध्याय 7/श्लोक 16)

अर्थात, हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है। इन भक्तों का विवरण निम्नानुसार है।

1-आर्त :- आर्त भक्त वह है जो कष्ट आ जाने पर या अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है। हर युग में इस तरह के भक्तों की अधिकता रही है।

2-अर्थार्थी :- अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।

3-जिज्ञासु :- जिज्ञासु भक्त संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है।

4-ज्ञानी :- ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं।

अब प्रश्न उठ रहा है की सर्वश्रेष्ठ भक्त कौन है? इसका उत्तर भगवान ने स्वयं गीता ने दिया है:-

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।। 17।।

श्री कृष्ण जी कहते हैं कि जो परम ज्ञानी है और शुद्ध भक्ति भाव से ईश्वर की भक्ति में लगा रहता है, वहीं सर्वश्रेष्ठ भक्त है। इसलिए क्योंकि उस भक्तों के लिए मैं प्रिय हूं और मेरे लिए वह भक्त प्रिय है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है और साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।

भक्तों के तरह से भक्ति भी कई प्रकार की होती है। भक्ति का वर्गीकरण भी कई प्रकार से किया गया है। भक्तों के वर्गीकरण का एक तरीका नवधा भक्ति भी है। कहां गया है :-

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवण : ईश्वर की लीलाओं को सुनना, ध्यान पूर्वक सुनना और निरंतर सुनना।

कीर्तन : ईश्वर के गुण, और लीलाओं को ध्यान मग्न होकर निरंतर गाना।

स्मरण : निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना,

अर्थार्थी :- अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।

पाद सेवन : ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना।

अर्चन : मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

वंदन : भगवान की मूर्ति को, भगवान के भक्तजनों को, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से सेवा करना।

दास्य : ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

साख्य : ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्म निवेदन : अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं की तुलसीदास जी के भक्ति दास भक्ति का एक उदाहरण है। तुलसीदास जी भगवान कृष्ण की गीता में दिए गए उपदेश के अनुसार ज्ञान भक्तों के भी उदाहरण हैं। इसके अलावा नवधा भक्ति में आत्म निवेदन की अवस्था में है जो की भक्ति का सबसे अच्छा उदाहरण है। इन्हीं सब कारणों से तुलसीदास जी ने अपने आप को श्री राम का दास कहा है।

अगला प्रश्न है कि हनुमान चालीसा हनुमान जी के ऊपर केंद्रित है। फिर इस ग्रंथ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने आपको श्री राम का दास क्यों कहा है ? हनुमान जी का दास क्यों नहीं का कहा। ?

बाल्मीकि रामायण में श्री रामचंद्र जी के अवतारी पुरुष होने की चर्चा है। इस ग्रंथ में महावीर हनुमान जी के पराक्रम की भी चर्चा है। लेकिन श्री हनुमान जी के ईश्वरी सत्ता के बारे में रामायण में अत्यंत अल्प लिखा गया है। वाल्मीकि के हनुमान बुद्धिमान हैं, बलवान हैं, चतुर सुजान हैं, लेकिन वो भगवान नहीं हैं।

तुलसीदास जी ने वाल्मीकि जी के इस अधूरे कार्य को भी पूरा कर दिया हैं। गोस्वामी तुलसी जी के श्री हनुमान जी एकादश रुद्र हैं। तुलसी के हनुमान जी एक महान ईश्वरीय सत्ता हैं जिनका जन्म राम काज के लिए हुआ है। रामचरितमानस में इस बात को कई जगह लिखा गया है। एक उदाहरण यह भी है :-

“राम काज लगि तव अवतारा, सुनतहिं भयउ परबतकारा”

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में तो हनुमान जी की ईश्वरीय सत्ता का वर्णन किया ही है, साथ में उन्होंने हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमान बाहुक आदि की रचना कर हनुमान जी की अलौकिक सत्ता को स्थापित किया है।

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन चरित्र पर जाना पड़ेगा।

तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा अपने बाल्यकाल में लिखी थी। केवल अपने लिए लिखी थी। उस समय हनुमान चालीसा जन-जन के पास नहीं पहुंच पाई होगी। बाद में तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखा। रामचरितमानस का विरोध काशी के ब्राह्मणों ने किया। इस विरोध के कारण रामचरितमानस को प्रसिद्धि मिली। कहा जाता है की भगवान विश्वनाथ जी ने भी रामचरितमानस की पवित्रता के ऊपर अपनी मुहर लगाई। रामचरितमानस लिखने के दौरान तुलसीदास जी पूरी तरह से राममय में हो गए थे। इसके बाद उन्होंने अपने पुराने सबसे पुराने ग्रंथ हनुमान चालीसा को फिर से लिखा। हो सकता है कि पुनर्लेखन में इस लाइन को बदला हो। इस लाइन को बदलना भी उचित था क्योंकि श्रीराम तो सबके प्रभु है। हनुमान जी के भी प्रभु हैं। तुलसीदास जी के भी प्रभु हैं। परंतु हनुमान जी श्री रामचंद्र जी के प्रभु नहीं हैं। वे उनके भाई हैं सखा हैं और सेवक हैं।

आइए थोड़ी सी चर्चा तुलसीदास जी के राम भक्त बनने के कारणों के ऊपर करते हैं।

इसी पुस्तक में पहले मैं आपको बता चुका हूं कि तुलसीदास जी का बाल्यकाल कितनी परेशानियों से गुजरा। गुरु नरहरीदास जी उनको भगवान शिव की आज्ञा अनुसार अपने गुरुकुल में ले गए थे।

गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूर्ण कर गोस्वामी तुलसीदास जी अपने गांव आ गए। वे आसपास के गांव में राम कथा कहने लगे। अब वे काम करने लगे थे तो  उनका विवाह पास के गांव के रत्नावली जी से हो गया। तुलसी दास अपनी पत्नी से अगाध प्रेम करते थे। एक बार जब रत्नावली अपने मायके में थी तब तुलसी उनके वियोग में इस कदर व्याकुल हुए कि रात के समय भयंकर बाढ़ में यमुना में बहे जा रहे एक शव को पेड़ का तना समझकर उसी के सहारे अपनी ससुराल पंहुच गए।

ससुराल में सभी सो रहे थे। तुलसीदास जी एक रस्सी को पकड़कर अपनी पत्नी के कमरे में पहुंच गए। उनकी पत्नी का कमरा ऊपर की मंजिल पर था। सुबह मालूम चला कि जिसको वे रस्सी पकड़े थे वह वास्तव में सांप था। रत्नावली जी को यह बात अच्छी नहीं लगी। रत्नावली को लगा जब दूसरे लोगों को पता चलेगा सभी मिलकर मेरी कितनी हंसी उड़ाएंगे। उन्होंने तुलसी को झिड़कते हुए डांट लगाई और कहा :-

अस्थि चर्म मय देह मम तामे ऐसी प्रीत,

ऐसी जो श्री राम मह होत न तव भव भीति।।

रत्ना जी की इन शब्दों में तुलसीदास जी को तरह जागृत कर दिया। यह जागृति उसी प्रकार की थी जैसा कि जामवंत जी ने समुद्र पार जाने के लिए हनुमान जी को जागृत किया था। अब तुलसीदास जी को सिर्फ रामचंद्र जी ही दिख रहे थे।

इस प्रकार तुलसी दास जी को भगवान राम की भक्ति की प्रेरणा अपनी पत्नी रत्नावली से प्राप्त हुई थी।

अपने ससुराल से निराश हो तुलसी एक बार फिर राजापुर लौट आए। राजापुर में तुलसी जब शौच को जाते तो लौटते समय लोटे में बचा पानी रास्ते में पड़ने वाले एक बबूल के पेड़ में डाल देते। इस पेड़ में एक आत्मा रहती थी। आत्मा को जब रोज पानी मिलने लगा तो आत्मा तृप्ति होकर तुलसीदास जी पर प्रसन्न हो गई। वह आत्मा तुलसीदास जी के सामने प्रकट हुई। उसने पूछा कि आपकी मनोकामना क्या है ? आप क्यों मुझे रोज पानी दे रहे हो ? इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास जी ने राम जी के दर्शन की अभिलाषा प्रगट की।

यह सुनने के बाद उसने कहा कि श्री रामचंद्र जी के दर्शन के पहले आपको हनुमान जी के दर्शन करने होंगे। हनुमान जी आपका दर्शन आसानी से श्रीराम से करा सकते हैं। उन दिनों राजापुर में तुलसीदास जी की कथा चल रही थी। आत्मा ने स्पष्ट किया कि कथा में जो सबसे पहले आए और सबसे बाद में जाए, सबसे पीछे बैठे और उसके शरीर में कोढ़ हो तो वही श्री हनुमान जी होंगे। आप उनके पैर पकड़ लीजिएगा। गोस्वामी जी ने यही किया और कोढ़ी जी के पैर पकड़ लिए। बार-बार मना करने पर भी उन्होंने पैर नहीं छोड़ा। अंत में हनुमान जी प्रकट हुए।

श्री हनुमान जी ने तुलसीदास जी से कहा कि आप चित्रकूट जाकर वही निवास करें। चित्रकूट के घाट पर अपने इष्ट के दर्शन की प्रतीक्षा करें। तुलसीदास जी ने अपना अगला ठिकाना चित्रकूट बनाया। तुलसी चित्रकूट में मन्दाकिनी तट में बैठ प्रवचन करते हुए राम के इन्तजार में समय बिताने लगे। परंतु उनको श्री राम जी के दर्शन नहीं हुए। उन्होंने फिर से हनुमान जी को याद किया। हनुमान जी ने प्रकट होकर कहा श्री राम जी आए थे। आपने उनको तिलक भी लगाया था। परंतु संभवत आप उनको पहचान नहीं पाए।

तुलसीदास जी पछताने लगे कि वह अपने प्रभु को पहचान नहीं पाए। तुलसीदास जी को दुःखी देखकर हनुमान जी ने सांत्वना दिया कि कल सुबह आपको फिर राम लक्ष्मण के दर्शन होंगे।

प्रातः काल स्नान ध्यान करने के बाद तुलसी दास जी जब घाट पर लोगों को चंदन लगा रहे थे तभी बालक के रूप में भगवान राम इनके पास आए और कहने लगे कि “बाबा हमें चंदन लगा दो”।

हनुमान जी को लगा कि तुलसीदास जी इस बार भी भूल न कर बैठें इसलिए तोते का रूप धारण कर गाने लगे:-

 ‘चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर। तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥’

 तुलसीदास जी श्री रामचंद्र जी को देखने के बाद अपनी सुध बुध खो बैठे। फिर रामचंद्र ने स्वयं ही तुलसीदास जी का हाथ पकड़कर अपने माथे पर चंदन लगाया। इसके बाद उन्होंने तुलसीदास जी के माथे पर तिलक किया। इसके बाद श्री रामचंद्र अंतर्ध्यान हो गए।

 इस घटना के उपरांत तुलसीदास जी ने अन्य ग्रंथ जैसे कवितावली दोहावली विनय पत्रिका और श्रीरामचरितमानस आदि ग्रंथों की रचना की। श्रीरामचरितमानस मैं उन्होंने श्री रामचंद्र जी के विभिन्न गुणों का बखान किया है जैसे कि तुलसी के राम पापी से पापी व्यक्ति को अपना लेते हैं। उनकी शरण में कोई भी आ सकता है :–

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।

गएं सरन प्रभु राखिहें तव अपराध बिसारि।।

हिंदुओं में शैव और वैष्णव संप्रदाय के बीच की एकता के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि:-

 शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेहुं नहीं पावा।।

अर्थात : “जो भगवान शिव के द्रोही हैं वो मुझे सपने में भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ”

श्रीराम जी पुनः कहते है –

शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास।

तेहि नर करें कलप भरि, घोर नरक में वास।।

अर्थात : “जो शंकर के प्रिय हैं और मेरे द्रोही हैं या फिर जो शिव जी के द्रोही है और मेरे दास हैं वो नर हमेशा नरक में वास करते हैं।

उपरोक्त घटना से यह स्पष्ट होता है कि तुलसीदास जी श्री रामचंद्र जी के अनन्य भक्त थे।

आइए अब हम इस चौपाई के अंतिम शब्दों की चर्चा करते हैं। इस चौपाई में के अंत में लिखा है “कीजै नाथ हृदय महं डेरा”। इस पद का अर्थ बिल्कुल साफ है। तुलसीदास जी ने चौपाई क्रमांक 1 से 39 तक हनुमान जी की विभिन्न गुणों बखान किया है। अब तुलसीदास जी अपने इस किए गए कार्य का प्रतिफल की प्रार्थना कर रहे हैं। यह प्रार्थना उनके द्वारा लिखी गई इस चौपाई के अंत में है। यहां पर उन्होंने डेरा शब्द का उपयोग किया है। डेरा सामान्यतया उस स्थान को कहते हैं जहां पर सेना ने एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के बीच में अस्थाई रूप से रुकती हैं और पडाव डालती। तुलसीदास जी ने यहां पर सेना के अस्थाई रूप से रुकने वाले स्थान का जिक्र किया है। यह संभवत उस समय की परिस्थितियों के कारण है। उस समय मुसलमान आक्रन्ता हिंदुओं के गांव पर हमला करते थे और उनको परेशान करते हैं। इस परेशानी को हल करने का एक ही जरिया गोस्वामी तुलसीदास जी के दिमाग में आया। उनका कहना है हनुमान जी आकर उनके हृदय में अपना डेरा जमा ले तो कोई मुसलमान आक्रन्ता उन को तंग नहीं कर पाएगा। हो सकता है ऐसा उन्होंने अकबर द्वारा तंग किए जाने के कारण कहां हो। तुलसीदास जी अकबर से डरकर उसके कहे अनुसार कार्य नहीं करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना की हनुमान जी आप मेरे दिल में आकर के रहो जिससे मैं अकबर का विरोध कर सकूं। हुआ भी वही। कहते हैं कि श्री तुलसीदास जी जब तक अकबर के यहां जेल में रहे तब बंदरों की फौज ने आकर आगरा में डेरा डाल दिया। इस फौज ने अकबर और उसके दरबारियों को बेरहमी के साथ परेशान किया। इसी परेशानी के कारण अकबर को तुलसीदास जी को छोड़ना पड़ा। इस प्रकार हनुमान जी ने डेरा डाल कर के हमारे तुलसीदास जी को बचाया। इस प्रकार तुलसीदास जी की प्रार्थना सफल हुई।

 इस प्रकार अंतिम 40वीं चौपाई में तुलसीदास जी चाहते हैं की वे हनुमान जी जिन्होंने सदैव तुलसीदास जी की मदद की है, जिन के कारण श्री तुलसीदास जी को श्री रामचंद्र जी के दर्शन हुए, जिन के कारण श्री रामचंद्र जी ने वरदान स्वरूप तुलसीदास जी को तिलक किया वे हनुमान जी श्री तुलसीदास जी के हृदय में निवास करें।

 जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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