हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 188 ☆ सह-अस्तित्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 188 सह-अस्तित्व ?

सब्जी मंडी जा रहा हूँ। खुले में सजती इस मंडी के मुहाने से भीतर की ओर जाने वाला लगभग बीस फुट का एक रास्ता है। देखता हूँ कि रास्ते के दोनों और लोगों ने टू व्हीलर पार्क कर रखे हैं। ठेलों पर सामान बेचने वाले भी हैं। परिणामस्वरूप बीस फुट में से मुश्किल से आठ फुट की जगह आने-जाने के लिए बची है। आने-जाने का मतलब है कि मंडी जानेवालों के लिए चार फुट और लौटने वालों के लिए चार फुट।

इस चार फुट को भी दोपहिया पर सवार एक पुरुष और उसकी पत्नी ने बंद कर रखा है। अपनी जगह से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। सामने देखने पर पाता हूँ कि एक गाय रास्ते पर ठहरी हुई है। युगल उस गाय से डर रहा है। दोपहिया निकालने का प्रयास करने पर गाय से स्पर्श होगा, गाय किस तरह की प्रतिक्रिया देगी, इसका भय उनके चेहरे पर पढ़ा जा सकता है। युगल तो नहीं बढ़ा पर परिस्थिति को भाँपकर गाय आगे बढ़ गई।

गाय के आगे बढ़ते ही यही दृश्य मंडी से लौटने वालों के लिए उपलब्ध चार फुट के रास्ते पर उपस्थित हो गया। अबकी बार सामने से आ रहा दोपहिया सवार गाय को देखकर हड़बड़ा कर ठहर गया। पीछे बैठी उसकी पत्नी तो गाय आती देख भय से चिल्लाने लगी।

विचार करने पर पाता हूँ कि गाय का मार्ग पर ठहर जाना, उसे वहाँ से हटाना सामान्य-सी बातें हैं। तथापि बड़े शहरों में आभिजात्य भाव ने मनुष्य को माटी से ही काट दिया है। माटी के ऊपर काँक्रीट में पलते, काँक्रीट में बढ़ते हम हर बार भूल जाते हैं कि जड़ें माटी में जितनी गहरी होंगी, खनिज और जल उतना ही अधिक अवशोषित करेंगी। सूरज की तपिश पाकर उतना ही अधिक विकास भी होगा।

सत्य तो यह है कि वर्तमान में हम प्रकृति से, सह-अस्तित्व से, सहजता से दूर होते जा रहे हैं। प्राणियों के साथ रहना, प्रकृति के संग रहना एक समय सामान्य बात थी। आज तो चूहा, बिल्ली से डरना भी आम बात हो गई है। यह भी विसंगति की पराकाष्ठा है कि एकाधिकार की वृत्ति का मारा मनुष्य भूल रहा है कि पग-पग पर प्रकृति का हर घटक अन्योन्याश्रित है।

इस परस्परावलंबिता को भूल रहे आदमी को अपनी एक रचना स्मरण दिलाना चाहता हूँ,

बड़ा प्रश्न है-

प्रकृति के केंद्र में

आदमी है या नहीं?

इससे भी बड़ा प्रश्न है-

आदमी के केंद्र में

प्रकृति है या नहीं?

आदमी जितनी जल्दी अपने केंद्र में प्रकृति को ले आएगा, उतनी ही उसकी सहजता और जीवनानंद की परिधि विस्तृत होती जाएगी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ समाधि… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समाधि”।)  

? अभी अभी ⇒ समाधि? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

संत कबीर तो कह गए हैं, साधो, सहज समाधि भली !

काहे का ताना, काहे का बाना। ‌और महर्षि पतंजलि तो पूरा अष्टांग योग ही ले आए, के.जी. वन से कॉलेज की डिग्री तक। यम नियम, फिर आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में जाकर समाधि। और इधर हमारे आज सबकी नाक पकड़कर प्राणायाम कराते हुए आयुर्वेदिक काढ़े पर काढ़े पिलाए जा रहे हैं। देशवासियों, सहज स्वदेशी बनो। स्वदेशी उत्पाद अपनाओ, स्वदेशी हो जाओ। समाधि से उपाधि भली।

कलयुग के एक विचारक ओशो के  समाधि के बारे में इतने क्रांतिकारी विचार थे कि एक समय पूरा बॉलीवुड उनके चरणों में गिर चुका था। विनोद खन्ना, गोल्डी आनंद, सुनील दत्त, नर्गिस, और परवीन बॉबी से लेकर खुशवंत सिंह तक समाधिस्थ होते होते बचे। ।

समाधि कोई हज अथवा तीर्थ तो है नहीं कि चारों धाम रिटर्न इंसान को फट से समाधि लग जाए। बहुत पापड़ बेलते थे कभी हमारे योगी सन्यासी, गुरुकुल से हिमालय तक का सफर तय करना पड़ता था समाधि लगाने के लिए लेकिन आज के अधिकांश संत महात्मा, योगी ब्रह्मचारी, महा मंडलेश्वर और शंकराचार्य कर्मयोगी बनना पसंद करते हैं। परम सत्ता का सुख ही समाधि है ईश्वर की इस सत्ता को नमन है।

एक भक्त और उसके आराध्य के बीच में जब भावनात्मक संबंध हो जाता है तो फिर उसे किसी कमीशन एजेंट की आवश्यकता नहीं होती। वह भक्ति भाव में ऐसा डूब जाता है कि उसकी सहज समाधि लग जाती है। ।

आखिर यह सहज समाधि है क्या ! जिसे पाना है उसकी याद में खोना ही भाव समाधि है। हमारे पास इतना समय नहीं कि हम जप, तप, पूजा अर्चना, हवन यज्ञ अनुष्ठान और स्वाध्याय ईश्वर प्राणिधान का मार्ग अपनाकर बाबा बन जाएं। केवल एकमात्र  भाव की गंगा ही ऐसी है जिसमें आप कभी भी, कहीं भी डुबकी लगाकर भाव समाधि में आकंठ समा सकते हो।

संगीत एक ऐसी विधा है जो आपके मन को तरंगित करती है। भले ही आप एक बाथरूम सिंगर हो, जब आप अकेले में  कुछ गाते, गनगुनाते हो, तो कुछ समय के लिए कहीं खो जाते हो। बस यही खोना ही भाव समाधि है। उपलब्धि में अहंकार होता है। कई असुरों ने वर्षों तप कर अपने इष्ट से ऐसे ऐसे वर मांग लिए जिससे यह दुनिया ही संकट में पड़ गई। समाधि में कुछ मांगा नहीं जाता। भाव समाधि में तो आप कुछ मांगने लायक स्थिति में रहते ही नहीं हो। ।

जो अज्ञात है, सर्वव्यापी है, अविनाशी ओंकार है, वह ज़र्रे ज़र्रे में समाया हुआ है। एक पक्षी, एक पेड़, बहती नदी, झरना और पहाड़, कोयल की कूक, मीरा के भजन, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर हों, ता पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज और कुमार गंधर्व के निर्गुण के भजन, जो आपको उस भाव अवस्था में पहुंचा दे, बस वही भाव समाधि। तीन मिनिट की इस भाव समाधि में न तो  आपमें कर्ता पन का अहंकार शामिल है और न ही कोई सकाम चेष्टा। कोई मांग नहीं, मन्नत नहीं, कोई चढ़ावा नहीं, कोई मंदिर नहीं, कोई पुजारी नहीं। ऐकटा जीव, सदाशिव।

अपने आपको पाने का सबसे सरल रास्ता है, अपने आपमें खो जाना। जितनी भी ललित कलाएं हैं, वे हमें बाहर से अंदर को ओर ले जाती है। सुख, आनंद, समाधि कुछ भी नाम दें, अंतर्मुख होते ही घूंघट के पट खुल जाते हैं। ज़रा मन की किवड़िया खोल, सैंया तेरे द्वारे खड़े। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #180 ☆ वक्त और उलझनें ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख वक्त और उलझनें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 180 ☆

☆ वक्त और उलझनें 

‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें सौ और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ रास्ते तो हर ओर होते हैं, परंतु यह आप पर निर्भर करता है कि आपको रास्ता पार करना है या इंतज़ार करना है, क्योंकि यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। वैसे आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम और उलझते अधिक हैं। जी हां! यही सत्य है ज़िंदगी का… ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् जीवन में सीख देने वाले, मार्गदर्शन करने वाले बहुत मिल जाएंगे, भले ही वे ख़ुद उन रास्तों से अनजान हों और उनके परिणामों से बेखबर हों। वैसे बावरा मन ख़ुद को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझता है और हताशा-निराशा की स्थिति में उन पर विश्वास कर लेता है; जो स्वयं अज्ञानी हैं और अधर में लटके हैं।

स्वर्ग-नरक की सीमाएं निर्धारित नहीं है। परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग-नरक का निर्माण करते हैं। यह कथन कोटिश: सत्य है कि   जैसी हमारी सोच होती है; वैसे हमारे विचार और कर्म होते हैं, जो हमारी सोच हमारे व्यवहार से परिलक्षित होते हैं; जिस पर निर्भर होती है हमारी ज़िंदगी; जिसका ताना-बाना भी हम स्वयं बुनते हैं। परंतु मनचाहा न होने पर दोषारोपण दूसरों पर करते हैं। यह मानव का स्वभाव है, क्योंकि वह सदैव यह सोचता है कि वह कभी ग़लती कर ही नहीं सकता; भले ही मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। इसलिए मानव को यह सीख दी जाती है कि यदि जीवन को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का ही साकार रूप है। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध की यह सीख भी विचारणीय है कि आवश्यकता से अधिक सोचना अप्रसन्नता व दु:ख का कारण है। इसलिए मानव को व्यर्थ चिंतन व अनर्गल प्रलाप से बचना चाहिए, क्योंकि दोनों स्थितियां हानिकारक हैं; जो मानव को पतन की ओर ले जाती हैं। इसलिए आवश्यकता है आत्मविश्वास की, क्योंकि असंभव इस दुनिया में कुछ है ही नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा ही नहीं। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कीजिए; अपनी सोच ऊंची रखिए और आप सब कुछ कर गुज़रेंगे, जो कल्पनातीत था। जीवन में कोई रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जब आपकी संगति अच्छी हो अर्थात् हम गलियों से होकर ही सही रास्ते पर आते हैं। सो! मानव को कभी निराश नहीं होना चाहिए। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ का संबंध है निरंतर गतिशीलता से है; थक-हार कर बीच राह से लौटने व पराजय स्वीकारने से नहीं, क्योंकि लौटने में जितना समय लगता है; उससे कम समय में आप अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। सही रास्ते पर पहुंचने के लिए हमें असंख्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो केवल संघर्ष द्वारा संभव है।

संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है; जो स्वीकारता है, आगे बढ़ता है। संघर्ष जीवन-प्रदाता है अर्थात् द्वन्द्व अथवा दो वस्तुओं के संघर्ष से तीसरी वस्तु का जन्म होता है; यही डार्विन का विकासवाद है। संसार में ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात्  जीवन में वही सफलता प्राप्त कर सकता है, जो अपने हृदय में शंका अथवा पराजय के भाव को नहीं आने देता। इसलिए मन में कभी पराजय भाव को मत आने दो… यही प्रकृति का नियम है। रात के पश्चात् भोर होने पर सूर्य अपने तेज को कम नहीं होने देता; पूर्ण ऊर्जा से सृष्टि को रोशन करता है। इसलिए मानव को भी निराशा के पलों में अपने साहस व उत्साह को कम नहीं होने देना चाहिए, बल्कि धैर्य का दामन थामे पुन: प्रयास करना चाहिए; जब तक आप निश्चित् लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। मानव में असंख्य संभावनाएं निहित हैं। आवश्यकता है, अपने अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचानने व संचित करने की। सो! निष्काम कर्म करते रहिए, मंज़िल बढ़कर आपका स्वागत-अभिवादन अवश्य करेगी।

वक्त पर ही छोड़ देने चाहिए, कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे। वक्त सबसे बड़ा वैद्य है। समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भर जाते हैं। इसलिए मानव को संकट की घड़ी में हैरान-परेशान न होकर, समाधान हेतु सब कुछ सृष्टि-नियंंता पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के घर देर है, अंधेर नहीं। उसकी अदालत में निर्णय देरी से तो हो सकते हैं, परंतु उलझनों के हल लाजवाब मिलते हैं, परमात्मा वही करता है, जिसमें हमारा हित होता है। ‘ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी यह हंसाए, कभी यह रुलाए।’ इसे न तो कोई समझा है, न ही जान पाया है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। आप इस प्रकार जिएं कि आपको मर जाना है और इस प्रकार की सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यही मर्म है जीवन का…मानव जीवन पानी के बुलबुले की भांति क्षण-भंगुर है, जो ‘देखते ही छिप जाएगा, जैसे तारे प्रभात काल में अस्त हो जाते हैं। इसलिए आप ऐसे मरें कि लोग आपको मरने के पश्चात् भी याद रखें। वैसे ‘Actions speak louder than words.’कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में अपना परिचय देते हैं। सो! आप श्रेष्ठ कर्म करें कि लोग आपके मुरीद हो जाएं तथा आपका अनुकरण-अनुसरण करें।

श्रेठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। आप अपने संस्कारों से जाने जाते हैं और व्यवहार से श्रेष्ठ माने जाते हैं। अपनी सोच अच्छी व सकारात्मक रखें, क्योंकि नज़र का इलाज तो संभव है; नज़रिए का नहीं। सो! मानव का दृष्टिकोण व नज़रिया बदलना संभव नहीं है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि मानव की आदतें जीते जी नहीं बदलती, चिता की अग्नि में जलने के पश्चात् ही बदल सकती हैं। इसलिए उम्मीद सदैव अपने से कीजिए; दूसरों से नहीं, क्योंकि इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो दूसरों से की जाती हैं। इसलिए मुसीबत के समय इधर-उधर नहीं झांकें; आत्मविश्वास प्यार व धैर्य बनाए रखें; मंज़िल आपका बाहें फैलाकर अभिनंदन करेगी। जीवन में ऐसे लोगों की संगति कीजिए, जो बिना स्वार्थ व उम्मीद के आपके लिए मंगल-कामना करते हैं। वास्तव में उन्हें आपकी परवाह होती है और वे आपका हृदय से सम्मान करते हैं।

सो! जिसके साथ बात करने से खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए, वही अपना है। ऐसे लोगों को जीवन में स्थान दीजिए, इससे आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और दु:खों के भंवर से मुक्ति पाने में भी आप समर्थ होंगे। यदि सपने सच नहीं हो रहे हैं, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। सो! अपना निश्चय दृढ़ रखो और अन्य विकल्प की ओर ध्यान दो। यदि मित्र आपको पथ-विचलित कर रहे हैं, तो उन्हें त्याग दीजिए, अन्यथा वे दीमक की भांति आप की जड़ों को खोखला कर देंगे और आपका जीवन तहस-नहस हो जाएगा। सो! ऐसे लोगों से मित्रता बनाए रखें, जो दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखने का हुनर जानते हैं। वे न कभी दु:खी होते हैं; न ही दूसरे को संकट में डाल कर सुक़ून पाते हैं। निर्णय लेने से पहले शांत मन से चिंतन-मनन कीजिए, क्योंकि आपकी आत्मा जानती है कि आपके लिए क्या उचित व श्रेयस्कर है। सो! उसकी बात मानिए तथा स्वयं को ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रखिए। इस स्थिति में आप मानसिक तनाव से मुक्त रहेंगे। व्यर्थ का कचरा अपने मनोमस्तिष्क में मत भरिए, क्योंकि वह अवसाद का कारण होता है।

दुनिया का सबसे कठिन कार्य होता है–स्वयं को पढ़ना, परंतु प्रयास कीजिए। अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें समझना सुगम नहीं, अत्यंत दुष्कर होता है। इसके लिए आपको एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है ‘बुरी संगति से अकेला भला।’ दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि पुस्तकें इंसान की सबसे अच्छे मित्र होती हैं; कभी ग़लत राह नहीं दर्शाती। ख्याल रखने वालों को ढूंढना पड़ता है; इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेते हैं। दुनिया एक रंगमंच है, जहां सभी अपना-अपना क़िरदार अदा कर चले जाते हैं। शेक्सपीयर की यह उक्ति ध्यातव्य है कि इस संसार में हर व्यक्ति विश्वास योग्य नहीं होता। इसलिए उन्हें ढूंढिए, जो मुखौटाधारी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार दूसरों का शोषण करने वाले, लाभ उठाने वाले अथवा इस्तेमाल करने वाले तो आपको तलाश ही लेंगे… उनसे दूरी बनाए रखें; उनसे सावधान रहें तथा ऐसे दोस्त तलाशें…धोखा देना जिनकी फ़ितरत न हो।

अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सज़ा है और एकांत सबसे बड़ा वरदान। एकांत की प्राप्ति तो मानव को सौभाग्य से प्राप्त होती है, क्योंकि लोग अकेलेपन को जीवन का श्राप समझते हैं, जबकि वह तो एक वरदान है। अकेलेपन में मानव की स्थिति विकृत होती है। वह तो चिन्ता व मानसिक तनाव में रहता है। परंतु एकांत में मानव अलौकिक आनंद में विचरण करता रहता है। उस स्थिति को प्राप्त करने के निमित्त वर्षों की साधना अपेक्षित है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो मानव को सबसे अलग-अलग कर देता है और वह तनाव की स्थिति में पहुंच जाता है। इसके लिए दोषी वह स्वयं होता है, क्योंकि वह ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, सर्वोत्तम  समझता है और दूसरों के अस्तित्व को नकारना उसका स्वभाव बन जाता है। ‘ घमंड मत कर दोस्त/  सुना ही होगा/ अंगारे भी राख बढ़ाते हैं।’ मानव मिट्टी से जन्मा है और मिट्टी में ही उसे मिल जाना है। अहं दहकते अंगारों की भांति है, जो मानव को उसके व्यवहार के कारण अर्श से फ़र्श पर ले आता है, क्योंकि अंत में उसे भी राख ही हो जाना है। सृष्टि के हर जीव व उपादान का मूल मिट्टी है और अंत भी वही है अर्थात् जो मिला है, उसे यहीं पर छोड़ जाना है। इसलिए ज़िंदगी को सुहाना सफ़र जान कर हरपल को जीएं; उत्सव-सम मनाएं। इसे दु:खों का सागर मत स्वीकारें, क्योंकि वक्त निरंतर परिवर्तनशील है अर्थात् कल क्या हो, किसने जाना। सो कल की चिन्ता में आज को खराब मत करें। कल कभी आयेगा नहीं और आज कभी जायेगा नहीं अर्थात् भविष्य की ख़ातिर वर्तमान को नष्ट मत करें। सो! आज का सम्मान करें; उसे सुखद बनाएं…शांत भाव से समस्याओं का समाधान करें। समय, विश्वास व सम्मान वे पक्षी हैं, जो उड़ जाएं, तो लौट कर नहीं आते। सो! वर्तमान का अभिनंदन-अभिवादन कीजिए, ताकि ज़िंदगी भरपूर खुशी व आनंद से गुज़र सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ मुझे तुम याद आए… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझे तुम याद आए “।)  

? अभी अभी ⇒ मुझे तुम याद आए ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

याद स्मृति को भी कहते हैं और कुछ भूला हुआ याद आना भी स्मरण ही कहलाता है। मेरी याददाश्त कमज़ोर है, मेरे बचपन के स्मृति – पटल पर आठ वर्ष के पहले की सभी स्मृतियां विस्मृत हो चुकी हैं, या मैं यह कहूं कि वे कभी मुझे याद थी ही नहीं।

सत्तर वर्ष की उम्र भूलने की नहीं होती। अगर होती तो मैं यह भी भूल जाता कि मेरी उम्र सत्तर वर्ष है। लोग मुझे तसल्ली देते रहते हैं, भूलना एक आम समस्या है।

जो अतीत की अप्रिय घटनाएं हम भूलना चाहते हैं, वे बार बार कुरेदकर बाहर आ जाती हैं, और कुछ काम की बातें हम भूलने लग जाते हैं।।

भूल का भूलने से कोई संबंध नहीं! इस रविवार एक विचित्र घटना हुई। 503 के एक सज्जन मुझसे मिलने आए। ( हमारी मल्टी में लोग फ्लैट नंबर से जाने जाते हैं, नाम से नहीं। अस्पताल में मैं कभी कमरा नंबर 303 का पेशंट था। कैदी को भी जेल में नंबर से ही जाना जाता है।) वे अभी अभी आए हैं। जब भी मिलते हैं, मैं उनका फोन नंबर लेना भूल जाता हूं। इस बार आते ही मैंने उनसे उनका फोन नंबर मांग लिया , कहीं फिर भूल ना जाऊं।

उन्होने मुझे अपना फोन नंबर बताने के लिए कहा ताकि वह मुझे रिंग दे सकें। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब मुझे अपना मोबाइल नंबर ही याद नहीं आया। मेरे पास घर में जितने फोन है, सबके नंबर मुझे कंठस्थ याद है और जो लोग अपना फोन नंबर याद नहीं रखते, मैं उन पर हंसता हूं।आज मैं खुद पर ही हंस रहा था। वे मेरा मुंह देख रहे थे और मैं अपनी दयनीय स्थिति।।

परिस्थिति से समझौता करने के लिए मैंने उनका नंबर पूछा और डायल कर दिया। मेरा नंबर उनके पास पहुंच गया और उनका मेरे पास। वे चले गए लेकिन मुझे अपने फोन नंबर में उलझाकर चले गए।

कोई समझदार इंसान होता तो फोन में ही अपना नंबर देख सकता था लेकिन मैं था, जो बार बार अपनी स्मरण शक्ति पर जोर दे रहा था और अपने अंदर ही अपना टेलीफोन नंबर ढूंढ़ रहा था। और वह दस नंबरी टेलीफोन नंबर भी मानो मुझे चिढ़ा रहा था, मो को कहां ढूंढे रे बंदे। मैं तो तेरे पास रे। मैंने भी ठान लिया, भगवान को बाद में, पहले अपना फोन नंबर तो अपने में तलाश लूं।

हमारी कितनी मेमोरी है, और कौन सी बात कहां दबी छुपी है, कहना मुश्किल होता है। जो चीज हमेशा tip of the tongue यानी मुंहजबानी रहती थी, आज मन उसे उगल नहीं रहा था। अक्सर कुछ पुराने फिल्मी गानों के साथ भी यही होता है। जब हम चाहें, तब याद नहीं आते। और वो जब याद आए बहुत याद आए।।

पूरे रविवार और सोमवार, मैं यादों का पहाड़ खोदता रहा, एक दस डिजिट के नंबर के लिए, लेकिन एक भी डिजिट का पता नहीं चला। बहन से, बेटी से मेरी व्यथा कही। मेरा दर्द न कोई जाना। बस एक ही जवाब।हमारे साथ भी होता है। आपका नंबर मेसेज कर देते हैं। मैंने सख्ती से मना कर दिया। यह मेरी समस्या है। मेरी मुझसे ही लड़ाई है। हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।

मैं पूरी तरह हार थक चुका था। सोचा, हथियार डाल ही दूं। सोचते सोचते कल रात नींद लग गई। रात को बारह बजे अचानक नींद खुली। अनायास पांच डिजिट मन की आंखों के सामने प्रकट हुए। मेरा आधा फोन नंबर साफ नजर आया। यूरेका! मन ने कहा। मैं शवासन की अवस्था में लेटा रहा। मैंने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। न ही उस नंबर को नोट किया। जो मेरे अंदर ही था, कहां जा सकता था, मुझे भरोसा था। कहीं दब गया होगा, सरकारी फाइलों की तरह। गूगल सर्च नहीं, मन के अंदर सर्च जारी थी। मैं निश्चिंत था। तीन चार अपुष्ट नंबर ए। मेरे मन ने ही उन्हें रिजेक्ट कर दिया और अंततः दो घंटे की मशक्कत के बाद जो नंबर आया वह मेरा दस डिजिट वाला मोबाइल नंबर था।।

मैं उठा। अपने मोबाइल पर उसे अंकित किया और बाद में कन्फर्म किया। वह वही नंबर निकला। यह एक अनावश्यक कसरत थी, कुछ लोगों की निगाह में, लेकिन मुझे यह कसरत, बहुत कुछ सिखा गई। हमने अंदर झांकना ही बंद कर दिया है। ईश्वर को हम बाहर खोज रहे हैं। आत्म गुरु को छोड़ जगत गुरु के पीछे पड़े हैं।

हमारे अंदर विचारों के जखीरे में अगर काई और जलकुंभी है तो माणिक मोती भी है। जिन्हें हम सीपी और शंख समझते हैं वे ही तो रत्नों की खान हैं। जिन खोजां तिन पाइयां , गहरे पानी पैठ। कभी मन के पार चलें, कुछ खोने का, कुछ पाने का आनंद लें। अब आइंदा अगर कोई चीज भूलूंगा तो उसकी तलाश भी अंदर ही करूंगा। बाहर तो सिर्फ भटकाव है। नो गूगल सर्च!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ जाको राखे सांइया… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जाको राखे सांइया”।)  

? अभी अभी ⇒ जाको राखे सांइया? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अक्सर टॉयलेट में हम अकेले ही होते हैं, विचार कहीं भी हो, आँखें हर जगह निगरानी रखती है।मच्छर , खटमल और कॉकरोच से हमारी पुश्तैनी दुश्मनी चली आ रही है। जो हमारा खून पीये , अथवा हमारे सुख चैन में खलल डाले, उसके लिए , शत प्रतिशत शाकाहारी होते हुए भी, हमारी आंखों में खून उतर आता है।

होगा किसी के लिए जीवः जीवस्य भोजनम्, कोई निरीह प्राणी कभी हमारा भोजन नहीं बना, फिर भी एक आरोप हम पर सदा लगता चला आया है, कि हमने किसी का भेजा चाट लिया, अथवा किसी का दिमाग ही खा गए।लेकिन क्या करें, हम भी मजबूर हैं।।

वैसे आत्म रक्षा और सुरक्षा हेतु, अस्त्र, शस्त्र का उपयोग तो शास्त्रों द्वारा भी मान्य है, लेकिन यह आदमी कितना महान है, राजा महाराजा और वीर बहादुर, सदियों से जंगल में जा जाकर, जंगली जानवरों का शिकार करते चले आए हैं। इतना ही नहीं, उन्हें पिंजरे में कैद कर, सर्कस में करतब दिखलाने से भी बाज नहीं आए। आज के सभ्य समाज में, खैर है, जंगली जानवरों के शिकार पर प्रतिबंध जरूर है, लेकिन यह इंसान जंगल में भी मंगल मनाने लग गया है। आज जंगल का राजा, शेर नहीं इंसान है। अगर प्रोजेक्ट टाइगर नहीं होता, तो कहां रह पाते जिंदा आज, बेचारे ये वन्य जीव।

नियति का चक्र भी बड़ा विचित्र है। अत्याधुनिक हथियारों और सुरक्षा प्रयत्नों के बावजूद आज भी हमारी समस्या बेचारे मच्छर, मक्खी और कॉकरोच का आतंक है। कभी अहिंसक मच्छरदानी हमें मच्छरों से बचा भी लेती थी, लेकिन आज ऑल आउट, कैस्पर, कछुआ छाप अगरबत्ती और करेंट वाली रैकेट के बावजूद मच्छर हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। छिपकली और कॉकरोच जैसे कीड़ों के लिए घरों में आए दिन, पेस्ट कंट्रोल करवाना पड़ता है।।

गर्मी में हमारी तरह कीड़े भी अक्सर मॉर्निंग वॉक, इवनिंग वॉक और रात्रि को सैर सपाटे के लिए निकला करते हैं। बस ऐसे ही एक शुभ मुहूर्त में हमारी नज़र टॉयलेट में सैर करते, एक मिनी कॉकरोच पर पड़ गई। बस क्या था, अचानक हमारे अंदर का जानवर जाग उठा, और हमने उसे मन ही मन चेतावनी भी दे डाली, खबरदार अगर टाईल्स की यह लक्ष्मण रेखा पार की। तुम्हारी मौत आज हमारे हाथों निश्चित है।

छठी इंद्रिय विरले प्राणियों में ही होती है। शायद कॉकरोच में कण कण में भगवान वाला अंश अवश्य होगा, जिसने मेरी मौन चेतावनी को पढ़ लिया और उस कॉकरोच को प्रेरणा दी, बेटा अबाउट टर्न ! और वह कॉकरोच चमत्कारिक ढंग से टाईल्स की लक्ष्मण रेखा पार करने के पहले ही, विजयी मुद्रा में वापस मुड़कर अपनी जान बचाने में कामयाब हुआ, और मैं एक पराजित योद्धा की तरह, अपने किये पर पछताने के अलावा कुछ ना कर सका।।

मुझे खुशी है, ईश्वर ने मुझे एक सोची समझी, नासमझी भरी, जीव हत्या से बाल बाल बचा लिया। हम कौन होते हैं किसी को मारने और अभय दान देने वाले, जब हम सबका मालिक एक है, और हम उसके हाथों की महज कठपुतली। किसी ने ठीक ही कहा है, जाको राखे साइयां, मार सके ना कोय ..!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 209 ☆ आलेख – कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना…

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 209 ☆  

? आलेख कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना ?

कहा गया है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य  गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ गया. यद्यपि यह उक्ति चरित्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कही गई है किन्तु इसमें कही गई बात कि “स्वास्थ्य गया तो कुछ गया” रेखांकित करने योग्य है.  हमारा शरीर ही वह माध्यम है जो जीवन के उद्देश्य निष्पादित करने का माध्यम है. स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. और निश्चिंत मन से ही हम जीवन में कुछ कर सकते हैं. कला और साहित्य  मन की अभिव्यक्ति के परिणाम ही हैं. स्वास्थ्य और साहित्य का आपस में गहरा संबंध होता है. स्वस्थ साहित्य समाज को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका अदा करता है.  साहित्य में समाज का व्यापक हित सन्नहित होना वांछित है. और समाज में स्वास्थ्य चेतना जागृत बनी रहे इसके लिये निरंतर सद्साहित्य का सृजन, पठन पाठन, संगीत, नाटक, फिल्म, मूर्ति कला, पेंटिंग आदि कलाओ में हमें स्वास्थ्य विषयक कृतियां देखने सुनने को मिलती हैं. यही नहीं नवीनतम विज्ञान के अनुसार मनोरोगों के निदान में  कला चिकित्सा का उपयोग बहुतायत से किया जा रहा है. व्यक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिये मनोचिकित्सक द्वारा  विश्लेषण किये जाते हैं और उससे उसके मनोभाव समझे जाते हैं. बच्चों के विकास में कागज के विभिन्न आर्ट ओरोगामी, पेंटिग, मूर्ति कला, आदि का बहुत योगदान होता है. स्वास्थ्य दर्पण, आरोग्य, आयुष, निरोगधाम, आदि अनेकानेक पत्रिकायें बुक स्टाल्स पर सहज ही मिल जाती हैं. फिल्में, टी वी और रेडियो ऐसे कला माध्यम है जिनकी बदौलत साहित्य और कला का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है.जाने कितनी ही उल्लेखनीय  हिन्दी फिल्में हैं जिनमें रोग विशेष को कथानक बनाया गया है. अपेक्षाकृत उपेक्षित अनेक बीमारियों के विषय में जनमानस की स्वास्थ्य चेतना जगाने में फिल्मों का योगदान अप्रतिम है.

फिल्म आनंद में कैंसर के विषय में, फिल्‍म ‘पा’ में औरो नाम के एक बच्‍चे की कहानी है जिसकी उम्र 13 साल है और जिसे प्रोजेरिया नाम की बीमारी हो जाती है. इस बीमारी में व्‍यक्ति बहुत तेजी से बूढ़ा होने लगता है. फिल्म गुप्त रोग में स्त्री पुरुष संबंधो के बारे में, फिल्म तारे जमीन पर में ईशान अपने बोर्डिंग स्कूल में कुछ भी ठीक से नहीं कर पाता है, सौभाग्य से, एक नया कला शिक्षक उसे यह पता लगाने में मदद करता है कि उसे डिस्लेक्सिया है और वह उसकी क्षमता को पहचानने में मदद करता है, फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी ने एक ऐसी टीचर का किरदार निभाया जिसे टॉरेट सिंड्रोम हैं.  इस बीमारी में महिलाओं को बार-बार हिचकी आने के चलते बोलने और समझने में दिक्कत होती है. इसी तरह पिकू में कांस्टीपेशन का, गजनी में एमनेसिया नामक बीमारी का, माई नेम इज खान में  एस्परगर सिंड्रोम को लोगों के सामने पेश किया गया. एस्परगर सिंड्रोम एक तरह का परवेसिव डेवलपमेंट डिसऑर्डर है.  इसका मरीज गुमनामी में रहना पसंद करता है.   शुभ मंगल सावधान में नपुंसकता पर, ए दिल है मुश्किल में टर्मिनल कैंसर पर, जनजागृति पैदा करने में कलात्मक सफलता देखने मिलती है.ढ़ेरों फिल्में स्वास्थ्य के विभिन्न पहलुओ पर केंद्रित हैं.  साहित्य में हम देखते हैं कि अनेक उपन्यास कहानियां समय समय पर नायक या नायिका की टी बी, कैंसर या किसी अन्य बीमारी पर केंद्रित होने के कारण मर्मांतक, हृदय स्पर्शी और काल जयी बन गयी. स्वास्थ्य संबंधी साहित्य अत्यंत लोकप्रिय है. हर अखबार कोई न कोई स्वास्थ्य परिशिष्ट या स्तंभ अवश्य चलाता है. इस पृष्ठभूमि के संदर्भ में मेरा अभिमत है कि कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य चेतना हमेशा से बनी रही है. किन्तु समय के साथ यह और जरूरी हो गया है कि कला एवं साहित्य में स्वास्थ्य संदर्भो पर और काम किये जायें. कोरोना आपदा एक आकस्मिक वैश्विक स्वास्थ्य समस्या का विस्फोट था. रचनाकारों ने इसका सकारात्मक उपयोग किया. लाकडाउन में लोगों को खूब समय मिला. मैंने कोरोना काल के व्यंग्य लेखों का संग्रह लाकडाउन नाम से संपादित किया. कोरोना जनित कविताओ के कई संग्रह अनेक प्रकाशनो से छपे हैं. पिछले दिनों में योग, इम्युनिटी बढ़ाने के नुस्खों पर भी बहुत सारा लिखा गया है.

 मैं अपने पहले कविता संग्रह आक्रोश से यह कविता उदृत करना चाहता हूं…

अस्पताल

जिंदगी कैद है यहाँ आक्सीजन के सिलेंडर में

उल्टी लटकी है सिलाइन ग्लूकोज या खून की बोतल में

शुगर कोटेड हैं टेबलेट्स और कैप्सूल,

पर जिंदगी बड़ी कड़वी है.

माँस के लोथड़े में, इंजेक्शन की चुभन

जाने कैसी तो होती है अस्पताल की गंध.

सफेद नर्स, डाक्टर- ज्यादा बगुले, कुछ हंस

गले में झूलता स्टेथेस्कोप,

क्या सचमुच सुन पाता है

कितना किसका जिंदगी से नाता है

अनेक व्यंग्य लेखों में भी सहज ही मेरा स्वास्थ्य संबंधी लिखना होता रहा है. उदाहरण के तौर पर मेरा एक व्यंग्य छपा था मेरे परिवार का स्वास्थ्य अभियान, जिसमें स्वास्थ्य उपकरणो के बाजारवाद पर कटाक्ष किया गया है. एक अन्य व्यंग्य है ब्रांडेड वर वधू जिसमें कल्पना की गई है कि मेडिकल रिपोर्टस मिलाकर कम्प्यूटर जी शादियां तय करेंगे जिससे आर एच पाजिटिव निगेटिव लड़के लड़कियों की शादी से थैलेसिमा जैसी समस्याओ का निदान हो सकेगा. ब्लड टेस्ट, प्रदूषण और स्वास्थ्य पर उसके दुष्प्रभाव आदि लेख भी लिखे गये.

जनसंख्या नियंत्रण, कुपोषण के विरुद्ध अभियान, शिशु स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु दर को कम करने, चेचक नियंत्रण, पोलियो नियंत्रण आदि आदि मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक हमने देखे हैं. गिरिराज शरण अग्रवाल की प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित किताब स्वास्थ्य व्यवस्था पर व्यंग्य में वे लिखते हैं ” अस्पताल हो और वह भी सरकारी तो उसका अलग आनंद है, बस आपमें इस अद्भुत पर्यटन स्थल का आनंद लेने की क्षमता होना चाहिये.

परसाई जी के व्यंग्य निंदा रस से अंश पाठ उद्धृत करना चाहता हूं…

निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयाँ होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।

स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुतायत में होते हैं. परसाई जी ने अपने अनेक व्यंग्य लेखों में स्वास्थ्य विषयक विसंगतियां उठाई हैं. उदाहरण के तौर पर बम और बीमारी, बुखार आ गया, चीनी डाक्टर भागा, रामभरोसे का इलाज, निठल्ले की डायरी में अनेक प्रसंगों में परसाई जी के स्वास्थ्य चेतना संदर्भ मिलते हैं. शरद जोशी जी के प्रतिदिन में अनेक मौकों पर, रवीन्द्र नाथ त्यागी जी के व्यंग्यो में अनेकानेक संदर्भो में, मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में सहज रुप से अनेक प्रसंगों में हमें नायक या नायिका या रचना के किरदारों की बीमारियों के वर्णन मिलते है.तत्कालीन स्वास्थ्य व्यवस्थाओ, अंधविश्वास, रूढ़ियों पर प्रहार, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के स्वास्थ्य, खानपान में भेदबाव को हमेशा से रचनाकारो ने इंगित किया है. और समाज को समय से आगे लाने में अपनी लेखनी से प्रयासरत रहे हैं. 

 दिल्ली में स्वस्थ्य भारत ने ही वर्ष २०१९ में एक राष्ट्रीय लघुकथा संगोष्ठी का आयोजन किया था जिसमें स्वास्थ्य विषयक लघुकथायें ही पढ़ी गई थी. और यह गोष्ठी बहुचर्चित रही थी.

कला चिकित्सा के सिद्धांतों में मानवतावाद, रचनात्मकता, भावनात्मक संघर्षों को सुलझाना, आत्म-जागरूकता को बढ़ावा देना और व्यक्तित्व विकास शामिल है. एक पेशे के रूप में कला चिकित्सा का उदय स्वतंत्र रूप से  संयुक्त राज्य अमेरिका  और यूरोप में हुआ. शब्द “आर्ट थेरेपी”  का प्रयोग 1942 में ब्रिटिश कलाकार एड्रियन हिल द्वारा किया गया था, उन्होंने तपेदिक से उबरने के दौरान पेंटिंग और ड्राइंग से स्वास्थ्य लाभों की खोज की थी. 

साहित्य कला और स्वास्थ्य चेतना परस्पर गुंथे हुये विषय हैं. यद्यपि अब तक इस तरह किसी समालोचक ने स्वास्थ्य साहित्य को इस विभक्त करके कोई रेखांकन नही किया है. यह आयोजन  साहित्य में नितांत नई समीक्षा दृष्टि है. मेरा अभिमत है कि इस दृष्टि को और विस्तार दिया जाये. स्वास्थ्य संबंधी कहानियां, कवितायें, व्यंग्य, नाटको के संग्रह प्रकाशित किये जा सकते हैं. युवा शोधार्थी इन धारणाओ में पी एच डी कर सकते हैं. जन स्वास्थ्य संसद जैसे और भी परिचर्चायें तथा आयोजन और होने चाहिये. जिससे लोगों में निरोगी काया के प्रति जागरूकता का वातावरण सृजित हो.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ घड़ी, तिथि और तारीख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घड़ी, तिथि और तारीख “।)  

? अभी अभी ⇒ घड़ी, तिथि और तारीख ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक घड़ी परमात्मा के पास है, जो वास्तविक समय बताती है, उस घड़ी में तारीख और तिथि सभी समा जाते हैं। उस घड़ी की टिक टिक हमारे दिल की धड़कन है, जो हमें हमेशा सुनाई देती है। एक साधारण घड़ी की तरह हमारा शरीर भी महज कलपुर्जों का एक घंटाघर है, जिसकी चाबी उस ऊपर वाले के पास है। यह शरीर रूपी घड़ी खराब भी होती है, इसकी मरम्मत भी होती है और इसे कई बार बदला भी जा चुका है।

एक संसारी घड़ी भी है जो इस जगत का समय बताती है। इस घड़ी में कैलेंडर भी है, जो समय के साथ दिन, तारीख और वर्ष भी बताता है। इसी घड़ी में एक स्टॉप वॉच भी है, जो समय को रोकने की भी ताकत रखती है, लेकिन सिर्फ घड़ी का समय! परमात्मा की घड़ी को कोई कभी रोक नहीं पाया। वहां कोई स्टॉप वॉच नहीं। समय कभी आगे पीछे नहीं। वह घड़ी अटल है, अविनाशी है, अनंत है।।

दुनिया गोल है! भौगोलिक दृष्टि से यहां कहीं दिन कहीं रात होते हैं। यहां ग्लोबल मीट तो होते हैं, लेकिन यहां कोई ग्लोबल टाइम नहीं। सबकी अपनी अपनी घड़ी, अपना अपना वक्त।कोई दो घंटे पीछे तो कोई आठ घंटे आगे। लेकिन वक्त की इतनी पुख्ता जानकारी, कि हजार साल का कैलेंडर छाप लो। खुद एक फर्लांग उड़ नहीं सकते, लेकिन आसमां के हर सितारे की खबर रखते हैं।

रोज तारीख बदलती है, तो कहीं तिथि बदलती है। ज्योतिषीय गणना के आधार पर पंचांग बनाए जाते हैं, कोरोना की खबर नहीं, और कब कौन सा चंद्र ग्रहण है वो और कौन सा सूर्य ग्रहण, खगोल शास्त्री आपको बता देंगे। आसमान का कौन सा तारा कब टूटेगा, इसकी भी जानकारी उनके पास है।।

आप अपनी जन्म तारीख और तिथि दोनों की जानकारी रखते होंगे। अधिक मासों की गड़बड़ी के कारण दोनों में कम ही मेल होता है। तिथि के अनुसार जन्मदिन मनाने के लिए आप स्वतंत्र हैं, लेकिन आप आधार कार्ड और पेन कार्ड में जन्म तारीख अंग्रेजी कैलेंडर वाली ही दे सकते हैं, तिथि वाली नहीं।

आप हर काम घड़ी से कर सकते हैं, बस ईश्वर की घड़ी की आपको कोई जानकारी नहीं। आपका समय बहुत कीमती है लेकिन कभी ऐसी घड़ी भी आती है, जब वक्त ठहर जाता है, दुनिया ठहर जाती है, लॉक डाउन का अनुभव है हमें।।

जॉनी वाकर का एक गीत है ;

बड़ा ही सी आई डी है,

वो नीली छतरी वाला

हर ताले की चाबी रखता

हर चाबी का ताला।

आपकी सांसों की घड़ी भी उसके ही पास है। अगर वह चाबी देना भूल जाए, तो आप सांस लेना भूल जाओ। हम अपने हाथ में कार और टीवी का रिमोट रख खुश हैं और अपना रिमोट उसे सौंप बैठे हैं। उसके ऑफ/ऑन से ही सारी चहल पहल है। फिर भी हमारा कर्तापन नहीं जाता।

और उधर हमारे कवि संतोष आनंद एक अलग ही राग अलाप रहे हैं ; ज़िन्दगी की न टूटे लड़ी, प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी। सही भी है! पल दो पल का साथ हमारा, पल दो पल के याराने हैं। साहिर तो यहां तक कह गए हैं कि आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू। जो भी है, बस यही एक पल। अब आगे क्या बोलूं जी। घड़ी घड़ी एक ही बात बोलना अच्छा नहीं लगता। अपना खयाल रखना। इक बरहमन ने कहा है, ये साल अच्छा है।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीयआलेख  “किस्साये तालघाट…“।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट जगह का भी नाम था तो बैंक की शाखा भी

 इसी नाम से रजिस्टर्ड थी.स्थान की विशेषता यही थी कि जब घाट समाप्त होता तो ताल से भरपूर नगर की सीमा शुरू हो जाती थी.ताल एक ही था पर नगर की तुलना में बहुत विशाल था.तालघाट में होने के बावजूद इस ताल में सिर्फ एक ही पक्का घाट था.इसे भी घाट कहते हैं और रास्ते की चढ़ाई भी घाट कहलाती है.प्रदेश के राजमार्ग के किनारे बसा था यह स्थान और इसकी एक विशेषता और भी थी कि यह नगर दो प्रदेशों की सीमा पर भी स्थित था.याने इस पार अटारी तो उस पार वाघा बार्डर जैसी भौगोलिकता से संपन्न था.एक प्रदेश को पारकर दूसरे राज्य में आ गये हैं,ये सड़क के गड्ढे बयान कर देते थे.जिनकी सरकार और सड़क अच्छी थी वहां के सीमावर्ती नागरिक भी खुद के प्रति श्रेष्ठि भाव और दूसरे राज्य के वासियों के प्रति हिकारत का भाव रखते थे.जबकि उन बेचारों का सिर्फ यही दुर्भाग्य था कि वो खस्ताहाल सड़क वाले राज्य के ईमानदार निवासी थे और उनके द्वारा दी जाने वाली टेक्स की रकम भी उनसे ज्यादा मोटी थी जो अच्छी सड़क वाले राज्य के टेक्स चोर नागरिक थे.तालघाट नगर का कल्चर दोनों राज्यों की गंगाजमुनी संस्कृति का अनूठा उदाहरण था.वहाँ रहने वाले यहाँ नौकरी के नाम पर रोज आते जाते थे और वेतन मिलने पर उसे खर्च करना तो अपने वाले राज्य के अधिकार क्षेत्र का विषय था.जो रोज नौकरी करने के नाम पर बस या ट्रेन से आना जाना करे,उसे सरकारी भाषा में अपडाऊनर कहा जाता है और कम से कम असुविधा झेले समय पर अपनी घर वापसी का सुखद एहसास पाना ही उसका दैनिक लक्ष्य या मंजिल मानी जाती है.इस जीवन की आपाधापी में उसकी राह में अनुशासन, अटेंडेंस, कार्यक्षमता, समर्पित आस्था नाम के असुर जरूर अड़चन बनकर सामने आते हैं पर वो तो तांगे का अश्व होता है जिसकी गति न्यूटन के नियमों से नहीं बल्कि जल्द से जल्द घरवापसी के हथकंडों से निर्धारित होती है.हर अपडाऊनर का यह मानना होता है कि उसके पांच घंटो का आउटपुट, उन स्थानीय लोगों के दस घंटे के बराबर होता है जो बॉस को देखकर अपनी दुकान सजाते हैं और बॉस के जाते ही अतिक्रमण धारियों के सदृश्य अपनी दुकान समेट कर गपशप,चायपानी में लग जाते हैं चूंकि यहाँ रहते हैं तो बैंक के अलावा कोई ऐसी जगह होती नहीं जहाँ शामें या रातें कटें तो उनका ठौरठिकाना बैंक की शाखा और चायपान के ठिये तक ही सीमित हो जाता है पर खुद को असली कर्मवीर समझने वाले अपडाऊनर्स के पास नौकरी में अपना काम निपटाने के अलावा और भी बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं जैसे सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में बिस्तर छोड़ने की मजबूरी, ब्रम्हास्त्र की गति से बिना कुछ भूले तैयार होकर स्टेशन या बस के लिये मिलखा सिंह बनना,फिर रेल के डिब्बों में कभी बैठने की तो कभी खड़े होने की जगह ढूंढना और फिर कभी कभी चार कलात्मक श्रेष्ठता से संपन्न मित्रों के साथ बावन पत्तों की बाजी में रम जाना.ना यहाँ कोई पांडव होता है न कोई कौरव और न ही इस बाजी से कोई द्रौपदी अपमानित होती है पर इस रेलबाजी का अंत आने वाला स्टेशन ही करता है जब ये कौरव और पांडव रेल से उतरकर अपने अपने दफ्तर को प्रस्थान करते हैं.बस के अपडाउनर्स इस सुविधा से वंचित रहते हैं तो उन बेचारों के पास राजनीति पर बहस के अलावा मन बहलाने का कोई दूसरा साधन नहीं होता.इनमें कुछ धूमकेतु भी होते हैं जो इंतजार की घड़ियों को सिगरेट के कश में उड़ाते हैं.पर ये सभी अपडाउनर्स रूपी सज्जन अपने हॉकी के इस दैनिक मैच का फर्स्ट हॉफ ऑफिस पहुचकर हाजिरी देने,साथियों और बॉस से गुडमॉरनिंग करने पर ही पसमाप्त होना मानते हैं.बॉस अक्सर या बहुधा इनसे खुश नहीं रहते हैं पर इनकी याने अपडाउनर्स की नजरों से समझें तो यह पायेंगे कि इनके बॉस इनकी अपडाउन की अवस्था के कारण इनको ब्लेकमेल करते हैं.ये बात अलग है कि अपडाऊन की यह व्यवस्था इन्हें चतुर,चाकचौबंद, बहानेबाज,द्रुतगति धावक,एंटी-हरिश्चंद्र बना देती है.हर गुजरता दिन और अपडाउन करने वालों की बढ़ती संख्या इन्हें आत्मविश्वास और साहस की प्रबलता प्रदान करते जाती है.जब ये अल्पमत में होते हैं तो मितभाषी और बहुमत में होने पर दबंग भी बन जाते हैं.इन्हें कर्मवीर बनाना सिर्फ और सिर्फ शाखा प्रबंधक का ही उत्तरदायित्व होता है और यह उत्तरदायित्व ही सबसे विषम और चुनौतीपूर्ण होता है.कड़कता याने एंटीबायोटिकता से ज्यादा मनोवैज्ञानिकता याने होमियोपैथिक मीठी गोली ज्यादा प्रभावी होती है.

अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ दलित के घर भोजन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दलित के घर भोजन।)  

? अभी अभी ⇒ दलित के घर भोजन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या आपने किसी दलित के घर जाकर भोजन किया है,क्या कृष्ण की तरह कभी आपने भी किसी दुर्योधन का मेवा त्याग विदुर के घर का साग खाया है । सुदामा तो खैर,कृष्ण के सखा थे,ब्राह्मण देवता होते हैं दलित नहीं,कृष्ण यह जानते थे,इसलिए उनके चरण भी अपने अंसुओं से धोए । सबसे ऊंची,प्रेम सगाई ।

हमने अपने जीवन में ऐसा कोई सत्कार्य नहीं किया जिसका छाती ठोंककर आज गुणगान किया जा सके । बस बचपन में जाने अनजाने हमने भी एक दलित के घर भोजन करने का महत कार्य संपन्न कर ही लिया । हम जानते हैं,हम कोई सेलिब्रिटी अथवा नामी गिरामी जनता के तुच्छ सेवक भी नहीं,हमारे पास इस सत्कार्य का कोई वीडियो अथवा प्रमाण भी नहीं,फिर भी हमारे लिखे को ही दस्तावेज़ समझा जावे, व वक्त जरूरत काम आवे ।।

यह तब की बात है,जब हम किसी सांदीपनी आश्रम में नहीं,हिंदी मिडिल स्कूल में पढ़ते थे । सरकारी स्कूल था,जिसे आज की भाषा में शासकीय कहा जाता है । पास में ही मराठी मिडिल स्कूल भी था,जहां कभी अभ्यास मंडल की ग्रीष्मकालीन व्याख्यानमाला गर्मी की छुट्टियों में आयोजित हुआ करती थी । आज वहां भले ही मराठी मिडिल स्कूल का अस्तित्व नहीं हो, अभ्यास मंडल जरूर जाल ऑडिटोरियम में सिमटकर रह गया है ।

तब सिर्फ हिंदी और मराठी मिडिल स्कूल ही नहीं,उर्दू और सिंधी मिडिल स्कूल भी होते थे। जैसा पढ़ाई का माध्यम,वैसा स्कूल ! कक्षा में हर छात्र का एक नाम होता था,और बस वही उसकी पहचान होती थी । अमीर गरीब की थोड़ी पहचान तो थी,लेकिन जाति पांति की नहीं । दलित जैसा शब्द हमारे शब्दकोश में तब नहीं था ।

बस यहीं से हमारी दोस्ती की दास्तान भी शुरू होती है ।।

जो कक्षा में,आपकी डेस्क पर आपके साथ बैठता है, वह आपका दोस्त बन जाता है । आज इच्छा होती है यह जानने की, हमारे वे दोस्त आज कहां हैं, कैसे हैं । दो दिन साथ रहकर जाने किधर गए । किसी का नाम याद है तो किसी का चेहरा ।धुंधली,लेकिन सुनहरी यादें ।

उस दोस्त का चेहरा आज तक याद है नाम शायद कहीं गुम गया । वहीं रिव्हर साइड रोड पर वह रहता था । स्कूल,घर और दोस्तों को आपस में जोड़ने वाली हमारे शहर की नदी पहले खान नदी कहलाती थी । आजकल इसके सौंदर्यीकरण के साथ ही इसका नामकरण भी कान्ह नदी कर दिया गया है । गरीब दलित हो गया और खान कान्ह ।।

खातीपुरा और रानीपुरा जहां मिलते हैं,वही रिव्हर साइड रोड है,जहां आज की इस कान्ह नदी पर एक कच्चा पुल था,जिसके आसपास की बस्ती तोड़ा कहलाती थी । नार्थ तोड़ा और साउथ तोड़ा । ठीक उसी तरह,जैसे अमीरों की बस्ती में नॉर्थ और साउथ ब्लॉक होते हैं। इसी तोड़े में मेरा यह दोस्त रहता था और जिसके आग्रह पर मैं आज से साठ वर्ष पूर्व उसकी झोपड़ी में प्रवेश कर चुका था।

कच्चा घर था,घर में सिर्फ उसकी मां और एक जलता हुआ चूल्हा था,जिस पर मोटी मोटी गर्म रोटी सेंकी जा रही थी । एक डेगची में गुड़ और आटे की बनी लाप्सी रखी थी । मैं संकोचवश उसके आग्रह को ठुकरा ना सका और एक पीतल की थाली में मैंने भी भोग लगा ही दिया ।।

हम इंसान हैं, कोई भगवान नहीं । हर व्यक्ति बुद्ध नहीं बन सकता । गरीबी अमीरी और जात पांत,ऊंच नीच की दीवार नहीं तोड़ सकता और ना ही संसार से पलायन कर सकता । जो हमें आज ईश्वर ने दिया है, वह सबको नहीं दिया ।आज भी वह दोस्त मेरी आंखों के सामने नजर आता है । उसकी मां और उसके हाथ की लाप्सी रोटी का सात्विक स्वाद ।

कुंती ने कृष्ण से यही तो मांगा था। अगर कष्ट में आपकी याद आती है,आप हमारे करीब होते हो,तो थोड़ा कष्ट ही सही,थोड़ा अभाव ही सही । जीवन में कुछ दोस्त ऐसे बने रहें,जिनके बीच हम सिर्फ इंसान बने रहें । कितनी दीवारें,कितने क्लब और सर्कल हमें मानवीय मूल्यों से जोड़ रहे हैं,अथवा तोड़ रहे हैं,हमसे बेहतर कौन जान सकता है ।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 31 – देश-परदेश – ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 31 ☆ देश-परदेश – पड़ोस का बनिया ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे यहां तो प्राय प्रत्येक गली,नुक्कड़ या मोहल्ले में दैनिक जीवन में उपयोग की जाने वाली सामग्री उपलब्ध हो जाती हैं। कोविड काल में भी इन्होंने जनता के भोजन में कोई कमी नही आने दी थी। पुराने समय में तो इस प्रकार की दुकानें घर में ही होती थी और भोर से देर रात्रि तक सुविधा मिलती रहती थी।वो बात अलग है, की इनका विक्रय मूल्य बाज़ार से अधिक रहता हैं। उधारी की अतिरिक्त सुविधा भी बहुतायत में मिल जाती हैं।हमारी हिंदी फिल्मों के ग्रामीण  पटकथा में अभिनेता “जीवन” ने अनेक   रोल में बनिया बन कर अपनी कला का लोहा मनवाया था।

यहां विदेश में तो विशाल शोरूम के माध्यम से ही दैनिक सामग्री उपलब्ध करवाई जाती है, जिनमें वॉल मार्ट, कोस्को, अमेजान जैसे खिलाड़ी अपनी सेवाएं प्रदान करने में अग्रणी हैं।

वर्तमान निवास से दो मील की दूरी पर एक छोटे से स्टोर में जाना हुआ, तो वहां गुजरात के विश्व  पूज्यनीय संत “स्वामी नारायण” जी के चित्र को देखकर आश्चर्य भी हुआ और अच्छा भी लगा।जानकारी मिली की स्टोर एक गुजराती श्री पिंटू जी विगत अठारह वर्ष से चला रहे हैं। नाम कुछ पश्चिम देश का लगा तो पूछ लिया तो वो हंसते हुए बोले मेरा गुजराती नाम पियुषभाई हैं,अमरीकी लोगों के लिए पिंटू सुविधाजनक और यहां का ही लगता है। इसलिए सभी अब इस नाम से ही जानते हैं।बात भी सही है,नाम में क्या रखा है,काम होना चाइए।

सुबह छः बजे से रात्रि दस बजे तक वो अपनी पत्नी के साथ अपना स्टोर चलते हैं।                                                                     

यहां पर दूध, सिगरेट,शराब, लॉटरी टिकट इत्यादि विक्रय किए जाते हैं।                                

अमेरिका जैसे विकसित और पढ़ें लिखे देश में हमारे देश के गुजराती भाई अनेक दशकों से कई प्रकार के व्यवसाय सफलता पूर्वक चला रहे हैं।कुछ परिवारों की तो तीसरी/ चौथी पीढ़ी यहां के व्यापार जगत में अपनी पैंठ बना चुकी हैं।

हमारे देश के सिंधी भाई भी पूरे गल्फ में छाए हुए हैं। सिख बंधु भी इंगलैंड और कनाडा जैसे देशों की आबादी को हिस्सा बन चुके हैं। दक्षिण पूर्व सिंगापुर, मलेशिया आदि में तमिल भाई अग्रणी हैं।

आई टी सेवा में तो पूरे देश के लोग विश्व में भारत की शान हैं,परंतु बहुतायत आंध्र प्रदेश से आते हैं।

पिंटू जी ने भारतीय संस्कृति का परिचय देते हुए हमें चाय/कॉफी का प्रस्ताव दिया। हमने भी उनकी मेज़बानी स्वीकार किया और अमेरिका देश के बारे में ढेर सारी जानकारी प्राप्त कर ली।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print