श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 187 ☆ देह न बारम्बार ?

हमारे परिसर में मेट्रो ट्रेन का काम चल रहा है। इसके चलते घर लौटने के लिए एक किलोमीटर आगे जाकर एक पुलिया के अंडरपास से यू-टर्न लेना पड़ता है। यहाँ पास में कुछ मांसाहारी ढाबे हैं जो प्राणियों के अवशेष पुलिया के पास ही फेंक देते हैं। कौवों का हुजूम इन अवशेषों को लेकर यहाँ-वहाँ बैठा होता है और मारे दुर्गंध के उस मार्ग से निकलना कठिन होता है।

प्राणियों के अवशेष जीवन की क्षणभंगुरता का चित्र सामने खड़ा करते हैं। साथ ही चिंतन में विचार उठता है कि प्राण है तो ही देह सुगंधित है। चेतन तत्व का वास है तभी जीवन में सुवास है। अनित्य में नित्य है तो शरीर शेष है अन्यथा सब अवशेष है। इसे जीवन के विस्तृत क्षितिज पर देखें तो पाएँगे कि मनुष्य देह, आत्मा की यात्रा को सार्थक करने का साधन है।

विचार किया जाना चाहिए कि हम इस देहावधि को कैसे बिता रहे हैं? निरंतर दूसरों की आलोचना में व्यस्त रह कर…? दूसरों की प्रगति से कुढ़कर…? सदा कटु भाषा का प्रयोग करके…? वर्गभेद द्वारा…? वर्णभेद द्वारा…? स्त्री-पुरुष में अंतर करके…? आभासी या बनावटी जीवन जीकर…? आत्ममुग्धता का शिकार होकर.. ? ‘मैं और मेरा’ तक सीमित रह कर.. ? ये सारे तो कुछ लोकप्रिय (!) तरीके भर हैं जीने के। बाकी कटु सत्य तो यह है कि ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना’ के बाद भी अधिकांश जन अपने तक सीमित होकर जीने के मामले में अभिन्न हैं।

कबीर ने लिखा है,

दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

दुर्लभ मनुष्य जीवन स्वर्ग (आनंद) और नर्क (विषाद) के बीच  मील का पत्थर है। ऊर्ध्वाधर यात्रा आनंद की ओर ले जाएगी। विरुद्ध दिशा में चले तो विषाद तक पहुँचेंगे।

वस्तुत: देह से मनुष्य होना एक बात है, आचरण से मनुष्य बनना दूसरी। पहली से दूसरी की यात्रा में जीवन का उत्कर्ष छिपा है। इस यात्रा पर अपनी एक रचना स्मरण हो आती है,

यात्रा में संचित होते जाते हैं शून्य,

कभी छोटे, कभी विशाल,

कभी स्मित, कभी विकराल,

विकल्प लागू होते हैं,

सिक्के के दो पहलू होते हैं,

सारे शून्य मिलकर ब्लैकहोल हो जाएँ

और गड़प जाएँ अस्तित्व,

या मथे जा सकें सभी निर्वात एकसाथ

पाएँ गर्भाधान नव कल्पित,

स्मरण रहे,

शून्य मथने से ही उमगा था ब्रह्मांड

और सिरजा था ब्रह्मा का निमित्त,

आदि या इति, स्रष्टा या सृष्टि

अपना निर्णय, अपने हाथ

अपना अस्तित्व, अपने साथ..!

उर्ध्वाधर या रसातल, चुनाव क्या होगा?  वैसे बिरला ही होगा जो अमृत और हलाहल में अंतर न कर सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

💥 अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक 💥

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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