(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “अभी ज़िंदगी में तूफ़ान और भी हैं…”।)
ग़ज़ल # 26 – “अभी ज़िंदगी में तूफ़ान और भी हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “खुद से भी शायद ज्यादा…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 78 ☆ गजल – खुद से भी शायद ज्यादा… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक विचारणीय व्यंग्य “व्यंग्य – ऊँची मूँछ नीची सोच”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 119 ☆
☆ व्यंग्य – ऊँची मूँछ नीची सोच☆
निश्चित तौर पर ऊंची मूंछ सम्मान, वैभव, दबंगता और कुछ विशिष्ट ओहदों की निशानी मानी जाती है। पुरानी कहावत है मूँछ नीची न हो चाहे गर्दन कट जाए, आज भी प्रासंगिक लगती है। भाई मूँछ रखना तो समझ में आता है पर यह ऊंच-नीच का भाव कहीं न कहीं व्यक्ति के अहम को दर्शाता है अब आप ही बताएं, क्या जिनकी मूँछ नहीं होती या जो मूंछ नहीं रखते क्या उनकी कोई कीमत नहीं है? पुराने जमाने में हमने बुजुर्गों से सुना था की मालगुजारों और ठाकुरों के सामने कोई अपनी मूंछ ऊंची नहीं कर सकता था उन्हें अपनी मूंछें नीची रखना पड़ती थीं।
सिर्फ जागीरदारों, मालगुजार और ठाकुरों की मूँछें ही सदा ऊंची रहती थी। यदि किसी ने जाने-अनजाने इनके सामने अपनी मूंछ ऊंची कर ली या तान ली तो समझ लें उनकी खैर नहीं लट्ठ चल जाते थे साहब.!!
अब जागीरदारी-मालगुजारी और ठकुरासी तो रही नहीं पर विश्व पटल में अमेरिका, रूस, चीन जैसी महाशक्तियां अभी भी अपनी मूछें ऊंची रखना चाहती हैं और मानसिकता भी वही पुरानी कि उनके सामने कोई दूसरा अपनी मूंछ कैसे तान सकता है यूक्रेन-रूस का युद्ध पिछले 2 माह से सिर्फ इसी बात को लेकर चल रहा है। एक तरफ चीन है जो ताइवान पर कब्जा करना चाहता है, इजरायल सीरिया पर! ऐसे दुनिया में तमाम उदाहरण हैं जिनमें ये बड़े देश छोटे विकासशील देशों को छोटी मोटी आर्थिक मदद कर, उन्हें दबाकर, उनकी जमीन हथिया कर, अपना साम्राज्य विस्तारित करना चाहते हैं। विश्व में इन महाशक्तियों की विस्तारवादी नीतियां ही विश्व युद्ध की जनक हैं!!
इन महाशक्तियों के अहम का ग्रास बनते हैं आम नागरिक? जो न इनकी मूछों से कोई मतलब रखते हैं न इनके ऊंचा-नीचा होने से! फिर भी ये बेवजह शिकार हो जाते हैं इन मूंछ वालों के?
लाखों आम लोग बेबजह ही इनके अहम की बलि चढ़ रहे हैं, शहर बर्बाद हो रहे हैं, बमों की मार से जल रहे हैं, खाक हो रहे हैं! लोगों का जीना दुश्वार हो गया है, आम ज़िंदगी दूभर हो गई है, लोग भूखे मर रहे हैं! परिवार बिखर रहे हैं। इनके अहम की मूछों का दंश पीड़ितों से पूछो तो आपका हृदय विदीर्ण हो जाएगा।
ऐसा नहीं कि इन मूँछ वालों की दादागिरी की खबर विश्व मानव अधिकार संगठन को नहीं है? पर उसके स्वर मुखर नहीं हो पाते! लगता है महाशक्तियों के प्रभाव से वो उबर नहीं पा रहे हैं.! शायद यह भी महाशक्तियों की मूंछों का ही आतंक है! आज विश्व में जरूरत है शांति और सद्भाव की! पर क्या यह इन मूँछ वालों के सामने यह संभव है?
इन बड़े देशों की मूछों के चक्कर में अब बहुत से छोटे मोटे देश भी मूंछें उगाने लगे हैं जिसके चलते मूछों का आतंक बढ़ा है। मूछें यदि स्वयं के स्वाभिमान तक सीमित होती तब भी ठीक था पर ज्यादातर मामलों में ये अपने अहम की पूर्ति का सबब बनी हुई हैं। स्वाभाविक है जहां अहम होगा वहां टकराव सुनिश्चित है। अहम अपने आगे किसी को समझता कहां है? इन मूंछ वालों के अहम के साथ इनके अहम का पोषक बन कुछेक खड़े हो जाते हैं जिसका परिणाम गुटबाजी के रूप में सामने आता है! और यही गुटबाजी संघर्ष को जन्म देती है.!
काश हमारी भारतीय संस्कृति से ये मूंछ वाले कुछ सबक लेते और समझ सकते कि” सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।। का मंत्र समूचे मानव कल्याण के लिए कितना जरूरी है! काश ऊंची मूंछ के साथ सोच भी ऊंची होती? ऊंची मूंछ, नीची सोच रख कर अमन और शांति सद्भाव की तलाश कदापि मुमकिन नहीं है।