हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 281 ⇒ हग हग हगीज़… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हग हग हगीज़।)

?अभी अभी # 281 ⇒ हग हग हगीज़… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

चौंकिए मत, यह एक विशुद्ध अंग्रेजी शीर्षक है। हम भी ऐसे ही चौंके थे, जब हमने मनोहर श्याम जोशी का हरिया हरक्युलिस की हैरानी जैसा शीर्षक वाला उपन्यास, देखा था। एक बहुत पुराना बच्चों का गीत है, गोरी जरा हंस दे तू, हंस दे तू, हंस दे जरा। और गीत के आखिर में एक बच्ची के हंसने की आवाज आती है।

कोई बच्चा हंसे, और उसे गले से लगाने की इच्छा ना हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। बाल लीला बड़ी मनोहर होती है। आपने सुना होगा,

“सूरदास तब विहंसि यशीदा, ले उर कंठ लगायो”।।

बच्चा तो खैर बच्चा ही होता है, और हर बच्चा सुंदर होता है। हम भी जब छोटे थे, तो आजकल की भाषा में बड़े क्यूट थे। बेचारे क्यूट बच्चे के गोरे गोरे गाल नोंचने से लोगों को क्या मिल जाता है। कभी तो उनका चेहरा और लाल हो जाता है, तो कभी कभी तो वे बेचारे दर्द के मारे रो देते हैं। हद होती है, चुम्मा चाटी की भी। बस, इसी को आजकल की भाषा में hug कहते हैं।

समझदार माताएं हमारे जमाने में छोटे बच्चों को नैपीज पहनाती थी, जिसे हम हमारी भाषा में लंगोट कहते थे। घर में इतने भाई बहन थे, कि सबको बच्चे को लंगोट पहनाना आ जाता था। बच्चा लाड़ प्यार का भूखा होता है, और हंसते बच्चे को तो कोई भी गोद में उठा लेता है। क्या भरोसा कब बच्चा गीला कर दे। गीला करते ही बच्चा थोड़ी झेंप के साथ वापस माता को सुपुर्द कर दिया जाता था, लगता है इसने गीला कर दिया है।।

वही बच्चे की लंगोट, नैप्पीज से कब डायपर हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। हमें भी आटे दाल के भाव पते चल गए, जब अपने नवासी के लिए डायपर खरीदने निकले।

उस जमाने में दस रुपए का एक था। हम ध्यान डायपर के भाव पर रहता, और बच्चा डायपर की राह देखता। शंका लघु हो अथवा दीर्घ, डायपर लगाते ही, दूर हो जाती थी।

आपको शायद विचित्र लगे, बच्चों को सू सू कराने का भी तरीका होता है। अनुभवी माताएं आज की तरह हगीज के भरोसे नहीं रहती थी। बच्चे को खड़ा करके संगीत के साथ सू सू कराती थी। जब सा सा एक संगीत प्रेमी को मुग्ध कर सकता है, तो क्या सिर्फ मुंह से निकाली गई सू सू जैसी ध्वनि बच्चे की छोटी सी समस्या का निवारण नहीं कर सकती।।

लेकिन आज के व्यस्त जीवन में परिवारों में कहां इतने फुरसती जीव। हमने बच्चे को हगीज पहना दी है, जिसको जितना hug करना है, बच्चे को, प्रेम से करें। झेंपने और शरमाने जैसी कोई स्थिति ही नहीं। बच्चा भी खुश, आप भी खुश।

Hug Hug Huggies ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 280 ⇒ अनन्य भाव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अनन्य भाव ।)

?अभी अभी # 280 ⇒ अनन्य भाव … ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अब मेरा तेरे सिवा

मेरे प्रभु कोई नहीं।

यार तू, दिलदार तू

तेरे सिवा कोई नहीं। ।

सरिता के जल की तरह ही तो होता है, भाव का भी प्रवाह, एक आया, एक गया। एक भाव से ना तो दुनियादारी चलती है और ना ही हमारा अपना संसार। भाव हमारे चित्त की एक अवस्था है। चित्त में ऐसा कोई RO अथवा प्यूरीफायर नहीं लगा, जो हमारे भावों को सतत शुद्ध करता चले। भक्ति से चित्त शुद्ध और मन निर्मल होता है। फिर यह अनन्य भाव अथवा भक्ति क्या है।

तू नहीं और सही, और नहीं, और सही, किसी भक्त के नहीं, विभक्त के लक्षण हैं। नारद भक्ति सूत्र में भी जिस नवधा भक्ति का वर्णन किया है, उसमें कहीं भी अनन्य भाव का उल्लेख नहीं है।

कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भक्ति के इन प्रकारों का अनन्य भाव से कोई लेना देना नहीं है। ।

आप चाहे कीर्तन करें, स्मरण, अर्चन, वंदन अथवा आत्म निवेदन करें, अनन्य भाव भक्ति की पहली शर्त है। दास्य और सख्य भाव तो अनन्य भाव की पराकाष्ठा है। जितनी अनन्य भक्ति गोस्वामी तुलसीदास जी की अपने आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के प्रति थी, उतना ही अनन्य भाव वानर श्रेष्ठ हनुमान जी महाराज का प्रभु श्री राम के प्रति था। यही तो होता है अनन्य दास्य भाव।

मेरे तो गिरधर गोपाल,

दूसरो न कोई।

जाके सिर मोर मुकुट

मेरो पति सोई।।

बस यही तो है मीरा की अनन्य भक्ति और अनन्य भाव। अनन्य यानी अन्य कोई नहीं। अगर परमेश्वर सखा हो सकता है तो क्या पति नहीं हो सकता। अनन्य भक्ति में कैसी कुल की मर्यादा और कैसी लोक लाज। उधर हमारे संत सूरदास तो अपने आराध्य बालकृष्ण की बाल लीलाओं में ही खोये हुए हैं। मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो। पूरा सूर सागर ही श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति का महासागर है। ।

अनन्य भाव कभी एक तरफा नहीं होता। पहल उधर से भी होती है, तब ही अनन्य भक्ति का मार्ग पुष्ट होता है। जब प्रभु श्री राम शबरी के जूठे बेर खाते हैं, केवट की नाव पर चढ़ते हैं, तब ही अनन्य भक्ति की परिणति होती है।

सुदामा के मुट्ठी भर चावल हो, विदुर का साग हो अथवा अर्जुन के रथ की डोर सारथी के रूप में थामने की लीला हो, बिना अनन्य भक्ति और प्रेम के यह सब संभव नहीं।।

एक नन्हा बालक मां के शरीर से ही अलग होकर इस संसार में आता है। फिर भी मां बेटे कहां जुदा होते हैं। दोनों की एक दूसरे में जान बसी रहती है। ईश्वर से भी हमारा भी तो यही रिश्ता है। हम भी तो उसके बालक ही हैं।

बस हमारी डोर सदा उसके हाथ में रहे, यही तो अनन्य भाव है। कृष्ण भी अर्जुन को गीता में यही संदेश देते हैं ; मामेकं शरणं व्रज ;

एक राम है, एक राम है

एक राम है मेरा।

दूजा नाहीं, दूजा नाहीं मोरा। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 70 – देश-परदेश – हवाई यात्रा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 70 ☆ देश-परदेश – हवाई यात्रा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

यूरोप के देश फिनलैंड में अब हवाई यात्रा से पूर्व, यात्री का भी वजन लिया जाएगा, ताकि हवाई जहाज की कुल भार वाहक क्षमता से कुल वजन अधिक ना हो जाए।

वर्तमान में तो सिर्फ यात्री के सामान का ही वजन किया जाता हैं। उसमें भी इतनी परेशानी होती है। यात्रा से पूर्व सूटकेस के वजन को अनेकों बार चेक किया जाता है, कि कहीं तय वजन से अधिक तो नहीं हो गया हैं।

हमारे देश के लोग तो कपड़ों की कई लेयर पहनकर यात्रा करते है, ताकि सामान का वजन निर्धारित सीमा में रहें। यदि ठंडे स्थान पर जा रहे हैं, तो ओवरकोट/ शाल इत्यादि हाथ में पकड़े रहते हैं।

विदेश अध्ययन करने के लिए चयनित बच्चे तो कोर्स की सबसे मोटी पुस्तक भी हाथ में रखते है, ये कहते हुए यात्रा के समय अध्यन करना हैं।

हमे तो लग रहा है, आने वाले समय में व्यक्ति और सामान के वजन अनुसार किराया शुल्क तय होगा। इस प्रावधान से यात्री, यात्रा से कुछ समय पूर्व भोजन और जल भी नही ग्रहण करेंगे, ताकि किराया कम लगें।

हमारे जैसे यात्री जिनको एयरपोर्ट लाउंज में प्रायः निशुल्क भर पेट खाने की सुविधा प्राप्त है। जम कर मुफ्त की रोटियां तोड़ेंगे। ये भी हो सकता है, वजन हवाई जहाज में ही लिया जाय, ताकि  हेरा फेरी की संभावना नगण्य रहे।

जिम वाले भी हवाई यात्रा के लिए बहुत कम समय में वजन को कम करने के विशेष पैकेज परोसने लगेंगे। कार्यालय में कम वजन वालों को ही कार्यालय से संबंधित यात्रा में भेजा जाने लगेगा।

अब समय आ गया है, हम सब अपना वजन कम करें। खाने पीने पर नियंत्रण तो रखें साथ ही साथ मोबाईल के इस्तेमाल पर भी अंकुश रखें, क्योंकि मोबाईल के अधिक उपयोग से भी वजन बढ़ना तय होता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 279 ⇒ अस्मिता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अस्मिता।)

?अभी अभी # 280 ⇒ अस्मिता… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अहंकार, आसक्ति और अस्मिता तीनों एक ही परिवार के सदस्य हैं। वे हमेशा आपस में मिल जुलकर रहते हैं। अस्मिता सबसे बड़ी है, और अहंकार और आसक्ति जुड़वा भाई बहन हैं। वैसे तो जुड़वा में कोई बड़ा छोटा नहीं होता, फिर भी अहंकार अपने आपको आसक्ति से बड़ा ही मानता है। अहंकार को अपने भाई होने का घमंड है, जब कि आसक्ति अहंकार से बहुत प्रेम करती है, और उसके बिना रह नहीं सकती।

अहंकार आसक्ति को अकेले कहीं नहीं जाने देता। अहंकार जहां जाता है, हमेशा आसक्ति को अपने साथ ही रखता है।

अहंकार की बिना इजाजत के आसक्ति कहीं आ जा भी नहीं सकती।

अस्मिता को याद नहीं उसका जन्म कब हुआ।

कहते हैं अस्मिता की मां उसे जन्म देते समय ही गुजर गई थी। अस्मिता के पिता यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सके और तीनों बच्चों यानी अस्मिता, अहंकार और आसक्ति को अकेला छोड़ कहीं चले गए। बड़ी बहन होने के नाते, अस्मिता ने ही अहंकार और आसक्ति का पालन पोषण किया।।

अब अस्मिता ही दोनों जुड़वा भाई बहनों की माता भी है और पिता भी। अहंकार स्वभाव का बहुत घमंडी भी है और क्रोधी भी। जब भी लोग उसे अनाथ कहते हैं उसकी अस्मिता और स्वाभिमान को चोट पहुंचती है और वह और अधिक उग्र और क्रोधित हो जाता है, जब कि आसक्ति स्वभाव से बहुत ही विनम्र और मिलनसार है। वह सबसे प्रेम करती है और अस्मिता और अहंकार के बिना नहीं रह सकती।

कभी कभी अहंकार छोटा होते हुए भी अस्मिता पर हावी हो जाता है। उसे अपने पुरुष होने पर भी गर्व होता है। रोज सुबह होते ही वह अस्मिता और आसक्ति को घर में अकेला छोड़ काम पर निकल जाता है। एक तरह से देखा जाए तो अहंकार ही अस्मिता और आसक्ति का पालन पोषण कर रहा है।।

अहंकार को अपनी बड़ी बहन अस्मिता और जुड़वा बहन आसक्ति की बहुत चिंता है। बड़ी बहन होने के नाते अस्मिता चाहती है अहंकार शादी कर ले और अपनी गृहस्थी बना ले, लेकिन अस्मिता और आसक्ति दोनों अहंकार की जिम्मेदारी है, वह इतना स्वार्थी और खुदगर्ज भी नहीं। वह चाहता है अस्मिता और आसक्ति के एक बार हाथ पीले कर दे, तो बाद में वह अपने बारे में भी कुछ सोचे।

लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर होता है। अचानक अस्मिता के जीवन में विवेक नामक व्यक्ति का प्रवेश होता है, और वह बिना किसी को बताए, चुपचाप, अहंकार और आसक्ति को छोड़कर विवेक का हाथ थाम लेती है। एक रात अस्मिता विवेक के साथ ऐसी गायब हुई, कि उसका आज तक पता नहीं चला।।

बस तब से ही आज तक अहंकार और आसक्ति अपनी अस्मिता को तलाश रहे हैं, लेकिन ना तो अस्मिता ही का पता चला है और ना ही विवेक का।

अस्मिता का बहुत मन है कि विवेक के साथ वापस अहंकार और आसक्ति के पास चलकर रहा जाए। लेकिन विवेक अस्मिता को अहंकार और आसक्ति से दूर ही रखना चाहता है। बेचारी अस्मिता भी मजबूर है।

उधर अस्मिता के वियोग में अहंकार बुरी तरह टूट गया और बेचारी आसक्ति ने तो रो रोकर मानो वैराग्य ही धारण कर लिया है।

अगर किसी को अस्मिता और विवेक का पता चले, तो कृपया सूचित करें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 227 – शारदीयता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 227 शारदीयता ?

कुछ चिंतक भारतीय दर्शन को नमन का दर्शन कहते हैं जबकि यूरोपीय दर्शन को मनन का दर्शन निरूपित किया गया है।

वस्तुतः मनुष्य में विद्यमान शारदीयता उसे सृष्टि की अद्भुत संरचना और चर या अचर हर घटक की अनन्य भूमिका के प्रति मनन हेतु प्रेरित करती है। यह मनन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, कृति और कर्ता के प्रति रोम-रोम में कृतज्ञता और अपूर्वता का भाव जगता है। इस भाव का उत्कर्ष है गदगद मनुष्य का नतमस्तक हो जाना, लघुता का प्रभुता को नमन करना।

मनन से आगे का चरण है नमन। नमन में समाविष्ट है मनन।

दर्शन चक्र में मनन और नमन अद्वैत हैं। दोनों में मूल शब्द है – मन। ‘न’ प्रत्यय के रूप में आता है तो मन ‘मनन’ करने लगता है। ‘न’ उपसर्ग बन कर जुड़ता है तो नमन का भाव जगता है।

मनन और नमन का एकाकार पतझड़ को वसंत की संभावना बनाता है।

मौसम तो वही था,

यह बात अलग है

तुमने एकटक निहारा

स्याह पतझड़,

मेरी आँखों ने चितेरे

रंग-बिरंगे वसंत,

बुजुर्ग कहते हैं-

देखने में और

दृष्टि में

अंतर होता है!

देखने को दृष्टि में बदल कर आनंदपथ का पथिक हो जाता है मनुष्य।

एक प्रसंग साझा करता हूँ।  स्वामी विवेकानंद के प्रवचन और व्याख्यानों की धूम मची हुई थी। ऐसे ही एक प्रवचन को सुनने एक सुंदर युवा महिला आई। प्रवचन का प्रभाव अद्भुत रहा। तदुपरांत स्वामी जी को प्रणाम कर एक-एक श्रोता विदा लेने लगा। वह सुंदर महिला बैठी रही। स्वामी जी ने जानना चाहा कि वह क्यों ठहरी है? महिला ने उत्तर दिया,’ एक इच्छा है, जिसकी पूर्ति केवल आप ही कर सकते हैं।’ ..’बताइये, आपके लिए क्या कर सकता हूँ’, स्वामी जी ने पूछा। ..’मैं, आपसे शादी करना चाहती हूँ।’ …स्वामी जी मुस्करा दिया ये। फिर पूछा, ‘ आप मुझसे विवाह क्यों करना चाहती हैं?’…कुछ समय चुप रहकर महिला बोली,’ मेरी इच्छा है कि मेरा, आप जैसा एक पुत्र हो।’…स्वामी जी तुरंत महिला के चरणों में झुक गए और बोले, ‘आजसे आप मेरी माता, मैं आपका पुत्र। मुझे पुत्र के रूप में स्वीकार कीजिए।’

देखने को दृष्टि में बदलने वाली शारदीयता हम सबमें सदा जाग्रत रहे। वसंत ऋतु की मंगलकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 278 ⇒ ईश्वर की अहैतुकी कृपा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ईश्वर की अहैतुकी कृपा।)

?अभी अभी # 278 ⇒ ईश्वर की अहैतुकी कृपा… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ईश्वर को कृपा निधान अथवा दया निधान भी कहा गया है। दया निधि कहें, कृपा निधि कहें अथवा करुणा निधि, सबका एक ही अर्थ है, प्यार का सागर। तेरी एक बूंद के प्यासे हम। ईश्वर परमेश्वर ही नहीं, निर्विकार और निराकार भी है। केवल ईश्वरीय तत्व ही इस सृष्टि में व्याप्त हैं, जिनमें उन्हें खोजा अथवा पाया जा सकता है और वे ईश्वरीय तत्व क्या हैं, दया, करुणा, प्रेम और ममता। ईश्वर को और कहीं खोजने की आवश्यकता नहीं।

ईश्वर को भक्त वत्सल भी कहा गया है। श्रीकृष्ण तो साक्षात प्रेम के ही अवतार हैं, जो आकर्षित करे वही तो कृष्ण है। जब आकर्षण आ कृष्ण बन जाता है, तब रास शुरू हो जाता है।।

हमारा कारण शरीर है। हमारे जन्म का भी कुछ तो हेतु होगा, कारण होगा, उद्देश्य होगा। जब गीता में निष्काम कर्म की बात की गई है तो भक्ति में कैसा कारण और कैसा हेतु। फिर भी हम तो यही कहते हैं ;

करोगे सेवा तो मिलेगा मेवा;

भजोगे राम, तो बन जाएंगे सभी बिगड़े काम।

वह ऊपर वाला तो खैर बिगड़ी बनाता ही है, और अपने भक्तों की मुरादें भी पूरी करता है, लेकिन हम जिस अहैतुकी कृपा की बात कर रहे हैं, उसमें सेवा, भक्ति अथवा समर्पण का कोई उद्देश्य अथवा हेतु नहीं होता है। कोई शर्त नहीं, कोई मांग नहीं, total unconditional surrender तो बहुत छोटा शब्द है इस अहैतुकी भक्ति के लिए।।

जब भक्त में अहैतुकी भक्ति जाग जाती है, तो उसके आराध्य में भी अहैतुकी कृपा का भाव जागृत हो जाता है। इस अहैतुकी कृपा का कोई समय अथवा स्थान तय नहीं होता। इसका पंचांग से कोई मुहूर्त नहीं निकाला जा सकता। जन्माष्टमी, रामनवमी, शिवरात्रि और हनुमान जयंती से भी इसका कोई सरोकार नहीं। यह निर्मल बाबा की किरपा नहीं, जो कहीं पाव भर रबड़ी में अटकी हुई है। यह ईश्वर की अहैतुकी कृपा है, जिस पर जब हो गई, हो गई।

तो क्या इतने कर्म कांड, जप तप संयम और यज्ञ हवन से ईश्वर को प्रसन्न नहीं किया जा सकता। इन्हें साधन माना गया है, साध्य नहीं। आपका क्या है, ईश्वर ने आपका काम किया, आपकी इच्छा पूरी हुई। ईश्वर की आप पर कृपा हुई, आप प्रसन्न। आप प्रसन्न तो समझो ईश्वर भी प्रसन्न। आपका हेतु पूरा हुआ। अगली बार फिर कृपा हो जाए तो हम तो तर जाएं। प्रस्तुत है, चार्टर ऑफ़ डिमांड्स। पंडित जी क्या क्या करना पड़ेगा, ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए।।

अपने आप को पूरी तरह ईश्वर को समर्पित करना ही अहैतुकी भक्ति है। मीरा, राधा और गोपियों को छोड़िए, नरसिंह भगत को ही ले लीजिए। उन्होंने कभी कष्ट में अपने आराध्य को, द्रौपदी की तरह, मदद के लिए पुकारा ही नहीं। जब भक्त का यह भाव जागृत हो जाए, कि मेरी तो कोई लाज ही नहीं है, नाथ मैं थारो ही थारो। ऐसी अवस्था में भगवान को अपने भक्त की चिंता होने लगती है।

जिस कृपा का कोई हेतु ही नहीं, उसकी क्या व्याख्या की जाए। जिस पर की जा रही है, हो सकता है, उस भक्त की भक्ति भी अहैतुकी ही हो। वैसे यह शब्द सांसारिक है ही नहीं, बिना कारण, हेतु अथवा उद्देश्य के ईश्वर की भक्ति में क्या तुक। जो हेतु भी तर्क से परे और हमारी सांसारिक बुद्धि से परे हो, शायद वही अहैतुकी कृपा हो। बस हम तो इतना ही कह सकते हैं ;

प्रभु तेरी महिमा किस बिध गाऊॅं।

तेरो अंत कहीं नहीं पाऊँ।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 277 ⇒ चित्रगुप्त, भक्त और भगवान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चित्रगुप्त, भक्त और भगवान।)

?अभी अभी # 277 ⇒ चित्रगुप्त, भक्त और भगवान … ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह हर देश का संविधान है, ईश्वर का भी एक विधान है। संविधान के ऊपर कोई नहीं, इश्वर के विधान के आगे सब नतमस्तक हैं। एक तरफ कानून और भारतीय दण्ड संहिता है तो दूसरी ओर चित्रगुप्त जीव के पाप पुण्य का लेखा जोखा लिए स्वर्ग और नरक के दरवाजे पर बैठे हैं। पंडित के हाथ में गरुड़ पुराण है और भक्त के हाथ में भागवत पुराण।

सरकारी दफ्तर में अफसर भी है और बड़े बाबू भी। अफसर दौरे में व्यस्त है और बाबू फाइल में। अदालत अगर मुजरिम को फांसी का अधिकार रखती है तो राष्ट्रपति mercy petition पर निर्णय देने का। एक विधान चित्रगुप्त का तो एक विधान करुणा निधान, पतित पावन का।।

भक्त अगर एक बार शरणागति हो जाता है, तो भगवान को भी यह कहना पड़ता है कि – सब धर्मों का परित्याग करके तुम केवल मेरी शरण में आ जाओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो। क्या भक्त और भगवान के बीच कोई ऐसा गुप्त करार है जिसके बीच चित्रगुप्त के बही खाते धरे के धरे रह जाते हैं। क्या रघुपति राघव राजाराम, वाकई पतित पावन सीताराम हैं! जहां तर्क है, शंका है, वहां ईश्वर नहीं है।

ईश्वर का न्याय, ईश्वर का विधान अपनी जगह है। सज्जन लोगों की आज भी आस्था है कि कोई मुजरिम अथवा पापी भले ही कानून की नजर से बच जाए, ईश्वर की निगाह से नहीं बच सकता। क्योंकि अगर आधुनिक जगत सीसीटीवी कैमरे वाला है तो उनका हरि भी हजार हाथ वाला ही नहीं हजार आंख वाला भी है। उसकी निगाह से कोई दुष्ट, पापी बच नहीं सकता।।

वैकुंठ में एक नारायण हैं, इस भारत भूमि पर भी एक जयप्रकाश नारायण हुए हैं जिन्होंने पहले डाकुओं का आत्म समर्पण करवाया और कालांतर में जे.पी.बन संपूर्ण क्रांति का आव्हान कर देश को तानाशाही से बचाया। जब भी भक्तों ने पुकारा है, नारायण कभी विवेकानंद तो कभी नरेंद्र बन इस धरा पर अवतरित हुए हैं और इसे दुष्टों और पापियों से मुक्त किया है।

भक्त को चित्रगुप्त का पाप पुण्य का बही खाता डरा नहीं सकता। उसकी इश्वर में आस्था प्रबल है और उसके संस्कार भी पवित्र हैं। वह रोज भागवत पुराण का पाठ करता है, उसकी आरती गाता है ;

भागवत भगवान की है आरती।

पापियों को पाप से है तारती।।

चित्रगुप्त से डरें नहीं, भगत के बस में हैं भगवान ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #218 ☆ मैं और तुम का झमेला… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं और तुम का झमेला। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 218 ☆

मैं और तुम का झमेला... ☆

‘जिंदगी मैं और तुम का झमेला है/ जबकि सत्य यह है/ कि यह जग चौरासी का फेरा है/ और यहां कुछ भी ना तेरा, ना मेरा है/ संसार मिथ्या, देह नश्वर/ समझ ना पाया इंसान/ यहाँ सिर्फ़ मैं, मैं और मैं का डेरा है।” जी हाँ– यही है सत्य ज़िंदगी का। इंसान जन्म-जन्मांतर तक ‘तेरा-मेरा’ और ‘मैं और तुम’ के विषैले चक्रव्यूह में उलझा रहता है, जिसका मूल कारण है अहं– जो हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। इसके इर्द-गिर्द हमारी ज़िंदगी चक्करघिन्नी की भांति निरंतर घूमती रहती है।

‘मैं’ अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव उक्त भेद-विभेद का मूल कारण है। यह मानव को एक-दूसरे से अलग-थलग करता है। हमारे अंतर्मन में कटुता व क्रोध के भावों का बीजवपन करता है; स्व-पर व राग-द्वेष की सोच को हवा देता है –जो सभी रोगों का जनक है। ‘मैं ‘ के कारण पारस्परिक स्नेह व सौहार्द के भावों का अस्तित्व नहीं रहता, क्योंकि यह उन्हें लील जाता है, जिसके एवज़ में हृदय में ईर्ष्या-द्वेष के भाव पनपने लगते हैं और मानव इस मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है; जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है। इतना ही नहीं, हम उसे सहर्ष धरोहर-सम सहेज-संजोकर रखते हैं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी सत्ता काबिज़ किए रहता है। इसका खामियाज़ा आगामी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है, जबकि इसमें उनका लेशमात्र भी योगदान नहीं होता।

‘दादा बोये, पोता खाय’ आपने यह मुहावरा तो सुना ही होगा और आप इसके सकारात्मक पक्ष के प्रभाव से भी अवगत होंगे कि यदि हम एक पेड़ लगाते हैं, तो वह लंबे समय तक फल प्रदान करता है और उसकी कई पीढ़ियां उसके फलों को ग्रहण कर आह्लादित व आनंदित होती हैं। सो! मानव के अच्छे कर्म अपना प्रभाव अवश्य दर्शाते हैं, जिसका फल हमारे आत्मजों को अवश्य प्राप्त होता है। इसके विपरीत यदि आप किसी ग़लत काम में लिप्त पाए जाते हैं, तो आपके माता-पिता ही नहीं; आपके दोस्त, सुहृद, परिजनों आदि सबको इसका परिणाम भुगतना पड़ता है और उसके बच्चों तक तो उस मानसिक यंत्रणा को झेलना पड़ता है। उसके संबंधी व परिवारजन समाज के आरोप-प्रत्यारोपों व कटु आक्षेपों से मुक्त नहीं हो पाते, बल्कि वे तो हर पल स्वयं को सवालों के कटघरे में खड़ा पाते हैं। परिणामत: संसार के लोग उन्हें हेय दृष्टि व हिक़ारत भरी नज़रों से देखते हैं।

‘कोयला होई ना ऊजरा, सौ मन साबुन लाई’ कबीरदास जी का यह दोहा उन पर सही घटित होता है, जो ग़लत संगति में पड़ जाते हैं। वे अभागे निरंतर दलदल में धंसते चले जाते हैं और लाख चाहने पर भी उससे मुक्त नहीं पाते, जैसे कोयले को घिस-घिस कर धोने पर भी उसका रंग सफेद नहीं होता। उसी प्रकार मानव के चरित्र पर एक बार दाग़ लग जाने के पश्चात् उसे आजीवन आरोप-आक्षेप व व्यंग्य-बाणों से आहत होना पड़ता है। वैसे तो जहाँ धुआँ होता है, वहाँ चिंगारी का होना निश्चित् है और अक्सर यह तथ्य स्वीकारा जाता है कि उसने जीवन में पाप-कर्म किए होंगे, जिनकी सज़ा वह भुगत रहा है। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’ से तात्पर्य है कि लोगों के पास कुछ तो वजह होती है। परंतु कई बार उनकी बातों का सिर-पैर नहीं होता, वे बेवजह होती हैं, परंतु वे उनके जीवन में सुनामी लाने में कारग़र सिद्ध होती हैं और मानव के लिए उनसे मुक्ति पाना असंभव होता है। इसलिए मानव को अहंनिष्ठता के भाव को तज सदैव समभाव से जीना चाहिए।

‘अगुणहि सगुणहि नहीं कछु भेदा’ अर्थात् निर्गुण व सगुण ब्रह्म के दो रूप हैं, परंतु उनमें भेद नहीं है। प्रभु ने सबको समान बनाया है–फिर यह भेदभाव व ऊँच-नीच क्यों? वास्तव में इसी में निहित है– मैं और तुम का भाव। यही है मैं अर्थात् अहंभाव, जो मानव को अर्श से फ़र्श पर ले आता है। यह मानवता का विरोधी है और सृष्टि में तहलक़ा मचाने का सामर्थ्य रखता है। कबीरदास जी का दोहा ‘नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहे लेहुं/ ना हौं  देखूं और को, ना तुझ देखन देहुं’ में परमात्म-दर्शन पाने के पश्चात् मैं और तुम का द्वैतभाव समाप्त हो जाता है और तादात्म्य हो जाता है। जहाँ ‘मैं’नहीं, वहाँ प्रभु होता है और जहाँ प्रभु होता है, वहाँ ‘मैं’ नहीं होता अर्थात् वे दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते। सो! उसे हर जगह सृष्टि-नियंता की झलक दिखाई पड़ती है। इसलिए हमें हर कार्य स्वांत: सुखाय करना चाहिए। आत्म-संतोष के लिए किया गया कार्य सर्व-हिताय व सर्व-स्वीकार्य होता है। इसका अपेक्षा-उपेक्षा से कोई सरोकार नहीं होता और वह सबसे सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि व सर्वमान्य होता है। उसमें न तो आत्मश्लाघा होती है; न ही परनिंदा का स्थान होता है और वह राग-द्वेष से भी कोसों दूर होता है। ऐसी स्थिति में नानक की भांति मानव में केवल तेरा-तेरा का भाव शेष रह जाता है, जहाँ केवल आत्म- समर्पण होता है; अहंनिष्ठता नहीं। सो! शरणागति में ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का भाव व्याप्त होता है, जो उन सब झमेलों से श्रेष्ठ होता है। दूसरे शब्दों में यही समर्पण भाव है और सुख-शांति पाने की राह है।

नश्वर संसार में सभी संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। इसलिए यहां स्पर्द्धा नहीं, ईर्ष्या व राग-द्वेष का साम्राज्य है। मानव को काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार को त्यागने का संदेश दिया गया है। यह मानव के सबसे बड़े शत्रु हैं, जो उसे चैन की साँस नहीं लेने देते। इस आपाधापी भरे युग में मानव आजीवन सुक़ून की तलाश में मृग-सम इत-उत भटकता रहता है, परंतु उसकी तलाश सदैव अधूरी रहती है, क्योंकि कस्तूरी तो उसकी नाभि में निहित होती है और वह बावरा उसे पाने के लिए भागते-भागते अपने प्राणों की बलि चढ़ा देता है।

‘जीओ और जीने दो’ महात्मा बुद्ध के इस सिद्धांत को आत्मसात् करते हुए हम अपने हृदय में प्राणी मात्र के प्रति करुणा भाव जाग्रत करें। करुणा संवेदनशीलता का पर्याय है, जो हमें प्रकृति के प्राणी जगत् से अलग करता है। जब मानव इस तथ्य से अवगत हो जाता है कि ‘यह किराये का मकान है, कौन कब तक ठहर पाएगा’ अर्थात् वह इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौट जाना है। इसलिए मानव के लिए संसार में धन-दौलत का संचय व संग्रह करना बेमानी है। उसे देने में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि जो हम देते हैं, वही लौटकर हमारे पास आता है। सो! उसे विवाद में नहीं, संवाद में विश्वास रखना चाहिए और जीवन में मतभेद भले हों, मनभेद होने वाज़िब नहीं हैं, क्योंकि यह ऐसी दीवार व दरारें हैं, जिन्हें पाटना अकल्पनीय है; सर्वथा असंभव है।

यदि हम समर्पण व त्याग में विश्वास रखते हैं, तो जीवन में कभी भी कोई समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती। एक साँस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है, इसलिए संचय करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? इसका स्पष्ट प्रमाण है कि ‘कफ़न में भी जेब नहीं होती।’ यह शाश्वत् सत्य है कि सत्कर्म ही जन्म-जन्मांतर तक मानव का पीछा करते हैं और ‘शुभ कर्मण ते कबहुँ न टरौं’ भी उक्त भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’, वरना वह लख चौरासी के भँवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएगा। इस मिथ्या संसार से मुक्ति पाने का एकमात्र साधन उस परमात्म-सत्ता में विश्वास रखना है। ‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘कब रे! मिलोगे राम/ यह दिल पुकारे तुम्हें सुबहोशाम’ आदि स्वरचित गीतों में अगाध विश्वास व आत्म-समर्पण का भाव ही है, जो मैं और तुम के भाव को मिटाने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम साधन है। यह मानव को जीते जी मुक्ति पाने की राह पर अग्रसर करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 276 ⇒ राजनीति की नींबू रेस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ राजनीति की नींबू रेस ।)

?अभी अभी # 277 ⇒ राजनीति की नींबू रेस … ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप मानें या ना मानें, लेकिन आजकल हमें हर पारंपरिक खेल में राजनीति की बू आने लगी है। छोटे थे, तब से गणेशोत्सव के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में म्यूजिकल रेस और नींबू रेस जैसी सामूहिक प्रतिस्पर्धाएं हुआ करती थी। बच्चे, बड़ों, स्त्री पुरुष सबका बड़ा प्रिय खेल हुआ करता था तब।

म्यूजिकल रेस को कुर्सी रेस भी कहते हैं। एक कुर्सियों का गोला बनाया जाता था, जितने प्रतियोगी, उनसे कुर्सी की एक मात्रा कम। लाउडस्पीकर पर कोई गीत अथवा धुन शुरु होती और लोग कुर्सियों के बाहर से चक्कर लगाना शुरू करते। अचानक आवाज के रूकते ही, जो जहां होता, अपने आसपास की कुर्सी फुर्ती से हथिया लेता। हर बार एक प्रतिस्पर्धी को निराशा हाथ लगती, क्योंकि हर बार एक एक कुर्सी कम कर दी जाती। अंत में नौबत यह आती कि आदमी दो और कुर्सी एक। जिसने हथिया ली, वह विजयी घोषित हो जाता। आजकल राजनीति में प्रतिस्पर्धा के अनुसार कुर्सियां बढ़ा घटा दी जाती है। लेकिन हाथ लगी कुर्सी भी भला कभी कोई छोड़ता है।।

एक होती थी, नींबू रेस, जो हम कभी नहीं खेल पाए। किसी ओलिंपिक इवेंट से कम नहीं होती थी यह नींबू रेस। आपको अपनी लाइन में ही दौड़ना पड़ता था, मुंह में एक चमचा और उस पर सवार होते थे नींबू महाराज। आपको सबसे आगे दौड़ना भी है और नींबू को रास्ते में गिरने से भी बचाना है। यानी संतुलन और गति दोनों को बनाए रखकर दौड़ना पड़ता था प्रतिस्पर्धी को।

खेल में किसी भी तरह की धांधली ना हो, इसलिए यह सुनिश्चित किया जाता था, कि चम्मच अथवा नीबू के साथ कोई छेड़खानी नहीं की गई हो। चम्मच और नींबू का आकार भी एक समान होता था, चम्मच अथवा नींबू के साथ क्रिकेट की गेंद के समान कोई टेंपरिंग नहीं। साफ सुथरा चम्मच और स्वस्थ ताजा नींबू।।

मुझे खुशी है कि राजनीति में आज भी नींबू रेस की यह स्वस्थ परम्परा कायम है। चमचों को मुंह लगाते हुए अपना ध्यान नींबू अर्थात् पद अथवा की दौड़ में निरंतर शामिल होना, चम्मच भी मुंह से लगा रहे और सफलता भी हाथ लगे, यह कमाल एक साधारण इंसान के बस का नहीं।

राजनीति में सफल व्यक्ति ही वह होता है जो अपनी उपलब्धियों में भी अपने चमचों को मुंह लगाए रखता है। थोड़ा भी संतुलन बिगड़ा और बाजी किसी और के हाथ में।।

हमारे प्रदेश के कमलनाथ ना तो ठीक से चम्मच ही पड़क पाए और ना ही नींबू रूपी सत्ता का संतुलन बना पाए। राजनीति कोई बच्चों की नींबू रेस नहीं।

चम्मच और नींबू दोनों से हाथ धोना पड़ा राजनीति के इस कच्चे खिलाड़ी को।

कई  प्रांतों में नींबू रेस जैसी इवेंट प्रगति पर है। कई नेता भी सदल बल इस नीबू रेस में शामिल हो गए हैं। नीबू का संतुलन ही सत्ता का संतुलन है। रामझरोखे बैठकर देखते हैं, इन सबका क्या हश्र होता है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 181 ☆ प्रेम डोर सी सहज सुहाई… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना प्रेम डोर सी सहज सुहाई। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 181 ☆ प्रेम डोर सी सहज सुहाई ☆

वक्त के साथ समझदारी आती है, जिससे अहसास के मूल्य पुनर्जीवित हो जाते हैं। सुप्रभात, शुभरात्रि व शुभकामना संदेश ये सब इसी कड़ी को जोड़ने में मील का पत्थर साबित हुए हैं। सुविचारों के भेजने से सामने वाले की बौद्धिक क्षमता व उसके व्यक्तित्व का आँकलन भी होता है। लोग एक दूसरे से इतनी अपेक्षा रखते हैं कि बिना कुछ किये दूसरा सब कुछ करता रहे अर्थात केवल लेने की चाहत, ये कहाँ तक उचित हो सकता है? इसी सम्बन्ध में एक छोटी सी कहानी है- एक वृक्ष की पहचान व सुंदरता उसके फूल और फल से होती है इसी घमंड में फूल इतरा उठा उसने वृक्ष को खूब खरी- खोटी सुनायी।

आखिर वह भी कब तक चुप रहता उसने कह दिया तुम्हारा स्थायित्व तो एक दिन, एक हफ्ते, एक पक्ष या अधिक से अधिक एक महीने ही रहता है जबकि मैं तो तब बना रहूँगा जब तक जड़ न सूख जाए। वृक्ष की इस बात का समर्थन उसकी शाखाओं ने भी किया।

इस बात से नाराज हो फूल मुरझा कर गिर गया, उसके समर्थन में पत्तियाँ भी झर गयीं। फल सूखा जिससे बीज इधर – उधर बिखर गए, देखते ही देखते सुनामी की लहर उठी और पूरा वृक्ष अकेले शाखाओं के साथ जड़ के दम पर अडिग रहा।

मौसम बदला जिससे कुछ ही दिनों में कोपलें आयीं और देखते ही देखते पूरा वृक्ष हरा- भरा हो गया। फिर से वही क्रम शुरू हो गया, फूल खिलना, मुरझाना, पतझड़ से पत्ते झरना व कुछ समय बाद कोपलों से वृक्ष का भर जाना।

इस पूरे घटना क्रम से एक ही बात समझ में आती है कि जब तक व्यक्ति जड़ से जुड़ा रहेगा तब तक उसके जीवन में आने वाला पतझड़ भी उसे मिटा नहीं पायेगा बल्कि वो और सुंदर होकर निखर जायेगा।

अतः केवल फायदा लेने की प्रवृत्ति से बचें क्या दायित्व हैं, उनका कितना निर्वाह आपने किया इस पर भी विचार करें तभी लोकप्रियता मिलेगी याद रखें अधिकार माँगने से नहीं मिलते उसे आपको कमाना पड़ता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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