हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – अक्षय ??

बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी। दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।

वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।

सुनते हैं, अकिंचन का संचय सदा अक्षय रहा।

 

© संजय भारद्वाज

श्रीविजयादशमी, 2019, संध्या 5:17 बजे।

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 107 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 18 – दतिया दलपत राय की… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ कथा-कहानी # 107 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 18 – दतिया दलपत राय की… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)

अथ श्री पाण्डे कथा (18)  

दतिया दलपत राय की, जीत सके नहीं कोय।

जो जाको जीत चहें, अदभर फजियत होय।।

भगवान् दास के पौत्र दलपतराव अपने पिता शुभकरण बुन्देला की मृत्यु के बाद 1677 के समय दतिया के राजा बने। यह दौर औरंगजेब का था और दलपतराव भी अपने पिता की मृत्यु के समय मुग़ल सेनापति दिलेरखां के आधीन दक्षिण में युद्ध अभियान में थे। औरंगजेब  दलपतराव के पराक्रम से सुपरिचित था अत दिलेरखान की सिफारिश पर उसे मुग़ल दरबार में मनसबदार का ओहदा मिला। दलपतराव  अनेक मुग़ल सेनापतियों के आधीन रह कर मुग़ल बादशाह के सैन्य अभियानों में भाग लेते रहे। उन्होंने बीजापुर के मुग़ल अभियान में विजय प्राप्ति के बाद गोलकुंडा के सैन्य अभियान में मुग़ल सेना के साथ सहयोग किया।दलपतराव ने मुग़ल बादशाह की सेना में रहते हुए मराठों के विरुद्ध भी अनेक सफल सैन्य अभियानों में वीरता का परिचय दिया। उन्होंने मराठो के सुद्रढ़ किले जिन्जीगढ़ के घेरे के समय उल्लेखनीय कार्य किया। औरंगजेब ने 1681 से अपनी म्रत्यु पर्यंत 1706 तक दक्षिण में अनेक सैन्य अभियान चलाये और दक्षिण भारत की बीजापुर व गोलकुंडा रियासतों पर अपना परचम लहराया और शिवाजीद्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य  की शक्ति को कम करने के प्रयास किया। औरंगजेब के इन प्रयासों में दलपतराव ने सदैव प्रमुख भूमिका निभाई। जब औरंगजेब दक्षिण के अभियान पर था तो उसे मारवाड़ के राठौरों व बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल से शत्रुतापूर्ण चुनौती मिल रही थी ऐसी स्थिति में दलपतराव और उनके सहयोगी बुंदेलों पर औरंगजेब की निर्भरता अत्याधिक थी और बुंदेलखंड में केवल दतिया से ही  उसे अच्छी संख्या में सैनिक भी मिलते थे। इन्ही सब कारणों से दलपतराव औरंगजेब के विश्वासपात्र बने रहे और समय समय पर उनका रुतबा मुग़ल दरबार में बढ़ता चला गया। औरंगजेब ने उन्हें उनके पिता शुभकरण बुन्देला की मृत्यु के बाद 500 सवारों का मनसबदार बनाया था जो बढ़ते बढ़ते 1705 इसवी में 3000 सवारों व इतने ही पैदल सैनिकों का हो गया। औरंगजेब की मृत्यु 1707 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में हुई तब दलपतराव ने उसके दूसरे नंबर के पुत्र आजमशाह का साथ उतराधिकार के युद्ध में दिया। आजमशाह स्वयं दलपतराव की सूझबूझ और योग्यता को दक्षिण के विभिन्न अभियानों में परख चुका था। वह उनकी उत्कृष्ठ वीरता एवं उच्चकोटि की राजभक्ति का कायल था अत जब दलपतराव ने उतराधिकार के युद्ध में आजम शाह का साथ देने का वचन दिया तो उनका मंसब बढाकर पांच हजारी कर दिया गया। इस प्रकार दलपतराव का मान सम्मान मुग़ल दरबार में बना रहा। दलपतराव की मृत्यु भी एक सैन्य अभियान के दौरान हुई। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उतराधिकार का युद्ध उसके पुत्रों बहादुर शाह व आजमशाह के बीच आगरा के नजदीक  जाजऊ में जून 1707 में हुआ।  इस युद्ध में हाथी पर सवार दलपतराव को एक छोटी तोप का गोला बाजू में आकर लगा जिससे वे वीरगति को प्राप्त हुए। दलपतराव की मृत्यु के उपरान्त उनके सहयोगी बुंदेले भी  मारे गए और इसी के साथ आजमशाह की भी पराजय हो गई।

प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी दलपतराव की स्मृति जन मानस में लम्बे समय तक अक्षुण बनी रही और उनके सम्मान में चारण निम्न पद गाते रहे  ;

दल कटे दलपत कटे, कटे बाज गजराज।

तनक-तनक तन-तन कटो, पर तन से तजी न लाज।।

दतिया के राजा दलपतराव एक दुर्दमनीय योध्दा और कुशल प्रशासक थे और लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत जनप्रिय राजा थे। उनके काल में दतिया के वीर सैनिकों की धाक सभी दिशाओं में जैम गई थी और जनमानस में उपरोक्त लोकोक्ति बस गई। दलपतराव का यशोगान उनके दरबारी कवि जोगीदास ने दलपतरायसे में भी किया है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 30 – स्वर्ण पदक – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से  मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 30 – स्वर्ण पदक 🥇 – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

अंतिम भाग (क्लाइमेक्स)

स्टार हाकी प्लेयर रजत और विशालनगर ब्रांच के स्टाफ के बीच स्वागत सत्कार की औपचारिकता के बाद प्रश्न उत्तर का सेशन हुआ जो सभी के लिये सांकेतिक रुप से बहुत कुछ कह गया. सभी समझे भी पर किसको कितना अपनाना है यह भी तो समझदारी है. प्रतिभा, सामाजिक और पारिवारिक परिवेश व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं और व्यक्तित्व निर्माण की यह प्रक्रिया जीवन भर चलती है. इस जीवन यात्रा में उलझाव भी आते हैं, सुपीरियर होने का भ्रम, इन्फीरियर होने की कुंठा एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जा सकते हैं, क्योंकि दोनों ही स्थिति में व्यक्ति खुद को वह मान लेता है जो वह होता नहीं है. व्यक्ति के अंदर की यह शून्यता न केवल उसे नुकसान पहुंचाती है बल्कि संपर्क में आये व्यक्तियों को भी प्रभावित करती है. सम्मान और स्नेह दोनों ही क्षत-विक्षत हो जाते हैं.  संबंधों में आई ये दरार दिखती तो नहीं है पर महसूस ज़रूर की जाती है. शायद यही कहानी का मर्म भी है. अब आपको सवालों जवाबों की ओर ले चलते हैं. प्रश्नकर्ता के रूप में नाम काल्पनिक हैं, उत्तर अधिकतर रजतकांत ने ही दिये हैं.

अनुराग: आप फाइनल जीतने का श्रेय किसे देंगे

रजत : ये मेरी टीम की जीत है

अशोक: पर फील्ड गोल तो आपने किये, सारी नजरें आप पर थीं, रजत रजत का शोर ही मैदान में गूंज रहा था, रेल्वे का नाम हमारे दिमाग में बिलकुल नहीं आया.

रजत: आपका प्रश्न बहुत अच्छा है पर गोल करना और गोल बचाना तो पूरी टीम का लक्ष्य था, अकेला चना कुछ फोड़ नहीं सकता, ये कहावत मुझे पूरी याद नहीं है पर पिताजी अक्सर कहा करते थे,भैया क्या आपको याद है?

स्वर्ण कांत ने याद नहीं होने का वास्ता दिया हालांकि भावार्थ सब समझ गये पर अशोक ने फिर प्रश्न दागा: माना कि जीत पर हक पूरी टीम का होता है पर स्टार खिलाड़ी, कैरियर, लाइमलाइट, पैसा सबमें बाजी मारी लेते हैं और बाक़ी लोग लाइमलाइट की जगह बैकग्राउंड में रहते हैं.

इस प्रश्न पर टीम के खिलाड़ी रजत की ओर मुस्कुराहट के साथ देख रहे थे , बैंक के स्टाफ के लिए भी इस प्रश्न का उत्तर पाना उत्सुकता पूर्ण था.

रजत: देखिए कुछ गेम में सोलो परफार्मेंस ही रिजल्ट ओरियंटेड बन जाती है पर हाकी, फुटबॉल, वालीबाल, बास्केटबॉल, तो पूरी टीम का खेल है कोई गोल बचाता है, कोई अफेंडर को रोकता है, कोई गोल के लिए मूव बनाता है, पास देता है, अंत में किसी एक खिलाड़ी के शाट से ही बाल गोलपोस्ट में प्रवेश करती है कभी कभी गोलकीपर से वापस की हुई बाल को भी कोई खिलाड़ी वापस गोलपोस्ट में डाल देता है. यह सब टीम वर्क से ही हो पाता है. हम लोग भी उसी टीम वर्क से खेलते हैं जिस तरह आप लोग ये बैंक चलाते हैं.

अभिषेक: जिस तरह क्रिकेट में मेन आफ दी मैच, मेन आफ सीरीज, टाप टेन बेट्समेन, टाप टेन बालर्स होता है, हाकी में क्यों नहीं होता, हमारे यहां भी बेस्ट ब्रांच मैनेजर, बेस्ट रीजनल मैनेजर अवार्ड दिए जाते हैं.

रजत: मेरा सोचना है कि जहां खेल के साथ व्यापार भी जुड़ा रहता है वहां पर कमर्शियल स्पांसर्स ये सब बनाते हैं. बाद में फिर यही प्लेयर्स उनके प्रोडक्ट की मार्केटिंग में लगाये जाते हैं. लोग क्वालिटी की जगह चेहरे पर आकर्षित होकर मार्केटिंग के मायाजाल में फंसते हैं. अधिकांश खेलों में टीम ही सफलता का फैसला करती है. ध्यानचंद हाकी के ब्रेडमेन थे , गावस्कर और तेंदुलकर से कई गुना प्रतिभा के धनी रहे होंगे पर उनके पीछे कमर्शियल स्पांसर्स नहीं थे, पहले भी नहीं और आज भी नहीं. बैंक के बारे में आप लोग मुझसे बेहतर जानते होंगे.

अश्विन: पर फिर भी टीम इंडिया में तो सिलेक्शन का बेनिफिट आपको ही मिलने की संभावना बन रही है.

रजत : अगर ऐसा हुआ भी तो वहां भी टीम में ही खेलना है. हर खिलाड़ी का कैरियर होता है, सफलता दूसरों को भी वैसा करने की प्रेरणा देती है पर अगर किसी खिलाड़ी को ये लगने लगे कि सब उसके कारण होता है तो उसका डाउनफॉल वहीं से शुरू हो जाता है.

बात हाकी के संबंध में चल रही थी पर हर सुनने वाले के दिल तक पहुंच रही थी. सभी परिपक्व और समझदार थे, कही गई हर बात क्रिस्टल क्लियर थी, तो अब और कुछ कहने की जरूरत ही नहीं थी.

विदा लेते समय जब रजतकांत ने अपने बड़े भाई से विदा ली तो उन्होंने कई अरसे बाद रजत को गले लगा लिया पर उन्हें न जाने ऐसा क्यों लगा कि वो अपने छोटे भाई से नहीं बल्कि अपने अनुभवी भाई से गले मिल रहे हैं.

अंततः समाप्त 🥇🥇🥇

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 123 – लघुकथा – ठहरी बिदाई… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा  “ठहरी बिदाई… ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 123 ☆

☆ लघुकथा – ठहरी बिदाई 

सुधीर आज अपनी बिटिया का विवाह कर रहा था। सारा परिवार खुश था परंतु रिश्तेदारों में चर्चा का विषय था कि सुधीर इस शुभ अवसर पर अपनी बहन को माफ कर सकेगा कि नहीं।

बहन रुपा ने अपनी मर्जी से शादी कर ली थी। घर परिवार के विरोध के बाद भी। स्वभाव से थोड़ा सख्त और अच्छी कंपनी पर कार्यरत सुधीर के परिवार की जीवन शैली बहुत अच्छी हो चुकी थी।

बहुत सुंदर और खर्चीली शादी लग रही थी। सुधीर की धर्मपत्नी नीरा बहुत ही विचारों से सुलझी और संस्कारों में ढली महिला थी।

द्वारचार का समय और बारात आगमन होने ही वाला था। सुधीर के स्वभाव के कारण कोई भी अपने मन से आगे बढ़कर काम नहीं कर रहा था। परंतु पत्नी की व्यवहारिकता सभी को आकर्षित कर रही थी। द्वारचार पर दरवाजे पर कलश उठाकर स्वागत करने के लिए बुआ का इंतजार किया जा रहा था।

सुधीर मन ही मन अपनी बहन रुपा को याद कर रहा था परंतु बोल किसी से नहीं पा रहा था। अपने स्टेटस और माता-पिता की इच्छा के कारण वह सामान्य बना हुआ था।

धीरे से परेशान हो वह अपनी पत्नी से बोला…. “रूपा होती तो कलश उठाकर द्वार पर स्वागत करती।” बस इतना ही तो कहना था सुधीर को!!!!!

पत्नी ने धीरे से कहीं  – “आप चिंता ना करें यह रही आपकी बहन रूपा।” कमरे से सोलह श्रृंगार किए बहन रूपा सिर पर कलश लिए बाहर निकली। और कहने लगी – “चलिए भैया मैं स्वागत करने के लिए आ गई हूं।”

सुधीर की आंखों से अश्रुधार बह निकली परंतु अपने आप को संभालते हुए ‘जल्दी चलो जल्दी चलो’ कहते हुए…. बाहर निकल गया।

विवाह संपन्न हुआ। बिदाई होने के बाद रूपा भी जाने के लिए तैयार होने लगी और बोली… “अच्छा भाभी मैं चलती हूं।”

भाभी अपनी समझ से खाने पीने का सामान और बिदाई दे, गले लगा कर बोली – “आपका आना सभी को अच्छा लगा। कुछ दिन ठहर जातीं।”

परंतु वह भैया को देख सहमी खड़ी रही। समान उठा द्वार के बाहर निकली! परंतु यह क्या चमचमाती कार जो फूलों से सजी हुई थी। गाड़ी के सामने अपने श्रीमान को देख चौंक गई। अंग्रेजी बाजा बजने लगा।

सुधीर ने बहन को गले लगाते हुए कहा…. “जब तुम सरप्राइज़ दे सकती हो, तो हम तो तुम्हारे भैया हैं। तुम्हारी बिदाई आज कर रहे हैं। चलो अपनी गाड़ी से अपने ससुराल जाओ और आते जाते रहना।” विदा हो रुपा चली गई।

अब पत्नी ने धीरे से कहा… “पतिदेव आप समझ से परे हैं। बहन की विदाई नहीं कर सके थे। आज आपने ठहरी विदाई कर सबके मन का बोझ हल्का कर दिया।”

यह कह कर वह चरणों पर झुक गई। माता-पिता भी प्रसन्न हो बिटिया की विदाई देख रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ खार….भाग 4 ☆ मेहबूब जमादार ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ खार….भाग 4 ☆ मेहबूब जमादार ☆

अचानक तिला माणसाच्या ओरडण्याचा आवाज आला.हाय…!! हूर्रे….!! असा आवाज पुढे पुढे सरकत होता. तिच्या तिक्ष्ण डोळ्यानीं हे पाहिलं.तिनं क्षणात आपलं घरटं जवळ केलं.तो शिकारी हातात गलोरी घेवून पक्षांना व खारी नां टिपत होता.ती भ्याली.तिचं सारं अंग कंपित झालं.         

तिचं घरटं उंचावर होत.भोवती घनदाट फांद्या होत्या.त्यामूळे तिला भिती नव्हती.ती घरट्याबाहेर येवून हे सारं न्याहाळत होती. खाली पानांचा सळसळ असा आवाज अजूनही येत होता. शिकारी त्याच्या टप्प्यात आला होता.हातात असलेल्या गलोरीने खारीवर नेम धरत होता.सारं वन जागं होवून चित्कारत होतं.

सर्वानी आपआपली सुरक्षीत जागा पकडली होती.एरव्ही शांत असलेलं वन निरनिराळया आवाजांनी त्रस्त होऊन गेलं होतं.ती घरट्यातून पहात होती,शिका-याला दोन पारव्यांची फक्त शिकार करता आली होती.हळूहळू तो ओढ्याकडे सरकत निघून गेला होता.

एरव्ही शांत असणारं वन आज शहारून गेलं होतं. पण हल्ली फळांच्या,पक्षांच्या आशेपोटी शिका-यांचा राबता वाढू लागला होता. शिकारी वनांतून निघून जाईपर्यत वनांत स्मशान शांतता नांदायची.

पण वानरं शिका-याची छेड काढायचे.शिका-यानं दगड मारला की ते ऊजवीकडे वळत.ऊजवीकडून दगड आला की ते डावीकडे वळत.शिका-याचा दगड काय त्या वानरांना लागत नसे.

एखदा तर भलताच प्रसंग घडला.एका रागीट असलेल्या नर वानरांनं सरळ शिका-याच्या डोक्यावर झेप घेवून दूस-या झाडावर क्षणांत उडी घेतली.बिचारा शिकारी कांही कळण्याआधी खाली पडलां.तो कसाबसा धडपडत उठला.क्षणांत त्यानं ओढा जवळ केला.इकडे वानरानीं ते पाहील.आनंदात ते ख्यॅ ख्यॅ….. करत सगळ्या झाडांवर  नाचू लागले.झाडं डोलाय लागली.परत तो शिकारी या वनांत दिसला नाही.

एरव्ही ती वानरांना शिव्या घालायची.पणआज तिला खरच आनंद झाला होता.आज तिनं घडलेला सारा प्रसंग तिच्या सहका-यानां सांगितला.त्याही आनंदल्या.

बघता बघता महिना लोटला होता. आज तिच्या पिल्लांनी  डोळे उघडले होते. तिला फार मोठा आनंद झाला होता. आज पिल्लांनी त्यांची आई पाहिली होती.बाहेरचं जग ती पहाणार होती.अजूनही त्यानां स्वत:चं अन्न मिळविण्यास आठ-दहा आठवडे लागणार होते.तोवर आईच्या दुधावरच त्यांच संगोपन होणार होतं.

आज तिनं मनसोक्त पिल्लानां दूध पाजल. पिल्लांमूळे तिला सावध रहावं लागायचं. वनांत मोर, लांडोर असल्यामुळें तिला भिती नव्हती. चूकून कावळ्याचं,घारीचं लक्ष गेलं तर? हा विचार तिच्या मनांचा ठाव घेई. त्यामूळे सहसा ती झाडावरून खाली उतरत नसे.

तिच्या सहकारी खारीनीं बरेच घरटे बदलले, पण तिनं तिचं घरटं बदललं नव्हतं. एव्हढं तिला ते सुरक्षीत वाटायचं. त्यातूनही कांही गडबड झाली तर सगळ्या खारी चित्करायच्या. चिर्र…चिर्र…असा आवाज सगळ्या वनांत घूमायचा.

पावसाळा संपून थंडीची चाहूल अवघ्या वनाला लागली होती. तिनं वाळलेलं गवत आणून घरट्यात बिछानां केला होता.तिचं घरटं म्हणजे एक मोठं बीळंच होतं.पाऊस व वा-यापासून मुळांत ते सुरक्षीत होतं.       

पिल्लं हळूहळू बोलू लागली होती.तिला त्या हळूवार चित्कारण्याचा आनंद वाटू लागला.किमान तिला पिल्लानां भूक लागल्याचं कळू लागलं होतं.जरी ती दुस-या झाडांवर गेली तरी पिल्लांच्या आवाजामुळे ती झेप टाकून पिल्लांकडे येत होती. पिल्लानां पाजत होती.

ऊन डोक्यावर आलं की ती सरसर झाडावरून खाली उतरायची.बुंध्याजवळ दोन्ही पायांवर बसून ती अंग पुसायची.शेपटी दोन्ही बाजूस झुलवायची.कानोसा घेत ओढ्याकडे जायची.क्षणात ती पाणी पिवून घरट्याकडे सरकायची.         

ती ओढ्यावर फार वेळ थांबत नसे.जर थांबलीच तर पुढच्या दोन्ही हातानीं डोक्यावर पाणी घ्यायची.डोकं चोळायची.क्षणात निघून घरट्याकडे झेप घ्यायची.

सगळ्या वनांवर गारवा पसरला होता. दिवसा काय वाटत नसे पण रात्री वनांत थंडी वाजे.      

क्रमश:…

© मेहबूब जमादार

मु- कासमवाडी, पो-पेठ, ता-वाळवा

जि-सांगली.मो-९९७०९००२४३

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 88 – यह संसार क्या है? ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #88 🌻 यह संसार क्या है? 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, ‘गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है?

इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई।

‘एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती।

कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए।

उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना।  वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।’

कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा..

‘संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं।

जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता…..।’

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 106 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ कथा-कहानी # 106 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)

अथ श्री पाण्डे कथा (17)  

झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार।

ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार।।

इस बुन्देली लोकोक्ति के  शाब्दिक अर्थ का अंदाज तो पढने से ही लग जाता है। आप यह भी कह सकते हैं कि झांसी गले की फाँसी इसलिए है क्योंकि वहाँ के लोगो का स्वभाव गड़बड़ है और दतिया के लोग प्रेमी और मिलनसार है इसलिए यह कस्बा लोगों को उसी प्रकार प्रिय है जैसे गले में हार। हार का तात्पर्य नौलखा से ही है यह न मानियेगा कि शिव के गले का हार है। और ललितपुर के व्यापारियों के क्या कहने वे तो ग्राहकों को मनचाहा सामान उधार थमा देते हैं. इस लोकोक्ति से एक बात तो साफ़ है प्रेमी जनों  और मिलनसारिता की प्रसंशा युगों युगों से होतो आई है और अगर उधार सामान मिलता रहे तो ऐसे शहर में लोग न केवल बसना पसंद करते हैं वरन उसे छोड़कर जाना भी नहीं चाहते. दूसरी बात चार्वाक का सिद्धांत माननेवाले भले चाहे कम हों लेकिन कहावतों और लोकोक्तियों में भी “यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत” ने यथोचित स्थान बुंदेलखंड के पथरीले प्रदेश में बना ही लिया था। एक बात और बैंकिंग प्रणाली के तहत भारत में वैयक्तिक उद्देश्य जैसे ग्रह निर्माण ऋण, पर्सनल लोन आदि का चलन तो तो पिछले 20 वर्षों से बढ़ा है पर बुंदेलखंड में शायद यह सदियों पुराना है ।

इस बुन्देली लोकोक्ति को मैंने असंख्य बार असंख्य लोगों से सुना होगा। यह इतनी प्रसिद्ध व व्यापक है कि हिंदी के विख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खंड क्या भूलू क्या याद करूँ में इसका न केवल उल्लेख किया है वरन  झांसी गले की फाँसी है इसे सिद्ध करने आप बीती दो चार अप्रिय घटनाओं का वर्णन भी खूब  किया है, बच्चन जी दतिया गए नहीं, सो उन्होंने यह तो नहीं बताया कि दतिया गले का हार क्यों है पर ललितपुर में उधार खूब मिलता था इसका जिक्र उन्होंने अपनी इस आत्मकथा में पितामह की ललितपुर से प्रयाग वापिसी को याद कर जरूर किया है ।

यह लोकोक्ति अपने आप में ऐतिहासिक सन्दर्भों को समेटे हुए हैं। बुंदेलखंड का बड़ा भूभाग बुन्देला शासकों के आधीन रहा हैं। मुगलकालीन भारत में दतिया के बुंदेला राजा मुग़ल बादशाह के मनसबदार रहे हैं । दतिया के राजाओं की मुगल बादशाह के प्रति निष्ठा थी अतः दतिया पर बाहरी आक्रमण नहीं होते थे । दतिया के राजा  मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते। युद्ध में वे अपने साथ क्षेत्रीय निवासियों को भी सैनिक के रूप में ले जाते, यह सैन्य बल प्राय निम्न वर्ग से आता और इस प्रकार निम्न वर्ग को अतिरिक्त आमदनी होती। राजा महाराजा अपने सैनिकों को लेकर मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते ।युद्ध में कमाए इसी धन से वे अपनी रियासतों में महलों, मंदिरों, बावडियों, तालाबों आदि का निर्माण कराते । इसके फलस्वरूप दतिया जैसे छोटे कस्बेनुमा स्थानों में लुहार, बढई, कारीगार आदि आ बसे होंगे और उनकी आमदनी से व्यापार आदि फैला होगा और यही दतिया की खुशहाली का कारण बन दतिया गरे का हार लोकोक्ति की उत्पति का कारण बन गया होगा।

दतिया के उलट ललितपुर तो पथरीला क्षेत्र है फिर वह नगर आकर्षक व प्रिय क्यों है ।शायद बंजर जमीन जहाँ साल में एक फसल हो और वनाच्छादित होने के कारण स्थानीय निवासियों की आमदनी साल में एक बार ही होने के कारण व्यापारियों ने अपना माल बेचने की गरज से उधार लेनदेन की परम्परा को पुष्ट किया होगा। उधार देने और उसकी वसूली में निपुण जैन समाज के लोग बुंदेलखंड में खूब बसे और फले फूले  और इस प्रकार “ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार” लोकोक्ती बन गई।

पर झाँसी गरे की फाँसी कैसे हो गई और अगर सचमुच झाँसी के लोग इतने बिगडैल स्वभाव के हैं तो इस शहर का तो नाम ही ख़त्म हो जाना था। शायद 1732 के आसपास मराठों का बुंदेलखंड में प्रवेश हुआ और झाँसी का क्षेत्र पन्ना नरेश छत्रसाल के द्वारा बाजीराव पेशवा को दे दिया गया । मराठे चौथ वसूली में बड़ी कड़ाई करते थे और झांसी के आसपास के रजवाड़ों में भी आम जनता को परेशान करते तो शायद इसी से झांसी गरे की फाँसी लोकोक्ती निकली होगी।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने झाँसी में अपना अधिकारी नियुक्त किया। उस समय झाँसी एक लुटा पिटा वेचिराग शहर था। जनरल रोज ने जो क़त्ल-ए-आम किया था, उसमें हजारों लोग मारे गए थे। जो लोग किसी तरह बच गए, उन्होंने दतिया में शरण ले ली थी। वो इतने डरे हुए थे कि झांसी का नाम सुनते ही काँप जाते थे। जब कभी उनके सामने झांसी का जिक्र आता तो वे बस यही कहते “झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार”। जब अंग्रेजों से झांसी का राज्य नहीं सम्भला तो उन्होंने उसे सिंधिया को सौंप दिया। सिंधिया ने झांसी को फिर से बसाने में बड़ी मेहनत की। उसने लोगों का विश्वास जीतने के लिए अनेकों जनहित के कार्य किये, तब कहीं धीरे-धीरे लोगों का विश्वास सिंधिया पर हुआ और वे झांसी में बसने लगे और झासी में रौनक लौटने लगी। स्थिति के सामान्य होते ही अंग्रेजों की नियत पलट गई और उन्होंने सिंधिया पर झांसी को वापिस करने का दबाव डालना शुरू कर दिया। अंत में अंग्रेजों की दोस्ती और सद्भावना के नाम पर सिंधिया ने झांसी का राज्य अंग्रेजों को दे दिया, इसके बदले सिंधिया को ग्वालियर का किला वापिस मिला।

इन सब घटनाओं ने इस लोकोक्ति को जन्म दिया। जो कुछ भी कहानी हो बुंदेलखंड के लोग अपने अपने क्षेत्र गाँव कस्बे की तारीफ़ ऐसी ही कहावतों से करते हैं और अन्य कस्बों के लोगों का मजा लेते हैं।

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 29 – स्वर्ण पदक – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 29 – स्वर्ण पदक 🥇 – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

स्वर्ण कांत के सफलता के इन सोपानों के बीच जहां उनकी राजधानी एक्सप्रेस अपने नाम के अनुसार आगे बढ़ रही थी, वहीं रजतकांत की शताब्दी सुपरफॉस्ट ट्रेन अलग रूट पर दौड़ रही थी, यहाँ आगे आगे भागतीे हॉकी की बाल पर कब्जा कर अपनी कुशल ड्रिबलिंग से आगे बढ़ते हुये रजतकांत स्नातक की डिग्री के बल पर नहीं बल्कि हॉकी पर अपनी मजबूत पकड़ के चलते इंडियन रेल्वे में स्पोर्ट्स कोटे में सिलेक्ट हो गये थे और फिर बहुत जल्दी रेल्वे की हॉकी टीम के कैप्टन बन चुके थे.

जैसे जैसे उनके खेल और कप्तानी में तरक्की होती गई, रेल्वे से मिलने वाली सुविधा और प्रमोशन में भी वृद्धि होती गई.हॉकी की टीम इंडिया में भी वे स्थायी सदस्य बन गये और हॉकी ने क्रिकेट के मुकाबले लोकप्रियता कम होने के बावजूद उन्हें राष्ट्रीय स्तर का सितारा बना दिया.

हाकी इंडिया नेशनल चैम्पियनशिप का आयोजन इस बार संयोग से विशालनगर में ही आयोजित होना निश्चित हुआ जहां स्वर्णकांत पदस्थ थे. रजत जहां भाई से मिलने का अवसर पाकर खुश थे वहीं स्वर्ण कांत न केवल बैंक की समस्याओं में उलझे थे बल्कि शाखा स्टॉफ से तालमेल न होने से भी परेशान थे. स्टॉफ उन्हें “स्वयंकांत” के नाम से जानने लगा था क्योंकि हर उपलब्धि सिर्फ स्वयं के कारण हुई मानकर वे इसे अपने नाम करने की प्रवृति से पूर्णतः संक्रमित हो चुके थे और non achievements के कई कारण, उन्होंने अपनी समझ से अपने नियंत्रक को समझाना चाहा जिसमें lack of sincerity and devotion by staff भी एक कारण था. पर नियंत्रक समझदार, परिपक्व और शाखा की उपलब्धियों के इतिहास से वाकिफ थे. उन्होंने स्वर्णकांत को कुशल प्रबंधकीय शैली में अच्छी तरह से समझा दिया था कि जो और जैसा स्टॉफ ब्रांच में मौजूद है, वही पिछले टीमलीडर के साथ मिलकर, झंडे गाड़ रहा था. Previous incumbent has tuned this branch so smoothly to attain the goal that industrial relations of this branch have become an example to tell others. पर ये सारी टर्मिनालॉजी और प्रवचन, स्वयंकांत प्रशिक्षण के दौरान सुनने के बाद विस्मृत कर चुके थे और संयोगवश अभी तक इनकी जरूरत भी नहीं पड़ी थी.

पराक्रम कथा जारी रहेगी.   क्रमशः …

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ स्साला ये कौन मर गया…? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा-कहानी  ☆ स्साला ये कौन मर गया…? ☆  श्री कमलेश भारतीय ☆

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी की यह कहानी कथा मित्र पत्रिका के 1978 के अंक में संवेदनशून्य शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इस कथा को श्री कमलेश भारतीय जी ने अपने पाठकों के लिए पुनर्सृजित कर प्रस्तुत की है। कृपया आत्मसात करें।)

मैं खासा बोर हो रहा था और बैठे बैठे अपने ही बोझ तले दबा जा रहा था।

वे दोनों मेरी इस बेचैनी और ऊब से परे, बिल्कुल अनजान बड़े मजे में खिलखिला रहे थे, ठहाके लगा रहे थे। सिगरेट बुझ जाने पर तुरंत दूसरी सिगरेट सुलगा लेते थे। न बातों का सिलसिला खत्म हो रहा था और न ही सिगरेट पीने का। वे एक सिगरेट खत्म होने पर उसे बुझा कर दूसरी सिगरेट जला कर फिर बातों का सिरा पकड़ लेते और खिलखिलाने लगते। मेरा वहां होना ही वे लगभग भूल चुके थे। उन्हें अपने किस्से कहानियों से ही फुर्सत नहीं थी। मैं उन्हें अपनी मौजूदगी याद दिलाने के लिए बीच बीच में खांसता भी रहा और बरामदे के चक्कर भी लगा आया, कुर्सी बदल बदल कर भी देख ली लेकिन वे मेरी ओर से उतने ही बेफिक्र होते गये, होते चले गये। उतने ही अपने में मग्न होते चले गये।

उनकी बातों में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। बल्कि उनकी हंसी में साथ देना भी मैं मूर्खता ही समझता था। यह भी नहीं कि उनकी बातें गूढ़ रहस्यों से भरी थीं या मेरी समझ से परे थीं। ये एकदम बेकार बातें थीं। मुझे लगा कि उनकी बातों का एक ही सार और एक ही केंद्र है, इतना ही ज्ञान है और एक ही विषय है -शराब। वे लगातार शराब के बारे में जुगाली कर रहे थे। एकदम पुरानी बातें। मुझे उनकी हंसी पर शर्म आ रही थी कि भला इन बातों को भी इतना खींचा जा सकता है? यह भी कोई इतनी दूर तक हंसने की बात है? वे चाहते तो शराब के बारे में अच्छा खासा शोध प्रस्तुत कर सकते थे। वे कुरेद कुरेद कर ऐसी ऐसी बातें, दुहरा रहे थे कि मुझे उनके सुख से दुख हो रहा था। मैं हैरान हो रहा था कि मेरा साथी जिस काम के लिए अपने इस पुराने दोस्त से मिलने आया है, उस काम को तो एकदम भूल ही गया है। अब इनके व्यवहार से लग रहा था, जिस काम के लिए आये हैं, उसके लिए इतना बखेड़ा करने की जरूरत ही क्या थी? शादी के लिए एक बस करनी थी और उनका दोस्त बस कम्पनी में काम करता था। बस। इतना सा काम और इतना बखेड़ा जैसे ब्रह्मांड का कोई बड़ा मसला हल करने में लगे हों। ऐसे जिंदगी कैसे चलेगा मेरी? वाह रे गोबर गणेश। चार दिनों में शादी हो जायेगी तो भी इसी तरह ढुलमुल किस्म के फैसले लेते रहे तो हो चुका गुजारा। कैसे निभेगी? घरवाली जान को रोयेगी और जीने का कोई मजा नहीं आयेगा।

मात्र इतना ही काम था -ब्याह शादी के लिए हम बस बुक करवाने घर से चले थे। वैसे तो किराया इधर उधर से पूछ कर पता लगा लिया था। लगभग एक समान था। किसी प्रकार की रियायत की गुंजाइश नहीं दिखती थी। फिर भी एक भोली उम्मीद लेकर मैं अपने साथी के साथ आया था तो इस कारण कि इनकी आढ़त की दुकान का हिस्सेदार मोटर कम्पनी में भी हिस्सेदार था। कम्पनी का डायरेक्टर उनका रिश्तेदार है। आपस में गहरा प्यार है। शायद कह सुन कर चिट्ठी से सिफारिश मान कर कुछ सौ रुपये की छूट हो जाये। आने जाने का खर्च निकाल कर भी कुछ बचत हो जाये। बस। यही एक भोली उम्मीद थी। आखिर कुछ तो बचेगा ही। मुफ्त की सैर ही समझ लो और अपने पुराने दोस्त से मिल लेने की खुशी। इसी के चलते मेरे दूर के चाचा किरोड़ी मान गये थे।

हम सुबह नहा धोकर ; थोड़ा नाश्ता कर चल पड़े थे। मैंने सोचा था कि हम सीधे शहर पहुंच कर मोटर कम्पनी के ऑफिस जायेंगे। बात पक्की करके रसीद लेकर बाद में घूमते फिरते रहेंगे। सारा दिन हमारे हाथ में होगा और कुछ दूसरे काम भी निपटा लेंगे। इस तरह काम का काम हो जायेगा और मजे का मजा। पर क्या मालूम था कि सब कुछ उल्टा होगा।

छावनी निकट आते ही मेरे चाचा किरोड़ी को अपने इस दोस्त की बेतरह याद सताने लगी और चंद मिनट मिलने की बात कह कर आगे चलने की पेशकश से मुझे बीच रास्ते उतार कर यहां घसीट कर ले आए थे। इस तरह एक गलत शुरूआत हुई थी जो ठीक होने की बजाय गलत दर गलत होती चली गयी।

महीने का आखिरी दिन था और कम्पनी में अकाउंटेंट होने के चलते वह महाशय बहुत व्यस्त दीख रहे थे। पे बिलों से घिरे पड़े थे। ऐश ट्रे पर बेकार सुलगती, धुआं उड़ाती उनकी सिगरेट उनकी व्यस्तता की सूचना देने के लिए काफी थी। पर मेरे किरोड़ी चाचा की पुकार सुन कर वे सारा हिसाब किताब भूल कर, बीच में ही सारा कामकाज छोड़कर स्वागत् के लिए कुर्सी से भागकर दरवाजे तक चले आए थे। बड़े रौब से चपरासी को आवाज लगाई थी और चाय लाने का हुक्म सुना दिया था। यहीं तक मुझे सब बहुत अच्छा लगा था और किरोड़ी चाचा की दोस्ती पर गर्व हुआ था। एक प्रकार से मैं ताजगी अनुभव  कर रहा था। इस तरह चाय की चुस्कियों में भी पूरा शराब जैसा मजा आ रहा था। लेकिन चाय खत्म हो जाने के बाद भी उनकी बातों का सिलसिला खत्म होता दिखाई न दिया तब मैं बेचैन हो उठा।  किरोड़ी चाचा को याद दिलाने के बाद भी वे कहने लगे’चलते हैं यार’ और वे फिर अपनी बातों के रौ में बह निकलते। उनकी बातों का सिलसिला टूटता दिखाई न देने पर मैं बेचैन हो उठा। इस तरह कि मेरी मौजूदगी का उन्हें ख्याल तक न रहा हो। बीच में झल्ला कर चाचा किरोड़ी के दोस्त ने फोन उठाया और बस कम्पनी के दफ्तर मिला लिया। उनकी किस्मत अच्छी निकली कि डायरेक्टर वहां आया न था अभी। बताया गया कि उनके चार बजे से पहले आने की उम्मीद भी नहीं है। इसके बाद तो जैसे गप्पें मारने का जैसे पूरा हक उन्हें मिल गया हो। वे मुझे नजरअंदाज कर जुट गये थे घर परिवार का हाल चाल जानने और फिर शराब के बारे में अपने अथाह ज्ञान का बखान करने। मैं एक तरफ बैठा अपने ही समय को इस तरह बर्बाद होते चले जाने के अहसास से बुरी तरह खीझ रहा था मन ही मन। और कर भी क्या सकता था?

बीच में एक बार उनका सिलसिला गड़बड़ाया था। वे एक पल के लिए रुके थे। चपरासी आया था और बता गया था कि साहब यहां नहीं हैं और कि कई दिनों से बीमार चला आ रहा दफ्तर का कोई चपरासी दम तोड़ गया है।

चपरासी के जाने के बाद उन्होंने बातों का सिलसिला अपनी अपनी तरफ थाम लिया था। जैसे उस बिछुड़ गयी आत्मा की शांति के लिए भगवान् से प्रार्थना कर रहे हों।  मूक,,,दो मिनट का मौन और फिर वहीं से इस तरह चालू हो गये मानो कुछ हुआ ही न हो। मानो अखबार के किसी कोने में किसी दूर के आदमी के मरने की मामूली सी खबर आई हो और अखबार को बासी समझकर फेंक दिया हो। बिल्कुल ऐसे ही वे दोबारा अपनी बातों में खो गये।

मैं बरामदे में से होता हुआ सामने जहां कुछ लोग बैठे थे वहां तक चला आया। वे बाबू उसी दफ्तर के थे और उस अनाम चपरासी की मौत पर दुख व्यक्त कर रहे थे। बड़े साहब नही थे तो क्या अकाउंटेंट को शोक सभा नहीं रखनी चाहिए। इस पर बात हो रही थी। अनाम चपरासी के सम्मान मे इतना तो होना ही चाहिए था। यदि साहब के बिना दफ्तर नहीं चलता तो क्या चपरासी के बिना चलता है? सारे कर्मचारी लाॅन के पेड़ की छाया में इकट्ठे हो गये। सबके सब रोनी सूरत बनाये खड़े थे। सबके सब उसके न होने के दुख को कंधों पर उठाये हुए थे। इसलिए सबके कंधे झुके हुए थे। मुर्दा चेहरे उनके भावों को बयान कर रहे थे।

मैं जब तक इस तरह के माहौल के बीच समय काट कर लौटा तब तक वे शाम को रंगीन बनाने का प्रोग्राम बना चुके थे। अकाउंटेंट मेरे किरोड़ी चाचा को बता रहा था कि छावनी की कैंटीन है और सब तरह की चीज मिल जाती है और वह भी कम रेट पर। यही तो सुख है। अव्वल तो दफ्तर के ही किसी आदमी से मिल जायेगी न भी मिली तो कैंटीन से कंट्रोल रेट पर काफी सस्ते में मिल जायेगी। मैं बंदोबस्त कर लूंगा। तुम बैठो तो सही। मैं अभी गया, अभी आया।

इस तरह वह बंदोबस्त करने एक कमरे से दूसरे कमरे तक, दूसरे से तीसरे कमरे तक चल कर सारा दफ्तर छान आया पर उसकी बदकिस्मती कि किसी ने माल तो दिया ही नहीं ऊपर से लानतें भी खूब मारीं कि हम तो चपरासी की मौत और उसके छोटे छोटे बच्चों और अधखड़ बीबी के भविष्य को लेकर परेशान हैं और तुम हो कि सस्ती शराब खोज रहे हो। शर्म आनी चाहिए। यही बात आकर अकाउंटेंट ने किरोड़ी चाचा को बताई और गुस्से में आकर कहा और फिर पे बिलों को परे हटाते हुए जी भर कर सबको गालियां दीं। एक एक को देख लूंगा। अब लो स्सालो चैक…कहां से लोगे? इतना अफसोस कर रहे हैं जैसे साला इनका कोई सगा मर गया हो।

चाचा किरोड़ी ने कहा कि कोई बात नहीं। रहने दो यार। किसी दूसरे वक्त पिला देना। फिर आ जाऊंगा किसी दिन प्रोग्राम बना कर।

इससे अकाउंटेंट और भी बिफर गया और बोला कि नहीं, तुम रोज़ रोज़ थोड़े आओगे यार। कहां तुम आओगे? आज पता नहीं किधर से मेरा ख्याल आ गया और चले आए। इस तरह खाली नहीं जाने दूंगा दोस्त। सब की ऐसी की तैसी। मैं अभी मरा नहीं।

फिर मेरी ओर देखा और कहने लगे कि दोस्त, तुम्हारा काम जरूर होगा। हर हाल में होगा। आज न भी हुआ तो क्या। मुझे पैसे दे जाना। मैं कल सुबह रसीद बनवा दूंगा। मैं बड़े काम का आदमी हूं। क्या करूं? अपने मुंह से अपनी तारीफ करनी पड़ रही है।

मुझे अपने तौर पर शांत समझ कर उसने गला फाड़कर चपरासी को आवाज लगाई। उसके आते ही कुछ रुपये उसके हाथ में देकर हुक्म दिया कि कहीं से भी लेकर हाजिर हो जाओ, पूरी दो बोतल। न लेकर आया तो तेरी खैर नहीं।

चपरासी ने इंकार की सूरत बनाई ही थी कि डांट दिया-न सुनने के मूड में नहीं हूं बिल्कुल भी। भागो स्साले। अभी पिछला बिल निकाल कर फाड़ दूंगा।

चपरासी ने अकाउंटेंट के हुकुम की तामील तब की जब दफ्तर बंद होने का समय हो गया था और सभी चौथे दर्जे के कर्मचारी उसी एक की राह देख रहे थे। वह आया और माल अकाउंटेंट को सुपुर्द कर जैसे ही चलने को हुआ वैसे ही आवाज आई कि हमें छोड़कर नहीं आएगा?

-कहां साहब?

-अड्डे पे और कहां?

-इतनी दूर?

-क्यों कोई तकलीफ है?

-नहीं तो पर हम सब उस चपरासी के घर जा रहे हैं एकसाथ शोक जताने। सब मेरी राह देख रहे थे।

-मेरे दोस्त आए हैं और तुझे मातमपुर्सी की पड़ी है? आज तो जश्न का दिन है। यार, बाल  बार थोड़े  मिलते हैं?

-साहब…

-मैं कुछ नहीं सुनूंगा। चल फूट। जल्दी से साइकिल निकाल कर ला और साहब को बिठा पीछे। फिर चलें। आहा ! आज तो मज़ा आ जायेगा। कसम से !

वह साइकिल लेकर आया तो बाकी साथी हाथ जोड़ने आए -इसे छुट्टी दे देते सरकार…

-भागो स्साले ! मजा खराब करने आ जाते हैं। कोई जरूरी है इतनी शाम अफसोस करने जाना? और आप लोग जा तो रहे हो। फिर इसकी क्या जरूरत? चल बे, बिठा इस साहब को पीछे और मार पैडल… 

इस तरह हम अड्डे पहुंच गये। वैसा ही अड्डा जैसा शराब पीने वालों का होता है। जगह जगह अंडे के छिलके, निचोड़ी हुई हड्डियां, मछली की सीखें और तरह तरह की बदबू। एक अजीब सा माहौल जैसे कोई आदमगुफा,,,हल्की हल्की रोशनी और शराब के पैग,, 

-मालिक मैं जाऊं क्या?

शायद यह उसकी आखिरी कोशिश थी। कहते हैं बड़ा पुण्य होता है किसी की अर्थी के साथ श्मशान तक जाना…

-अबे क्या बकबक लगा रखी है? तेरी किस्मत में दो बूंद पीनी लिखी है तो पीता जा। इतनी मेहनत की है तूने। पी ले। ला प्याला ले आ अपना। इससे बड़ा कोई पुण्य है क्या? मजे करो। ऐश करो। और है ही क्या इस दुनिया में। क्या ले जाना है?

खींच के उसे भी गिलास थमा दिया।

फिर जाम से जाम टकराते रहे और खाली होते रहे…भरे जाते रहे… 

अंधेरा गहरा होता गया। नशा भी चढ़ा और चढ़ता गया। वहां बैठे बैठे मुझे लगा कि ऐसे अंधेरे में, ऐसे नशे में,,,किसको खबर है कि कौन मर गया है…सचमुच किसे पता चलता है कि कौन मर गया है…?

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हम ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी  एक विचारणीय लघुकथा हम।)

☆ लघुकथा – हम ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

बचपन में मैं इस जंगल में कई बार आया था। तब यह जंगल सघन था, इतना कि धूप की पहुँच धरती तक बमुश्किल ही हो पाती थी; और आज पेड़ इतने विरल कि जंगल को जंगल कहते डर लगता है। मैंने एक पेड़ से पूछा, “जंगल का यह हश्र कैसे हुआ?”

“पेड़ों का क़त्ल कौन कर सकता है- बारिश, बिजली, तूफ़ान, बाढ़, भूकंप या तुम?” पेड़ के पत्ते ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगे थे। लगा, जैसे तमाम गुज़रे हादसों को याद कर उनकी चेतना काँप रही हो।

“तुमने बताया नहीं?” पेड़ ने मेरी ख़ामोशी को झिंझोड़ा।

“पेड़ों का क़त्ल हम ही कर सकते हैं।” मैंने कहा।

“और पेड़ों को बचा कौन सकता है?”

“हम।” अचानक पेड़ की छाल में मेरे हाथों ने गीलापन महसूस किया और फिर वह गीलापन मेरे वजूद में उतरने लगा। तभी काँपती पत्तियों में से एक बहुत ताज़ा पत्ती मेरे कंधे पर आ गिरी।

– हरभगवान चावला

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